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भावना ही सवोपरि है।
(श्रीमद्भगवद्गीता – 4/16, 8/5-7, 9/26, 10/4-5, 17/11,
18/45, और 18/69) और ब्रह्मॠषि बाबारामस्नेही के वचन
बिना सद्भावना के कु छ भी फ़लदायक नहीीं होता। भावना ही श्रद्धा है।
शुभ-कर्म, पाप-कर्म, ज्ञान-दान सि िेकाि - यदद भाव सत नहीीं है, प्रेर्
भाव नहीीं है, भावना सवम-दहतार्म नहीीं है, औि परिणार्गत नहीीं है।
श्रीिािा के गुरुर्न्त्र (फ़,र्,ि,ल)का भी यही िहस्य र्ा
• श्रीिािा जि आर् के पेड़ के तले नार्-ध्यान र्ें िर्े हुए र्े, ति एक पुरुष अींग्रेजी कपड़े पहने
उस पेड़ पि उड़ते हुए आ िैठे र्े, जजनको श्रीिािा ने “पुरुष गुरु” नार् से सम्िोधधत ककया है
(नर्मदा-तट्…पृ4)। इस र्न्त्र का पहला अक्षि र्ा ‘फ़’ – याने फ़ना होजा, अपने-आपको पूिा-
पूिा ईश्वि को सर्र्पमत कि दे। तत्पश्चात अगले ही ददन ईश्वि ने श्रीिािा की भावना जाींचने
हेतु आदेश ककया कक वे घि वपस चले जायीं…िहुत जििी ििसात भी ििसायी। ककन्त्तु श्रीिािा
ने अपनी भावना को अततशय दृढ़ कि ददखाया औि ईश्वि के इजम्तहान र्ें पास हो गये।
• अतः भावना या तनश्चयात्र्क िुद्धध पिर्ेश्वि की ओि जाने र्ें, ज्ञान-प्राजतत र्ें, अततशय
र्हत्वपूणम औजाि है जो एक जजज्ञासु के अपने ही अधधकाि र्ें, अपने ही वश र्ें है। गीता र्ें
भी भावना को र्हान िताया है औि यही लक्ष्य है इस PowerPoint Presentation की
अभभव्यजतत र्ें भी। यह जून-जुलाई अधधकर्ास काल है, इस काल र्ें गुरुर्हािाज को र्वशेष
रूप से याद किना चादहये।
‘चेतसा सववकमावणि मयि सन्नन्निस्ि’
(श्रीमद्भगवद्गीता – 18/57)
• यह दृढ़ धचत्त से र्ान ले कक र्न-िुद्धध-इजन्त्ियााँ-शिीिादद चौबीस-पदार्म तर्ा इस
सींसाि के व्यजतत, पदार्म, घटना, परिजस्र्तत आदद सि के र्ाभलक भगवान ही है,
इनर्ें से कोई भी चीज र्ेिी अपनी व्यजततगत नहीीं है। र्ुझे के वल इन वस्तुओीं का
सदुपयोग किने का अधधकाि ही भर्ला है।
• अि र्ुझे जो किना है वो ये है कक इन वस्तुओीं के उपयोग के अधधकाि को भी र्ैं
भगवान को अपमण कि दूाँ। कफ़ि इस शिीि-सर्ुदाय से जो कु छ शास्र-र्वदहत
साींसारिक या पािर्ाधर्मक कियाएाँ होती है, वे सि भगवान की र्िजी से ही होती
है। इन कियाओीं र्ें जो कु छ अपनापन आ जाये उसे तत्काल भगवान को अपमण
कि देना है, उसर्ें कण-र्ार चतुिाई भी नहीीं िितनी है, हााँ।
के वल भाव ही र्ेिा अपना है (18/45)
(शुि है, कु छ तो र्ेिा है)
• मेरा अगर कु छ है, तो वह के वल भाव है; अगि भाव तनष्कार्ी हो गया, प्रीतत-
पूवमक, तत्पिता-पूवमक, अधीनता-पूवमक, भगवान की पसन्त्द्गी-पूवमक हो गया, तो र्ेिी
हि सेवा भसद्ध हो गई ।
• वास्तव र्ें ‘कर्म’ की प्रधानता नहीीं है िजकक सािा खेल ‘भाव’ का है। ‘भाव’ में ही
दैवी िा आसुरी सम्पदा की मुख्िता होती है।
• कमव में वणम की र्ुख्यता है, ककन्त्तु भाव र्ें दैवी- या आसुिी-सींपदा की र्ुख्यता
होती है।
सि नीयत का खेल है (9/26, 18/48)
• भगवान भाव के ही भूखे है, पेट के नहीीं। भाववश यदद पर, पुष्प जैसे न खाने
योग्य पदार्म अर्पमत ककये जायीं तो उन्त्हे प्रकट होकि खा भी लेते है (9/26)। र्वदुिानी
ने अततशय उमंग-भाव (एक प्रकाि का साजत्वक भाव) र्ें भूल से के ले का तछलका
अपमण ककया तो उसे ही खा गये। र्वदुिजी ने आकि के ला खखलाया तो कहा, “तछलका
ज्यादा स्वाददष्ट र्ा”।
• तनकृ ष्ट सर्झे जाने वाले कर्म को भी उत्कृ ष्ट-भाव से किना चादहये। भले ही सभी
प्रकाि के स्वकर्म र्ें दोष हों, पि यह दोष लगता नहीीं है, यदद कार्ना, सुख-िुद्धध,
भोग-िुद्धध से न ककया जाये। (भतत-भशिोर्खण-गण – सदना कसाई, पिर्ेष्ठी दजी,
िघु के वट, िार्दास चर्ाि आदद)। सब कु छ कताव की नीित का खेल है ।
र्न-सदहत प्रत्येक ज्ञानेजन्त्िय
8 प्रकाि के साजत्वक भाव से ओत-प्रोत है।
(8 प्रकार के बादल, 8 प्रकार की प्रज्ञा, 8 भेद-वाली त्वचा, 8 प्रकार की सूक्ष्म वािी - तनज+मनज वािी - Non-
Verbal Communication)
1. शान्त्त-भाव - स्तम्भवत, स्तब्ध-वत होजाना, शािीरिक कियाएाँ, गततवीधधयााँ न्त्यूनतर् हो जाये।)
2. दास्य-भाव – तनढ़ाल होकि साष्टाींग-वत प्रणार् कि देना।, पूणम शिणागत हो जाना।
3. सख्य-भाव – दोस्ती के भाव र्ें, त्याग-भाव का उभि जाना। (भगवान का अजुमन के प्रतत प्रेर्**)
4. वात्सकय-भाव –भगवान को िाल-र्ुकु न्त्द रूप र्ें देखना, छोटी-से-छोटी िात का भी ध्यान िखना।
5. र्धुि-भाव -
6. तन्त्र्य-भाव
7. अश्रुपूरित-भाव -
8. कण्ठाविोध-भाव (स्वि-भींग भाव) – भावावेश के कािण गला रुींध जाता है।
जजतने भाव प्रकट होते है, उतनी गुरु-कृ पा
9. स्वेद भाव (पसीना-पसीना हो जाना)
10.प्रलय-भाव (अनुकू लता-प्रततकू लता से टोटल उपितत)
11.कम्पायर्ान-भाव (शिीि काींपने लगे, र्विह-भाव)
12.पुलककत भाव (पुलक भाव) िोर्ाींच हो जाना, िोंगटे खड़े जो जाना।
13.अततशय उर्ींग, आपा खो देनेवाली उर्ींग, नशा, िेहोशी, सुध-िुध खो देना।
14.इन्त्तजाि, िेकिािी का भाव्।
भगवान के वल प्रेर्र्य, साजत्वक भाव
के लालची है, र्न्त्र, र्वधध-र्वधान के नहीीं।
• पूणम शुद्धता से भी िोले गये वेद-र्न्त्रो की कोई कीर्त
नहीीं, पि गलत िोले हुए र्न्त्र भी यदद साजत्वक भाव से
िोले गये हो तो भगवान को र्ोदहत कि देतें है।
• The eight forms of Satvik changes/ecstasies that shake the
body and mind are:
• motionlessness, perspiration, horripilation, indistinctness of
speech, tremor, paleness, tears and loss of consciousness.
