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बेंथम का राजनीतिक चिंतन
[1748-1832]
https://probaway.files.wordpress.com/2013/06/jeremy_bentham_4fm4.j
द्वारा- डॉक्टर ममता उपाध्याय
एसोसिएट प्रोफ
े सर, राजनीति विज्ञान
क
ु मारी मायावती राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय
बादलपुर, गौतम बुध नगर ,उत्तर प्रदेश
यह सामग्री विशेष रूप से शिक्षण और सीखने को बढ़ाने क
े शैक्षणिक उद्देश्यों क
े लिए है। आर्थिक / वाणिज्यिक अथवा किसी अन्य उद्देश्य
क
े लिए इसका उपयोग पूर्णत: प्रतिबंध है। सामग्री क
े उपयोगकर्ता इसे किसी और क
े साथ वितरित, प्रसारित या साझा नहीं करेंगे और
इसका उपयोग व्यक्तिगत ज्ञान की उन्नति क
े लिए ही करेंगे। इस ई - क
ं टेंट में जो जानकारी की गई है वह प्रामाणिक है और मेरे ज्ञान क
े
अनुसार सर्वोत्तम है।
उद्देश्य-
● बेंथम की उपयोगितावादी दर्शन की जानकारी
● राजनीतिक क्षेत्र में गणना की वैज्ञानिक पद्धति क
े प्रयोग की जानकारी
● उपयोगितावाद क
े राजनीतिक दर्शन का मूल्यांकन
● समसामयिक कानून एवं न्याय व्यवस्था मे सुधार संबंधी सुझावों की जानकारी
● राज्य व्यवस्था की क्रियात्मकता क
े व्यवहारिक आयामों का विश्लेषण
बेंथम 18 -19 वीं शताब्दी का ब्रिटिश दार्शनिक है, जिसे पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन क
े इतिहास में
उपयोगितावाद का प्रवर्तक माना जाता है। बेंथम क
े विचार बहुआयामी है। अर्थशास्त्र, तर्क शास्त्र,
विधि शास्त्र, मनोविज्ञान ,दंड शास्त्र ,धर्मशास्त्र ,नीतिशास्त्र आदि सभी विषयों तक उसक
े विचारों
का क्षेत्र व्याप्त है। वह एक ऐसा सुधारवादी विचारक है, जिसने वर्क जैसे अनुदारवादी विचारकों क
े
परंपरा वाद का विरोध किया तो दूसरी तरफ थॉमस पेन और गॉडविन जैसे उग्र क
् रांति वादी
विचारकों क
े पूर्ण समानता और स्वतंत्रता पर आधारित सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने क
े
प्रयासों का भी विरोध किया और उपयोगितावाद क
े रूप में एक ऐसा दर्शन प्रस्तुत किया जो
औद्योगिक व्यवस्था से जन्मे पूंजीपति वर्ग को उसक
े हितों की पूर्ति क
े कारण आकर्षक प्रतीत हुआ।
साथ ही उसने औद्योगिक व्यवस्था में मजदूरों की दयनीय दशा को सुधारने और सामाजिक
विषमताओं का अंत करने हेतु सुधारवादी आंदोलन का संचालन किया । बेंथम ने डेविड रिकार्डो, जेम्स
मिल, जॉन स्टूअर्ट मिल, जॉन ऑस्टिन और जान ग्रोट जैसे उग्र क
् रांतिकारी दार्शनिकों क
े
विचारों को प्रभावित किया।
जीवन वृत्त-
विधिशास्त्री ,सुधारवादी दार्शनिक बेंथम का जन्म 15 फरवरी 1748 को लंदन क
े एक संपन्न वकील
परिवार में हुआ था। कानून क
े ज्ञाताओं क
े संपर्क में रहने क
े कारण उसकी बुद्धि बचपन से ही क
ु शाग्र
थी। उसने 3 वर्ष की आयु में ही लैटिन और 4 वर्ष की आयु में फ
् रेंच भाषा का अध्ययन किया और
16 वर्ष की आयु में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से बैचलर ऑफ आर्ट्स की उपाधि प्राप्त की । 1772 में
उसने’ लिंकन इन’मे कानून की शिक्षा प्राप्त की। न्याय शास्त्र और वैधानिक दर्शन क
े अध्ययन में
रुचि दर्शाते हुए उसने ब्रिटेन की संपूर्ण वैधानिक व्यवस्था का पुनर्निर्माण करने का प्रयत्न किया ।
प्रीस्टले की पुस्तक ‘शासन पर निबंध’ को पढ़ते हुए वह हचिसन क
े इस विचार से बहुत प्रभावित
हुआ कि’’ अपने अधिकतम सदस्यों का अधिकतम सुख ही वह मापदंड है जिससे कि राज्य का
मूल्यांकन किया जाना चाहिए। ‘’ आगे चलकर इसी विचार को उसने अपनी उपयोगिता वादी चिंतन का
आधार बनाया। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में बौद्धिक गति हीनता को देखते हुए उसने लंदन विश्वविद्यालय
की आधारशिला रखी और उसक
े बाद इंग्लैंड क
े अन्य नगरों में भी विश्वविद्यालयों की स्थापना की
गई। विश्वविद्यालयों की स्थापना में उसक
े योगदान क
े कारण उसे ‘एक
े डमिक यूनिवर्सिटी कॉलेज’
लंदन का गॉडफादर कहा जाता है ।
बेंथम क
े समय में 1776 में अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा की गई, कि
ं तु बेंथम ने इस
स्वतंत्रता का स्वागत न करते हुए स्वतंत्रता की घोषणा में वर्णित सिद्धांतों का खंडन किया और उस
पर व्यंग्यात्मक निबंध लिखा । जीवन पर्यंत लेखन में उन की अभिरुचि बनी रही और ऐसा माना जाता है
कि उसक
े लेखों की पांडुलिपियाँ 148 संदूकों में बंद है जो लंदन विश्वविद्यालय और ब्रिटिश
म्यूजियम में आज भी सुरक्षित है। कि
ं तु उसने अपने लेखों क
े विधिवत प्रकाशन का प्रयास नहीं
किया और उसक
े मित्रों और सहायकों क
े द्वारा उनका प्रकाशन किया गया। यूरोप क
े देशों में
उसक
े विचारों को लोकप्रिय बनाने का कार्य एक स्विस नागरिक क
ु मारी ड्यू माउंट क
े द्वारा उसका
फ
् रांसीसी भाषा में अनुवाद करक
े किया गया। 1789 में उसक
े प्रसिद्ध क
ृ ति ‘ प्रिंसिपल्स ऑफ़
मोरल एंड लेजिसलेशन’ का प्रकाशन हुआ जिसमें उसने मौजूदा कानूनों में सुधार क
े लिए महत्वपूर्ण
सुझाव दिए। उसक
े विचारों का प्रभाव इंग्लैंड से ज्यादा यूरोप क
े अन्य देशों पर पड़ा और विभिन्न
देशों ने कानून सुधार क
े लिए उसक
े विचारों को आमंत्रित करना शुरू किया। हाईजलिट का कथन
है कि ‘’उसका नाम इंग्लैंड में बहुत कम व्यक्ति जानते हैं, यूरोप में एक से अधिक व्यक्ति जानते हैं,
कि
ं तु चिली क
े मैदानों और मेक्सिको की खानों में उसका नाम सबसे अधिक व्यक्ति जानते हैं।
‘’विचारों से प्रभावित होकर 1792 में फ
् रांस की राष्ट्रीय सभा ने उसे ‘फ
् रांसीसी नागरिक’ की
सम्मानजनक उपाधि से विभूषित किया। अपने जीवन क
े अंतिम वर्षों में बेंथम अपने शिष्य मिल क
े साथ
इंग्लैंड क
े दार्शनिक संप्रदाय से जुड़ा जिसका उद्देश्य दार्शनिक ज्ञान को व्यवहारिक जीवन में प्रयोग
कर समाज और राजनीति को समस्या मुक्त बनाना था। इस उद्देश्य की प्राप्ति क
े लिए बेंथम ने
नैतिकता को नए रूप में प्रस्तुत किया जिसका केंद्र बिंदु सुखवादी दर्शन है। 6 जून 1832 को 84
वर्ष की आयु में बेंथम का देहावसान हुआ और मृत्यु क
े बाद उसक
े शिष्यों ने उसे पितामह और
आध्यात्मिक नेता क
े रूप में सम्मानित किया एवं ईश्वर की तरह उसे प्रति स्थापित किया गया।
रचनाएं-
बेंथम ने अपने जीवन काल में’ लंदन रिव्यू’ और’ वेस्टमिंस्टर रिव्यु’ में प्रकाशित अनेक लेखों क
े
अतिरिक्त कई पुस्तकों की रचना भी की जिनमें प्रमुख हैं-
● एन इंट्रोडक्शन टू द प्रिंसिपल ऑफ मोरल्स एंड लेजिसलेशन[ 1789 ]
● ऐसे ऑन पॉलिटिकल टैक्टिक्स [ 1791]
● डिसकोर्सेज ऑन सिविल एंड पीनल लेजिसलेशन[ 1802 ]
● क
े टिज्म ऑफ पार्लियामेंट्री रिफॉर्म्स[ 1809 ]
● अ थ्योरी ऑफ़ पनिशमेंट एंड रिवार्ड्स [ 1811]
● ए ट्रीटाइस ऑन जुडिशल एविडेंस [ 1813 ]
● रेडिकलाइज्म नोट डेंजरस [ 1819 ]
● बुक ऑफ फ
ै लेसिस [ 1824 ]
● द कांस्टीट्यूशनल कोड [ 1830]
प्रभाव- हचिसन, प्रीस्टले, डेविड ह्यूम, हेलमेट
अध्ययन पद्धति- आगमनात्मक एवं आनुभविक
उपयोगितावादी दर्शन
एक दर्शन क
े रूप में उपयोगितावाद मनुष्य क
े आचरण का सिद्धांत है जिसकी मौलिक मान्यता यह है कि
मनुष्य मूलतः इंद्रिय प्रधान प्राणी है जिसका उद्देश्य सुख प्राप्त करना और दुख से बचना है। यह
दर्शन बेंथम से पहले भी कई रूपों में मौजूद रहा है। प्राचीन भारत में ‘चार्वाक दर्शन’ एवं प्राचीन
यूनान में एपिक्यूरियन्स क
े विचारों का आधार सुखवाद रहा है। आधुनिक युग में इसका प्रारंभ 17वीं
शताब्दी में रिचार्ड कम्बरर्लैंड क
े द्वारा किया गया। इसक
े अतिरिक्त डेविड ह्यूम ,प्रीस्टले, हचिसन
और फ
् रांस में हेल्वेटियस आदि ने भी उपयोगितावाद विचारों क
े प्रतिपादन में योगदान दिया। कि
ं तु
अपनी पुस्तक ‘प्रिंसिपल्स ऑफ मोरल एंड लेजिसलेशन’ क
े माध्यम से बेंथम ने उपयोगितावाद को
एक सुनिश्चित एवं व्यवस्थित विचारधारा का रूप दिया और इसे सार्वजनिक जीवन में राज्य क
े कार्यों का
आधार बताया।
उपयोगितावाद की मान्यताएं-
बेंथम द्वारा प्रतिपादित उपयोगितावाद की प्रमुख मान्यताएं या विशेषताएं इस प्रकार बताई जा सकती
हैं-
● प्रत्येक वस्तु, संस्था और कार्य क
े औचित्य का आधार उपयोगिता है-
बेंथम द्वारा प्रवर्तित उपयोगितावाद की प्रमुख मान्यता यह है कि इस संसार में जितनी भी
वस्तुएं और संस्थाएं निर्मित की गई है ,उनक
े मूल्यांकन का मापदंड मनुष्य जीवन क
े लिए
उनका उपयोगी होना है। वही संस्था, वस्तु और कार्य स्वीकार्य है, जिसकी मानवीय जीवन क
े
लिए उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है।
● उपयोगिता का आधार भौतिक सुख वाद है -
किस वस्तु और संस्था को उपयोगी माना जाए और उपयोगिता क
े निर्धारण का मापदंड क्या हो,
इस संबंध में बेंथम भौतिक सुख की धारणा का प्रतिपादन करते हैं और यह मानते हैं कि वही
वस्तु और वही संस्था उपयोगी मानी जा सकती है जो मनुष्य क
े भौतिक सुखों में वृद्धि कर
सक
े । उल्लेखनीय है कि अध्यात्मशास्त्र क
े अंतर्गत मनुष्य नैतिक एवं आध्यात्मिक सुख में
वृद्धि की बात कही जाती है, कि
ं तु इंग्लैंड की व्यक्तिवादी, उदारवादी विचारधारा से प्रभावित
होने क
े कारण बेंथम लौकिक जीवन को महत्व देते हैं और लौकिक जीवन को सुखमय बनाने
क
े लिए जिन भी साधनों की उपलब्धता होती है, उन्हें ही वे उपयोगी मानते हैं। बेंथम की
मान्यता है कि मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह प्रत्येक कार्य सुख की प्राप्ति को
ध्यान में रखकर करता है और ऐसे कार्यों को करने से बचता है जो उसक
