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२१.१ प्रस्तावना
िप्रयच्छात्र ! UGC द्वारा संचािित काययक्रमान्तागयत SWAYAM के स्नातकोत्तर
स्तरीय पाठ्यक्रम के बृहज्जातक नामक शीषयक के इक्कीसवें पाठ- चन्रयोग िवचार
में आपका स्वागत है | इस पाठ में आप चन्र की िस्थित से बनने वािे योगों के
संदभय में िवस्तार से अध्ययन करेंगे | इसके पूवय पाठ में आपने नाभस योगों के बारे
में िविधव त् अध्ययन ककया | उसी क्रम में आगे बढ़ते हुए हम इस पाठ में
जन्मकुंडिी में िविभन्न ग्रहों से चन्रग्रह के िविभन्न भावों में िस्थितवशा त् बनने
वािे योगों के बारे में अध्ययन करेंगे | योग शब्द की प्रत्येक क्षेत्र में महत्ता है |
ज्योितष शास्त्र में भी योग की बड़ी मिहमा है इसी प्रसंग में तुिसी दास जी ने भी
कहा है कक “ग्रह, भेषज, जि, पवन, पट, पाई कुयोग सुयोग” अथायत् औषिधयां,
जि, वायु, वस्त्र, और “ग्रह” कुयोग अथवा सुयोग द्वारा ही शुभ अथवा अशुभ
वस्तुओं की प्रािि करवाते हैं | ग्रह अपनी पररवतयनशीि िस्थित द्वारा िविवध
प्रकार के शुभ-अशुभ योगों या पररिस्थितयों को उत्पन्न करते हैं | इन्हीं योगों को
चन्रमा के िभन्न -िभन्न स्थानों में होने से या अन्य ग्रहों के स्थान से चन्रमा के
िविभन्न भावों में िस्थत होने से बनने वािे योगों यथा सूयय ग्रह िजस रािश में
िस्थत है उस रािश से केंर पणफर अपोिलिम स्थानगत चन्र का, तथा चन्रमा से
3pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21)
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उकता स्थानगत शुभग्रहोत्पन्न अिधयोग का, चन्रमा से सूयय को छोड़कर िद्वतीय,
द्वादश तथा उभयस्थ सुनफा, अनफा, दुरुधरा योगों के भेद व इनका योगज फि,
सुनाफादी योगकारक ग्रहों से फि तथा िग्न या चन्रमा से उपचय स्थानगत ग्रहों
का शुभाशुभ फि इत्याकद का िवस्तार से अध्ययन करेंगे |
२१.२ उद्देश्य
इस पाठ का िविधवत अध्ययन करने के पश्चात् अध्येतागण -
 सूययस्थान से चन्र की भाविस्थित का फि जान सकेंगे |
 अिधयोग नामक बनने वािे योग से अवगत हो सकेंगे |
 अनफा-सुनफा इत्याकद योगों के िविभन्न भेदों व फि से पररिचत हो
सकेंगे |
 योगकारक शिन के फि को बताने में सक्षम हो सकेंगे |
 िग्न व चन्रमा से उपचय स्थानों में िस्थत शुभग्रहों के फि कथन में दक्ष
हो सकेंगे |
२१.३ सूयय स्थान से कें र,पणफर तथा अपोिलिम गत चन्र से फि िवचार
जातक की जन्मकुण्डिी में चन्रमा यकद सूयय स्थान से केन्र,पणफर,तथा
अपोिलिम स्थानो में िस्थत हो तो उसके फि का वणयन करते हुये आचायय
वराहिमिहर ने िनम्निििखत श्लोक में बताया है -
अधमसमवररष्ठान्यकयकेन्राकदसंस्थे
शिशिन िवनयिवत्तज्ञानधीनैपुणािन|
अहिन िनिश च चन्रे स्वेऽिधिमत्रांके वा
सुरगुरुिसतदृष्टे िवत्तवान् स्यात् सुखी च ||
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अन्वय एवं अन्वयाथय –अकाय(त्)-सूयय से , शिशिन –चन्र , केन्राकद- केन्र,
पणफर तथा अपोिलिम स्थानों (में) संस्थे- िस्थत हो , (तो जातक में ) िवनय
िवत्त ज्ञान धी नैपुणािन – िवनम्रता, धन, ज्ञान, बुिि तथा िनपुणता आकद गुण,
अधम- िनम्नस्तरीय, सम – मध्यम, वररष्ठािन (भविन्त)- उत्तम होते हैं ,
चन्रे- चन्रमा, स्वे- अपने, अिधिमत्रान्शके –(या) अपने अिधिमत्र के नवान्श में,
अहिन- कदन में, िनिश- राित्र में, सुरगुरु- बृहस्पित, िसत- शुक्र, दृष्टे- दृष्ट होने से ,
िवत्तवान- धनवान्, सुखी च – और सुखी , स्यात् – होता है |
व्याख्या- जातक के जन्म समय में या जन्मकुण्डिी में चन्रमा यकद सूयय िस्थत
भाव से केन्र अथायत् १,४,७,१० भावों(िचत्र २१.१) में कहीं भी हो तो जातक
िवनम्रता, धन, बुिि तथा िनपुणता आकद गुणों मे न्यून अथायत् हीन होता है |
चन्रमा यकद पणफर अथायत् २,५,८,११ भावों (िचत्र२१.०२) में हो तो उपयुयक्त
गुणों- िवनय,धन,ज्ञान,बुिि तथा चतुराई आकद की िस्थित मध्यम, अथायत् न कम
न अिधक, होती है | परन्तु यकद सूयय से चन्रमा अपोिलिम अथायत् ३,६,९,१२
भावों(िचत्र सं.२१.०३) में हो तो जातक मे िवनम्रता, धन, शास्त्र-ज्ञान, बुिि
तथा िनपुणता आकद गुण उच्च कोरट के होते हैं |
और यकद चन्रमा अपने नवांश या अपने अिधिमत्र के नवांश में हो तथा जातक
का जन्म यकद कदन का हो, और उसपर गुरु की दृिष्ट हो तथा राित्र मे जन्म हो
और शुक्र की दृिष्ट हो तो वह धनवान् और सुखी होता है |
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िचत्र सं.२१.०१
(सूयय से चन्रमा केंर में है )
िचत्र सं.२१.०२
( सूयय से चन्रमा पणफर स्थान में है)
िचत्र सं.२१.०३
(सूयय से चन्रमा अपोिलिम में है)
5 च.
च. 2
1
7
10 च.
8
च. 11
च
सू च.
च
च.
सू.
च.
च. च.
.च.
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२१.४ चन्र सम्बन्ध से सफि अिधयोग िवचार
जन्मकुण्डिी में चन्रमा से बनने वािे अिधयोन नामक योग और उसके फि के
बारे मे इस श्लोक में बताया जा रहा है-
सौम्यैैः स्मराररिनधनेष्विधयोग इन्दो-
स्तािस्मन्श्चमूष्सिचविक्षितपािजन्म |
सम्पन्नसौख्यिवभवा हतशत्रवंश्च
दीघाययुषो िवगतरोगाभयाश्च जाताैः ||
अन्वय एवं अन्वयाथय - इन्दो: = चन्रमा से , स्मर-अरर-िनधनेषु= सिम,षष्ठ,
तथा अष्टम भावों में , सौम्यैैः= शुभग्रह (हों) तो , अिधयोगैः(भवित) = अिधयोग
होता है | तिस्मन् = अिधयोग में, चमूप = सेनापित, सिचव = मन्त्री, िक्षितपाि =
राजा(का), जन्म = जन्म होता है | संपन्नसौख्यिवभवा = (और)अितसौख्य व
ऐश्वयय संपन्न, हतशत्रवैः = शत्रु रिहत, दीघाययुषैः - दीघाययु, िवगतरोगभयाश्च =
रोग और भय से रिहत, जाताैः= होता है |
व्याख्या- चन्र िस्थत भाव से छठें, सातवें और आठवें भावों में शुभग्रह – बुध,गुरु
तथा शुक्र िस्थत हों तो अिधयोग नामक योग होता है | इस योग में उत्पन्न जातक
सेनापित, मन्त्री तथा राजा होता है | और उसे अच्छे िमत्रों की प्रािि होती है,
सुख और ऐश्वयय से युक्त होता है, शत्रु-नाशक,दीघाययु तथा भय और रोग से मुक्त
होता है |
उपयुयक्त फि बुध,गुरु, तथा शुक्र की पूणय,मध्य तथा िनबयिता की िस्थित से
सेनापितत्व,मिन्त्रत्व और नृपत्त्व भी पूणय, मध्यम और अधम होते हैं अथायत्
शुभग्रह के पूणय बिी होने से राजा , मध्यम बिी होने से मन्त्री व िनबयि होने से
सेनापित होता है |
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छठे, सातवें और आठवें भावों में िस्थत शुभग्रहों के संबन्ध से सात प्रकार का
अिधयोग होता है-
१. सभी शुभग्रह छठवें स्थान में हों, २. सातवें स्थान में हों,
३. आठवें स्थान में हों, ४. छठे-सातवें स्थानों में हों,
५. छठे- आठवें स्थानों में हों, ६. सातवें- आठवें स्थानों में हों,
और
७. जब सभी शुभग्रह छठवें- सातवें- आठवें स्थानों में हों |
िचत्र सं.२१.०४ (अिधयोग) िचत्र सं.२१.०५(अिधयोग)
5 3
6 च. 2
1
7
बु,शु,बृ
12
8
बु,शु,बृ बु,शु,बृ.
