2. च िंतियमच िंतियिं वा, अद्धिं च िंतियमणेयभेयगयिं।
मणपज्जविं ति उच्चइ, जिं जाणइ ििं खु णिलाेए॥438॥
अर्थ - च िंतिि अाि अच िंतिि अाि अर्थच िंतिि - एेसे जाे
अनेक भेदवाले अन्य जीव के मन मेिं प्राप्ि हुये अर्थ,
उसकाे जाे जाने, वह मन:पयथयज्ञान ह।
मन: अर्ाथि् अन्य जीव के मन मेिं च िंिवनरूप प्राप्ि हुअा
अर्थ, उसकाे पयेथति अर्ाथि् जाने, वह मन:पयथय ह, एेसा
कहिे हिं।
इस ज्ञान की उत्पत्ति मनुष्यक्षेत्र मेिं ही ह, बाह्य नहीिं ह
॥438॥
3. मन:पयथयज्ञान
भूि मेिं
च िंिन ककया हाे
च िंतिि
विथमान मेिं
च िंिन ककया जा िहा ह
अद्धथच िंतिि
भकवष्य मेिं
च िंिन ककया जायेगा
अच िंतिि
4. •अन्य जीव के मन मेिं
च िंिवनरूप प्राप्ि हुअा अर्थ
मन:
•जानिा ह,पयेथति
वह मन:पयथय ज्ञान ह ।
5. उत्पत्ति स्र्ान •द्रव्यमन स्स्र्ि अात्मप्रदेश
कब जान सकिे
?
•ककसी के द्वािा पूछने पि अर्वा कबना पूछे भी
स्वामी
* छठे से बािहवेिं गुणस्र्ानविीथ सिंयमी हाे,
* 7 ऋद्धद्धयाेिं मेिं से कम-से-कम 1 ऋद्धद्धर्ािी हाे,
* वर्थमान ारित्र सहहि हाे
कवषय
* पुद्गल द्रव्य
* पुद्गल के सिंबिंर् से युक्त सिंसािी जीव
6. मणपज्जविं दुकवहिं, उजुकवउलमदद त्ति उजुमदी तिकवहा।
उजुमणवयणे काए, गदत्र्कवसया त्ति द्धणयमेण॥439॥
अर्थ - मन:पयथय दाे प्रकाि का ह - ऋजुमति एविं
कवपुलमति।
ऋजुमति के भी िीन भेद हिं-ऋजुमनाेगिार्थकवषयक,
ऋजुव नगिार्थकवषयक, ऋजुकायगिार्थकवषयक।
पिकीयमनाेगि हाेने पि भी जाे सिलिया मन, व न,
काय के द्वािा ककया गया हाे एेसे पदार्थ काे कवषय किने
वाले ज्ञान काे ऋजुमति कहिे हिं। अिएव सिल मन,
व न, काय के द्वािा ककये हुए पदार्थ काे कवषय किने की
अपेक्षा ऋजुमति के पूवाेथक्त िीन भेद हिं ॥439॥
11. दाेनाेिं ही मन:पयथयज्ञानी
शब्द अर्वा अर्थ काे
प्राप्िकि कायथ कििे हिं ।
अर्ाथि् मन:पयथयज्ञानी के तनकट
काेई पूछे अर्वा मान खड़ा िहे,
िाे वे मन:पयथयज्ञानी ित्सिंबिंर्ी कवषय काे
जान लेिे हिं ।
12. तियकालकवसयरूकविं, च िंतियिं वट्टमाणजीवेण।
उजुमददणाणिं जाणदद, भूदभकवस्सिं कवउलमदी॥441॥
अर्थ - तत्रकालसिंबिंर्ी पुद्गल द्रव्य काे विथमान काल मेिं
काेई जीव च िंिवन कििा ह, उस पुद्गल द्रव्य काे
ऋजुमति मन:पयथयज्ञान जानिा ह।
पुनश्च तत्रकाल सिंबिंर्ी पुद्गल द्रव्य काे ककसी जीव ने