े दुखों में वृद्धि करें।
बेंथम क
े शब्दों में, ‘’ प्रक
ृ ति ने मानव जाति को सुख-दुख नामक दो महत्वपूर्ण स्वामियों क
े
शासन में रखा है। क
े वल उन्हें ही यह निर्दिष्ट करना है कि हमें क्या करना चाहिए तथा उन्हें ही
यह निर्धारित करना है कि हम क्या करेंगे। उनक
े सिंहासन क
े एक और उचित- अनुचित का
मापदंड बना हुआ है और दूसरी ओर कार्य- कारण की जंजीर बंधी हुई है। हमारे मन, वचन
और कर्म पर वे ही शासन करते हैं। यदि हम उनकी अधीनता से मुक्त होने का प्रयास करते
हैं तो इससे उनकी और भी पुष्टि हो जाती है और उसका प्रमाण मिल जाता है। कोई भी
मनुष्य शब्दों शब्दों का जाल फ
ै ला कर उनकी अधीनता से मुक्त होने का बहाना भले ही कर
ले, कि
ं तु वास्तविक रूप से वह उनक
े अधीन ही रहेगा। ‘’ उपयोगितावादी सिद्धांत की मान्यता
है कि वह कार्य जिससे सुख मिलता है,वह अच्छा है, उचित है और जिस से दुख मिलता है, वह
अनुचित और गलत है।’’
बेंथम क
े समान ही हॉब्स ने भी मनुष्य को एक सुखवादी प्राणी माना है जो
अपने जीवन की रक्षा क
े निमित्त हर प्रयत्न करता है, कि
ं तु हाब्स क
े चिंतन में मनुष्य जहां स्वतंत्र
एवं एकाकी प्राणी है और वह सिर्फ अपने ही सुखों की कामना करता है, वही बेंथम क
े चिंतन
में मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ,उसक
े ऊपर समाज और राज्य का बंधन है और वह अपने
सुख क
े साथ दूसरों क
े कल्याण क
े विषय में भी चिंतित रहता है और प्रयास करता है।
● सुख-दुख क
े प्रकार-
भौतिक सुखों को मानव जीवन का साध्य मानते हुए बेंथम ने सुख-दुख क
े प्रकारों की
व्यापक चर्चा की है। उसने 12 प्रकार क
े दुख और 14 प्रकार क
े सुख बताए हैं।
सुख क
े प्रकार- इंद्रिय सुख, वैभव सुख, कौशल का सुख, मित्रता का सुख, यश का सुख
,शक्ति या सत्ता का सुख, कल्पना का सुख, धार्मिक सुख, दया का सुख, निर्दयता का सुख,
स्मृति का सुख, आशा का सुख, संपर्क या मिलन का सुख और सहायता का सुख।
दुख क
े प्रकार- संपर्क का दुख, आशा का दुख, कल्पना का दुख, स्मरण का दुख, दया,
धार्मिकता, अपयश, शत्रुता, परेशानी, दुर्भावना और दरिद्रता।
● सुख-दुख क
े स्रोत-
सुख-दुख क
े प्रकारों का वर्णन करने क
े बाद बेंथम ने सुख-दुख क
े स्रोतों की चर्चा भी
की है। वे इनक
े चार स्रोत मानता है-1. भौतिक 2. नैतिक 3. राजनीतिक
4. धार्मिक
भौतिक स्रोत क
े अंतर्गत वह सुख- दुख आते हैं, जो प्रक
ृ ति प्रदत्त होते हैं और जिनक
े लिए मनुष्य
उत्तरदाई नहीं होता है ।
नैतिक स्रोत में वे सुख-दुख शामिल है जो हमें अपने साथियों और पड़ोसियों से प्राप्त होने वाले
व्यवहार- घृणा और प्रेम की भावनाओं से मिलते हैं।
राजनीतिक स्रोत में सुख-दुख का सृजन सरकारी अधिकारियों द्वारा कानून क्रियान्वयन क
े कारण
होता है। कोई राजकीय कानून हमारे भौतिक सुखों में वृद्धि कर सकता है तो वही कानून किसी क
े
लिए दुख कारी भी हो सकता है।
धार्मिक स्रोत क
े अंतर्गत वे सुख- दुख आते हैं जो हमें धर्म शास्त्र की व्यवस्थाओं क
े अनुसार प्राप्त
होते हैं। सुख-दुख क
े इन स्रोतों को स्पष्ट करते हुए बेंथम ने एक मकान का उदाहरण दिया है और
यह कहा है कि ‘’यदि एक मनुष्य का मकान अपनी असावधानी से चलता है तो यह उसी प्रक
ृ ति द्वारा
दिया गया दंड है। यदि दंडनायक की आज्ञा से जलाया जाता है तो यह राजनीतिक दंड है। अगर वह
आग लगने पर सहायता न देने वाले साथियों और पड़ोसियों की दुर्भावना से जलता है तो यह जनमत
का दंड है और अगर वह किसी दैवी प्रकोप से भस्म हुआ है तो इसे धार्मिक दंड माना जाएगा। ‘’
बेंथम क
े विचारानुसार यह सभी प्रकार क
े सुख- दुख अपने स्वरूप क
े आधार पर जटिल प्रक्रिया से
परस्पर जुड़े होते हैं। कोई एक सुख किसी अन्य सुख का कारण बन सकता है और कभी कोई एक
दुख अन्य दुखों को आमंत्रित कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति की सुख और दुख को पहचानने, सहने
और उसक
े प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त करने की अलग-अलग क्षमता और प्रवृत्ति होती है। इस दृष्टि से
मनुष्य पर कई तत्वों का प्रभाव पड़ता है। जैसे- स्वास्थ्य, शक्ति, कठोरता, शारीरिक दोष
,संवेदनशीलता,ज्ञान की मात्रा, आर्थिक व्यवस्था ,नैतिकता ,सामाजिक पद, शिक्षा, वंश परंपरा और
लिंग।
● सुख दुख में मात्रा का अंतर है-
उपयोगितावाद क
े सुखवादी सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए बेंथम ने यह स्थापित करने का प्रयास
किया सुख और दुख में मात्रा का अंतर है, गुणों का नहीं। किसी कार्य को करने से मिलने वाले सुख
की मात्रा से ही यह निश्चित किया जा सकता है कि वह कार्य उपयोगी है या नहीं। कोई सुख या दुख
कम या अधिक हो सकता है, कि
ं तु अच्छा या बुरा सुख- दुख नहीं हो सकता। इस संबंध में बेंथम यहां
तक कहता है कि यदि किसी व्यक्ति को मदिरापान करने में आनंद मिलता है, किसी बच्चे को पुश पिन
का खेल खेलने में आनंद मिलता है या किसी कवि को कविता पाठ में आनंद मिलता है।इन सभी कार्यों
से मिलने वाले सुख की मात्रा यदि बराबर है तो इन सभी कार्यों का समान महत्व है और यह सभी किए
जाने योग्य है।
● सुख दुख को मापा जा सकता है-
सामाजिक राजनीतिक दर्शन क
े क्षेत्र में गणितीय पद्धति को अपनाते हुए बेंथम यह मानता है की सुख
दुख में जो मात्रा का अंतर होता है उसे एक निश्चित पद्धति क
े आधार पर मापा जा सकता है और किसी
कार्य या संस्था का मूल्यांकन इस पद्धति को अपनाते हुए प्राप्त होने वाले सुख-दुख की मात्रा की गणना
करक
े किया जा सकता है। हालांकि सुख दुख मानसिक अनुभूति है जिन्हें वस्तुओं क
े समान मापा
नहीं जा सकता, लेकिन बेंथम ने सुख-दुख को मापने क
े लिए क
ु छ कसौटियां निर्धारित की है ,जिन
कसौटियों को वह ‘Hedonistic Calculas’का नाम देता है। उसकी दृष्टि में यह कसौटियां
सात प्रकार की हैं-
1. तीव्रता
2. स्थिरता
3. निश्चितता
4. समीपता या दूरीपन
5. उर्वरता
6. विस्तार
7. विशुद्धता
बेंथम क
े अनुसार इन कसौटियों क
े आधार पर एक व्यक्ति यह निश्चित कर सकता है कि कौन सा
कार्य करना उपयोगी होगा और कौन सा अनुपयोगी। इन कसौटियों क
े आधार पर वह प्रत्येक कार्य
से प्राप्त होने वाले सुख-दुख की मात्रा की गणना करक
े अंक प्रदान करेगा और जिस पक्ष में अंक
ज्यादा होंगे, उसी क
े आधार पर उस कार्य की उपयोगिता -अनुपयोगिता निर्धारित होगी। बेंथम क
े
शब्दों में, ‘’ समस्त सुखों क
े समस्त मूल्यों को एक ओर तथा समस्त दुखों क
े समस्त मूल्यों को
दूसरी ओर एकत्रित कर लेना चाहिए । एक को दूसरे में से घटाने पर सुख शेष रह जाता है तो कोई
कार्य ठीक है, कि
ं तु यदि दुख अवशेष रहे तो यह समझ लेना चाहिए कि संबंधित कार्य ठीक नहीं है। ‘’
● राज्य क
े औचित्य का आधार उपयोगिता है-
सुखवादी उपयोगितावाद क
े आचार शास्त्रीय सिद्धांत को राजनीतिक क्षेत्र में लागू करते हुए बेंथम ने यह
प्रतिपादित किया कि राज्य की उत्पत्ति और उसक
े अस्तित्व का आधार कोई और तत्व नहीं, बल्कि
उसकी उपयोगिता है। उसने हॉब्स , लॉक एवं रूसो क
े द्वारा प्रतिपादित राज्य की उत्पत्ति क
े
सामाजिक समझौता सिद्धांत को अस्वीकार कर करते हुए राज्य की उपयोगिता वादी परिभाषा की।
उसक
े शब्दों में, ‘’ राज्य व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जो लोगों क
े लिए उपयोगिता को बनाए
रखने तथा उसकी अभिवृद्धि करने क
े लिए संगठित किया जाता है अर्थात मनुष्य क
े हित या सुख की
अभिवृद्धि क
े लिए स्थापित किया जाता है। ‘’ व्यक्ति राज्य की आज्ञा का पालन इसलिए नहीं करते कि
अतीत में ऐसा कोई समझौता हुआ था जिसमें राजाज्ञा पालन की शर्त रखी गई थी, बल्कि इसलिए करते
हैं क्योंकि राज्य की आज्ञा पालन मे उन्हें लाभ और उपयोगिता दिखाई देती है और उनकी सुख प्राप्त
की आकांक्षा पूर्ण होती है । मनुष्य जानता है कि राज्य में रहकर , उसक
े आदेशों का पालन करक
े ही
वह सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसलिए वह उसकी अवज्ञा से बचता है। बेंथम क
े शब्दों में, ‘’
अबज्ञा से होने वाले अहित की तुलना में आज्ञा पालन अधिक उपयोगी है। ‘’
● अधिकारों क
े अस्तित्व का आधार उनकी उपयोगिता है-
बेंथम ने प्राक
ृ तिक अधिकारों क
े सिद्धांत में विश्वास व्यक्त न करते हुए उन्हें मूर्खतापूर्ण बताया है और
यह मत व्यक्त किया है कि कि थॉमस पेन और गाडविन आदि क
े द्वारा प्रचारित प्राक
ृ तिक अधिकारों
की धारणा भ्रामक है क्योंकि राज्य और समाज से पूर्व प्रक
ृ ति प्रदत्त अधिकारों की बात
वास्तविकता क
े धरातल पर खरी नहीं उतरती है। अधिकारों की उपयोगिता वादी धारणा को
प्रस्थापित करते हुए बेंथम ने यह प्रतिपादित किया कि ‘’ अधिकार मानव क
े सुखमय जीवन क
े
नियम हैं जिन्हें राज्य क
े कानूनों द्वारा मान्यता प्रदान की जाती है। ‘’ उसक
े अनुसार पूर्ण स्वतंत्रता
की प्राक
ृ तिक धारणा असंभव है और यह प्रत्येक प्रकार की सरकार की सत्ता की प्रत्यक्ष विरोधी
है। उसने प्रश्न किया कि क्या वास्तव में सब मनुष्य स्वतंत्र रूप से उत्पन्न होते हैं?, क्या वे स्वतंत्र रह
पाते हैं? उसने उत्तर दिया कि एक भी आदमी ऐसा नहीं है। इसक
े विपरीत सभी मनुष्य पराधीन पैदा
होते हैं।
इस प्रकार बेंथम ने अधिकारों क
े प्राक
ृ तिक रूप को अस्वीकार करते हुए उनक
े सामाजिक और
कानूनी रूप पर बल दिया और इस दृष्टि से वह दो प्रकार क
े अधिकारों का उल्लेख करता है-1.