5 3
6 च. 2
1
7
शु. 12
8
बु. बृ.
8pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21)
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िचत्र सं.२१.०६( उक्त कुण्डिी में चन्रमा से छठें गुरु, सातवें बुध, आठवें शुक्र
होने से अिधयोग घरटत हो रहा है )
२१.५ सुनफा, अनफा, दुरुधरा तथा के मरुम योग िवचार
अधोिििखत श्लोक में सुनफा, अनफा, दुरुधरा तथा केमरुम योग का िवचार
प्रस्तुत ककया गया है -
िहत्वाकं सुनफानफादुरुधुराैः स्वान्त्योभयस्थैग्रयहै:
शीतांशोैः किथतोऽन्यथा तु बहुिभैः केमरुमोऽन्यैस्त्वसौ |
केन्रे शीतकऽरेथवा ग्रहयुते केमरुमो नेष्यते
केिचत् केन्रनवांशकेषु च वद्न्न्त्युिक्तप्रिसिा न ते ||
अन्वय एवं अन्वयाथय- अकं= सूयय को, िहत्वा=छोड़कर, (अन्यै:)ग्रहैैः = अन्य ग्रहों
में कोई, शीतांशोैः = चन्रमा से , स्व-अन्त्य-उभयस्थैैः = दूसरे, बारहवें, तथा
दूसरे-बारहवें भावों में िस्थत होने से, सुनफा- अनफा-दुरुधुराैः = (क्रमशैः)
सुनफा, अनफा, और दुरुधरा योग होते हैं, अन्यथा = इससे िवपरीत (िद्वतीय-
द्वादश में कोई ग्रह न होने से), केमरुमो = केमरुम योग (होता है) , तु = ऐसा,
बहुिभैः = बहुत से (आचायों द्वारा), किथतो = कहा गया है, अन्यै = अन्य (दूसरे
च 6 4
श 7 5 3म
2 के
8 रा
सू 1 1 गु
शु 19
1 0 1 2 बु
9pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21)
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आचायय) , तु शीतकरे = चन्रमा, केन्रे =केंर में (हो), अथवा = या, ग्रहयुते =
(अन्य) ग्रहों से युत हो, (तदा) असौ केमरुमो= (तब) यह केमरुम योग, न-
ईष्यते= नहीं होता है , केिचत् = कोई (आचायय), केन्र= केंर, नवान्शकेषु च =
और नवांश में (चन्र की िस्थित से) वदिन्त= (इन योगों को)कहते हैं, ते=
वे(उनका), युिक्तप्रिसिा = कथन प्रिसि , न= नहीं (है) |
व्याख्या- जातक की जन्मकुण्डिी मे यकद सूयय को छोड़कर अन्य
ग्रहों(मंगि,बुध,गुरु,शुक्र,शिन) में से कोई एक या अिधक ग्रह चंरस्थ भाव से
िद्वतीय भाव में हो तो सुनफा योग, द्वादश भाव में हो तो अनफा योग, और
चन्रमा से िद्वतीय तथा द्वादश दोनों भावों में ग्रह िस्थत हों तो दुरुधरा योग होता
है | इसके िवपरीत यकद सूयय से िद्वतीय और द्वादश भावों में कोई ग्रह न हो तो
केमरुम नमक योग होता है , ऐसा बहुत से आचायों ने कहा है |
कोई अन्य आचायय कहते हैं कक यकद चन्रमा केंर -१,४,७,१० भावों में िस्थत हो
या अन्य ग्रहों से युत हो तो केमरुम योग नहीं होता या इसका कोई प्रभाव नहीं
होता है | कोई आचायय कहते हैं कक सूयाय को छोड़कर चन्रमा से चतुथय, दशम
तथा चतुथय-दशम दोनों भाव में कोई ग्रह िस्थत हो क्रमशैः सुनफा, अनफा व
दुरुधरा योग तथा चतुथय-दशम भावों में कोई गृह न हों तो केमरुम योग होता है |
जबकक कोई अन्य आचायय कहते हैं कक सूयय को छोड़कर, ककसी भी रािश में
चन्रमा िजस रािश के नवांश में िस्थत हो, उस नवांश रािश से दूसरी रािश में
कोई भी ग्रह िस्थत हो तो सुनफा, बारहवीं रािश में कोई भी गृह हो तो अनफा,
तथा दूसरी व बारहवीं दोनों रािश में कोई गृह िस्थत न हो तो केमरुम योग होता
है, ककन्तु उन आचायों के इसप्रकार के मत या िवकल्प प्रिसि नहीं हैं |
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िचत्र सं.२१.०७ सुनफा योग िचत्र सं.२१.०८ अनफा योग
िचत्र सं.२१.०९ दुरुधरायोग(उक्त कुंडिी में
चन्र से िद्वतीय तथा द्वादश बुध तथा शुक्र के
होने से दुरुधरायोग बन रहा है
िचत्र सं.२१.१० केमरुम योग(इस कुंडिी में
िद्वतीय तथा द्वादश स्थान में कोई ग्रह न होने
से केमरुम योग बन रहा है)
२१.६ सुनफा, अनफा, दुरुधरा योगों के भेद
इस श्लोक में आचायय ने उक्त योगों के भेदों के बारे में बताया है
4
5
म 2 रा
1 गु
1 2
सू
बु 1 1 शु
1 0
च
के 8 श.6
7 9
3
रा 9 सू 7 च
बु 8
5
4
1 0
म 1 3 केगु 1 1
श 1 2 2
शु 6
च.
बु.च.
मं.
