2. :यथाथथहनुमनचालीसा
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यथाथथ हनुमन चालीसा
प्रसार माध्यम में नैतिक प्रतिबन्धिा
कापीराइट मुक्ि। उत्तरदातयत्व मुक्ि।
अलौककक ववचारों के शब्दाविार यह
प्रस्िुि ग्रन्थ, दान रूप में संसार को
समवपिि है। मौललक प्रति इन्टरनेट पर उपलब्ध है।
लेखक को मूल्य नह ं चाहहए ककन्िु मौललकिा
की क्षति न होने पाए इस ललए इसकी अपररवििनीय
स्स्थति और पूर्ििा को बनाये रख, सदभाव (good
faith) में, ककसी को भी इसके प्रकाशन और वविरर्
हेिु ककसी अनुमति की आवश्यकिा नह ं है। यह
वक्िव्य ‘नैतिक प्रतिबन्ध’ मूल ग्रंथ का एक भाग है।
लेखक को उन शब्दानुरागी प्रकाशकों की सूचना
अपेक्षक्षि िो है ककन्िु आवश्यक नह ं। इसके प्रकाशन,
प्रचार, लशक्षा और वविरर् कायि में, व्यावसातयक
कारर्ों से, मूल्य का कोई भी तनर्िय प्रकाशक ले
सकें गे। प्रकाशक इसका उपयोग ककसी वस्िु या
संगठन के ववज्ञापन के ललए नह ं कर सकें गे। अनुवाद
और किल्मीकरर् के ललए लेखक की अनुमति
आवश्यक है।
रचतयिा
कृ ष्र् गोपाल लमश्र
कृ ष्र् धाम, 735 सेकटोर 39 गुड़गााँव, हररयार्ा,
भारि
ईमेल qualitymeter@gmail.com
3. :यथाथथहनुमनचालीसा
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हनुमन चाल सा गोस्वामी िुलसीदास की वह रचना है जो भारि के
घर घर में पढ़ जािी है। हनुमन के चररत्र का इन चाल स पंस्क्ियों
में वर्िन को ह हनुमन चाल सा कहिे हैं।
गोस्वामी िुलसी दास ने श्री राम का दशिन हनुमन की सहायिा से
चचत्रकू ट में ककया। वह मन कौन सा है स्जससे उन्हें श्री राम हदखे?
वह तनमिल या तनदोष मन ह ‘हनु मन’ है। जो ‘चचत्र’ कभी भी न
भूल सके (‘कू ट’), वह हृदयस्थ श्री राम या परम आत्मा का दशिन ह
‘चचत्र-कू ट’ है। आंखे यद्यवप सभी के पास एक समान होिीं है ककन्िु
एक ह वस्िु, व्यस्क्ि या घटना को कोई कै से देखिा है वह मन की स्स्थति पर तनभिर है। सूरदास
यद्यवप दृस्ष्ट ह न थे ककन्िु उनके मन की दृस्ष्ट भौतिक आाँखों की िुलना में कह ं अचधक समथि थी।
सूरदास का भक्ि मन ह हनु-मन है और श्री कृ ष्र् का कभी न भूल सकने वाला वह चचत्त ह उनका
चचत्र-कू ट है।
सभी जीवों में लभन्निा का कारर् भौतिक नह ं है बस्ल्क वह उनका मन है। संि, वैज्ञातनक, व्यवसायी
और शासक यद्यवप हदखिे एक से हैं ककन्िु उनका मन और उनके ह संकल्प और ज्ञान से बने
उनके चचत्त, स्जससे वे अपना पहहचान बिािे हैं अलग अलग होिे हैं। मन की लभन्निा या चचत्त की
अस्स्थरिा के शान्ि होने की स्स्थति ह हनु-मन है। अपने हनु-मन से पररचय हो जाने के बाद
जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नह ं रह जािा और द्वैि भाव या दैत्य नष्ट हो जािा है। हम
स्जस संसार में रहिे हैं उसमें अपने पराये का भेद रहिा है क्योंकक लोगों में परस्पर प्रेम या भस्क्ि
नह ं होिी। यह दैत्य है। हनुमन संकट-मोचन हैं अथािि तनमिल मन के कारर् हमें जब हर एक जीव
में स्स्थि एक ह आत्मित्व का सत्य समझ में आने लग जािा है िब संसार में दैत्य (द्वैि भाव)
स्जनसे संकट उत्पन्न होिा है, नष्ट हो जािा है।
गोस्वामी िुलसी दास जी भगवान लशव की शपथ ले कर कहिे हैं कक स्जसने भी हनुमन चाल सा को
पढ़ा है उसे लसद्ध होने में कोई भी संदेह नह ं है। लसद्ध पुरुष उस वैज्ञातनक को कहिे हैं जो यह
जान गया है कक सभी प्रार्ी वस्िुिः एक ह हैं और स्जसके उसके मन में कभी अशुभ संकल्प नह ं
उठिे और उसका जीवन सदैव ह कल्यार्कार उद्देश्यों को समवपिि होिा है। हनुमन चाल सा के इस
अथि को जान लेना एक सुखद अनुभव है। जो हनुमान चाल सा को पढ़िे हैं वे गुहार लगािे रहिे हैं
कक उन्हें ककसी िरह उसका अथि लमले। और, वह लमलिा ह है। जब ककसी को ककसी अनजाने पिे
पर जाना होिा है िब वह उस पिे को बार बार पढ़ कर दूसरों को सुनािा है िाकक कोई न कोई
उसका मागि दशिन करे। किर, कह ं न कह ं से, कोई न कोई अनजाना व्यस्क्ि लमल ह जायेगा जो
उसे सह मागि हदखा देगा। लक्ष्य आत्मा का होिा है ककन्िु सभी ज्ञान या साधन उस प्रकृ ति या
4. :यथाथथहनुमनचालीसा
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हनुमन के हैं जो उसे सदमागि पर पहुंचाने के ललये सदैव ह अधीर रहिी है। यहद आत्मा के लक्ष्य
शुभ न हों िब वह प्रकृ ति इस संसार को असह्य बना देिी है।
हनुमन चाल सा का स्थान मन में है। उसी मन से इस काव्य के अथि का स्पष्ट करर् इस पुस्स्िका
में है। हर एक जीवात्मा अपने मन में हनुमन चाल सा के पौधे को रुचच और भस्क्ि के रस से उगािा
है, और स्जससे उसका जीवन प्रिु स्ल्लि हो उठिा है। स्जन महात्माओं को हनुमन के पररचय में
श्रद्धा हो वे इस पुस्िक को पढ़ें और उनके इस कमि को मेरा प्रर्ाम। इस पुस्िक को पढ़ने वाले वे
सभी जीवात्मायें मेरे प्रभु हैं क्योंकक उनका मन ह मेरा मन है और मेरे ववचार उनके अपने ह
ववचार हैं। इस पुस्िक को पढ़ने से लगेगा कक यह आप के अपने ह ववचार हैं जो शब्द ले चुके है,
और गोस्वामी-कृ ि हनुमन चाल सा आपकी अपनी ह वार्ी है। सांसररक नाम और काल की जमी हुयी
यह धूल जब मन से हट जाये िब हम सब प्राणर्यों में लभन्निा कै सी?