(श्रीर्द्भगवद्गीता – 4/16)
• भगवान ने शरीर, मन और वािी के द्वारा अहम-भाव से होने वाली क्रििाओं को
कमव माना है। याने स्र्ूल-, सूक्ष्र्-, औि कािण-शिीि – इन तीनो से लगाताि 24
घींटे कर्म िनते ही िहते है। अतः कमव बनते है के वल भाव के अनुसार्। जैसे कोई
साजत्वक कर्म कि िहा है लेककन उस सर्य उसके भाव िाजस या तार्स है, तो
वह कर्म भी िाजस या तार्स हो जाता है।
• As a Rule, सकार्ी शुभ-कर्म, पूजन आदद सि िाजस ही होते है।
ममता+आसक्तत+फ़लेच्छा से रहहत (यनर्लवप्त) कोई भी कमव क्रकिा जाि िा न
क्रकिा जाि, दोनो ही अकमव है, अर्ावत मुक्ततदािक है।
भसद्धान्त्त-पूणम व्यवहाि सिसे िड़ा तप है।
(भसद्धान्त्त से भाव शुद्ध होते है, अन्त्तःकिण शुद्ध होता है।)
• एक ईर्ानदाि व्यापािी (तुलाधािी) का दृष्टान्त्त (र्हाभाित, शाजन्त्तपवम) (॰॰) – घोि तपस्या से
भी श्रेष्ठ है ईर्ानदािी का व्यापाि, ईर्ानदािी का जीवन्।
• र्न के 9 गुण है – धैयम, तकम -र्वतकम र्ें कु शलता, स्र्िण, भ्राजन्त्त, ककपना, क्षर्ा, शुभ औि
अशुभ सींककप, औि चींचलता। (र्हाभाित शाजन्त्तपवम-तहत, र्ोक्षधर्म पवम, अध्याय 255/9)
• िुद्धध के 5 गुण है – इष्ट औि अतनष्ट वृर्त्तयों का नाश, र्वचाि, सर्ाधान, सींदेह औि
तनश्चय्।
• यदद कार् (‘कार्’ पद से सदैव अर्म कार्ना ही होता है) औि िोध को जीते जी नहीीं नष्ट
ककया तो, र्ृत्यु-काल र्ें ये दोनो अकस्र्ात प्रकट हो जाते है, ऐसा र्ृत्यु का र्वधान है (ibid –
अध्याय 258/
र्हर्षम जाजभल औि र्हात्र्ा तुलाधाि की कहानी
महाभारत (शान्ततपर्व-तहत मोक्ष-धमवपर्व अध्याय 261) में एक दृष्टातत आता है महातपस्र्ी जाजन्ि के दीर्वकािीन
तपस्या का और एक ईमानदार व्यापारी ‘महात्मा’ तुिाधार का। जाजन्ि ने न्नश्चि खड़े रहते कई र्र्षो तक न्नराहार,
न्नजवि रहते र्ोर तप ककया। इतनी न्नश्चिता देखकर एक गोरैया पन्क्ष ने उनको र्ृक्ष समझ न्िया और उनकी जटाओं में
र्ोंसिा बनाकर अण्डे कदये, उनको सेकर बच्चे हुए। जब बच्चे बड़े हो गये और उड़ना सीख गये और किर र्ापस अपने र्ोंसिे
में नहीं आये, उसके भी एक मन्हने बाद जाजन्ि ने अपनी न्नश्चिता तोड़ी। र्े स्र्यं अपनी तपस्या पर आश्चयव करने िगे
और अपने-आपको न्सद्ध समझने िगे। तभी आकाशर्ाणी हुई, “जाजन्ि तुम गर्व मत करो, काशी में रहनेर्ािे तुिाधार
र्ैश्य के समान तुम धार्मवक नहीं हो”। यह सुनकर जाजन्ि तुरतत काशी को चि पड़े। र्हााँ पहुंच कर देखा कक तुिाधार एक
साधारण बन्नया है और ग्राहको को तौि-तौि कर सौदा दे रहे है। जाजन्ि ने पूछा, “तुम तो एक साधारण बन्नये हो,
तुम्हे इतना ज्ञान कैसे प्राप्त होगया?” तुिाधार का जर्ाब – (1) ब्राह्मणदेर्, मै अपने र्णोन्चत धमव का सार्धानी-पूर्वक
पािन करता हाँ; (2) मैं न मध बेचता हाँ ना ही दूसरा कोई न्नन्तदत पदार्व बेचता हाँ; (3) तौि में और भार् में अपने ग्राहको
को कभी ठगता नहीं, चाहे बूढ़ा आये, चाहे बच्चा आये, चाहे भार्-मौि का जानकार आये, चाहे अजान आये, मैं उन्चत
भार् और उन्चत र्स्तु ही देता हाँ; (4) ककसी पदार्व में कोई दून्र्षत पदार्व नहीं न्मिाता; (5) ग्राहक की कठठनाई या
मजबूरी का िायदा नहीं उठाता, बन्कक उसकी यर्ोन्चत सेर्ा करना अपना कतवव्य समझता हाँ; (6) मैं राग और द्वेर्ष से
सदा ही अन्तदूर रहता हाँ, हहंसा-रन्हत कमव करता हाँ, सेर्ाभार्ी जीर्न बना हुआ है, सभी प्रान्णयों को समान दृन्ष्ट से
देखता हाँ और सबके न्हत की चेष्टा करता हाँ; (7) मैं आकाश की भांन्त असंग रहकर जगत के कायो की न्र्न्चत्रता देखता
हुआ दूसरो के कायो की न तो प्रसंशा करता हाँ न न्नतदा करता हाँ ।
तुलाधाि-जाजभल की कहानी-2
र्हात्र्ा तुलाधाि ने जाजभल द्वािा पूछने पि िताया कक दहींसा-युतत सभी यज्ञ परिणार्
र्ें अनर्मकािी होते है, चाहे वह दहींसा अपने शिीि के सार् ही तयों न किी गई हो,
कािण कक शिीि भी अपना नहीीं है, पिाया है, प्रभु की अर्ानत है। ऐसे दहींसात्र्क यज्ञो
र्ें भूलें अधधक होने की सम्भावना होती है औि र्ोड़ी सी भूल के भी िड़े र्वपिीत औि
गम्भीि परिणार् होते है। इसभलये अदहींसा ही उत्तर् धर्म है। प्राखणयों की दहींसा न किने
से जजस धर्म की भसद्धध होती है, उससे िढ़कि र्हान धर्म कोई नहीीं है। अदहींसा का