कानूनी अधिकार और 2. नैतिक अधिकार कानूनी अधिकार मनुष्य क
े बाहर आचरण को और नैतिक
अधिकार उसक
े आंतरिक आचरण को नियंत्रित करते हैं। साथ ही बेंथम ने कर्तव्यों पर भी जोर दिया
है क्योंकि उसक
े दृष्टि में कर्तव्यों क
े बिना अधिकारों का कोई महत्व नहीं है और दोनों की
सार्थकता एक दूसरे पर निर्भर है।
● कानून का उद्देश्य अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख है-
राज्य का प्रमुख कार्य कानून का निर्माण कर नागरिकों की भलाई का मार्ग प्रशस्त करना है।
कानून- निर्माण की यह शक्ति ही राज्य की संप्रभुता है, क्योंकि किसी व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से
कानून बनाने का अधिकार नहीं होता है। कि
ं तु राज्य की कानून बनाने की शक्ति पर उपयोगिता का
प्रतिबंध है । राज्य की शक्तियां असीमित नहीं है।ब्रिटेन की उदारवादी परंपरा का प्रभाव होने क
े
कारण बेंथम भी यह मानता है कि राज्य को ज्यादा कानूनों का निर्माण नहीं करना चाहिए और यदि
नागरिकों का विशाल भाग किसी विषय पर कानून बनाने का व्यापक विरोध करें, तो सरकार को ऐसे
कानून नहीं बनाने चाहिए। बेंथम ने कानून की तुलना दवाओं से की है। जिस प्रकार दवाएं रोगों का
इलाज करती हैं लेकिन अत्यधिक दवाओं का सेवन स्वास्थ्य को नष्ट भी कर देता है, उसी प्रकार
कानून हमारे सुखों में वृद्धि का माध्यम है, लेकिन यदि राज्य क
े द्वारा अत्यधिक मात्रा में कानून बनाए
जाने लगेंगे तो इससे व्यक्तियों क
े सुख में कमी होने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा। कानून का
औचित्य उसकी उपयोगिता और उसकी आज्ञा पालन में ही है। यदि लोगों क
े मन में कानून क
े प्रति
सम्मान नहीं होगा और लोग किसी कानून को दुख कारक मानेंगे तो वह उसका पालन नहीं करेंगे और
बेंथम की मान्यता है कि लोगों को ऐसे कानून का विरोध करना भी चाहिए जो उनक
े दुखों में वृद्धि
करें। साथ ही शासकों को भी यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए । अतः कानून निर्माण का उद्देश्य ‘’
अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख’’ होना चाहिए। बेंथम क
े शब्दों में,’’ अधिकतम सुख का
सिद्धांत एक क
ु शल विधायक क
े हाथों एक प्रकार का सार्वभौम साधन देता है जिसक
े द्वारा वह विवेक
और विधि क
े हाथों सुख क
े वस्त्र बना सकता है। ‘’ राज्य को इस बात का प्रयास भी करना चाहिए
कि न क
े वल राजकीय पदाधिकारी बल्कि नागरिक भी सार्वजनिक कल्याण की पूर्ति क
े लिए कार्य करें ।
नागरिकों द्वारा स्वेच्छा और प्रसन्नता क
े साथ सार्वजनिक कल्याण क
े कार्यों को करने से समाज क
े
ताने-बाने को मजबूत बनाने में सहयोग मिलेगा और राज्य विभिन्न प्रकार क
े धार्मिक, प्रजातिगत
गतिविधियों एवं विघटनकारी तत्वों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है । बेंथम का यह विचार
समसामयिक दौर में नागरिक संगठनों द्वारा किए जाने वाले समाज हित क
े कार्यों की धारणा क
े
अनुरूप है। समाज को निरंतर अस्तित्व में बनाए रखने क
े लिए यह जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी
-अपनी क्षमता और योग्यता क
े अनुसार लोक कल्याणकारी कार्यों को करें और राज्य का यह दायित्व है
कि लोकहित कारी कार्यों में संलग्न व्यक्तियों क
े मार्ग में कोई भी बाधा आने पर उसका निराकरण
करें। बाधक व्यक्तियों को दंडित करें। जो राज्य ऐसा कर पाता है वह लंबे समय तक कायम रहता
है।
कानून का उद्देश्य-
अधिकतम व्यक्तियों क
े अधिकतम सुख की प्राप्ति बेंथम की दृष्टि में कानून का व्यापक उद्देश्य है।
इसक
े अतिरिक्त उपयोगी कानूनों क
े निर्माण क
े 4 लक्ष्यों की चर्चा भी बेंथम क
े द्वारा की गई है। यह
है-1. आजीविका 2. समानता 3. सुरक्षा 4. पर्याप्तता । यदि इन चारों उद्देश्यों में आपस में संघर्ष
की स्थिति हो तो ऐसी स्थिति में कानून निर्माता को उन्हें उपरोक्त क
् रम में प्राथमिकता प्रदान करनी
चाहिए।
● स्वतंत्रता नहीं, बल्कि सुख साध्य है-
उपयोगिता बादी योजना क
े अंतर्गत बेंथम ने स्वतंत्रता क
े बजाय सुख को महत्व दिया है, जो रूसो,
लॉक , मिल,जेफरसन आदि उदारवादी विचारकों की धारणा क
े विपरीत है। चूंकि कानून का उद्देश्य
अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख साधना है और कानून एक आदेश है, वह हमारे आचरण को
प्रतिबंधित करता है, इसलिए बेंथम की दृष्टि में वह स्वतंत्रता का शत्रु है। मानव जीवन की प्रमुख
आवश्यकता सुरक्षा है, स्वतंत्रता नहीं। इसलिए स्वतंत्रता को प्राक
ृ तिक अधिकार क
े रूप में मान्यता
नहीं दी जा सकती और यही कारण है कि बेंथम ने अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा का माखौल उड़ाया
था। बेंथम क
े इस विचार को स्पष्ट करते हुए प्रोफ
े सर सोर ले ने लिखा है, ‘’ कानून का मुख्य उद्देश्य
सुरक्षा है और सुरक्षा क
े सिद्धांत का आशय उन सभी आशाओं को बनाए रखना है जिन्हें स्वयं कानून
उत्पन्न करता है। सुरक्षा सामाजिक और सुखी जीवन की एक आवश्यकता है, जबकि क्षमता एक
प्रकार की विलासिता है जिसे क
े वल कानून उसी सीमा तक ला सकता है जहां तक उसका सुरक्षा से
कोई विरोध न हो। जहां तक स्वतंत्रता का संबंध है, वह कानून का कोई उद्देश्य नहीं है,यह तो सुरक्षा
की एक शाखा मात्र है और यह एक ऐसी शाखा है जिसमें कानून काट छांट किए बिना नहीं रह सकता
है। ‘’
● अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख क
े वल लोकतंत्र में ही संभव है-
अपनी उपयोगिता वादी मान्यताओं को शासन क
े क्षेत्र तक वितरित करते हुए बेंथम ने प्रतिपादित किया
कि शासन का उद्देश्य नागरिकों क
े सुखों में वृद्धि और दुखों में कमी करना होना चाहिए और ऐसा
क
े वल लोकतंत्र में ही संभव हो सकता है क्योंकि लोकतंत्र शासन प्रणाली बहुमत क
े आधार पर
संचालित होती है। बेंथम क
े शब्दों में, ‘’राजतंत्र में क
े वल सर्वोच्च शासक का हित साधन होता है,
क
ु लीन तंत्र में सिर्फ क
ु छ क
ु लीन एवं संपन्न व्यक्तियों क
े हितों पर ध्यान दिया जाता है, लेकिन
लोकतंत्र ही वह शासन प्रणाली है जिसमें शासक गण शासन करते समय ‘ अधिकतम व्यक्तियों क
े
अधिकतम सुख’ की साधना कर सकते हैं। ‘’ लोकतंत्र समानता क
े सिद्धांत पर आधारित होता है और
उपयोगितावाद का सुख वादी सिद्धांत भी इसी समानता क
े सिद्धांत पर आधारित है जिसमें यह भाव
निहित है कि समाज में सभी व्यक्तियों को सुख प्राप्त करने और दुख से बचने का समान अधिकार
है। बेंथम क
े विचारों को व्यक्त करते हुए सी . एल . वेपर ने लिखा है कि ‘’बेंथम क
े राज्य में सभी
व्यक्ति समान अधिकार रखते हैं। कानून क
े समक्ष सभी व्यक्ति समान होने चाहिए, तभी संपत्ति की
समानता स्थापित होगी । बेंथम का यह विश्वास है कि जिस समाज में असमानताएं नहीं होंगी, वह
समाज प्रसन्न और सुखी रहेगा।’’ यद्यपि बेंथम लोकतंत्र की कमजोरियों से भी परिचित था, जहां
प्रत्येक व्यक्ति अपना विकास दूसरे क
े विकास की कीमत पर करने क
े लिए सदैव तत्पर रहता है,
अतः ऐसी प्रवृत्ति वाले मनुष्यों को बेंथम ने कानून और दंड क
े भय से नियंत्रित करने का सुझाव
दिया। उसक
े अनुसार जन प्रतिनिधियों पर नियंत्रण बढ़ाकर, कार्यपालिका को उत्तरदाई बनाकर,
संसद सदस्यों द्वारा प्रधानमंत्री का चुनाव कराकर, वयस्क मताधिकार का विस्तार कर और उच्च
पदाधिकारियों की नियुक्ति प्रतियोगिता परीक्षाओं क
े द्वारा करा कर लोकतंत्र में जनता क
े अधिकतम
सुख को सुरक्षित रखा जा सकता है। इसक
े अतिरिक्त जनता की सजगता तथा नियमित और निष्पक्ष
चुनावों क
े माध्यम से राजनीतिज्ञों को दायित्व बोध कराते रहना लोकतंत्र को अर्थ पूर्ण बनाता है, ऐसा
बेंथम ने माना और लोकतंत्र को सफल और सार्थक बनाने क
े लिए प्रेस की स्वतंत्रता पर जोर दिया।
ब्रिटिश लोकतंत्र को परिपक्व को बनाने क
े लिए उसने संसद का चुनाव प्रतिवर्ष कराने, मतदान को
गोपनीय बनाने, मताधिकार का विस्तार करने और संसद क
े द्वितीय सदन लॉर्ड सभा को क
ु लीन तंत्र का
प्रतीक होने क
े कारण समाप्त करने का सुझाव दिया।
बेंथम क
े उपयोगितावादी विचारों की आलोचना-
यद्यपि बेंथम ने अपने उपयोगिता वादी विचारों क
े आधार पर 19वीं शताब्दी क
े राजनीतिक चिंतन को
गहराई से प्रभावित किया, कि
ं तु आलोचकों की दृष्टि में उनक
े सुखवादी उपयोगितावाद में कई
कमियां रह गई। स्वयं बेंथम क
े शिष्य जे. एस. मिल ने उनक
े उपयोगितावाद विचारों की आलोचना
की और उसमें आवश्यक संशोधन करक
े उसे प्रासंगिक बनाए रखा। आलोचक निम्नांकित आधारों पर
बेंथम की आलोचना करते हैं-
● बेंथम का दर्शन पूर्णतः भौतिकवादी दर्शन है, जिसक
े अनुसार क
े वल भौतिक सुखों की प्राप्ति
ही जीवन का साध्य है, नैतिकता, अंतर्मन, सत्य- असत्य जैसी नैतिक धारणाओं का न तो कोई
महत्व है और न ही स्थान है। प्रकारान्तर से बेंथम ने भौतिक सुखों की प्राप्ति क
े लिए
अनैतिक कार्यों को करने की भी छूट दी है। ऐसे विचार एक नैतिकताहीन समाज की तरफ ले
जाते हैं। व्यक्ति क
े कार्यों का प्रेरक सिर्फ भौतिक सुख की प्राप्ति ही नहीं होता, बल्कि
इतिहास ऐसे महापुरुषों क
े उदाहरण से भरा पड़ा है, जो समाज कल्याणकारी कार्यों क
े लिए
जीवन भर निजी सुखों का बलिदान करते रहे। महात्मा गांधी का भी विचार था कि एक
अच्छे समाज की स्थापना क
े लिए सज्जनों को कष्ट उठाना पड़ता है। यह वह मूल्य है जो
उन्हें न्याय पूर्ण समाज क
े लिए चुकाना पड़ता है।
● आलोचको की दृष्टि में बेंथम सामाजिक रूप से संवेदनशील होने क
े बावजूद मौलिक रूप से
व्यक्तिगत संपत्ति क
े समर्थक और व्यक्तिवादी विचारक ही बने रहे । समाज क
े विषय में परमाणु
वादी विचार ने उन्हें एक असंगत समष्टि वादी बना दिया।
● बेंथम ने अपने चिंतन में तर्क पर आवश्यकता से अधिक बल दिया है। उनक
े व्यक्तित्व में
भावना क
े लिए संभवत कोई स्थान नहीं था। सांसारिक सुखों का त्याग करने वाले व्यक्ति को
वह ढोंगी समझते थे।
● मैक्फर्सन ने बेंथम क
े उपयोगिता वादी चिंतन में अंतर्विरोध की बात कही है। बेंथम की दृष्टि में
समाज का हित इसी में है कि व्यक्तिगत सुखों को जोड़ते समय प्रत्येक व्यक्ति को एक इकाई
माना जाए, किसी को एक से अधिक नहीं माना जाए। उपयोगिता का नियम यह मानता है कि
भूखे मनुष्य को दूसरी रोटी से उतनी संतुष्टि प्राप्त नहीं होती जितनी पहली रोटी से प्राप्त होती
है, अतः किसी व्यक्ति क
े पास कोई चीज जितनी ज्यादा होगी, उसकी वृद्धि से उतनी ही कम
संतुष्टि उसे मिलेगी। एक तरफ बेंथम लोकतंत्र में समानता क
े सिद्धांत का समर्थन करता है
तो दूसरी तरफ बाजार अर्थव्यवस्था क
े पक्ष में वह यह भी प्रतिपादित करता है कि यदि मनुष्य
को समान संपत्ति की सुरक्षा प्रदान की जाएगी तो उसे संपत्ति अर्जित करने क
े लिए कोई
प्रोत्साहन नहीं मिलेगा और पूजी संचय क
े बिना कोई उत्पादकता नहीं होगी। इस प्रकार
बेंथम एक तरफ समानता को उचित मानता है ,तो दूसरी तरफ पूंजीवाद क
े हित में उसका त्याग
भी कर देता है।
● जॉन रॉल्स ने उपयोगिता वादी सिद्धांत की आलोचना करते हुए लिखा है कि इसमें सामूहिक
हित की वृद्धि क
े लिए व्यक्तिगत हित की बलि दे दी जाती है । अधिकतम व्यक्तियों क
े हितों
क
े लिए क
ु छ व्यक्तियों क
े हितों की बलि देना न्याय क
े सिद्धांत क
े सर्वथा विरुद्ध है।
● बेंथम क
े शिष्य जॉन स्टूअर्ट मिल ने उपयोगितावाद की आलोचना इस आधार पर की है कि
सुख और दुख में सिर्फ मात्रात्मक अंतर ही नहीं, बल्कि गुणात्मक अंतर भी होता है। निसंदेह
नैतिक जीवन की दृष्टि से मदिरापान और काव्य -पाठ में मिलने वाला आनंद समान नहीं हो
सकता, जैसा कि बेंथम ने प्रतिपादित किया है। आलोचकों ने इसे ‘शूकरो का दर्शन’ कहा