कृ ष्र् गोपाल लमश्र
कृ ष्र् धाम, 735 सैक्टर 39 गुड़गााँव, हररयार्ा, भारि
टेल फ़ू न 09312401302 ईमेल qualitymeter@gmail.com
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5. :यथाथथहनुमनचालीसा
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।।दोहा।।
श्री गुरु चरण सरोज रज, ननज मन मुकु र सुधारर |
बरनऊ रघुवर बबमल जसु , जो दायकु फल चारर ।।
बुद्धधहीन तनु जानन के , सुममरऔं पवन कु मार |
बल बुद्धध ववद्या देहु मोहह हरहु कलेश ववकार |।
सबसे पहहले .... आत्मा, गुरु के श्री चरर् के पववत्र धूल से, अपने मन की स्स्थति
को सुधारिी (या व्यवस्स्थि) करिी है। राम जो ब्रह्म हैं और स्जनका कोई रूप या
गुर् संभव ह नह ं है उनको उस मन में या वह दपिर् स्जस पर धूल जमा हो में,
देखना कै से संभव हो सकिा है? एक ह वस्िु, व्यस्क्ि या घटनाएाँ ककसी को कु छ
और ककसी को कु छ हदखिीं हैं। गुलाब के िू ल का लाल रंग उसका अपना रंग नह ं
होिा बस्ल्क सूयि का वह प्रकाश है स्जसमें उसे लोग देखिे हैं। वह गुलाब जब कोई
दो व्यस्क्ि अलग अलग रंग के चश्मे से देखिे हैं िब उन्हें वह गुलाब एक समान
नह ं हदखेगा। प्रकाश के न रहने पर वह गुलाब हदखेगा ह नह ं। स्जस िरह गुलाब
के रंगों का कारर् वह गुलाब नह ं बस्ल्क वह पारदशी प्रकाश है स्जसमें उसे देखा
जािा है उसी िरह व्यस्क्ि क्या देखिा और समझिा है उसके वह मन की स्स्थति
पर तनभिर है। मन एक चश्मे की िरह है और अलग अलग रंग के शीशे के चश्मे से
देखे जाने से एक ह वस्िु का रंग अलग अलग हदखेगा। जब सूयि का प्रकाश उस
गुलाब से परावतििि हो कर वापस आिा है के वल िभी वह गुलाब हदखेगा। ववचार
रंग ह हैं। इसी िरह सत्य का प्रकाश परमात्मा का है ककन्िु वह प्रकाश जब
संसार में एक दूसरे के मन से टकरा कर या परावतििि होकर इधर उधर िै लिा है
िब वह सत्य अलग अलग ववचार बन कर द्वंद करिा है।
मन को रंगह न (बजरंगी, रंग रहहि) बनाये बबना, सच नह ं हदखिा। मन के दपिर्
को तनमिल बनाने का यह उद्योग, के वल गुरु की कृ पा से ह संभव है। गुरु, सत्य
के प्रकाश हैं स्जसके कारर् मन में हो रहे ववचारों के द्वंद को समाप्ि हो जािे हैं।
जीवात्माओं के मन का दपिर् जब तनमिल हो जािा है िब उस तनवविचार स्स्थति में,
जीवात्माओं की परस्पर लभन्निा कै सी? सभी बच्चों की िरह सच्चे और सरल हो
जािे हैं और सभी की आाँखें जो भी देखिीं हैं सत्य ह देखिीं हैं। कोई ककसी पर
अववश्वास क्यों करेगा, और ककसी को ककसी से प्रमार्, िकि या ज्ञान (पूवािनुमान के
साधनों) की िब क्या आवश्यकिा? स्जसका मन शांि या तनमिल है वह ऋवष हैं,
और उनके वचन ह वेद हैं। सभी आत्मायें, एक समान, अपने हृदय में स्स्थि एक
ह सत्य परम-आत्मा का चचंिन करिीं हैं स्जसका सगुर् प्रभाव सवित्र है। गोस्वामी
जी कहिे हैं कक उस शांि या स्स्थर मन में, परम-आत्मा जो तनगुिर्-तनवविकार है
उन्ह ं श्री राम के चररत्र का तनमिल (मल रहहि) सगुर् वर्िन है जो उन सभी
आत्माओं को काम, अथि, धमि और मोक्ष नाम के प्राकृ तिक िलों को देने वाला है।
6. :यथाथथहनुमनचालीसा
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अपने ह शुद्ध हुये मन स्जसे लशव या शंकर (शंका से रहहि) मन कहिे हैं, में श्री
राम के चररत्र को देखना ह राम चररि मानस है। राम चररि मानस वह ववचध है
स्जससे जीवात्मा, अपने ह हृदय या तनमिल मन में, उस एक परब्रह्म-तनगुिर्-
तनवविकार श्री राम के अनंि चररत्र का चचंिन, अनन्ि कथाओं द्वारा सगुर् रूपों में
करिी है। हनुमन ह तनगुिर्-तनवविकार मन या, सूक्ष्म अथािि एकाग्र मन है स्जसके
बबना श्री राम के चररत्र का वह वर्िन और चचंिन कै से संभव है? जीवात्माओं की
बुद्चध, जो सांसररक बंधनों से िं सी है उसका बल क्षीर् हो चुका है। इसललये,
गोस्वामी जी हनुमन का आवाहन करिे हैं जो स्वयं आत्म बोध हैं। और, यह
हनुमन हैं जो आत्मा को अिुललि प्राकृ तिक बल, आत्म बोध, और ववद्या (वववेक,
सह -गलि के चुनाव की योग्यिा) देिे हैं। स्जससे, अनुग्रह ि आत्मा को श्री राम के
भगति के मागि पर चलने में कभी कोई क्लेश (कष्ट) या ववकार अथािि ववकृ ति या
कु रूपिा नह ं होिी।
इस संसार में, हर एक आत्मा (सीिा जी) का लक्ष्य के वल परम-आत्मा (श्री राम)
की खोज है। हनुमन ह बुद्चध हैं। लंका ह अबूझ संसार है स्जसमें अशोक वाहटका,
सीिा जी का अपना मन है। हर एक जीवात्मा, इसी िरह संसार में खुश िो रहिा है
ककन्िु उसकी खुशी की सीमा, उसका अपना ह सीलमि मन है। मन के चारों िरि,
एक अनजानी लंका है स्जसके कारर् मन का ववस्िार नह ं हो पािा। सीिा अथािि
हम सभी जीव जो इस संसार या लंका में असहाय हैं उन्हें उनके मुस्क्ि की कोई
संभावना नह ं हदखिी और यह अशोक वाहटका में रहने की स्स्थति है। संसार या
लंका से जीव की मुस्क्ि का अवसर, और सीिा के आत्म ववश्वास को बढ़ाने वाले,
स्जससे लंका या संसार का दहन होिा है, का प्रसंग ह सुंदर कांड है। हनुमन या
बुद्चध, उस लंका को जला डालिे हैं स्जसके कारर्, मन की सीमाएं नह ं रहिीं।
स्जन जीवों में द्वैि भाव अथािि जो परम आत्मा और जीवात्मा का भेद लेश मात्र
भी शेष है वह दैत्य या दानव कहलािे हैं। हनुमन, सीिा (जीव) और राम (परम
आत्मा), दोनों में एक ह परम आत्मा को देखिे हैं इसललये उन्होने द्वैि भाव को
अपने मन में दृढ़िा से समाप्ि कर हदया है।
लाल देह लाल लसै अरु धर लाल लंगूर।
वज्र देह दानव दलन जै जै जै कवप सूर॥
वज्र देह दानव दलन अथािि स्जसने दृढ़िा से द्वैि भाव को समाप्ि कर हदया है
वह कवप श्रेष्ठ या परमआत्मा का ज्ञान है। लाल देह अथािि जो ज्ञान का वह रंग
जो सबसे अचधक दूर से हदखिा है या सभी द्वंद से परे और ववचारों में सवोपरर है
उसी को जान लेने से जीवात्मा उसी का हो जािा है।
7. :यथाथथहनुमनचालीसा
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रावर् दैत्य था। दैत्य या दानव वह है स्जसने जीवात्मा ‘सीिा’ को परम आत्मा
‘राम’ से लभन्न समझा। यह कारर् है कक उसे जीवों से प्रेम नह ं हो सकिा। उसे
यह ज्ञाि नह ं हो सका कक प्रत्येक जीवात्मा के हृदय में ह उसी एक परम आत्मा
का तनवास है। इस द्वैि भाव से जब दैत्यात्मा मुक्ि हो जािी है िब मन में द्वंद
शांि हो जािा है और िभी जीवात्मा, परम आत्मा से युक्ि हो जािी है, और आत्मा
और परम आत्मा में कोई भेद नह ं रह जािा।
सीिा और राम का अलभन्न होना ह , योग है। जीवात्मा और परम-आत्मा लभन्न
लभन्न नह ं हैं। हर एक जीव परम आत्मा ह है और उसके सभी कमि भी परम
आत्मा के ह हैं ककन्िु उस जीव को उसे समझने की चेिना नह ं होिी है। जीव
का मन संसार में भ्रलमि या चचंिा से ग्रलसि रहिा है जबकक उससे होने वाले कमि
तनयि रहिे हैं और वह वह करेगा जो उसे करना है। जब उसे किाि पुरुष परम
आत्मा का ज्ञान हो जािा है िब वह संसार में रहिे और तनयि या पूवि तनधािररि
कििव्यों को अपने द्वारा होिे हुये देख आनंहदि रहिा है। उसे सभी जीवों में वह
एक किाि पुरुष परम आत्मा हदखिे हैं और उसका द्वैि भाव या दैत्य नष्ट हो