जादू ऐसा होता है कक उस र्हापुरुष से कोई भी प्राणी नहीीं डिता, ति कफ़ि वह भी
ककसी प्राणी से नहीीं डिता।
जो पक्षी जाजली की जटा र्ें पले-िड़े हुए र्े, वे िुलाने पि जाजभल के पास आ गये
औि उन्त्होने भी तुलाधाि द्वािा िताए हुए धर्म का अनुर्ोदन ककया। तनष्कषम:- जो
र्नुष्य सि जीवो का सुहृद होता है, औि र्न, वाणी तर्ा किया द्वािा सदा सिके दहत
र्ें लगा िहता है, वही वास्तव र्ें धर्म को जानता है।
4/16 continued
• कर्मयोग र्ें ‘कर्म’ है ही नहीीं, िजकक ‘सेवा’ ही है, जजसर्ें असींगता,
तनभलमततता औि त्याग की र्ुख्यता होती है। हााँ, सेवा औि त्याग – इन
दोनो र्ें र्ववेक की र्ुख्यता अवश्य होती है।
• जीव शुभ है और कमव अशुभ है, संसार और इसकी प्रत्िेक वस्तु अशुभ है।
• कार्ना से कर्म होते है। जि कार्ना अधधक िढ़ जाती है ति र्वकर्म
(पापकर्म) होते है। दूसिी तिफ़ सर्ता की अवस्र्ा है, समतापूववक क्रकिा
हुआ षवकमव भी अकमव हो जाता है। भगवान के अनुसार षवकमव कमव के
बहुत पास पड़ता है; तिोंक्रक कमो में कामना ही षवकमव का मुख्ि हेतु है।
श्रीर्द्भगवदगीता – 4/17
• पिन्त्तु कार्ना नष्ट होने पि सि कर्म अकर्म हो जाते है। ककसी कर्म र्ें
र्नुष्य अपना फ़ायदा सर्झता है, पि हो जाता है नुकसान्। वह सुख के
भलये किता है, पि भर्लता है दुःख (जजसे अतसि Thankless कायम कहा
जाता है)। इसका कािण यह है कक कतामपन औि फ़लेच्छा के भाव भीति र्ें
भिे पड़े है।
• भगवान के अनुसाि फ़लेच्छा तो दूि, आवश्यकता (स्पृहा) पूिी किने की
आशा तक न होवे, धन्त्यवाद की भी आशा न होवे, ति कहीीं जाकि
‘अकतावपन’ या ‘अकमव’ या ‘यनष्काम-कमव’ र्ाना जाता है।
‘अन्त्त र्तत सो गतत’ (8/5-7)
• र्नुष्य अन्त्तकाल र्ें जजस-जजस भाव का स्र्िण किते हुऐ शिीि त्यागता है, उस-उस
भाव को ही वह प्रातत होता है। यह जानकािी देकि भगवान यह भी भसद्ध कि िहे
है कक मनुष्ि के षवचार, भाव, संकल्प क्रकतने शक्ततमान है औि इनको चुनने-र्ार से
उसकी वही र्नोकार्ना पूिी हो भी जाती है तभी तो पूिी गीता र्ें भगवान िाि-िाि,
लगाताि कह िहे है कक अपनी सोच िदले तो तू र्ुझको भी पा सकता है। भसफ़म
धचन्त्तन का खेल है ये सािा, भावना का जगत है ये सािा।
• अन्त्त काल = प्रलयकाल, जो हि उस क्षण आता है, जि-जि तू सुजाग होने को,
भूल सुधािने को कृ त-सींककप होता िहता है। ऐसी आदत कफ़ि र्ृत्युकाल र्ें भी
कार् आती है। तनतिोज सोते वतत भी यह प्रलयकाल अवश्य आता है। श्रेष्ठ भाव
लेकि नीींद लेनी चादहये – sleep every day with LOFTY emotions (= भाव)।
भगवान की प्राजतत के वल भाव से होती है।
20 प्रकाि के भगवत्भाव (10/4-5)
1. ‘बुद्धि’ – तनश्चयात्र्क वृर्त्तयुतत िुद्धध। यह िुद्धध र्नुष्य को भगवान से भर्ली है।
2. ‘ज्ञान’ – साि-असाि, तनत्य-अतनत्य, सत-असत, ग्राह्य-अग्राह्य – ऐसा जो र्ववेक है, उसका नार् ज्ञान है। यह ज्ञान
(र्ववेक) र्ानवर्ार को भगवान से भर्ला है।
3. ‘असम्मोह’ – शिीि+सींसाि को उत्पर्त्त-र्वनासशील जानते हुए भी ‘र्ैं’ औि ‘र्ेिा’ पन िना िहे - ये है सम्मोह्। जि र्ै-र्ेिा
पन नहीीं िहता वह अवस्र्ा ‘असम्मोह’ वाली होती है (10|3)।
4. ‘क्षमा’ – अपनी सार्र्थयम िहते हुए भी ककसी के अपिाध को सह लेना औि उस अपिाधी को अपनी तिफ़ से इस लोक
र्ें औि पिलोक र्ें भी दण्ड न भर्ले – ऐसा र्वचाि किने का नार् ‘क्षमा’ है।
5. ‘सत्ि’ – जैसा सुना, देखा औि सर्झा वैसा ही भाषण किना। अपने स्वार्म औि अभभर्ान का त्याग किके तर्ा दूसिों
के दहत के भलये ठीक वैसा-का-वैसा कह देना ‘सत्ि’ है।
6. ‘दम:’ – इजन्त्ियों को अपने-अपने र्वषयों से हटाकि अपने वश र्ें कि लेने का नार् ‘दम’ है।
7. ‘शम:’ – र्न को साींसारिक भोगो तर्ा धचन्त्तन से हटाने का नर् ‘शम’ है।
• Continued…
8. ‘सुख दुःख’ – शिीि+इजन्त्ियों+र्न के अनुकू ल परिजस्र्तत के प्रातत होने पि जो हृदय र्ें
प्रसन्त्नता उत्पन्त्न होती है उसका नार् ‘सुख’ है।
9. प्रततकू ल परिजस्र्तत के प्रातत होने पि जो हृदय र्ें खखन्त्नता होती है, वह ‘दुःख’ कहलाता
है।
10. ‘उत्पषि षवनाश’ (भव अभाव) – साींसारिक वस्तु, व्यजतत, घटना, जस्र्तत, परिजस्र्तत, भाव
आदद के उत्पन्त्न होने का नार् ‘भव’ है
11. औि इन सि के लीन हो जाने का नार् ‘अभाव’ है – ‘भवोऽभाव:’।