अिीि काल मेिं च िंिवन ककया र्ा या विथमान काल मेिं
च िंिवन कि िहा ह वा अनागि काल मेिं च िंिवन किेगा
एेसे पुद्गल द्रव्य काे कवपुलमति मन:पयथयज्ञान जानिा ह
॥441॥
13. ऋजुमति मन:पयथय
ककसी जीव के द्वािा
विथमान काल मेिं
तत्रकाल कवषयक पुद्गल
द्रव्य काे च िंिवन कीए
जाने पि जानिा ह ।
कवपुलमति मन:पयथय
ककसी जीव के द्वािा
भूि मेिं च िंतिि, विथमान मेिं
अद्धथच िंतिि, भकवष्य मेिं अच िंतिि
तत्रकाल सिंबिंर्ी पुद्गल द्रव्य काे
जानिा ह ।
14. सव्विंगअिंगसिंभव-च ण्हादुप्पज्जदे जहा अाेही।
मणपज्जविं दव्वमणादाे उप्पज्जदे द्धणयमा॥442॥
अर्थ - जसे भवप्रत्यय अवधर्ज्ञान सवथ अिंग से
उपजिा ह अाि गुणप्रत्यय शिंखाददक च हाेिं से
उपजिा ह; िसे मन:पयथयज्ञान द्रव्यमन से
उपजिा ह। तनयम से अन्य अिंगाेिं के प्रदेशाेिं मेिं
नहीिं उपजिा ॥442॥
15. हहदद हाेदद हु दव्वमणिं, कवयससयअट्ठच्छदािकविंदिं वा।
अिंगाेविंगुदयादाे, मणवग्गणखिंर्दाे द्धणयमा॥443॥
अर्थ - वह द्रव्यमन हृदयस्र्ान मेिं प्रफु धिि अाठ
पिंखुड़ी के कमल के अाकाि का, अिंगाेपािंग
नामकमथ के उदय से मनाेवगथणा नामक स्किं र्ाेिं से
उत्पन्न हाेिा ह — एेसा तनयम ह ॥443॥
16. द्रव्यमन का स्वरूप
स्र्ान दयस्र्ान
अाकाि कवकससि अाठ पिंखुड़ी के कमलरूप
तनचमि अिंगाेपािंग नामकमथ का उदय
ककससे तनचमथि पाद्गचलक मनाेवगथणारूप पुद्गल स्किं र् से
अन्य नाम नाेइन्द्न्द्रय (ककिं च ि् इन्द्न्द्रय)
इनमेिं तनचमि
* मन:पयथय
* भावमन
17. णाेइिंददयिं ति सण्णा, िस्स हवे सेसइिंददयाणिं वा।
वििाभावादाे, मणमणपज्जिं ित्र् हवे॥444॥
अर्थ - इस द्रव्यमन की नाेइन्द्न्द्रय सिंज्ञा भी ह,
काेिंकक दूसिी इन्द्न्द्रयाेिं की ििह यह व्यक्त नहीिं
ह। इस द्रव्यमन के तनचमि से भावमन िर्ा
मन:पयथयज्ञान उत्पन्न हाेिा ह ॥444॥
18. द्रव्यमन काे नाेइन्द्न्द्रय भी कहिे हिं
कयाेिंकक शेष इन्द्न्द्रयाेिं की भािंति
इसके व्यकििा का अभाव ह ।
इससे भावमन व मन:पयथयज्ञान
उत्पन्न हाेिा ह ।
19. मणपज्जविं णाणिं, सिसु कविदेसु सिइड्ढीणिं।
एगाददजुदेसु हवे, वड्ढिंिकवससट्ठ िणेसु॥445॥
अर्थ - प्रमिादद क्षीणकषाय पयथन्ि साि गुणस्र्ानाेिं
मेिं से ककसी एक गुणस्र्ानवाले के , इस पि भी साि
ऋद्धद्धयाेिं मेिं से कम-से-कम ककसी भी एक ऋद्धद्ध काे