जािा है। यह स्स्थति प्रेम या भस्क्ि कहलािी है।
हनुमन और रावर् दोनों मन ह हैं। रावर् वाह्य-मन है स्जसमें संसार है जो इंहियों
के ववषय और मन की अस्स्थरिा से जीवात्मा को भयभीि करिा रहिा है। इस
वाह्य संसार का कोई अंि इसललये नह ं है क्योंकक यह एक दपिर् की िरह है
स्जसमें स्जिना ह देखेंगे उिना ह वह हदखािा रहेगा। इसका आकार अनंि है स्जसे
ब्रह्मांड कहिे है। यह ब्रह्मांड या ववश्व चाहे ककिना भी बड़ा क्यों न हो ककन्िु वह
है एक बंद ग्रह ह , क्योंकक उसमें से जीव बाहर नह ं तनकल कर मुक्ि नह ं हो
सकिा। जीव में प्रार् की समास्प्ि होिे ह उसकी मृत्यु हो जािी है। जीव का उस
वाह्य-मन, दपिर् या संसार जो उसके ह संकल्प या स्जज्ञासा का िल है, पर कोई
तनयंत्रर् नह ं रहिा और वह उसी से वह बंध जािा है। जबकक, हनुमन अंिःकरर्
या अन्िमिन या हृदय है स्जसमें जीवात्मा सीिा अपने स्वरूप अथािि परम आत्मा
श्री राम का सदैव दशिन करिी है। हनुमन वह ववचध या मागि है स्जसे प्रेम या भस्क्ि
भी कहिे हैं और स्जसके द्वारा जीवात्मा तनगुिर् परम-आत्मा को इस ब्रह्मांड या
संसार में सगुर् रूप राम चररि मानस में सदैव देखिी रहिी है।
……
सेवा धमि का आदशि हनुमन हैं। हनुमन मन की वह स्स्थति है जो तनवविचार या शांि है। स्जस
कमि से मन शांि या संिुष्ट न हो सके , उसे सेवा नह ं कहा जा सकिा। मन की शांति ह
सेवा का धमि है।
हनुमन श्री सीिा-राम के सेवक हैं। सेवा करना ह स्जसका धमि है जीवात्मा का वह शांि मन
ह हनुमन हैं। वह हनुमन धन्य हैं स्जसे परमात्मा से प्रेम (भस्क्ि), संसार की सेवा और
आत्म तनभििा (या ककसी से सेवा न लेने की इच्छा), ये िीन वरदान लमला। हनुमन ने रावर्
को सीिा को मुक्ि करने का परामशि दे, उनकी सेवा ह की थी। रावर् (अशांि मन) ने
8. :यथाथथहनुमनचालीसा
8
हनुमन (शांि मन) की वह सेवा अस्वीकार कर द थी। इसका अथि यह है कक संसार (ववचारों
से भरा अस्स्थर मन या भव सागर या संभावनाओं का समुि) की सेवा सरल नह ं होिी।
सेवा लोग लेना ह नह ं चाहिे, बस्ल्क लोग तनयंत्रर् चाहिे हैं। शांि मन या हनुमन को
तनयंबत्रि करना दुष्कर है। रावर् ने लंका में उस सेवा-भावी हनुमन को तनयंबत्रि करने का
यत्न ककया था और उसी हनुमन ने बबना ककसी प्रयास उस लंका को ह भस्मी भूि कर हदया
था। इसललये सेवा में इंिजार भी न करें और न ह सेवा के ककसी अवसर को जाने दें।
दर असल सेवा ककसी व्यस्क्ि की नह ं प्रकृ ति स्वरूपा, परम मााँ की जािी है। भूख लगने पर
ह भोजन वप्रय लगिा है यह इसका प्रमार् है कक वह व्यस्क्ि स्जसे सेवा चाहहए वह स्वयम
अपने प्राकृ तिक भूख पर तनभिर है । भूखे को भोजन देना सेवा है। जबकक कौन व्यस्क्ि भूखा
है उसका आप से क्या संबंध है यह सेवा नह ं तनयंत्रर् है। नौकर करने वाले या व्यवसायी या
मजबूर लोग या सरकार अचधकार , कभी सेवा नह ं करिे क्योंकक जो तनयंत्रर् में रहिे हों,
उन्हें सेवा का अथि भी ज्ञाि नह ं हो सकिा। स्वाद भूख पर तनभिर है न कक खाने वाले की
इच्छा पर। भूख न हो िब स्वाद भी न रहेगा। अनावश्यक सेवा (भोजन देना) िब सेवा न रह
जायेगी।
इसी िरह, सेवा मांगने से जब न लमले और उसे बल या तनयंत्रर् से हालसल करना पड़े िब
यह हहंसा है। इसी िरह सेवा देने पर जो सेवा नह ं लेिा उसे भी पीड़ा होिी है। महाभारि में
अजुिन ने भीष्म से युद्ध ककया। यह युद्ध हहंसक नह ं था। यह युद्ध स्वेच्छा से था जहां
सभी अपने अपने प्रार्ों का उत्सगि करने को आिुर थे। क्योंकक, उस युद्ध में उनके श्रेष्ठिम
ववचारों की आहुति से प्राप्ि होने वाला, तनवविवाद या तनवविचार सत्य अपेक्षक्षि था। मन की
शांति (हनुमन) के ललये शर र का त्याग एक बहुि सस्िा सौदा है। त्याग, सेवा या िप, मन
की शांति के प्रयोग हैं। इससे अहंकार जो शर र का नाम है, नष्ट हो जािा है। यह धमि युद्ध
या महाभारि हहंसा नह ं है बस्ल्क प्रेम की वह पराकाष्ठा है जो के वल अजुिन और भीष्म (दादा
पोिे) ह जानिे हैं।
इसी क्रम में आगे सोचने पर लमलिा है कक वह परम भूख क्या है स्जसकी आवश्यकिा सब
को सभी समय होिी है और स्जसे देने या लेने से प्रसन्निा होिी है। मन की शांति या
सद्भाव ह संसार की वह भूख है। संसार की सेवा के इस अथि को जाने बबना परम आत्मा से
प्रेम नह ं हो सकिा। परम आत्मा से प्रेम होने के उपरांि, वह जीवात्मा िब आत्म तनभिर हो
जािा है । और, िब उसे संसार की सेवा का अथि समझ में आ जािा है।
मन की शांि स्स्थति को हनु मन (तनमिल और शांि मन) कहिे हैं। हनुमन ह सीिा-राम का
सेवक के उस परम पद का नाम है। हनुमन कभी भी अनावश्यक कमि नह ं करिे और न ह
ककसी को तनयंबत्रि करिे या होिे हैं। वे ह भुस्क्ि (सांसररक प्रसन्निा) और मुस्क्ि (जो संसार
से बंधा नह ं है) दोनों के दािा हैं।
.......................................................................................
9. :यथाथथहनुमनचालीसा
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जय हनुमान ज्ञान गुण सागर।
जय कपीश नतहुं लोक उजागर ॥ 1
हनुमन वह हैं स्जन्होंने ज्ञान और गुर्ों के
सागर को जय कर ललया, या लांघ ललया
है।
प्राकृ तिक तनयमों की खोज और उसके
उपयोग से बने पूवािनुमान के साधन को ह
ज्ञान कहिे हैं। जो हदखाई नह ं पड़िा
ककन्िु उसकी िकि या ववश्वास के आधार
पर की गयी अनुमान की चेष्टा को ह
ज्ञान कहिे हैं। ककन्िु स्जसके ललए िीनों
काल (भूि, वििमान, भववष्य) अपने आप
ह उजागर हों उन्हें ज्ञान या पूवािनुमान के
प्राकृ तिक साधनों की क्या आवश्यकिा?
अलग अलग ज्ञानी अपने अपने लसद्धांिों
और िकि से अलग अलग पूवािनुमान कर
सकिे हैं ककन्िु सत्य िो एक ह होगा।
अथािि, सत्य ककसी के ज्ञान पर तनभिर
नह ं होिा। पानी सदैव गहराई की ओर ह
बहेगा यह सत्य है क्योंकक, यह उसकी
प्रकृ ति और पृथ्वी की सिह पर तनभिर है।
जबकक, उसके ललए पूवािनुमान की चेष्टा
या कोई ज्ञान, मन में ववचारों की स्स्थति
है।
पररस्स्थतियों या संसार का भय स्जसके
कारर् पूवािनुमान की आवश्यकिा होिी है,
ज्ञान का कारर् है। कोई भी पररस्स्थतियााँ
हों, प्रकृ ति जल के बहाव को उसी िरह
बना देगा जो उसे गहराई की ओर ह ले
जाएगा। इस सत्य के बावजूद छोट
नहदयां, ज्ञान द्वारा उन पररस्स्थतियों से
बचिे हुये टेढ़ मेढ़ रास्िे या कु हटलिा से
चलिीं हैं ककन्िु जब वह नद बड़ी हो
जािी है या वेग और अपनापन से जल में
सत्य की मात्रा अचधक होने लगिी है िब
वे सीधे या सरल रास्िे अपने आप ह बना
लेिीं है, और पररस्स्थतियां कै सी भी हों,
उनको बदलिे हुये समुि में आ लमलिीं
हैं। उस आत्म ववश्वासी जल को
पररस्स्थतियों के पूवािनुमान अथवा ज्ञान की
क्या आवश्यकिा? ज्ञान (पूवािनुमान या
अपेक्षक्षि पररस्स्थतियों की कल्पना) ह वह
पदाि है स्जससे भववष्य ढका हुआ लगिा
है। स्जसको चारों ओर सत्य (प्रकृ ति के
तनयम पर ववश्वास) उजागर हो गया है
वह िो संि (अथािि मन जब शांि हो
गया हो) है, उसे िब ककसी ज्ञान
(पररस्स्थतियों के पूवािनुमान, िकि -कल्पना-
अपेक्षा या उनके सुख-दुख से आकलन) की
क्या आवश्यकिा?