12. ‘भि अभि’ – अपने आचिण, भाव, खयाल, र्वचाि आदद शास्र औि लोक-र्यामदा के
र्वरुद्ध होने से अन्त्तःकिण र्ें जो अतनष्ट की सम्भावना दीखती है, उसको ‘भि’ कहते
है।
13. इसके र्वपिीत स्र्तत को ‘अभि’ कहते है।
14. ‘अहहंसा’ – अपने तन, र्न औि वचन से ककसी भी देश, काल, परिजस्र्तत र्ें ककसी भी
प्राणीर्ार को दुःख न पहुींचाना।
15. ‘समता’ – तिह-तिह की अनुकू ल औि प्रततकू ल वस्तु, व्यजतत, घटना, परिजस्र्तत के प्रातत
होने पि अन्त्तःकिण र्ें कोई र्वषर्ता का उत्पन्त्न नहीीं होना, यह सर्ता कहा जाता है।
Continued…
16. ‘तुक्ष्ि’ (सन्त्तोष) – आवश्यकता ज्यादा िहने पि भी कर् भर्ले तो उसर्ें सन्त्तोष
कि लेना तर्ा औि भर्ले ऐसी इच्छा नहीीं िखना – इसका नार् ‘तुक्ष्ि’ है। भर्ले
या ना भर्ले, कर् भर्ले या ज्यादा भर्ले, हि हाल र्ें प्रसन्त्न िहना तुजष्ट है।
17. ‘तप’ – अपने कतमव्य का पालन किते जो कु छ कष्ट आ जाये, प्रततकू ल परिजस्र्तत
आ जाये, उन सिको प्रसन्त्नता-पूवमक सहने का नर् ‘तप’ है। एकादशी आदद का
व्रत भी एक तप होता है, सत्सींग र्ें तनत्य जाना भी एक तप होता है।
18. ‘दान’ – प्रत्युतकाि औि फ़ल की अणुर्ार इच्छा िखे िगैि अपनी शुद्ध कर्ाई
का दहस्सा सत्पार को देने का नार् दान है।
19. ‘िशोऽिश:’ – अच्छे आचिण, भाव औि गुणो को लेकि सींसाि र्ें नार् की प्रभसद्धध
होने को िश कहते है;
20. इसी प्रकाि यदद िुिे आचिण, भाव आदद को लेकि तनन्त्दा होती है, तो ‘अिश’ या
‘अपिश’ कहते है।
(श्रीर्द्भगवद्गीता – 17/11)
• भगवत्भाव िखकि हि प्रकाि का कतमव्य किते चलना चादहये, अपने
कु ल, वणम, देश आदद का ॠण सर्झ कि किते चलो। के वल कतमव्य-
र्ार सर्झकि कर्म किने से कताम का कर्म के सार् सम्िन्त्ध नहीीं
िहता, वह र्ुतत िहता है।
• कु छ भी कर्म किने से कताम का कर्म के सार् सम्िन्त्ध िहता है। कर्म
कताम से अलग नहीीं होता। कमव कताव का ही धचत्र होता है। जैसा कताम
होगा वैसा ही कर्म होगा, कािण कक उसकी श्रद्धा वैसी है (श्रद्िा की
Quality ≫ कताव की Quality ≫ कमव की Quality) (>>= Leads To)
(श्रीर्द्भगवद्गीता – 18/69)
• पराभक्तत र्ें उसे ही प्रयुतत सर्झना चादहये जजसर्ें प्राकृ त पदार्ो की् ककीं धचन्त्र्ार
भी र्हत्ता, भलतसा, औि र्ार आवश्यकता भी नहीीं है; िजकक के वल भाव, श्रद्धा औि
उत्कट अभभलाषा ही पिाभजतत के भलये पूणमरुपेण परिपूणम है।
• िहद ऐसे भगवद्भावी में मान-बड़ाई की भावना कभी आ भी जाि तो हिके गी नहीं।
IMP: भगवान का अत्िन्नत षप्रि-प्िारा बनने के र्लिे के वल मनुष्िों को ही
अधिकार है, ना क्रक देवताओं को।
• संसार में कामनाओं की प्राक्प्त कर लेना कोई बहादुरी की बात नहीं है; पिन्त्तु
कार्नाओीं का त्याग किके पिर्ात्र्ा की प्राजतत किने का अवसि तो के वल र्नुष्य
योतन र्ें ही भर्लता है, वही नहीीं ककया तो तया ककया? जो भी ककया सि गटि र्ें
ही गया, गया कक नहीीं?

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भावना ही सर्वोपरि है।

  • 1. भावना ही सवोपरि है। (श्रीमद्भगवद्गीता – 4/16, 8/5-7, 9/26, 10/4-5, 17/11, 18/45, और 18/69) और ब्रह्मॠषि बाबारामस्नेही के वचन बिना सद्भावना के कु छ भी फ़लदायक नहीीं होता। भावना ही श्रद्धा है। शुभ-कर्म, पाप-कर्म, ज्ञान-दान सि िेकाि - यदद भाव सत नहीीं है, प्रेर् भाव नहीीं है, भावना सवम-दहतार्म नहीीं है, औि परिणार्गत नहीीं है।
  • 2. श्रीिािा के गुरुर्न्त्र (फ़,र्,ि,ल)का भी यही िहस्य र्ा • श्रीिािा जि आर् के पेड़ के तले नार्-ध्यान र्ें िर्े हुए र्े, ति एक पुरुष अींग्रेजी कपड़े पहने उस पेड़ पि उड़ते हुए आ िैठे र्े, जजनको श्रीिािा ने “पुरुष गुरु” नार् से सम्िोधधत ककया है (नर्मदा-तट्…पृ4)। इस र्न्त्र का पहला अक्षि र्ा ‘फ़’ – याने फ़ना होजा, अपने-आपको पूिा- पूिा ईश्वि को सर्र्पमत कि दे। तत्पश्चात अगले ही ददन ईश्वि ने श्रीिािा की भावना जाींचने हेतु आदेश ककया कक वे घि वपस चले जायीं…िहुत जििी ििसात भी ििसायी। ककन्त्तु श्रीिािा ने अपनी भावना को अततशय दृढ़ कि ददखाया औि ईश्वि के इजम्तहान र्ें पास हो गये। • अतः भावना या तनश्चयात्र्क िुद्धध पिर्ेश्वि की ओि जाने र्ें, ज्ञान-प्राजतत र्ें, अततशय र्हत्वपूणम औजाि है जो एक जजज्ञासु के अपने ही अधधकाि र्ें, अपने ही वश र्ें है। गीता र्ें भी भावना को र्हान िताया है औि यही लक्ष्य है इस PowerPoint Presentation की अभभव्यजतत र्ें भी। यह जून-जुलाई अधधकर्ास काल है, इस काल र्ें गुरुर्हािाज को र्वशेष रूप से याद किना चादहये।