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ित्रन्शत्सरूपा सुनफानफाख्या∶
षिष्टत्रयं दौरुधरोैः प्रभेदाैः |
इच्छािवकल्पैैः क्रमशोऽिभनीय
नीते िनवृित्तैः पुनरन्यनीितैः ||
अन्वय एवं अन्वयाथय - सुनफानफा = सुनफा- अनफा योग, ित्रन्शत्सरूपा=
एकतीस प्रकार का , दौरुधुराैः = दुरुधरा, षिष्टत्रयं = १८० , प्रभेदाैः= प्रकार का,
आख्याैः = कहा गया है, इच्छािवकल्पैैः- १,२,३,४,५,ग्रहों के बीच वांिछत
संयोजन के द्वारा , क्रमशैः = क्रम से , अिभनीय = गिणतीय िनयम के अनुसार
श्ृंखिा बनाकर, नीते= (जब) िनयमानुसार संयोजन आ जाय , िनवृित्तैः = (तब)
यह पूणय हो जाता है, पुनैः = कफर से,अन्य नीितैः = अन्य समूह बनाकर गिणतीय
िनययामानुसार भेद करें |
व्याख्या- चन्रमा से िद्वतीय भाव में मंगि,बुध,गुरु,शुक्र तथा शिन इनमें से
१,२,३,४,५ ग्रहों के रहने से ३१ प्रकार का सुनफा योग होता है | ऐसे ही चन्र से
बारहवें भाव में मंगि,बुध,गुरु,शुक्र तथा शिन इनमें से १,२,३,४,५ ग्रहों के रहने
से ३१ प्रकार का अनफा योग होता है |
िद्वतीय तथा द्वादश दोनों भावों में उपयुयक्त ग्रहों में से अिग-अिग १ और १, २
और १, ३ और १, ४ और १, १ और ३, १ और ४, १ और २, २ और २, ३ और
२, तथा २ और ३ ग्रहों के रहने पर १८० प्रकार का दुरुधरा योग होता है |
सुनफा,अनफा और दुरुधरा के भेदों को स्पष्ट करने की यह पिित है कक इष्ट-
संख्यक वस्तु को िजतने बार आपस में पररवर्ततत करना हो तो उतनी बार उस
वस्तु समूह में एक को िस्थर मान कर तथा अन्य को चर मानकर उस चर को
बदिें जब सब चर पररवर्ततत हो जाय तो अन्य को िस्थर मानकर और पहिे को
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चर मानकर वहााँ भी चरों को पुनैः उतनी ही बार पररवर्ततत करने से सभी रूप
स्पष्ट हो जाते हैं |
अनफा सुनफा भेदा साधन पााँच ग्रहों से होता है जैसे चन्रमा से िद्वतीय में मंगि
योग-१, मंगि बुध योग-२, मंगि,बुध,गुरु योग संख्या-३, मंगि,बुध,गुरु,शुक्र
योग-४, और मंगि,बुध,गुरु,शुक्र,शिन योग संख्या-५ हो रही है | इसीप्रकार चन्र
से िद्वतीय में मंगि,बुध या मंगि,गुरु या मंगि शुक्र या मंगि शिन इत्याकद क्रम
से बहुत भेद हो सकेंगे तो भेद उत्पन्न कारक ग्रह िस्थित संख्या ५ है तो एक से ५
तक क्रमांक और नीचे ५ से १ तक उत्क्रमांक स्थािपत करने से और पूवय अंक के
गुणनफि में प्रथमांक से भाग देने पर एकादी ग्रह कृत अनेक भेद हो जाते हैं |
२१.७ सुनफा - अनफा योग का फि
सुनफा अनफा योगो का लया फि होता है िनम्निििखत श्लोक में बताया गया है-
स्वयमिधगतिवत्तैः पार्तथवस्तत्समो वा
भवित िह सुनफायां धीधनाख्याितमांश्व |
प्रभुरगदशरीरैः शीिवान् ख्यातकीर्तत-
र्तवषयसुखसुवेषो िनवृयतश्चानफायाम् ||
अन्वय एवं अन्वयाथय- सुनफायां = सुनफा योग में , स्वयमिधगतिवत्तैः = स्वयम्
उपार्तजत धन वािा,पार्तथव = राजा, तत्सम: वा = अथवा राजा के समान , धी
= प्रज्ञा, धनाख्यातीमान्श्च = और धन व यश से युक्त, ही भवित= होता है |
अनफायां = अनफा योग में, प्रभुैः = सामर्थयय युक्त, अगदशरीरैः = रोग रिहत
शरीर वािा, शीिवान् = उत्तम चररत्र वािा, ख्यातकीर्ततैः = प्रिसि कीर्तत
वािा, िवषयसुखैः = भोगाकद से सुखी, सुवेषैः = सुन्दर वस्त्राकद , िनवृयतैः च=
और पूणयतैः संतुष्ट स्वभाव (भवित) |
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व्याख्या- िजस जातक के जन्मकुण्डिी मे सुनफा नामक योग होता है वह जातक
स्वयं से उपार्तजत धन से ध नवान् तथा राजा या राजा के सदृश एवं प्रज्ञावान् ,
धन व यश से युक्त होता है |
तथा िजस जातक के जन्मकुण्डिी मे अनफा नामक योग होता है वह सामर्थयययुक्त
िनरोगी,उत्तम चररत्र वािा, प्रिसि कीर्तत वािा, भौितक सुखो से युक्त , सुन्दर
वस्त्र धारण करणे वािा, और जीवन मे पूणयतैः संतुष्ट होता है |
२१.८ दुरुधरा तथा केमरुम योग फि
दुरुधरा तथा के मरुम योगों के फि के बारे में इस श्लोक में वणयन ककया गया है
उत्पन्नभोगसुखमभुग्धनवाहनाढ्य-
स्त्यागािन्वतो दुरुधुराप्रभवैः सुभृत्यैः |
केमरुमे मििनदुैःिखतनीचिनस्स्वैः
प्रेष्याैः खिश्च नृपतेरिप वंशजाताैः ||
अन्वय एवं अन्वयाथय - दुरुधुरा प्रभवैः = दुरुधरा योग में उत्पन्न जातक ,
उत्पन्नभोगसुखभाग् = सभी प्रकार से प्राि भोग वस्तु से सुखी , धनवाहनाढ्य ∶
= धन , वाहन आकद से युक्त , त्यागािन्वतैः = त्यागी, सुभृत्यैः= िवश्वासपात्र
सेवकों से युक्त, भवित = होता है | केमरुमे- केमरुम योग में, नृपते ∶ वंशजातैः
अिप = राजा के वंश में जन्म िेकरभी , मििनैः = मििन , दुैःिखतैः = दुखी ,
नीचैः = नीच, िनैःस्व ∶ = िनधयन, प्रेष्यैः = दास वृित्त वािा, खिश्च = और दुष्ट
स्वभावयुक्त ,भवित = होता है |
व्याख्या- दुरुधरा योग मे उत्पन्न जातक िविभन्न प्रकार से उत्पन्न होने वािे सभी
सुखों से सुखी, धन, वाहन तथा िवश्वासपात्र सेवकों से युक्त होता है | ककन्तु िजस
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जातक का जन्म केमरुम योग में होता है वह राजा के वंश में जन्म िेकरभी
मििन, दुखी, धन से रिहत , दास वृित्त वािा तथा दुष्ट स्वभाव वािा होता है |
२१.९ सुनफाकद योगकारक ग्रहों से फि
अनफा सुनफा योगों के कारक ग्रहों का फि बताया जा रहा है-
उत्साहशौययधनसाहसवान् महीजैः
सौम्यैः पटुैः सुवचनो िनपुणैः किासु |
जीवोऽथयधमयसुखभाङ् नृपपूिजतश्च
कामी भृगौ बहुधनो िवषयोपभोक्ता ||
अन्वय एवं अन्वयाथय – महीजैः = मङ्गि के योगकारक होने पर, उत्साह =
उत्साही, शौयय = पराक्रम, धन = धनसंपदा, साहसवान् = साहसी , सौम्यैः = बुध
कारक होने पर , पटुैः = पटु, सुवचन ∶ = मधुर वाणी वािा, किासु-िनपुणैः =
किाओं में प्रवीण, जीव∶ = गुरु(योग करक हो तो) अथय-धमय-सुखभाङ् = धन,
धमय से युक्त सुख को भोगने वािा, नृपपूिजतश्च = राजा द्वारा पूिजत , भृगौ =
शुक्र (के कारकत्व में) बहुधनो = बहुत धन वािा, िवषयोपभोक्ता = िवषयों को
भोगने वािा |
व्याख्या- सुनफा अनफा योगों का कारक यकद मंगि ग्रह हो तो जातक उ त्साही,