हनु मन अथािि सूक्ष्म या अंिमुिखी मन
जो हर एक जीवात्मा के हृदय में छु पा
बैठा है, जीव का परमात्मा से जुडने का
एक मात्र साधन है। वह सूक्ष्म मन,
सांसररक या प्राकृ तिक तनयमों से बंधा ह
नह ं होिा; इसललये, उन्हें गोस्वामी जी
कहिे हैं कक वे गुर्ों और ज्ञान (प्रतिकक्रया
के साधन और उनसे प्राप्ि ज्ञान या
पूवािनुमान की आवश्यकिा) को जय कर
चुके ।
हनुमन या सूक्ष्म मन, जीवात्मा के हृदय
के अंदर से हो कर तनकल परम आत्मा से
लमलने वाल एक गुप्ि सुरंग-मागि (या
अन्िमिन) है। यह मागि संसार से हो कर
10. :यथाथथहनुमनचालीसा
10
नह ं जािा। जीवात्मा के ललये यह कभी
संभव नह ं, कक वह संसार के बाहर
ववस्िार स्जसमें समस्ि अन्िररक्ष और
िारा मण्डल हैं उन्हें पार कर भी संसार से
बाहर तनकल सके । स्जस मन में संसार का
सारा ववस्िार भरा है वह दपिर् की िरह
ह जड़ है और उसमें स्जिना ह देखा जाय
उिना ह वह हदखािा जािा है। आत्म-
ज्ञान, उस दपिर् में नह ं है। वहहमुिखी मन
(रावर्) का ररक्ि हो जाना ह हनुमन या
सूक्ष्म मन है। उसी हनुमन ने लंका अथािि
संसार और उसमें दृश्य ववस्िार को, आत्म-
ज्ञान से जला डाला। जीवात्मा के मन में
स्स्थि भयावह इस संसार (लंका) के दहन
को, गोस्वामी जी ने सुंदर कांड का नाम
हदया।
स्जस िरह पारदशी सूयि के प्रकाश में साि
रंग (बैंगनी, आसमानी, नीला, हरा, पीला,
नारंगी, लाल) हैं उसी िरह मन के ववचार
भी साि प्रकार (सूचना, कल्पना, अनुभव,
स्मृति, िकि या सैद्धांतिक ज्ञान, स्वभाव
या अवचेिन मन और अन्िज्ञािन) के होिे
हैं। जीव जो भी देखिा है उसका चचत्त या
पशेप्शन, मन के इन्ह ं रंगों से लमल कर
बनिा है। मन के इन रंगों का लमश्रर्
बदलिे ह चचत्त भी बदल जािा है।
उदाहरर् के ललए ककसी अनजाने को हम
सूचना या कल्पना के लमश्रर् से देखिे हैं
जबकक चचर-पररचचि को, स्मृति से। ककसी
को वह हदखेगा ह नह ं क्योंकक उसका
ध्यान उस ओर नह ं जायेगा। व्यस्क्ि एक
ह होगा ककन्िु उसे देखने वाले अन्यान्य
व्यस्क्ियों को वह उनकी मन की स्स्थतियों
के अनुसार अलग अलग हदखेगा।
मन के ये ववचारों की िुि गति, जो प्रकाश
की गति की सीमा से भी परे हैं। और,
के वल उसी के द्वारा प्रकृ ति में स्स्थि
जीवात्मा और प्रकृ ति से परे परमात्मा
आपस में जुड़े रहिे हैं, उन्हें कवप कहिे हैं।
इस िरह मन के ववचारों या कवप के साि
प्रकार हैं। हनुमन उन सभी के स्वामी
अथािि कपीश (अंतिम ववचार, अन्िज्ञािन)
हैं। कपीश के स्वरूप को गोस्वामी
िुलसीदास ने वंदन करिे हुये कहा
"सीिाराम गुर् ग्राम, पुण्यारण्य ववहाररर्ौ ।
वन्दे ववशुद्ध ववज्ञानौ कवीश्वरौ,
कपीश्वरौ॥"
सीिा (जीवात्मा) और राम (परमात्मा) के
बीच का यह मागि स्जस पुण्य के जंगल से
गुजरिा है और उस पुण्यारण्य में कपीश
हनुमन (श्री) का तनवास है। कपीश
हनुमन, सीिा (जीवात्मा) और राम
(परमात्मा) के ग्राम में स्स्थि सुरम्य पुण्य
के वन में ववहार करिे हैं। हनुमन के
ववशुद्ध ववचारों की कोई सीमा नह ं है,
और वे ववचार ककसी माध्यम पर तनभिर
नह ं होिे इसललये हनुमन महानिम कवव
(कवीश्वर) भी हैं।
ज्ञान व्यस्क्िगि होिा है और दो ज्ञानी
प्रायः अलग अलग पूवािनुमान करिे हैं
क्योंकक उनका व्यस्क्िगि दृस्ष्टकोर् सत्य
की खोज में बाधक बन जािा है। हनुमन
ज्ञान और गुर् के उस सागर को लांघ चुके
हैं इस ललये ज्ञान की उन्हें कोई
आवश्यकिा नह ं। ववज्ञान जो व्यस्क्िगि
ज्ञान नह ं है और स्जससे लभन्निा या
सांसररक दोष नह ं हो सकिा, उस शुद्ध
ववचार के स्वामी हैं।
11. :यथाथथहनुमनचालीसा
11
राम दूत अतुमलत बल धामा।
अंजनन पुत्र पवन सुत नामा॥ 2
श्री राम के संदेश वाहक या दूि ह हनुमन
हैं।
वह अिुललि आत्मबल स्जसके श्रोि
परमात्मा श्री राम हैं, उसी अिुललि बल के
तनधान, हनुमन, जन्म और मृत्यु रहहि
अथािि अंजतन (स्जसका जन्म नह ं होिा)
पुत्र हैं।
बल से हनुमन नह ं हैं बस्ल्क प्राकृ तिक बल
जो अिुललि या अनंि है उन बलों का
श्रोि, आत्म-बल, हनुमन है।
हनुमन, राम दूि या राम के संदेश वाहक
हैं इसललए उनको सदैव ह चलिे रहना है
और इसललए उन्हें ‘पवन’ पुत्र भी कहिे हैं।
पवन को रोका नह ं जा सकिा अथािि वह
परम आत्मा ह हैं स्जसके श्रोि या सुि,
हनुमन हैं।
हनुमन शस्क्िशाल नह ं हैं वे बलशाल हैं।
बल प्राकृ तिक (जैसे पृथ्वी का गुरुत्व बल )
होिा है इसललए यह अनंि या अिुललि
(स्जसका पररमार् तनकालना संभव न हो)
है ककन्िु शस्क्ि सीलमि होिी हैं जैसे
इलेस्क्िलसट जो यंत्रों से बनिी है और
उपयोग के बाद समाप्ि हो जािी है।
मेघनाद के पास शस्क्ि या सत्ता थी ककन्िु
हनुमन के पास अिुललि बल है। बल का
दुरुपयोग कभी संभव नह ं है ककन्िु वह
बल जब शस्क्ि बन जािी है िब वह
अपनी प्राकृ तिक स्विन्त्रिा खो देिी है
और असुर उसका प्रायः दुरुपयोग करिे हैं।
सुर या देविा जैसे सूयि, पृथ्वी, जल, वायु,
अस्ग्न, .... उस प्राकृ तिक बल और तनयमों
(धमि) का आदर करिे हैं और उनका
दुरुपयोग कभी नह ं कर सकिे।
शस्क्ि या सत्ता, का दुरुपयोग संभव है
इसललये मेघनाथ स्जसने प्राकृ तिक बल को
अप्राकृ तिक शस्क्ि बना, उसे सीलमि कर
डाला और, उसके ह दुरुपयोग के कारर्
संसार में क्लेश ककया और स्वयं नष्ट भी
हो गये। जबकक बल पववत्र होिा है और
वह प्राकृ तिक और अिुललि है। उसमें कभी
कोई लोभ या भय या अहंकार नह ं होिा
और यह कारर् है कक हनुमन की बुद्चध,
बाल बुद्चध है। बुद्चध, बाल अवस्था में ह
प्रकट होिी है और िभी जीव नूिन या
अनजाने संसार को देखिा समझिा है।
मन का ववस्िार इसी बुद्चध के बल की
देन है। हनुमन की बुद्चध में बल है
इसललए इसमें कोई शत्रुिा का भाव नह ं
होिा और यह बल सदैव ववज्ञान, समानिा
और प्रेम की ह वृद्चध करिा है। असुरक्षा