  • 3. ‘चेतसा सववकमावणि मयि सन्नन्निस्ि’ (श्रीमद्भगवद्गीता – 18/57) • यह दृढ़ धचत्त से र्ान ले कक र्न-िुद्धध-इजन्त्ियााँ-शिीिादद चौबीस-पदार्म तर्ा इस सींसाि के व्यजतत, पदार्म, घटना, परिजस्र्तत आदद सि के र्ाभलक भगवान ही है, इनर्ें से कोई भी चीज र्ेिी अपनी व्यजततगत नहीीं है। र्ुझे के वल इन वस्तुओीं का सदुपयोग किने का अधधकाि ही भर्ला है। • अि र्ुझे जो किना है वो ये है कक इन वस्तुओीं के उपयोग के अधधकाि को भी र्ैं भगवान को अपमण कि दूाँ। कफ़ि इस शिीि-सर्ुदाय से जो कु छ शास्र-र्वदहत साींसारिक या पािर्ाधर्मक कियाएाँ होती है, वे सि भगवान की र्िजी से ही होती है। इन कियाओीं र्ें जो कु छ अपनापन आ जाये उसे तत्काल भगवान को अपमण कि देना है, उसर्ें कण-र्ार चतुिाई भी नहीीं िितनी है, हााँ।
  • 4. के वल भाव ही र्ेिा अपना है (18/45) (शुि है, कु छ तो र्ेिा है) • मेरा अगर कु छ है, तो वह के वल भाव है; अगि भाव तनष्कार्ी हो गया, प्रीतत- पूवमक, तत्पिता-पूवमक, अधीनता-पूवमक, भगवान की पसन्त्द्गी-पूवमक हो गया, तो र्ेिी हि सेवा भसद्ध हो गई । • वास्तव र्ें ‘कर्म’ की प्रधानता नहीीं है िजकक सािा खेल ‘भाव’ का है। ‘भाव’ में ही दैवी िा आसुरी सम्पदा की मुख्िता होती है। • कमव में वणम की र्ुख्यता है, ककन्त्तु भाव र्ें दैवी- या आसुिी-सींपदा की र्ुख्यता होती है।
  • 5. सि नीयत का खेल है (9/26, 18/48) • भगवान भाव के ही भूखे है, पेट के नहीीं। भाववश यदद पर, पुष्प जैसे न खाने योग्य पदार्म अर्पमत ककये जायीं तो उन्त्हे प्रकट होकि खा भी लेते है (9/26)। र्वदुिानी ने अततशय उमंग-भाव (एक प्रकाि का साजत्वक भाव) र्ें भूल से के ले का तछलका अपमण ककया तो उसे ही खा गये। र्वदुिजी ने आकि के ला खखलाया तो कहा, “तछलका ज्यादा स्वाददष्ट र्ा”। • तनकृ ष्ट सर्झे जाने वाले कर्म को भी उत्कृ ष्ट-भाव से किना चादहये। भले ही सभी प्रकाि के स्वकर्म र्ें दोष हों, पि यह दोष लगता नहीीं है, यदद कार्ना, सुख-िुद्धध, भोग-िुद्धध से न ककया जाये। (भतत-भशिोर्खण-गण – सदना कसाई, पिर्ेष्ठी दजी, िघु के वट, िार्दास चर्ाि आदद)। सब कु छ कताव की नीित का खेल है ।
  • 6. र्न-सदहत प्रत्येक ज्ञानेजन्त्िय 8 प्रकाि के साजत्वक भाव से ओत-प्रोत है। (8 प्रकार के बादल, 8 प्रकार की प्रज्ञा, 8 भेद-वाली त्वचा, 8 प्रकार की सूक्ष्म वािी - तनज+मनज वािी - Non- Verbal Communication) 1. शान्त्त-भाव - स्तम्भवत, स्तब्ध-वत होजाना, शािीरिक कियाएाँ, गततवीधधयााँ न्त्यूनतर् हो जाये।) 2. दास्य-भाव – तनढ़ाल होकि साष्टाींग-वत प्रणार् कि देना।, पूणम शिणागत हो जाना। 3. सख्य-भाव – दोस्ती के भाव र्ें, त्याग-भाव का उभि जाना। (भगवान का अजुमन के प्रतत प्रेर्**) 4. वात्सकय-भाव –भगवान को िाल-र्ुकु न्त्द रूप र्ें देखना, छोटी-से-छोटी िात का भी ध्यान िखना। 5. र्धुि-भाव - 6. तन्त्र्य-भाव 7. अश्रुपूरित-भाव - 8. कण्ठाविोध-भाव (स्वि-भींग भाव) – भावावेश के कािण गला रुींध जाता है।
  • 7. जजतने भाव प्रकट होते है, उतनी गुरु-कृ पा 9. स्वेद भाव (पसीना-पसीना हो जाना) 10.प्रलय-भाव (अनुकू लता-प्रततकू लता से टोटल उपितत) 11.कम्पायर्ान-भाव (शिीि काींपने लगे, र्विह-भाव) 12.पुलककत भाव (पुलक भाव) िोर्ाींच हो जाना, िोंगटे खड़े जो जाना। 13.अततशय उर्ींग, आपा खो देनेवाली उर्ींग, नशा, िेहोशी, सुध-िुध खो देना। 14.इन्त्तजाि, िेकिािी का भाव्।
  • 8. भगवान के वल प्रेर्र्य, साजत्वक भाव के लालची है, र्न्त्र, र्वधध-र्वधान के नहीीं। • पूणम शुद्धता से भी िोले गये वेद-र्न्त्रो की कोई कीर्त नहीीं, पि गलत िोले हुए र्न्त्र भी यदद साजत्वक भाव से िोले गये हो तो भगवान को र्ोदहत कि देतें है। • The eight forms of Satvik changes/ecstasies that shake the body and mind are: • motionlessness, perspiration, horripilation, indistinctness of speech, tremor, paleness, tears and loss of consciousness.
