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37.1 – प्रस्ताeवना-
िप्रयच्छात्र! U.G.C. द्वारा सञ्चािित MOOCS काययक्रमान्तगयत
SWAYAM के स्नातकोत्तर -स्तरीय-ज्योितष-पाठ्यक्रम के “बृहज्जातक” नामक
शीषयक के सैंतीसवें पाठ ‘ईपसंहाराध्याय’ में अपका हार्ददक स्वागत है । आसके पूवय
‘द्रेष्काणाध्याय’ के ऄन्तगयत अपने १९वें श्लोक से ३६वें श्लोक तक के िवषयों का
िवस्तार से ऄध्ययन ककया । अपने जाना कक तुिा रािश के प्रथम द्रेष्काण से
िेकर मीन रािश के ऄंितम (तीसरे) द्रेष्काण में ईत्पन्न जातकों का स्वरूप, प्रकृित
अकद ककस प्रकार की होगी । ईदाहरण स्वरूप, यकद जातक तुिा के प्रथम
द्रेष्काण में हो तो नगर की गिियों में दूकान करने वािा, सुवणय अकद रत्नों और
ईनसे िनर्ममत अभूषणों का व्यापार करने वा िा होता है । आसी प्रकार ऄन्य
द्रेष्काणों में ईत्पन्न जातकों के िवषय में अपने गत पाठ में ऄध्ययन ककया । यह
३७ वां पाठ बृहज्जातक ग्रन्थ का ऄंितम पा ठ है । आसमें ग्रंथकार ने ग्रन्थ में अए
सभी पाठों के नामोल्िेख के साथ ही साथ ऄपनी ऄन्य कृ ितयों का एवं स्वयं का
पररचय कदया है ।
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िमत्र! जैसा की हम सभी जानते हैं ‘ईपसंहार’ ककसी भी पाठ्य या कथ्य के
ऄन्त्य में िस्थत िवषय-वस्तु होती है । जो कक ईससे पूवय में कहे गए िवषयों का
िनचोड़ ऄपने में समेटे हो ती है या किर ईनका (पूवय में किथत िवषयों का )
पुन:स्मारण-रूप होती है । आस ऄध्याय का ईद्देश्य भी कुछ ऄंशों में यही है ।
ककन्तु आसके ऄितररक्त ग्रन्थकार ने आस ऄध्याय में स्वयं का पररचय देने के साथ
ही ऄपने कतृयत्व का भी संक्षेप में ईल्िेख कक या है । आसके ऄितरक्त ऄध्या य में
पूवायचायों व ऄन्य यवनाचायों के प्रित भी व राहिमिहर ने ऄपनी कृतज्ञता प्रकट
की है । यद्यिप सम्पूणय ग्रन्थ वराहिमिहर के ज्योितष-ज्ञान की पराकाष्ठा का
जीवन्त ईदाहरण है ककन्तु िवद्वत्ता के ऄसिी मायने तो यही है कक शास्त्र का
अद्योपान्त ज्ञान भी अपके पास हो और ईसके साथ ही ऄन्य सवयजन-
ऄनुकरणीय मानवीय गुण भी हों । यह ऄध्याय महाज्ञानी परम ज्योितषी
वराहिमिहर के औदायय व िवनय अकद व्यिक्तत्व के गुणों का प्रकटन करते हुए
ईनके वास्तिवक अचाययत्व का का दशयन कराता है । आसििए वराहिमिहर के
जीवन, ईनके कतृयत्व तथा व्यिक्तत्व पर प्रकाश डािने के कारण यह ऄध्याय भी
ऄत्यन्त ऐितहािसक महत्त्व का है ।
आसििए यकद पाठ्यांश की दृिि से िवचार करें तो,
१. ग्रन्थोक्त ऄध्यायों का नामोल्िेख,
२. ग्रन्थकार के कतृयत्व का पररचय,
३. ग्रन्थकार के व्यिक्तत्व का पररचय
४. ग्रन्थकार के कुि का पररचय
ये ४ मुख्य बबदु आस पाठ के ऄध्ययनाथय दृििगोचर होते हैं, िजनका सम्पूणय
वणयन प्रस्तुत ककया गया है ।
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37.2 - ईद्देश्य
ईपररिििखत मुख्य पाठ्यांश-तत्त्वों के अिोक में , यह कहना सवयथा ईपयुक्त
प्रतीत हो रहा है कक आस पाठ के ऄध्ययन से अप,
 ग्रन्थ का एक बाह्य स्वरूप ईपस्थािपत करने में समथय होंगे ।
 ग्रन्थकारके ऄन्य ग्रन्थों का नामोल्िेख कर सकें गे ।
 ग्रन्थकार के व्यिक्तत्व की समीक्षा कर सकेंगे ।
 ग्रन्थकार के कुि के ज्ञान के द्वारा ज्योितषीय आितहास में वराहिमिहर का
स्थान सरिता से िनधायररत कर सकेंगे ।
तो अआए, पाठ का ऄध्ययन प्रारम्भ करते हैं ।
37.3 – ग्रन्थोक्त पाठों का नामोल्िेख -
िप्रय !प्रस्तावना में मैंने आस बात का संकेत ककया था कक वराहिमिहर ने
ग्रन्थोक्त िवषयों का एक जगह नामोच्चारण ककया है । वस्तुत: अजकि की भाषा
में यह एक प्रकार से ‘पररिशि’ है जो अरम्भ के ३ श्लोकों में ही संपूणय ग्रन्थ के
िवषयों की सूचना दे देता है । ऄत: केवि आन्हीं तीन श्लोकों को पढ़ ििया जाए तो
ग्रन्थ के िवषय में एक स्थूि (मोटा-मोटी) जानकारी िमि जाती है जो ग्रन्थ के
बाह्य स्वरूप (outline) का िनधायरण करती है । क्योंकक तत्कािीन ग्रंथों में प्राय:
आस प्रकार के पररिशि रूप ऄध्याय का ऄभाव कदखता है, ऄत: आस एक ईदाहरण
से समझा जा सकता है वराहिमिहर ऄपने समय से ककतना अगे थे । वराहिमिहर
की प्रगितशीिता का एक ऄन्य ईदाहरण यवनाचायों के िसद्ांतों के प्रित ईनकी
स्वीकाययता तथा ईनके प्रित अदर-भाव के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है ।
अआए एक-एक करके आन तीनों श्लोकों का ऄध्ययन करते हैं –
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रािशप्रभेदो ग्रहयोिनभेदो िवयोिनजन्माऽथ िनषेककािः ।
जन्माथ सद्यो मरणं तथायुदयशािवपाकोऽिकवगयसञ्ज्ज्ञः ॥
ऄन्वय –
ऄथ रािशप्रभेदो ग्रहयोिनभेदो िवयोिनजन्म िनषेककािः । ऄथ जन्म सद्यो
मरणं तथायुदयशािवपाक :ऄिकवगयसञ्ज्ज्ञः ।
सरिाथय -
ऄथ = यहां से ग्रन्थ के ऄध्या य अरम्भ होते हैं ,१- पहिा ऄध्याय है
रािशप्रभेद ,२- दूसरा ऄध्याय है ग्रहयोिनभेद ,३- तीसरा ऄध्याय िवयोिनजन्म ,
ऄथ = आसके बाद, ४- चौथा ऄध्याय िनषेककाि है, ५- पांचवां पाठ जन्मिविध,
६- छठा पाठ सद्योमरण ऄररिाध्याय, ७- सातवां पाठ अयुर्मवभाग, ८- अठवां
पाठ दशािवभाग और ९- नवां ऄिकवगय है ।
दसवें से बीसवें तक के ऄध्यायों का ईल्िेख ऄगिे श्लोक में है -
कमायजीवो राजयोगाः खयोगाश्चान्द्रा योगा िद्वग्रहाद्याश्च योगाः ।
प्रवज्याथो रािशशीिािन दृििभायवस्तस्मादाश्रयोऽथ प्रकीणयः॥
ऄन्वय –
कमायजीवो राजयोगाः खयोगाश्चान्द्रा योगा िद्वग्रहाद्या : योगाः च । ऄथ
प्रवज्या रािशशीिािन दृिि: भाव: तस्मात् अश्रय :ऄथ प्रकीणयः ।
सरिाथय–
दसवां पाठ कमायजीव, ग्यारहवां पाठ राजयोग, बारहवां पाठ नाभसयोग,
तेरहवां पाठ सुनिाकद -चान्द्रयोग , चौदहवां पाठ िद्वग्रह-ित्रग्रहयोग, पन्द्रहवां पाठ
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प्रव्रज्यायोग, ऄथ =आसके बाद, सोिहवां पाठ रािशशीि, सत्रहवां पाठ दृिििि ,
तस्मात्पर = :ईसके (१७वें पाठ के) बाद, ऄट्ठारहवां पाठ भावाध्याय, ऄथातः परं
= ऄब (१८ वें पाठ के) बाद, ईन्नीसवां पाठ अश्रययोग, बीसवां पाठ प्रकीणय ।
नेिा योगा जातक कािमनीनां िनयायणं स्यान्निजन्मा दृकाणः ।
ऄध्यायानां बवशितः पञ्चयुक्ता जन्मन्येतद्याित्रकं चािभधास्ये ॥
ऄन्वय –
नेिा योगा कािमनीनां जातक िनयायणं स्यात् निजन्मा दृकाणः ।
ऄध्यायानां बवशितः पञ्चयुक्ता जन्मिन एतद् याित्रकम् ऄिभधास्ये च ।
सरिाथय –
२१ आक्कीसवां पाठ नेिा योगा = ऄिनियोग, २२ बाइसवां पाठ कािमनीनां
जातक = स्त्रीजातक , २३ तेइसवां पाठ िनयायण म् = मरणज्ञान, २४ चौबीसवां
ऄध्याय निजन्मा = निजातक, २५ पच्चीसवां ऄध्याय दृकाणः =द्रेष्काणस्वरूप ।
एवं = आस प्रकार, पञ्चयुक्ताध्यायानां बवशितः = २५ ऄध्याय, जन्मिन = जातक
शास्त्र में, ईक्ता = कहे गए । च =और, एतद् =आसके बाद ,याित्रकम् =यात्रा
सम्बन्धी( िवषय को )ऄिभधास्ये= कहंगा ।
िप्रय छात्र! ईपयुयक्त श्लोकों को पढ़ने के बाद अपके मन में यह शंका हो
सकती है कक जब बृहज्जातक में कुि २५ ऄध्याय ही हैं तो किर जो ऄध्याय अप
पढ़ रहे है वह ३७ वां कैसे हो गया? िमत्र! आसका कारण यह है कक अप िजस
पाठ्यक्रम का ऄध्ययन कर रहे हैं, ईसको आस प्रकार से बनाया गया है कक अपको
ग्रन्थोक्त िवषयों का िवस्तार से ज्ञान हो सके । आसके ििए ग्रन्थोक्त कुछ ऄध्यायों
7pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37)
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को, अपके पाठ्यक्रम के ऄनुरूप 2-3 पाठों में बांटा गया है , िजसके कारण
पाठ्यक्रम के पाठों की संख्या और मूि-ग्रन्थ के पाठों की संख्या में ऄंतर है ।
37.4 वराहिमिहर की ऄन्य कृितयां
बृहज्जातक में अए ऄध्यायों के पररगणन के ईपरान्त वराहिमिहर ने ऄपनी
ऄन्य कृितयों का ईल्िेख अगे के तीन श्लोकों में ककया है । आनमें अरम्भ के दो
श्लोकों में तो यात्रा सम्बन्धी िवषयों का नामोल्िेख ककया है जबकक तीसरे श्लोक में
ऄपनी ऄन्य कृ ितयों का ईल्िेख वराहिमिहर ने ककया है ।
37.4.1 यात्रा -सम्बन्धी कृित के िवषय
िप्रय ऄध्येता! जैसा कक अपने पूवय श्लोक में पढ़ा कक वराहिमिहर ने स्वयं ही
कहा ‘एतद् याित्रकम् ऄिभधास्ये ’ ऄथायत् आसके बाद यात्रा से सम्बिन्धत (ग्रन्थ)
कहंगा । आससे यह स्पि है कक अगामी चौथे श्लोक में जो िवषय कहे जा रहे हैं वो
यात्रा से सम्बिन्धत हैं । न केवि चौथे ऄिपतु पांचवें श्लोक में भी वराहिमिहर ने
यात्रा-सम्बन्धी िवषयों का ईल्िेख ककया है -
प्रश्नािस्तिथभं कदवसः क्षणश्च चन्द्रो िविग्नं त्वथ िग्नभेदः ।
शुिद्ग्रहाणामथ चापवादो िविमश्रकाख्यं तनुवेपनं च ॥
ऄतः परं गुह्यकपूजनं स्यात्स्वप्नं ततः स्नानिविधः प्रकदिः ।
यज्ञो ग्रहाणामथ िनगयमश्च क्रमाच्च कदिः शकुनोपदेशः॥
ऄन्वय –
प्रश्ना :ितिथ: भं कदवसः क्षणश्च चन्द्रो िविग्नं तु ऄथ िग्नभेदः । ऄथ ग्रहाणां
शुिद् :ऄपवादश्च िविमश्रकाख्यं तनुवेपनं च ।
ऄतः परं गुह्यकपूजनं स्या त् स्वप्नं (स्यात्) ततः स्नानिविधः प्रकदिः । ऄथ
ग्रहाणां यज्ञ :िनगयमश्च क्रमात् कदिः शकुनोपदेशः च ।
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सरिाथय –
प्रश्नाः =प्रश्नभेदाध्याय, ितिथ = :ित िथबिाध्याय, भं नक्षत्रािभधान ,
कदवसो कदवसािभधान, वारिििक्षण , क्षणो =मुहतयिनदेश, चन्द्र = :
चन्द्रबिाध्याय, च =और, िविग्नं = िग्निविनश्चयः ऄथायत् िग्निनणयय, ऄथ =
ऄनन्तरम् ऄथायत् िग्नाध्याय के पश्चात् , िग्नभेदो =होरा-द्रेष्काण-नवांश-
द्वादशांश-बत्रशांशवगों का िक्षण , सििं ग्रहाणां शुिद्ः =सििा समस्तग्रहाणां
कुण्डििकाििम् ऄथायत् सभी ग्रहों के तात्काििक साधन के साथ ही जन्मांग-चक्र
में ईनका िि, ऄथानन्तरं = और आसके बाद, ऄपवादाध्यायः, िविमश्रकाख्यं =
िविमश्रकाध्याय, तनुवेपनं = देहस्पन्दनम् ऄथायत् ऄंगों का स्िु रण ।
ऄत = :ऄस्मात्परं आसके (ऄङ्ग स्िु रण के )बाद, गुह्यकपूजनं स्या त् =
कार्मतकेय -पूजन-िविध होवे , स्वप्नं =स्वप्नाध्याय ,तत:=ऄ नन्तरं, स्नानिविधः ,
प्रकदिः =ईक्तः कहा है, ग्रहाणां यज्ञो =ग्रहों के शान्त्याकद यज्ञ .ऄथ = ऄनन्तर,
िनगयम := प्रास्थािनकं ऄथायत् यात्रा का िनणयय , क्रमात् =प ररपाट्या ऄथायत्
क्रमानुसार , शकुनोपदेशः =शुभाशुभ शकुन का ज्ञान ,कदि =कहा गया है, एष
यात्रायां संग्रहः =ये सभी यात्रा -सम्बन्धी ग्रन्थ के िवषय हैं।
रटप्पणी –
िप्रय! यात्रा -िवषयक एक ग्रन्थ ’योगयात्रा‘,’ प्रकािशका ‘नामक संस्कृत
टीका के साथ िमिता है। जो कक कृष्णदास ऄकादमी, वाराणसी से छपा है । आस
ग्रन्थ को वराहिमिहर के द्वारा प्रणीत भी कहा गया है । आस प्रकािशका टीका के
प्रणेता पं हररनन्दन िमश्र ने ग्रन्थ के ऄंत में ऄपना पररचय देते हुए आसकी प्रािि
के ऄत्यन्त रोचक प्रसंग का भी वणयन ककया है। जो पठनीय है । आस ग्रन्थ का
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सम्पादन श्री सत्येन्द्र िमश्र जी ने ककया है । जो कक आसकी भूिमका में कहते हैं कक
काशी िहन्दू िव.िव. के भूतपूवय िवभागाध्यक्ष पं रामजन्म िमश्र जी को ईनके काि
से प्राय : ९० वषय पूवय आस ग्रन्थ की प्रकािशत प्रित एक िवद्वान् से प्राि हुइ ,
िजसकी ‘ऋचा’ आस नाम से िहन्दी टीका ईन्होंने की ।
वस्तुिस्थित जो भी हो ककन्तु सत्यता य ह है कक वतयमान में यह पुस्तक
वराहिमिहर के द्वारा रिचत यात्रा -परक ग्रन्थ के रूप में स्वीकायय है । ऄब यकद
आस पुस्तक के िवषय -सूची को देखें तो कुछ ऄध्यायों के नाम-साम्य (कुछ सीमा
तक न कक पूणयतया) को छोड़कर वराह -प्रोक्त ऄन्य ऄध्यायों का साम्य नहीं
िमिता है। आससे कुछ संभावनाएं बुिद्गोचर होती हैं। िजनमें पहिी संभावना तो
यह है कक वराह -प्रोक्त यात्रा-िवषयक-ग्रन्थ अरम्भ में िजस स्वरूप में था ,
कािान्तर में ईसमें कइ पररवतयन हुए िजसके ििस्वरूप यह ग्रन्थ वतयमान दशा
को प्राि हुअ । दूसरी संभावना यह है कक कािान्तर में ककसी ऄन्य िवद्वान् ने
ऄपने ग्रन्थ की स्वीकाययता के ििए व राहिमिहर के नाम से आसे प्रचाररत ककया ।
ककन्तु, ग्रन्थ में कहीं भी वराहिमिहर का नाम नहीं है, हां ग्रन्थ के प्रत्येक ऄध्याय
के ऄंत में ‘आित श्रीवराहिमिहराचाययकृता यां योगयात्रायाम् ‘... आस प्रकार
टीकाकार ने ििखा है । एक ऄन्य सम्भावना ग्रन्थ से ही िनकिती है और वो ये है
कक वतयमान में ईपिब्ध ग्रन्थ िघुजातक के समान ही िघुयोगयात्रा है और
बृहज्जातक में वराहिमिहर ने िजस ग्रन्थ के ऄध्यायों का ईल्िेख ककया है वे
ऄध्याय बृहद्योगयात्रा के हों । आस बात का सङ्केत ऄिन्तम १६ वें ऄध्याय के
ऄिन्तम १८ वें श्लोक में ‘समासत:’ आस शब्द से िमिता है कक, िजसकी व्याख्या में
टीकाकार श्रीहररनंदन कहते हैं ........’ऄयं किथतिवषय: समासतश्च संक्षेपतश्चात्र
योगयात्रायां िनर्ददि: किथतो मया आित िशवम् । समासत आित पदं िघुयोगयात्रा
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यथा िघुजातक आित । ऄनेन बृहज्जातकवद्बृहद्योगयात्रा ऽन्याऽऽचाययकृितररित
स्िु टम् ‘।
टीकाकार की आस ईिक्त के ऄनुसार यह स्पि है कक श्लोकोक्त ‘समासत:’ आस
शब्द से प्रकट होता है कक यह ग्रन्थ संिक्षि होने के कारण (जैसे िघुजातक ठीक
ईसी प्रकार से) ‘िघुयोगयात्रा’ है । जो कक बृहज्जातक के सामान ही एक ऄन्य
ऄपेक्षाकृत िवशाि यात्रा-ग्रन्थ ’ बृहद्योगयात्रा‘ के वराहिमिहर -प्रणीत होने का
संकेत करती है । ऐसे में एक सम्भावना यह भी है कक बृहज्जातक में ईक्त यात्रा -
िवषयक-ग्रन्थ के िवषय कदािचत्बृहद्योगयात्रा के होने और य ह वतयमान में
ईपिब्ध और प्रचिित ग्रन्थ (योगयात्रा)वास्तव में िघुयोगयात्रा हो ,जैसा कक
स्वयम् टीकाकार ने ग्रन्थ के ऄन्त में स्वरिचत एकमात्र श्लोक में स्पि कहा है –
ऄनेककोशान् बहुवेदग्रन्थानािोच्य सिद्वज्ञजनानुमत्या ।
प्रकािशतेयं िघुयोगयात्रा स्वामोददाऽऽचारवतां नृपाणाम् ।।
ऄथायत् ऄनेकानेक कोश ग्रन्थों और बहुत से वेदाकद ग्रन्थों का अिोडन
करके सज्जन एवं िवद्वान् व्यिक्तयों की ऄनुमित से अचारवान् राजाओं के ऄपने
अनन्द की वृिद् हेतु यह ग्रन्थ प्रकािशत ककया ।
37.4.2 वराहिमिहर की शेष कृितयां
िप्रय छात्र! वराहिमिहर ने यात्रा-सम्बन्धी कृित के पश्चात् ऄपनी शेष
ऄन्य कृितयों का ईल्िेख एक ही श्लोक में ककया है । आस श्लोक में, पूवोक्त श्लोकों से
आतर, कृितयों का स्पि ईल्िेख ककया गया है । वराहिमिहर ने कहा है -
िववाहकािः करणं ग्रहाणां प्रोक्त पृथक्तिद्वपुिाऽथ शाखा ।
स्कन्धैिस्त्रिभज्योितषसङ्ग्रहोऽयं मया कृतो दैविवदां िहताय ॥६ ॥
ऄन्वय –