है। मिल क
े शब्दों में, ‘’एक संतुष्ट सूअर होने क
े बजाय एक असंतुष्ट मनुष्य होना ज्यादा
अच्छा है और एक असंतुष्ट सुकरात एक संतुष्ट मूर्ख से बेहतर है। ‘’
● आलोचक बेंथम की सुख -दुख गणना पद्धति से भी संतुष्ट नहीं हैं और यह मानते हैं कि सुख
और दुख भावनात्मक अनुभव की चीजें हैं जिन्हें गणित क
े समान अंक देकर मात्रात्मक आधार
पर नापा नहीं जा सकता है । मैक्कन ने लिखा है कि ‘’ राजनीति में गणित का प्रयोग उतना ही
निरर्थक है जितना गणित में राजनीति का। ‘’
● ‘अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख का सिद्धांत’ सैद्धांतिक दृष्टि से आकर्षक है, कि
ं तु
व्यावहारिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं है। सुख-दुख व्यक्ति निष्ठ भावनाएं हैं जिनका पता लगाना
राज्य क
े लिए संभव नहीं है ऐसे में अधिकतम व्यक्तियों क
े अधिकतम सुख क
े सिद्धांत क
े
आधार पर राज्य द्वारा कानून निर्माण का कार्य क
ै से किया जा सकता है।
● आलोचको की दृष्टि में यह अल्पसंख्यकों का दमन करने वाला सिद्धांत है क्योंकि अधिकतम
व्यक्तियों क
े अधिकतम सुख पर बल देता है। एक न्याय पूर्ण समाज सभी क
े हित की बात
करता है ,न की क
े वल अधिकतम लोगों क
े हित की बात। हेलो बल क
े शब्दों में,’’ बेंथम क
े
सिद्धांत में अल्प संख्या क
े पास बहुत संख्या क
े अन्याय और अत्याचार से मुक्ति पाने का कोई
मार्ग नहीं है। यह बहुमत क
े अत्याचार को प्रोत्साहन देने वाला और उसे स्थाई बनाने वाला
है। ‘’
● उपयोगिता को राज्य आज्ञा क
े पालन का एकमात्र आधार मानने का परिणाम यह होगा कि
समाज में अव्यवस्था और अशांति की स्थिति बनी रहेगी, क्योंकि कोई व्यक्ति या समाज का
कोई वर्ग आए दिन कानूनों क
े उपयोगी न होने का तर्क देकर व्यवस्था क
े लिए चुनौती खड़ा
कर सकता है। बेंथम ने व्यक्ति को इस बात का अधिकार दिया है कि किसी कानून क
े
उपयोगी न होने पर उसका विरोध करना उसका कर्तव्य है। ऐसे विचार अराजकता को
प्रोत्साहित करने वाले हैं।
● उपयोगितावादी दर्शन व्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता क
े मौलिक अधिकारों की उपेक्षा
करता है, क्योंकि बेंथम ने सुख और सुरक्षा क
े समक्ष स्वतंत्रता और समानता को गौण स्थान
प्रदान किया है। हेलो बल ने इसी कारण ‘’उपयोगितावाद को निरंक
ु शतावाद क
े निकट
बताया है। ‘’
● बेंथम क
े उपयोगिता वादी चिंतन में मौलिकता का भी अभाव है। उसने उपयोगितावाद का
दर्शन निर्मित करने क
े लिए कई विचारकों से विचार ग्रहण किए हैं । इस स्थिति की ओर
संक
े त करते हुए वेपर ने लिखा है कि ‘’ बेंथम ने ज्ञान का सिद्धांत लॉक तथा ह्यूम से, सुख दुख
का सिद्धांत हेल्वेटियस से, सहानुभूति तथा घृणा की धारणा ह्यूम से और उपयोगिता का
विचार कई अन्य लेखकों से लिया। मौलिकता क
े अभाव में तथा अपने पक्षपातपूर्ण कल्प
विकल्प क
े कारण उसक
े सिद्धांत परस्पर विरोधी और उतने ही भ्रांतिपूर्ण है जितना कि वह
स्वयं ग़लतफहमी से ग्रस्त है। ‘’
कि
ं तु इन आलोचनाओं क
े बावजूद राजनीतिक चिंतन क
े इतिहास में बेंथम का अलग स्थान है। उसने
उपयोगितावाद को दार्शनिक आधार प्रदान किया। मैक्सी क
े शब्दों में,’’ उपयोगिता का विचार बहुत
पुराना और सुपरिचित था। बेंथम ने इसकी खोज नहीं की, इसक
े तार्किक आधारों को पुष्ट करने क
े
लिए बहुत क
ु छ नहीं किया, कि
ं तु उसने तथा उसक
े शिष्यों ने इसे विज्ञान क
े उपकरणों से सुसज्जित
किया तथा उसे उपयोगिता का विलक्षण वेग प्रदान किया। ‘’ उपयोगिता क
े सिद्धांत को राज्य
व्यवस्था का आधार बनाकर उसने राजनीतिक व्यवस्था क
े धारकों को एक नई दिशा प्रदान की।
अपनी गणना पद्धति क
े माध्यम से उसने राजनीति में शोध और अनुसंधान की वैज्ञानिक पद्धति को
प्रोत्साहित किया, जो उसक
े समय में राजनीति जैसे विषय क
े लिए सर्वथा नई थी।
न्याय व्यवस्था में सुधार क
े सुझाव
बेंथम एक विधि शास्त्री थे और इस रूप में ब्रिटिश न्याय व्यवस्था का अध्ययन करते हुए उन्होंने यह
देखा कि ब्रिटिश न्याय व्यवस्था अनेक दोषों से पूर्ण है। वहां की न्याय व्यवस्था न क
े वल अधिक
जटिल और अनिश्चित प्रक्रियाओं से युक्त थी बल्कि उसमें भ्रष्टाचार का भी बोलबाला था।
अत्यधिक खर्चीली होने क
े कारण न्याय तक सामान्य व्यक्ति की पहुंच नहीं थी और न्याय एक तरह से
खरीदा और बेचा जाता था। कानून की शब्दावली बहुत कठिन होती थी, जिसकी व्याख्या क
े लिए
वकीलों की आवश्यकता बनी रहती थी और इस प्रकार अत्यधिक व्यय , समय की बर्बादी और
भ्रष्टाचार ब्रिटिश न्याय व्यवस्था क
े अंग बन गए थे। बेंथम क
े शब्दों में, ‘’ इस देश में न्याय बेचा
जाता है और बड़े महंगे दामों पर बेचा जाता है ,जो व्यक्ति मूल्य नहीं चुका सकता वह न्याय भी प्राप्त
नहीं कर सकता। ‘’
न्याय व्यवस्था क
े आधार स्तंभ वकीलों और न्यायाधीशों दोनों की आलोचना
बेंथम क
े द्वारा की गई और न्यायाधीशों को’ न्याय क
े व्यवसाई’ कहा गया। वकीलों क
े विषय में भी
उनकी राय अच्छी नहीं थी और उनक
े अनुसार वे’’ सत्य और असत्य में भेद करने में असमर्थ,
अदूरदर्शी, जिद्दी ,सार्वजनिक उपयोगिता क
े सिद्धांत की अवहेलना करने वाले, स्वार्थी तथा
अधिकारियों क
े इशारे पर चलने वाले होते थे।‘’ बेंथम ने इस स्थिति में सुधार क
े लिए न्यायाधीशों
की निरंक
ु शता को कम करने और उनमें उत्तरदायित्व की भावना क
े विकास क
े लिए तथा न्याय को कम
खर्चीला और सर्व सुलभ बनाने क
े लिए कई सुझाव दिए और उन सुझावों क
े आधार पर इंग्लैंड की
न्याय व्यवस्था में कई मौलिक सुधार हुए तथा स्वस्थ दिशा में इसका विकास हुआ।
● दंड व्यवस्था में सुधार क
े सुझाव-
बेंथम क
े समय में इंग्लैंड में प्रचलित दंड व्यवस्था अत्यंत कठोर और अमानवीय थी और छोटे छोटे
अपराधों क
े लिए भी मृत्यु दंड की व्यवस्था थी। बेंथम ने उपयोगिता वादी दृष्टिकोण से दंड व्यवस्था
पर विचार करते हुए यह माना कि दंड का उद्देश्य अपराधी को समाज का उपयोगी सदस्य बनाना होना
चाहिए, न कि उससे बदला लेना। अतः दंड व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिससे अपराधी की प्रवृत्ति में
सुधार हो , इसलिए दंड की मात्रा अपराध की मात्रा और गंभीरता क
े अनुपात में ही होनी चाहिए। दंड
का निर्धारण करते समय बेंथम ने निम्नांकित तथ्यों पर ध्यान दिए जाने की बात कही-
1. उन परिस्थितियों पर विचार किया जाना चाहिए, जिन्होंने अपराधी को अपराध करने क
े लिए
प्रेरित किया।
2. अपराध करते समय अपराधी का उद्देश्य क्या था, इस पर भी ध्या न दिया जाना चाहिए ।
3. अपराध की प्रक
ृ ति गंभीर है या साधारण।
4. अपराध द्वारा किस प्रकार से व्यक्ति को हानि पहुंची है।
उक्त बातों पर विचार करते हुए दंड व्यवस्था में निम्नांकित सुधार अपेक्षित है-
● दंड की मात्रा अपराध क
े अनुपात में होनी चाहिए। साधारण अपराध क
े लिए साधारण दंड और
गंभीर अपराधों क
े लिए कठोर दंड की व्यवस्था होनी चाहिए।
● एक जैसे अपराध क
े लिए समान दंड की व्यवस्था होनी चाहिए। इस संबंध में पद और
प्रस्थिति का ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए। यह सुझाव ब्रिटेन क
े विधि क
े शासन की धारणा
क
े अनुरूप है जो कानून क
े समक्ष सभी व्यक्तियों को समान समझती है।
● दंड का उद्देश्य अपराधी एवं समाज दोनों का सुधार करना होना चाहिए। अपराधी को मिलने
वाले दंड से समाज को सीख मिलनी चाहिए कि कानूनों का उल्लंघन दंडनीय है। साथ ही
अपराधी को ऐसा दंड दिया जाना चाहिए जिससे उसकी प्रवृत्ति में सुधार संभव हो और वह
स्वयं को समाज का उपयोगी सदस्य बना सक
े । अत्यधिक कठोर दंड देने से अपराधी क
े मन
में समाज क
े प्रति विद्रोही प्रवृत्ति गहरी बैठ जाती है।
● दंड क
े माध्यम से उस व्यक्ति की क्षतिपूर्ति की जानी चाहिए जिसको अपराधी क
े कारण हानि
पहुंची है। अर्थदंड इस उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है।
● अपराधी को दिए गए दंड क
े पुनरावलोकन की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि न्यायाधीशों की
गलती को सुधारते हुए वास्तविक न्याय प्रदान किया जा सक
े । वर्तमान कानूनी व्यवस्था में
अपील की व्यवस्था इसी सुझाव क
े अनुरूप है।
● दंड व्यवस्था को निश्चित और निष्पक्ष बनाए रखने क
े लिए क्षमादान की व्यवस्था नहीं होनी
चाहिए।
● मृत्युदंड बहुत गंभीर अपराधों क
े लिए ही दिया जाना चाहिए।
2. जेल व्यवस्था में सुधार संबंधी सुझाव-
ब्रिटिश न्याय व्यवस्था क
े अंतर्गत जिन जेलों की व्यवस्था की गई थी उससे बेंथम असंतुष्ट था।
उसक
े अनुसार ब्रिटिश जेलों में अपराधियों क
े साथ पशुओं जैसा व्यवहार किया जाता था। उन्हें
अंधेरी काल कोठियों में बंद रखा जाता था तथा उनका भोजन भी अत्यंत निक
ृ ष्ट कोटि का होता था।
गंभीर और साधारण अपराधियों को एक साथ रखने क
े कारण साधारण अपराधी उनक
े संपर्क में
रहकर गंभीर अपराधी बन जाते थे । यह एक तरह से यातना गृह बन गए थे। बेंथम इन्हें सुधार ग्रह
क
े रूप में परिवर्तित करक
े अपराधियों को ऐसा प्रशिक्षण दिए जाने का पक्षधर था जिससे सजा पूरी
होने क
े बाद वे जेल से बाहर जाने पर उपयोगी और सम्मान जनक जीवन जी सकें। जेल क
े ढांचे में
सुधार करने क
े लिए उसने एक आदर्श नमूना तैयार किया जिससे’ पेन ऑप्टिकन’ का नाम दिया। ‘ पेन
ऑप्टिकन ‘ का शाब्दिक अर्थ है - ‘सर्व दृष्टा’। ऐसे जेल भवन की रचना एक चंद्राकार भवन क
े रूप
में होती है जिसक
े मध्य में ऊ
ं चाई पर बना जेलर का कक्ष होता है और उसक
े चारों तरफ अपराधियों
क
े कक्ष बने होते हैं, ताकि जेलर अपने कक्ष में बैठे- बैठे सभी बंदी कक्षों की निगरानी कर सकें और
उनक
े सुधार क
े लिए अपने कक्ष से ही निर्देश दे सक
े ।
बेंथम क
े जेल भवन में सुधार क
े सुझाव को तो स्वीकार नहीं किया जा सका, कि
ं तु दंड व्यवस्था में
सुधार क
े सुझावों को दुनिया क
े अधिकांश देशों में स्वीकार किया गया और उसक
े विचारों ने
फ
् रांस, स्पेन, रूस, पुर्तगाल और दक्षिणी अमेरिका क
े कई देशों में उग्र सुधारवादी आंदोलनों को
जन्म दिया। आधुनिक दंड- व्यवस्था बेंथम क
े सुझावों से प्रेरित है। उसक
े सुधारात्मक योगदान
को स्वीकार करते हुए इस ईबंसटीन लिखा है कि ‘’पिछली 5 पीढ़ियों में ब्रिटेन में कोई ऐसा सुधार
नहीं हुआ, जिसका मूल प्रेरणा स्रोत बेंथम न रहा हो। ‘’
बेंथम का दर्शन ‘दार्शनिक उग्रवाद’ क
े रूप में बहुत प्रभावी सिद्ध हुआ। प्रोफ
े सर डनिंग ने उसक
े
योगदान को स्वीकार करते हुए उचित ही लिखा है कि ‘’ कई प्रबुद्ध और उत्सुक मस्तिष्कों ने उससे
प्रेरणा ग्रहण की। ....डेविड रिकार्डो ,जेम्स मिल, जॉन ग्रोट , जॉन ऑस्टिन और जॉन स्टूअर्ट मिल
इनमें मुख्य है, जिन्होंने आचार शास्त्र, अर्थ शास्त्र, इतिहास और न्याय शास्त्र क
े क्षेत्र में नए मूल्यों
की स्थापना कर समकालीन बौद्धिक जीवन पर गहरा प्रभाव डाला ,क्योंकि इन सब लोगों का चिंतन
स्पष्ट रूप से बेंथम क
े चिंतन से प्रेरित था। वह राजनीतिक दर्शन क
े क्षेत्र में चलने वाले नए आंदोलन
की एक सशक्त लहर का प्रतीक बन गया। ‘’
मुख्य शब्द- उपयोगितावाद, भौतिक सुख वाद, सुख-दुख गणना पद्धति, न्याय व्यवस्था, जेल व्यवस्था,
दंड व्यवस्था, अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख
References and Suggested Reading
● Prabhu Dutt Sharma ,Pashchatya Rajnitik Chintan Ka Itihas
● Bentham, The Principals Of Morals and Legislation
● W. T. Jones,Masters Of Political Thought,Harrap, London,1973
● www.britannica.com>biography
● Stanford Encyclopaedia Of Philosophy,Plato.stanford.edu
प्रश्न-
निबंधात्मक-
1. बेंथम क
े उपयोगिता वादी विचारों का मूल्यांकन कीजिए।