  • 9. (श्रीर्द्भगवद्गीता – 4/16) • भगवान ने शरीर, मन और वािी के द्वारा अहम-भाव से होने वाली क्रििाओं को कमव माना है। याने स्र्ूल-, सूक्ष्र्-, औि कािण-शिीि – इन तीनो से लगाताि 24 घींटे कर्म िनते ही िहते है। अतः कमव बनते है के वल भाव के अनुसार्। जैसे कोई साजत्वक कर्म कि िहा है लेककन उस सर्य उसके भाव िाजस या तार्स है, तो वह कर्म भी िाजस या तार्स हो जाता है। • As a Rule, सकार्ी शुभ-कर्म, पूजन आदद सि िाजस ही होते है। ममता+आसक्तत+फ़लेच्छा से रहहत (यनर्लवप्त) कोई भी कमव क्रकिा जाि िा न क्रकिा जाि, दोनो ही अकमव है, अर्ावत मुक्ततदािक है।
  • 10. भसद्धान्त्त-पूणम व्यवहाि सिसे िड़ा तप है। (भसद्धान्त्त से भाव शुद्ध होते है, अन्त्तःकिण शुद्ध होता है।) • एक ईर्ानदाि व्यापािी (तुलाधािी) का दृष्टान्त्त (र्हाभाित, शाजन्त्तपवम) (॰॰) – घोि तपस्या से भी श्रेष्ठ है ईर्ानदािी का व्यापाि, ईर्ानदािी का जीवन्। • र्न के 9 गुण है – धैयम, तकम -र्वतकम र्ें कु शलता, स्र्िण, भ्राजन्त्त, ककपना, क्षर्ा, शुभ औि अशुभ सींककप, औि चींचलता। (र्हाभाित शाजन्त्तपवम-तहत, र्ोक्षधर्म पवम, अध्याय 255/9) • िुद्धध के 5 गुण है – इष्ट औि अतनष्ट वृर्त्तयों का नाश, र्वचाि, सर्ाधान, सींदेह औि तनश्चय्। • यदद कार् (‘कार्’ पद से सदैव अर्म कार्ना ही होता है) औि िोध को जीते जी नहीीं नष्ट ककया तो, र्ृत्यु-काल र्ें ये दोनो अकस्र्ात प्रकट हो जाते है, ऐसा र्ृत्यु का र्वधान है (ibid – अध्याय 258/
  • 11. र्हर्षम जाजभल औि र्हात्र्ा तुलाधाि की कहानी महाभारत (शान्ततपर्व-तहत मोक्ष-धमवपर्व अध्याय 261) में एक दृष्टातत आता है महातपस्र्ी जाजन्ि के दीर्वकािीन तपस्या का और एक ईमानदार व्यापारी ‘महात्मा’ तुिाधार का। जाजन्ि ने न्नश्चि खड़े रहते कई र्र्षो तक न्नराहार, न्नजवि रहते र्ोर तप ककया। इतनी न्नश्चिता देखकर एक गोरैया पन्क्ष ने उनको र्ृक्ष समझ न्िया और उनकी जटाओं में र्ोंसिा बनाकर अण्डे कदये, उनको सेकर बच्चे हुए। जब बच्चे बड़े हो गये और उड़ना सीख गये और किर र्ापस अपने र्ोंसिे में नहीं आये, उसके भी एक मन्हने बाद जाजन्ि ने अपनी न्नश्चिता तोड़ी। र्े स्र्यं अपनी तपस्या पर आश्चयव करने िगे और अपने-आपको न्सद्ध समझने िगे। तभी आकाशर्ाणी हुई, “जाजन्ि तुम गर्व मत करो, काशी में रहनेर्ािे तुिाधार र्ैश्य के समान तुम धार्मवक नहीं हो”। यह सुनकर जाजन्ि तुरतत काशी को चि पड़े। र्हााँ पहुंच कर देखा कक तुिाधार एक साधारण बन्नया है और ग्राहको को तौि-तौि कर सौदा दे रहे है। जाजन्ि ने पूछा, “तुम तो एक साधारण बन्नये हो, तुम्हे इतना ज्ञान कैसे प्राप्त होगया?” तुिाधार का जर्ाब – (1) ब्राह्मणदेर्, मै अपने र्णोन्चत धमव का सार्धानी-पूर्वक पािन करता हाँ; (2) मैं न मध बेचता हाँ ना ही दूसरा कोई न्नन्तदत पदार्व बेचता हाँ; (3) तौि में और भार् में अपने ग्राहको को कभी ठगता नहीं, चाहे बूढ़ा आये, चाहे बच्चा आये, चाहे भार्-मौि का जानकार आये, चाहे अजान आये, मैं उन्चत भार् और उन्चत र्स्तु ही देता हाँ; (4) ककसी पदार्व में कोई दून्र्षत पदार्व नहीं न्मिाता; (5) ग्राहक की कठठनाई या मजबूरी का िायदा नहीं उठाता, बन्कक उसकी यर्ोन्चत सेर्ा करना अपना कतवव्य समझता हाँ; (6) मैं राग और द्वेर्ष से सदा ही अन्तदूर रहता हाँ, हहंसा-रन्हत कमव करता हाँ, सेर्ाभार्ी जीर्न बना हुआ है, सभी प्रान्णयों को समान दृन्ष्ट से देखता हाँ और सबके न्हत की चेष्टा करता हाँ; (7) मैं आकाश की भांन्त असंग रहकर जगत के कायो की न्र्न्चत्रता देखता हुआ दूसरो के कायो की न तो प्रसंशा करता हाँ न न्नतदा करता हाँ ।
  • 12. तुलाधाि-जाजभल की कहानी-2 र्हात्र्ा तुलाधाि ने जाजभल द्वािा पूछने पि िताया कक दहींसा-युतत सभी यज्ञ परिणार् र्ें अनर्मकािी होते है, चाहे वह दहींसा अपने शिीि के सार् ही तयों न किी गई हो, कािण कक शिीि भी अपना नहीीं है, पिाया है, प्रभु की अर्ानत है। ऐसे दहींसात्र्क यज्ञो र्ें भूलें अधधक होने की सम्भावना होती है औि र्ोड़ी सी भूल के भी िड़े र्वपिीत औि गम्भीि परिणार् होते है। इसभलये अदहींसा ही उत्तर् धर्म है। प्राखणयों की दहींसा न किने से जजस धर्म की भसद्धध होती है, उससे िढ़कि र्हान धर्म कोई नहीीं है। अदहींसा का जादू ऐसा होता है कक उस र्हापुरुष से कोई भी प्राणी नहीीं डिता, ति कफ़ि वह भी ककसी प्राणी से नहीीं डिता। जो पक्षी जाजली की जटा र्ें पले-िड़े हुए र्े, वे िुलाने पि जाजभल के पास आ गये औि उन्त्होने भी तुलाधाि द्वािा िताए हुए धर्म का अनुर्ोदन ककया। तनष्कषम:- जो र्नुष्य सि जीवो का सुहृद होता है, औि र्न, वाणी तर्ा किया द्वािा सदा सिके दहत र्ें लगा िहता है, वही वास्तव र्ें धर्म को जानता है।
  • 13. 4/16 continued • कर्मयोग र्ें ‘कर्म’ है ही नहीीं, िजकक ‘सेवा’ ही है, जजसर्ें असींगता, तनभलमततता औि त्याग की र्ुख्यता होती है। हााँ, सेवा औि त्याग – इन दोनो र्ें र्ववेक की र्ुख्यता अवश्य होती है। • जीव शुभ है और कमव अशुभ है, संसार और इसकी प्रत्िेक वस्तु अशुभ है। • कार्ना से कर्म होते है। जि कार्ना अधधक िढ़ जाती है ति र्वकर्म (पापकर्म) होते है। दूसिी तिफ़ सर्ता की अवस्र्ा है, समतापूववक क्रकिा हुआ षवकमव भी अकमव हो जाता है। भगवान के अनुसार षवकमव कमव के बहुत पास पड़ता है; तिोंक्रक कमो में कामना ही षवकमव का मुख्ि हेतु है।
  • 14. श्रीर्द्भगवदगीता – 4/17 • पिन्त्तु कार्ना नष्ट होने पि सि कर्म अकर्म हो जाते है। ककसी कर्म र्ें र्नुष्य अपना फ़ायदा सर्झता है, पि हो जाता है नुकसान्। वह सुख के भलये किता है, पि भर्लता है दुःख (जजसे अतसि Thankless कायम कहा जाता है)। इसका कािण यह है कक कतामपन औि फ़लेच्छा के भाव भीति र्ें भिे पड़े है। • भगवान के अनुसाि फ़लेच्छा तो दूि, आवश्यकता (स्पृहा) पूिी किने की आशा तक न होवे, धन्त्यवाद की भी आशा न होवे, ति कहीीं जाकि ‘अकतावपन’ या ‘अकमव’ या ‘यनष्काम-कमव’ र्ाना जाता है।
