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कार्ल मार्क्स का वैज्ञानिक समाजवाद
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0714074140/95/marxian-theory-of-economic-development-2-638.jpg?cb=153
1554836
द्वारा- डॉक्टर ममता उपाध्याय
एसोसिएट प्रोफ
े सर, राजनीति विज्ञान
क
ु मारी मायावती राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय
बादलपुर, गौतम बुध नगर, उत्तर प्रदेश
यह सामग्री विशेष रूप से शिक्षण और सीखने को बढ़ाने क
े शैक्षणिक उद्देश्यों क
े लिए है। आर्थिक / वाणिज्यिक अथवा
किसी अन्य उद्देश्य क
े लिए इसका उपयोग पूर्णत: प्रतिबंध है। सामग्री क
े उपयोगकर्ता इसे किसी और क
े साथ वितरित,
प्रसारित या साझा नहीं करेंगे और इसका उपयोग व्यक्तिगत ज्ञान की उन्नति क
े लिए ही करेंगे। इस ई - क
ं टेंट में जो
जानकारी की गई है वह प्रामाणिक है और मेरे ज्ञान क
े अनुसार सर्वोत्तम है।
उद्देश्य-
● समाजवादी दर्शन की जानकारी
● वैज्ञानिक समाजवाद का ज्ञान
● मार्क्सवादी सिद्धांतों की व्यवहार में क्रियान्विति का विश्लेषण
● शीत युद्ध उत्तर विश्व में मार्क्सवादी सिद्धांतों की प्रासंगिकता का विश्लेषण
● समसामयिक सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों क
े संदर्भ में वैचारिक सृजन की क्षमता का विकास
कार्ल मार्क्स 19वीं शताब्दी क
े जर्मन दार्शनिक लेखक, सामाजिक सिद्धांतकार और अर्थशास्त्री
हैं। समाजवादी चिंतन परंपरा में उनकी प्रसिद्धि पूंजीवाद एवं साम्यवाद क
े संबंध में व्यक्त किए
गए विचारों क
े कारण है। अपने मित्र एंजिल्स क
े साथ मिलकर 1848 में ‘कम्युनिस्ट मेनिफ
े स्टो’
और बाद में ‘दास क
ै पिटल’ की रचना उनक
े द्वारा की गई जिसका प्रथम भाग 1867 में बर्लिन में
प्रकाशित हुआ। दूसरा और तीसरा भाग मरणोपरांत 1885 एवं 1894 में प्रकाशित हुआ। यद्यपि
समाजवादी चिंतन की परंपरा पुरानी है, किं तु मार्क्स ऐसे विचारक हैं जिन्होंने समाजवाद को
वैज्ञानिक आधार प्रदान किया और समाजवाद को एक क्रमबद्ध दर्शन क
े रूप में प्रस्तुत करने क
े
साथ-साथ उसकी स्थापना हेतु एक ठोस कार्यक्रम भी सुझाया। उनका समाजवाद एक
स्वप्नलोकीय विचारधारा मात्र न रहकर एक आंदोलन, कार्यक्रम तथा सामाजिक और आर्थिक
व्यवस्था का एक सिद्धांत है। समाजवादी चिंतन की इन विशेषताओं क
े कारण ही मार्क्स को
वैज्ञानिक समाजवाद का जनक कहा जाता है। यद्यपि वर्तमान में वैश्विक जगत में समाजवाद
क
े ध्वजवाहक राष्ट्र सोवियत संघ क
े पतन एवं विचारधारा की लड़ाई में पूंजीवाद की विजय ने
मार्क्सवादी चिंतन की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाया है, किं तु फिर भी यह एक तथ्य है कि
बीसवीं शताब्दी में मार्क्सवादी समाजवाद करोड़ों व्यक्तियों का धर्म बना और प्रायः सभी देश यह
विश्वास करने लगे कि कल्याणकारी राज्य की स्थापना क
े लिए मार्क्सवाद उत्तम मार्ग है। नेहरू
ने मार्क्सवाद क
े विषय में लिखा था कि ‘’मार्क्सवाद इतिहास ,राज्यशास्त्र, अर्थशास्त्र, मानव
जीवन और आकांक्षाओं की पूर्ति की एक विधि है। यह सिद्धांत और कार्यक्रम क
े लिए पथ
प्रदर्शक है, यह एक दर्शन है जो मानव से संबंधित क्रियाओं की व्याख्या करता है तथा भूत,
वर्तमान और भविष्य को एक तर्क शील प्रणाली द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयास है। ‘’
प्रेरणा एवं प्रभाव-
मार्क्स क
े चिंतन पर शास्त्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्रियों जैसे एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो का
प्रभाव है। कार्ल मार्क्स क
े विचारों का साम्यवादी समाजों जैसे -सोवियत संघ, चीन और क्यूबा
पर व्यापक प्रभाव पड़ा। और उनक
े चिंतन ने व्लादीमीर लेनिन और जोसेफ स्टालिन जैसे
साम्यवादी नेताओं क
े लिए सैद्धांतिक आधारशिला का कार्य किया। उनका यह विचार कि
पूंजीवाद में अपने विनाश क
े बीज निहित है और पूंजीवादी समाज में पूंजीपतियों का लाभ
श्रमिकों क
े श्रम क
े शोषण पर आधारित है, समाजवादी दुनिया का एक अकाट्य सत्य बन गया।
‘’दुनिया क
े मजदूरों एक हो जाओ क्योंकि तुम्हारे पास खोने क
े लिए बंधनों क
े अलावा और क
ु छ
नहीं है’’, मार्क्स का यह नारा निसंदेह दुनिया भर क
े मजदूरों को संगठित करने का अचूक मंत्र
बना। समसामयिक दौर में मार्क्सवाद को उसक
े विशुद्ध रूप में अपनाने वाले पक्ष पोषकों की
संख्या बहुत कम है और वास्तव में जब से 1898 में यूजन वन एवं बोआर्क जैसे अर्थशास्त्रियों ने
मार्क्सवादी विचारो का अंग्रेजी में अनुवाद किया और यह प्रतिपादित किया कि मार्क्स पूंजीवादी
बाजार और उसक
े व्यक्ति निष्ठ मूल्यों को अपने विश्लेषण में सम्मिलित करने में विफल रहे,
तब से मार्क्सवादी विचारों का अर्थशास्त्र क
े क्षेत्र में प्रभाव कम हो गया है, किं तु मार्क्सवादी चिंतन
में अभी बहुत से ऐसे विचार हैं जिनसे आधुनिक अर्थशास्त्री बहुत क
ु छ सीख सकते हैं। राजनीतिक
क्षेत्र में लेनिन वाद , मार्क्सवादी लेनिनवाद, टाटास्कीवाद, माओवाद, उदारतावादी मार्क्सवाद क
े
रूप में मार्क्सवादी प्रवृत्तियां अब भी प्रबल है । अन्य विचारों क
े साथ मार्क्सवाद का विश्लेषण
करती हुई संरचनावादी मार्क्सवादी विचारधारा, ऐतिहासिक मार्क्सवाद, प्रघटनावादी मार्क्सवाद,
विश्लेषण वादी मार्क्सवाद और हीगलवादी मार्क्सवाद क
े रूप में मार्क्सवाद की जीवंतता अनुभव
की जा सकती है।
जीवन वृत्त-
5 मई 1818 को प्रशा क
े ट्रायर में जन्मे मार्क्स एक सफल यहूदी वकील क
े पुत्र थे, जिन्होंने
मार्क्स क
े जन्म से पूर्व ही लूथरवाद को अपना लिया था। बोन और बर्लिन मे कानून की पढ़ाई
करने क
े मार्क्स हीगल क
े दर्शन से परिचित हुए एवं युवा हीगलवादी क
े रूप में विद्यमान
राजनीतिक धार्मिक संस्थाओं का विरोध किया । उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि जेना
विश्वविद्यालय से 1841 में प्राप्त की। उनक
े क्रांतिकारी विचारों ने प्राध्यापक पद को प्राप्त
करने क
े मार्ग में बाधा उपस्थित की ,अतः उन्होंने पत्रकार क
े रूप में अपने क
ै रियर को चुना और
बाद में एक उदारवादी समाचार पत्र ‘Rheinische zeitung’’ क
े संपादक बने।
प्रशा को छोड़ने क
े बाद मार्क्स ने फ्रांस में अपने जीवन क
े क
ु छ वर्ष व्यतीत किए जहां उनका
परिचय अपने आजीवन मित्र फ्र
े डरिक एंजेल से हुआ। फ्रांस से निष्कासन क
े बाद भी क
ु छ समय
तक बेल्जियम में रहने क
े बाद वे लंदन गए जहां उन्होंने अपने जीवन का शेष भाग व्यतीत
किया। 1883 में वही ब्रोंकाइटिस एवं पलोरिसी से उनकी मृत्यु हुई।
मार्क्सवादी सिद्धांत-
मार्क्स क
े समाजवादी विचार उनक
े प्रमुख ग्रंथों ‘ कम्युनिस्ट मेनिफ
े स्टो’ और ‘दास क
ै पिटल’ में
मिलते हैं जिन पर जर्मन उग्र दार्शनिकों, ब्रिटिश अर्थशास्त्रियों एवं फ्रांसीसी क्रांति क
े समाजवादी
विचारों का प्रभाव दिखाई देता है। मार्क्सवादी विचारधारा एक अविभाज्य इकाई है जिसक
े
सैद्धांतिक और व्यावहारिक दो पक्ष हैं। मार्क्सवादी समाजवाद क
े निर्माण कारी सिद्धांतों को
निम्नांकित शीर्षकों में रखा जा सकता है। प्रत्येक शीर्षक अगले क
े लिए आधार प्रस्तुत करता
है। -
● द्वंद्वात्मक भौतिकवाद [Dialectical Materialism]
● इतिहास की आर्थिक व्याख्या [ economic explanation of history]
● अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत [ theory of Surplus Value]
● वर्ग संघर्ष का सिद्धांत और पूंजीवाद [Theory of class struggle and
capitalism]
● सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद [ Dictatorship of Proletariat]
● साम्यवादी समाज [ communist society]
1. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद
मार्क्स क
े संपूर्ण दर्शन का आधार द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है। साम्यवाद क
े स्वरूप का
विश्लेषण करने क
े उद्देश्य से मार्क्स ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया। द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद दो शब्दों का सम्मिश्रण है- द्वन्द्व वाद और भौतिकवाद। द्वन्द्ववाद अंग्रेजी शब्द
‘डायलेक्टिसिज़्म’जो यूनानी भाषा क
े डायलॉग शब्द से बना है, का हिंदी अनुवाद है। इसका अर्थ
होता है- वाद विवाद करना। वाद विवाद में एक दूसरे का विरोध होता है। यह विकास की प्रक्रिया
को इंगित करता है। ‘भौतिकवाद’ शब्द सृष्टि का मूल है। मार्क्स ने द्वंद की प्रक्रिया को हीगल
क
े दर्शन से ग्रहण किया था, किं तु इस सिद्धांत की व्याख्या अपने भौतिकता वादी विचारों क
े
आधार पर की। मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद क
े निम्नांकित नियम बताए-
● सृष्टि का मूल पदार्थ है, विश्वात्मा नहीं-
मार्क्स क
े पूर्व हीगल ने सृष्टि का आधार देवी मन या विवेक को माना था जिसे
विश्वात्मा का नाम दिया था। उसक
े अनुसार ‘’जो विवेक संगत है, वही वास्तविक है और
जो वास्तविक है ,वही विवेक संगत है। ‘’ इसक
े विपरीत मार्क्स का मत है कि भौतिक
जगत जिसका अनुभव हमारी इंद्रियां करती हैं, वही वास्तविकता है। सृष्टि और मानव
समाज का निर्माण इन्हीं भौतिक वस्तुओं से होता है, अतः उसे समझने क
े लिए आत्मा या
विवेक सदृश मृग मरीचिका क
े पीछे नहीं दौड़ना चाहिए। इस प्रकार मार्क्स का दर्शन
हेगल क
े नितांत विपरीत है। मार्क्स क
े शब्दों में,’’ मैंने हीगल क
े दर्शन को सिर [ आत्मा
या मस्तिष्क] क
े बल पर खड़ा पाया, मैंने उसे पैरों क
े बल [ पृथ्वी पर] खड़ा कर दिया। ‘’
● प्रकृ ति का प्रत्येक पदार्थ परस्पर संबद्ध ,गतिशील तथा परिवर्तनशील है-
मार्क्स की दृष्टि में विश्व स्वतंत्र वस्तुओं का आकस्मिक पुंज नहीं है, बल्कि एक समग्र
है तथा उसमें निहित विभिन्न वस्तुएं आपस में जुड़ी हुई है। किसी वस्तु या घटना को
उसक
े वातावरण से अलग करक
े नहीं समझा जा सकता। जैसे - पूंजीवाद को समझने क
े
लिए उसक
े जन्म क
े समय की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक ,धार्मिक, नैतिक
परिस्थितियों का ज्ञान आवश्यक है।
पदार्थ की एक विशेषता उसका गतिशील एवं परिवर्तनशील होना है। परिवर्तन की
प्रक्रिया में क
ु छ वस्तुओं का निर्माण होता है ,तो क
ु छ वस्तुएं नष्ट होती है। एंजिल्स क
े
शब्दों में,’’ समस्त प्रकृ ति की छोटी वस्तु से लेकर बड़ी वस्तु तक- बालू कण से लेकर सूर्य
पिंड तक - सभी एक निरंतर स्थिति में, एक निरंतर प्रवाह में अनवरत गति तथा
परिवर्तन की स्थिति में है। ‘’
● प्रकृ ति में अंतर्विरोध एवं अंतर्द्वंद क
े आधार पर पदार्थों का विकास होता है-
मार्क्स की मतानुसार द्वंद क
े नियम क
े अनुसार प्रत्येक पदार्थ में एक आंतरिक विरोध
होता है जो ऊपरी तौर पर दिखाई नहीं देता। जैसे- लकड़ी में दो परस्पर विरोधी गुण
कड़ापन एवं नरमी पाए जाते हैं जिनक
े कारण ही वह उपयोग में लाए जाने योग्य बनती
है। परस्पर विरोधी गुणों की उपस्थिति क
े कारण ही नए पदार्थ या नई व्यवस्था का
जन्म होता है जो पहले क
े बिल्क
ु ल विपरीत विशेषताओं से युक्त होती है । इन दोनों
अवस्थाओं को मार्क्स ने ‘वाद’ और ‘प्रतिवाद’ का नाम दिया है । कालांतर में इस प्रतिवाद
में भी अंतर्विरोध उत्पन्न होता है और एक नई व्यवस्था उत्पन्न होती है जिसे ‘संवाद’[
synthesis ] कहते हैं। परिवर्तन की इस प्रक्रिया को मार्क्स ने गेहूं क
े दाने क
े उदाहरण
से स्पष्ट किया है। उनक
े अनुसार यदि हम गेहूं क
े दाने क
े द्वंद का पता लगाएं तो दिखाई
पड़ता है कि उसका विकास हो रहा है । गेहूं का बीज ‘वाद’ है तो पौधा उसका ‘प्रतिवाद’ है
और पौधे का नष्ट होकर नए दाने को जन्म देना संश्लेषण या ‘संवाद’ है। विकास का यही
सिद्धांत द्वंदवादी भौतिकवाद कहलाता है।
● परिवर्तन मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों होता है-
मार्क्स क
े विचार अनुसार द्वंद का एक नियम यह है कि विकास क्रम में पदार्थ की मात्रा
में अंतर आने क
े साथ-साथ उसक
े गुण में भी अंतर आ जाता है। किसी वस्तु में अधिक
मात्रा में परिवर्तन होने पर ही गुणों का स्पष्ट अंतर भी दिखाई देता है। यदि हम पानी को
100 डिग्री सेंटीग्रेड तक गर्म करते हैं तो उसकी भाप बन जाएगी। पानी और भाप दोनों क
े
गुणों में अंतर है ,अतः यह गुणात्मक परिवर्तन है।
● द्वंद्ववाद क
े आधार पर पूंजीवाद का अंत एवं समाजवाद की स्थापना होगी-
द्वंद क
े नियम को सामाजिक क्षेत्र में लागू करते हुए मार्क्स ने यह प्रतिपादित किया कि
पूंजीवाद क
े शोषणकारी स्वरूप क
े स्थान पर साम्यवादी समाज की स्थापना होगी।
उनका विश्वास था कि पूंजीवाद अपने भीतर अपने पतन क
े बीच स्वयं इस तरह बोता है
कि इसका ‘प्रतिवाद’ हो जाता है। अर्थात पूंजीपति वर्ग और उसक
े शत्रु श्रमिक वर्ग में
संघर्ष हो जाता है और संवाद क्रिया क
े फल स्वरुप एक नए वर्ग विहीन ,राज्य विहीन
समाज की स्थापना होती है। मार्क्स की मान्यता है कि इतिहास क
े प्रत्येक युग में दो या
अधिक व्यक्तियों एवं वर्गों क
े मध्य आंतरिक विरोध रहा है।
इतिहास की घटनाओं को देखने पर यह प्रतीत होता है इस विरोध में आर्थिक शक्तियां
ही द्वंद का काम करती थी। अब यह आंतरिक विरोध पूंजीवाद और श्रमिक वर्ग में हो रहा
है । पूंजीवाद का अंत अवश्य होगा और फिर समाजवाद की स्थापना होगी। मार्क्स
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद क
े तीसरे नियम अर्थात संवाद या संश्लेषण को क्रांति क
े रूप में
लागू करना चाहते हैं और यह मानते हैं कि मात्रात्मक धीमी गति से परिवर्तन की अपेक्षा
गुणात्मक और तीव्र गति से परिवर्तन वांछित है श्रमिक वर्ग धीरे-धीरे अपनी उन्नति नहीं
कर सकता उसे सहसा परिवर्तन लाने क
े लिए हिंसक क्रांति का सहारा लेना होगा और इस
प्रकार क्रांति सर्वथा उचित और न्यायसंगत है।
निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि मार्क्स क
े अनुसार द्वन्द्ववादी