पराक्रमी, धन-संपित्त से युक्त तथा साहसी होता है | यकद बुध कारक हो तो पातु,
मधुर वचन बोिने वािा, वाद्य,नृत्य,िचत्रकारी आकद किाओं में िनपुण होता है |
गुरु के कारकत्व में धन और अथय युक्त सुख को भोगने वािा होता है | शुक्र ग्रह के
कारक होने से जातक बहुत धन वािा तथा िवषयों को भोगने वािा होता है |
२१.१० योगकारक शिन तथा चन्रमा का फि
15pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21)
15
अनफा सुनफा योगों के कारक यकद शिन और चन्रमा होते हैं तो लया-लया फि
होता है यह िनम्निििखत श्लोक में वर्तणत ककया गया है -
परिवभवपररच्छदोपभोक्ता
रिवतनयो बहुकाययकृद्गणेशैः |
अशुभकृदुडुपोऽिनन दृष्यमुर्तत-
गयििततनुश्च शुभोन्यथान्यदूह्यम् ||
अन्वय एवं अन्वयाथय- रिवतनयो = शिन(के योग करक होने पर), परिवभव =
दूसरे के धन , पररच्छद = वस्तु, उ पभोक्ता = (का)उपभोग करने वािा,
बहुकाययकृद् = बहुत कायय करने वािा, गणेशैः = जन नेता(होता है) | अिनन =
कदन में(जन्म हो), उडुप = (तथा)चन्रमा, दृष्यमूर्ततैः = दृष्यचक्राधय(में हो),
अशुभकृत् = (तो)अशुभकारक, गििततनुश्च- (एवम्)अदृष्यचक्राधय(में हो), शुभ ∶
= (तो)शुभ, अन्यथा = नहीं तो, अन्यत् = िवपरीत फि, उह्यम् = कहा गया है |
व्याख्या- िजस जातक की जन्मकुण्डिी में अनफासुनफा आकद योग शिन के
कारकत्व में होता है तो वह दूसरे का धन, वस्तु इत्याकद का उपभोग करता है |
बहुत सारे कायय करने वािा होता है तथा बहुत से िोगों का नेतृत्व करता है
अथायत् जन-नायक होता है |
जातक का जन्म कदन में हो और चन्रमा दृष्यचक्राधय ७,८,९,१०,११,१२वें हो तो
यह योग अशुभकारक होता है | और यकद अदृष्यचक्राधय १,२,३,४,५,६,७ वें
िस्थत हो तो शुभकारक होता है | परन्तु यकद इसके िवपरीत राित्र में जन्म हो
और चन्रमा अदृष्यचक्राधय में िस्थत हो तो अशुभकारक तथा दृष्यचक्राधय में हो तो
शुभकारक होता है |
२१.११ िग्न या चन्र ग्रह से उपचय स्थानगत ग्रहों का फि
16pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21)
16
इस श्लोक में िग्न या चन्रमा से उपचय स्थान िस्थत ग्रहों के अनुसार फि का
कथन ककया जा रहा है -
िग्नादतीव वसुमान् वसुमाञ्छशान्कात्
सौम्यग्रहैरुपचयोपगतै∶ समस्तैैः |
द्वाभयां समोऽल्पवसुमांश्च तदूनताया-
मन्येषु सत्स्विप फिेिष्वदमुत्कटेन ||
अन्वय एवं अन्वयाथय - िग्नाद् = िग्न से, उपचयोपगतै ∶ = उपचय स्थानगत,
समस्तैैः = सभी, सौम्यग्रहै ∶ = शुभग्रह(हों), अतीव = (तो)अत्यन्त, वसुमान् =
धनवान्, शशान्कात् = चन्रमा से, वसुमान् = धनवान् (भवित- होता है) | द्वाभयां
= दो शुभग्रह होने से , समो = मध्यम , तदूनतायाम् = एक ही शुभग्रह हो तो,
अल्पवसुमांश्च = अल्प धनवान्, अन्येषु = अन्य (कु)योगों के, सत्स्विप = होने पर
भी, इदम् = यह(उपयुयक्त), फिेषु = (शुभ)फि, उत्कटेन = प्रबि (भवित- होता
है) |
व्याख्या- जातक की जन्मकुण्डिी में यकद िग्न से सभी शुभग्रह-बुध,गुरु,शुक्र
उपचयस्थान – ३,६,१०,११ वें भावों में िस्थत हों तो जातक अत्यन्त धनवान्
होता है | और यकद चन्रमा से सभी शुभग्रह उपचयस्थ हों तो जातक धनवान्
होता है | यकद दो ही ग्रह उपयुयक्त स्थान में िस्थत हों तो जातक मध्यम कोरट का
धनवान् होता है | तथा एक ही शुभग्रह के उपचयस्थ होने से अल्प धन वािा
होता है | तथा जन्मकुण्डिी में अन्य कुयोग होने पर भी यकद उपयुयक्त योग हो तो
इसी शुभ योग का पूणयतया फि होता है न कक अन्य कुयोगों का |
17pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21)
17
िचत्र सं. २१.११
२१.१२ सारांश
 सूयय से चन्रमा यकद केन्र,पणफर और अपोिलिम स्थानों में िस्थत हो तो
जातक में िवनय, धन, ज्ञान, बुिि और चातुयायकद गुण क्रमशैः उक्त
भाविस्थित के अनुसार उत्तम,मध्यम और िनम्न होते हैं |
 चन्रमा के अपने नवांश या अिधिमत्र के नवांश की िस्थित तथा उसपर गुरु
और शुक्र की दृिष्ट होने से जातक धनवान् तथा सुखी होता है |
 अिधयोग नामक योग षष्ठ,अष्टम और द्वादश भाव िस्थत ग्रहों के संबन्ध से
सात प्रकार के हो सकते हैं |
 अिधयोग में िजसका जन्म होता है वह राजा, मन्त्री या सेनापित होता है |
 चन्रमा से दूसरे व बारहवें िस्थित अन्य ग्रहों (सूयय को छोड़कर)से सुनफा
अनफा और दुरुधरा योग बनाते हैं |
बु गु शु लग्न बु गु शु
बु गु शु
बु गु शु
18pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21)
18
 सुनफा और अनफा ३१ प्रकार के होते हैं तथा दुरुधरा १८० प्रकार का
होता है |
 सुनफा अनफा योगों में उत्पन्न जातक धनवान्, राजा या राजा तुल्य
,समथय, रोगरिहत, िवख्यात , सुन्दर वस्त्राभूषण धारण करने वािा तथा
संतुष्ट स्वभाव का होता है |
 केमरुम योग अशुभ योग होता है इस योग में उत्पन्न जातक मििन, दुैःखी,
नीचकमयरत, िनधयन तथा दासवृित्त वािा होता है |
 मंगि ग्रह से बनाने वािे सुनफा अनफा-आकद योगों में जातक उद्यमी,
युििप्रय, धनवान् तथा साहसी होता है | बुध से तो मृदुभाषी तथा किा में
िनपुण, गुरु से अथय-धमय और सुखभोगने वािा वािा और राजपूिजत होता
है तथा सुकर से कामी, बहुधन तथा िवषयभोगी होता है |
 जन्मकुंडिी में िग्न से सिम भाव पयंत भावों को अदृश्यचक्रािय तथा सिम
से िग्न पयंत भावों को दृश्यचक्रािय कहते हैं |
 कदवा कािीन जन्म होने तथा चन्रमा के दृश्यचक्रािय में िस्थित से अशुभ
फि तथा अदृश्यचक्रािय में िस्थित से शुभ फि होता है |
 राित्रकािीन जन्म में चन्र के दृश्यचक्रािय में िस्थित से शुभ फि तथा
अदृश्यचक्रािय में िस्थित से अशुभ फि होता है |
 िग्न से सभी शुभ ग्रहों की िस्थित से जातक अत्यंत धनवान् तथा चन्रमा से
उपचय स्थान में सभी शुभ ग्रहों की िस्थित से जातक धनवान् होता है |

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W 21-chandrayoga vichar