र्ािण किनेवाले के , ऋद्धद्धप्राप्ि मेिं भी वर्थमान िर्ा
कवशशष्ट ारित्र काे र्ािण किनेवाले के ही यह
मन:पयथयज्ञान उत्पन्न हाेिा ह ॥445॥
21. इिंददयणाेइिंददयजाेगाददिं पेन्द्कखिु उजुमदी हाेदद।
द्धणिवेन्द्कखय कवउलमदी, अाेहहिं वा हाेदद द्धणयमेण॥446॥
अर्थ - ऋजुमति मन:पयथयज्ञान ह, वह अपने वा
अन्य जीव के स्पशथनाददक इन्द्न्द्रय अाि नाेइन्द्न्द्रय
(मन) अाि मन, व न, काय याेग इनके सापेक्ष
उपजिा ह।
पुनश्च कवपुलमति मन:पयथय ह, वह अवधर्ज्ञान की
ििह उनकी अपेक्षा कबना ही तनयम से उपजिा ह
॥446॥
22. ऋजुमति
मन:पयथयज्ञान
अपने अाि अन्य के
इन्द्न्द्रय, मन, याेग अादद
की अपेक्षा से
उत्पन्न हाेिा ह ।
कवपुलमति
मन:पयथयज्ञान
कबना इन्द्न्द्रय, मन, याेग
अादद की अपेक्षा से
अवधर्ज्ञान की ििह
उत्पन्न हाेिा ह ।
23. पदड़वादी पुण पढमा, अप्पदड़वादी हु हाेदद कवददया हु।
सुद्धाे पढमाे बाेहाे, सुद्धििाे कवददयबाेहाे दु॥447॥
अर्थ - ऋजुमति प्रतिपािी ह; कवपुलमति सवथर्ा
अप्रतिपािी ह िर्ा
ऋजुमति शुद्ध ह अाि कवपुलमति इससे भी शुद्ध
हाेिा ह अर्ाथि् दाेनाेिं मेिं कवपुलमति की कवशुद्धद्ध
प्रतिपक्षी कमथ के क्षयाेपशम कवशेष के कािण अधर्क
ह ॥447॥
25. पिमणसस ट्ट्ठयमट्ठिं, ईहामददणा उजुट्ट्ठयिं लहहय।
पच्छा पच्चकखेण य, उजुमददणा जाणदे द्धणयमा॥448॥
अर्थ - पि जीव के मन मेिं सिलपने च िंिवनरूप
स्स्र्ि जाे पदार्थ, उसे पहले िाे ईहा नामक मतिज्ञान
से प्राप्ि हाेकि एेसा कव ाि कििा ह कक अिे !
इसके मन मेिं का ह ? पश्चाि् ऋजुमति मन:पयथयज्ञान
से उस अर्थ काे प्रत्यक्षपने से ऋजुमति मन:पयथयज्ञानी
जानिा ह, एेसा तनयम ह ॥448॥
26. पि जीव के मन
मेिं स्स्र्ि च िंिकवि
पदार्थ काे
पहले ईहा
मतिज्ञानपूवथक जानिा
ह कक ‘इसके मन मेिं
कया ह’
कफि
ऋजुमतिमन:पयथय
ज्ञान द्वािा उस
अर्थ काे प्रत्यक्ष
जानिा ह ।
ऋजुमति मन:पयथय ज्ञानी
27. च िंतियमच िंतियिं वा, अद्धिं च िंतियमणेयभेयगयिं।
अाेहहिं वा कवउलमदी, लहहऊण कवजाणए पच्छा॥449॥
अर्थ - कवपुलमति मन:पयथयज्ञान च न्द्न्िि, अच न्द्न्िि
अर्वा अर्थच न्द्न्िि एेसा दूसिे के मन मेिं स्स्र्ि अनेक
भेद सहहि अर्थ, उसकाे पहले प्राप्ि हाेकि ‘उसके
मन मेिं यह ह’ एेसा जानिा ह। पश्चाि् अवधर्ज्ञान की