  • 15. ‘अन्त्त र्तत सो गतत’ (8/5-7) • र्नुष्य अन्त्तकाल र्ें जजस-जजस भाव का स्र्िण किते हुऐ शिीि त्यागता है, उस-उस भाव को ही वह प्रातत होता है। यह जानकािी देकि भगवान यह भी भसद्ध कि िहे है कक मनुष्ि के षवचार, भाव, संकल्प क्रकतने शक्ततमान है औि इनको चुनने-र्ार से उसकी वही र्नोकार्ना पूिी हो भी जाती है तभी तो पूिी गीता र्ें भगवान िाि-िाि, लगाताि कह िहे है कक अपनी सोच िदले तो तू र्ुझको भी पा सकता है। भसफ़म धचन्त्तन का खेल है ये सािा, भावना का जगत है ये सािा। • अन्त्त काल = प्रलयकाल, जो हि उस क्षण आता है, जि-जि तू सुजाग होने को, भूल सुधािने को कृ त-सींककप होता िहता है। ऐसी आदत कफ़ि र्ृत्युकाल र्ें भी कार् आती है। तनतिोज सोते वतत भी यह प्रलयकाल अवश्य आता है। श्रेष्ठ भाव लेकि नीींद लेनी चादहये – sleep every day with LOFTY emotions (= भाव)।
  • 16. भगवान की प्राजतत के वल भाव से होती है। 20 प्रकाि के भगवत्भाव (10/4-5) 1. ‘बुद्धि’ – तनश्चयात्र्क वृर्त्तयुतत िुद्धध। यह िुद्धध र्नुष्य को भगवान से भर्ली है। 2. ‘ज्ञान’ – साि-असाि, तनत्य-अतनत्य, सत-असत, ग्राह्य-अग्राह्य – ऐसा जो र्ववेक है, उसका नार् ज्ञान है। यह ज्ञान (र्ववेक) र्ानवर्ार को भगवान से भर्ला है। 3. ‘असम्मोह’ – शिीि+सींसाि को उत्पर्त्त-र्वनासशील जानते हुए भी ‘र्ैं’ औि ‘र्ेिा’ पन िना िहे - ये है सम्मोह्। जि र्ै-र्ेिा पन नहीीं िहता वह अवस्र्ा ‘असम्मोह’ वाली होती है (10|3)। 4. ‘क्षमा’ – अपनी सार्र्थयम िहते हुए भी ककसी के अपिाध को सह लेना औि उस अपिाधी को अपनी तिफ़ से इस लोक र्ें औि पिलोक र्ें भी दण्ड न भर्ले – ऐसा र्वचाि किने का नार् ‘क्षमा’ है। 5. ‘सत्ि’ – जैसा सुना, देखा औि सर्झा वैसा ही भाषण किना। अपने स्वार्म औि अभभर्ान का त्याग किके तर्ा दूसिों के दहत के भलये ठीक वैसा-का-वैसा कह देना ‘सत्ि’ है। 6. ‘दम:’ – इजन्त्ियों को अपने-अपने र्वषयों से हटाकि अपने वश र्ें कि लेने का नार् ‘दम’ है। 7. ‘शम:’ – र्न को साींसारिक भोगो तर्ा धचन्त्तन से हटाने का नर् ‘शम’ है। • Continued…
  • 17. 8. ‘सुख दुःख’ – शिीि+इजन्त्ियों+र्न के अनुकू ल परिजस्र्तत के प्रातत होने पि जो हृदय र्ें प्रसन्त्नता उत्पन्त्न होती है उसका नार् ‘सुख’ है। 9. प्रततकू ल परिजस्र्तत के प्रातत होने पि जो हृदय र्ें खखन्त्नता होती है, वह ‘दुःख’ कहलाता है। 10. ‘उत्पषि षवनाश’ (भव अभाव) – साींसारिक वस्तु, व्यजतत, घटना, जस्र्तत, परिजस्र्तत, भाव आदद के उत्पन्त्न होने का नार् ‘भव’ है 11. औि इन सि के लीन हो जाने का नार् ‘अभाव’ है – ‘भवोऽभाव:’। 12. ‘भि अभि’ – अपने आचिण, भाव, खयाल, र्वचाि आदद शास्र औि लोक-र्यामदा के र्वरुद्ध होने से अन्त्तःकिण र्ें जो अतनष्ट की सम्भावना दीखती है, उसको ‘भि’ कहते है। 13. इसके र्वपिीत स्र्तत को ‘अभि’ कहते है। 14. ‘अहहंसा’ – अपने तन, र्न औि वचन से ककसी भी देश, काल, परिजस्र्तत र्ें ककसी भी प्राणीर्ार को दुःख न पहुींचाना। 15. ‘समता’ – तिह-तिह की अनुकू ल औि प्रततकू ल वस्तु, व्यजतत, घटना, परिजस्र्तत के प्रातत होने पि अन्त्तःकिण र्ें कोई र्वषर्ता का उत्पन्त्न नहीीं होना, यह सर्ता कहा जाता है। Continued…
  • 18. 16. ‘तुक्ष्ि’ (सन्त्तोष) – आवश्यकता ज्यादा िहने पि भी कर् भर्ले तो उसर्ें सन्त्तोष कि लेना तर्ा औि भर्ले ऐसी इच्छा नहीीं िखना – इसका नार् ‘तुक्ष्ि’ है। भर्ले या ना भर्ले, कर् भर्ले या ज्यादा भर्ले, हि हाल र्ें प्रसन्त्न िहना तुजष्ट है। 17. ‘तप’ – अपने कतमव्य का पालन किते जो कु छ कष्ट आ जाये, प्रततकू ल परिजस्र्तत आ जाये, उन सिको प्रसन्त्नता-पूवमक सहने का नर् ‘तप’ है। एकादशी आदद का व्रत भी एक तप होता है, सत्सींग र्ें तनत्य जाना भी एक तप होता है। 18. ‘दान’ – प्रत्युतकाि औि फ़ल की अणुर्ार इच्छा िखे िगैि अपनी शुद्ध कर्ाई का दहस्सा सत्पार को देने का नार् दान है। 19. ‘िशोऽिश:’ – अच्छे आचिण, भाव औि गुणो को लेकि सींसाि र्ें नार् की प्रभसद्धध होने को िश कहते है; 20. इसी प्रकाि यदद िुिे आचिण, भाव आदद को लेकि तनन्त्दा होती है, तो ‘अिश’ या ‘अपिश’ कहते है।
  • 19. (श्रीर्द्भगवद्गीता – 17/11) • भगवत्भाव िखकि हि प्रकाि का कतमव्य किते चलना चादहये, अपने कु ल, वणम, देश आदद का ॠण सर्झ कि किते चलो। के वल कतमव्य- र्ार सर्झकि कर्म किने से कताम का कर्म के सार् सम्िन्त्ध नहीीं िहता, वह र्ुतत िहता है। • कु छ भी कर्म किने से कताम का कर्म के सार् सम्िन्त्ध िहता है। कर्म कताम से अलग नहीीं होता। कमव कताव का ही धचत्र होता है। जैसा कताम होगा वैसा ही कर्म होगा, कािण कक उसकी श्रद्धा वैसी है (श्रद्िा की Quality ≫ कताव की Quality ≫ कमव की Quality) (>>= Leads To)
  • 20. (श्रीर्द्भगवद्गीता – 18/69) • पराभक्तत र्ें उसे ही प्रयुतत सर्झना चादहये जजसर्ें प्राकृ त पदार्ो की् ककीं धचन्त्र्ार भी र्हत्ता, भलतसा, औि र्ार आवश्यकता भी नहीीं है; िजकक के वल भाव, श्रद्धा औि उत्कट अभभलाषा ही पिाभजतत के भलये पूणमरुपेण परिपूणम है। • िहद ऐसे भगवद्भावी में मान-बड़ाई की भावना कभी आ भी जाि तो हिके गी नहीं। IMP: भगवान का अत्िन्नत षप्रि-प्िारा बनने के र्लिे के वल मनुष्िों को ही अधिकार है, ना क्रक देवताओं को। • संसार में कामनाओं की प्राक्प्त कर लेना कोई बहादुरी की बात नहीं है; पिन्त्तु कार्नाओीं का त्याग किके पिर्ात्र्ा की प्राजतत किने का अवसि तो के वल र्नुष्य योतन र्ें ही भर्लता है, वही नहीीं ककया तो तया ककया? जो भी ककया सि गटि र्ें ही गया, गया कक नहीीं?