भौतिकवाद का वाद ,प्रतिवाद और संश्लेषण आर्थिक वर्ग है, विचार नहीं और जिस लक्ष्य
की ओर मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की तरफ कदम बढ़ाए जाने की बात कही वह
एक ऐसे समाज की स्थापना है जिसमें न कोई वर्ग भेद होगा और न कोई शोषण । यह
अंतिम संश्लेषण होगा जिसमें से प्रतिवाद का जन्म नहीं होगा । वर्ग विहीन समाज की
स्थापना क
े साथ अंतर्विरोध की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया रुक जाती है, ऐसी मार्क्स की
मान्यता है।
आलोचना- वेपर क
े अनुसार द्वंदवाद की धारणा अत्यंत गूढ़ एवं अस्पष्ट है। आलोचकों
ने निम्नांकित आधारों पर मार्क्स क
े द्वंद वादी सिद्धांत की आलोचना की है-
1. मार्क्स क
े विचारों से यह प्रतीत होता है कि पदार्थ चेतना युक्त होते हैं और अपने
विरोधी तत्व को जन्म देकर अपना विकास करते हैं, किं तु वास्तविकता यह है कि पदार्थ
में परिवर्तन बाहरी शक्तियों क
े द्वारा किए जाते हैं । साथ ही यह भी नहीं माना जा सकता
कि पदार्थ का विकास विरोधी तत्वों में संघर्ष क
े द्वारा होता है।
2. मार्क्स ने हीगल क
े द्वन्द्ववाद में परिवर्तन कर वैचारिक शक्तियों क
े स्थान पर
भौतिक शक्तियों को महत्व दिया है, किं तु यह नहीं स्पष्ट कर सक
े कि क
ै से आर्थिक
शक्तियां वैचारिक शक्तियों से अधिक सही है। मानव सभ्यता क
े सर्वकालिक विकास को
ध्यान में रखने पर यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य का उद्देश्य सदैव क
े वल भौतिक
समृद्धि ही नहीं रहा। यद्यपि यह सही है कि आधुनिक युग में विकास की गति बहुत
क
ु छ अंशों में भौतिकता की ओर है ,किं तु इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा
सकता कि विश्व क
े विकास की दिशा एक बार पुनः आदर्शवाद या अध्यात्मवाद की ओर
उन्मुख होगी।
3.मार्क्स क
े विचारानुसार साम्यवादी समाज की स्थापना क
े लिए हिंसक क्रांति आवश्यक
है , किं तु क्रांति को अनिवार्य मानना युक्तिसंगत नहीं है। मनुष्य एक चेतन शील प्राणी
है, वह अपनी आत्मा और उसक
े विकास क
े रहस्य से परिचित है ,अतः वह समाज में
परिवर्तन अहिंसात्मक ढंग से ला सकता है ।
4. संघर्ष मानव जीवन की उपलब्धियों में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, किं तु
उसे एक विश्वव्यापी कानून मानना या ऐतिहासिक विकास में उसे चालक शक्ति का दर्जा
देना अनु अनुपयुक्त एवं अनावश्यक है। हंट ने इस संबंध में उचित ही लिखा है कि
‘’यद्यपि द्वन्द्ववाद हमें मानव विकास क
े इतिहास में मूल्यवान क्रांतियों क
े दर्शन
कराता है, लेकिन मार्क्स का यह दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता कि सत्य का
अनुसंधान करने की यही एकमात्र पद्धति है। ‘’
इन आलोचनाओं क
े बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मार्क्स ने
द्वन्द्ववादी भौतिकवाद क
े रूप में एक विशुद्ध वैज्ञानिक पद्धति प्रदान की और उसी क
े
आधार पर समाज वाद को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया।
2. इतिहास की आर्थिक व्याख्या
मार्क्सवादी समाजवाद की श्रृंखला में दूसरा सिद्धांत इतिहास की आर्थिक व्याख्या है जो वस्तुतः
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का ही निष्कर्ष है। इतिहास परिवर्तन का साक्षी है और यह परिवर्तन
कभी धीमी गति से हुआ है तो कभी शीघ्रता से। दार्शनिकों क
े सामने यह प्रश्न सदैव से विद्यमान
रहा है कि सामाजिक परिवर्तन क्यों होते हैं तथा इनका रहस्य क्या है । बहुत समय तक इसका
उत्तर यह रहा है और ज्यादातर आज भी है कि प्राकृ तिक जगत व मानव समाज दोनों में ही
परिवर्तन ईश्वरीय इच्छा क
े परिणाम स्वरुप होते हैं। इस संबंध में एक विचार यह भी रहा है कि
सभी प्रकार क
े परिवर्तन विभिन्न महापुरुषों, सुधारको और राजनीतिज्ञों आदि क
े विचारों और
उ+नक
े प्रयत्नों क
े परिणाम स्वरूप होते हैं । मार्क्स ने इस प्रकार क
े परिवर्तन क
े विषय में
प्रचलित सभी मतों को अवैज्ञानिक मानते हुए अस्वीकार किया और मानवीय समाज क
े विकास
की व्याख्या द्वंद्ववादी भौतिकवाद क
े आधार पर की, जिसे इतिहास की आर्थिक व्याख्या
अथवा ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा जाता है।
इतिहास क
े निर्माण में भौतिक या आर्थिक परिस्थितियों की महत्वपूर्ण भूमिका-
मार्क्सवादी चिंतन का सार क
ें द्रीय तत्व है । मार्क्स की मान्यता कि मानव इतिहास क
े निर्माण
में भौतिक परिस्थितियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इतिहास का निर्माण किसी देवी इच्छा
क
े अनुसार नहीं होता, बल्कि आर्थिक परिस्थितियों क
े अनुसार होता है और इस परिवर्तन क
े क
ु छ
निश्चित वस्तुगत नियम है। जैसी भौतिक परिस्थितियां होती है उसी क
े अनुरूप समाज का
सामाजिक और राजनीतिक संगठन, कानून, धर्म, नैतिकता, मूल्य व मान्यताएं होती है । जब
इन परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाता है तो संपूर्ण सामाजिक जीवन में परिवर्तन हो जाता है।
इसे ‘आधार और संरचना का सिद्धांत’ भी कहा जाता है। भौतिक परिस्थितियां आधार का कार्य
करती हैं और उसी आधार पर सामाजिक, राजनीतिक, नैतिक संरचना का निर्माण होता है।
भौतिक या आर्थिक परिस्थितियों में मार्क्स ने उत्पादन की विधि, उत्पादन क
े साधन ,समाज की
उत्पादक शक्ति और उत्पादन संबंधों को सम्मिलित किया है।
इन विचारों क
े आधार पर मार्क्स ने अब तक क
े सामाजिक विकास को परिभाषित करते हुए
उत्पादन शक्ति और उत्पादन संबंधों की दृष्टि से सामाजिक विकास क
े निम्नांकित युगों की
बात कही है-
● आदिम साम्यवादी युग-
मानव इतिहास की प्रारंभिक अवस्था को मार्क्स ने आदिम साम्यवादी युग का नाम दिया
है क्योंकि उस समय मनुष्य की आर्थिक गतिविधियां सीमित थी । जीवन सरल तथा
मनुष्य क
े पास किसी प्रकार की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं थी। प्रकृ ति की प्रत्येक वस्तु पर
सब का समान रूप से अधिकार था और प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकतानुसार प्रकृ ति
से ग्रहण करता था तथा अपनी क्षमता क
े अनुसार कार्य करता था। परस्पर किसी प्रकार
का अंतर्विरोध नहीं था और न ही कोई शोषक था ,न शोषित। समाज में सब का स्थान
समान था, इसलिए यह अवस्था साम्यवादी अवस्था थी। चूँकि प्रकृ ति से क
ं दमूल फल
इकट्ठा करने एवं शिकार करने क
े लिए मनुष्य को एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमना
पड़ता था, इसलिए संगठित समाज का कोई स्वरूप अस्तित्व में नहीं आया था।
● दास युग-
सामाजिक विकास की दूसरी अवस्था को मार्क्स ने दास युग की संज्ञा दी है । आदिम
साम्यवादी युग से दास युग में मनुष्य का प्रवेश आर्थिक गतिविधियों में परिवर्तन क
े
कारण हुआ । आखेट क
े स्थान पर कृ षि आजीविका का साधन बनी और कृ षि द्वारा होने
वाली उपज का संचय किया जाने लगा जिससे कृ षि भूमि क
े स्वामित्व की प्रथा का सृजन
हुआ। अब जिस समाज क
े लोग दूसरों से युद्ध करक
े विजई होते थे वे पराजित लोगों को
मारने की अपेक्षा उन्हें पकड़कर दास बना लेते थे और उन्हें कृ षि कार्यों में लगाते थे । इस
युग में समाज में 2 वर्ग दिखाई दिए -मालिक और दास । मालिक वर्ग दासों क
े श्रम का
उपभोक्ता बन गया और समाज का नियमन मालिक वर्ग क
े वह लोग करने लगे जो
सर्वाधिक शक्तिशाली या सबसे ज्यादा भू- संपत्ति क
े स्वामी थे । यह समाज दास मूलक
समाज था जिसक
े अंतर्गत दास- वर्ग शोषित था और अपनी मुक्ति क
े लिए प्रयत्नशील
था।
● सामंतवादी युग -
मार्क्स क
े विचारानुसार दास युग में दो वर्गों क
े मध्य संघर्ष ने एक नई सामाजिक
सामंतवादी व्यवस्था को जन्म दिया । जब कृ षि अर्थव्यवस्था विकसित होकर उत्पादन का प्रधान
साधन बन गई तो समाज क
े नेता अर्थात राजा संपूर्ण भूमि क
े स्वामी बन गए। वे कृ षि भूमि को
सामंतों को संविदा क
े आधार पर देने लगे । यह सामंत उप सामंतों को और उप सामंत छोटे
किसानों को इसी प्रकार भूमि का बटवारा करने लगे। इस युग में छोटे किसान शोषण का शिकार
हुए जिन्हें मार्क्स ने अर्ध दास कहा है।
● पूंजीवादी युग-
मानव सभ्यता क
े विकास क्रम में सामंतवादी युग क
े बाद पूंजीवादी युग का आगमन हुआ, जो
औद्योगिक अर्थव्यवस्था क
े विकास का परिणाम था। सामंती युग क
े अर्ध दासों ने अब
दस्तकारी क
े द्वारा कृ षि क
े औजार और अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएं बनानी शुरू कर दी।
बड़ी-बड़ी मशीनों और कल- कारखानों क
े विकास से वस्तुओं का उत्पादन इतनी अधिक मात्रा में
होने लगा कि उनक
े व्यापार और विनिमय की आवश्यकता अनुभव हुई। परिणामतः समाज का
स्वरूप कृ षि अर्थव्यवस्था तक सीमित न रहकर उद्योग तथा व्यापार मूलक समाज में बदल
गया। इस युग में भी व्यापारिक वस्तुओं क
े उत्पादन का कार्य श्रमिक वर्ग ही करता था, किं तु
उत्पादन क
े साधनों पर उसका स्वामित्व नहीं था। शारीरिक श्रम का महत्व कम होने लगा और
उसका स्थान मशीनों ने ले लिया। मशीनों क
े कारण श्रमिकों की मांग कम हो गई और उन्हें कम
मजदूरी पर ही अपनी आजीविका ढूंढने को विवश होना पड़ा। उद्योगों क
े मालिक पूंजीपति उनसे
अधिक समय तक श्रम लेने लगे किं तु मजदूरी कम ही देते थे। उन्हें भारी बेरोजगारी का भी
सामना करना पड़ा। इस प्रकार पूंजीवादी व्यवस्था क
े अंतर्गत शोषक पूंजीपति तथा शोषित
मजदूर वर्गों का उदय उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन का ही परिणाम था।
● सभ्यता क
े विकास का अगला और अंतिम चरण साम्यवादी समाज होगा-
मार्क्स क
े विचारानुसार उत्पादन शक्तियों में परिवर्तन का क्रम जारी रहेगा और द्वंद क
े नियम
क
े अनुसार पूंजीवादी समाज भी परिवर्तित होगा। उसमें यह परिवर्तन शोषित मजदूर- वर्ग में वर्ग
चेतना आने क
े साथ होगा। मजदूर संगठित होंगे और वे पूंजीपतियों क
े विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष
करेंगे जिसमें विजय उन्हें ही मिलेगी। मार्क्स ने आह्वान किया कि ‘’दुनिया क
े मजदूरों एक हो
जाओ क्योंकि तुम्हारे पास खोने क
े लिए बंधनों क
े अलावा और क
ु छ नहीं है। ‘’ पूंजीवादी व्यवस्था
में वर्ग संघर्ष क
े परिणाम स्वरूप एक वर्ग विहीन समाज की स्थापना होगी, ऐसी मार्क्स ने
कल्पना की। किं तु इससे पहले एक संक्रांति काल होगा जिसमें सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद
स्थापित होगा। उत्पादन क
े सभी साधनों का समाजीकरण होगा । तत्पश्चात वर्ग विहीन, राज्य
विहीन समाज की स्थापना होगी। ऐसा समाज साम्यवादी समाज होगा जिसमें प्रत्येक व्यक्ति
अपनी योग्यता क
े अनुसार कार्य करेगा और आवश्यकता क
े अनुसार लाभ प्राप्त करेगा। इस
संबंध में मार्क्स का विचार यह है कि साम्यवादी समाज पर आकर द्वंद का नियम रुक जाएगा।
यह अंतिम संश्लेषण [Synthesis ] होगा। इसमें से पुनः प्रतिवाद [ Antithesis] का जन्म
नहीं होगा ।
आलोचना-
यद्यपि मार्क्स ने तार्कि क ढंग से यह प्रस्तुत करने का प्रयास किया कि आर्थिक शक्तियां ही
समाज क
े स्वरूप को निर्धारित करती हैं, किं तु आलोचकों ने मार्क्स की इतिहास की आर्थिक
व्याख्या की निम्नांकित आधारों पर आलोचना की है-
● मार्क्स क
े इस कथन में अतिशयोक्ति है कि सामाजिक ,राजनीतिक परिवर्तन क
े वल
आर्थिक कारकों क
े कारण ही होते हैं और समस्त मानवीय प्रयत्नों की व्याख्या क
े वल इसी
एक तत्व क
े आधार पर की जा सकती है. वास्तविकता यह है कि धर्म, अर्थ, नीति, दर्शन,
मानवीय भावनाएं, व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा आदि सभी तत्व समान रूप से महत्वपूर्ण है
तथा सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करते हैं। बट्रेंड रसैल ने इस संबंध में लिखा है कि
‘’हमारे राजनीतिक जीवन की बड़ी-बड़ी घटनाएं भौतिक अवस्था और मानवीय मनोभावों
क
े घात प्रतिघात द्वारा निर्धारित होती हैं। राजप्रासाद में होने वाले षड्यंत्र, प्रपंच,
व्यक्तिगत राग - द्वेष तथा धार्मिक विरोध ने अतीत में इतिहास क
े क्रम में बड़े-बड़े
परिवर्तन किए हैं। ‘’
● मार्क्स ने अपने समाजवादी सिद्धांत क
े विवेचन में मानव तत्व की पूर्ण उपेक्षा की है,
जबकि मनुष्य सामाजिक परिवर्तन में क
ें द्रीय भूमिका अदा करता है। पॉपर क
े शब्दों में, ‘’
मार्क्स इतिहास क
े मंच पर मानव अभिनेताओं को चाहे वे कितने ही बड़े क्यों न हो,
कठपुतली मात्र समझता था जो आर्थिक डोरियों से निर्विरोध रूप से खींचती हैं। वे ऐसी
ऐतिहासिक शक्तियों क
े हाथ में खिलौना मात्र हैं जिनक
े ऊपर उनका कोई नियंत्रण नहीं है
। इतिहास का मंच एक सामाजिक प्रणाली में जिससे हम सब बंधे हुए हैं, बना हुआ है। ‘’
● इतिहास की आर्थिक व्याख्या देते समय मार्क्स ने धर्म को अत्यंत निम्न स्थान प्रदान
किया है। उसने धर्म को एक झूठी सांत्वना तथा अफीम का नशा माना है, लेकिन वह भूल
जाता है कि मनुष्य में उच्चतम आध्यात्मिक मूल्यों क
े विकास क
े लिए धर्म ही एकमात्र
आधार है। मानव समाज को अनुशासित रखने में धर्म की ऐतिहासिक भूमिका रही है।
● आलोचकों की दृष्टि में मार्क्स द्वारा की गई इतिहास की आर्थिक व्याख्या तार्कि क दृष्टि
से भी उचित नहीं है । उसने द्वन्द्ववादी प्रक्रिया क
े तीन चरणों क
े रूप में जिन
व्यवस्थाओं की कल्पना की, उनसे लगता है कि प्रत्येक व्यवस्था का अपना अलग आरंभ
और अंत है और प्रत्येक नई व्यवस्था पूर्व की व्यवस्था का प्रतिवाद या संवाद होने क
े
कारण उसकी विरोधी या उससे श्रेष्ठतर है। किं तु यह धारणा भ्रामक है। इतिहास एक
क्रमबद्ध श्रृंखला है जिसक
े आरंभ और अंत का सही निर्णय करना कठिन है। कभी-कभी
नया युग पूर्व क
े युग की अपेक्षा अधिक बुरा या विनाशकारी भी सिद्ध हुआ है।
● वेपर की मान्यता है कि वर्ग- संघर्ष क
े आधार पर इतिहास का काल विभाजन करना भी
त्रुटिपूर्ण है । मार्क्स ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया कि पूंजीवाद का विकास क
े वल
पश्चिमी यूरोप में ही क्यों हुआ?