और टकराव का कारर् मन का सीलमि
होना है, बुद्चध नह ं। क्योंकक, बुद्चध मन
का ह ववस्िार कर देिा है स्जससे मन की
कोई सीमा ह नह ं रहिी।
रोकने का अचधकार ह शस्क्ि है। जो
ककसी की स्विन्त्रिा को कम नह ं कर
सकिा या ककसी को हातन नह ं पहुंचािा
उसे लोग शस्क्िशाल नह ं मानिे। शस्क्ि
के वल िभी बन सकिी है जब वह ककसी
प्राकृ तिक बल का ववरोध करे। शत्रु भाव के
बबना ककसी शस्क्ि का तनमािर् नह ं होिा।
टबािइन जब चुम्बकों के बीच एलेक्िोन के
बहाव को रोकिा है िभी वे ववद्युि नाम
की शस्क्ि बनिे हैं। सत्ता भी यह ववरोध
या रक्षात्मक शस्क्ि ह राक्षस का स्वरूप
12. :यथाथथहनुमनचालीसा
12
है। सत्ता या शस्क्ि सीलमि होिी है क्योंकक
प्रकृ ति द्वारा उसका क्षय तनश्चय है।
महा वीर ववक्रम बज रंगी ।
कु मनत ननवारर सुमनत के संगी ।। 3
वीर जो स्वभाव को कभी नह ं छोड़िा
उनके आदशि, महा वीर हैं।
ववक्रम जो ककसी क्रम (1,2,3,4 ) से बंधा
न हो और कै से भी लक्ष्य पा ले
े़
, ववक्रम
(1, 10, 1000, 10000) हैं।
रंग, वर्ि या प्राकृ तिक गुर् को कहिे हैं
और रंग ह न, तनवािर् या वर्ि रहहि,
तनगुिर् मन ह बज रंगी हैं।
मति, बुद्चध की हदशा है। मन को
परमात्मा की हदशा में ले जाने वाल
बुद्चध, सुमति है। मन को संसार की हदशा
में ले जाने वाल बुद्चध, कु मति है।
हनुमन वह अन्िमिन हैं जो सुमति की
संगी हैं और कु मति का तनवािर् या उसकी
हदशा बदल कर उसे सुमति बना देिे हैं।
तनगुिर् (बज रंगी, गुर् या रंग से रहहि
होना) अथािि गुर् से खाल होना भी क्या
कोई लाभ है? सुमति से गुर्ी तनगुिर् हो
जािा है, क्या यह भी कोई लाभ है?
सुमति आत्मा की वह समझ है स्जससे कक
उसके मन का झोला ररक्ि या खाल हो
सके । यह ववरक्ि या ववशेष रूप से ररक्ि
या बजरंगी, या तनवर्ि (वर्ि या रंग
रहहि), या तनवािर् होना क्या है? वैराग्य
अथािि वह ववशेष राग या अनुराग क्या है
स्जसके कारर् सभी गुर् अनावश्यक हो
जािे हैं?
आत्मा सांसररक गुर्ों से ग्रलसि हो कर
अपने परम ित्व का ववस्मरर् कर देिी
है। उदाहरर् के ललये स्जस िरह आलू की
उपयोचगिा समोसा बनने के बाद व्यावसाय
िक ह सीलमि हो जािा है उसी िरह जब
कोई जीव गुर्ों को धारर् कर लेिा है िब
उसका ित्व ज्ञान नष्ट हो जािा है। समोसे
को पुनः आलू बनना या सांसररक प्रार्ी
का संसार से ववरक्ि हो जाना ह उसके
ित्व ज्ञान की प्रास्प्ि है। यह त्याग,
वैराग्य या भस्क्ि है। तनगुिर्-अमूल्य आलू
को लमट्ट में भी डाल दें िो उसमें से नयी
कोपलें िू टने लगिीं हैं। जबकक समोसा का
जीवन मूल्यवान, गुर्ी ककन्िु असुरक्षक्षि
रहिा है। ववशेषज्ञ, तनमाििा या व्यवसायी,
समोसे की िरह बहुि गुर्ी होिे हैं ककन्िु
प्रकृ ति के साविभौलमक तनयम को खोजने
वाले आइन्स्टाइन सर खे तनगुिर् वैज्ञातनक
स्जन्हें नोबल प्राइज़ लमलिा है वे कभी
ववशेषज्ञ या सीलमि-ज्ञानी नह ं होिे। उनके
मन की सीमाएं समाप्ि हो जािीं हैं और
वे स्वयं तनवविचार या ववचारों के द्वंद से
ररक्ि होिे ह , अपने आप ह बंधन से
मुक्ि भी हो जािे हैं। ववरक्ि होने की
आत्मा की यह समझ ह वैराग्य है। इसी
िरह, संसार में संग्रह ि धन, वैभव और
ज्ञान उसी आत्मा को जकड़ कर रखिे हैं
स्जसने उसे स्वयं ह संग्रह ि ककया है, और
उस संकल्प के कारर् आत्मा को अपने ह
कारर् परम आत्मा का साक्षात्कार नह ं हो
सकिा।
परम आत्मा से आत्मा का राग होिे ह
आत्मा में उत्पन्न उस परम आत्मा की
चाहि को वैराग्य (अनुराग) कहिे हैं।
वैराग्य अथािि परम आत्मा में उस अनुराग
होने से आत्मा के मन में संसार से मोह
13. :यथाथथहनुमनचालीसा
13
नह ं रहिा। संसार जो उसकी ह बनाई
सृस्ष्ट है वह िो रहिा है ककन्िु उसमें उसी
का मन नह ं लगिा। वह, परम आत्मा का
साक्षात्कार करने में िब िक बबिल रहिा
है जब िक उसका मन, संसार से पूर्िि:
ररक्ि न हो जाय।
आत्मा िब अपने ह द्वारा संग्रह ि ज्ञान,
बल, धन, वैभव और यश आहद को छोड़ने
का संकल्प करिा है क्योंकक उससे उसका
मोह नष्ट होना आरंभ हो गया और वह
उससे ररक्ि होने में आनंद का अनुभव
करिा है।
ककन्िु प्रकृ ति िो अक्षय है इसललए आत्मा
के प्रकृ ति में उसकी स्स्थति का ररक्ि होना
िो संभव हो नह ं सकिा? ककन्िु वह उनके
साथ रहिे हुये उनसे मोह नह ं करिा और
उसे दान स्वरूप में बांटिे रहने से ह उसे
परम संिुस्ष्ट और ररक्ि होने का अनुभव
लमलिा है। अथािि, ववशेष िरह मोह से
ररक्ि होना ह ववरक्ि होना है।
वैराग्य (परम आत्मा से अनुराग) के बबना
ववरस्क्ि नह ं होिी। ववरस्क्ि अथािि ररक्ि
होना िभी संभव है जब कह ं और जाना
हो। जैसे िेन के गंिव्य पर पहुाँचने पर
सवार को िेन छोड़ना नह ं पड़िा बस्ल्क
वह स्वयं ह प्लेटिॉमि पर उिर जािा है।
ककन्िु यहद गंिव्य का ज्ञान न हो िब वह
सवार उस िेन के डडब्बे में बंद रहने में ह
अपनी सुरक्षा का अनुभव करिा है, चाहे
उसे ककिना भी कष्ट क्यों न हो, और यहद
उसे कोई उसके स्थान से उठाना चाहे भी
िो वह उससे लड़िा रहिा है। संसार से
ववरक्ि होना अपने आप ह होिा है और
उसका कारर् के वल वैराग्य (परम आत्मा
की चाह) ह है न कक संसार के कष्ट और
दुख या तिरस्कार।
िेन के सभी सवार चाहे वे फ्रष्ट क्लास में
हों या थडि क्लास में, गंिव्य पर पहुाँचने
पर उन सभी को उस िेन के डडब्बे से मोह
नह ं रहिा। आत्मा का पुनजिन्म उसका
िेन को बदलना ह है क्योंकक जीवात्मा को
हर हाल में अपना गंिव्य पिा रहिा है,
और उसे वहााँ पहुाँचने के ललए िेन नेटवकि
(जन्म-मृत्यु) में उलझना ह संसार है।
कं चन वरन ववराज सुवेषा ।
कानन कुं डल कुं धचत के शा ॥ 4
हनु मन का भौतिक शर र और उनकी
इंहियााँ सोने जैसी सुचालक अथािि संवेदन
शील हैं । अथािि उनका शर र और इंहियााँ
अत्यंि शुद्ध, दोष रहहि और पववत्र जो