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िवववाहकाि: ग्रहाणां करणं प्रोक्तं ऄथ पृथक् तिद्वपुिा शाखा । ऄयं
ज्योितषसङ्ग्रह :ित्रिभः स्कन्धै: मया दैविवदां िहताय कृत :।
सरिाथय-
िववाहकािो’ = िववाहपटिं ‘नामक ग्रन्थ ,ग्रहाणां करणं =ग्रहों के साधन
हेतु ’पञ्चिसद्ािन्तका‘ संज्ञक करण-ग्रन्थ, प्रोक्तं = (मेरे द्वारा) कहे गए हैं । ऄथ =
आसके (पंचिसद्ािन्तका के) बाद , पृथ क् = ऄिग रूप से, तिद्वपुिा शाखा =
ज्योितष की बड़ी-बड़ी शाखा ओं के ग्रन्थ (मेरे द्वारा रचे गए हैं) । ऄयं
ज्योितषसङ्ग्रह := ये ज्योितषसङ्ग्रह (मेरे द्वारा रचे गए ग्रन्थ), ित्रिभः स्कन्धै :=
तीनों स्कन्धों के द्वारा (के अधार पर), मया = मेरे द्वारा, दैविवदां = ज्योितिषयों
की, िहताय = िहत के ििए, कृत: = ककया गया ।
रटप्पणी –
भारतीय-ज्योितष के आितहास में वराहिमिहर ऐसे प्रथम ज्ञात स्वतन्त्र
ज्योितषी थे िजन्होंने ज्योितष के समस्त स्कन्धों पर ऄपनी िेखनी चिाते हुए
स्वतन्त्र-ग्रन्थों की रचना की है । किर चाहे वह िसद्ान्त स्कन्ध का ऄित
महत्त्वपूणय करण-ग्रन्थ ‘पञ्चिसद्ािन्तका’ हो , या ििित के ‘बृहज्जातक’ या
‘िघुजातक’ हों ऄथवा संिहता का महान् ग्रन्थ ‘बृहत्संिहता’ हो, ‘िववाहपटि’ हो
या किर ‘योगयात्रा’ । आनमें पञ्चिसद्ािन्तका, बृहज्जा तक और बृहत्संिहता तो
भारतीय ज्योितष के वास्तिवक स्वरूप को समझाने के ििए एवं ईसके बृहत्तर
स्वरूप को िवश्व के समक्ष प्रितपाकदत करने के ििए ऄित महत्त्वपूणय होने के
कारण मीि का पत्थर सािबत हुइ हैं । यही कारण है कक वराहिमिहर का
भारतीय-ज्योितष के आितहास में कदया गया योगदान ऄत्यन्त महत्त्व का तथा
ऄिवस्मरणीय है ।
12pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37)
12
37.5 - वराहिमिहर की कृतज्ञता –
िमत्रों! ऄगिे श्लोक में वराहिमिहर ने पूवय-भारतीय-अचायों एवं
यवनाचायों के प्रित कृतज्ञता प्रकट करते हुए स्पि रूप से स्वीकार ककया है कक
ईनके िवस्तृत िसद्ांतों का सार-रूप ईन्होंने ऄपने आस बृहज्जातक ग्रन्थ में
समािहत ककया है । आसके ऄिावा अचायय ने शास्त्र-िवषयक-गहन-िचन्तन के
द्वारा बुिद् को तीक्ष्ण करने की बात कहते हुए िचन्तन-मनन को एक िवद्वान् का
प्रमुख कतयव्य मानते हुए ग्रन्थ-िनमायण में हुए प्रमाद-जन्य ऄितशयोिक्त या त्याग
अकद दोष (यकद कोइ हो तो ईसके) के ििए िवद्वानों से क्षमा-मााँगते हुए स्वयं के
व्यिक्तत्व का ही पररचय कदया है । वराहिमिहर कहते हैं -
पृथुिवरिचतमन्यैः शास्त्रमेतत्समस्तं
तदनु िघु मयेदं तत्प्रदेशाथयमेव ।
कृतिमह िह समथं धीिवषाणामित्वे
मम यकदह यदुक्तं सज्जनैः क्षम्यतां तत् ॥
ऄन्वय –
एतत्समस्तं शास्त्रम् ऄन्यै: पृथु िवरिचतं तदनु तदेव मया प्रदेशाथयम् आदं िघु
कृतम् । िह आह कृतं धीिवषाणामित्वे समथयमुक्तमेतत् कृतम्। मम यत् आह यदुक्त
तत्सज्जनैः क्षम्यताम् ।
सरिाथय–
एतत्समस्तं = सकिशास्त्रम् ऄथायत् यह सम्पूणय ज्योितष -शास्त्र(चाहे
प्रसङ्गवशात् ज्योितष के ििित स्क ध की बात हो या किर सम्पूणय
ित्रस्कन्धात्मक ज्योितष -शास्त्र की बात हो,) ऄन्यै = :अ चायै :य वनेश्वराकदिभश्च
13pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37)
13
ऄथायत् ऄन्य भारतीय अचायों और ईनके ऄितररक्त वैदेिशक यवनाचायों के
द्वारा, पृथु िवस्तीणं किथतं = जो ऄितिवशाि ज्योित षशास्त्रीय-सािहत्य रचा
गया है), तदनु = ईनके पश्चात् , तदेव = वही ज्योितषीय िसद्ान्त , शोभनतरं
मया = मेरे द्वारा सुन्दर ििित पद्यों के माध्यम से , तत्प्रदेशाथं = तदुपकदिाथं
ऄथायत् ईन पूवायचायों के द्वारा ईपकदि िसद्ान्तों के ऄनुरूप ईनके तात्पयय को ही
कहने के ििए ,िघु =स्वल्पं ,कृतं = संिक्षिाकार ग्रन्थ रचा गया (है)। िह =
यस्मादथे आसििए क्योंकक, आह =ऄिस्मन् शास्त्रे ऄथायत् आस शास्त्र में,
धीिवषाणामित्वे = बुिद्शृङ्गिनमयिीकरणिवषये ऄथायत् बुिद् और सींग आन
दोनों का ही िनमयिीकरण ऄथायत् तीक्ष्णता एवं स्वच्छता (ईनके घषयण से ही
सम्भव है िजसमें), समथयमुक्तमेतत् कृतम् = यह मेरी कृित समथय है। मया चेह
संग्रहे = ऄथायत् मेरे द्वारा ककए गए आस संग्रह (ग्रन्थ) में यदुक्तम् = ऄशोभनयुक्तं
ऄथायत् जो कथन ऄसाधु, ऄशास्त्रीय हो, तत् मम =वह मेरा (दोष)है(एतदथय),
सज्जनैः =पिण्डतै ऄथायत् सज्जनों िवद्वानों के द्वारा, क्षन्तव्यम् = मैं क्षमा-प्राथी हं।
टीका -
आस श्लोक में वराहिमिहर जी ने ऄपने ईस अचाययत्व का दशयन कराया है
जो िचर काि से ही भारतीय संस्कृित व सभ्यता का ऄिभन्न-ऄंग रहा है । प्राचीन
अचायय या तो ऄपने नाम का ईल्िेख ही नहीं कर ते थे या कफ़र करते थे तो ग्रन्थ
के ऄंत में, वो भी ऄपने पूवायचायों के प्रित कृतज्ञता प्रकट करने के पश्चात् । आसी
परम्परा के पररपािक अचायय वराहिमिहर भी हैं । आन्होंने प्राय: ऄपने रिचत
प्रत्येक ग्रन्थ के अरम्भ और ऄन्त में पूवायचायों की स्वस्थ और सुदृढ़ परम्परा को
नमन करते हुए ग्रन्थ के िनमायण में ईनके द्वारा किथत िसद्ांतों को ही अधार
बताते हुए ईनके प्रित ऄपनी कृतज्ञता व श्रद्ांजिि प्रकट की है । यहााँ पर भी
14pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37)
14
वराहिमिहर ईसी पररपाटी का ऄनुसरण करते हुए आस बृहज्जातक ग्रन्थ को
पूवायचायोक्त मतों का साररूप (एतत्समस्तं शास्त्रम् ऄ न्यै: पृथु िवरिचतं तदनु
तदेव मया प्रदेशाथयम् आदं िघु कृतम्) बताते हुए आसके प्रणयन में ईनके योगदान
को ऄिधक महत्त्व दे रहे हैं बजाए आसके की वो ऄपने ग्रन्थ की प्रशंसा करें ।
पूवायचायों के प्रित कृतज्ञता प्रकट करने के ईपरान्त किर अचायय आस ग्रन्थ
को बौिद्क-व्यायाम की पररणित-स्वरूप बताते हैं । ‘धीिवषाणामित्व’ के द्वारा
वह न केवि बुिद् (या तकय ) की िनमयिता को आंिगत करा रहे हैं बिल्क ऄपने आस
ग्रन्थ को बौिद्क-व्यापार का िि-स्वरूप भी कह रहे हैं , जो कक आस ग्रन्थ की
रचना में कारणीभूत है । कहने का अशय यह है कक जब अपकी बुिद् ककसी
शास्त्र में सतत प्रवृत्त होने के कारण िनमयि हो जाती है तो ऄवश्य ही ईससे आस
प्रकार के शास्त्रीय ग्रन्थ प्रस्िु रटत होते हैं ।
िेककन श्लोक के ऄंत में पुन: संतुिन साधते हुए अचायय वराहिमिहर ऄपनी
िवनम्रता (जो कक िन :सन्देह अचायय का सहजात गुण है ) को न छोड़ते हुए
ग्रंथोक्त दोषों के ििए स्वयं को ईत्तरदायी मानते हुए िवद्वान् पाठक से एतदथय
क्षमा भी मांग रहे हैं ।
37.6 - ग्रन्थ की समीक्षा हेतु िवद्वानों से प्राथयना –
वराहिमिहर ऄपनी कृित पर िवद्वानों की समािोचना हेतु प्राथयना करते
हुए राग-द्वेष रिहत समीक्षा करने की बात कही है। िजससे शास्त्र का ईपकार हो
सके । वे ककसी भी प्रकार की सकारात्मक अिोचना का स्वागत करते हैं । ईनको
यह कहने में भी कोइ संकोच नहीं है कक ऐसे बृहत् ग्रन्थ िजसमें, ऄनेकों िवद्वानों
के मत समािहत हों, के प्रणयन में प्रमाद की सम्भावना बनी रहती है । साथ ही
15pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37)
15
साथ वह ज्योितष-शास्त्र के िवद्वानों का अह्वान भी आस श्लोक के माध्यम से
करते हुए कहते हैं -
ग्रन्थस्य यत्प्रचरतोऽस्य िवनाशमेित
िेख्याद्वहुश्रुतमुखािधगमक्रमेण ।
यद्वा मया कुकृतमल्पिमहाकृतं वा ।
कायं तदत्र िवदुषा पररहृत्य रागम् ॥