2. ब्रिटिश न्याय व्यवस्था में सुधार क
े लिए बेंथम द्वारा दिए गए सुझावों का उल्लेख कीजिए।
3. ‘अधिकतम व्यक्तियों क
े अधिकतम सुख’ क
े सिद्धांत में जॉन स्टूअर्ट मिल क
े द्वारा क्या संशोधन
किए गए।
वस्तुनिष्ठ-
1. भौतिक सुखवाद पर आधारित उपयोगितावाद चिंतन में बेंथम का मौलिक योगदान क्या है-
[ अ ] सुख-दुख की गणना पद्धति का राजनीतिक क्षेत्र में प्रयोग
[ ब ] भौतिक सुखवाद की धारणा
[ स ] नैतिक सुख की धारणा
[ द ] सुख- दुख का विश्लेषण
2. बेंथम ने अधिकतम व्यक्तियों क
े अधिकतम सुख का सिद्धांत किस विचारक से ग्रहण किया।
[ अ ] हचिसन [ ब ] प्रीस्टले [ स ] हेल्वेटियस [ द ] ह्यूम
3. बेंथम क
े शिष्य मिल ने भौतिक सुख क
े स्थान पर किसे मानव जीवन का साध्य बताया।
[ अ ] स्वतंत्रता [ ब ] समानता [ स ] न्याय [ द ] उपयोगिता
4. निम्नलिखित में से कौन सा तत्व बेंथम की सुख-दुख गणना पद्धति का अंग नहीं है।
[ अ ] उर्वरता [ ब ] समी पता [ स ] विशुद्धता [ द ] समानता
5. बेंथम ने जेल भवन क
े निर्माण हेतु किस शैली का सुझाव दिया।
[ अ ] अर्धचंद्राकार [ ब ] गोल [ स ] आयताकार [ द ] लंबवत
6. दंड व्यवस्था क
े विषय में बेंथम ने किस प्रथा का विरोध किया।
[ अ ] क्षमादान [ ब ] फांसी की सजा [ स ] अर्थदंड [ द ] जेल की सजा
7. बेंथम की दृष्टि में राज्य क
ै सी संस्था है।
[ अ ] कल्याणकारी [ ब ] समानता पूर्ण [ स ] उपयोगी [ द ] नैतिक
8. बेंथम क
े विचार अनुसार कानून निर्माण का उद्देश्य क्या होना चाहिए।
[ अ ] निर्धन व्यक्तियों का अधिकतम सुख
[ ब ] बहुमत का सुख
[ स ] अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख
[ द ] अधिकतम व्यक्तियों का न्यूनतम सुख
9. बेंथम क
े उपयोगितावाद को ‘शूकरो का दर्शन’ क्यों कहा जाता है।
[ अ ] भौतिक सुख को साध्य मानने क
े कारण
[ ब ] शूकरों को देखकर विचार करने क
े कारण
[ स ] नैतिक सुख की उपेक्षा करने क
े कारण
[ द ] ‘अ ‘और ‘स’सही है।
उत्तर- 1. अ 2.ब 3.अ 4.द 5. अ 6. अ 7. स 8. स 9. द

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  • 1. बेंथम का राजनीतिक चिंतन [1748-1832] https://probaway.files.wordpress.com/2013/06/jeremy_bentham_4fm4.j द्वारा- डॉक्टर ममता उपाध्याय एसोसिएट प्रोफ े सर, राजनीति विज्ञान क ु मारी मायावती राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय
  • 2. बादलपुर, गौतम बुध नगर ,उत्तर प्रदेश यह सामग्री विशेष रूप से शिक्षण और सीखने को बढ़ाने क े शैक्षणिक उद्देश्यों क े लिए है। आर्थिक / वाणिज्यिक अथवा किसी अन्य उद्देश्य क े लिए इसका उपयोग पूर्णत: प्रतिबंध है। सामग्री क े उपयोगकर्ता इसे किसी और क े साथ वितरित, प्रसारित या साझा नहीं करेंगे और इसका उपयोग व्यक्तिगत ज्ञान की उन्नति क े लिए ही करेंगे। इस ई - क ं टेंट में जो जानकारी की गई है वह प्रामाणिक है और मेरे ज्ञान क े अनुसार सर्वोत्तम है। उद्देश्य- ● बेंथम की उपयोगितावादी दर्शन की जानकारी ● राजनीतिक क्षेत्र में गणना की वैज्ञानिक पद्धति क े प्रयोग की जानकारी ● उपयोगितावाद क े राजनीतिक दर्शन का मूल्यांकन ● समसामयिक कानून एवं न्याय व्यवस्था मे सुधार संबंधी सुझावों की जानकारी ● राज्य व्यवस्था की क्रियात्मकता क े व्यवहारिक आयामों का विश्लेषण बेंथम 18 -19 वीं शताब्दी का ब्रिटिश दार्शनिक है, जिसे पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन क े इतिहास में उपयोगितावाद का प्रवर्तक माना जाता है। बेंथम क े विचार बहुआयामी है। अर्थशास्त्र, तर्क शास्त्र, विधि शास्त्र, मनोविज्ञान ,दंड शास्त्र ,धर्मशास्त्र ,नीतिशास्त्र आदि सभी विषयों तक उसक े विचारों का क्षेत्र व्याप्त है। वह एक ऐसा सुधारवादी विचारक है, जिसने वर्क जैसे अनुदारवादी विचारकों क े परंपरा वाद का विरोध किया तो दूसरी तरफ थॉमस पेन और गॉडविन जैसे उग्र क ् रांति वादी विचारकों क े पूर्ण समानता और स्वतंत्रता पर आधारित सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने क े प्रयासों का भी विरोध किया और उपयोगितावाद क े रूप में एक ऐसा दर्शन प्रस्तुत किया जो औद्योगिक व्यवस्था से जन्मे पूंजीपति वर्ग को उसक े हितों की पूर्ति क े कारण आकर्षक प्रतीत हुआ। साथ ही उसने औद्योगिक व्यवस्था में मजदूरों की दयनीय दशा को सुधारने और सामाजिक विषमताओं का अंत करने हेतु सुधारवादी आंदोलन का संचालन किया । बेंथम ने डेविड रिकार्डो, जेम्स मिल, जॉन स्टूअर्ट मिल, जॉन ऑस्टिन और जान ग्रोट जैसे उग्र क ् रांतिकारी दार्शनिकों क े विचारों को प्रभावित किया।
  • 3. जीवन वृत्त- विधिशास्त्री ,सुधारवादी दार्शनिक बेंथम का जन्म 15 फरवरी 1748 को लंदन क े एक संपन्न वकील परिवार में हुआ था। कानून क े ज्ञाताओं क े संपर्क में रहने क े कारण उसकी बुद्धि बचपन से ही क ु शाग्र थी। उसने 3 वर्ष की आयु में ही लैटिन और 4 वर्ष की आयु में फ ् रेंच भाषा का अध्ययन किया और 16 वर्ष की आयु में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से बैचलर ऑफ आर्ट्स की उपाधि प्राप्त की । 1772 में उसने’ लिंकन इन’मे कानून की शिक्षा प्राप्त की। न्याय शास्त्र और वैधानिक दर्शन क े अध्ययन में रुचि दर्शाते हुए उसने ब्रिटेन की संपूर्ण वैधानिक व्यवस्था का पुनर्निर्माण करने का प्रयत्न किया । प्रीस्टले की पुस्तक ‘शासन पर निबंध’ को पढ़ते हुए वह हचिसन क े इस विचार से बहुत प्रभावित हुआ कि’’ अपने अधिकतम सदस्यों का अधिकतम सुख ही वह मापदंड है जिससे कि राज्य का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। ‘’ आगे चलकर इसी विचार को उसने अपनी उपयोगिता वादी चिंतन का आधार बनाया। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में बौद्धिक गति हीनता को देखते हुए उसने लंदन विश्वविद्यालय की आधारशिला रखी और उसक े बाद इंग्लैंड क े अन्य नगरों में भी विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। विश्वविद्यालयों की स्थापना में उसक े योगदान क े कारण उसे ‘एक े डमिक यूनिवर्सिटी कॉलेज’ लंदन का गॉडफादर कहा जाता है । बेंथम क े समय में 1776 में अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा की गई, कि ं तु बेंथम ने इस स्वतंत्रता का स्वागत न करते हुए स्वतंत्रता की घोषणा में वर्णित सिद्धांतों का खंडन किया और उस पर व्यंग्यात्मक निबंध लिखा । जीवन पर्यंत लेखन में उन की अभिरुचि बनी रही और ऐसा माना जाता है कि उसक े लेखों की पांडुलिपियाँ 148 संदूकों में बंद है जो लंदन विश्वविद्यालय और ब्रिटिश म्यूजियम में आज भी सुरक्षित है। कि ं तु उसने अपने लेखों क े विधिवत प्रकाशन का प्रयास नहीं किया और उसक े मित्रों और सहायकों क े द्वारा उनका प्रकाशन किया गया। यूरोप क े देशों में उसक े विचारों को लोकप्रिय बनाने का कार्य एक स्विस नागरिक क ु मारी ड्यू माउंट क े द्वारा उसका फ ् रांसीसी भाषा में अनुवाद करक े किया गया। 1789 में उसक े प्रसिद्ध क ृ ति ‘ प्रिंसिपल्स ऑफ़ मोरल एंड लेजिसलेशन’ का प्रकाशन हुआ जिसमें उसने मौजूदा कानूनों में सुधार क े लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिए। उसक े विचारों का प्रभाव इंग्लैंड से ज्यादा यूरोप क े अन्य देशों पर पड़ा और विभिन्न देशों ने कानून सुधार क े लिए उसक े विचारों को आमंत्रित करना शुरू किया। हाईजलिट का कथन है कि ‘’उसका नाम इंग्लैंड में बहुत कम व्यक्ति जानते हैं, यूरोप में एक से अधिक व्यक्ति जानते हैं, कि ं तु चिली क े मैदानों और मेक्सिको की खानों में उसका नाम सबसे अधिक व्यक्ति जानते हैं।
  • 4. ‘’विचारों से प्रभावित होकर 1792 में फ ् रांस की राष्ट्रीय सभा ने उसे ‘फ ् रांसीसी नागरिक’ की सम्मानजनक उपाधि से विभूषित किया। अपने जीवन क े अंतिम वर्षों में बेंथम अपने शिष्य मिल क े साथ इंग्लैंड क े दार्शनिक संप्रदाय से जुड़ा जिसका उद्देश्य दार्शनिक ज्ञान को व्यवहारिक जीवन में प्रयोग कर समाज और राजनीति को समस्या मुक्त बनाना था। इस उद्देश्य की प्राप्ति क े लिए बेंथम ने नैतिकता को नए रूप में प्रस्तुत किया जिसका केंद्र बिंदु सुखवादी दर्शन है। 6 जून 1832 को 84 वर्ष की आयु में बेंथम का देहावसान हुआ और मृत्यु क े बाद उसक े शिष्यों ने उसे पितामह और आध्यात्मिक नेता क े रूप में सम्मानित किया एवं ईश्वर की तरह उसे प्रति स्थापित किया गया। रचनाएं- बेंथम ने अपने जीवन काल में’ लंदन रिव्यू’ और’ वेस्टमिंस्टर रिव्यु’ में प्रकाशित अनेक लेखों क े अतिरिक्त कई पुस्तकों की रचना भी की जिनमें प्रमुख हैं- ● एन इंट्रोडक्शन टू द प्रिंसिपल ऑफ मोरल्स एंड लेजिसलेशन[ 1789 ] ● ऐसे ऑन पॉलिटिकल टैक्टिक्स [ 1791] ● डिसकोर्सेज ऑन सिविल एंड पीनल लेजिसलेशन[ 1802 ] ● क े टिज्म ऑफ पार्लियामेंट्री रिफॉर्म्स[ 1809 ] ● अ थ्योरी ऑफ़ पनिशमेंट एंड रिवार्ड्स [ 1811] ● ए ट्रीटाइस ऑन जुडिशल एविडेंस [ 1813 ] ● रेडिकलाइज्म नोट डेंजरस [ 1819 ] ● बुक ऑफ फ ै लेसिस [ 1824 ] ● द कांस्टीट्यूशनल कोड [ 1830] प्रभाव- हचिसन, प्रीस्टले, डेविड ह्यूम, हेलमेट अध्ययन पद्धति- आगमनात्मक एवं आनुभविक उपयोगितावादी दर्शन
  • 5. एक दर्शन क े रूप में उपयोगितावाद मनुष्य क े आचरण का सिद्धांत है जिसकी मौलिक मान्यता यह है कि मनुष्य मूलतः इंद्रिय प्रधान प्राणी है जिसका उद्देश्य सुख प्राप्त करना और दुख से बचना है। यह दर्शन बेंथम से पहले भी कई रूपों में मौजूद रहा है। प्राचीन भारत में ‘चार्वाक दर्शन’ एवं प्राचीन यूनान में एपिक्यूरियन्स क े विचारों का आधार सुखवाद रहा है। आधुनिक युग में इसका प्रारंभ 17वीं शताब्दी में रिचार्ड कम्बरर्लैंड क े द्वारा किया गया। इसक े अतिरिक्त डेविड ह्यूम ,प्रीस्टले, हचिसन और फ ् रांस में हेल्वेटियस आदि ने भी उपयोगितावाद विचारों क े प्रतिपादन में योगदान दिया। कि ं तु अपनी पुस्तक ‘प्रिंसिपल्स ऑफ मोरल एंड लेजिसलेशन’ क े माध्यम से बेंथम ने उपयोगितावाद को एक सुनिश्चित एवं व्यवस्थित विचारधारा का रूप दिया और इसे सार्वजनिक जीवन में राज्य क े कार्यों का आधार बताया। उपयोगितावाद की मान्यताएं- बेंथम द्वारा प्रतिपादित उपयोगितावाद की प्रमुख मान्यताएं या विशेषताएं इस प्रकार बताई जा सकती हैं- ● प्रत्येक वस्तु, संस्था और कार्य क े औचित्य का आधार उपयोगिता है- बेंथम द्वारा प्रवर्तित उपयोगितावाद की प्रमुख मान्यता यह है कि इस संसार में जितनी भी वस्तुएं और संस्थाएं निर्मित की गई है ,उनक े मूल्यांकन का मापदंड मनुष्य जीवन क े लिए उनका उपयोगी होना है। वही संस्था, वस्तु और कार्य स्वीकार्य है, जिसकी मानवीय जीवन क े लिए उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है। ● उपयोगिता का आधार भौतिक सुख वाद है - किस वस्तु और संस्था को उपयोगी माना जाए और उपयोगिता क े निर्धारण का मापदंड क्या हो, इस संबंध में बेंथम भौतिक सुख की धारणा का प्रतिपादन करते हैं और यह मानते हैं कि वही वस्तु और वही संस्था उपयोगी मानी जा सकती है जो मनुष्य क े भौतिक सुखों में वृद्धि कर सक े । उल्लेखनीय है कि अध्यात्मशास्त्र क े अंतर्गत मनुष्य नैतिक एवं आध्यात्मिक सुख में वृद्धि की बात कही जाती है, कि ं तु इंग्लैंड की व्यक्तिवादी, उदारवादी विचारधारा से प्रभावित