सोने का वर्ि है, हैं। उनका वेष, सुवेष है
अथािि उनके वेष को देखने से ककसी को
कभी कोई भय, अहंकार या अलगाव का
बोध नह ं होिा।
उनके कान वह सुनिे हैं जो कुं डल से छन
कर आयें स्जससे वह ववचार आयें जो
आत्म ज्ञान और परम आत्मा में भस्क्ि से
पूर्ि हों।
के श, लसर के रोवें या त्वचा के बाल को
कहिे हैं वे गमी और सदी से त्वचा की
रक्षा करिे हैं। संसार के सभी िाप (जैसे
असुरक्षा-भय, मोह-लालच-क्रोध, िुलना-
तनयंत्रर्-प्रतिस्प्रधा) हनुमन को कभी
व्यचथि नह ं कर सकिे क्योंकक उनके
शर र की इंहियााँ उनको रोकने में समथि हैं।
14. :यथाथथहनुमनचालीसा
14
गोस्वामी जी के भौतिक शास्त्र के अनुभव
को प्रर्ाम। धािु का वगीकरर्, उसकी
ववद्युि सुचालकिा से की जािी है। स्जस
धािु में सुचालकिा अचधक होिी है उसमें
ववद्युि बबना ककसी प्रतिकक्रया के , पार हो
जािी है। कं चन या सोना वह धािु है जो
उस जीवात्मा का प्रिीक है जो प्रतिकक्रया
रहहि या शुद्ध है। सोने के िार में
ववद्युि प्रवाह होने से उसमें क्रोध या
ऊष्मा नह ं होिी। सन्ि वह है जो अत्यंि
सुचालक है, अति संवेदन शील है और
इस कारर् उसे संसार में रहिे, और सब
कु छ करिे हुये भी, कभी कोई प्रतिकक्रया
नह ं करनी होिी। जबकक िांबे या
अलुलमतनयम के िार में ववद्युि प्रवाह
करने से वह कु वपि या क्रोध या ऊष्मा से
भर जािा है क्योंकक सोने की िरह वह
सुचालक या संवेदनशील नह ं होिा। यह
असंवेदनशील कौरव (प्रतिकक्रयात्मक,
अपववत्र), सन्ि अथािि सोने के स्वभाव या
पांडु (पांडव, पीला सोना, पववत्र) की िरह
नह ं होिे।
हाथ वज्र औ ध्वजा ववराजे ।
कं धे मूूँज जनेऊ छाजे ॥ 5
हनुमन के हाथ में वज्र जो कभी हार नह ं
सकिा वह बल है और राम की भस्क्ि का
तनश्चय ह उनके आत्म बल का पररचय,
ध्वजा है।
कं धे पर मूाँज की जनेऊ है। मूाँज प्राकृ तिक
वनस्पति है और इसी प्राकृ तिक धमि को
हनुमन जनेऊ की िरह धारर् करिे है।
प्रकृ ति का सम्मान करना और उसकी
पववत्रिा की रक्षा करने का भार हनुमन के
कं धे पर सदैव रहिा है। अप्राकृ तिक हदशा
में जब धमि का दुपरूपयोग होिा है िब
उस असहाय प्रकृ ति के संकट को दूर करने
का भार, हनुमन के कं धे पर होिा है।
शंकर सुवन के सरी नन्दन ।
तेज प्रताप महा जग वंदन ॥6
वन का अथि बंधन है। सुवन (सु वन) का
अथि है वह बंधन जो सुंदर हो। हनुमन
'शंकर सुवन' हैं, अथािि जीव के मन में
स्स्थि ककसी भी शंका के तनवारर् के इस
शुभ संकल्प से बंधे हैं। उनको मन मे
धारर् करने मात्र से, शंका के तनवारर् का
उनका यह संकल्प उस जीव के मन को
दोष रहहि बना देिा है। भगवन भी ‘भग्न
वन’ है अथािि बंधन (भग्न) मुक्ि (वन)
स्स्थति। ‘शंकर सुवन’ हनुमन की वह
स्स्थति है स्जसमें शंका के तनवारर् का
संकल्प या बंधन है; जबकक भगवन लशव
स्जसके सुवन हनुमन, स्वयं शंकर हैं।
जब िक जीव के मन में लेश मात्र भी
शंका होगी वह उस मन की शांति में
ववघ्न पैदा कर देगा, स्जसके कारर्
जीवात्मा का उस प्राकृ तिक बंधन को पार
कर परमात्मा से लमलना कभी संभव नह ं
होिा।
शंका, मानलसक ज्ञान से दूर नह ं हो सकिी
ककन्िु जब परमात्मा के सत्य का के सर
लाल रंग दूर से हदखने लगिा है िब सूयि
के उगने से पूवि की लाललमा देख, संसार के
सभी जीव उसका बंदन करिे हैं। ज्ञान,
संसार की काल राबत्र की अंधेरे में टॉचि
का प्रकाश की िरह है और हर ज्ञानी
अपने अलग अलग ज्ञान या अज्ञान से
जीवों को भरोसा देिा रहिा है ककन्िु
15. :यथाथथहनुमनचालीसा
15
प्रभाि की लाललमा होिे ह ज्ञान और
ज्ञानी दोनों महत्वह न हो जािे हैं और
सभी सत्य के प्रकाश में एक सा ह देखिे
हैं।
के सर , लाल रंग के कल्यार्कार प्रकाश
को कहिे हैं जो दूर से ह हदखिा है।
हनुमन उसी रंग के गभि या मूल हैं। सूयि
के पारदशी प्रकाश (बैंगनी, आसमानी, नीला,
हरा, पीला, नारंगी, लाल) की िरह ह न
हदखने वाले मन के भी साि रंग (सूचना,
कल्पना, अनुभव, स्मृति, िकि या ववज्ञान,
स्वप्न या अवचेिन, और अन्िज्ञािन) होिे
हैं और अंतिम लाल रंग ह अन्िज्ञािन है।
लाल रंग जो उनसे तनकलिा हुआ प्रकाश
है वह प्रिाप सबसे िेज है और समस्ि
जगि उनको देख सकिा है और वंदन
करिा है।
ववद्यावान गुणी अनत चातुर ।
राम काज कररबे को आतुर ॥ 7
ज्ञान और गुर् के सागर को लांघने या
जय करने वाले हनुमन, श्री राम के कायि
करने की आिुरिा में उन गुर्ों को हाथ
लगाने से भी संकोच नह ं करिे। लेककन
'गुणी अनत चातुर' अथािि, हनुमन उन
गुर्ों का उपयोग इस चिुरिा सा करिे हैं
कक वे प्राकृ तिक तनयम उन्हें ललप्ि या
बांध नह ं सकिे।
हनुमन ववद्यावान हैं ज्ञानवान (प्रकृ ति के
तनयमों के ज्ञान ) नह ं ।
हनुमन, गुर्ी (प्रकृ ति की
प्रतिकक्रयात्मकिा) नह ं, तनगुिर् (बज
रंगी, या रंग ह न) हैं। ववद्या होने पर
ज्ञान की कोई आवश्यकिा इसललए नह ं
रह जािी क्योंकक ववद्या, वववेक है। वववेक,
तनर्िय की स्विन्त्रिा है। ज्ञानी एक
लाइब्राररयन की िरह है स्जसके पास संसार
की सभी पुस्िकें और ज्ञान भंडार सुरक्षक्षि
हैं ककन्िु एक प्रोिे सर जो प्राय: खाल हाथ
ह रहिा है उसके पास कोई पुस्िक नह ं
होिी ककन्िु आवश्यकिा पड़ने पर उसे
ववद्या अथािि ज्ञान की उपयोचगिा का
चुनाव, की क्षमिा है। ववद्वान को ज्ञान
चाहहये ककन्िु वह कभी ककसी ज्ञान से
चचपका नह ं रहिा, क्योंकक ववद्या का अथि
ह है मुक्ि करना। या ववद्या स
ववमुक्िये।
ज्ञानी ववद्वान नह ं हो सकिा, क्योंकक वह
अपने ज्ञान में ह उलझ जािा है, और
स्जिना ज्ञान बढ़िा रहिा है उसमें से
ढूाँढना उिना ह कहठन होिा जािा है।
इसललए ज्ञानी के अपने व्यस्क्िगि
पूवािग्रह से बंधे होने के कारर् वह यहद
सत्य के समक्ष भी खड़ा हो वह उसे नह ं
पहहचान सकिा। यहााँ ज्ञान का अथि,