  • 1. 1pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 1 ØeOeeve ieJes<ekeâ - [e@. Me$egIveef$ehee"er pÙeesefle<eefJeYeeie, mebmke=âleefJeÅeeOece&efJe%eevemebkeâeÙe, keâe.efn.efJe.efJe., JeejeCemeer he$e mecevJeÙekeâ - [e@. Me$egIveef$ehee"er pÙeesefle<eefJeYeeie, mebmke=âleefJeÅeeOece&efJe%eevemebkeâeÙe, keâe.efn.efJe.efJe., JeejeCemeer hee" uesKekeâ - [e@0 jepeerJe kegâceej efceße ceesoer efJe%eeve SJeb ØeesÅeesefiekeâer efJeÕeefJeÅeeueÙe ue#ceCeieÌ{, meerkeâj, jepemLeeve hee" meceer#ekeâ - Øees. jeceÛevõ heeC[sÙe pÙeesefle<eefJeYeeie, mebmke=âleefJeÅeeOece&efJe%eevemebkeâeÙe, keâe.efn.efJe.efJe., JeejeCemeer lekeâveerkeâer meceer#ekeâ - Øees. mebpeÙe heeC[sÙe ØeÙegòeâ ieefCele efJeYeeie, YeejleerÙe ØeewÅeesefiekeâer mebmLeeve, keâe.efn.efJe.efJe. Yee<eemebheeokeâ - [e@. ßeerke=â<Ce ef$ehee"er Jewefokeâ oMe&ve efJeYeeie, mebmke=âleefJeÅeeOece&efJe%eevemebkeâeÙe, keâeMeerefnvotefJeÕeefJeÅeeueÙe, JeejeCemeer hee"Ÿe›eâce-pÙeesefle<eHeâefuele hee"Ÿemeece«eer efvecee&Ce Dee@veueeFve-mveelekeâesòej hee"Ÿe›eâce efJe<eÙemetÛeer he$e keâe veece - ØeLece (ye=nppeelekeâced) hee"Ÿe›eâceefveoxMekeâ – [e@. Me$egIveef$ehee"er hee" – Fkeäkeâerme -(ÛevõÙeesie efJeÛeej)
  • 2. 2pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 2 hee"efJeJejCeced hee"Ÿe›eâce pÙeesefle<eHeâefuele he$e ØeLece (ye=nppeelekeâced) hee" Fkeäkeâerme -(ÛevõÙeesie efJeÛeej) २१.१ प्रस्तावना िप्रयच्छात्र ! UGC द्वारा संचािित काययक्रमान्तागयत SWAYAM के स्नातकोत्तर स्तरीय पाठ्यक्रम के बृहज्जातक नामक शीषयक के इक्कीसवें पाठ- चन्रयोग िवचार में आपका स्वागत है | इस पाठ में आप चन्र की िस्थित से बनने वािे योगों के संदभय में िवस्तार से अध्ययन करेंगे | इसके पूवय पाठ में आपने नाभस योगों के बारे में िविधव त् अध्ययन ककया | उसी क्रम में आगे बढ़ते हुए हम इस पाठ में जन्मकुंडिी में िविभन्न ग्रहों से चन्रग्रह के िविभन्न भावों में िस्थितवशा त् बनने वािे योगों के बारे में अध्ययन करेंगे | योग शब्द की प्रत्येक क्षेत्र में महत्ता है | ज्योितष शास्त्र में भी योग की बड़ी मिहमा है इसी प्रसंग में तुिसी दास जी ने भी कहा है कक “ग्रह, भेषज, जि, पवन, पट, पाई कुयोग सुयोग” अथायत् औषिधयां, जि, वायु, वस्त्र, और “ग्रह” कुयोग अथवा सुयोग द्वारा ही शुभ अथवा अशुभ वस्तुओं की प्रािि करवाते हैं | ग्रह अपनी पररवतयनशीि िस्थित द्वारा िविवध प्रकार के शुभ-अशुभ योगों या पररिस्थितयों को उत्पन्न करते हैं | इन्हीं योगों को चन्रमा के िभन्न -िभन्न स्थानों में होने से या अन्य ग्रहों के स्थान से चन्रमा के िविभन्न भावों में िस्थत होने से बनने वािे योगों यथा सूयय ग्रह िजस रािश में िस्थत है उस रािश से केंर पणफर अपोिलिम स्थानगत चन्र का, तथा चन्रमा से
  • 3. 3pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 3 उकता स्थानगत शुभग्रहोत्पन्न अिधयोग का, चन्रमा से सूयय को छोड़कर िद्वतीय, द्वादश तथा उभयस्थ सुनफा, अनफा, दुरुधरा योगों के भेद व इनका योगज फि, सुनाफादी योगकारक ग्रहों से फि तथा िग्न या चन्रमा से उपचय स्थानगत ग्रहों का शुभाशुभ फि इत्याकद का िवस्तार से अध्ययन करेंगे | २१.२ उद्देश्य इस पाठ का िविधवत अध्ययन करने के पश्चात् अध्येतागण -  सूययस्थान से चन्र की भाविस्थित का फि जान सकेंगे |  अिधयोग नामक बनने वािे योग से अवगत हो सकेंगे |  अनफा-सुनफा इत्याकद योगों के िविभन्न भेदों व फि से पररिचत हो सकेंगे |  योगकारक शिन के फि को बताने में सक्षम हो सकेंगे |  िग्न व चन्रमा से उपचय स्थानों में िस्थत शुभग्रहों के फि कथन में दक्ष हो सकेंगे | २१.३ सूयय स्थान से कें र,पणफर तथा अपोिलिम गत चन्र से फि िवचार जातक की जन्मकुण्डिी में चन्रमा यकद सूयय स्थान से केन्र,पणफर,तथा अपोिलिम स्थानो में िस्थत हो तो उसके फि का वणयन करते हुये आचायय वराहिमिहर ने िनम्निििखत श्लोक में बताया है - अधमसमवररष्ठान्यकयकेन्राकदसंस्थे शिशिन िवनयिवत्तज्ञानधीनैपुणािन| अहिन िनिश च चन्रे स्वेऽिधिमत्रांके वा सुरगुरुिसतदृष्टे िवत्तवान् स्यात् सुखी च ||
  • 4. 4pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 4 अन्वय एवं अन्वयाथय –अकाय(त्)-सूयय से , शिशिन –चन्र , केन्राकद- केन्र, पणफर तथा अपोिलिम स्थानों (में) संस्थे- िस्थत हो , (तो जातक में ) िवनय िवत्त ज्ञान धी नैपुणािन – िवनम्रता, धन, ज्ञान, बुिि तथा िनपुणता आकद गुण, अधम- िनम्नस्तरीय, सम – मध्यम, वररष्ठािन (भविन्त)- उत्तम होते हैं , चन्रे- चन्रमा, स्वे- अपने, अिधिमत्रान्शके –(या) अपने अिधिमत्र के नवान्श में, अहिन- कदन में, िनिश- राित्र में, सुरगुरु- बृहस्पित, िसत- शुक्र, दृष्टे- दृष्ट होने से , िवत्तवान- धनवान्, सुखी च – और सुखी , स्यात् – होता है | व्याख्या- जातक के जन्म समय में या जन्मकुण्डिी में चन्रमा यकद सूयय िस्थत भाव से केन्र अथायत् १,४,७,१० भावों(िचत्र २१.१) में कहीं भी हो तो जातक िवनम्रता, धन, बुिि तथा िनपुणता आकद गुणों मे न्यून अथायत् हीन होता है | चन्रमा यकद पणफर अथायत् २,५,८,११ भावों (िचत्र२१.०२) में हो तो उपयुयक्त गुणों- िवनय,धन,ज्ञान,बुिि तथा चतुराई आकद की िस्थित मध्यम, अथायत् न कम न अिधक, होती है | परन्तु यकद सूयय से चन्रमा अपोिलिम अथायत् ३,६,९,१२ भावों(िचत्र सं.२१.०३) में हो तो जातक मे िवनम्रता, धन, शास्त्र-ज्ञान, बुिि तथा िनपुणता आकद गुण उच्च कोरट के होते हैं | और यकद चन्रमा अपने नवांश या अपने अिधिमत्र के नवांश में हो तथा जातक का जन्म यकद कदन का हो, और उसपर गुरु की दृिष्ट हो तथा राित्र मे जन्म हो और शुक्र की दृिष्ट हो तो वह धनवान् और सुखी होता है |
  • 5. 5pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 5 िचत्र सं.२१.०१ (सूयय से चन्रमा केंर में है ) िचत्र सं.२१.०२ ( सूयय से चन्रमा पणफर स्थान में है) िचत्र सं.२१.०३ (सूयय से चन्रमा अपोिलिम में है) 5 च. च. 2 1 7 10 च. 8 च. 11 च सू च. च च. सू. च. च. च. .च.