ऄन्वय –
प्रचरत :ऄस्य ग्रन्थस्य िेख्या त् यिद्वनाशमेित यद्वा मया आह कुकृतं तथा
ऄल्पकृतं तदत्र िवदुषा तत् बहश्रुतमुखािधगमक्रमेण रागं पररहृत्य काययम् ।
सरिाथय –
प्रचरत: ऄस्य ग्रन्थस्य = प्रवतयमान आस ग्रन्थ (बृहज्जा तक )की, िेख्यात् =
िेखकदोषात् िेखक के द्वारा प्रमादजन्य दोष के कारण ,यिद्वनाशमेित =जो क्षित
होती है ,। यद्वा =ऄथवा, मया =जो मेरे द्वारा ,कुकृतं =कुित्सत कृतं तथाऽल्पम्
ऄपररपूणं =जो ऄशास्त्रीय कथन हो या मेरे कथन में कुछ कमी र ह गयी हो
ऄथवा ककसी भी प्रकार की ऄपूणयता हो तो , तत् =ईस दोष (का पररमाजयन ,)
बहश्रुतमुखािधगमक्रमेण =बहुश्रूतानां पिण्डता नां मुखादिधगम्य ज्ञात्वा क्रमेण
पररपाट्या िवदुषा पिण्डतेन ऄथायत् क इ सारे िवद्वानों के मतों को सुनकर और
शास्त्रीय तत्त्व का सम्यग् ज्ञान करके क्रमश : काि -क्रमानुसार परम्परा का
ऄनुपािन करते हुए , रागं मात्सयय म् पररहृत्य =िवहाय ऄथायत् ककसी भी प्रकार
की सपक्षता या भेद -भाव का सवयथा प ररत्याग करके ,कतयव्यम् =करना चािहए ।
16pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37)
16
37.7-वराहिमिहर का पररचय –
ग्रन्थ के ईपान्त्य श्लोक में वराहिमिहर ने ऄपना पररचय कदया है । आसमें
ईन्होंने यह बताया है कक वो ककस नगर के िनवासी हैं और ईनके िप ता का नाम
क्या है । वराहिमिहर का पररचय आस श्लोक में समािहत होने के कारण यह श्लोक
ऄत्यन्त महत्त्वपूणय है । वस्तुत : आसी श्लोक में ही ईन्होंने ऄपना नाम ईजागर
ककया है कक आस ग्रन्थ के िेखक का नाम ‘वराहिमिहर’ है । वराहिमिहर कहते हैं -
अकदत्यदासतनयस्तदवािबोधः
कािपत्थके सिवतृिब्धवरप्रसादः ।
अविन्तको मुिनमतान्यविोक्य सम्य
ग्घोरां वराहिमिहरो रुिचरां चकार॥
ऄन्वय –
(ऄयं) अकदत्यदासतनय: तदवािबोध: अविन्तको वराहिमिहरो कािपत्थके
सिवतृिब्धवरप्रसादः मुिनमतािन ऄविोक्य सम्यक् रुिचरां होरां चकार ।
सरिाथय–
वराहिमिहर: होरां चकार ऄथायत् वराहिमिहर ने होरा (शास्त्र)की रचना
की है । तब प्रश्न यह है कक यह वराहिमिहर कौन है? आस पर स्वयं ऄपना पररचय
देते हुए वराहिमिहर कहते हैं कक यह (वराहिमिहर ऄथायत् मैं), अकदत्यदासतनय:
=अकदत्यदासाख्यो ब्राह्मणः तस्य तनयः पुत्रः ऄथायत् अकदत्यदास का पुत्र (हं) ,
तदवािबोध := तस्मादेव िपतु :अ कदत्यदासात् ऄ वाि :बोधः ज्ञानं येन स:
तदवािबोध :ऄथायत् (मैंने) ऄपने ही िपता श्री अकदत्यदास से ज्ञान (िविशष्य
ज्योितष- शास्त्रीय -ज्ञान) प्राि ककया । (मैं) अविन्तकः = ईज्जियनी का रहने वािा
17pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37)
17
(हं) । कािपत्थके ग्रामे = ईज्जियनी के कािम्पल्य ग्रा म में, योऽसौ = जो यह (मैं
वराहिमिहर), ईसने, सिवतृिब्धवरप्रसादः = भगवान् सिवता सूययस्तस्माल्िब्धः
प्रािो वरप्रसादो येन ऄथायत् भगवान् श्री सूययनारायण से ऄभीि वर की प्रािि की।
मुिनमतािन ऋिषप्रणीतािन शास्त्राण्यविोक्य = िवचायय सम्यग्यथावस्तु कृत्वा
ऄथायत् िविभन्न अचायों के मतों का ऄविोकन व तथ्यात्मक िचन्तन करके,
रुिचरां = शोभनां सुगमां , होरां जातकशास्त्रं चकार = बोधगम्य जातकशास्त्र
(बृहज्जातक) की रचना की ।
37.8 – ईपसंहार –
यह ग्रन्थ का ऄंितम श्लोक है । आस श्लोक में वराहिमिहर ने ऄपने गुरु,
पूवायचायों और सूयय को प्रिणपातपूवयक नमस्कार ककया है ।
कदनकरमुिनगुरुचरणप्रिणपातकृतप्रसादमितनेदम् ।
शास्त्रमुपसंगृहीतं नमोऽस्तु पूवयप्रणेतृभ्यः ॥
ऄन्वय –
कदनकरमुिनगुरुचरणप्रिणपातकृतप्रसादमितना आदम् शास्त्रमुपसंगृहीतम् ।
पूवयप्रणेतृभ्यः नमोऽस्तु ।
सरिाथय –
कदनकरमुिनगुरुचरणप्रिणपातकृतप्रसादमितना = कदनकर-मुिन-गुरुवायायणां
चरणकमियो: प्रिणपातेन प्रसन्ना मितययस्य तेन ऄथायत् भगवान् सूयय, नारद -
पराशराकद मुिनयों एवं ऄपने गुरुओं के चरण-कमि में सादर चरण-स्पशय करके
प्रसन्न बुिद् और मन के द्वारा, आदम् शास्त्रमुपसंगृहीतम् = यह ज्योितष-शास्त्रीय
18pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37)
18
ग्रन्थ (बृहज्जातक) मेरे द्वारा रचा गया । पूवयप्रणेतृभ्यः नमोऽस्तु = आसके ििए ही
मैं (वराहिमिहर) ऄपने पूवयजों (ज्योितिषयों) के प्रित नमन करता हं ।
यह स्पि है कक वराहिमिहर ने ऄपने ग्रंथों की रचना का अधार पूवायचायों
के मतों, िवचारों को ही रखा ऄत: ईनको सादर नमन करना वराहिमिहर ने
ऄपना कत्तयव्य माना । आस प्रकार आस ग्रन्थ का अरम्भ और ऄन्त ग्रन्थकताय ने
क्रमश: अशीवायदात्मक और नमस्कारात्मक मंगिाचरण से ककया है ।
37.9 – सारांिशका
ईपसंहाराध्याय के अरम्भ के ३ श्लोक ही संपूणय ग्रन्थ के िवषयों की सूचना
दे देते हैं । ऄत: केवि आन्हीं तीन श्लोकों को पढ़ ििया जाए तो ग्रन्थ के िवषय में
एक स्थूि (मोटा-मोटी) जानकारी िमि जाती है । जो ग्रन्थ के बाह्य स्वरूप
(outline) का िनधायरण करती है । आसके बाद यात्रा से सम्बिन्धत (ग्रन्थ) के
िवषयों को वराहिमिहर ने न केवि चौथे ऄिपतु पांचवें श्लोक में भी वर्मणत ककया
है । ऄिग्रम श्लोक में व राहिमिहर ने ऄपनी ऄन्य कृितयों यथा ‘िववाहपटि’,
‘पञ्चिसद्ािन्तका’ एवं ‘बृहत्सं िहता’ का ईल्िेख ककया है । ऄगिे श्लोक में
वराहिमिहर ने पूवय-भारतीय-अचायों एवं यवनाचायों के प्रित कृतज्ञता प्रकट
करते हुए स्पि रूप से स्वीकार ककया है कक ईनके िवस्तृत िसद्ांतों का सार-रूप
ईन्होंने ऄपने आस बृहज्जातक ग्रन्थ में समािहत ककया है । आसके ऄिावा अचायय
ने शास्त्र-िवषयक-गहन-िचन्तन के द्वारा बुिद् को तीक्ष्ण करने की बात कहते हुए
िचन्तन-मनन को एक िवद्वान् का प्रमुख कतयव्य मानते हुए , ग्रन्थ-िनमायण में हुए
प्रमाद-जन्य ऄितशयोिक्त या त्याग अकद दोष (यकद कोइ हो तो ईसके) के ििए
िवद्वानों से क्षमा-मााँगते हुए स्वयं के व्यिक्तत्व का ही पररचय कदया है ।
19pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37)
19
ईपान्त्य श्लोक में वराहिमिहर ने ऄपना पररचय देते हुए कहा है कक मैं
अकदत्यदास का पुत्र हं िजनसे मैंने ज्योितष-शास्त्रीय -ज्ञान प्राि ककया । ईन्होंने
यह भी बताया कक मैं ईज्जियनी के कािम्पल्य ग्रा म का िनवासी हं और मैंने
भगवान् श्री सूययनारायण से ऄभीि वर की प्रािि की और मैंने िविभन्न अचायों के
मतों का ऄविोकन व तथ्यात्मक िचन्तन करके जातकशास्त्र (बृहज्जा तक) की
रचना की ।

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  • 1. 1pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 1 ØeOeeve ieJes<ekeâ - [e@. Me$egIveef$ehee"er pÙeesefle<eefJeYeeie, mebmke=âleefJeÅeeOece&efJe%eevemebkeâeÙe, keâe.efn.efJe.efJe., JeejeCemeer he$e mecevJeÙekeâ - [e@. Me$egIveef$ehee"er pÙeesefle<eefJeYeeie, mebmke=âleefJeÅeeOece&efJe%eevemebkeâeÙe, keâe.efn.efJe.efJe., JeejeCemeer hee" uesKekeâ - [e@0 MÙeeceosJe efceße pÙeesefle<eefJeYeeie,jeef°^Ùemebmke=âlemebmLeeve, Yeesheeue heefjmej Yeesheeue, ceIÙe ØeosMe hee" meceer#ekeâ - Øees. jeceÛevõ heeC[sÙe pÙeesefle<eefJeYeeie, mebmke=âleefJeÅeeOece&efJe%eevemebkeâeÙe, keâe.efn.efJe.efJe., JeejeCemeer lekeâveerkeâer meceer#ekeâ - Øees. mebpeÙe heeC[sÙe ØeÙegòeâ ieefCele efJeYeeie, YeejleerÙe ØeewÅeesefiekeâer mebmLeeve, keâe.efn.efJe.efJe. Yee<eemebheeokeâ - [e@. ßeerke=â<Ce ef$ehee"er Jewefokeâ oMe&ve efJeYeeie, mebmke=âleefJeÅeeOece&efJe%eevemebkeâeÙe, keâeMeerefnvotefJeÕeefJeÅeeueÙe, JeejeCemeer hee"Ÿe›eâce-pÙeesefle<eHeâefuele hee"Ÿemeece«eer efvecee&Ce Dee@veueeFve-mveelekeâesòej hee"Ÿe›eâce efJe<eÙemetÛeer he$e keâe veece - ØeLece (ye=nppeelekeâced) hee"Ÿe›eâceefveoxMekeâ – [e@. Me$egIveef$ehee"er hee" – meQleerme - (GhemebnejeOÙeeÙe)