ििह कवपुलमति मन:पयथयज्ञान उस अर्थ काे प्रत्यक्ष
जानिा ह ॥449॥
28. च िंतिि अद्धथच िंतिि अच िंतिि
अवधर्ज्ञान की भािंति
उस अर्थ काे प्रत्यक्ष देखिे हिं ।
अर्थ काे प्राप्ि कि
कवपुलमति मन:पयथय ज्ञानी
29. दव्विं खेििं कालिं, भाविं पदड़ जीवलन्द्कखयिं रूकविं।
उजुकवउलमदी जाणदद, अविवििं मन्द्ज्िमिं िहा॥450॥
अर्थ - द्रव्य प्रति, क्षेत्र प्रति, काल प्रति वा भाव
प्रति जीव द्वािा लसक्षि अर्ाथि् च िंिवन ककया हुअा जाे
रूपी पुद्गल द्रव्य वा पुद्गल के सिंबिंर् से युक्त
सिंसािी जीव द्रव्य उसकाे जघन्य, मध्यम, उत्कृ ष्ट भेद
से ऋजुमति वा कवपुलमति मन:पयथयज्ञान जानिा ह
॥450॥
30. मन:पयथयज्ञान
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मयाथदा सहहि
जीव के द्वािा च िंिवन ककये हुए
रूपी पुद्गल द्रव्य काे िर्ा
पुद्गल-सिंबिंर् से युक्त सिंसािी जीव काे
जानिा ह ।
32. ऋजुमति मन:पयथय ज्ञान की द्रव्य मयाथदा
•अादारिक शिीि की तनजथिारूप
समयप्रबद्ध
जघन्य
•नेत्र इन्द्न्द्रय की तनजथिारूप द्रव्यउत्कृ ष्ट
जघन्य द्रव्य से उत्कृ ष्ट द्रव्य का प्रमाण असिंख्यािगुणा हीन स्कन्र् ह ।
33. मणदव्ववग्गणाणम-णिंतिमभागेण उजुगउककस्सिं।
खिंदड़दमेििं हाेदद हु, कवउलमददस्सावििं दव्विं॥452॥
अर्थ - मनाेद्रव्यवगथणा के जजिने कवकल्प हिं, उसमेिं
अनिंि का भाग देने से लब्र् एक भागप्रमाण ध्रुवहाि
का ऋजुमति के कवषयभूि उत्कृ ष्ट द्रव्यप्रमाण मेिं भाग
देने से जाे लब्र् अावे उिने द्रव्य स्कन्र् काे
कवपुलमति जघन्य की अपेक्षा से जानिा ह ॥452॥
35. अट्ठण्हिं कम्माणिं, समयपबद्धिं कवकवस्ससाेव यम्।
र्ुवहािेद्धणगगवाििं, भजजदे कवददयिं हवे दव्विं॥453॥
अर्थ - कवस्रसाेप य से िहहि अाठ कमाेों के
समयप्रबद्ध का जाे प्रमाण ह उसमेिं एक बाि
ध्रुवहाि का भाग देने से जाे लब्र् अावे उिना
कवपुलमति के हद्विीय द्रव्य का प्रमाण हाेिा ह
॥453॥
37. िहव्वददयिं कप्पाणमसिंखेज्जाणिं समयसिंखसमिं।
र्ुवहािेणवहरिदे, हाेदद हु उककस्सयिं दव्विं॥454॥
अर्थ - असिंख्याि कल्पाेिं के जजिने समय
हिं उिनी बाि कवपुलमति के हद्विीय द्रव्य मेिं
ध्रुवहाि का भाग देने से कवपुलमति के
उत्कृ ष्ट द्रव्य का प्रमाण तनकलिा ह ॥454॥
38. =
हद्विीय भेद
ध्रुवहार
िृिीय भेद
=
तृतीय भेद
ध्रुवहार
िुर्थ भेद