  • 6. 6pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 6 २१.४ चन्र सम्बन्ध से सफि अिधयोग िवचार जन्मकुण्डिी में चन्रमा से बनने वािे अिधयोन नामक योग और उसके फि के बारे मे इस श्लोक में बताया जा रहा है- सौम्यैैः स्मराररिनधनेष्विधयोग इन्दो- स्तािस्मन्श्चमूष्सिचविक्षितपािजन्म | सम्पन्नसौख्यिवभवा हतशत्रवंश्च दीघाययुषो िवगतरोगाभयाश्च जाताैः || अन्वय एवं अन्वयाथय - इन्दो: = चन्रमा से , स्मर-अरर-िनधनेषु= सिम,षष्ठ, तथा अष्टम भावों में , सौम्यैैः= शुभग्रह (हों) तो , अिधयोगैः(भवित) = अिधयोग होता है | तिस्मन् = अिधयोग में, चमूप = सेनापित, सिचव = मन्त्री, िक्षितपाि = राजा(का), जन्म = जन्म होता है | संपन्नसौख्यिवभवा = (और)अितसौख्य व ऐश्वयय संपन्न, हतशत्रवैः = शत्रु रिहत, दीघाययुषैः - दीघाययु, िवगतरोगभयाश्च = रोग और भय से रिहत, जाताैः= होता है | व्याख्या- चन्र िस्थत भाव से छठें, सातवें और आठवें भावों में शुभग्रह – बुध,गुरु तथा शुक्र िस्थत हों तो अिधयोग नामक योग होता है | इस योग में उत्पन्न जातक सेनापित, मन्त्री तथा राजा होता है | और उसे अच्छे िमत्रों की प्रािि होती है, सुख और ऐश्वयय से युक्त होता है, शत्रु-नाशक,दीघाययु तथा भय और रोग से मुक्त होता है | उपयुयक्त फि बुध,गुरु, तथा शुक्र की पूणय,मध्य तथा िनबयिता की िस्थित से सेनापितत्व,मिन्त्रत्व और नृपत्त्व भी पूणय, मध्यम और अधम होते हैं अथायत् शुभग्रह के पूणय बिी होने से राजा , मध्यम बिी होने से मन्त्री व िनबयि होने से सेनापित होता है |
  • 7. 7pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 7 छठे, सातवें और आठवें भावों में िस्थत शुभग्रहों के संबन्ध से सात प्रकार का अिधयोग होता है- १. सभी शुभग्रह छठवें स्थान में हों, २. सातवें स्थान में हों, ३. आठवें स्थान में हों, ४. छठे-सातवें स्थानों में हों, ५. छठे- आठवें स्थानों में हों, ६. सातवें- आठवें स्थानों में हों, और ७. जब सभी शुभग्रह छठवें- सातवें- आठवें स्थानों में हों | िचत्र सं.२१.०४ (अिधयोग) िचत्र सं.२१.०५(अिधयोग) 5 3 6 च. 2 1 7 बु,शु,बृ 12 8 बु,शु,बृ बु,शु,बृ. 5 3 6 च. 2 1 7 शु. 12 8 बु. बृ.
  • 8. 8pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 8 िचत्र सं.२१.०६( उक्त कुण्डिी में चन्रमा से छठें गुरु, सातवें बुध, आठवें शुक्र होने से अिधयोग घरटत हो रहा है ) २१.५ सुनफा, अनफा, दुरुधरा तथा के मरुम योग िवचार अधोिििखत श्लोक में सुनफा, अनफा, दुरुधरा तथा केमरुम योग का िवचार प्रस्तुत ककया गया है - िहत्वाकं सुनफानफादुरुधुराैः स्वान्त्योभयस्थैग्रयहै: शीतांशोैः किथतोऽन्यथा तु बहुिभैः केमरुमोऽन्यैस्त्वसौ | केन्रे शीतकऽरेथवा ग्रहयुते केमरुमो नेष्यते केिचत् केन्रनवांशकेषु च वद्न्न्त्युिक्तप्रिसिा न ते || अन्वय एवं अन्वयाथय- अकं= सूयय को, िहत्वा=छोड़कर, (अन्यै:)ग्रहैैः = अन्य ग्रहों में कोई, शीतांशोैः = चन्रमा से , स्व-अन्त्य-उभयस्थैैः = दूसरे, बारहवें, तथा दूसरे-बारहवें भावों में िस्थत होने से, सुनफा- अनफा-दुरुधुराैः = (क्रमशैः) सुनफा, अनफा, और दुरुधरा योग होते हैं, अन्यथा = इससे िवपरीत (िद्वतीय- द्वादश में कोई ग्रह न होने से), केमरुमो = केमरुम योग (होता है) , तु = ऐसा, बहुिभैः = बहुत से (आचायों द्वारा), किथतो = कहा गया है, अन्यै = अन्य (दूसरे च 6 4 श 7 5 3म 2 के 8 रा सू 1 1 गु शु 19 1 0 1 2 बु
  • 9. 9pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 9 आचायय) , तु शीतकरे = चन्रमा, केन्रे =केंर में (हो), अथवा = या, ग्रहयुते = (अन्य) ग्रहों से युत हो, (तदा) असौ केमरुमो= (तब) यह केमरुम योग, न- ईष्यते= नहीं होता है , केिचत् = कोई (आचायय), केन्र= केंर, नवान्शकेषु च = और नवांश में (चन्र की िस्थित से) वदिन्त= (इन योगों को)कहते हैं, ते= वे(उनका), युिक्तप्रिसिा = कथन प्रिसि , न= नहीं (है) | व्याख्या- जातक की जन्मकुण्डिी मे यकद सूयय को छोड़कर अन्य ग्रहों(मंगि,बुध,गुरु,शुक्र,शिन) में से कोई एक या अिधक ग्रह चंरस्थ भाव से िद्वतीय भाव में हो तो सुनफा योग, द्वादश भाव में हो तो अनफा योग, और चन्रमा से िद्वतीय तथा द्वादश दोनों भावों में ग्रह िस्थत हों तो दुरुधरा योग होता है | इसके िवपरीत यकद सूयय से िद्वतीय और द्वादश भावों में कोई ग्रह न हो तो केमरुम नमक योग होता है , ऐसा बहुत से आचायों ने कहा है | कोई अन्य आचायय कहते हैं कक यकद चन्रमा केंर -१,४,७,१० भावों में िस्थत हो या अन्य ग्रहों से युत हो तो केमरुम योग नहीं होता या इसका कोई प्रभाव नहीं होता है | कोई आचायय कहते हैं कक सूयाय को छोड़कर चन्रमा से चतुथय, दशम तथा चतुथय-दशम दोनों भाव में कोई ग्रह िस्थत हो क्रमशैः सुनफा, अनफा व दुरुधरा योग तथा चतुथय-दशम भावों में कोई गृह न हों तो केमरुम योग होता है | जबकक कोई अन्य आचायय कहते हैं कक सूयय को छोड़कर, ककसी भी रािश में चन्रमा िजस रािश के नवांश में िस्थत हो, उस नवांश रािश से दूसरी रािश में कोई भी ग्रह िस्थत हो तो सुनफा, बारहवीं रािश में कोई भी गृह हो तो अनफा, तथा दूसरी व बारहवीं दोनों रािश में कोई गृह िस्थत न हो तो केमरुम योग होता है, ककन्तु उन आचायों के इसप्रकार के मत या िवकल्प प्रिसि नहीं हैं |
  • 10. 10pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 10 िचत्र सं.२१.०७ सुनफा योग िचत्र सं.२१.०८ अनफा योग िचत्र सं.२१.०९ दुरुधरायोग(उक्त कुंडिी में चन्र से िद्वतीय तथा द्वादश बुध तथा शुक्र के होने से दुरुधरायोग बन रहा है िचत्र सं.२१.१० केमरुम योग(इस कुंडिी में िद्वतीय तथा द्वादश स्थान में कोई ग्रह न होने से केमरुम योग बन रहा है) २१.६ सुनफा, अनफा, दुरुधरा योगों के भेद इस श्लोक में आचायय ने उक्त योगों के भेदों के बारे में बताया है 4 5 म 2 रा 1 गु 1 2 सू बु 1 1 शु 1 0 च के 8 श.6 7 9 3 रा 9 सू 7 च बु 8 5 4 1 0 म 1 3 केगु 1 1 श 1 2 2 शु 6 च. बु.च. मं.