● मार्क्स का यह कथन कि ऐतिहासिक विकास क
े पूंजीवादी युग में पूंजीपति और श्रमिक
वर्ग क
े मध्य कटुता बढ़ती जाएगी, पूंजीपति अधिक धनी और श्रमिक अत्यधिक निर्धन
होते जाएंगे, तथ्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश में
श्रमिक वर्ग की दशा में अत्यधिक सुधार हुआ है और वह निर्धन होने क
े बजाय अत्यधिक
धन अर्जित करने लगा है।
● मार्क्स क
े इस विचार में पूर्वाग्रह लगता है कि इतिहास की धारा राज्य विहीन समाज पर
जाकर रुक जाएगी। आलोचकों का प्रश्न है कि क्या साम्यवादी व्यवस्था में पदार्थ का
अंतर्निहित गुण गतिशीलता बदल जाएगा? यदि गतिशीलता स्वाभाविक है तो यह भी
आवश्यक है कि वाद, प्रतिवाद और संवाद की प्रक्रिया क
े द्वारा समाजवादी व्यवस्था में
भी परिवर्तन होगा। मार्क्स इस विषय में मौन है।
उपर्युक्त आलोचनाओं क
े बावजूद यह स्वीकार करना होगा कि मार्क्स ने सामाजिक
संस्थाओं क
े आर्थिक कारको पर बल देकर राजनीति विज्ञान की महान सेवा की है ।
इतिहास की आर्थिक व्याख्या क
े द्वारा मार्क्स ने यह स्पष्ट कर दिया कि टेक्नोलॉजी,
आवागमन क
े साधन, कच्ची सामग्री एवं संपत्ति क
े वितरण, सामाजिक वर्गों क
े निर्माण,
प्राचीन और वर्तमान राजनीति ,विधि और नैतिकता तथा सामाजिक आदर्शों क
े निर्माण में
आर्थिक शक्तियों ने व्यापक प्रभाव डाला है। वर्तमान वैश्वीकरण क
े दौर में भी आसानी से
देखा जा सकता है कि क
ै से आर्थिक शक्तियां जीवन क
े प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित कर रही
हैं। बाजार अर्थव्यवस्था क
े अनुरूप स्वयं को विकसित करना ही मनुष्य का एकमात्र
लक्ष्य बन गया है। ऐसे में मार्क्स की प्रासंगिकता बनी हुई है।
3. वर्ग संघर्ष एवं पूंजीवाद का सिद्धांत
वर्ग -संघर्ष का सिद्धांत मार्क्सवादी समाजवाद की आत्मा है। वास्तविकता तो यह है कि
वर्ग संघर्ष द्वारा पूंजीवाद क
े अंत और साम्यवाद की स्थापना क
े लक्ष्य को ध्यान में
रखकर ही मार्क्स ने अन्य सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। मार्क्स की वर्ग संघर्ष की धारणा
को निम्नांकित शीर्षकों में व्यक्त किया जा सकता है-
● इतिहास दो वर्गों का संघर्ष है-
इतिहास की आर्थिक व्याख्या प्रस्तुत कर मार्क्स ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है
कि अब तक का मानव सभ्यता का इतिहास वर्ग- संघर्ष का इतिहास है। इतिहास क
े प्रत्येक युग
में 2 वर्ग वजूद में रहे हैं- एक साधन संपन्न वर्ग और दूसरा साधन विहीन वर्ग। एक वर्ग
श्रमजीवी रहा है तो दूसरा उसका लाभ उठाता रहा है।
मार्क्स क
े शब्दों में,’’ अब तक क
े समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है। स्वतंत्र व्यक्ति
व दास, क
ु लीन व जनसाधारण, जागीरदार व रूपत, प्रतिष्ठानों क
े मालिक व कारीगर- एक शब्द
में शोषक और शोषित सदा एक दूसरे क
े विरोध में खड़े होकर कभी खुले तथा कभी छिपे रूप में
संघर्ष करते रहे हैं, जिसक
े परिणाम स्वरूप हर बार या तो व्यापक रूप से समाज का क्रांतिकारी
पुनर्निर्माण होता रहा है अथवा प्रतियोगी वर्गों का सामान्य विनाश होता रहा है। ‘’
सभ्यता क
े प्रत्येक युग में चाहे वह दास युग रहा हो,सामंती युग या पूंजीवादी युग सब में किसी
न किसी आर्थिक वर्ग की प्रधानता थी। शोषित वर्ग अपने स्वामी क
े साथ संघर्ष करता था और
जब उसे सफलता मिल जाती थी तो वह दूसरे वर्ग का शोषण करता था। यह क्रम चलता रहता है।
● वर्तमान युग दो वर्गों में स्पष्ट विभाजित है-
मार्क्स जिस युग का दार्शनिक था अर्थात 18- 19 वी शताब्दी वह दो वर्गों में स्पष्ट रूप से
विभाजित थी जिनमें आपस में संघर्ष चल रहा था। यह वर्ग थे -पूंजीपति वर्ग और श्रमिक वर्ग।
पूंजीपति वर्ग वह था जिसका उत्पादन क
े साधनों अर्थात भूमि, कारखानों, कच्ची सामग्री तथा
पूंजी पर स्वामित्व है और श्रमिक वर्ग वह है जो अपना श्रम बेचकर जीवन निर्वाह करता है।
पूंजीपति वर्ग श्रमिक वर्ग का शोषण करता है जिसक
े कारण वर्ग संघर्ष होता है।
● दोनों वर्ग परस्पर निर्भर हैं-
मार्क्स का मत है कि यद्यपि दोनों वर्गों में संघर्ष चलता रहता है किं तु दोनों वर्ग एक दूसरे पर
इतने ज्यादा निर्भर होते हैं कि एक क
े बिना दूसरा नहीं रह सकता। यदि मजदूर वर्ग कार्य न करें
तो पूंजीपतियों क
े बड़े-बड़े कारखाने बेकार हो जाएंगे, जमीदार को किसान न मिले तो उनक
े खेतों
में उपज नहीं होगी और इसी प्रकार यदि मजदूरों को काम न मिले तोवे बेरोजगार हो जाएंगे।
दोनों को एक दूसरे की आवश्यकता है, किं तु फिर भी दोनों क
े हितों में विरोध है।
● दोनों वर्गों क
े हित परस्पर विरोधी हैं-
यदि दोनों वर्ग एक दूसरे पर निर्भर हैं किं तु मार्क्स यह मानते हैं कि एक वर्ग को लाभ तभी
मिलता है जब वह दूसरे को हानि पहुंचाए। पूंजीपति वर्ग मजदूरों को कम से कम वेतन देकर
अधिक से अधिक काम लेना चाहता है। इसक
े विपरीत श्रमिक वर्ग यह चाहता है कि उसे कम से
कम काम करना पड़े और अधिक से अधिक मजदूरी मिले। हितों में इस विरोध क
े कारण वर्ग
संघर्ष प्रारंभ होता है। शोषकों क
े प्रति विद्रोह की भावना इतनी अधिक हो जाती है कि श्रमिक
अपने मालिकों को नष्ट करने क
े लिए संगठित हो जाते हैं और इस प्रकार दोनों वर्गों में कभी न
समाप्त होने वाला संघर्ष स्थाई रूप ले लेता है।
● वर्ग संघर्ष में शोषित वर्ग को अधिक हानि होती है-
वर्ग संघर्ष की धारणा में मार्क्स ने यह भी प्रतिपादित किया कि जब दोनों वर्गों में संघर्ष प्रारंभ
होता है तो इसका सबसे अधिक नुकसान श्रमजीवी वर्ग को उठाना पड़ता है।
श्रमिक वर्ग प्रतिदिन परिश्रम करक
े जीवन निर्वाह करता है । उसे काम देने वाला भी जल्दी नहीं
मिलता है। श्रम का संग्रह नहीं किया जा सकता। वह तात्कालिक रूप से नष्ट हो जाने वाला होता
है, अतः बेरोजगारी की स्थिति में श्रमिक भूखों मरने लगते हैं, जबकि पूंजीपति वर्ग को ऐसी
किसी परिस्थिति का सामना नहीं करना पड़ता। एंजिल्स ने लिखा है,’’ श्रमजीवी वर्ग समाज का
वह वर्ग है जिसे अपने जीविकोपार्जन क
े लिए पूर्ण रूप से अपने श्रम क
े विक्रय पर निर्भर होना
पड़ता है ,न कि पूंजी क
े द्वारा प्राप्त लाभ पर। उसका सुख- दुख, जीवन- मरण और उसका
संपूर्ण अस्तित्व उसक
े श्रम की मांग पर निर्भर होता है। श्रमिक भूखे पेट अथवा बिना मजदूरी क
े
न रहने क
े कारण मजबूरी में पूंजी पतियों क
े आगे झुक जाता है। इस प्रकार व पूंजीपतियों क
े
हाथों में शोषण एवं दमन क
े लिए अपने आप को सौंप देता है। श्रमिकों की इस स्थिति का लाभ
उठाकर पूंजीपति उसका शोषण करते हैं। शोषित वर्ग को जब भी इसका ज्ञान होता है, तो उसकी
आत्मा विद्रोह करने क
े लिए तड़प उठती है’’।
● मालिक वर्ग समाज व राजनीतिक व्यवस्था को नियंत्रित करते हैं-
मार्क्स की मान्यता है कि समाज में संपत्तिवान वर्ग क
े द्वारा अपनी संपत्ति क
े बल पर न क
े वल
संपत्ति विहीन वर्ग पर नियंत्रण रखा जाता है, बल्कि वे सामाजिक, वैधानिक तथा राजनीतिक
संस्थाओं को भी इस प्रकार प्रभावित करते हैं जिससे उनक
े शोषण का उद्देश्य पूरा होता रहे।
लास्की ने इस संबंध में लिखा है कि ‘’ वे सामाजिक हित और अपनी सुरक्षा को एक रूप समझते
हैं। अपने ऊपर आक्रमण करने वालों को वे राजद्रोह क
े अपराध का दंड देंगे। शिक्षा ,न्याय,
धार्मिक उपदेश आदि सबको उन्हीं क
े हितों की पूर्ति क
े लिए ढाला जाता है। यह भली-भांति
समझ लेना चाहिए कि सामाजिक लाभ में संपत्ति विहीन वर्ग को वंचित रखने का वे जानबूझकर
कोई प्रयत्न नहीं करते, यह तो भौतिक पर्यावरण क
े प्रति क
े वल स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। किं तु
संपत्ति क
े अधिकारों से वंचित वर्ग भी स्वाभाविक रूप से उन में भाग लेना चाहता है, अतः प्रत्येक
समाज में उसक
े नियंत्रण क
े लिए वर्गों क
े मध्य संघर्ष उत्पन्न हो जाता है। ‘’
4. पूंजीवाद का स्वरूप एवं वर्ग- संघर्ष द्वारा उसका अंत
वर्ग संघर्ष क
े सिद्धांत का प्रतिपादन तत्कालीन पूंजीवादी व्यवस्था क
े स्वरूप का विश्लेषण
करने क
े लिए किया एवं औद्योगिक समाज में पूंजीपति और सर्वहारा दो संघर्षरत वर्गों क
े
अस्तित्व को दर्शा कर शोषित सर्वहारा वर्ग द्वारा शोषक वर्ग क
े विरुद्ध क्रांति का कार्यक्रम
प्रस्तुत किया। मार्क्स का तर्क था कि औद्योगिक युग से पूर्व की सामंती व्यवस्था में भू- संपत्ति
का मालिक अभिजात्य वर्ग तथा बुर्जुआ वर्ग क
े मध्य का संघर्ष बुर्जुआ वर्ग की विषय में समाप्त
हुआ था जो एक प्रकार की लोकतांत्रिक क्रांति थी। इसक
े परिणाम स्वरूप जिस समाज की
स्थापना हुई वह पूंजीवादी समाज है जिसकी विशेषताएं मशीनों से संचालित उद्योग, कारखाना
पद्धति तथा इन साधनों क
े मालिकों और श्रमिकों क
े मध्य भेद, नगरों में जनसंख्या की वृद्धि,
अत्यधिक मात्रा में उत्पादन ,अंतरराष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि ,सरकारों की आंतरिक नीतियों में
‘यदभाव्यम’ का सिद्धांत तथा बाह्य मामलों में साम्राज्यवादी प्रवृत्ति आदि है। अतिरिक्त
उत्पादन क
े साधनों का मालिक वर्ग शोषण करक
े अतिरिक्त मूल्य अर्जित करता है और उसे ऐसे
मशीनी उपकरणों क
े क्रय में लगाता है जिससे मानव श्रम की आवश्यकता कम होती जाए और
उत्पादन की मात्रा तथा गुणवत्ता दोनों में वृद्धि हो।
इसक
े कारण उद्योगों क
े मालिक तो एक ओर अधिक धनी बनते जाते हैं तो दूसरी ओर श्रमिक
वर्ग और अधिक गरीब होता जाता है। मशीनों क
े विकास से मानव श्रम का महत्व कम होता
जाता है जिससे श्रमिकों में बेरोजगारी बढ़ती है और उन्हें आजीविका क
े लिए कम वेतन पर भी
मालिकों क
े पास अपना श्रम बेचना पड़ता है।
पूंजीवादी व्यवस्था की विशेषताएं जो मजदूरों में वर्ग चेतना जगा कर स्वयं उसका अंत कर देती
है-
पूंजीवादी व्यवस्था में निहित अंतर्द्वंद को उजागर करते हुए मार्क्स ने यह प्रतिपादित किया है
कि पूंजीवाद क
े अंतर्गत स्वयं उसक
े विनाश क
े बीज निहित हैं। मार्क्स क
े शब्दों में, ‘’ मजदूरों में
वर्ग चेतना जगाकर पूंजीवाद अपनी कब्र स्वयं खोदता है। ‘’ पूंजीवाद की निम्नांकित विशेषताएं
या पूंजीवाद जनित परिस्थितियां उसक
े विनाश को आमंत्रित करती हैं-
● पूंजीवाद क
े अंतर्गत वस्तु क
े अधिक से अधिक उत्पादन तथा उद्योगों की एकाधिकार की
प्रवृत्ति बनी रहती है जिसक
े कारण संपत्ति का क
ें द्रीकरण थोड़े से लोगों क
े हाथों में होता
चला जाता है। कालांतर में इन उद्योगपतियों क
े मध्य प्रतियोगिता शुरू होती है, जिसमें
छोटे- छोटे पूंजीपति नष्ट हो जाते हैं और सर्वहारा वर्ग में परिवर्तित हो जाते हैं। इस प्रकार
पूंजीपति वर्ग की संख्या कम होती जाती है और सर्वहारा वर्ग विशाल होता जाता है।
● औद्योगिक व्यवस्था नगरीकरण को प्रोत्साहित करती है। नगरों में उद्योगों का
क
ें द्रीकरण होता है जहां उद्योगों में लगे भारी संख्या में श्रमिकों को एक साथ एकत्रित होने
का अवसर मिलता है। क्योंकि सभी क
े कष्ट एक समान होते हैं इसलिए इन लोगों में वर्ग
चेतना जागृत होती है और वे संगठित होकर अपना रोष व्यक्त करने को तत्पर होते हैं।
● पूंजीवादी व्यवस्था में मशीनों से उत्पादन होने क
े कारण उत्पादन बहुत बड़ी मात्रा में होता
है, अतः उत्पादित माल क
े लिए व्यापार और विनिमय हेतु विशाल बाजारों की
आवश्यकता होती है। सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने क
े लिए यातायात
क
े साधनों का विकास करना पड़ता है जिसका लाभ श्रमिक वर्ग को ही मिलता है क्योंकि वे
लोग अन्य स्थानों क
े श्रमिकों से संपर्क स्थापित करने में सफल हो जाते हैं और इस प्रकार
उन्हें संगठन का अवसर मिलता है।
● पूंजीवादी व्यवस्था में राज्य की सत्ता पर पूंजीपतियों का प्रभाव पड़ने से राज्य उन्हीं क
े
हितों क