  • 2. 2pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 2 hee"efJeJejCeced hee"Ÿe›eâce pÙeesefle<eHeâefuele he$e ØeLece (ye=nppeelekeâced) hee" meQleerme - (GhemebnejeOÙeeÙe) 37.1 – प्रस्ताeवना- िप्रयच्छात्र! U.G.C. द्वारा सञ्चािित MOOCS काययक्रमान्तगयत SWAYAM के स्नातकोत्तर -स्तरीय-ज्योितष-पाठ्यक्रम के “बृहज्जातक” नामक शीषयक के सैंतीसवें पाठ ‘ईपसंहाराध्याय’ में अपका हार्ददक स्वागत है । आसके पूवय ‘द्रेष्काणाध्याय’ के ऄन्तगयत अपने १९वें श्लोक से ३६वें श्लोक तक के िवषयों का िवस्तार से ऄध्ययन ककया । अपने जाना कक तुिा रािश के प्रथम द्रेष्काण से िेकर मीन रािश के ऄंितम (तीसरे) द्रेष्काण में ईत्पन्न जातकों का स्वरूप, प्रकृित अकद ककस प्रकार की होगी । ईदाहरण स्वरूप, यकद जातक तुिा के प्रथम द्रेष्काण में हो तो नगर की गिियों में दूकान करने वािा, सुवणय अकद रत्नों और ईनसे िनर्ममत अभूषणों का व्यापार करने वा िा होता है । आसी प्रकार ऄन्य द्रेष्काणों में ईत्पन्न जातकों के िवषय में अपने गत पाठ में ऄध्ययन ककया । यह ३७ वां पाठ बृहज्जातक ग्रन्थ का ऄंितम पा ठ है । आसमें ग्रंथकार ने ग्रन्थ में अए सभी पाठों के नामोल्िेख के साथ ही साथ ऄपनी ऄन्य कृ ितयों का एवं स्वयं का पररचय कदया है ।
  • 3. 3pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 3 िमत्र! जैसा की हम सभी जानते हैं ‘ईपसंहार’ ककसी भी पाठ्य या कथ्य के ऄन्त्य में िस्थत िवषय-वस्तु होती है । जो कक ईससे पूवय में कहे गए िवषयों का िनचोड़ ऄपने में समेटे हो ती है या किर ईनका (पूवय में किथत िवषयों का ) पुन:स्मारण-रूप होती है । आस ऄध्याय का ईद्देश्य भी कुछ ऄंशों में यही है । ककन्तु आसके ऄितररक्त ग्रन्थकार ने आस ऄध्याय में स्वयं का पररचय देने के साथ ही ऄपने कतृयत्व का भी संक्षेप में ईल्िेख कक या है । आसके ऄितरक्त ऄध्या य में पूवायचायों व ऄन्य यवनाचायों के प्रित भी व राहिमिहर ने ऄपनी कृतज्ञता प्रकट की है । यद्यिप सम्पूणय ग्रन्थ वराहिमिहर के ज्योितष-ज्ञान की पराकाष्ठा का जीवन्त ईदाहरण है ककन्तु िवद्वत्ता के ऄसिी मायने तो यही है कक शास्त्र का अद्योपान्त ज्ञान भी अपके पास हो और ईसके साथ ही ऄन्य सवयजन- ऄनुकरणीय मानवीय गुण भी हों । यह ऄध्याय महाज्ञानी परम ज्योितषी वराहिमिहर के औदायय व िवनय अकद व्यिक्तत्व के गुणों का प्रकटन करते हुए ईनके वास्तिवक अचाययत्व का का दशयन कराता है । आसििए वराहिमिहर के जीवन, ईनके कतृयत्व तथा व्यिक्तत्व पर प्रकाश डािने के कारण यह ऄध्याय भी ऄत्यन्त ऐितहािसक महत्त्व का है । आसििए यकद पाठ्यांश की दृिि से िवचार करें तो, १. ग्रन्थोक्त ऄध्यायों का नामोल्िेख, २. ग्रन्थकार के कतृयत्व का पररचय, ३. ग्रन्थकार के व्यिक्तत्व का पररचय ४. ग्रन्थकार के कुि का पररचय ये ४ मुख्य बबदु आस पाठ के ऄध्ययनाथय दृििगोचर होते हैं, िजनका सम्पूणय वणयन प्रस्तुत ककया गया है ।
  • 4. 4pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 4 37.2 - ईद्देश्य ईपररिििखत मुख्य पाठ्यांश-तत्त्वों के अिोक में , यह कहना सवयथा ईपयुक्त प्रतीत हो रहा है कक आस पाठ के ऄध्ययन से अप,  ग्रन्थ का एक बाह्य स्वरूप ईपस्थािपत करने में समथय होंगे ।  ग्रन्थकारके ऄन्य ग्रन्थों का नामोल्िेख कर सकें गे ।  ग्रन्थकार के व्यिक्तत्व की समीक्षा कर सकेंगे ।  ग्रन्थकार के कुि के ज्ञान के द्वारा ज्योितषीय आितहास में वराहिमिहर का स्थान सरिता से िनधायररत कर सकेंगे । तो अआए, पाठ का ऄध्ययन प्रारम्भ करते हैं । 37.3 – ग्रन्थोक्त पाठों का नामोल्िेख - िप्रय !प्रस्तावना में मैंने आस बात का संकेत ककया था कक वराहिमिहर ने ग्रन्थोक्त िवषयों का एक जगह नामोच्चारण ककया है । वस्तुत: अजकि की भाषा में यह एक प्रकार से ‘पररिशि’ है जो अरम्भ के ३ श्लोकों में ही संपूणय ग्रन्थ के िवषयों की सूचना दे देता है । ऄत: केवि आन्हीं तीन श्लोकों को पढ़ ििया जाए तो ग्रन्थ के िवषय में एक स्थूि (मोटा-मोटी) जानकारी िमि जाती है जो ग्रन्थ के बाह्य स्वरूप (outline) का िनधायरण करती है । क्योंकक तत्कािीन ग्रंथों में प्राय: आस प्रकार के पररिशि रूप ऄध्याय का ऄभाव कदखता है, ऄत: आस एक ईदाहरण से समझा जा सकता है वराहिमिहर ऄपने समय से ककतना अगे थे । वराहिमिहर की प्रगितशीिता का एक ऄन्य ईदाहरण यवनाचायों के िसद्ांतों के प्रित ईनकी स्वीकाययता तथा ईनके प्रित अदर-भाव के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है । अआए एक-एक करके आन तीनों श्लोकों का ऄध्ययन करते हैं –
  • 5. 5pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 5 रािशप्रभेदो ग्रहयोिनभेदो िवयोिनजन्माऽथ िनषेककािः । जन्माथ सद्यो मरणं तथायुदयशािवपाकोऽिकवगयसञ्ज्ज्ञः ॥ ऄन्वय – ऄथ रािशप्रभेदो ग्रहयोिनभेदो िवयोिनजन्म िनषेककािः । ऄथ जन्म सद्यो मरणं तथायुदयशािवपाक :ऄिकवगयसञ्ज्ज्ञः । सरिाथय - ऄथ = यहां से ग्रन्थ के ऄध्या य अरम्भ होते हैं ,१- पहिा ऄध्याय है रािशप्रभेद ,२- दूसरा ऄध्याय है ग्रहयोिनभेद ,३- तीसरा ऄध्याय िवयोिनजन्म , ऄथ = आसके बाद, ४- चौथा ऄध्याय िनषेककाि है, ५- पांचवां पाठ जन्मिविध, ६- छठा पाठ सद्योमरण ऄररिाध्याय, ७- सातवां पाठ अयुर्मवभाग, ८- अठवां पाठ दशािवभाग और ९- नवां ऄिकवगय है । दसवें से बीसवें तक के ऄध्यायों का ईल्िेख ऄगिे श्लोक में है - कमायजीवो राजयोगाः खयोगाश्चान्द्रा योगा िद्वग्रहाद्याश्च योगाः । प्रवज्याथो रािशशीिािन दृििभायवस्तस्मादाश्रयोऽथ प्रकीणयः॥ ऄन्वय – कमायजीवो राजयोगाः खयोगाश्चान्द्रा योगा िद्वग्रहाद्या : योगाः च । ऄथ प्रवज्या रािशशीिािन दृिि: भाव: तस्मात् अश्रय :ऄथ प्रकीणयः । सरिाथय– दसवां पाठ कमायजीव, ग्यारहवां पाठ राजयोग, बारहवां पाठ नाभसयोग, तेरहवां पाठ सुनिाकद -चान्द्रयोग , चौदहवां पाठ िद्वग्रह-ित्रग्रहयोग, पन्द्रहवां पाठ