  • 11. 11pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 11 ित्रन्शत्सरूपा सुनफानफाख्या∶ षिष्टत्रयं दौरुधरोैः प्रभेदाैः | इच्छािवकल्पैैः क्रमशोऽिभनीय नीते िनवृित्तैः पुनरन्यनीितैः || अन्वय एवं अन्वयाथय - सुनफानफा = सुनफा- अनफा योग, ित्रन्शत्सरूपा= एकतीस प्रकार का , दौरुधुराैः = दुरुधरा, षिष्टत्रयं = १८० , प्रभेदाैः= प्रकार का, आख्याैः = कहा गया है, इच्छािवकल्पैैः- १,२,३,४,५,ग्रहों के बीच वांिछत संयोजन के द्वारा , क्रमशैः = क्रम से , अिभनीय = गिणतीय िनयम के अनुसार श्ृंखिा बनाकर, नीते= (जब) िनयमानुसार संयोजन आ जाय , िनवृित्तैः = (तब) यह पूणय हो जाता है, पुनैः = कफर से,अन्य नीितैः = अन्य समूह बनाकर गिणतीय िनययामानुसार भेद करें | व्याख्या- चन्रमा से िद्वतीय भाव में मंगि,बुध,गुरु,शुक्र तथा शिन इनमें से १,२,३,४,५ ग्रहों के रहने से ३१ प्रकार का सुनफा योग होता है | ऐसे ही चन्र से बारहवें भाव में मंगि,बुध,गुरु,शुक्र तथा शिन इनमें से १,२,३,४,५ ग्रहों के रहने से ३१ प्रकार का अनफा योग होता है | िद्वतीय तथा द्वादश दोनों भावों में उपयुयक्त ग्रहों में से अिग-अिग १ और १, २ और १, ३ और १, ४ और १, १ और ३, १ और ४, १ और २, २ और २, ३ और २, तथा २ और ३ ग्रहों के रहने पर १८० प्रकार का दुरुधरा योग होता है | सुनफा,अनफा और दुरुधरा के भेदों को स्पष्ट करने की यह पिित है कक इष्ट- संख्यक वस्तु को िजतने बार आपस में पररवर्ततत करना हो तो उतनी बार उस वस्तु समूह में एक को िस्थर मान कर तथा अन्य को चर मानकर उस चर को बदिें जब सब चर पररवर्ततत हो जाय तो अन्य को िस्थर मानकर और पहिे को
  • 12. 12pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 12 चर मानकर वहााँ भी चरों को पुनैः उतनी ही बार पररवर्ततत करने से सभी रूप स्पष्ट हो जाते हैं | अनफा सुनफा भेदा साधन पााँच ग्रहों से होता है जैसे चन्रमा से िद्वतीय में मंगि योग-१, मंगि बुध योग-२, मंगि,बुध,गुरु योग संख्या-३, मंगि,बुध,गुरु,शुक्र योग-४, और मंगि,बुध,गुरु,शुक्र,शिन योग संख्या-५ हो रही है | इसीप्रकार चन्र से िद्वतीय में मंगि,बुध या मंगि,गुरु या मंगि शुक्र या मंगि शिन इत्याकद क्रम से बहुत भेद हो सकेंगे तो भेद उत्पन्न कारक ग्रह िस्थित संख्या ५ है तो एक से ५ तक क्रमांक और नीचे ५ से १ तक उत्क्रमांक स्थािपत करने से और पूवय अंक के गुणनफि में प्रथमांक से भाग देने पर एकादी ग्रह कृत अनेक भेद हो जाते हैं | २१.७ सुनफा - अनफा योग का फि सुनफा अनफा योगो का लया फि होता है िनम्निििखत श्लोक में बताया गया है- स्वयमिधगतिवत्तैः पार्तथवस्तत्समो वा भवित िह सुनफायां धीधनाख्याितमांश्व | प्रभुरगदशरीरैः शीिवान् ख्यातकीर्तत- र्तवषयसुखसुवेषो िनवृयतश्चानफायाम् || अन्वय एवं अन्वयाथय- सुनफायां = सुनफा योग में , स्वयमिधगतिवत्तैः = स्वयम् उपार्तजत धन वािा,पार्तथव = राजा, तत्सम: वा = अथवा राजा के समान , धी = प्रज्ञा, धनाख्यातीमान्श्च = और धन व यश से युक्त, ही भवित= होता है | अनफायां = अनफा योग में, प्रभुैः = सामर्थयय युक्त, अगदशरीरैः = रोग रिहत शरीर वािा, शीिवान् = उत्तम चररत्र वािा, ख्यातकीर्ततैः = प्रिसि कीर्तत वािा, िवषयसुखैः = भोगाकद से सुखी, सुवेषैः = सुन्दर वस्त्राकद , िनवृयतैः च= और पूणयतैः संतुष्ट स्वभाव (भवित) |
  • 13. 13pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 13 व्याख्या- िजस जातक के जन्मकुण्डिी मे सुनफा नामक योग होता है वह जातक स्वयं से उपार्तजत धन से ध नवान् तथा राजा या राजा के सदृश एवं प्रज्ञावान् , धन व यश से युक्त होता है | तथा िजस जातक के जन्मकुण्डिी मे अनफा नामक योग होता है वह सामर्थयययुक्त िनरोगी,उत्तम चररत्र वािा, प्रिसि कीर्तत वािा, भौितक सुखो से युक्त , सुन्दर वस्त्र धारण करणे वािा, और जीवन मे पूणयतैः संतुष्ट होता है | २१.८ दुरुधरा तथा केमरुम योग फि दुरुधरा तथा के मरुम योगों के फि के बारे में इस श्लोक में वणयन ककया गया है उत्पन्नभोगसुखमभुग्धनवाहनाढ्य- स्त्यागािन्वतो दुरुधुराप्रभवैः सुभृत्यैः | केमरुमे मििनदुैःिखतनीचिनस्स्वैः प्रेष्याैः खिश्च नृपतेरिप वंशजाताैः || अन्वय एवं अन्वयाथय - दुरुधुरा प्रभवैः = दुरुधरा योग में उत्पन्न जातक , उत्पन्नभोगसुखभाग् = सभी प्रकार से प्राि भोग वस्तु से सुखी , धनवाहनाढ्य ∶ = धन , वाहन आकद से युक्त , त्यागािन्वतैः = त्यागी, सुभृत्यैः= िवश्वासपात्र सेवकों से युक्त, भवित = होता है | केमरुमे- केमरुम योग में, नृपते ∶ वंशजातैः अिप = राजा के वंश में जन्म िेकरभी , मििनैः = मििन , दुैःिखतैः = दुखी , नीचैः = नीच, िनैःस्व ∶ = िनधयन, प्रेष्यैः = दास वृित्त वािा, खिश्च = और दुष्ट स्वभावयुक्त ,भवित = होता है | व्याख्या- दुरुधरा योग मे उत्पन्न जातक िविभन्न प्रकार से उत्पन्न होने वािे सभी सुखों से सुखी, धन, वाहन तथा िवश्वासपात्र सेवकों से युक्त होता है | ककन्तु िजस
  • 14. 14pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 14 जातक का जन्म केमरुम योग में होता है वह राजा के वंश में जन्म िेकरभी मििन, दुखी, धन से रिहत , दास वृित्त वािा तथा दुष्ट स्वभाव वािा होता है | २१.९ सुनफाकद योगकारक ग्रहों से फि अनफा सुनफा योगों के कारक ग्रहों का फि बताया जा रहा है- उत्साहशौययधनसाहसवान् महीजैः सौम्यैः पटुैः सुवचनो िनपुणैः किासु | जीवोऽथयधमयसुखभाङ् नृपपूिजतश्च कामी भृगौ बहुधनो िवषयोपभोक्ता || अन्वय एवं अन्वयाथय – महीजैः = मङ्गि के योगकारक होने पर, उत्साह = उत्साही, शौयय = पराक्रम, धन = धनसंपदा, साहसवान् = साहसी , सौम्यैः = बुध कारक होने पर , पटुैः = पटु, सुवचन ∶ = मधुर वाणी वािा, किासु-िनपुणैः = किाओं में प्रवीण, जीव∶ = गुरु(योग करक हो तो) अथय-धमय-सुखभाङ् = धन, धमय से युक्त सुख को भोगने वािा, नृपपूिजतश्च = राजा द्वारा पूिजत , भृगौ = शुक्र (के कारकत्व में) बहुधनो = बहुत धन वािा, िवषयोपभोक्ता = िवषयों को भोगने वािा | व्याख्या- सुनफा अनफा योगों का कारक यकद मंगि ग्रह हो तो जातक उ त्साही, पराक्रमी, धन-संपित्त से युक्त तथा साहसी होता है | यकद बुध कारक हो तो पातु, मधुर वचन बोिने वािा, वाद्य,नृत्य,िचत्रकारी आकद किाओं में िनपुण होता है | गुरु के कारकत्व में धन और अथय युक्त सुख को भोगने वािा होता है | शुक्र ग्रह के कारक होने से जातक बहुत धन वािा तथा िवषयों को भोगने वािा होता है | २१.१० योगकारक शिन तथा चन्रमा का फि