  • 6. होने क े कारण बेंथम लौकिक जीवन को महत्व देते हैं और लौकिक जीवन को सुखमय बनाने क े लिए जिन भी साधनों की उपलब्धता होती है, उन्हें ही वे उपयोगी मानते हैं। बेंथम की मान्यता है कि मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह प्रत्येक कार्य सुख की प्राप्ति को ध्यान में रखकर करता है और ऐसे कार्यों को करने से बचता है जो उसक े दुखों में वृद्धि करें। बेंथम क े शब्दों में, ‘’ प्रक ृ ति ने मानव जाति को सुख-दुख नामक दो महत्वपूर्ण स्वामियों क े शासन में रखा है। क े वल उन्हें ही यह निर्दिष्ट करना है कि हमें क्या करना चाहिए तथा उन्हें ही यह निर्धारित करना है कि हम क्या करेंगे। उनक े सिंहासन क े एक और उचित- अनुचित का मापदंड बना हुआ है और दूसरी ओर कार्य- कारण की जंजीर बंधी हुई है। हमारे मन, वचन और कर्म पर वे ही शासन करते हैं। यदि हम उनकी अधीनता से मुक्त होने का प्रयास करते हैं तो इससे उनकी और भी पुष्टि हो जाती है और उसका प्रमाण मिल जाता है। कोई भी मनुष्य शब्दों शब्दों का जाल फ ै ला कर उनकी अधीनता से मुक्त होने का बहाना भले ही कर ले, कि ं तु वास्तविक रूप से वह उनक े अधीन ही रहेगा। ‘’ उपयोगितावादी सिद्धांत की मान्यता है कि वह कार्य जिससे सुख मिलता है,वह अच्छा है, उचित है और जिस से दुख मिलता है, वह अनुचित और गलत है।’’ बेंथम क े समान ही हॉब्स ने भी मनुष्य को एक सुखवादी प्राणी माना है जो अपने जीवन की रक्षा क े निमित्त हर प्रयत्न करता है, कि ं तु हाब्स क े चिंतन में मनुष्य जहां स्वतंत्र एवं एकाकी प्राणी है और वह सिर्फ अपने ही सुखों की कामना करता है, वही बेंथम क े चिंतन में मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ,उसक े ऊपर समाज और राज्य का बंधन है और वह अपने सुख क े साथ दूसरों क े कल्याण क े विषय में भी चिंतित रहता है और प्रयास करता है। ● सुख-दुख क े प्रकार- भौतिक सुखों को मानव जीवन का साध्य मानते हुए बेंथम ने सुख-दुख क े प्रकारों की व्यापक चर्चा की है। उसने 12 प्रकार क े दुख और 14 प्रकार क े सुख बताए हैं। सुख क े प्रकार- इंद्रिय सुख, वैभव सुख, कौशल का सुख, मित्रता का सुख, यश का सुख ,शक्ति या सत्ता का सुख, कल्पना का सुख, धार्मिक सुख, दया का सुख, निर्दयता का सुख, स्मृति का सुख, आशा का सुख, संपर्क या मिलन का सुख और सहायता का सुख।
  • 7. दुख क े प्रकार- संपर्क का दुख, आशा का दुख, कल्पना का दुख, स्मरण का दुख, दया, धार्मिकता, अपयश, शत्रुता, परेशानी, दुर्भावना और दरिद्रता। ● सुख-दुख क े स्रोत- सुख-दुख क े प्रकारों का वर्णन करने क े बाद बेंथम ने सुख-दुख क े स्रोतों की चर्चा भी की है। वे इनक े चार स्रोत मानता है-1. भौतिक 2. नैतिक 3. राजनीतिक 4. धार्मिक भौतिक स्रोत क े अंतर्गत वह सुख- दुख आते हैं, जो प्रक ृ ति प्रदत्त होते हैं और जिनक े लिए मनुष्य उत्तरदाई नहीं होता है । नैतिक स्रोत में वे सुख-दुख शामिल है जो हमें अपने साथियों और पड़ोसियों से प्राप्त होने वाले व्यवहार- घृणा और प्रेम की भावनाओं से मिलते हैं। राजनीतिक स्रोत में सुख-दुख का सृजन सरकारी अधिकारियों द्वारा कानून क्रियान्वयन क े कारण होता है। कोई राजकीय कानून हमारे भौतिक सुखों में वृद्धि कर सकता है तो वही कानून किसी क े लिए दुख कारी भी हो सकता है। धार्मिक स्रोत क े अंतर्गत वे सुख- दुख आते हैं जो हमें धर्म शास्त्र की व्यवस्थाओं क े अनुसार प्राप्त होते हैं। सुख-दुख क े इन स्रोतों को स्पष्ट करते हुए बेंथम ने एक मकान का उदाहरण दिया है और यह कहा है कि ‘’यदि एक मनुष्य का मकान अपनी असावधानी से चलता है तो यह उसी प्रक ृ ति द्वारा दिया गया दंड है। यदि दंडनायक की आज्ञा से जलाया जाता है तो यह राजनीतिक दंड है। अगर वह आग लगने पर सहायता न देने वाले साथियों और पड़ोसियों की दुर्भावना से जलता है तो यह जनमत का दंड है और अगर वह किसी दैवी प्रकोप से भस्म हुआ है तो इसे धार्मिक दंड माना जाएगा। ‘’ बेंथम क े विचारानुसार यह सभी प्रकार क े सुख- दुख अपने स्वरूप क े आधार पर जटिल प्रक्रिया से परस्पर जुड़े होते हैं। कोई एक सुख किसी अन्य सुख का कारण बन सकता है और कभी कोई एक दुख अन्य दुखों को आमंत्रित कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति की सुख और दुख को पहचानने, सहने और उसक े प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त करने की अलग-अलग क्षमता और प्रवृत्ति होती है। इस दृष्टि से मनुष्य पर कई तत्वों का प्रभाव पड़ता है। जैसे- स्वास्थ्य, शक्ति, कठोरता, शारीरिक दोष
  • 8. ,संवेदनशीलता,ज्ञान की मात्रा, आर्थिक व्यवस्था ,नैतिकता ,सामाजिक पद, शिक्षा, वंश परंपरा और लिंग। ● सुख दुख में मात्रा का अंतर है- उपयोगितावाद क े सुखवादी सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए बेंथम ने यह स्थापित करने का प्रयास किया सुख और दुख में मात्रा का अंतर है, गुणों का नहीं। किसी कार्य को करने से मिलने वाले सुख की मात्रा से ही यह निश्चित किया जा सकता है कि वह कार्य उपयोगी है या नहीं। कोई सुख या दुख कम या अधिक हो सकता है, कि ं तु अच्छा या बुरा सुख- दुख नहीं हो सकता। इस संबंध में बेंथम यहां तक कहता है कि यदि किसी व्यक्ति को मदिरापान करने में आनंद मिलता है, किसी बच्चे को पुश पिन का खेल खेलने में आनंद मिलता है या किसी कवि को कविता पाठ में आनंद मिलता है।इन सभी कार्यों से मिलने वाले सुख की मात्रा यदि बराबर है तो इन सभी कार्यों का समान महत्व है और यह सभी किए जाने योग्य है। ● सुख दुख को मापा जा सकता है- सामाजिक राजनीतिक दर्शन क े क्षेत्र में गणितीय पद्धति को अपनाते हुए बेंथम यह मानता है की सुख दुख में जो मात्रा का अंतर होता है उसे एक निश्चित पद्धति क े आधार पर मापा जा सकता है और किसी कार्य या संस्था का मूल्यांकन इस पद्धति को अपनाते हुए प्राप्त होने वाले सुख-दुख की मात्रा की गणना करक े किया जा सकता है। हालांकि सुख दुख मानसिक अनुभूति है जिन्हें वस्तुओं क े समान मापा नहीं जा सकता, लेकिन बेंथम ने सुख-दुख को मापने क े लिए क ु छ कसौटियां निर्धारित की है ,जिन कसौटियों को वह ‘Hedonistic Calculas’का नाम देता है। उसकी दृष्टि में यह कसौटियां सात प्रकार की हैं- 1. तीव्रता 2. स्थिरता 3. निश्चितता 4. समीपता या दूरीपन 5. उर्वरता 6. विस्तार 7. विशुद्धता
  • 9. बेंथम क े अनुसार इन कसौटियों क े आधार पर एक व्यक्ति यह निश्चित कर सकता है कि कौन सा कार्य करना उपयोगी होगा और कौन सा अनुपयोगी। इन कसौटियों क े आधार पर वह प्रत्येक कार्य से प्राप्त होने वाले सुख-दुख की मात्रा की गणना करक े अंक प्रदान करेगा और जिस पक्ष में अंक ज्यादा होंगे, उसी क े आधार पर उस कार्य की उपयोगिता -अनुपयोगिता निर्धारित होगी। बेंथम क े शब्दों में, ‘’ समस्त सुखों क े समस्त मूल्यों को एक ओर तथा समस्त दुखों क े समस्त मूल्यों को दूसरी ओर एकत्रित कर लेना चाहिए । एक को दूसरे में से घटाने पर सुख शेष रह जाता है तो कोई कार्य ठीक है, कि ं तु यदि दुख अवशेष रहे तो यह समझ लेना चाहिए कि संबंधित कार्य ठीक नहीं है। ‘’ ● राज्य क े औचित्य का आधार उपयोगिता है- सुखवादी उपयोगितावाद क े आचार शास्त्रीय सिद्धांत को राजनीतिक क्षेत्र में लागू करते हुए बेंथम ने यह प्रतिपादित किया कि राज्य की उत्पत्ति और उसक े अस्तित्व का आधार कोई और तत्व नहीं, बल्कि उसकी उपयोगिता है। उसने हॉब्स , लॉक एवं रूसो क े द्वारा प्रतिपादित राज्य की उत्पत्ति क े सामाजिक समझौता सिद्धांत को अस्वीकार कर करते हुए राज्य की उपयोगिता वादी परिभाषा की। उसक े शब्दों में, ‘’ राज्य व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जो लोगों क े लिए उपयोगिता को बनाए रखने तथा उसकी अभिवृद्धि करने क े लिए संगठित किया जाता है अर्थात मनुष्य क े हित या सुख की अभिवृद्धि क े लिए स्थापित किया जाता है। ‘’ व्यक्ति राज्य की आज्ञा का पालन इसलिए नहीं करते कि अतीत में ऐसा कोई समझौता हुआ था जिसमें राजाज्ञा पालन की शर्त रखी गई थी, बल्कि इसलिए करते हैं क्योंकि राज्य की आज्ञा पालन मे उन्हें लाभ और उपयोगिता दिखाई देती है और उनकी सुख प्राप्त की आकांक्षा पूर्ण होती है । मनुष्य जानता है कि राज्य में रहकर , उसक े आदेशों का पालन करक े ही वह सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसलिए वह उसकी अवज्ञा से बचता है। बेंथम क े शब्दों में, ‘’ अबज्ञा से होने वाले अहित की तुलना में आज्ञा पालन अधिक उपयोगी है। ‘’ ● अधिकारों क े अस्तित्व का आधार उनकी उपयोगिता है- बेंथम ने प्राक ृ तिक अधिकारों क े सिद्धांत में विश्वास व्यक्त न करते हुए उन्हें मूर्खतापूर्ण बताया है और यह मत व्यक्त किया है कि कि थॉमस पेन और गाडविन आदि क े द्वारा प्रचारित प्राक ृ तिक अधिकारों की धारणा भ्रामक है क्योंकि राज्य और समाज से पूर्व प्रक ृ ति प्रदत्त अधिकारों की बात वास्तविकता क े धरातल पर खरी नहीं उतरती है। अधिकारों की उपयोगिता वादी धारणा को प्रस्थापित करते हुए बेंथम ने यह प्रतिपादित किया कि ‘’ अधिकार मानव क े सुखमय जीवन क े
  • 10. नियम हैं जिन्हें राज्य क े कानूनों द्वारा मान्यता प्रदान की जाती है। ‘’ उसक े अनुसार पूर्ण स्वतंत्रता की प्राक ृ तिक धारणा असंभव है और यह प्रत्येक प्रकार की सरकार की सत्ता की प्रत्यक्ष विरोधी है। उसने प्रश्न किया कि क्या वास्तव में सब मनुष्य स्वतंत्र रूप से उत्पन्न होते हैं?, क्या वे स्वतंत्र रह पाते हैं? उसने उत्तर दिया कि एक भी आदमी ऐसा नहीं है। इसक े विपरीत सभी मनुष्य पराधीन पैदा होते हैं। इस प्रकार बेंथम ने अधिकारों क े प्राक ृ तिक रूप को अस्वीकार करते हुए उनक े सामाजिक और कानूनी रूप पर बल दिया और इस दृष्टि से वह दो प्रकार क े अधिकारों का उल्लेख करता है-1. कानूनी अधिकार और 2. नैतिक अधिकार कानूनी अधिकार मनुष्य क े बाहर आचरण को और नैतिक अधिकार उसक े आंतरिक आचरण को नियंत्रित करते हैं। साथ ही बेंथम ने कर्तव्यों पर भी जोर दिया है क्योंकि उसक े दृष्टि में कर्तव्यों क े बिना अधिकारों का कोई महत्व नहीं है और दोनों की सार्थकता एक दूसरे पर निर्भर है। ● कानून का उद्देश्य अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख है- राज्य का प्रमुख कार्य कानून का निर्माण कर नागरिकों की भलाई का मार्ग प्रशस्त करना है। कानून- निर्माण की यह शक्ति ही राज्य की संप्रभुता है, क्योंकि किसी व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से कानून बनाने का अधिकार नहीं होता है। कि ं तु राज्य की कानून बनाने की शक्ति पर उपयोगिता का प्रतिबंध है । राज्य की शक्तियां असीमित नहीं है।ब्रिटेन की उदारवादी परंपरा का प्रभाव होने क े कारण बेंथम भी यह मानता है कि राज्य को ज्यादा कानूनों का निर्माण नहीं करना चाहिए और यदि नागरिकों का विशाल भाग किसी विषय पर कानून बनाने का व्यापक विरोध करें, तो सरकार को ऐसे कानून नहीं बनाने चाहिए। बेंथम ने कानून की तुलना दवाओं से की है। जिस प्रकार दवाएं रोगों का इलाज करती हैं लेकिन अत्यधिक दवाओं का सेवन स्वास्थ्य को नष्ट भी कर देता है, उसी प्रकार कानून हमारे सुखों में वृद्धि का माध्यम है, लेकिन यदि राज्य क े द्वारा अत्यधिक मात्रा में कानून बनाए जाने लगेंगे तो इससे व्यक्तियों क े सुख में कमी होने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा। कानून का औचित्य उसकी उपयोगिता और उसकी आज्ञा पालन में ही है। यदि लोगों क े मन में कानून क े प्रति सम्मान नहीं होगा और लोग किसी कानून को दुख कारक मानेंगे तो वह उसका पालन नहीं करेंगे और बेंथम की मान्यता है कि लोगों को ऐसे कानून का विरोध करना भी चाहिए जो उनक े दुखों में वृद्धि करें। साथ ही शासकों को भी यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए । अतः कानून निर्माण का उद्देश्य ‘’ अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख’’ होना चाहिए। बेंथम क े शब्दों में,’’ अधिकतम सुख का