  • 6. 6pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 6 प्रव्रज्यायोग, ऄथ =आसके बाद, सोिहवां पाठ रािशशीि, सत्रहवां पाठ दृिििि , तस्मात्पर = :ईसके (१७वें पाठ के) बाद, ऄट्ठारहवां पाठ भावाध्याय, ऄथातः परं = ऄब (१८ वें पाठ के) बाद, ईन्नीसवां पाठ अश्रययोग, बीसवां पाठ प्रकीणय । नेिा योगा जातक कािमनीनां िनयायणं स्यान्निजन्मा दृकाणः । ऄध्यायानां बवशितः पञ्चयुक्ता जन्मन्येतद्याित्रकं चािभधास्ये ॥ ऄन्वय – नेिा योगा कािमनीनां जातक िनयायणं स्यात् निजन्मा दृकाणः । ऄध्यायानां बवशितः पञ्चयुक्ता जन्मिन एतद् याित्रकम् ऄिभधास्ये च । सरिाथय – २१ आक्कीसवां पाठ नेिा योगा = ऄिनियोग, २२ बाइसवां पाठ कािमनीनां जातक = स्त्रीजातक , २३ तेइसवां पाठ िनयायण म् = मरणज्ञान, २४ चौबीसवां ऄध्याय निजन्मा = निजातक, २५ पच्चीसवां ऄध्याय दृकाणः =द्रेष्काणस्वरूप । एवं = आस प्रकार, पञ्चयुक्ताध्यायानां बवशितः = २५ ऄध्याय, जन्मिन = जातक शास्त्र में, ईक्ता = कहे गए । च =और, एतद् =आसके बाद ,याित्रकम् =यात्रा सम्बन्धी( िवषय को )ऄिभधास्ये= कहंगा । िप्रय छात्र! ईपयुयक्त श्लोकों को पढ़ने के बाद अपके मन में यह शंका हो सकती है कक जब बृहज्जातक में कुि २५ ऄध्याय ही हैं तो किर जो ऄध्याय अप पढ़ रहे है वह ३७ वां कैसे हो गया? िमत्र! आसका कारण यह है कक अप िजस पाठ्यक्रम का ऄध्ययन कर रहे हैं, ईसको आस प्रकार से बनाया गया है कक अपको ग्रन्थोक्त िवषयों का िवस्तार से ज्ञान हो सके । आसके ििए ग्रन्थोक्त कुछ ऄध्यायों
  • 7. 7pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 7 को, अपके पाठ्यक्रम के ऄनुरूप 2-3 पाठों में बांटा गया है , िजसके कारण पाठ्यक्रम के पाठों की संख्या और मूि-ग्रन्थ के पाठों की संख्या में ऄंतर है । 37.4 वराहिमिहर की ऄन्य कृितयां बृहज्जातक में अए ऄध्यायों के पररगणन के ईपरान्त वराहिमिहर ने ऄपनी ऄन्य कृितयों का ईल्िेख अगे के तीन श्लोकों में ककया है । आनमें अरम्भ के दो श्लोकों में तो यात्रा सम्बन्धी िवषयों का नामोल्िेख ककया है जबकक तीसरे श्लोक में ऄपनी ऄन्य कृ ितयों का ईल्िेख वराहिमिहर ने ककया है । 37.4.1 यात्रा -सम्बन्धी कृित के िवषय िप्रय ऄध्येता! जैसा कक अपने पूवय श्लोक में पढ़ा कक वराहिमिहर ने स्वयं ही कहा ‘एतद् याित्रकम् ऄिभधास्ये ’ ऄथायत् आसके बाद यात्रा से सम्बिन्धत (ग्रन्थ) कहंगा । आससे यह स्पि है कक अगामी चौथे श्लोक में जो िवषय कहे जा रहे हैं वो यात्रा से सम्बिन्धत हैं । न केवि चौथे ऄिपतु पांचवें श्लोक में भी वराहिमिहर ने यात्रा-सम्बन्धी िवषयों का ईल्िेख ककया है - प्रश्नािस्तिथभं कदवसः क्षणश्च चन्द्रो िविग्नं त्वथ िग्नभेदः । शुिद्ग्रहाणामथ चापवादो िविमश्रकाख्यं तनुवेपनं च ॥ ऄतः परं गुह्यकपूजनं स्यात्स्वप्नं ततः स्नानिविधः प्रकदिः । यज्ञो ग्रहाणामथ िनगयमश्च क्रमाच्च कदिः शकुनोपदेशः॥ ऄन्वय – प्रश्ना :ितिथ: भं कदवसः क्षणश्च चन्द्रो िविग्नं तु ऄथ िग्नभेदः । ऄथ ग्रहाणां शुिद् :ऄपवादश्च िविमश्रकाख्यं तनुवेपनं च । ऄतः परं गुह्यकपूजनं स्या त् स्वप्नं (स्यात्) ततः स्नानिविधः प्रकदिः । ऄथ ग्रहाणां यज्ञ :िनगयमश्च क्रमात् कदिः शकुनोपदेशः च ।
  • 8. 8pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 8 सरिाथय – प्रश्नाः =प्रश्नभेदाध्याय, ितिथ = :ित िथबिाध्याय, भं नक्षत्रािभधान , कदवसो कदवसािभधान, वारिििक्षण , क्षणो =मुहतयिनदेश, चन्द्र = : चन्द्रबिाध्याय, च =और, िविग्नं = िग्निविनश्चयः ऄथायत् िग्निनणयय, ऄथ = ऄनन्तरम् ऄथायत् िग्नाध्याय के पश्चात् , िग्नभेदो =होरा-द्रेष्काण-नवांश- द्वादशांश-बत्रशांशवगों का िक्षण , सििं ग्रहाणां शुिद्ः =सििा समस्तग्रहाणां कुण्डििकाििम् ऄथायत् सभी ग्रहों के तात्काििक साधन के साथ ही जन्मांग-चक्र में ईनका िि, ऄथानन्तरं = और आसके बाद, ऄपवादाध्यायः, िविमश्रकाख्यं = िविमश्रकाध्याय, तनुवेपनं = देहस्पन्दनम् ऄथायत् ऄंगों का स्िु रण । ऄत = :ऄस्मात्परं आसके (ऄङ्ग स्िु रण के )बाद, गुह्यकपूजनं स्या त् = कार्मतकेय -पूजन-िविध होवे , स्वप्नं =स्वप्नाध्याय ,तत:=ऄ नन्तरं, स्नानिविधः , प्रकदिः =ईक्तः कहा है, ग्रहाणां यज्ञो =ग्रहों के शान्त्याकद यज्ञ .ऄथ = ऄनन्तर, िनगयम := प्रास्थािनकं ऄथायत् यात्रा का िनणयय , क्रमात् =प ररपाट्या ऄथायत् क्रमानुसार , शकुनोपदेशः =शुभाशुभ शकुन का ज्ञान ,कदि =कहा गया है, एष यात्रायां संग्रहः =ये सभी यात्रा -सम्बन्धी ग्रन्थ के िवषय हैं। रटप्पणी – िप्रय! यात्रा -िवषयक एक ग्रन्थ ’योगयात्रा‘,’ प्रकािशका ‘नामक संस्कृत टीका के साथ िमिता है। जो कक कृष्णदास ऄकादमी, वाराणसी से छपा है । आस ग्रन्थ को वराहिमिहर के द्वारा प्रणीत भी कहा गया है । आस प्रकािशका टीका के प्रणेता पं हररनन्दन िमश्र ने ग्रन्थ के ऄंत में ऄपना पररचय देते हुए आसकी प्रािि के ऄत्यन्त रोचक प्रसंग का भी वणयन ककया है। जो पठनीय है । आस ग्रन्थ का
  • 9. 9pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 9 सम्पादन श्री सत्येन्द्र िमश्र जी ने ककया है । जो कक आसकी भूिमका में कहते हैं कक काशी िहन्दू िव.िव. के भूतपूवय िवभागाध्यक्ष पं रामजन्म िमश्र जी को ईनके काि से प्राय : ९० वषय पूवय आस ग्रन्थ की प्रकािशत प्रित एक िवद्वान् से प्राि हुइ , िजसकी ‘ऋचा’ आस नाम से िहन्दी टीका ईन्होंने की । वस्तुिस्थित जो भी हो ककन्तु सत्यता य ह है कक वतयमान में यह पुस्तक वराहिमिहर के द्वारा रिचत यात्रा -परक ग्रन्थ के रूप में स्वीकायय है । ऄब यकद आस पुस्तक के िवषय -सूची को देखें तो कुछ ऄध्यायों के नाम-साम्य (कुछ सीमा तक न कक पूणयतया) को छोड़कर वराह -प्रोक्त ऄन्य ऄध्यायों का साम्य नहीं िमिता है। आससे कुछ संभावनाएं बुिद्गोचर होती हैं। िजनमें पहिी संभावना तो यह है कक वराह -प्रोक्त यात्रा-िवषयक-ग्रन्थ अरम्भ में िजस स्वरूप में था , कािान्तर में ईसमें कइ पररवतयन हुए िजसके ििस्वरूप यह ग्रन्थ वतयमान दशा को प्राि हुअ । दूसरी संभावना यह है कक कािान्तर में ककसी ऄन्य िवद्वान् ने ऄपने ग्रन्थ की स्वीकाययता के ििए व राहिमिहर के नाम से आसे प्रचाररत ककया । ककन्तु, ग्रन्थ में कहीं भी वराहिमिहर का नाम नहीं है, हां ग्रन्थ के प्रत्येक ऄध्याय के ऄंत में ‘आित श्रीवराहिमिहराचाययकृता यां योगयात्रायाम् ‘... आस प्रकार टीकाकार ने ििखा है । एक ऄन्य सम्भावना ग्रन्थ से ही िनकिती है और वो ये है कक वतयमान में ईपिब्ध ग्रन्थ िघुजातक के समान ही िघुयोगयात्रा है और बृहज्जातक में वराहिमिहर ने िजस ग्रन्थ के ऄध्यायों का ईल्िेख ककया है वे ऄध्याय बृहद्योगयात्रा के हों । आस बात का सङ्केत ऄिन्तम १६ वें ऄध्याय के ऄिन्तम १८ वें श्लोक में ‘समासत:’ आस शब्द से िमिता है कक, िजसकी व्याख्या में टीकाकार श्रीहररनंदन कहते हैं ........’ऄयं किथतिवषय: समासतश्च संक्षेपतश्चात्र योगयात्रायां िनर्ददि: किथतो मया आित िशवम् । समासत आित पदं िघुयोगयात्रा
  • 10. 10pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 10 यथा िघुजातक आित । ऄनेन बृहज्जातकवद्बृहद्योगयात्रा ऽन्याऽऽचाययकृितररित स्िु टम् ‘। टीकाकार की आस ईिक्त के ऄनुसार यह स्पि है कक श्लोकोक्त ‘समासत:’ आस शब्द से प्रकट होता है कक यह ग्रन्थ संिक्षि होने के कारण (जैसे िघुजातक ठीक ईसी प्रकार से) ‘िघुयोगयात्रा’ है । जो कक बृहज्जातक के सामान ही एक ऄन्य ऄपेक्षाकृत िवशाि यात्रा-ग्रन्थ ’ बृहद्योगयात्रा‘ के वराहिमिहर -प्रणीत होने का संकेत करती है । ऐसे में एक सम्भावना यह भी है कक बृहज्जातक में ईक्त यात्रा - िवषयक-ग्रन्थ के िवषय कदािचत्बृहद्योगयात्रा के होने और य ह वतयमान में ईपिब्ध और प्रचिित ग्रन्थ (योगयात्रा)वास्तव में िघुयोगयात्रा हो ,जैसा कक स्वयम् टीकाकार ने ग्रन्थ के ऄन्त में स्वरिचत एकमात्र श्लोक में स्पि कहा है – ऄनेककोशान् बहुवेदग्रन्थानािोच्य सिद्वज्ञजनानुमत्या । प्रकािशतेयं िघुयोगयात्रा स्वामोददाऽऽचारवतां नृपाणाम् ।। ऄथायत् ऄनेकानेक कोश ग्रन्थों और बहुत से वेदाकद ग्रन्थों का अिोडन करके सज्जन एवं िवद्वान् व्यिक्तयों की ऄनुमित से अचारवान् राजाओं के ऄपने अनन्द की वृिद् हेतु यह ग्रन्थ प्रकािशत ककया । 37.4.2 वराहिमिहर की शेष कृितयां िप्रय छात्र! वराहिमिहर ने यात्रा-सम्बन्धी कृित के पश्चात् ऄपनी शेष ऄन्य कृितयों का ईल्िेख एक ही श्लोक में ककया है । आस श्लोक में, पूवोक्त श्लोकों से आतर, कृितयों का स्पि ईल्िेख ककया गया है । वराहिमिहर ने कहा है - िववाहकािः करणं ग्रहाणां प्रोक्त पृथक्तिद्वपुिाऽथ शाखा । स्कन्धैिस्त्रिभज्योितषसङ्ग्रहोऽयं मया कृतो दैविवदां िहताय ॥६ ॥ ऄन्वय –