े लिए शासन का संचालन करता है। बड़े उद्योगपतियों को उद्योग चलाने क
े
लिए विदेशों से कच्चे माल की जरूरत पड़ती है ,उत्पादित माल को बेचने क
े लिए विदेशों
में बाजार ढूंढना पड़ता है। पूंजी निवेश क
े लिए उन्हें नए- नए क्षेत्रों की आवश्यकता पड़ती
है। ऐसा तभी संभव हो पाता है जब राज्य का साहचर्य उन्हें प्राप्त हो, अतः पूंजीवाद
उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की प्रवृत्ति को बढ़ाता है। उपनिवेश में उद्योगों की
स्थापना करने क
े बाद पूंजीपति वहां भी शोषण जारी रखते हैं और सर्वहारा वर्ग की वर्ग
चेतना राष्ट्रों की सीमा लांघ कर अंतरराष्ट्रीय हो जाती है।
● पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक संकट आते रहते हैं । आवश्यकता से अधिक उत्पादन हो
जाने क
े कारण उत्पादित सामानों की बिक्री नहीं होती है, तो कारखाने बंद करने की
स्थिति आ जाती है या उत्पादित माल बर्बाद होने लगता है। ऐसी स्थिति में श्रमिकों को
बेकार होना पड़ता है। श्रमिकों को उन व्यर्थ पड़े सामानों का उपभोक्ता बनने क
े लिए
बाध्य किया जाता है, किं तु सामानों का मूल्य इतना अधिक होता है कि उनकी क्रय शक्ति
क्षीण हो जाती है इससे आर्थिक संकट और अधिक बढ़ता है।
● पूंजीवादी व्यवस्था श्रमिकों को सदैव अज्ञानता तथा कष्ट में फ
ं से रहने की स्थिति में
रखना चाहती हैं ताकि वे आत्मनिर्भर न बन पाए। इसक
े कारण श्रमिकों का रोष और
अधिक बढ़ता है.।
पूंजीवाद की विशेषताओं क
े आधार पर मार्क्स का निष्कर्ष है कि ‘’ पूंजीपति वर्ग जो सबसे बड़ी
चीज पैदा करता है- वह है मजदूरों का वर्ग। इस वर्ग को जन्म देकर पूंजीवाद अपनी कब्र स्वयं
खो देता है। पूंजीवाद का अंत और मजदूरों की जीत दोनों ही समान रूप से अनिवार्य है। ‘’
आलोचना- वर्ग- संघर्ष एवं पूंजीवाद क
े विषय में मार्क्स क
े विचारों की आलोचना निम्नांकित
आधारों पर की जाती है-
1. मार्क्स ने औद्योगिक तथा पूंजीवादी व्यवस्था क
े अंतर्गत क
े वल बुर्जुआ तथा सर्वहारा वर्ग
क
े निर्मित होने की धारणा दी है। उसकी यह धारणा तर्क संगत नहीं है क्योंकि समाज में
मध्यम वर्ग ऐसा वर्ग है जो संतुलन कारी भूमिका निभाता है, किन्तु मार्क्स क
े चिंतन में
इस तथ्य को नजरअंदाज किया गया है।
2. सैद्धांतिक दृष्टि से औद्योगिक व्यवस्था क
े अंतर्गत बुर्जुआ तथा सर्वहारा का वर्गीकरण
संभव नहीं है। बड़ी-बड़ी मिलो और क
ं पनियों में काम करने वाले उत्तम वेतन भोगी
इंजीनियर ,मैनेजर, निदेशक आदि को सर्वहारा वर्ग क
े अंतर्गत नहीं माना जा सकता।
उद्योगों में काम करने वाले कार्मिक उद्योगों में साझीदार तक होते हैं, उन्हें किस वर्ग में
रखा जाए, मार्क्स इस विषय में मौन है।
3. मार्क्सवादी अवधारणा क
े अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था क
े अंतर्गत श्रमिक वर्ग की दशा
दिनों दिन खराब होती जाती है, जबकि विकसित पूंजीवादी देशों में मजदूरों की दिनों दिन
अच्छी होती स्थिति यह दर्शाती है कि वर्ग- संघर्ष अवश्यंभावी नहीं है। श्रमिकों क
े मध्य
परस्पर अनेक प्रकार क
े हितों को लेकर टक्कर हो सकती है, जैसे -क
ु शल और अक
ु शल
श्रमिकों क
े मध्य भेद, पुरुष तथा महिला श्रमिकों क
े मध्य भेद विभिन्न जातियों और
विभिन्न देशों क
े श्रमिकों क
े मध्य भेद आदि। इस दृष्टि से मार्क्स का वर्ग- संघर्ष का
सिद्धांत एक सैद्धांतिक सत्य नहीं है।
4. उद्योगों क
े नियमन और संचालन हेतु संघर्ष नहीं अपितु सहयोग अधिक आवश्यक होता
है । श्रमिक तथा पूंजीपति वर्ग दोनों ही इसे समझते हैं और इसमें दोनों का हित है।
5. अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत
मार्क्सवादी सिद्धांतों की शृंखला में अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत यह दर्शाने क
े लिए प्रस्तुत
किया गया है कि पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति श्रमिकों का शोषण किस प्रकार करते हैं। इसका
मुख्य उद्देश्य यह बताना है कि पूंजीपति श्रमिक वर्ग क
े परिश्रम पर निर्भर रहता है, किं तु श्रमिक
को उसक
े श्रम क
े अनुसार मूल्य नहीं दिया जाता। अपनी आवश्यकता की पूर्ति क
े लिए श्रमिकों
को अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है, किं तु उसक
े इस अतिरिक्त श्रम का मुनाफा पूंजीपति अपनी
ही जेब में रखता है, मजदूरों को उसमें साझेदार नहीं बनाता है।
अतिरिक्त मूल्य का यह सिद्धांत मूल्य क
े श्रम सिद्धांत पर आधारित है
,जिसका प्रतिपादन विलियम पेंटी ,रिकॉर्ड तथा एडम स्मिथ ने किया था। 19वीं शताब्दी क
े
प्रारंभ तक अर्थशास्त्री यह मानते रहे कि वस्तुओं का विनिमय मूल्य निर्धारित होने में उनमें लगे
श्रम क
े साथ-साथ पूंजी, उपकरण, कच्चा माल आदि सभी तत्व शामिल रहते हैं। साथ ही वस्तु
की मांग और वस्तुओं का गुणात्मक रूप भी उनक
े मूल्यों को परिवर्तित करते रहते हैं। किं तु
इसक
े बाद क
े क
ु छ लेखकों ने यह तर्क दिया कि चूँकि श्रम ही संपूर्ण संपत्ति का उत्पादन करता है,
अतः श्रम द्वारा अर्जित समस्त उत्पादन पर मजदूरों का भी अधिकार होना चाहिए । मार्क्स ने
इन लेखकों का समर्थन किया और मूल्य सिद्धांत की व्याख्या श्रमिकों क
े पक्ष में की ।
अर्थशास्त्री वस्तुओं क
े मूल्य तथा दाम में भेद करते हैं। मूल्य का अभिप्राय वस्तु की उपयोगिता
से लिया जाता है, जबकि दाम वस्तु की विनिमय दर से संबंधित होता है। मार्क्स की धारणा है
कि वस्तुओं क
े मूल्य तथा दाम का निर्धारण करने की कसौटी उन वस्तुओं क
े उत्पादन में व्यय
हुए श्रम क
े अनुसार होती है। हालांकि कभी-कभी किसी वस्तु का उपयोगिता मूल्य उसमें लगे
श्रम की कीमत से मुक्त भी होता है। जैसे हवा और पानी बहुत उपयोगी है ,यद्यपि उनमें कोई
श्रम नहीं लगा होता है।
इस संबंध में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि विभिन्न वस्तुओं क
े उत्पादन
में लगी श्रम की मात्रा का निर्धारण क
ै से किया जाए? वस्तुओं क
े दाम कम या अधिक क्यों होते
हैं? इस प्रश्न का उत्तर मार्क्स ने यह कह कर दिया कि श्रम की मात्रा की माप उसमें लगे समय क
े
अनुसार की जाती है, जिसका मापदंड सप्ताह , दिनों या घंटों तक लगाए गए श्रम से निर्धारित
किया जाता है। ऐसे में दोबारा यह प्रश्न उठता है कि सभी श्रमिकों की क्षमता समान नहीं होती।
एक श्रमिक किसी काम को 2 घंटे में पूरा करता है तो दूसरा उसी को 4 घंटे में। ऐसी स्थिति में
मूल्य का निर्धारण क
ै से किया जाए? मार्क्स का तर्क है कि किसी वस्तु क
े मूल्य का निर्धारण
उसमें लगे ‘ सामाजिक दृष्टि से आवश्यक’ श्रम की मात्रा क
े अनुसार किया जाता है।
अतिरिक्त मूल्य क
े सिद्धांत की व्याख्या विस्तार क
े साथ करते हुए मार्क्स
ने बताया कि 19वीं शताब्दी क
े प्रारंभ तक वैज्ञानिक आविष्कारों क
े परिणाम स्वरुप उत्पादन क
े
साधनों में नए-नए यंत्रों का काफी विस्तार हो चुका था। वस्तुओं क
े मूल्य सृजन में प्रयुक्त किए
जाने वाले यंत्रों का स्वामित्व एक छोटी से पूंजीपति वर्ग क
े हाथ में था। श्रमिक इन उपकरणों
और यंत्रों को क्रियाशील बनाए रखने का काम करते थे । पूंजी पति श्रमिकों की श्रम शक्ति का
क्रय करक
े उसे उपकरणों पर लगाता था और इस प्रकार पूंजीपति वस्तुओं क
े जिस विनिमय
मूल्य का सृजन करता था, वह मजदूरों को दिए गए वेतन तथा कारखाने की देखभाल में वह होने
वाली धनराशि से कहीं अधिक होता था। यही वृद्धि अतिरिक्त मूल्य कहलाती है जिसका सृजन
श्रमिकों क
े श्रम से होता है परंतु यह पूंजीपति वर्ग की जेब में जाता है। यह अतिरिक्त मूल्य न
चुकाए गए श्रम की उपज है।श्रमिक से औसत से अधिक श्रम समय तक काम लेने क
े कारण वस्तु
की विनिमय दर में जो वृद्धि होती थी, वह उसका अतिरिक्त मूल्य कहलाता था। इस अतिरिक्त
मूल्य को पूंजीपति कारखाने क
े लिए अन्य उपकरणों क
े क्रय में व्यय करता था। इन उपकरणों
क
े कारण उत्पादन में वृद्धि होती थी और श्रमिकों की मांग कम हो जाती थी। इससे मालिकों क
े
अतिरिक्त मूल्य में वृद्धि होती जाती थी ,क्योंकि अब मांग और पूर्ति क
े नियम क
े अनुसार
श्रमिकों को आजीविका क
े लिए न्यूनतम वेतन पर अधिक समय तक कार्य करने को विवश होना
पड़ता था । यह सामाजिक अन्याय की पराकाष्ठा थी । इस प्रकार मार्क्स का निष्कर्ष है कि
वस्तुओं का विनिमय मूल्य निर्धारित करने का एकमात्र साधन उसक
े उत्पादन में लगा मानव
श्रम है। अन्य तत्व जैसे- पूंजी , उपकरण, कच्चा माल आदि सब गौण है । उत्पादन क
े साधनों
क
े मालिक श्रमिकों को उनक
े श्रम की तुलना में न्यायोचित वेतन न देकर अतिरिक्त मूल्य की
सृष्टि करते हैं और उस अतिरिक्त मूल्य का विनियोजन स्वयं अपने ही लाभ क
े लिए करते हैं।
आलोचना-
● वर्तमान अर्थशास्त्री मूल्य क
े श्रम सिद्धांत को अस्वीकार करते हैं और अब यह धारणा
कि ‘श्रम ही मूल्य का सृजन करता है’, अमान्य हो चुकी है। वस्तुतः उत्पादित वस्तुओं क
े
मूल्य का निर्धारण उत्पादन क्रिया में लगी पूजी ,उपकरण ,यातायात, राज्य द्वारा लगाए
जाने वाले उत्पादन कर ,श्रम की क
ु शलता, उद्योग क
े संगठन आदि अनेक आधार पर
किया जाता है । निःसंदेह श्रम भी एक तत्व है ,किं तु वह एकमात्र तत्व नहीं है।
● उत्पादन प्रक्रिया की जटिलता तथा वैज्ञानिक विकास क
े कारण मानव श्रम की मात्रा का
ज्ञान क
े वल श्रम समय क
े आधार पर ही नहीं किया जा सकता। मानव श्रम का रूप भी
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  • 1. कार्ल मार्क्स का वैज्ञानिक समाजवाद https://image.slidesharecdn.com/marxiantheoryofeconomicdevelopment-18 0714074140/95/marxian-theory-of-economic-development-2-638.jpg?cb=153 1554836 द्वारा- डॉक्टर ममता उपाध्याय एसोसिएट प्रोफ े सर, राजनीति विज्ञान क ु मारी मायावती राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय बादलपुर, गौतम बुध नगर, उत्तर प्रदेश यह सामग्री विशेष रूप से शिक्षण और सीखने को बढ़ाने क े शैक्षणिक उद्देश्यों क े लिए है। आर्थिक / वाणिज्यिक अथवा किसी अन्य उद्देश्य क े लिए इसका उपयोग पूर्णत: प्रतिबंध है। सामग्री क े उपयोगकर्ता इसे किसी और क े साथ वितरित, प्रसारित या साझा नहीं करेंगे और इसका उपयोग व्यक्तिगत ज्ञान की उन्नति क े लिए ही करेंगे। इस ई - क ं टेंट में जो जानकारी की गई है वह प्रामाणिक है और मेरे ज्ञान क े अनुसार सर्वोत्तम है।
  • 2. उद्देश्य- ● समाजवादी दर्शन की जानकारी ● वैज्ञानिक समाजवाद का ज्ञान ● मार्क्सवादी सिद्धांतों की व्यवहार में क्रियान्विति का विश्लेषण ● शीत युद्ध उत्तर विश्व में मार्क्सवादी सिद्धांतों की प्रासंगिकता का विश्लेषण ● समसामयिक सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों क े संदर्भ में वैचारिक सृजन की क्षमता का विकास कार्ल मार्क्स 19वीं शताब्दी क े जर्मन दार्शनिक लेखक, सामाजिक सिद्धांतकार और अर्थशास्त्री हैं। समाजवादी चिंतन परंपरा में उनकी प्रसिद्धि पूंजीवाद एवं साम्यवाद क े संबंध में व्यक्त किए गए विचारों क े कारण है। अपने मित्र एंजिल्स क े साथ मिलकर 1848 में ‘कम्युनिस्ट मेनिफ े स्टो’ और बाद में ‘दास क ै पिटल’ की रचना उनक े द्वारा की गई जिसका प्रथम भाग 1867 में बर्लिन में प्रकाशित हुआ। दूसरा और तीसरा भाग मरणोपरांत 1885 एवं 1894 में प्रकाशित हुआ। यद्यपि समाजवादी चिंतन की परंपरा पुरानी है, किं तु मार्क्स ऐसे विचारक हैं जिन्होंने समाजवाद को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया और समाजवाद को एक क्रमबद्ध दर्शन क े रूप में प्रस्तुत करने क े साथ-साथ उसकी स्थापना हेतु एक ठोस कार्यक्रम भी सुझाया। उनका समाजवाद एक स्वप्नलोकीय विचारधारा मात्र न रहकर एक आंदोलन, कार्यक्रम तथा सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का एक सिद्धांत है। समाजवादी चिंतन की इन विशेषताओं क े कारण ही मार्क्स को वैज्ञानिक समाजवाद का जनक कहा जाता है। यद्यपि वर्तमान में वैश्विक जगत में समाजवाद क े ध्वजवाहक राष्ट्र सोवियत संघ क े पतन एवं विचारधारा की लड़ाई में पूंजीवाद की विजय ने मार्क्सवादी चिंतन की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाया है, किं तु फिर भी यह एक तथ्य है कि बीसवीं शताब्दी में मार्क्सवादी समाजवाद करोड़ों व्यक्तियों का धर्म बना और प्रायः सभी देश यह विश्वास करने लगे कि कल्याणकारी राज्य की स्थापना क े लिए मार्क्सवाद उत्तम मार्ग है। नेहरू ने मार्क्सवाद क े विषय में लिखा था कि ‘’मार्क्सवाद इतिहास ,राज्यशास्त्र, अर्थशास्त्र, मानव जीवन और आकांक्षाओं की पूर्ति की एक विधि है। यह सिद्धांत और कार्यक्रम क े लिए पथ प्रदर्शक है, यह एक दर्शन है जो मानव से संबंधित क्रियाओं की व्याख्या करता है तथा भूत, वर्तमान और भविष्य को एक तर्क शील प्रणाली द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयास है। ‘’ प्रेरणा एवं प्रभाव-