  • 11. सिद्धांत एक क ु शल विधायक क े हाथों एक प्रकार का सार्वभौम साधन देता है जिसक े द्वारा वह विवेक और विधि क े हाथों सुख क े वस्त्र बना सकता है। ‘’ राज्य को इस बात का प्रयास भी करना चाहिए कि न क े वल राजकीय पदाधिकारी बल्कि नागरिक भी सार्वजनिक कल्याण की पूर्ति क े लिए कार्य करें । नागरिकों द्वारा स्वेच्छा और प्रसन्नता क े साथ सार्वजनिक कल्याण क े कार्यों को करने से समाज क े ताने-बाने को मजबूत बनाने में सहयोग मिलेगा और राज्य विभिन्न प्रकार क े धार्मिक, प्रजातिगत गतिविधियों एवं विघटनकारी तत्वों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है । बेंथम का यह विचार समसामयिक दौर में नागरिक संगठनों द्वारा किए जाने वाले समाज हित क े कार्यों की धारणा क े अनुरूप है। समाज को निरंतर अस्तित्व में बनाए रखने क े लिए यह जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी -अपनी क्षमता और योग्यता क े अनुसार लोक कल्याणकारी कार्यों को करें और राज्य का यह दायित्व है कि लोकहित कारी कार्यों में संलग्न व्यक्तियों क े मार्ग में कोई भी बाधा आने पर उसका निराकरण करें। बाधक व्यक्तियों को दंडित करें। जो राज्य ऐसा कर पाता है वह लंबे समय तक कायम रहता है। कानून का उद्देश्य- अधिकतम व्यक्तियों क े अधिकतम सुख की प्राप्ति बेंथम की दृष्टि में कानून का व्यापक उद्देश्य है। इसक े अतिरिक्त उपयोगी कानूनों क े निर्माण क े 4 लक्ष्यों की चर्चा भी बेंथम क े द्वारा की गई है। यह है-1. आजीविका 2. समानता 3. सुरक्षा 4. पर्याप्तता । यदि इन चारों उद्देश्यों में आपस में संघर्ष की स्थिति हो तो ऐसी स्थिति में कानून निर्माता को उन्हें उपरोक्त क ् रम में प्राथमिकता प्रदान करनी चाहिए। ● स्वतंत्रता नहीं, बल्कि सुख साध्य है- उपयोगिता बादी योजना क े अंतर्गत बेंथम ने स्वतंत्रता क े बजाय सुख को महत्व दिया है, जो रूसो, लॉक , मिल,जेफरसन आदि उदारवादी विचारकों की धारणा क े विपरीत है। चूंकि कानून का उद्देश्य अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख साधना है और कानून एक आदेश है, वह हमारे आचरण को प्रतिबंधित करता है, इसलिए बेंथम की दृष्टि में वह स्वतंत्रता का शत्रु है। मानव जीवन की प्रमुख आवश्यकता सुरक्षा है, स्वतंत्रता नहीं। इसलिए स्वतंत्रता को प्राक ृ तिक अधिकार क े रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती और यही कारण है कि बेंथम ने अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा का माखौल उड़ाया था। बेंथम क े इस विचार को स्पष्ट करते हुए प्रोफ े सर सोर ले ने लिखा है, ‘’ कानून का मुख्य उद्देश्य
  • 12. सुरक्षा है और सुरक्षा क े सिद्धांत का आशय उन सभी आशाओं को बनाए रखना है जिन्हें स्वयं कानून उत्पन्न करता है। सुरक्षा सामाजिक और सुखी जीवन की एक आवश्यकता है, जबकि क्षमता एक प्रकार की विलासिता है जिसे क े वल कानून उसी सीमा तक ला सकता है जहां तक उसका सुरक्षा से कोई विरोध न हो। जहां तक स्वतंत्रता का संबंध है, वह कानून का कोई उद्देश्य नहीं है,यह तो सुरक्षा की एक शाखा मात्र है और यह एक ऐसी शाखा है जिसमें कानून काट छांट किए बिना नहीं रह सकता है। ‘’ ● अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख क े वल लोकतंत्र में ही संभव है- अपनी उपयोगिता वादी मान्यताओं को शासन क े क्षेत्र तक वितरित करते हुए बेंथम ने प्रतिपादित किया कि शासन का उद्देश्य नागरिकों क े सुखों में वृद्धि और दुखों में कमी करना होना चाहिए और ऐसा क े वल लोकतंत्र में ही संभव हो सकता है क्योंकि लोकतंत्र शासन प्रणाली बहुमत क े आधार पर संचालित होती है। बेंथम क े शब्दों में, ‘’राजतंत्र में क े वल सर्वोच्च शासक का हित साधन होता है, क ु लीन तंत्र में सिर्फ क ु छ क ु लीन एवं संपन्न व्यक्तियों क े हितों पर ध्यान दिया जाता है, लेकिन लोकतंत्र ही वह शासन प्रणाली है जिसमें शासक गण शासन करते समय ‘ अधिकतम व्यक्तियों क े अधिकतम सुख’ की साधना कर सकते हैं। ‘’ लोकतंत्र समानता क े सिद्धांत पर आधारित होता है और उपयोगितावाद का सुख वादी सिद्धांत भी इसी समानता क े सिद्धांत पर आधारित है जिसमें यह भाव निहित है कि समाज में सभी व्यक्तियों को सुख प्राप्त करने और दुख से बचने का समान अधिकार है। बेंथम क े विचारों को व्यक्त करते हुए सी . एल . वेपर ने लिखा है कि ‘’बेंथम क े राज्य में सभी व्यक्ति समान अधिकार रखते हैं। कानून क े समक्ष सभी व्यक्ति समान होने चाहिए, तभी संपत्ति की समानता स्थापित होगी । बेंथम का यह विश्वास है कि जिस समाज में असमानताएं नहीं होंगी, वह समाज प्रसन्न और सुखी रहेगा।’’ यद्यपि बेंथम लोकतंत्र की कमजोरियों से भी परिचित था, जहां प्रत्येक व्यक्ति अपना विकास दूसरे क े विकास की कीमत पर करने क े लिए सदैव तत्पर रहता है, अतः ऐसी प्रवृत्ति वाले मनुष्यों को बेंथम ने कानून और दंड क े भय से नियंत्रित करने का सुझाव दिया। उसक े अनुसार जन प्रतिनिधियों पर नियंत्रण बढ़ाकर, कार्यपालिका को उत्तरदाई बनाकर, संसद सदस्यों द्वारा प्रधानमंत्री का चुनाव कराकर, वयस्क मताधिकार का विस्तार कर और उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति प्रतियोगिता परीक्षाओं क े द्वारा करा कर लोकतंत्र में जनता क े अधिकतम सुख को सुरक्षित रखा जा सकता है। इसक े अतिरिक्त जनता की सजगता तथा नियमित और निष्पक्ष चुनावों क े माध्यम से राजनीतिज्ञों को दायित्व बोध कराते रहना लोकतंत्र को अर्थ पूर्ण बनाता है, ऐसा
  • 13. बेंथम ने माना और लोकतंत्र को सफल और सार्थक बनाने क े लिए प्रेस की स्वतंत्रता पर जोर दिया। ब्रिटिश लोकतंत्र को परिपक्व को बनाने क े लिए उसने संसद का चुनाव प्रतिवर्ष कराने, मतदान को गोपनीय बनाने, मताधिकार का विस्तार करने और संसद क े द्वितीय सदन लॉर्ड सभा को क ु लीन तंत्र का प्रतीक होने क े कारण समाप्त करने का सुझाव दिया। बेंथम क े उपयोगितावादी विचारों की आलोचना- यद्यपि बेंथम ने अपने उपयोगिता वादी विचारों क े आधार पर 19वीं शताब्दी क े राजनीतिक चिंतन को गहराई से प्रभावित किया, कि ं तु आलोचकों की दृष्टि में उनक े सुखवादी उपयोगितावाद में कई कमियां रह गई। स्वयं बेंथम क े शिष्य जे. एस. मिल ने उनक े उपयोगितावाद विचारों की आलोचना की और उसमें आवश्यक संशोधन करक े उसे प्रासंगिक बनाए रखा। आलोचक निम्नांकित आधारों पर बेंथम की आलोचना करते हैं- ● बेंथम का दर्शन पूर्णतः भौतिकवादी दर्शन है, जिसक े अनुसार क े वल भौतिक सुखों की प्राप्ति ही जीवन का साध्य है, नैतिकता, अंतर्मन, सत्य- असत्य जैसी नैतिक धारणाओं का न तो कोई महत्व है और न ही स्थान है। प्रकारान्तर से बेंथम ने भौतिक सुखों की प्राप्ति क े लिए अनैतिक कार्यों को करने की भी छूट दी है। ऐसे विचार एक नैतिकताहीन समाज की तरफ ले जाते हैं। व्यक्ति क े कार्यों का प्रेरक सिर्फ भौतिक सुख की प्राप्ति ही नहीं होता, बल्कि इतिहास ऐसे महापुरुषों क े उदाहरण से भरा पड़ा है, जो समाज कल्याणकारी कार्यों क े लिए जीवन भर निजी सुखों का बलिदान करते रहे। महात्मा गांधी का भी विचार था कि एक अच्छे समाज की स्थापना क े लिए सज्जनों को कष्ट उठाना पड़ता है। यह वह मूल्य है जो उन्हें न्याय पूर्ण समाज क े लिए चुकाना पड़ता है। ● आलोचको की दृष्टि में बेंथम सामाजिक रूप से संवेदनशील होने क े बावजूद मौलिक रूप से व्यक्तिगत संपत्ति क े समर्थक और व्यक्तिवादी विचारक ही बने रहे । समाज क े विषय में परमाणु वादी विचार ने उन्हें एक असंगत समष्टि वादी बना दिया। ● बेंथम ने अपने चिंतन में तर्क पर आवश्यकता से अधिक बल दिया है। उनक े व्यक्तित्व में भावना क े लिए संभवत कोई स्थान नहीं था। सांसारिक सुखों का त्याग करने वाले व्यक्ति को वह ढोंगी समझते थे। ● मैक्फर्सन ने बेंथम क े उपयोगिता वादी चिंतन में अंतर्विरोध की बात कही है। बेंथम की दृष्टि में समाज का हित इसी में है कि व्यक्तिगत सुखों को जोड़ते समय प्रत्येक व्यक्ति को एक इकाई
  • 14. माना जाए, किसी को एक से अधिक नहीं माना जाए। उपयोगिता का नियम यह मानता है कि भूखे मनुष्य को दूसरी रोटी से उतनी संतुष्टि प्राप्त नहीं होती जितनी पहली रोटी से प्राप्त होती है, अतः किसी व्यक्ति क े पास कोई चीज जितनी ज्यादा होगी, उसकी वृद्धि से उतनी ही कम संतुष्टि उसे मिलेगी। एक तरफ बेंथम लोकतंत्र में समानता क े सिद्धांत का समर्थन करता है तो दूसरी तरफ बाजार अर्थव्यवस्था क े पक्ष में वह यह भी प्रतिपादित करता है कि यदि मनुष्य को समान संपत्ति की सुरक्षा प्रदान की जाएगी तो उसे संपत्ति अर्जित करने क े लिए कोई प्रोत्साहन नहीं मिलेगा और पूजी संचय क े बिना कोई उत्पादकता नहीं होगी। इस प्रकार बेंथम एक तरफ समानता को उचित मानता है ,तो दूसरी तरफ पूंजीवाद क े हित में उसका त्याग भी कर देता है। ● जॉन रॉल्स ने उपयोगिता वादी सिद्धांत की आलोचना करते हुए लिखा है कि इसमें सामूहिक हित की वृद्धि क े लिए व्यक्तिगत हित की बलि दे दी जाती है । अधिकतम व्यक्तियों क े हितों क े लिए क ु छ व्यक्तियों क े हितों की बलि देना न्याय क े सिद्धांत क े सर्वथा विरुद्ध है। ● बेंथम क े शिष्य जॉन स्टूअर्ट मिल ने उपयोगितावाद की आलोचना इस आधार पर की है कि सुख और दुख में सिर्फ मात्रात्मक अंतर ही नहीं, बल्कि गुणात्मक अंतर भी होता है। निसंदेह नैतिक जीवन की दृष्टि से मदिरापान और काव्य -पाठ में मिलने वाला आनंद समान नहीं हो सकता, जैसा कि बेंथम ने प्रतिपादित किया है। आलोचकों ने इसे ‘शूकरो का दर्शन’ कहा है। मिल क े शब्दों में, ‘’एक संतुष्ट सूअर होने क े बजाय एक असंतुष्ट मनुष्य होना ज्यादा अच्छा है और एक असंतुष्ट सुकरात एक संतुष्ट मूर्ख से बेहतर है। ‘’ ● आलोचक बेंथम की सुख -दुख गणना पद्धति से भी संतुष्ट नहीं हैं और यह मानते हैं कि सुख और दुख भावनात्मक अनुभव की चीजें हैं जिन्हें गणित क े समान अंक देकर मात्रात्मक आधार पर नापा नहीं जा सकता है । मैक्कन ने लिखा है कि ‘’ राजनीति में गणित का प्रयोग उतना ही निरर्थक है जितना गणित में राजनीति का। ‘’ ● ‘अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख का सिद्धांत’ सैद्धांतिक दृष्टि से आकर्षक है, कि ं तु व्यावहारिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं है। सुख-दुख व्यक्ति निष्ठ भावनाएं हैं जिनका पता लगाना राज्य क े लिए संभव नहीं है ऐसे में अधिकतम व्यक्तियों क े अधिकतम सुख क े सिद्धांत क े आधार पर राज्य द्वारा कानून निर्माण का कार्य क ै से किया जा सकता है।