इस प्रकाि क्रम से असिंख्याि कल्पकाल के जजिने समय हिं उिनी बाि
ध्रुवहाि का भाग लगाने पि उत्कृ ष्ट द्रव्य का प्रमाण अािा ह ।
39. कवपुलमति का उत्कृ ष्ट द्रव्य
कवपुलमति का हद्विीय भेद
(ध्रुवहार)असंख्यात कल्पकाल
40. गाउयपुर्िमवििं, उककस्सिं हाेदद जाेयणपुर्ििं।
कवउलमददस्स य अवििं, िस्स पुर्ििं वििं खु णिलाेयिं॥455॥
अर्थ - ऋजुमति का जघन्य क्षेत्र गव्यूतिपृर्कत्व –
दाे-िीन काेस अाि उत्कृ ष्ट याेजनपृर्कत्व - साि अाठ
याेजन ह।
कवपुलमति का जघन्य क्षेत्र पृर्कत्वयाेजन – अाठ-
नव याेजन िर्ा उत्कृ ष्ट क्षेत्र मनुष्यलाेक प्रमाण ह
॥455॥
41. मन:पयथय की क्षेत्र की मयाथदा
ऋजुमति
पृर्कत्व काेस (2-3
काेस)
पृर्कत्व याेजन (7-8
याेजन)
कवपुलमति
पृर्कत्व याेजन (8-9
याेजन)
मनुष्य लाेक
जघन्य
उत्कृ ष्ट
42. णिलाेएत्ति य वयणिं, कवकखिंभद्धणयामयिं ण वट्टस्स।
जम्हा िग्घणपदििं, मणपज्जवखेिमुदद्दट्ठिं॥456॥
अर्थ - मन:पयथय के उत्कृ ष्ट क्षेत्र का प्रमाण जाे निलाेक
प्रमाण कहा ह साे यहााँ निलाेक इस शब्द से मनुष्यलाेक
का कवष्कम्भ (व्यास) ग्रहण किना ाहहये न कक वृि,
काेिंकक मानुषाेिि पवथि के बाहि ािाेिं काेणाेिं मेिं स्स्र्ि
तियों अर्वा देवाेिं के द्वािा च िंतिि पदार्थ काे भी कवपुलमति
जानिा ह; कािण यह ह कक मन:पयथयज्ञान का उत्कृ ष्ट क्षेत्र
ऊाँ ाई मेिं कम हाेिे हुए भी सम िुिस्र घनप्रििरूप
पिंिालीस लाख याेजन प्रमाण ह ॥456॥
43. 1 लाख 40 याेजन
45 लाख याेजन
45 लाख याेजन
45 लाख
याेजन
मनुष्य
लाेक
कवपुलमति मन:पयथय ज्ञान का उत्कृ ष्ट क्षेत्र
44. दुग-तिगभवा हु अवििं, सिट्ठभवा हविंति उककस्सिं।
अड़-णवभवा हु अविमसिंखेज्जिं कवउलउककस्सिं॥457॥
अर्थ - काल की अपेक्षा से ऋजुमति का कवषयभूि
जघन्य काल दाे-िीन भव िर्ा उत्कृ ष्ट साि-अाठ भव
ह।
इसी प्रकाि कवपुलमति का जघन्य काल अाठ-ना
भव िर्ा उत्कृ ष्ट पल्य के असिंख्यािवेिं भागप्रमाण भव
हिं ॥457॥
45. मन:पयथय की काल की मयाथदा
ऋजुमति
2-3 भव
7-8 भव
कवपुलमति
8-9 भव
पल्य
∂
जघन्य
उत्कृ ष्ट
* अिीि-अनागि 2 भव, विथमान काे चमलाकि 3 भव । इसी प्रकाि सभी भेदाेिं मेिं समिना ।
46. अावचलअसिंखभागिं, अवििं वििं विमसिंखगुणिं।
ििाे असिंखगुद्धणदिं, असिंखलाेगिं िु कवउलमदी॥458॥
अर्थ - भाव की अपेक्षा से ऋजुमति का जघन्य िर्ा