  • 3. मार्क्स क े चिंतन पर शास्त्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्रियों जैसे एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो का प्रभाव है। कार्ल मार्क्स क े विचारों का साम्यवादी समाजों जैसे -सोवियत संघ, चीन और क्यूबा पर व्यापक प्रभाव पड़ा। और उनक े चिंतन ने व्लादीमीर लेनिन और जोसेफ स्टालिन जैसे साम्यवादी नेताओं क े लिए सैद्धांतिक आधारशिला का कार्य किया। उनका यह विचार कि पूंजीवाद में अपने विनाश क े बीज निहित है और पूंजीवादी समाज में पूंजीपतियों का लाभ श्रमिकों क े श्रम क े शोषण पर आधारित है, समाजवादी दुनिया का एक अकाट्य सत्य बन गया। ‘’दुनिया क े मजदूरों एक हो जाओ क्योंकि तुम्हारे पास खोने क े लिए बंधनों क े अलावा और क ु छ नहीं है’’, मार्क्स का यह नारा निसंदेह दुनिया भर क े मजदूरों को संगठित करने का अचूक मंत्र बना। समसामयिक दौर में मार्क्सवाद को उसक े विशुद्ध रूप में अपनाने वाले पक्ष पोषकों की संख्या बहुत कम है और वास्तव में जब से 1898 में यूजन वन एवं बोआर्क जैसे अर्थशास्त्रियों ने मार्क्सवादी विचारो का अंग्रेजी में अनुवाद किया और यह प्रतिपादित किया कि मार्क्स पूंजीवादी बाजार और उसक े व्यक्ति निष्ठ मूल्यों को अपने विश्लेषण में सम्मिलित करने में विफल रहे, तब से मार्क्सवादी विचारों का अर्थशास्त्र क े क्षेत्र में प्रभाव कम हो गया है, किं तु मार्क्सवादी चिंतन में अभी बहुत से ऐसे विचार हैं जिनसे आधुनिक अर्थशास्त्री बहुत क ु छ सीख सकते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में लेनिन वाद , मार्क्सवादी लेनिनवाद, टाटास्कीवाद, माओवाद, उदारतावादी मार्क्सवाद क े रूप में मार्क्सवादी प्रवृत्तियां अब भी प्रबल है । अन्य विचारों क े साथ मार्क्सवाद का विश्लेषण करती हुई संरचनावादी मार्क्सवादी विचारधारा, ऐतिहासिक मार्क्सवाद, प्रघटनावादी मार्क्सवाद, विश्लेषण वादी मार्क्सवाद और हीगलवादी मार्क्सवाद क े रूप में मार्क्सवाद की जीवंतता अनुभव की जा सकती है। जीवन वृत्त- 5 मई 1818 को प्रशा क े ट्रायर में जन्मे मार्क्स एक सफल यहूदी वकील क े पुत्र थे, जिन्होंने मार्क्स क े जन्म से पूर्व ही लूथरवाद को अपना लिया था। बोन और बर्लिन मे कानून की पढ़ाई करने क े मार्क्स हीगल क े दर्शन से परिचित हुए एवं युवा हीगलवादी क े रूप में विद्यमान राजनीतिक धार्मिक संस्थाओं का विरोध किया । उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि जेना विश्वविद्यालय से 1841 में प्राप्त की। उनक े क्रांतिकारी विचारों ने प्राध्यापक पद को प्राप्त करने क े मार्ग में बाधा उपस्थित की ,अतः उन्होंने पत्रकार क े रूप में अपने क ै रियर को चुना और बाद में एक उदारवादी समाचार पत्र ‘Rheinische zeitung’’ क े संपादक बने।
  • 4. प्रशा को छोड़ने क े बाद मार्क्स ने फ्रांस में अपने जीवन क े क ु छ वर्ष व्यतीत किए जहां उनका परिचय अपने आजीवन मित्र फ्र े डरिक एंजेल से हुआ। फ्रांस से निष्कासन क े बाद भी क ु छ समय तक बेल्जियम में रहने क े बाद वे लंदन गए जहां उन्होंने अपने जीवन का शेष भाग व्यतीत किया। 1883 में वही ब्रोंकाइटिस एवं पलोरिसी से उनकी मृत्यु हुई। मार्क्सवादी सिद्धांत- मार्क्स क े समाजवादी विचार उनक े प्रमुख ग्रंथों ‘ कम्युनिस्ट मेनिफ े स्टो’ और ‘दास क ै पिटल’ में मिलते हैं जिन पर जर्मन उग्र दार्शनिकों, ब्रिटिश अर्थशास्त्रियों एवं फ्रांसीसी क्रांति क े समाजवादी विचारों का प्रभाव दिखाई देता है। मार्क्सवादी विचारधारा एक अविभाज्य इकाई है जिसक े सैद्धांतिक और व्यावहारिक दो पक्ष हैं। मार्क्सवादी समाजवाद क े निर्माण कारी सिद्धांतों को निम्नांकित शीर्षकों में रखा जा सकता है। प्रत्येक शीर्षक अगले क े लिए आधार प्रस्तुत करता है। - ● द्वंद्वात्मक भौतिकवाद [Dialectical Materialism] ● इतिहास की आर्थिक व्याख्या [ economic explanation of history] ● अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत [ theory of Surplus Value] ● वर्ग संघर्ष का सिद्धांत और पूंजीवाद [Theory of class struggle and capitalism] ● सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद [ Dictatorship of Proletariat] ● साम्यवादी समाज [ communist society] 1. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्क्स क े संपूर्ण दर्शन का आधार द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है। साम्यवाद क े स्वरूप का विश्लेषण करने क े उद्देश्य से मार्क्स ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद दो शब्दों का सम्मिश्रण है- द्वन्द्व वाद और भौतिकवाद। द्वन्द्ववाद अंग्रेजी शब्द ‘डायलेक्टिसिज़्म’जो यूनानी भाषा क े डायलॉग शब्द से बना है, का हिंदी अनुवाद है। इसका अर्थ होता है- वाद विवाद करना। वाद विवाद में एक दूसरे का विरोध होता है। यह विकास की प्रक्रिया को इंगित करता है। ‘भौतिकवाद’ शब्द सृष्टि का मूल है। मार्क्स ने द्वंद की प्रक्रिया को हीगल
  • 5. क े दर्शन से ग्रहण किया था, किं तु इस सिद्धांत की व्याख्या अपने भौतिकता वादी विचारों क े आधार पर की। मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद क े निम्नांकित नियम बताए- ● सृष्टि का मूल पदार्थ है, विश्वात्मा नहीं- मार्क्स क े पूर्व हीगल ने सृष्टि का आधार देवी मन या विवेक को माना था जिसे विश्वात्मा का नाम दिया था। उसक े अनुसार ‘’जो विवेक संगत है, वही वास्तविक है और जो वास्तविक है ,वही विवेक संगत है। ‘’ इसक े विपरीत मार्क्स का मत है कि भौतिक जगत जिसका अनुभव हमारी इंद्रियां करती हैं, वही वास्तविकता है। सृष्टि और मानव समाज का निर्माण इन्हीं भौतिक वस्तुओं से होता है, अतः उसे समझने क े लिए आत्मा या विवेक सदृश मृग मरीचिका क े पीछे नहीं दौड़ना चाहिए। इस प्रकार मार्क्स का दर्शन हेगल क े नितांत विपरीत है। मार्क्स क े शब्दों में,’’ मैंने हीगल क े दर्शन को सिर [ आत्मा या मस्तिष्क] क े बल पर खड़ा पाया, मैंने उसे पैरों क े बल [ पृथ्वी पर] खड़ा कर दिया। ‘’ ● प्रकृ ति का प्रत्येक पदार्थ परस्पर संबद्ध ,गतिशील तथा परिवर्तनशील है- मार्क्स की दृष्टि में विश्व स्वतंत्र वस्तुओं का आकस्मिक पुंज नहीं है, बल्कि एक समग्र है तथा उसमें निहित विभिन्न वस्तुएं आपस में जुड़ी हुई है। किसी वस्तु या घटना को उसक े वातावरण से अलग करक े नहीं समझा जा सकता। जैसे - पूंजीवाद को समझने क े लिए उसक े जन्म क े समय की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक ,धार्मिक, नैतिक परिस्थितियों का ज्ञान आवश्यक है। पदार्थ की एक विशेषता उसका गतिशील एवं परिवर्तनशील होना है। परिवर्तन की प्रक्रिया में क ु छ वस्तुओं का निर्माण होता है ,तो क ु छ वस्तुएं नष्ट होती है। एंजिल्स क े शब्दों में,’’ समस्त प्रकृ ति की छोटी वस्तु से लेकर बड़ी वस्तु तक- बालू कण से लेकर सूर्य पिंड तक - सभी एक निरंतर स्थिति में, एक निरंतर प्रवाह में अनवरत गति तथा परिवर्तन की स्थिति में है। ‘’ ● प्रकृ ति में अंतर्विरोध एवं अंतर्द्वंद क े आधार पर पदार्थों का विकास होता है- मार्क्स की मतानुसार द्वंद क े नियम क े अनुसार प्रत्येक पदार्थ में एक आंतरिक विरोध होता है जो ऊपरी तौर पर दिखाई नहीं देता। जैसे- लकड़ी में दो परस्पर विरोधी गुण
  • 6. कड़ापन एवं नरमी पाए जाते हैं जिनक े कारण ही वह उपयोग में लाए जाने योग्य बनती है। परस्पर विरोधी गुणों की उपस्थिति क े कारण ही नए पदार्थ या नई व्यवस्था का जन्म होता है जो पहले क े बिल्क ु ल विपरीत विशेषताओं से युक्त होती है । इन दोनों अवस्थाओं को मार्क्स ने ‘वाद’ और ‘प्रतिवाद’ का नाम दिया है । कालांतर में इस प्रतिवाद में भी अंतर्विरोध उत्पन्न होता है और एक नई व्यवस्था उत्पन्न होती है जिसे ‘संवाद’[ synthesis ] कहते हैं। परिवर्तन की इस प्रक्रिया को मार्क्स ने गेहूं क े दाने क े उदाहरण से स्पष्ट किया है। उनक े अनुसार यदि हम गेहूं क े दाने क े द्वंद का पता लगाएं तो दिखाई पड़ता है कि उसका विकास हो रहा है । गेहूं का बीज ‘वाद’ है तो पौधा उसका ‘प्रतिवाद’ है और पौधे का नष्ट होकर नए दाने को जन्म देना संश्लेषण या ‘संवाद’ है। विकास का यही सिद्धांत द्वंदवादी भौतिकवाद कहलाता है। ● परिवर्तन मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों होता है- मार्क्स क े विचार अनुसार द्वंद का एक नियम यह है कि विकास क्रम में पदार्थ की मात्रा में अंतर आने क े साथ-साथ उसक े गुण में भी अंतर आ जाता है। किसी वस्तु में अधिक मात्रा में परिवर्तन होने पर ही गुणों का स्पष्ट अंतर भी दिखाई देता है। यदि हम पानी को 100 डिग्री सेंटीग्रेड तक गर्म करते हैं तो उसकी भाप बन जाएगी। पानी और भाप दोनों क े गुणों में अंतर है ,अतः यह गुणात्मक परिवर्तन है। ● द्वंद्ववाद क े आधार पर पूंजीवाद का अंत एवं समाजवाद की स्थापना होगी- द्वंद क े नियम को सामाजिक क्षेत्र में लागू करते हुए मार्क्स ने यह प्रतिपादित किया कि पूंजीवाद क े शोषणकारी स्वरूप क े स्थान पर साम्यवादी समाज की स्थापना होगी। उनका विश्वास था कि पूंजीवाद अपने भीतर अपने पतन क े बीच स्वयं इस तरह बोता है कि इसका ‘प्रतिवाद’ हो जाता है। अर्थात पूंजीपति वर्ग और उसक े शत्रु श्रमिक वर्ग में संघर्ष हो जाता है और संवाद क्रिया क े फल स्वरुप एक नए वर्ग विहीन ,राज्य विहीन समाज की स्थापना होती है। मार्क्स की मान्यता है कि इतिहास क े प्रत्येक युग में दो या अधिक व्यक्तियों एवं वर्गों क े मध्य आंतरिक विरोध रहा है। इतिहास की घटनाओं को देखने पर यह प्रतीत होता है इस विरोध में आर्थिक शक्तियां ही द्वंद का काम करती थी। अब यह आंतरिक विरोध पूंजीवाद और श्रमिक वर्ग में हो रहा है । पूंजीवाद का अंत अवश्य होगा और फिर समाजवाद की स्थापना होगी। मार्क्स द्वंद्वात्मक भौतिकवाद क े तीसरे नियम अर्थात संवाद या संश्लेषण को क्रांति क े रूप में लागू करना चाहते हैं और यह मानते हैं कि मात्रात्मक धीमी गति से परिवर्तन की अपेक्षा