  • 11. 11pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 11 िवववाहकाि: ग्रहाणां करणं प्रोक्तं ऄथ पृथक् तिद्वपुिा शाखा । ऄयं ज्योितषसङ्ग्रह :ित्रिभः स्कन्धै: मया दैविवदां िहताय कृत :। सरिाथय- िववाहकािो’ = िववाहपटिं ‘नामक ग्रन्थ ,ग्रहाणां करणं =ग्रहों के साधन हेतु ’पञ्चिसद्ािन्तका‘ संज्ञक करण-ग्रन्थ, प्रोक्तं = (मेरे द्वारा) कहे गए हैं । ऄथ = आसके (पंचिसद्ािन्तका के) बाद , पृथ क् = ऄिग रूप से, तिद्वपुिा शाखा = ज्योितष की बड़ी-बड़ी शाखा ओं के ग्रन्थ (मेरे द्वारा रचे गए हैं) । ऄयं ज्योितषसङ्ग्रह := ये ज्योितषसङ्ग्रह (मेरे द्वारा रचे गए ग्रन्थ), ित्रिभः स्कन्धै := तीनों स्कन्धों के द्वारा (के अधार पर), मया = मेरे द्वारा, दैविवदां = ज्योितिषयों की, िहताय = िहत के ििए, कृत: = ककया गया । रटप्पणी – भारतीय-ज्योितष के आितहास में वराहिमिहर ऐसे प्रथम ज्ञात स्वतन्त्र ज्योितषी थे िजन्होंने ज्योितष के समस्त स्कन्धों पर ऄपनी िेखनी चिाते हुए स्वतन्त्र-ग्रन्थों की रचना की है । किर चाहे वह िसद्ान्त स्कन्ध का ऄित महत्त्वपूणय करण-ग्रन्थ ‘पञ्चिसद्ािन्तका’ हो , या ििित के ‘बृहज्जातक’ या ‘िघुजातक’ हों ऄथवा संिहता का महान् ग्रन्थ ‘बृहत्संिहता’ हो, ‘िववाहपटि’ हो या किर ‘योगयात्रा’ । आनमें पञ्चिसद्ािन्तका, बृहज्जा तक और बृहत्संिहता तो भारतीय ज्योितष के वास्तिवक स्वरूप को समझाने के ििए एवं ईसके बृहत्तर स्वरूप को िवश्व के समक्ष प्रितपाकदत करने के ििए ऄित महत्त्वपूणय होने के कारण मीि का पत्थर सािबत हुइ हैं । यही कारण है कक वराहिमिहर का भारतीय-ज्योितष के आितहास में कदया गया योगदान ऄत्यन्त महत्त्व का तथा ऄिवस्मरणीय है ।
  • 12. 12pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 12 37.5 - वराहिमिहर की कृतज्ञता – िमत्रों! ऄगिे श्लोक में वराहिमिहर ने पूवय-भारतीय-अचायों एवं यवनाचायों के प्रित कृतज्ञता प्रकट करते हुए स्पि रूप से स्वीकार ककया है कक ईनके िवस्तृत िसद्ांतों का सार-रूप ईन्होंने ऄपने आस बृहज्जातक ग्रन्थ में समािहत ककया है । आसके ऄिावा अचायय ने शास्त्र-िवषयक-गहन-िचन्तन के द्वारा बुिद् को तीक्ष्ण करने की बात कहते हुए िचन्तन-मनन को एक िवद्वान् का प्रमुख कतयव्य मानते हुए ग्रन्थ-िनमायण में हुए प्रमाद-जन्य ऄितशयोिक्त या त्याग अकद दोष (यकद कोइ हो तो ईसके) के ििए िवद्वानों से क्षमा-मााँगते हुए स्वयं के व्यिक्तत्व का ही पररचय कदया है । वराहिमिहर कहते हैं - पृथुिवरिचतमन्यैः शास्त्रमेतत्समस्तं तदनु िघु मयेदं तत्प्रदेशाथयमेव । कृतिमह िह समथं धीिवषाणामित्वे मम यकदह यदुक्तं सज्जनैः क्षम्यतां तत् ॥ ऄन्वय – एतत्समस्तं शास्त्रम् ऄन्यै: पृथु िवरिचतं तदनु तदेव मया प्रदेशाथयम् आदं िघु कृतम् । िह आह कृतं धीिवषाणामित्वे समथयमुक्तमेतत् कृतम्। मम यत् आह यदुक्त तत्सज्जनैः क्षम्यताम् । सरिाथय– एतत्समस्तं = सकिशास्त्रम् ऄथायत् यह सम्पूणय ज्योितष -शास्त्र(चाहे प्रसङ्गवशात् ज्योितष के ििित स्क ध की बात हो या किर सम्पूणय ित्रस्कन्धात्मक ज्योितष -शास्त्र की बात हो,) ऄन्यै = :अ चायै :य वनेश्वराकदिभश्च
  • 13. 13pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 13 ऄथायत् ऄन्य भारतीय अचायों और ईनके ऄितररक्त वैदेिशक यवनाचायों के द्वारा, पृथु िवस्तीणं किथतं = जो ऄितिवशाि ज्योित षशास्त्रीय-सािहत्य रचा गया है), तदनु = ईनके पश्चात् , तदेव = वही ज्योितषीय िसद्ान्त , शोभनतरं मया = मेरे द्वारा सुन्दर ििित पद्यों के माध्यम से , तत्प्रदेशाथं = तदुपकदिाथं ऄथायत् ईन पूवायचायों के द्वारा ईपकदि िसद्ान्तों के ऄनुरूप ईनके तात्पयय को ही कहने के ििए ,िघु =स्वल्पं ,कृतं = संिक्षिाकार ग्रन्थ रचा गया (है)। िह = यस्मादथे आसििए क्योंकक, आह =ऄिस्मन् शास्त्रे ऄथायत् आस शास्त्र में, धीिवषाणामित्वे = बुिद्शृङ्गिनमयिीकरणिवषये ऄथायत् बुिद् और सींग आन दोनों का ही िनमयिीकरण ऄथायत् तीक्ष्णता एवं स्वच्छता (ईनके घषयण से ही सम्भव है िजसमें), समथयमुक्तमेतत् कृतम् = यह मेरी कृित समथय है। मया चेह संग्रहे = ऄथायत् मेरे द्वारा ककए गए आस संग्रह (ग्रन्थ) में यदुक्तम् = ऄशोभनयुक्तं ऄथायत् जो कथन ऄसाधु, ऄशास्त्रीय हो, तत् मम =वह मेरा (दोष)है(एतदथय), सज्जनैः =पिण्डतै ऄथायत् सज्जनों िवद्वानों के द्वारा, क्षन्तव्यम् = मैं क्षमा-प्राथी हं। टीका - आस श्लोक में वराहिमिहर जी ने ऄपने ईस अचाययत्व का दशयन कराया है जो िचर काि से ही भारतीय संस्कृित व सभ्यता का ऄिभन्न-ऄंग रहा है । प्राचीन अचायय या तो ऄपने नाम का ईल्िेख ही नहीं कर ते थे या कफ़र करते थे तो ग्रन्थ के ऄंत में, वो भी ऄपने पूवायचायों के प्रित कृतज्ञता प्रकट करने के पश्चात् । आसी परम्परा के पररपािक अचायय वराहिमिहर भी हैं । आन्होंने प्राय: ऄपने रिचत प्रत्येक ग्रन्थ के अरम्भ और ऄन्त में पूवायचायों की स्वस्थ और सुदृढ़ परम्परा को नमन करते हुए ग्रन्थ के िनमायण में ईनके द्वारा किथत िसद्ांतों को ही अधार बताते हुए ईनके प्रित ऄपनी कृतज्ञता व श्रद्ांजिि प्रकट की है । यहााँ पर भी
  • 14. 14pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 14 वराहिमिहर ईसी पररपाटी का ऄनुसरण करते हुए आस बृहज्जातक ग्रन्थ को पूवायचायोक्त मतों का साररूप (एतत्समस्तं शास्त्रम् ऄ न्यै: पृथु िवरिचतं तदनु तदेव मया प्रदेशाथयम् आदं िघु कृतम्) बताते हुए आसके प्रणयन में ईनके योगदान को ऄिधक महत्त्व दे रहे हैं बजाए आसके की वो ऄपने ग्रन्थ की प्रशंसा करें । पूवायचायों के प्रित कृतज्ञता प्रकट करने के ईपरान्त किर अचायय आस ग्रन्थ को बौिद्क-व्यायाम की पररणित-स्वरूप बताते हैं । ‘धीिवषाणामित्व’ के द्वारा वह न केवि बुिद् (या तकय ) की िनमयिता को आंिगत करा रहे हैं बिल्क ऄपने आस ग्रन्थ को बौिद्क-व्यापार का िि-स्वरूप भी कह रहे हैं , जो कक आस ग्रन्थ की रचना में कारणीभूत है । कहने का अशय यह है कक जब अपकी बुिद् ककसी शास्त्र में सतत प्रवृत्त होने के कारण िनमयि हो जाती है तो ऄवश्य ही ईससे आस प्रकार के शास्त्रीय ग्रन्थ प्रस्िु रटत होते हैं । िेककन श्लोक के ऄंत में पुन: संतुिन साधते हुए अचायय वराहिमिहर ऄपनी िवनम्रता (जो कक िन :सन्देह अचायय का सहजात गुण है ) को न छोड़ते हुए ग्रंथोक्त दोषों के ििए स्वयं को ईत्तरदायी मानते हुए िवद्वान् पाठक से एतदथय क्षमा भी मांग रहे हैं । 37.6 - ग्रन्थ की समीक्षा हेतु िवद्वानों से प्राथयना – वराहिमिहर ऄपनी कृित पर िवद्वानों की समािोचना हेतु प्राथयना करते हुए राग-द्वेष रिहत समीक्षा करने की बात कही है। िजससे शास्त्र का ईपकार हो सके । वे ककसी भी प्रकार की सकारात्मक अिोचना का स्वागत करते हैं । ईनको यह कहने में भी कोइ संकोच नहीं है कक ऐसे बृहत् ग्रन्थ िजसमें, ऄनेकों िवद्वानों के मत समािहत हों, के प्रणयन में प्रमाद की सम्भावना बनी रहती है । साथ ही