  • 15. 15pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 15 अनफा सुनफा योगों के कारक यकद शिन और चन्रमा होते हैं तो लया-लया फि होता है यह िनम्निििखत श्लोक में वर्तणत ककया गया है - परिवभवपररच्छदोपभोक्ता रिवतनयो बहुकाययकृद्गणेशैः | अशुभकृदुडुपोऽिनन दृष्यमुर्तत- गयििततनुश्च शुभोन्यथान्यदूह्यम् || अन्वय एवं अन्वयाथय- रिवतनयो = शिन(के योग करक होने पर), परिवभव = दूसरे के धन , पररच्छद = वस्तु, उ पभोक्ता = (का)उपभोग करने वािा, बहुकाययकृद् = बहुत कायय करने वािा, गणेशैः = जन नेता(होता है) | अिनन = कदन में(जन्म हो), उडुप = (तथा)चन्रमा, दृष्यमूर्ततैः = दृष्यचक्राधय(में हो), अशुभकृत् = (तो)अशुभकारक, गििततनुश्च- (एवम्)अदृष्यचक्राधय(में हो), शुभ ∶ = (तो)शुभ, अन्यथा = नहीं तो, अन्यत् = िवपरीत फि, उह्यम् = कहा गया है | व्याख्या- िजस जातक की जन्मकुण्डिी में अनफासुनफा आकद योग शिन के कारकत्व में होता है तो वह दूसरे का धन, वस्तु इत्याकद का उपभोग करता है | बहुत सारे कायय करने वािा होता है तथा बहुत से िोगों का नेतृत्व करता है अथायत् जन-नायक होता है | जातक का जन्म कदन में हो और चन्रमा दृष्यचक्राधय ७,८,९,१०,११,१२वें हो तो यह योग अशुभकारक होता है | और यकद अदृष्यचक्राधय १,२,३,४,५,६,७ वें िस्थत हो तो शुभकारक होता है | परन्तु यकद इसके िवपरीत राित्र में जन्म हो और चन्रमा अदृष्यचक्राधय में िस्थत हो तो अशुभकारक तथा दृष्यचक्राधय में हो तो शुभकारक होता है | २१.११ िग्न या चन्र ग्रह से उपचय स्थानगत ग्रहों का फि
  • 16. 16pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 16 इस श्लोक में िग्न या चन्रमा से उपचय स्थान िस्थत ग्रहों के अनुसार फि का कथन ककया जा रहा है - िग्नादतीव वसुमान् वसुमाञ्छशान्कात् सौम्यग्रहैरुपचयोपगतै∶ समस्तैैः | द्वाभयां समोऽल्पवसुमांश्च तदूनताया- मन्येषु सत्स्विप फिेिष्वदमुत्कटेन || अन्वय एवं अन्वयाथय - िग्नाद् = िग्न से, उपचयोपगतै ∶ = उपचय स्थानगत, समस्तैैः = सभी, सौम्यग्रहै ∶ = शुभग्रह(हों), अतीव = (तो)अत्यन्त, वसुमान् = धनवान्, शशान्कात् = चन्रमा से, वसुमान् = धनवान् (भवित- होता है) | द्वाभयां = दो शुभग्रह होने से , समो = मध्यम , तदूनतायाम् = एक ही शुभग्रह हो तो, अल्पवसुमांश्च = अल्प धनवान्, अन्येषु = अन्य (कु)योगों के, सत्स्विप = होने पर भी, इदम् = यह(उपयुयक्त), फिेषु = (शुभ)फि, उत्कटेन = प्रबि (भवित- होता है) | व्याख्या- जातक की जन्मकुण्डिी में यकद िग्न से सभी शुभग्रह-बुध,गुरु,शुक्र उपचयस्थान – ३,६,१०,११ वें भावों में िस्थत हों तो जातक अत्यन्त धनवान् होता है | और यकद चन्रमा से सभी शुभग्रह उपचयस्थ हों तो जातक धनवान् होता है | यकद दो ही ग्रह उपयुयक्त स्थान में िस्थत हों तो जातक मध्यम कोरट का धनवान् होता है | तथा एक ही शुभग्रह के उपचयस्थ होने से अल्प धन वािा होता है | तथा जन्मकुण्डिी में अन्य कुयोग होने पर भी यकद उपयुयक्त योग हो तो इसी शुभ योग का पूणयतया फि होता है न कक अन्य कुयोगों का |
  • 17. 17pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 17 िचत्र सं. २१.११ २१.१२ सारांश  सूयय से चन्रमा यकद केन्र,पणफर और अपोिलिम स्थानों में िस्थत हो तो जातक में िवनय, धन, ज्ञान, बुिि और चातुयायकद गुण क्रमशैः उक्त भाविस्थित के अनुसार उत्तम,मध्यम और िनम्न होते हैं |  चन्रमा के अपने नवांश या अिधिमत्र के नवांश की िस्थित तथा उसपर गुरु और शुक्र की दृिष्ट होने से जातक धनवान् तथा सुखी होता है |  अिधयोग नामक योग षष्ठ,अष्टम और द्वादश भाव िस्थत ग्रहों के संबन्ध से सात प्रकार के हो सकते हैं |  अिधयोग में िजसका जन्म होता है वह राजा, मन्त्री या सेनापित होता है |  चन्रमा से दूसरे व बारहवें िस्थित अन्य ग्रहों (सूयय को छोड़कर)से सुनफा अनफा और दुरुधरा योग बनाते हैं | बु गु शु लग्न बु गु शु बु गु शु बु गु शु
  • 18. 18pÙeesefle<eHeâefuele ye=nppeelekeâced (1) ÛevõÙeesie efJeÛeej (21) 18  सुनफा और अनफा ३१ प्रकार के होते हैं तथा दुरुधरा १८० प्रकार का होता है |  सुनफा अनफा योगों में उत्पन्न जातक धनवान्, राजा या राजा तुल्य ,समथय, रोगरिहत, िवख्यात , सुन्दर वस्त्राभूषण धारण करने वािा तथा संतुष्ट स्वभाव का होता है |  केमरुम योग अशुभ योग होता है इस योग में उत्पन्न जातक मििन, दुैःखी, नीचकमयरत, िनधयन तथा दासवृित्त वािा होता है |  मंगि ग्रह से बनाने वािे सुनफा अनफा-आकद योगों में जातक उद्यमी, युििप्रय, धनवान् तथा साहसी होता है | बुध से तो मृदुभाषी तथा किा में िनपुण, गुरु से अथय-धमय और सुखभोगने वािा वािा और राजपूिजत होता है तथा सुकर से कामी, बहुधन तथा िवषयभोगी होता है |  जन्मकुंडिी में िग्न से सिम भाव पयंत भावों को अदृश्यचक्रािय तथा सिम से िग्न पयंत भावों को दृश्यचक्रािय कहते हैं |  कदवा कािीन जन्म होने तथा चन्रमा के दृश्यचक्रािय में िस्थित से अशुभ फि तथा अदृश्यचक्रािय में िस्थित से शुभ फि होता है |  राित्रकािीन जन्म में चन्र के दृश्यचक्रािय में िस्थित से शुभ फि तथा अदृश्यचक्रािय में िस्थित से अशुभ फि होता है |  िग्न से सभी शुभ ग्रहों की िस्थित से जातक अत्यंत धनवान् तथा चन्रमा से उपचय स्थान में सभी शुभ ग्रहों की िस्थित से जातक धनवान् होता है |