  • 7. गुणात्मक और तीव्र गति से परिवर्तन वांछित है श्रमिक वर्ग धीरे-धीरे अपनी उन्नति नहीं कर सकता उसे सहसा परिवर्तन लाने क े लिए हिंसक क्रांति का सहारा लेना होगा और इस प्रकार क्रांति सर्वथा उचित और न्यायसंगत है। निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि मार्क्स क े अनुसार द्वन्द्ववादी भौतिकवाद का वाद ,प्रतिवाद और संश्लेषण आर्थिक वर्ग है, विचार नहीं और जिस लक्ष्य की ओर मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की तरफ कदम बढ़ाए जाने की बात कही वह एक ऐसे समाज की स्थापना है जिसमें न कोई वर्ग भेद होगा और न कोई शोषण । यह अंतिम संश्लेषण होगा जिसमें से प्रतिवाद का जन्म नहीं होगा । वर्ग विहीन समाज की स्थापना क े साथ अंतर्विरोध की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया रुक जाती है, ऐसी मार्क्स की मान्यता है। आलोचना- वेपर क े अनुसार द्वंदवाद की धारणा अत्यंत गूढ़ एवं अस्पष्ट है। आलोचकों ने निम्नांकित आधारों पर मार्क्स क े द्वंद वादी सिद्धांत की आलोचना की है- 1. मार्क्स क े विचारों से यह प्रतीत होता है कि पदार्थ चेतना युक्त होते हैं और अपने विरोधी तत्व को जन्म देकर अपना विकास करते हैं, किं तु वास्तविकता यह है कि पदार्थ में परिवर्तन बाहरी शक्तियों क े द्वारा किए जाते हैं । साथ ही यह भी नहीं माना जा सकता कि पदार्थ का विकास विरोधी तत्वों में संघर्ष क े द्वारा होता है। 2. मार्क्स ने हीगल क े द्वन्द्ववाद में परिवर्तन कर वैचारिक शक्तियों क े स्थान पर भौतिक शक्तियों को महत्व दिया है, किं तु यह नहीं स्पष्ट कर सक े कि क ै से आर्थिक शक्तियां वैचारिक शक्तियों से अधिक सही है। मानव सभ्यता क े सर्वकालिक विकास को ध्यान में रखने पर यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य का उद्देश्य सदैव क े वल भौतिक समृद्धि ही नहीं रहा। यद्यपि यह सही है कि आधुनिक युग में विकास की गति बहुत क ु छ अंशों में भौतिकता की ओर है ,किं तु इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि विश्व क े विकास की दिशा एक बार पुनः आदर्शवाद या अध्यात्मवाद की ओर उन्मुख होगी। 3.मार्क्स क े विचारानुसार साम्यवादी समाज की स्थापना क े लिए हिंसक क्रांति आवश्यक है , किं तु क्रांति को अनिवार्य मानना युक्तिसंगत नहीं है। मनुष्य एक चेतन शील प्राणी है, वह अपनी आत्मा और उसक े विकास क े रहस्य से परिचित है ,अतः वह समाज में परिवर्तन अहिंसात्मक ढंग से ला सकता है ।
  • 8. 4. संघर्ष मानव जीवन की उपलब्धियों में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, किं तु उसे एक विश्वव्यापी कानून मानना या ऐतिहासिक विकास में उसे चालक शक्ति का दर्जा देना अनु अनुपयुक्त एवं अनावश्यक है। हंट ने इस संबंध में उचित ही लिखा है कि ‘’यद्यपि द्वन्द्ववाद हमें मानव विकास क े इतिहास में मूल्यवान क्रांतियों क े दर्शन कराता है, लेकिन मार्क्स का यह दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता कि सत्य का अनुसंधान करने की यही एकमात्र पद्धति है। ‘’ इन आलोचनाओं क े बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मार्क्स ने द्वन्द्ववादी भौतिकवाद क े रूप में एक विशुद्ध वैज्ञानिक पद्धति प्रदान की और उसी क े आधार पर समाज वाद को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया। 2. इतिहास की आर्थिक व्याख्या मार्क्सवादी समाजवाद की श्रृंखला में दूसरा सिद्धांत इतिहास की आर्थिक व्याख्या है जो वस्तुतः द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का ही निष्कर्ष है। इतिहास परिवर्तन का साक्षी है और यह परिवर्तन कभी धीमी गति से हुआ है तो कभी शीघ्रता से। दार्शनिकों क े सामने यह प्रश्न सदैव से विद्यमान रहा है कि सामाजिक परिवर्तन क्यों होते हैं तथा इनका रहस्य क्या है । बहुत समय तक इसका उत्तर यह रहा है और ज्यादातर आज भी है कि प्राकृ तिक जगत व मानव समाज दोनों में ही परिवर्तन ईश्वरीय इच्छा क े परिणाम स्वरुप होते हैं। इस संबंध में एक विचार यह भी रहा है कि सभी प्रकार क े परिवर्तन विभिन्न महापुरुषों, सुधारको और राजनीतिज्ञों आदि क े विचारों और उ+नक े प्रयत्नों क े परिणाम स्वरूप होते हैं । मार्क्स ने इस प्रकार क े परिवर्तन क े विषय में प्रचलित सभी मतों को अवैज्ञानिक मानते हुए अस्वीकार किया और मानवीय समाज क े विकास की व्याख्या द्वंद्ववादी भौतिकवाद क े आधार पर की, जिसे इतिहास की आर्थिक व्याख्या अथवा ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा जाता है। इतिहास क े निर्माण में भौतिक या आर्थिक परिस्थितियों की महत्वपूर्ण भूमिका- मार्क्सवादी चिंतन का सार क ें द्रीय तत्व है । मार्क्स की मान्यता कि मानव इतिहास क े निर्माण में भौतिक परिस्थितियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इतिहास का निर्माण किसी देवी इच्छा क े अनुसार नहीं होता, बल्कि आर्थिक परिस्थितियों क े अनुसार होता है और इस परिवर्तन क े क ु छ निश्चित वस्तुगत नियम है। जैसी भौतिक परिस्थितियां होती है उसी क े अनुरूप समाज का
  • 9. सामाजिक और राजनीतिक संगठन, कानून, धर्म, नैतिकता, मूल्य व मान्यताएं होती है । जब इन परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाता है तो संपूर्ण सामाजिक जीवन में परिवर्तन हो जाता है। इसे ‘आधार और संरचना का सिद्धांत’ भी कहा जाता है। भौतिक परिस्थितियां आधार का कार्य करती हैं और उसी आधार पर सामाजिक, राजनीतिक, नैतिक संरचना का निर्माण होता है। भौतिक या आर्थिक परिस्थितियों में मार्क्स ने उत्पादन की विधि, उत्पादन क े साधन ,समाज की उत्पादक शक्ति और उत्पादन संबंधों को सम्मिलित किया है। इन विचारों क े आधार पर मार्क्स ने अब तक क े सामाजिक विकास को परिभाषित करते हुए उत्पादन शक्ति और उत्पादन संबंधों की दृष्टि से सामाजिक विकास क े निम्नांकित युगों की बात कही है- ● आदिम साम्यवादी युग- मानव इतिहास की प्रारंभिक अवस्था को मार्क्स ने आदिम साम्यवादी युग का नाम दिया है क्योंकि उस समय मनुष्य की आर्थिक गतिविधियां सीमित थी । जीवन सरल तथा मनुष्य क े पास किसी प्रकार की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं थी। प्रकृ ति की प्रत्येक वस्तु पर सब का समान रूप से अधिकार था और प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकतानुसार प्रकृ ति से ग्रहण करता था तथा अपनी क्षमता क े अनुसार कार्य करता था। परस्पर किसी प्रकार का अंतर्विरोध नहीं था और न ही कोई शोषक था ,न शोषित। समाज में सब का स्थान समान था, इसलिए यह अवस्था साम्यवादी अवस्था थी। चूँकि प्रकृ ति से क ं दमूल फल इकट्ठा करने एवं शिकार करने क े लिए मनुष्य को एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमना पड़ता था, इसलिए संगठित समाज का कोई स्वरूप अस्तित्व में नहीं आया था। ● दास युग- सामाजिक विकास की दूसरी अवस्था को मार्क्स ने दास युग की संज्ञा दी है । आदिम साम्यवादी युग से दास युग में मनुष्य का प्रवेश आर्थिक गतिविधियों में परिवर्तन क े कारण हुआ । आखेट क े स्थान पर कृ षि आजीविका का साधन बनी और कृ षि द्वारा होने वाली उपज का संचय किया जाने लगा जिससे कृ षि भूमि क े स्वामित्व की प्रथा का सृजन हुआ। अब जिस समाज क े लोग दूसरों से युद्ध करक े विजई होते थे वे पराजित लोगों को मारने की अपेक्षा उन्हें पकड़कर दास बना लेते थे और उन्हें कृ षि कार्यों में लगाते थे । इस युग में समाज में 2 वर्ग दिखाई दिए -मालिक और दास । मालिक वर्ग दासों क े श्रम का उपभोक्ता बन गया और समाज का नियमन मालिक वर्ग क े वह लोग करने लगे जो
  • 10. सर्वाधिक शक्तिशाली या सबसे ज्यादा भू- संपत्ति क े स्वामी थे । यह समाज दास मूलक समाज था जिसक े अंतर्गत दास- वर्ग शोषित था और अपनी मुक्ति क े लिए प्रयत्नशील था। ● सामंतवादी युग - मार्क्स क े विचारानुसार दास युग में दो वर्गों क े मध्य संघर्ष ने एक नई सामाजिक सामंतवादी व्यवस्था को जन्म दिया । जब कृ षि अर्थव्यवस्था विकसित होकर उत्पादन का प्रधान साधन बन गई तो समाज क े नेता अर्थात राजा संपूर्ण भूमि क े स्वामी बन गए। वे कृ षि भूमि को सामंतों को संविदा क े आधार पर देने लगे । यह सामंत उप सामंतों को और उप सामंत छोटे किसानों को इसी प्रकार भूमि का बटवारा करने लगे। इस युग में छोटे किसान शोषण का शिकार हुए जिन्हें मार्क्स ने अर्ध दास कहा है। ● पूंजीवादी युग- मानव सभ्यता क े विकास क्रम में सामंतवादी युग क े बाद पूंजीवादी युग का आगमन हुआ, जो औद्योगिक अर्थव्यवस्था क े विकास का परिणाम था। सामंती युग क े अर्ध दासों ने अब दस्तकारी क े द्वारा कृ षि क े औजार और अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएं बनानी शुरू कर दी। बड़ी-बड़ी मशीनों और कल- कारखानों क े विकास से वस्तुओं का उत्पादन इतनी अधिक मात्रा में होने लगा कि उनक े व्यापार और विनिमय की आवश्यकता अनुभव हुई। परिणामतः समाज का स्वरूप कृ षि अर्थव्यवस्था तक सीमित न रहकर उद्योग तथा व्यापार मूलक समाज में बदल गया। इस युग में भी व्यापारिक वस्तुओं क े उत्पादन का कार्य श्रमिक वर्ग ही करता था, किं तु उत्पादन क े साधनों पर उसका स्वामित्व नहीं था। शारीरिक श्रम का महत्व कम होने लगा और उसका स्थान मशीनों ने ले लिया। मशीनों क े कारण श्रमिकों की मांग कम हो गई और उन्हें कम मजदूरी पर ही अपनी आजीविका ढूंढने को विवश होना पड़ा। उद्योगों क े मालिक पूंजीपति उनसे अधिक समय तक श्रम लेने लगे किं तु मजदूरी कम ही देते थे। उन्हें भारी बेरोजगारी का भी सामना करना पड़ा। इस प्रकार पूंजीवादी व्यवस्था क े अंतर्गत शोषक पूंजीपति तथा शोषित मजदूर वर्गों का उदय उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन का ही परिणाम था। ● सभ्यता क े विकास का अगला और अंतिम चरण साम्यवादी समाज होगा- मार्क्स क े विचारानुसार उत्पादन शक्तियों में परिवर्तन का क्रम जारी रहेगा और द्वंद क े नियम क े अनुसार पूंजीवादी समाज भी परिवर्तित होगा। उसमें यह परिवर्तन शोषित मजदूर- वर्ग में वर्ग चेतना आने क े साथ होगा। मजदूर संगठित होंगे और वे पूंजीपतियों क े विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष
  • 11. करेंगे जिसमें विजय उन्हें ही मिलेगी। मार्क्स ने आह्वान किया कि ‘’दुनिया क े मजदूरों एक हो जाओ क्योंकि तुम्हारे पास खोने क े लिए बंधनों क े अलावा और क ु छ नहीं है। ‘’ पूंजीवादी व्यवस्था में वर्ग संघर्ष क े परिणाम स्वरूप एक वर्ग विहीन समाज की स्थापना होगी, ऐसी मार्क्स ने कल्पना की। किं तु इससे पहले एक संक्रांति काल होगा जिसमें सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद स्थापित होगा। उत्पादन क े सभी साधनों का समाजीकरण होगा । तत्पश्चात वर्ग विहीन, राज्य विहीन समाज की स्थापना होगी। ऐसा समाज साम्यवादी समाज होगा जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता क े अनुसार कार्य करेगा और आवश्यकता क े अनुसार लाभ प्राप्त करेगा। इस संबंध में मार्क्स का विचार यह है कि साम्यवादी समाज पर आकर द्वंद का नियम रुक जाएगा। यह अंतिम संश्लेषण [Synthesis ] होगा। इसमें से पुनः प्रतिवाद [ Antithesis] का जन्म नहीं होगा । आलोचना- यद्यपि मार्क्स ने तार्कि क ढंग से यह प्रस्तुत करने का प्रयास किया कि आर्थिक शक्तियां ही समाज क े स्वरूप को निर्धारित करती हैं, किं तु आलोचकों ने मार्क्स की इतिहास की आर्थिक व्याख्या की निम्नांकित आधारों पर आलोचना की है- ● मार्क्स क े इस कथन में अतिशयोक्ति है कि सामाजिक ,राजनीतिक परिवर्तन क े वल आर्थिक कारकों क े कारण ही होते हैं और समस्त मानवीय प्रयत्नों की व्याख्या क े वल इसी एक तत्व क े आधार पर की जा सकती है. वास्तविकता यह है कि धर्म, अर्थ, नीति, दर्शन, मानवीय भावनाएं, व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा आदि सभी तत्व समान रूप से महत्वपूर्ण है तथा सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करते हैं। बट्रेंड रसैल ने इस संबंध में लिखा है कि ‘’हमारे राजनीतिक जीवन की बड़ी-बड़ी घटनाएं भौतिक अवस्था और मानवीय मनोभावों क े घात प्रतिघात द्वारा निर्धारित होती हैं। राजप्रासाद में होने वाले षड्यंत्र, प्रपंच, व्यक्तिगत राग - द्वेष तथा धार्मिक विरोध ने अतीत में इतिहास क े क्रम में बड़े-बड़े परिवर्तन किए हैं। ‘’ ● मार्क्स ने अपने समाजवादी सिद्धांत क े विवेचन में मानव तत्व की पूर्ण उपेक्षा की है, जबकि मनुष्य सामाजिक परिवर्तन में क ें द्रीय भूमिका अदा करता है। पॉपर क े शब्दों में, ‘’ मार्क्स इतिहास क े मंच पर मानव अभिनेताओं को चाहे वे कितने ही बड़े क्यों न हो, कठपुतली मात्र समझता था जो आर्थिक डोरियों से निर्विरोध रूप से खींचती हैं। वे ऐसी