उत्कृ ष्ट कवषय अावली के असिंख्यािवेिं भागप्रमाण ह,
िर्ाकप जघन्य प्रमाण से उत्कृ ष्ट प्रमाण असिंख्याि
गुणा ह।
कवपुलमति का जघन्य प्रमाण ऋजुमति के उत्कृ ष्ट
कवषय से असिंख्यािगुणा ह अाि उत्कृ ष्ट कवषय
असिंख्याि लाेक प्रमाण ह ॥458॥
47. मन:पयथय की भाव की मयाथदा
ऋजुमति
आवली
असंख्यात × असंख्यात
आवली
असंख्यात
कवपुलमति
आवली
असंख्यात
(ऋजुमति के उत्कृ ष्ट से
असिंख्याि गुणा)
असंख्यातलोक
जघन्य
उत्कृ ष्ट
48. मन्द्ज्िम दव्विं खेििं, कालिं भाविं मन्द्ज्िमिं णाणिं।
जाणदद इदद मणपज्जव-णाणिं कहहदिं समासेण॥459॥
अर्थ - इसप्रकाि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का
जघन्य अाि उत्कृ ष्ट प्रमाण बिाया। इनके मध्य के
जजिने भेद हिं उनकाे मन:पयथयज्ञान के मध्यम भेद
कवषय कििे हिं। इस ििह सिंक्षेप से मन:पयथयज्ञान
का तनरूपण ककया ॥459॥
49.
50. सिंपुण्णिं िु समग्गिं, के वलमसवि सव्वभावगयिं।
लाेयालाेयकवतिचमििं, के वलणाणिं मुणेदव्विं॥460॥
अर्थ - यह के वलज्ञान सम्पूणथ, समग्र,
के वल, प्रतिपक्षिहहि, सवथपदार्थगि अाि
लाेकालाेक मेिं अन्र्काि िहहि हाेिा
ह॥460॥
51. के वलज्ञान
•जीव द्रव्य के शचक्तरूप सवथ ज्ञान के
अकवभागप्रतिच्छेदाेिं की व्यक्तिा
सम्पूणथ
•माेहनीय अाि वीयाथन्ििाय कमथ के सवथर्ा
नाश से अप्रतिहि शचक्त एविं तनश् ल
समग्र
•इन्द्न्द्रयाेिं की सहायिा से िहहिके वल
52. •प्रतिपक्षी 4 घातिकमथ के नाश से
अनुक्रमिहहि
असपत्न
(प्रतिपक्ष िहहि)
•सकल पदार्ाेों काे प्राप्िसवथपदार्थगि
•लाेकालाेक मेिं अज्ञान-अिंर्काििहहि
प्रकाशमान
लाेकालाेक मेिं
अिंर्काि िहहि
के वलज्ञान
53. दुगददमददसुदबाेहा, पिासिंखेज्जया हु मणपज्जा।
सिंखेज्जा के वचलणाे, ससद्धादाे हाेिंति अतिरििा॥461॥
अर्थ - ािाेिं गति सिंबिंर्ी मतिज्ञातनयाेिं का अर्वा
श्रुिज्ञातनयाेिं का प्रमाण पल्य के असिंख्यािवेिं भाग
प्रमाण ह ।
मन:पयथयज्ञान वाले जीव सिंख्याि हिं िर्ा
के वचलयाेिं का प्रमाण ससद्धिाशश से कु छ अधर्क ह
॥461॥
54. सम्यग्ज्ञानी जीवाेिं की सिंख्या
मतिज्ञानी-
श्रुिज्ञानी
•
पल्य
असंख्यात
मन:पयथयज्ञानी •सिंख्याि
के वलज्ञानी
• ससद्ध + अिहिंि
= अनन्ि + सिंख्याि
= अनन्ि
= ससद्धाेिं से कु छ अधर्क
55. अाेहहिहहदा तिरिकखा, मददणाद्धणअसिंखभागगा मणुगा।