सामान्य प्रकृ ति या प्रति-कक्रया या दपिर् में
प्रतिबबंब के अध्ययन से प्राप्ि सांसररक
ज्ञान है।
"जय हनुमान ज्ञान गुर् सागर, जय कपीश
तिहुं लोक उजागर ॥" हनुमन जो ज्ञान के
इस सागर और प्रतिकक्रया कार गुर्ों के
सागर को जय या लांघ गए हैं, वे ज्ञान
वान नह ं बस्ल्क ववद्यावान हैं, और गुर्ी
नह ं बस्ल्क तनगुिर् हैं। और, उनके तनर्िय
प्रकृ ति तनलमिि सांसररक ज्ञान से परे होिा
है और गुर् उन्हें बांध नह ं सकिे ।
ककन्िु, इस प्राकृ तिक जगि में, हनुमन को
श्री राम के कायि करने की इिनी आिुरिा
है कक वे उन गुर्ों का इस्िेमाल करने में
भी नह ं हहचकिे। अब प्रश्न यह है कक
16. :यथार्थहनुमनचालीसा
16
गुर्ों को जय करने वाले हनुमन जब उस
गुर्ों का जब उपयोग करेंगे िब प्राकृ तिक
गुर् उनसे अवश्य ह चचपक जाएंगे। अिः
हनुमन को चिुरिा से उन गुर्ों का
उपयोग करना होिा है स्जससे प्रकृ ति के
गुर् उनको प्रभाववि न कर सकें ।
हनुमन का कायि उस सजिन की िरह है
स्जसे सांसररक या बीमार आत्माओं की
मुस्क्ि का कायि जो श्री राम का काज है
उसे करने की बड़ी उिावल रहिी है।
ककन्िु वह सजिन अपने इस कायि को
उिावल से करिे हुये भी आवश्यक
सावधानी या चिुरिा को बरििा है स्जससे
सांसररक रोग या गुर् उसे ह न चचपक
जायें। अथािि हनुमन इस संसार में रोगी
जीवात्माओं के कल्यार् हेिु, अपने आप
को चिुरिा से संसार और उनके गुर्ों से
तनललिप्ि रख, उनका इलाज करिे हैं।
आिुरिा क्यों? आिुरिा या उिावल ककसे
कहिे हैं? आिुरिा का होना देविाओं का
गुर् कभी नह ं है। इस ललए हनुमन देविा
िो हो ह नह ं सकिे।
"और देविा चचत्त न धरयी हनुमि सेतय
सबि सुख करई।"
सूयि, चंि, पृथ्वी आहद देविा अपने
प्राकृ तिक तनयम को कभी नह ं िोड़ सकिे
क्योंकक उनमें जड़िा होिी है। सूयि, चन्ि
या पृथ्वी कभी न िो अपने गति से
अचधक और न ह धीमे चलिी है, क्योंकक
इनमें मन होिा ह नह ं इसललये कु छ भी
हो जाय इनमें कभी आिुरिा नह ं हो
सकिी। देविाओं से प्राथिना करने से क्या
लाभ? श्री राम के कायि इसललए देविाओं
के बस का नह ं होिा। श्री राम को जब
समुि ने अपनी इस मजबूर या अपने धमि
को बिाया िभी उन्हें समुि पर पुल बनाना
पड़ा। वैज्ञातनक भी अस्ग्न या वायु या
पृथ्वी देविाओं से प्राथिना नह ं करिे बस्ल्क
वे उनका धमि (प्राकृ तिक तनयम) जान लेिे
हैं और धमि पूविक ललये गये उनके तनर्िय
से देविा अपने आप ह सहायक या सेवक
बन जािे हैं।
राम काज के ललये हनुमन सदैव ित्पर हैं।
हनुमन ववद्यावान हैं इसललये वे प्रकृ ति के
तनयम (गुर्) और उनसे बने ज्ञान या
ववचारों के जाल और उनकी सीमाओं से
बबना बंधे, तनर्िय लेने में स्विंत्र हैं। किर,
उनके तनर्िय का पालन देविा अपने अपने
धमि से करिे हैं। हनुमन श्री राम के कायों
के ललये स्विंत्र हैं क्योंकक उनको इिनी
आिुरिा होिी है कक वे ककसी एक प्राकृ तिक
तनयम पर स्स्थर देविाओं पर कभी तनभिर
नह ं रहिे और, बड़ी ह चिुराई से, ककसी
एक गुर्ों से ललप्ि हुये बबना, सभी गुर्ों
का उपयोग करिे हैं।
प्रभु चररत्र सुनबे को रमसया ।
राम लखन सीता मन बमसया ॥ 8
हनुमन, श्री राम जो प्रभु हैं अथािि अपनी
इच्छा से ह प्रकट होिे हैं या स्जनके प्रकट
होने या भव का कारर् नह ं होिा, के वल
उनके ह चररत्र को सुनिे हैं।
स्जनके कायि पूवािनुमातनि हों या जो कायि
योजना से ककया जािा है या संसार के
लोगों द्वारा िल की इच्छा से जो कायि
होिे हैं वे प्रभु नह ं हैं और हनुमन को उन
चररत्रों को सुनने से क्या लाभ?
17. :यथाथथहनुमनचालीसा
17
बुद्चध का स्वभाव ह है कक वह मन के
क्षेत्र के बाहर जाना चाहिी है और अनजाने
को जानने से ह उसको संिोष लमलिा है।
पहहले से ह जाने-समझे कायि में आत्मा
को आराम रहिा है और इसी कारर् वह
बुद्चध को मन में रोकिा है। मन की सीमा
को ह ववषय (बाउंडर या सबजेक्ट) कहिे
हैं जबकक बुद्चध उस सीमा या ववषय को
िोड़ कर उसे आगे बढ़ािा है और आत्मा
की मन की सीमा या ववषयों से मुस्क्ि की
इच्छा को ह ववद्या या वववेक कहिे हैं।
बुद्चध, सदैव अपने प्रभु (अनजाने, अप्रमेय)
की खोज करिी है क्योंकक उसे अपने ह
द्वारा तनलमिि मन का मोह या आराम
नह ं भािा। मन की सीमा, आत्मा के
बंधन का कारर् है और जब िक बुद्चध
उस सीमा को िोड़ कर उसका ववस्िार
करिा रहिा है, वह आत्मा की अनजाने
(प्रभु) को जानने की स्विन्त्रिा है।
श्री राम जो प्रभु हैं उनके लक्षर् (लक्ष्मर्)
का प्रत्येक जीवात्माओं (सीिा) के मन में
बसे रहने और उन जीवात्माओं के चररत्रों
द्वारा उस अद्भुि प्रभु चररत्र को देखिे
हुये, हनुमन को रस आिा है। वे
जीवात्माओं के चररत्रों में, प्रभु श्री राम के ,
अथािि आत्मज्ञान से स्वयं उत्पन्न होने
वाले लक्षर्ों को देख ह प्रसन्न होिे हैं।
हनु-मन पारखी होिा है। वह तनश्छल प्रेम
और उनके लक्षर् जो जीव के वश में नह ं
होिे और उसका हदखावा नह ं ककया जा
सकिा, िुरंि पहहचान लेिे हैं। अशोक
वाहटका में, सीिा अथािि जीव के मन में
श्री राम की प्रीति के लक्षर् को बसे देख,
हनुमन ने उन्हें िुरंि पहहचान ललया था।
सूक्ष्म रूप धरी मसयहहं हदखावा।
बबकट रूप धरी लंक जरावा ॥ 9
अशोक वाहटका में सीिा जी सांसररक
बंधन में थीं। सीिा, जीव हैं और उनके
सिो गुर् के कारर् वे सीिा कह लायीं।
प्राकृ तिक गुर् चाहे कोई भी हो, बंधन कार
होिा है। सीिा ने अपने स्वाभाववक सिो
गुर् के कारर्, लभक्षु वेश धार रावर् पर
दया की और रावर् ने उनका अपहरर्
ककया।
आज भी जीवात्मा सांसररक बंधन में अपने
सास्त्वक गुर्ों के कारर् ह शोवषि हो रहे
हैं और वे अपनी रक्षा में असहाय हैं। उनके
उद्धार के ललए हनुमन उनको अपना
सूक्ष्म रूप हदखािे हैं और उन्हें सांत्वना
देिे हैं। ककन्िु वह हनुमन, दुमिति
पापात्माओं के ललये बबकट रूप धर, उनके