  • 12. ऐतिहासिक शक्तियों क े हाथ में खिलौना मात्र हैं जिनक े ऊपर उनका कोई नियंत्रण नहीं है । इतिहास का मंच एक सामाजिक प्रणाली में जिससे हम सब बंधे हुए हैं, बना हुआ है। ‘’ ● इतिहास की आर्थिक व्याख्या देते समय मार्क्स ने धर्म को अत्यंत निम्न स्थान प्रदान किया है। उसने धर्म को एक झूठी सांत्वना तथा अफीम का नशा माना है, लेकिन वह भूल जाता है कि मनुष्य में उच्चतम आध्यात्मिक मूल्यों क े विकास क े लिए धर्म ही एकमात्र आधार है। मानव समाज को अनुशासित रखने में धर्म की ऐतिहासिक भूमिका रही है। ● आलोचकों की दृष्टि में मार्क्स द्वारा की गई इतिहास की आर्थिक व्याख्या तार्कि क दृष्टि से भी उचित नहीं है । उसने द्वन्द्ववादी प्रक्रिया क े तीन चरणों क े रूप में जिन व्यवस्थाओं की कल्पना की, उनसे लगता है कि प्रत्येक व्यवस्था का अपना अलग आरंभ और अंत है और प्रत्येक नई व्यवस्था पूर्व की व्यवस्था का प्रतिवाद या संवाद होने क े कारण उसकी विरोधी या उससे श्रेष्ठतर है। किं तु यह धारणा भ्रामक है। इतिहास एक क्रमबद्ध श्रृंखला है जिसक े आरंभ और अंत का सही निर्णय करना कठिन है। कभी-कभी नया युग पूर्व क े युग की अपेक्षा अधिक बुरा या विनाशकारी भी सिद्ध हुआ है। ● वेपर की मान्यता है कि वर्ग- संघर्ष क े आधार पर इतिहास का काल विभाजन करना भी त्रुटिपूर्ण है । मार्क्स ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया कि पूंजीवाद का विकास क े वल पश्चिमी यूरोप में ही क्यों हुआ? ● मार्क्स का यह कथन कि ऐतिहासिक विकास क े पूंजीवादी युग में पूंजीपति और श्रमिक वर्ग क े मध्य कटुता बढ़ती जाएगी, पूंजीपति अधिक धनी और श्रमिक अत्यधिक निर्धन होते जाएंगे, तथ्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश में श्रमिक वर्ग की दशा में अत्यधिक सुधार हुआ है और वह निर्धन होने क े बजाय अत्यधिक धन अर्जित करने लगा है। ● मार्क्स क े इस विचार में पूर्वाग्रह लगता है कि इतिहास की धारा राज्य विहीन समाज पर जाकर रुक जाएगी। आलोचकों का प्रश्न है कि क्या साम्यवादी व्यवस्था में पदार्थ का अंतर्निहित गुण गतिशीलता बदल जाएगा? यदि गतिशीलता स्वाभाविक है तो यह भी आवश्यक है कि वाद, प्रतिवाद और संवाद की प्रक्रिया क े द्वारा समाजवादी व्यवस्था में भी परिवर्तन होगा। मार्क्स इस विषय में मौन है। उपर्युक्त आलोचनाओं क े बावजूद यह स्वीकार करना होगा कि मार्क्स ने सामाजिक संस्थाओं क े आर्थिक कारको पर बल देकर राजनीति विज्ञान की महान सेवा की है ।
  • 13. इतिहास की आर्थिक व्याख्या क े द्वारा मार्क्स ने यह स्पष्ट कर दिया कि टेक्नोलॉजी, आवागमन क े साधन, कच्ची सामग्री एवं संपत्ति क े वितरण, सामाजिक वर्गों क े निर्माण, प्राचीन और वर्तमान राजनीति ,विधि और नैतिकता तथा सामाजिक आदर्शों क े निर्माण में आर्थिक शक्तियों ने व्यापक प्रभाव डाला है। वर्तमान वैश्वीकरण क े दौर में भी आसानी से देखा जा सकता है कि क ै से आर्थिक शक्तियां जीवन क े प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित कर रही हैं। बाजार अर्थव्यवस्था क े अनुरूप स्वयं को विकसित करना ही मनुष्य का एकमात्र लक्ष्य बन गया है। ऐसे में मार्क्स की प्रासंगिकता बनी हुई है। 3. वर्ग संघर्ष एवं पूंजीवाद का सिद्धांत वर्ग -संघर्ष का सिद्धांत मार्क्सवादी समाजवाद की आत्मा है। वास्तविकता तो यह है कि वर्ग संघर्ष द्वारा पूंजीवाद क े अंत और साम्यवाद की स्थापना क े लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही मार्क्स ने अन्य सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। मार्क्स की वर्ग संघर्ष की धारणा को निम्नांकित शीर्षकों में व्यक्त किया जा सकता है- ● इतिहास दो वर्गों का संघर्ष है- इतिहास की आर्थिक व्याख्या प्रस्तुत कर मार्क्स ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि अब तक का मानव सभ्यता का इतिहास वर्ग- संघर्ष का इतिहास है। इतिहास क े प्रत्येक युग में 2 वर्ग वजूद में रहे हैं- एक साधन संपन्न वर्ग और दूसरा साधन विहीन वर्ग। एक वर्ग श्रमजीवी रहा है तो दूसरा उसका लाभ उठाता रहा है। मार्क्स क े शब्दों में,’’ अब तक क े समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है। स्वतंत्र व्यक्ति व दास, क ु लीन व जनसाधारण, जागीरदार व रूपत, प्रतिष्ठानों क े मालिक व कारीगर- एक शब्द में शोषक और शोषित सदा एक दूसरे क े विरोध में खड़े होकर कभी खुले तथा कभी छिपे रूप में संघर्ष करते रहे हैं, जिसक े परिणाम स्वरूप हर बार या तो व्यापक रूप से समाज का क्रांतिकारी पुनर्निर्माण होता रहा है अथवा प्रतियोगी वर्गों का सामान्य विनाश होता रहा है। ‘’ सभ्यता क े प्रत्येक युग में चाहे वह दास युग रहा हो,सामंती युग या पूंजीवादी युग सब में किसी न किसी आर्थिक वर्ग की प्रधानता थी। शोषित वर्ग अपने स्वामी क े साथ संघर्ष करता था और जब उसे सफलता मिल जाती थी तो वह दूसरे वर्ग का शोषण करता था। यह क्रम चलता रहता है।
  • 14. ● वर्तमान युग दो वर्गों में स्पष्ट विभाजित है- मार्क्स जिस युग का दार्शनिक था अर्थात 18- 19 वी शताब्दी वह दो वर्गों में स्पष्ट रूप से विभाजित थी जिनमें आपस में संघर्ष चल रहा था। यह वर्ग थे -पूंजीपति वर्ग और श्रमिक वर्ग। पूंजीपति वर्ग वह था जिसका उत्पादन क े साधनों अर्थात भूमि, कारखानों, कच्ची सामग्री तथा पूंजी पर स्वामित्व है और श्रमिक वर्ग वह है जो अपना श्रम बेचकर जीवन निर्वाह करता है। पूंजीपति वर्ग श्रमिक वर्ग का शोषण करता है जिसक े कारण वर्ग संघर्ष होता है। ● दोनों वर्ग परस्पर निर्भर हैं- मार्क्स का मत है कि यद्यपि दोनों वर्गों में संघर्ष चलता रहता है किं तु दोनों वर्ग एक दूसरे पर इतने ज्यादा निर्भर होते हैं कि एक क े बिना दूसरा नहीं रह सकता। यदि मजदूर वर्ग कार्य न करें तो पूंजीपतियों क े बड़े-बड़े कारखाने बेकार हो जाएंगे, जमीदार को किसान न मिले तो उनक े खेतों में उपज नहीं होगी और इसी प्रकार यदि मजदूरों को काम न मिले तोवे बेरोजगार हो जाएंगे। दोनों को एक दूसरे की आवश्यकता है, किं तु फिर भी दोनों क े हितों में विरोध है। ● दोनों वर्गों क े हित परस्पर विरोधी हैं- यदि दोनों वर्ग एक दूसरे पर निर्भर हैं किं तु मार्क्स यह मानते हैं कि एक वर्ग को लाभ तभी मिलता है जब वह दूसरे को हानि पहुंचाए। पूंजीपति वर्ग मजदूरों को कम से कम वेतन देकर अधिक से अधिक काम लेना चाहता है। इसक े विपरीत श्रमिक वर्ग यह चाहता है कि उसे कम से कम काम करना पड़े और अधिक से अधिक मजदूरी मिले। हितों में इस विरोध क े कारण वर्ग संघर्ष प्रारंभ होता है। शोषकों क े प्रति विद्रोह की भावना इतनी अधिक हो जाती है कि श्रमिक अपने मालिकों को नष्ट करने क े लिए संगठित हो जाते हैं और इस प्रकार दोनों वर्गों में कभी न समाप्त होने वाला संघर्ष स्थाई रूप ले लेता है। ● वर्ग संघर्ष में शोषित वर्ग को अधिक हानि होती है- वर्ग संघर्ष की धारणा में मार्क्स ने यह भी प्रतिपादित किया कि जब दोनों वर्गों में संघर्ष प्रारंभ होता है तो इसका सबसे अधिक नुकसान श्रमजीवी वर्ग को उठाना पड़ता है। श्रमिक वर्ग प्रतिदिन परिश्रम करक े जीवन निर्वाह करता है । उसे काम देने वाला भी जल्दी नहीं मिलता है। श्रम का संग्रह नहीं किया जा सकता। वह तात्कालिक रूप से नष्ट हो जाने वाला होता है, अतः बेरोजगारी की स्थिति में श्रमिक भूखों मरने लगते हैं, जबकि पूंजीपति वर्ग को ऐसी किसी परिस्थिति का सामना नहीं करना पड़ता। एंजिल्स ने लिखा है,’’ श्रमजीवी वर्ग समाज का वह वर्ग है जिसे अपने जीविकोपार्जन क े लिए पूर्ण रूप से अपने श्रम क े विक्रय पर निर्भर होना
  • 15. पड़ता है ,न कि पूंजी क े द्वारा प्राप्त लाभ पर। उसका सुख- दुख, जीवन- मरण और उसका संपूर्ण अस्तित्व उसक े श्रम की मांग पर निर्भर होता है। श्रमिक भूखे पेट अथवा बिना मजदूरी क े न रहने क े कारण मजबूरी में पूंजी पतियों क े आगे झुक जाता है। इस प्रकार व पूंजीपतियों क े हाथों में शोषण एवं दमन क े लिए अपने आप को सौंप देता है। श्रमिकों की इस स्थिति का लाभ उठाकर पूंजीपति उसका शोषण करते हैं। शोषित वर्ग को जब भी इसका ज्ञान होता है, तो उसकी आत्मा विद्रोह करने क े लिए तड़प उठती है’’। ● मालिक वर्ग समाज व राजनीतिक व्यवस्था को नियंत्रित करते हैं- मार्क्स की मान्यता है कि समाज में संपत्तिवान वर्ग क े द्वारा अपनी संपत्ति क े बल पर न क े वल संपत्ति विहीन वर्ग पर नियंत्रण रखा जाता है, बल्कि वे सामाजिक, वैधानिक तथा राजनीतिक संस्थाओं को भी इस प्रकार प्रभावित करते हैं जिससे उनक े शोषण का उद्देश्य पूरा होता रहे। लास्की ने इस संबंध में लिखा है कि ‘’ वे सामाजिक हित और अपनी सुरक्षा को एक रूप समझते हैं। अपने ऊपर आक्रमण करने वालों को वे राजद्रोह क े अपराध का दंड देंगे। शिक्षा ,न्याय, धार्मिक उपदेश आदि सबको उन्हीं क े हितों की पूर्ति क े लिए ढाला जाता है। यह भली-भांति समझ लेना चाहिए कि सामाजिक लाभ में संपत्ति विहीन वर्ग को वंचित रखने का वे जानबूझकर कोई प्रयत्न नहीं करते, यह तो भौतिक पर्यावरण क े प्रति क े वल स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। किं तु संपत्ति क े अधिकारों से वंचित वर्ग भी स्वाभाविक रूप से उन में भाग लेना चाहता है, अतः प्रत्येक समाज में उसक े नियंत्रण क े लिए वर्गों क े मध्य संघर्ष उत्पन्न हो जाता है। ‘’ 4. पूंजीवाद का स्वरूप एवं वर्ग- संघर्ष द्वारा उसका अंत वर्ग संघर्ष क े सिद्धांत का प्रतिपादन तत्कालीन पूंजीवादी व्यवस्था क े स्वरूप का विश्लेषण करने क े लिए किया एवं औद्योगिक समाज में पूंजीपति और सर्वहारा दो संघर्षरत वर्गों क े अस्तित्व को दर्शा कर शोषित सर्वहारा वर्ग द्वारा शोषक वर्ग क े विरुद्ध क्रांति का कार्यक्रम प्रस्तुत किया। मार्क्स का तर्क था कि औद्योगिक युग से पूर्व की सामंती व्यवस्था में भू- संपत्ति का मालिक अभिजात्य वर्ग तथा बुर्जुआ वर्ग क े मध्य का संघर्ष बुर्जुआ वर्ग की विषय में समाप्त हुआ था जो एक प्रकार की लोकतांत्रिक क्रांति थी। इसक े परिणाम स्वरूप जिस समाज की स्थापना हुई वह पूंजीवादी समाज है जिसकी विशेषताएं मशीनों से संचालित उद्योग, कारखाना