  • 15. 15pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 15 साथ वह ज्योितष-शास्त्र के िवद्वानों का अह्वान भी आस श्लोक के माध्यम से करते हुए कहते हैं - ग्रन्थस्य यत्प्रचरतोऽस्य िवनाशमेित िेख्याद्वहुश्रुतमुखािधगमक्रमेण । यद्वा मया कुकृतमल्पिमहाकृतं वा । कायं तदत्र िवदुषा पररहृत्य रागम् ॥ ऄन्वय – प्रचरत :ऄस्य ग्रन्थस्य िेख्या त् यिद्वनाशमेित यद्वा मया आह कुकृतं तथा ऄल्पकृतं तदत्र िवदुषा तत् बहश्रुतमुखािधगमक्रमेण रागं पररहृत्य काययम् । सरिाथय – प्रचरत: ऄस्य ग्रन्थस्य = प्रवतयमान आस ग्रन्थ (बृहज्जा तक )की, िेख्यात् = िेखकदोषात् िेखक के द्वारा प्रमादजन्य दोष के कारण ,यिद्वनाशमेित =जो क्षित होती है ,। यद्वा =ऄथवा, मया =जो मेरे द्वारा ,कुकृतं =कुित्सत कृतं तथाऽल्पम् ऄपररपूणं =जो ऄशास्त्रीय कथन हो या मेरे कथन में कुछ कमी र ह गयी हो ऄथवा ककसी भी प्रकार की ऄपूणयता हो तो , तत् =ईस दोष (का पररमाजयन ,) बहश्रुतमुखािधगमक्रमेण =बहुश्रूतानां पिण्डता नां मुखादिधगम्य ज्ञात्वा क्रमेण पररपाट्या िवदुषा पिण्डतेन ऄथायत् क इ सारे िवद्वानों के मतों को सुनकर और शास्त्रीय तत्त्व का सम्यग् ज्ञान करके क्रमश : काि -क्रमानुसार परम्परा का ऄनुपािन करते हुए , रागं मात्सयय म् पररहृत्य =िवहाय ऄथायत् ककसी भी प्रकार की सपक्षता या भेद -भाव का सवयथा प ररत्याग करके ,कतयव्यम् =करना चािहए ।
  • 16. 16pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 16 37.7-वराहिमिहर का पररचय – ग्रन्थ के ईपान्त्य श्लोक में वराहिमिहर ने ऄपना पररचय कदया है । आसमें ईन्होंने यह बताया है कक वो ककस नगर के िनवासी हैं और ईनके िप ता का नाम क्या है । वराहिमिहर का पररचय आस श्लोक में समािहत होने के कारण यह श्लोक ऄत्यन्त महत्त्वपूणय है । वस्तुत : आसी श्लोक में ही ईन्होंने ऄपना नाम ईजागर ककया है कक आस ग्रन्थ के िेखक का नाम ‘वराहिमिहर’ है । वराहिमिहर कहते हैं - अकदत्यदासतनयस्तदवािबोधः कािपत्थके सिवतृिब्धवरप्रसादः । अविन्तको मुिनमतान्यविोक्य सम्य ग्घोरां वराहिमिहरो रुिचरां चकार॥ ऄन्वय – (ऄयं) अकदत्यदासतनय: तदवािबोध: अविन्तको वराहिमिहरो कािपत्थके सिवतृिब्धवरप्रसादः मुिनमतािन ऄविोक्य सम्यक् रुिचरां होरां चकार । सरिाथय– वराहिमिहर: होरां चकार ऄथायत् वराहिमिहर ने होरा (शास्त्र)की रचना की है । तब प्रश्न यह है कक यह वराहिमिहर कौन है? आस पर स्वयं ऄपना पररचय देते हुए वराहिमिहर कहते हैं कक यह (वराहिमिहर ऄथायत् मैं), अकदत्यदासतनय: =अकदत्यदासाख्यो ब्राह्मणः तस्य तनयः पुत्रः ऄथायत् अकदत्यदास का पुत्र (हं) , तदवािबोध := तस्मादेव िपतु :अ कदत्यदासात् ऄ वाि :बोधः ज्ञानं येन स: तदवािबोध :ऄथायत् (मैंने) ऄपने ही िपता श्री अकदत्यदास से ज्ञान (िविशष्य ज्योितष- शास्त्रीय -ज्ञान) प्राि ककया । (मैं) अविन्तकः = ईज्जियनी का रहने वािा
  • 17. 17pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 17 (हं) । कािपत्थके ग्रामे = ईज्जियनी के कािम्पल्य ग्रा म में, योऽसौ = जो यह (मैं वराहिमिहर), ईसने, सिवतृिब्धवरप्रसादः = भगवान् सिवता सूययस्तस्माल्िब्धः प्रािो वरप्रसादो येन ऄथायत् भगवान् श्री सूययनारायण से ऄभीि वर की प्रािि की। मुिनमतािन ऋिषप्रणीतािन शास्त्राण्यविोक्य = िवचायय सम्यग्यथावस्तु कृत्वा ऄथायत् िविभन्न अचायों के मतों का ऄविोकन व तथ्यात्मक िचन्तन करके, रुिचरां = शोभनां सुगमां , होरां जातकशास्त्रं चकार = बोधगम्य जातकशास्त्र (बृहज्जातक) की रचना की । 37.8 – ईपसंहार – यह ग्रन्थ का ऄंितम श्लोक है । आस श्लोक में वराहिमिहर ने ऄपने गुरु, पूवायचायों और सूयय को प्रिणपातपूवयक नमस्कार ककया है । कदनकरमुिनगुरुचरणप्रिणपातकृतप्रसादमितनेदम् । शास्त्रमुपसंगृहीतं नमोऽस्तु पूवयप्रणेतृभ्यः ॥ ऄन्वय – कदनकरमुिनगुरुचरणप्रिणपातकृतप्रसादमितना आदम् शास्त्रमुपसंगृहीतम् । पूवयप्रणेतृभ्यः नमोऽस्तु । सरिाथय – कदनकरमुिनगुरुचरणप्रिणपातकृतप्रसादमितना = कदनकर-मुिन-गुरुवायायणां चरणकमियो: प्रिणपातेन प्रसन्ना मितययस्य तेन ऄथायत् भगवान् सूयय, नारद - पराशराकद मुिनयों एवं ऄपने गुरुओं के चरण-कमि में सादर चरण-स्पशय करके प्रसन्न बुिद् और मन के द्वारा, आदम् शास्त्रमुपसंगृहीतम् = यह ज्योितष-शास्त्रीय
  • 18. 18pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 18 ग्रन्थ (बृहज्जातक) मेरे द्वारा रचा गया । पूवयप्रणेतृभ्यः नमोऽस्तु = आसके ििए ही मैं (वराहिमिहर) ऄपने पूवयजों (ज्योितिषयों) के प्रित नमन करता हं । यह स्पि है कक वराहिमिहर ने ऄपने ग्रंथों की रचना का अधार पूवायचायों के मतों, िवचारों को ही रखा ऄत: ईनको सादर नमन करना वराहिमिहर ने ऄपना कत्तयव्य माना । आस प्रकार आस ग्रन्थ का अरम्भ और ऄन्त ग्रन्थकताय ने क्रमश: अशीवायदात्मक और नमस्कारात्मक मंगिाचरण से ककया है । 37.9 – सारांिशका ईपसंहाराध्याय के अरम्भ के ३ श्लोक ही संपूणय ग्रन्थ के िवषयों की सूचना दे देते हैं । ऄत: केवि आन्हीं तीन श्लोकों को पढ़ ििया जाए तो ग्रन्थ के िवषय में एक स्थूि (मोटा-मोटी) जानकारी िमि जाती है । जो ग्रन्थ के बाह्य स्वरूप (outline) का िनधायरण करती है । आसके बाद यात्रा से सम्बिन्धत (ग्रन्थ) के िवषयों को वराहिमिहर ने न केवि चौथे ऄिपतु पांचवें श्लोक में भी वर्मणत ककया है । ऄिग्रम श्लोक में व राहिमिहर ने ऄपनी ऄन्य कृितयों यथा ‘िववाहपटि’, ‘पञ्चिसद्ािन्तका’ एवं ‘बृहत्सं िहता’ का ईल्िेख ककया है । ऄगिे श्लोक में वराहिमिहर ने पूवय-भारतीय-अचायों एवं यवनाचायों के प्रित कृतज्ञता प्रकट करते हुए स्पि रूप से स्वीकार ककया है कक ईनके िवस्तृत िसद्ांतों का सार-रूप ईन्होंने ऄपने आस बृहज्जातक ग्रन्थ में समािहत ककया है । आसके ऄिावा अचायय ने शास्त्र-िवषयक-गहन-िचन्तन के द्वारा बुिद् को तीक्ष्ण करने की बात कहते हुए िचन्तन-मनन को एक िवद्वान् का प्रमुख कतयव्य मानते हुए , ग्रन्थ-िनमायण में हुए प्रमाद-जन्य ऄितशयोिक्त या त्याग अकद दोष (यकद कोइ हो तो ईसके) के ििए िवद्वानों से क्षमा-मााँगते हुए स्वयं के व्यिक्तत्व का ही पररचय कदया है ।
  • 19. 19pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) GhemebnejeOÙeeÙe (37) 19 ईपान्त्य श्लोक में वराहिमिहर ने ऄपना पररचय देते हुए कहा है कक मैं अकदत्यदास का पुत्र हं िजनसे मैंने ज्योितष-शास्त्रीय -ज्ञान प्राि ककया । ईन्होंने यह भी बताया कक मैं ईज्जियनी के कािम्पल्य ग्रा म का िनवासी हं और मैंने भगवान् श्री सूययनारायण से ऄभीि वर की प्रािि की और मैंने िविभन्न अचायों के मतों का ऄविोकन व तथ्यात्मक िचन्तन करके जातकशास्त्र (बृहज्जा तक) की रचना की ।