सिंखेज्जा हु िदूणा, मददणाणी अाेहहपरिमाणिं॥462॥
अर्थ - अवधर्ज्ञान िहहि तियथञ्च मतिज्ञातनयाेिं की
सिंख्या के असिंख्यािवेिं भागप्रमाण हिं अाि
अवधर्ज्ञान िहहि मनुष्य सिंख्याि हिं िर्ा इन
दाेनाेिं ही िाशशयाेिं काे मतिज्ञातनयाेिं के प्रमाण मेिं से
घटाने पि जाे शेष िहे उिना ही अवधर्ज्ञातनयाेिं
का प्रमाण ह ॥462॥
56. अवधर्ज्ञानी जीव
= 4 गति के अवधर्ज्ञानी
= सम्पूणथ नािकी
अवधर्ज्ञानी
+ तियों
अवधर्ज्ञानी
+ मनुष्य
अवधर्ज्ञानी
+ सम्पूणथ देव
अवधर्ज्ञानी
=
पल्य
असंख्यात
+ (मततज्ञानीततयंच
‒ मततज्ञानी ततयंच
असंख्यात
)
+ सिंख्याि +
पल्य
असंख्यात
=
पल्य
असंख्यात
अर्वा
मततज्ञानी
असंख्यात
× (असिंख्याि ‒ 1)
57. अर्ाथि् मतिज्ञातनयाेिं का असिंख्याि बहुभाग
अवधर्ज्ञानी ह ।
* सम्यग्ृधष्ट तियों ाेिं मेिं बहुभाग जीवाेिं काे
अवधर्ज्ञान ह ।
* मतिज्ञातनयाेिं से अवधर्ज्ञानी कम ही हिं ।
58. पिासिंखघणिंगुल-हदसेद्धणतिरिकखगददकवभिंगजुदा।
णिसहहदा ककिं ूणा, दुगददवेभिंगपरिमाणिं॥463॥
अर्थ - पल्य के असिंख्यािवेिं भाग से गुद्धणि घनािंगुल
का अाि जगच््रेणी का गुणा किने से जाे िाशश उत्पन्न
हाे उिने तियथञ्च अाि सिंख्याि मनुष्य, घनािंगुल के
हद्विीय वगथमूल से गुद्धणि जगच््रेणी प्रमाण सम्यकत्व
िहहि नािकी िर्ा सम्यग्ृधष्टयाेिं के प्रमाण से िहहि
सामान्य देविाशश, इन ािाेिं िाशशयाेिं के जाेड़ने से जाे
प्रमाण हाे उिने कवभिंगज्ञानी हिं ॥463॥
59. कवभिंगज्ञानी जीवाेिं का प्रमाण
ािाेिं गतियाेिं के कवभिंगज्ञातनयाेिं का जाेड़
= देव कु ल देव ‒ सम्यग्ृधष्ट देव
+ नािकी कु ल नािकी ‒ सम्यग्ृधष्ट नािकी
+ मनुष्य सिंख्याि
+ तियों
पल्य
असंख्यात
× घनािंगुल × जगिश्रेणी
= कवभिंगज्ञानी देवाेिं से कु छ अधर्क
60. सण्णाणिाससपिं य-परिहीणाे सव्वजीविासी हु।
मददसुद-अण्णाणीणिं, पिेयिं हाेदद परिमाणिं॥464॥
अर्थ - पााँ सम्यग्ज्ञानी जीवाेिं के प्रमाण काे
(के वचलयाेिं के प्रमाण से कु छ अधर्क) सम्पूणथ
जीविाशश के प्रमाण मेिं से घटाने पि जाे शेष िहे
उिने कु मतिज्ञानी िर्ा उिने ही कु श्रुिज्ञानी जीव
हिं ॥464॥
61. कु मति-कु श्रुिज्ञानी जीवाेिं का प्रमाण
सवथ जीविाशश ‒ 5 सम्यग्ज्ञानी जीव
= सिंसािी िाशश से कु छ कम
(सिंृधष्ट १३-)