Editor's Notes

  1. 8 Types of Non-verbal Communication – Facial Expression, Gestures, Para-Linguistics (tone, loudness, pitch, inflection of voice), Body Language and Postures (arm crossing, leg crossing, type of shake-hand, etc.), Proxemics (level of personal space), Eye Gaze, Haptics (communication thru touch), and Appearance (level of clothing, hairstyle, color of clothes, type of shoes, etc.). 8 Types of Intelligence – Linguistic Intelligence (gift of spoken words), Visual/Spatial Intelligence (gift of pictures), Bodily Kinesthetic Intelligence (gift of body), Logical/Mathematical/Academic Intelligence (gift of logic and numbers), Inter-personal Intelligence (people-oriented gift), Intra-personal Intelligence (gift of self) and Naturalist Intelligence (gift of nature). ** भीमपुत्र घटोत्कच को कर्ण ने शक्ति-प्रयोग से मारा तब पूरे पाण्डव खेमे में शोक छा गया, किन्तु कृष्ण खुशी के मारे नाच रहे थे। कारणकि कर्ण उस शक्ति का प्रयोग केवल अर्जुन पर करना चाहते थे, जो अब नहीं हो सकता था। कृष्ण कहते थे “मेरे को समस्त ब्रह्माण्ड में ऐसी कोई निधि नहीं चाहिये, जो अर्जुन के साथ के बगैर मिलती हो। कृष्ण को इसी चिन्ता के कारण रातों में नींद नहीं आती थी और दिनभर उदास रहते थे। घटोत्कच पर शक्ति का प्रयोग हुआ मानो अर्जुन को पुनः जीवन प्राप्त हो गया। वरना अर्जुन की मृत्यु निश्चित थी। कृष्ण तो इतना तक कहते थे, “मैं युद्ध में अर्जुन की रक्षा करना जितनी आवश्यक समझता हूँ, उतनी अपने माता-पिता, भाई-बन्धु और अपने प्राणो की रक्षा करना भी आवश्यक नहीं समझता” (महाभारत)।
  2. महाभारत (शान्तिपर्व-तहत मोक्ष-धर्मपर्व अध्याय 261) में एक दृष्टान्त आता है महातपस्वी जाजलि के दीर्घकालीन तपस्या का और एक ईमानदार व्यापारी ‘महात्मा’ तुलाधार का। जाजलि ने निश्चल खड़े रहते कई वर्षो तक निराहार, निर्जल रहते घोर तप किया। इतनी निश्चलता देखकर एक गोरैया पक्षि ने उनको वृक्ष समझ लिया और उनकी जटाओं में घोंसला बनाकर अण्डे दिये, उनको सेकर बच्चे हुए। जब बच्चे बड़े हो गये और उड़ना सीख गये और फ़िर वापस अपने घोंसले में नहीं आये, उसके भी एक महिने बाद जाजलि ने अपनी निश्चलता तोड़ी। वे स्वयं अपनी तपस्या पर आश्चर्य करने लगे और अपने-आपको सिद्ध समझने लगे। तभी आकाशवाणी हुई, “जाजलि तुम गर्व मत करो, काशी में रहनेवाले तुलाधार वैश्य के समान तुम धार्मिक नहीं हो”। यह सुनकर जाजलि तुरन्त काशी को चल पड़े। वहाँ पहुंच कर देखा कि तुलाधार एक साधारण बनिया है और ग्राहको को तौल-तौल कर सौदा दे रहे है। जाजलि ने पूछा, “तुम तो एक साधारण बनिये हो, तुम्हे इतना ज्ञान कैसे प्राप्त होगया?” तुलाधार का जवाब – (1) ब्राह्मणदेव, मै अपने वर्णोचित धर्म का सावधानी-पूर्वक पालन करता हूँ; (2) मैं न मध बेचता हूँ ना ही दूसरा कोई निन्दित पदार्थ बेचता हूँ; (3) तौल में और भाव में अपने ग्राहको को कभी ठगता नहीं, चाहे बूढ़ा आये, चाहे बच्चा आये, चाहे भाव-मौल का जानकार आये, चाहे अजान आये, मैं उचित भाव और उचित वस्तु ही देता हूँ; (4) किसी पदार्थ में कोई दूषित पदार्थ नहीं मिलाता; (5) ग्राहक की कठिनाई या मजबूरी का फ़ायदा नहीं उठाता, बल्कि उसकी यथोचित सेवा करना अपना कर्तव्य समझता हूँ; (6) मैं राग और द्वेष से सदा ही अतिदूर रहता हूँ, हिंसा-रहित कर्म करता हूँ, सेवाभावी जीवन बना हुआ है, सभी प्राणियों को समान दृष्टि से देखता हूँ और सबके हित की चेष्टा करता हूँ; (7) मैं आकाश की भांति असंग रहकर जगत के कार्यो की विचित्रता देखता हुआ दूसरो के कार्यो की न तो प्रसंशा करता हूँ न निन्दा करता हूँ । महात्मा तुलाधार ने पूछने पर तपस्वी जाजलि को बताया कि हिंसा-युक्त सभी यज्ञ परिणाम में अनर्थकारी होते है, चाहे वह हिंसा अपने शरीर के साथ ही क्यों न करी गई हो, कारण कि शरीर भी अपना नहीं है, पराया है, प्रभु की अमानत है। ऐसे हिंसात्मक यज्ञो में भूले अधिक होने की सम्भावना होती है और थोड़ी सी भूल के भी बड़े विपरीत और गम्भीर परिणाम होते है। इसलिये अहिंसा ही उत्तम धर्म है। जो पक्षी जाजली की जटा में पले-बड़े हुए थे, वे बुलाने पर जाजलि के पास आ गये और उन्होने भी तुलाधार द्वारा बताए हुए धर्म का अनुमोदन किया। निष्कर्ष:- जो मनुष्य सब जीवो का सुहृद होता है, और मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा सदा सबके हित में लगा रहता है, वही वास्तव में धर्म को जानता है।