संसार या लंका को जला डालिे हैं।
संसार के पापात्माओं का संहार उन्ह ं सीिा
या सिोगुर्ी जीवात्माओं के द्वारा होिा है
जो देखने में शस्क्िशाल नह ं होिे ककन्िु
उनमें हनुमन के अिुललि आत्मबल का
िेज होिा है।
संसार में सिोगुर्ी आत्माओं का शोषर्
िमो गुर्ी पापात्माओं द्वारा प्रायः सरलिा
से होिा है। वे धमि पारायर् हैं और धमि
पर चलिे हुये सभी कष्ट सहिे हैं। सरल
हृदयी मनुष्य, नहदयां, पविि और प्राकृ तिक
संसाधन इसी सीिा के उदाहरर् हैं। ये
सभी सीिा की िरह बंधन में रहिे हुये
कभी प्रतिकक्रया नह ं करिे और श्री राम
की ह प्रिीक्षा करिे हैं। उनके बल श्री राम
ह हैं।
18. :यथाथथहनुमनचालीसा
18
भीम रूप धरर असुर संहारे ।
राम चंद्र के काज सूँवारे ॥ 10
भीम उसे कहिे हैं जो स्जिेंहिय होिा है।
स्जसकी इंहियााँ और मन वश में नह ं होिे
वह भीम नह ं कहलािा। असुर उसे कहिे
हैं जो सुर या संगीि की िरह
पूवािनुमातनि, तनस्श्चि या ववश्वसनीय न
हो। सूयि की गति तनस्श्चि है इसललए वे
ह सुर हैं। जो अववश्वसनीय या धोखेबाज
हो, वह असुर है।
हनुमन का स्वभाव भीम है और जीवात्मा
का अपने इंहियों और मन पर ववजय
करना िभी संभव हैं जब हनुमन का
स्वरूप स्पष्ट हो।
उस हनुमन का स्जिेंहिय स्वरूप, मन की
असुर वृवत्त, मन की उथल पुथल या
चंचलिा को समाप्ि कर देिा है। और
िभी, श्री राम उस जीवात्मा को लमलिे हैं।
जीवात्मा को कोई कायि नह ं करना होिा,
जीवात्मा के उद्धार का कायि श्री राम का
ह काज है जो हनुमन के द्वारा सम्पन्न
होिा है। ककन्िु श्री राम के उस कायि में,
जीवात्मा को अपने मन और इंहियों पर
संयम आवश्यक है, और यह हनुमन की
कृ पा से संभव हो पािा है। जब ककसी
व्यस्क्ि को कु एं से तनकालिे हैं िब उस
व्यस्क्ि को कु छ भी नह ं करना होिा
बस्ल्क अपने इंहियों और मन को समेट
उसे उस रस्सी को दृढ़िा से पकड़े रहना ह
पयािप्ि है।
लाय संजीवन लखन जजयाये।
श्री रघुवीर हरमस उर लाये॥ 11
श्री राम (जो परमात्मा हैं) स्जनके
प्राकृ तिक लक्षर् सभी जीवात्माओं में होिे
हैं ककन्िु उन्ह ं जीवात्माओं को जब वह
बोध नह ं रह जािा है, िब हनुमन (सूक्ष्म
मन या अन्िमिन ) ह उनको संजीवनी या
परमात्मा की स्मृति हदला, उस जीवात्मा
को पुर्ञ्जीववि करिे हैं।
लक्ष्मर् श्री राम के लक्षर् हैं। मेघनाद की
पररस्स्थति ने लक्ष्मर् को अचेि कर हदया
था। परम आत्मा कभी अचेि नह ं होिे
ककन्िु घोर पररस्स्थतियों में जब संसार को
उनके लक्षर् नह ं हदखिे और वह
िात्काललक स्स्थति लक्ष्मर् की मूक्षाि
कहलािी है। हनुमन ने संजीवनी ला कर
श्री राम के प्राकृ तिक प्रभाव या लक्षर् को
पुनः जीववि कर हदया।
जीवात्माओं पर हनुमन की इस कृ पा को
देख, रघु वीर श्री राम हनुमन को अपने
हृदय से लगा लेिे हैं।
रघुपनत क ंन्हीं बहुत बड़ाई।
तुम मम वप्रय भरतहह सम भाई॥ 12
रघु पति श्री राम, हनुमन की बहुि ह
बड़ाई करिे हैं क्योंकक वे ह जीवात्मा
‘सीिा’ और परमात्मा ‘राम’ के बीच के
पुण्य के उस जंगल में रहिे हैं और उनके
बीच अन्िज्ञािन के माध्यम हैं। भरि
अथािि परमात्मा का प्रकाश स्जनसे वह
पुण्यारण्य प्रकालशि है और जो उनसे कभी
अलग नह ं हो सकिा वह प्रकाश,
भरि और हनुमन जो उस प्रकाश से
19. :यथाथथहनुमनचालीसा
19
प्रकालशि अन्िमिन का मागि है, दोनों भाई
समान हैं।
सहस बदन तुम्हारौ जस गावै।
अस कहह श्री पनत कं ठ लगावै ॥ 13
सनकाहदक ब्रह्माहद मुनीशा।
नारद शारद सहहत अहीसा॥ 14
जम कु बेर हदक्पाल जहां ते।
कबब कोववद कहह सके कहाूँ ते ॥ 15
श्री पति अथािि परमात्मा राम, अपने
जीवात्मा सीिा जो प्राकृ तिक जगि में
हनुमन के सहारे अशोक वाहटका में जीववि
है उसके द्वारा हनुमन के यश के गायन
से गद गद हैं।
सीिा अथािि समस्ि जीवात्मा या
अनचगतनि यांबत्रक शर र, जो उसी एक
परमात्मा के प्रार् से चलिे हैं सवित्र
हनुमन के ह यश का गायन करिे हैं, और
यह श्री है, और उसी श्री (श्रेय) के पति श्री
राम श्री रूपी हनुमन को गले से लगा लेिे
हैं।
सभी शर र, संगीि के लभन्न लभन्न
उपकरर् हैं । जब हनुमन जीवात्मा सीिा
को इस लंका या संसार में ढूंढ लेिे हैं िब
वे सभी शर र या वीर्ा अपनी अपनी
ध्वतन या वार्ी से हनुमन के यश का
गायन करिे हैं।
सनक, ब्रह्म आहद मुतन, और नारद और
सरस्विी जो जीवात्माओं के लभन्न लभन्न
इंहियों के शासक हैं वे भी सवित्र हनुमन के
ह यश का गायन करिे हैं।
यम अथािि काल जो जीवात्मा को
प्राकृ तिक जगि में, समय के पार क्या है
नह ं देखने देिा है, कु बेर जो धन और
प्राकृ तिक वैभव का स्वामी है, और
हदक्पाल जो जीवात्मा को चारों हदशाओं से
घेर कर रखिे हैं .... वे सभी सवित्र हनुमन
के ह यश का गायन करिे हैं। अथािि
हनुमन के यश का गायन करने वालों की
चगनिी, कवव जो सविज्ञ है वह भी नह ं कर
सकिे।
जो उपकार सुग्रीवहह क न्हा।
राम ममलाय राज पद दीन्हा ॥ 16
सुग्रीव को राम से लमलाने का उपकार
हनुमन ने ह ककया स्जससे उन्हें राज पद
लमल गया ।
सुग्रीव की इच्छा राज पद की थी ककन्िु
हनुमन की कृ पा के बबना जीवात्मा की यह
छोट सी सांसररक इच्छा भी पूर न हो
सकी।
श्री राम ह हर एक जीवात्मा के करिा
पुरुष हैं और उन करिा पुरुष से जीवात्मा
के लमलने का साधन हनुमन हैं। जब
सुग्रीव को हनुमन लमले िभी उनकी यह
इच्छा पूर हो सकी।
तुम्हरो मन्त्र ववभीषन माना।
लंके श्वर भये सब जग जाना । । 17
भीषर् उसे कहिे हैं जो असह्य हो जैसे
रावर् । जबकक ववभीषर्, अलग िरह का
भीषर् है। लंका या सांसररक जगि में
ईश्वर का स्थान ववभीषर् को हनुमन की
कृ पा से, श्री राम से लमलने पर लमला।
दुयोधन भी दुर है और ववदुर भी दुर है
ककन्िु, ववदुर अलग िरह का दुष्ट है।
संसार में िभी ववख्याि या 'जग जाना' हो