  • 15. ● आलोचको की दृष्टि में यह अल्पसंख्यकों का दमन करने वाला सिद्धांत है क्योंकि अधिकतम व्यक्तियों क े अधिकतम सुख पर बल देता है। एक न्याय पूर्ण समाज सभी क े हित की बात करता है ,न की क े वल अधिकतम लोगों क े हित की बात। हेलो बल क े शब्दों में,’’ बेंथम क े सिद्धांत में अल्प संख्या क े पास बहुत संख्या क े अन्याय और अत्याचार से मुक्ति पाने का कोई मार्ग नहीं है। यह बहुमत क े अत्याचार को प्रोत्साहन देने वाला और उसे स्थाई बनाने वाला है। ‘’ ● उपयोगिता को राज्य आज्ञा क े पालन का एकमात्र आधार मानने का परिणाम यह होगा कि समाज में अव्यवस्था और अशांति की स्थिति बनी रहेगी, क्योंकि कोई व्यक्ति या समाज का कोई वर्ग आए दिन कानूनों क े उपयोगी न होने का तर्क देकर व्यवस्था क े लिए चुनौती खड़ा कर सकता है। बेंथम ने व्यक्ति को इस बात का अधिकार दिया है कि किसी कानून क े उपयोगी न होने पर उसका विरोध करना उसका कर्तव्य है। ऐसे विचार अराजकता को प्रोत्साहित करने वाले हैं। ● उपयोगितावादी दर्शन व्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता क े मौलिक अधिकारों की उपेक्षा करता है, क्योंकि बेंथम ने सुख और सुरक्षा क े समक्ष स्वतंत्रता और समानता को गौण स्थान प्रदान किया है। हेलो बल ने इसी कारण ‘’उपयोगितावाद को निरंक ु शतावाद क े निकट बताया है। ‘’ ● बेंथम क े उपयोगिता वादी चिंतन में मौलिकता का भी अभाव है। उसने उपयोगितावाद का दर्शन निर्मित करने क े लिए कई विचारकों से विचार ग्रहण किए हैं । इस स्थिति की ओर संक े त करते हुए वेपर ने लिखा है कि ‘’ बेंथम ने ज्ञान का सिद्धांत लॉक तथा ह्यूम से, सुख दुख का सिद्धांत हेल्वेटियस से, सहानुभूति तथा घृणा की धारणा ह्यूम से और उपयोगिता का विचार कई अन्य लेखकों से लिया। मौलिकता क े अभाव में तथा अपने पक्षपातपूर्ण कल्प विकल्प क े कारण उसक े सिद्धांत परस्पर विरोधी और उतने ही भ्रांतिपूर्ण है जितना कि वह स्वयं ग़लतफहमी से ग्रस्त है। ‘’ कि ं तु इन आलोचनाओं क े बावजूद राजनीतिक चिंतन क े इतिहास में बेंथम का अलग स्थान है। उसने उपयोगितावाद को दार्शनिक आधार प्रदान किया। मैक्सी क े शब्दों में,’’ उपयोगिता का विचार बहुत पुराना और सुपरिचित था। बेंथम ने इसकी खोज नहीं की, इसक े तार्किक आधारों को पुष्ट करने क े लिए बहुत क ु छ नहीं किया, कि ं तु उसने तथा उसक े शिष्यों ने इसे विज्ञान क े उपकरणों से सुसज्जित
  • 16. किया तथा उसे उपयोगिता का विलक्षण वेग प्रदान किया। ‘’ उपयोगिता क े सिद्धांत को राज्य व्यवस्था का आधार बनाकर उसने राजनीतिक व्यवस्था क े धारकों को एक नई दिशा प्रदान की। अपनी गणना पद्धति क े माध्यम से उसने राजनीति में शोध और अनुसंधान की वैज्ञानिक पद्धति को प्रोत्साहित किया, जो उसक े समय में राजनीति जैसे विषय क े लिए सर्वथा नई थी। न्याय व्यवस्था में सुधार क े सुझाव बेंथम एक विधि शास्त्री थे और इस रूप में ब्रिटिश न्याय व्यवस्था का अध्ययन करते हुए उन्होंने यह देखा कि ब्रिटिश न्याय व्यवस्था अनेक दोषों से पूर्ण है। वहां की न्याय व्यवस्था न क े वल अधिक जटिल और अनिश्चित प्रक्रियाओं से युक्त थी बल्कि उसमें भ्रष्टाचार का भी बोलबाला था। अत्यधिक खर्चीली होने क े कारण न्याय तक सामान्य व्यक्ति की पहुंच नहीं थी और न्याय एक तरह से खरीदा और बेचा जाता था। कानून की शब्दावली बहुत कठिन होती थी, जिसकी व्याख्या क े लिए वकीलों की आवश्यकता बनी रहती थी और इस प्रकार अत्यधिक व्यय , समय की बर्बादी और भ्रष्टाचार ब्रिटिश न्याय व्यवस्था क े अंग बन गए थे। बेंथम क े शब्दों में, ‘’ इस देश में न्याय बेचा जाता है और बड़े महंगे दामों पर बेचा जाता है ,जो व्यक्ति मूल्य नहीं चुका सकता वह न्याय भी प्राप्त नहीं कर सकता। ‘’ न्याय व्यवस्था क े आधार स्तंभ वकीलों और न्यायाधीशों दोनों की आलोचना बेंथम क े द्वारा की गई और न्यायाधीशों को’ न्याय क े व्यवसाई’ कहा गया। वकीलों क े विषय में भी उनकी राय अच्छी नहीं थी और उनक े अनुसार वे’’ सत्य और असत्य में भेद करने में असमर्थ, अदूरदर्शी, जिद्दी ,सार्वजनिक उपयोगिता क े सिद्धांत की अवहेलना करने वाले, स्वार्थी तथा अधिकारियों क े इशारे पर चलने वाले होते थे।‘’ बेंथम ने इस स्थिति में सुधार क े लिए न्यायाधीशों की निरंक ु शता को कम करने और उनमें उत्तरदायित्व की भावना क े विकास क े लिए तथा न्याय को कम खर्चीला और सर्व सुलभ बनाने क े लिए कई सुझाव दिए और उन सुझावों क े आधार पर इंग्लैंड की न्याय व्यवस्था में कई मौलिक सुधार हुए तथा स्वस्थ दिशा में इसका विकास हुआ। ● दंड व्यवस्था में सुधार क े सुझाव- बेंथम क े समय में इंग्लैंड में प्रचलित दंड व्यवस्था अत्यंत कठोर और अमानवीय थी और छोटे छोटे अपराधों क े लिए भी मृत्यु दंड की व्यवस्था थी। बेंथम ने उपयोगिता वादी दृष्टिकोण से दंड व्यवस्था
  • 17. पर विचार करते हुए यह माना कि दंड का उद्देश्य अपराधी को समाज का उपयोगी सदस्य बनाना होना चाहिए, न कि उससे बदला लेना। अतः दंड व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिससे अपराधी की प्रवृत्ति में सुधार हो , इसलिए दंड की मात्रा अपराध की मात्रा और गंभीरता क े अनुपात में ही होनी चाहिए। दंड का निर्धारण करते समय बेंथम ने निम्नांकित तथ्यों पर ध्यान दिए जाने की बात कही- 1. उन परिस्थितियों पर विचार किया जाना चाहिए, जिन्होंने अपराधी को अपराध करने क े लिए प्रेरित किया। 2. अपराध करते समय अपराधी का उद्देश्य क्या था, इस पर भी ध्या न दिया जाना चाहिए । 3. अपराध की प्रक ृ ति गंभीर है या साधारण। 4. अपराध द्वारा किस प्रकार से व्यक्ति को हानि पहुंची है। उक्त बातों पर विचार करते हुए दंड व्यवस्था में निम्नांकित सुधार अपेक्षित है- ● दंड की मात्रा अपराध क े अनुपात में होनी चाहिए। साधारण अपराध क े लिए साधारण दंड और गंभीर अपराधों क े लिए कठोर दंड की व्यवस्था होनी चाहिए। ● एक जैसे अपराध क े लिए समान दंड की व्यवस्था होनी चाहिए। इस संबंध में पद और प्रस्थिति का ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए। यह सुझाव ब्रिटेन क े विधि क े शासन की धारणा क े अनुरूप है जो कानून क े समक्ष सभी व्यक्तियों को समान समझती है। ● दंड का उद्देश्य अपराधी एवं समाज दोनों का सुधार करना होना चाहिए। अपराधी को मिलने वाले दंड से समाज को सीख मिलनी चाहिए कि कानूनों का उल्लंघन दंडनीय है। साथ ही अपराधी को ऐसा दंड दिया जाना चाहिए जिससे उसकी प्रवृत्ति में सुधार संभव हो और वह स्वयं को समाज का उपयोगी सदस्य बना सक े । अत्यधिक कठोर दंड देने से अपराधी क े मन में समाज क े प्रति विद्रोही प्रवृत्ति गहरी बैठ जाती है। ● दंड क े माध्यम से उस व्यक्ति की क्षतिपूर्ति की जानी चाहिए जिसको अपराधी क े कारण हानि पहुंची है। अर्थदंड इस उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है। ● अपराधी को दिए गए दंड क े पुनरावलोकन की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि न्यायाधीशों की गलती को सुधारते हुए वास्तविक न्याय प्रदान किया जा सक े । वर्तमान कानूनी व्यवस्था में अपील की व्यवस्था इसी सुझाव क े अनुरूप है। ● दंड व्यवस्था को निश्चित और निष्पक्ष बनाए रखने क े लिए क्षमादान की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए।
  • 18. ● मृत्युदंड बहुत गंभीर अपराधों क े लिए ही दिया जाना चाहिए। 2. जेल व्यवस्था में सुधार संबंधी सुझाव- ब्रिटिश न्याय व्यवस्था क े अंतर्गत जिन जेलों की व्यवस्था की गई थी उससे बेंथम असंतुष्ट था। उसक े अनुसार ब्रिटिश जेलों में अपराधियों क े साथ पशुओं जैसा व्यवहार किया जाता था। उन्हें अंधेरी काल कोठियों में बंद रखा जाता था तथा उनका भोजन भी अत्यंत निक ृ ष्ट कोटि का होता था। गंभीर और साधारण अपराधियों को एक साथ रखने क े कारण साधारण अपराधी उनक े संपर्क में रहकर गंभीर अपराधी बन जाते थे । यह एक तरह से यातना गृह बन गए थे। बेंथम इन्हें सुधार ग्रह क े रूप में परिवर्तित करक े अपराधियों को ऐसा प्रशिक्षण दिए जाने का पक्षधर था जिससे सजा पूरी होने क े बाद वे जेल से बाहर जाने पर उपयोगी और सम्मान जनक जीवन जी सकें। जेल क े ढांचे में सुधार करने क े लिए उसने एक आदर्श नमूना तैयार किया जिससे’ पेन ऑप्टिकन’ का नाम दिया। ‘ पेन ऑप्टिकन ‘ का शाब्दिक अर्थ है - ‘सर्व दृष्टा’। ऐसे जेल भवन की रचना एक चंद्राकार भवन क े रूप में होती है जिसक े मध्य में ऊ ं चाई पर बना जेलर का कक्ष होता है और उसक े चारों तरफ अपराधियों क े कक्ष बने होते हैं, ताकि जेलर अपने कक्ष में बैठे- बैठे सभी बंदी कक्षों की निगरानी कर सकें और उनक े सुधार क े लिए अपने कक्ष से ही निर्देश दे सक े । बेंथम क े जेल भवन में सुधार क े सुझाव को तो स्वीकार नहीं किया जा सका, कि ं तु दंड व्यवस्था में सुधार क े सुझावों को दुनिया क े अधिकांश देशों में स्वीकार किया गया और उसक े विचारों ने फ ् रांस, स्पेन, रूस, पुर्तगाल और दक्षिणी अमेरिका क े कई देशों में उग्र सुधारवादी आंदोलनों को जन्म दिया। आधुनिक दंड- व्यवस्था बेंथम क े सुझावों से प्रेरित है। उसक े सुधारात्मक योगदान को स्वीकार करते हुए इस ईबंसटीन लिखा है कि ‘’पिछली 5 पीढ़ियों में ब्रिटेन में कोई ऐसा सुधार नहीं हुआ, जिसका मूल प्रेरणा स्रोत बेंथम न रहा हो। ‘’ बेंथम का दर्शन ‘दार्शनिक उग्रवाद’ क े रूप में बहुत प्रभावी सिद्ध हुआ। प्रोफ े सर डनिंग ने उसक े योगदान को स्वीकार करते हुए उचित ही लिखा है कि ‘’ कई प्रबुद्ध और उत्सुक मस्तिष्कों ने उससे प्रेरणा ग्रहण की। ....डेविड रिकार्डो ,जेम्स मिल, जॉन ग्रोट , जॉन ऑस्टिन और जॉन स्टूअर्ट मिल इनमें मुख्य है, जिन्होंने आचार शास्त्र, अर्थ शास्त्र, इतिहास और न्याय शास्त्र क े क्षेत्र में नए मूल्यों की स्थापना कर समकालीन बौद्धिक जीवन पर गहरा प्रभाव डाला ,क्योंकि इन सब लोगों का चिंतन
  • 19. स्पष्ट रूप से बेंथम क े चिंतन से प्रेरित था। वह राजनीतिक दर्शन क े क्षेत्र में चलने वाले नए आंदोलन की एक सशक्त लहर का प्रतीक बन गया। ‘’ मुख्य शब्द- उपयोगितावाद, भौतिक सुख वाद, सुख-दुख गणना पद्धति, न्याय व्यवस्था, जेल व्यवस्था, दंड व्यवस्था, अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख References and Suggested Reading ● Prabhu Dutt Sharma ,Pashchatya Rajnitik Chintan Ka Itihas ● Bentham, The Principals Of Morals and Legislation ● W. T. Jones,Masters Of Political Thought,Harrap, London,1973 ● www.britannica.com>biography ● Stanford Encyclopaedia Of Philosophy,Plato.stanford.edu प्रश्न- निबंधात्मक- 1. बेंथम क े उपयोगिता वादी विचारों का मूल्यांकन कीजिए। 2. ब्रिटिश न्याय व्यवस्था में सुधार क े लिए बेंथम द्वारा दिए गए सुझावों का उल्लेख कीजिए। 3. ‘अधिकतम व्यक्तियों क े अधिकतम सुख’ क े सिद्धांत में जॉन स्टूअर्ट मिल क े द्वारा क्या संशोधन किए गए। वस्तुनिष्ठ- 1. भौतिक सुखवाद पर आधारित उपयोगितावाद चिंतन में बेंथम का मौलिक योगदान क्या है- [ अ ] सुख-दुख की गणना पद्धति का राजनीतिक क्षेत्र में प्रयोग [ ब ] भौतिक सुखवाद की धारणा [ स ] नैतिक सुख की धारणा [ द ] सुख- दुख का विश्लेषण
  • 20. 2. बेंथम ने अधिकतम व्यक्तियों क े अधिकतम सुख का सिद्धांत किस विचारक से ग्रहण किया। [ अ ] हचिसन [ ब ] प्रीस्टले [ स ] हेल्वेटियस [ द ] ह्यूम 3. बेंथम क े शिष्य मिल ने भौतिक सुख क े स्थान पर किसे मानव जीवन का साध्य बताया। [ अ ] स्वतंत्रता [ ब ] समानता [ स ] न्याय [ द ] उपयोगिता 4. निम्नलिखित में से कौन सा तत्व बेंथम की सुख-दुख गणना पद्धति का अंग नहीं है। [ अ ] उर्वरता [ ब ] समी पता [ स ] विशुद्धता [ द ] समानता 5. बेंथम ने जेल भवन क े निर्माण हेतु किस शैली का सुझाव दिया। [ अ ] अर्धचंद्राकार [ ब ] गोल [ स ] आयताकार [ द ] लंबवत 6. दंड व्यवस्था क े विषय में बेंथम ने किस प्रथा का विरोध किया। [ अ ] क्षमादान [ ब ] फांसी की सजा [ स ] अर्थदंड [ द ] जेल की सजा 7. बेंथम की दृष्टि में राज्य क ै सी संस्था है। [ अ ] कल्याणकारी [ ब ] समानता पूर्ण [ स ] उपयोगी [ द ] नैतिक 8. बेंथम क े विचार अनुसार कानून निर्माण का उद्देश्य क्या होना चाहिए। [ अ ] निर्धन व्यक्तियों का अधिकतम सुख [ ब ] बहुमत का सुख [ स ] अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख [ द ] अधिकतम व्यक्तियों का न्यूनतम सुख 9. बेंथम क े उपयोगितावाद को ‘शूकरो का दर्शन’ क्यों कहा जाता है। [ अ ] भौतिक सुख को साध्य मानने क े कारण [ ब ] शूकरों को देखकर विचार करने क े कारण [ स ] नैतिक सुख की उपेक्षा करने क े कारण [ द ] ‘अ ‘और ‘स’सही है। उत्तर- 1. अ 2.ब 3.अ 4.द 5. अ 6. अ 7. स 8. स 9. द