  • 16. पद्धति तथा इन साधनों क े मालिकों और श्रमिकों क े मध्य भेद, नगरों में जनसंख्या की वृद्धि, अत्यधिक मात्रा में उत्पादन ,अंतरराष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि ,सरकारों की आंतरिक नीतियों में ‘यदभाव्यम’ का सिद्धांत तथा बाह्य मामलों में साम्राज्यवादी प्रवृत्ति आदि है। अतिरिक्त उत्पादन क े साधनों का मालिक वर्ग शोषण करक े अतिरिक्त मूल्य अर्जित करता है और उसे ऐसे मशीनी उपकरणों क े क्रय में लगाता है जिससे मानव श्रम की आवश्यकता कम होती जाए और उत्पादन की मात्रा तथा गुणवत्ता दोनों में वृद्धि हो। इसक े कारण उद्योगों क े मालिक तो एक ओर अधिक धनी बनते जाते हैं तो दूसरी ओर श्रमिक वर्ग और अधिक गरीब होता जाता है। मशीनों क े विकास से मानव श्रम का महत्व कम होता जाता है जिससे श्रमिकों में बेरोजगारी बढ़ती है और उन्हें आजीविका क े लिए कम वेतन पर भी मालिकों क े पास अपना श्रम बेचना पड़ता है। पूंजीवादी व्यवस्था की विशेषताएं जो मजदूरों में वर्ग चेतना जगा कर स्वयं उसका अंत कर देती है- पूंजीवादी व्यवस्था में निहित अंतर्द्वंद को उजागर करते हुए मार्क्स ने यह प्रतिपादित किया है कि पूंजीवाद क े अंतर्गत स्वयं उसक े विनाश क े बीज निहित हैं। मार्क्स क े शब्दों में, ‘’ मजदूरों में वर्ग चेतना जगाकर पूंजीवाद अपनी कब्र स्वयं खोदता है। ‘’ पूंजीवाद की निम्नांकित विशेषताएं या पूंजीवाद जनित परिस्थितियां उसक े विनाश को आमंत्रित करती हैं- ● पूंजीवाद क े अंतर्गत वस्तु क े अधिक से अधिक उत्पादन तथा उद्योगों की एकाधिकार की प्रवृत्ति बनी रहती है जिसक े कारण संपत्ति का क ें द्रीकरण थोड़े से लोगों क े हाथों में होता चला जाता है। कालांतर में इन उद्योगपतियों क े मध्य प्रतियोगिता शुरू होती है, जिसमें छोटे- छोटे पूंजीपति नष्ट हो जाते हैं और सर्वहारा वर्ग में परिवर्तित हो जाते हैं। इस प्रकार पूंजीपति वर्ग की संख्या कम होती जाती है और सर्वहारा वर्ग विशाल होता जाता है। ● औद्योगिक व्यवस्था नगरीकरण को प्रोत्साहित करती है। नगरों में उद्योगों का क ें द्रीकरण होता है जहां उद्योगों में लगे भारी संख्या में श्रमिकों को एक साथ एकत्रित होने
  • 17. का अवसर मिलता है। क्योंकि सभी क े कष्ट एक समान होते हैं इसलिए इन लोगों में वर्ग चेतना जागृत होती है और वे संगठित होकर अपना रोष व्यक्त करने को तत्पर होते हैं। ● पूंजीवादी व्यवस्था में मशीनों से उत्पादन होने क े कारण उत्पादन बहुत बड़ी मात्रा में होता है, अतः उत्पादित माल क े लिए व्यापार और विनिमय हेतु विशाल बाजारों की आवश्यकता होती है। सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने क े लिए यातायात क े साधनों का विकास करना पड़ता है जिसका लाभ श्रमिक वर्ग को ही मिलता है क्योंकि वे लोग अन्य स्थानों क े श्रमिकों से संपर्क स्थापित करने में सफल हो जाते हैं और इस प्रकार उन्हें संगठन का अवसर मिलता है। ● पूंजीवादी व्यवस्था में राज्य की सत्ता पर पूंजीपतियों का प्रभाव पड़ने से राज्य उन्हीं क े हितों क े लिए शासन का संचालन करता है। बड़े उद्योगपतियों को उद्योग चलाने क े लिए विदेशों से कच्चे माल की जरूरत पड़ती है ,उत्पादित माल को बेचने क े लिए विदेशों में बाजार ढूंढना पड़ता है। पूंजी निवेश क े लिए उन्हें नए- नए क्षेत्रों की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा तभी संभव हो पाता है जब राज्य का साहचर्य उन्हें प्राप्त हो, अतः पूंजीवाद उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की प्रवृत्ति को बढ़ाता है। उपनिवेश में उद्योगों की स्थापना करने क े बाद पूंजीपति वहां भी शोषण जारी रखते हैं और सर्वहारा वर्ग की वर्ग चेतना राष्ट्रों की सीमा लांघ कर अंतरराष्ट्रीय हो जाती है। ● पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक संकट आते रहते हैं । आवश्यकता से अधिक उत्पादन हो जाने क े कारण उत्पादित सामानों की बिक्री नहीं होती है, तो कारखाने बंद करने की स्थिति आ जाती है या उत्पादित माल बर्बाद होने लगता है। ऐसी स्थिति में श्रमिकों को बेकार होना पड़ता है। श्रमिकों को उन व्यर्थ पड़े सामानों का उपभोक्ता बनने क े लिए बाध्य किया जाता है, किं तु सामानों का मूल्य इतना अधिक होता है कि उनकी क्रय शक्ति क्षीण हो जाती है इससे आर्थिक संकट और अधिक बढ़ता है। ● पूंजीवादी व्यवस्था श्रमिकों को सदैव अज्ञानता तथा कष्ट में फ ं से रहने की स्थिति में रखना चाहती हैं ताकि वे आत्मनिर्भर न बन पाए। इसक े कारण श्रमिकों का रोष और अधिक बढ़ता है.। पूंजीवाद की विशेषताओं क े आधार पर मार्क्स का निष्कर्ष है कि ‘’ पूंजीपति वर्ग जो सबसे बड़ी चीज पैदा करता है- वह है मजदूरों का वर्ग। इस वर्ग को जन्म देकर पूंजीवाद अपनी कब्र स्वयं खो देता है। पूंजीवाद का अंत और मजदूरों की जीत दोनों ही समान रूप से अनिवार्य है। ‘’
  • 18. आलोचना- वर्ग- संघर्ष एवं पूंजीवाद क े विषय में मार्क्स क े विचारों की आलोचना निम्नांकित आधारों पर की जाती है- 1. मार्क्स ने औद्योगिक तथा पूंजीवादी व्यवस्था क े अंतर्गत क े वल बुर्जुआ तथा सर्वहारा वर्ग क े निर्मित होने की धारणा दी है। उसकी यह धारणा तर्क संगत नहीं है क्योंकि समाज में मध्यम वर्ग ऐसा वर्ग है जो संतुलन कारी भूमिका निभाता है, किन्तु मार्क्स क े चिंतन में इस तथ्य को नजरअंदाज किया गया है। 2. सैद्धांतिक दृष्टि से औद्योगिक व्यवस्था क े अंतर्गत बुर्जुआ तथा सर्वहारा का वर्गीकरण संभव नहीं है। बड़ी-बड़ी मिलो और क ं पनियों में काम करने वाले उत्तम वेतन भोगी इंजीनियर ,मैनेजर, निदेशक आदि को सर्वहारा वर्ग क े अंतर्गत नहीं माना जा सकता। उद्योगों में काम करने वाले कार्मिक उद्योगों में साझीदार तक होते हैं, उन्हें किस वर्ग में रखा जाए, मार्क्स इस विषय में मौन है। 3. मार्क्सवादी अवधारणा क े अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था क े अंतर्गत श्रमिक वर्ग की दशा दिनों दिन खराब होती जाती है, जबकि विकसित पूंजीवादी देशों में मजदूरों की दिनों दिन अच्छी होती स्थिति यह दर्शाती है कि वर्ग- संघर्ष अवश्यंभावी नहीं है। श्रमिकों क े मध्य परस्पर अनेक प्रकार क े हितों को लेकर टक्कर हो सकती है, जैसे -क ु शल और अक ु शल श्रमिकों क े मध्य भेद, पुरुष तथा महिला श्रमिकों क े मध्य भेद विभिन्न जातियों और विभिन्न देशों क े श्रमिकों क े मध्य भेद आदि। इस दृष्टि से मार्क्स का वर्ग- संघर्ष का सिद्धांत एक सैद्धांतिक सत्य नहीं है। 4. उद्योगों क े नियमन और संचालन हेतु संघर्ष नहीं अपितु सहयोग अधिक आवश्यक होता है । श्रमिक तथा पूंजीपति वर्ग दोनों ही इसे समझते हैं और इसमें दोनों का हित है। 5. अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत मार्क्सवादी सिद्धांतों की शृंखला में अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत यह दर्शाने क े लिए प्रस्तुत किया गया है कि पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति श्रमिकों का शोषण किस प्रकार करते हैं। इसका
  • 19. मुख्य उद्देश्य यह बताना है कि पूंजीपति श्रमिक वर्ग क े परिश्रम पर निर्भर रहता है, किं तु श्रमिक को उसक े श्रम क े अनुसार मूल्य नहीं दिया जाता। अपनी आवश्यकता की पूर्ति क े लिए श्रमिकों को अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है, किं तु उसक े इस अतिरिक्त श्रम का मुनाफा पूंजीपति अपनी ही जेब में रखता है, मजदूरों को उसमें साझेदार नहीं बनाता है। अतिरिक्त मूल्य का यह सिद्धांत मूल्य क े श्रम सिद्धांत पर आधारित है ,जिसका प्रतिपादन विलियम पेंटी ,रिकॉर्ड तथा एडम स्मिथ ने किया था। 19वीं शताब्दी क े प्रारंभ तक अर्थशास्त्री यह मानते रहे कि वस्तुओं का विनिमय मूल्य निर्धारित होने में उनमें लगे श्रम क े साथ-साथ पूंजी, उपकरण, कच्चा माल आदि सभी तत्व शामिल रहते हैं। साथ ही वस्तु की मांग और वस्तुओं का गुणात्मक रूप भी उनक े मूल्यों को परिवर्तित करते रहते हैं। किं तु इसक े बाद क े क ु छ लेखकों ने यह तर्क दिया कि चूँकि श्रम ही संपूर्ण संपत्ति का उत्पादन करता है, अतः श्रम द्वारा अर्जित समस्त उत्पादन पर मजदूरों का भी अधिकार होना चाहिए । मार्क्स ने इन लेखकों का समर्थन किया और मूल्य सिद्धांत की व्याख्या श्रमिकों क े पक्ष में की । अर्थशास्त्री वस्तुओं क े मूल्य तथा दाम में भेद करते हैं। मूल्य का अभिप्राय वस्तु की उपयोगिता से लिया जाता है, जबकि दाम वस्तु की विनिमय दर से संबंधित होता है। मार्क्स की धारणा है कि वस्तुओं क े मूल्य तथा दाम का निर्धारण करने की कसौटी उन वस्तुओं क े उत्पादन में व्यय हुए श्रम क े अनुसार होती है। हालांकि कभी-कभी किसी वस्तु का उपयोगिता मूल्य उसमें लगे श्रम की कीमत से मुक्त भी होता है। जैसे हवा और पानी बहुत उपयोगी है ,यद्यपि उनमें कोई श्रम नहीं लगा होता है। इस संबंध में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि विभिन्न वस्तुओं क े उत्पादन में लगी श्रम की मात्रा का निर्धारण क ै से किया जाए? वस्तुओं क े दाम कम या अधिक क्यों होते हैं? इस प्रश्न का उत्तर मार्क्स ने यह कह कर दिया कि श्रम की मात्रा की माप उसमें लगे समय क े अनुसार की जाती है, जिसका मापदंड सप्ताह , दिनों या घंटों तक लगाए गए श्रम से निर्धारित किया जाता है। ऐसे में दोबारा यह प्रश्न उठता है कि सभी श्रमिकों की क्षमता समान नहीं होती। एक श्रमिक किसी काम को 2 घंटे में पूरा करता है तो दूसरा उसी को 4 घंटे में। ऐसी स्थिति में मूल्य का निर्धारण क ै से किया जाए? मार्क्स का तर्क है कि किसी वस्तु क े मूल्य का निर्धारण उसमें लगे ‘ सामाजिक दृष्टि से आवश्यक’ श्रम की मात्रा क े अनुसार किया जाता है।
  • 20. अतिरिक्त मूल्य क े सिद्धांत की व्याख्या विस्तार क े साथ करते हुए मार्क्स ने बताया कि 19वीं शताब्दी क े प्रारंभ तक वैज्ञानिक आविष्कारों क े परिणाम स्वरुप उत्पादन क े साधनों में नए-नए यंत्रों का काफी विस्तार हो चुका था। वस्तुओं क े मूल्य सृजन में प्रयुक्त किए जाने वाले यंत्रों का स्वामित्व एक छोटी से पूंजीपति वर्ग क े हाथ में था। श्रमिक इन उपकरणों और यंत्रों को क्रियाशील बनाए रखने का काम करते थे । पूंजी पति श्रमिकों की श्रम शक्ति का क्रय करक े उसे उपकरणों पर लगाता था और इस प्रकार पूंजीपति वस्तुओं क े जिस विनिमय मूल्य का सृजन करता था, वह मजदूरों को दिए गए वेतन तथा कारखाने की देखभाल में वह होने वाली धनराशि से कहीं अधिक होता था। यही वृद्धि अतिरिक्त मूल्य कहलाती है जिसका सृजन श्रमिकों क े श्रम से होता है परंतु यह पूंजीपति वर्ग की जेब में जाता है। यह अतिरिक्त मूल्य न चुकाए गए श्रम की उपज है।श्रमिक से औसत से अधिक श्रम समय तक काम लेने क े कारण वस्तु की विनिमय दर में जो वृद्धि होती थी, वह उसका अतिरिक्त मूल्य कहलाता था। इस अतिरिक्त मूल्य को पूंजीपति कारखाने क े लिए अन्य उपकरणों क े क्रय में व्यय करता था। इन उपकरणों क े कारण उत्पादन में वृद्धि होती थी और श्रमिकों की मांग कम हो जाती थी। इससे मालिकों क े अतिरिक्त मूल्य में वृद्धि होती जाती थी ,क्योंकि अब मांग और पूर्ति क े नियम क े अनुसार श्रमिकों को आजीविका क े लिए न्यूनतम वेतन पर अधिक समय तक कार्य करने को विवश होना पड़ता था । यह सामाजिक अन्याय की पराकाष्ठा थी । इस प्रकार मार्क्स का निष्कर्ष है कि वस्तुओं का विनिमय मूल्य निर्धारित करने का एकमात्र साधन उसक े उत्पादन में लगा मानव श्रम है। अन्य तत्व जैसे- पूंजी , उपकरण, कच्चा माल आदि सब गौण है । उत्पादन क े साधनों क े मालिक श्रमिकों को उनक े श्रम की तुलना में न्यायोचित वेतन न देकर अतिरिक्त मूल्य की सृष्टि करते हैं और उस अतिरिक्त मूल्य का विनियोजन स्वयं अपने ही लाभ क े लिए करते हैं। आलोचना- ● वर्तमान अर्थशास्त्री मूल्य क े श्रम सिद्धांत को अस्वीकार करते हैं और अब यह धारणा कि ‘श्रम ही मूल्य का सृजन करता है’, अमान्य हो चुकी है। वस्तुतः उत्पादित वस्तुओं क े मूल्य का निर्धारण उत्पादन क्रिया में लगी पूजी ,उपकरण ,यातायात, राज्य द्वारा लगाए जाने वाले उत्पादन कर ,श्रम की क ु शलता, उद्योग क े संगठन आदि अनेक आधार पर किया जाता है । निःसंदेह श्रम भी एक तत्व है ,किं तु वह एकमात्र तत्व नहीं है। ● उत्पादन प्रक्रिया की जटिलता तथा वैज्ञानिक विकास क े कारण मानव श्रम की मात्रा का ज्ञान क े वल श्रम समय क े आधार पर ही नहीं किया जा सकता। मानव श्रम का रूप भी