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स्वागतम
कक्षा –XII
पुस्तक – आरोह - 2
जवाहर नवोदय ववद्यालय, बौध
ओडिशा
आत्मपररचय
• हररवंश राय बच्चन (२७ नवम्बर १९०७ – १८
जनवरी २००३) हिन्दी भाषा के एक कवव और
लेखक थे। अलािाबाद के प्रवर्तक बच्चन हिन्दी
कववर्ा के उत्तर छायावर् काल के प्रमुख कववयों में
से एक िैं। उनकी सबसे प्रससद्ध कृ तर् मधुशाला िै।
भारर्ीय फिल्म उद्योग के प्रख्यार्
असभनेर्ा असमर्ाभ बच्चन उनके सुपुत्र िैं।
• उन्िोंने इलािाबाद ववश्वववद्यालय में अंग्रेजी का
अध्यापन फकया। बाद में भारर् सरकार के ववदेश
मंत्रालय में हिन्दी ववशेषज्ञ रिे। अनन्र्र राज्य
सभा के मनोनीर् सदस्य। बच्चन जी की गगनर्ी
हिन्दी के सवातगधक लोकवप्रय कववयों में िोर्ी िै।
सीखने का प्रतर्िल
• 1.स्वयं को जानना दुतनया को जानने से बेिद
कहिन िै,ये बार् समझ सकें गे ।
• 2.सामाजजक कहिनाइयों के बावजूद जीवन से
प्यार करना सीखेंगे ।
• 3.ववद्याथी सुख-दुुःख यश-अपयश िातन-लाभ
आहद पररजस्थतर्यों में समान भाव से रि
सकें गे ।
आत्मपररचय
• मैं जग – जीवन का भार सलए फिरर्ा िूूँ,
फिर भी जीवन में प्यार सलए फिरर्ा िूूँ;
कर हदया फकसी ने झंकृ र् जजनको छू कर
मैं साूँसों के दो र्ार सलए फिरर्ा िूूँ!
• मैं स्नेि-सुरा का पान फकया करर्ा िूूँ,
में कभी न जग का ध्यान फकया करर्ा िूूँ,
जग पूछ रिा उनको, जो जग की गार्े,
मैं अपने मन का गान फकया करर्ा िूूँ !
भावार्थ
• बच्चन जी किर्े िैं फक मैं संसार में जीवन का भार
उिाकर घूमर्ा रिर्ा िूूँ। इसके बावजूद मेरा जीवन प्यार
से भरा-पूरा िै। जीवन की समस्याओं के बावजूद कवव
के जीवन में प्यार िै। उसका जीवन ससर्ार की र्रि िै
जजसे फकसी ने छू कर झंकृ र् कर हदया िै। िलस्वरूप
उसका जीवन संगीर् से भर उिा िै। उसका जीवन इन्िीं
र्ार रूपी साूँसों के कारण चल रिा िै। उसने स्नेि रूपी
शराब पी रखी िै अथातर् प्रेम फकया िै र्था बाूँटा िै।
उसने कभी संसार की परवाि निीं की। संसार के लोगों
की प्रवृवत्त िै फक वे उनको पूछर्े िैं जो संसार के
अनुसार चलर्े िैं र्था उनका गुणगान करर्े िैं। कवव
अपने इच्छानुसार चलर्ा िै, अथातर् वि विी करर्ा िै
जो उसका मन किर्ा िै।
काव्य सौन्दयथ
भाव सौन्दयत :
कवव अपने प्रेम को सावतजतनक र्ौर पर स्वीकार करर्ा िै ।
वि कष्टों के बावजूद संसार को प्रेम बांटर्ा िै ।
वि सांसाररक तनयमों की परवाि निीं करर्ा वि संसार की
स्वाथत प्रवृजतत्त पर कटाक्ष करर्ा िै ।
सशल्प सौन्दयत :सांसों के र्ार ,स्नेि सुरा में रूपक अलंकार िै ।
जग जीवन ,फकया करर्ा में अनुप्रास अलंकार िै ।
फकया करर्ा िूूँ और सलए फिरर्ा िूूँ.. में गीर् की मस्र्ी िै ।
आत्मपररचय
• मैं तनज उर के उद्गार सलए फिरर्ा िूूँ
मैं तनज उर के उपिार सलए फिरर्ा िूूँ
िै यि अपूणत संसार न मुझको भार्ा
मैं स्वप्नों का संसार सलए फिरर्ा िूूँ।
• मैं जला हृदय में अजनन, दिा करर्ा िूूँ
सुख-दुख दोनों में मनन रिा करर्ा िूूँ,
जग भव-सागर र्रने की नाव बनाए,
मैं भव-मौजों पर मस्र् बिा करर्ा िूूँ।
भावार्थ
• कवव अपने मन की भावनाओं को दुतनया के सामने किने
की कोसशश करर्ा िै। उसे खुशी के जो उपिार समले िैं, उन्िें
वि साथ सलए फिरर्ा िै। उसे यि संसार अधूरा लगर्ा िै।
इस कारण यि उसे पसंद निीं िै। वि अपनी कल्पना का
संसार सलए फिरर्ा िै। उसे प्रेम से भरा संसार अच्छा लगर्ा
िै। .
• वि किर्ा िै फक मैं अपने हृदय में आग जलाकर उसमें
जलर्ा िूूँ अथातर् मैं प्रेम की जलन को स्वयं िी सिन करर्ा
िूूँ। प्रेम की दीवानगी में मस्र् िोकर जीवन के जो सुख-दुख
आर्े िैं, उनमें मस्र् रिर्ा िूूँ। यि संसार आपदाओं का
सागर िै। लोग इसे पार करने के सलए कमत रूपी नाव बनार्े
िैं, परंर्ु कवव संसार रूपी सागर की लिरों पर मस्र् िोकर
बिर्ा िै। उसे संसार की कोई गचंर्ा निीं िै।
काव्य सौन्दयत
• भाव सौन्दयत : कवव किर्ा िै फक प्रेम की दीवानगी में
मस्र् िोकर जीवन के जो सुख-दुख आर्े िैं, मैं उसमें मस्र्
रिर्ा िूूँ। यि संसार आपदाओं का सागर िै। लोग इसे पार
करने के सलए कमत रूपी नाव बनार्े िैं, परंर्ु कवव संसार रूपी
सागर की लिरों पर मस्र् िोकर बिर्ा िै। उसे संसार की कोई
गचंर्ा निीं िै।
• सशल्प सौन्दयत :स्वप्नों का संसार’ में अनुप्रास र्था
• ‘भव-सागर’ और ‘भव मौजों’ में रूपक अलंकार िै।
• श्ृंगार रस की असभव्यजतर् िै।
• र्तसम शब्दावली की बिुलर्ा िै।
• खडी बोली का स्वाभाववक प्रयोग िै।
आत्मपररचय
• मैं यौवन का उन्माद सलए फिरर्ा िूूँ,
उन्मान्दों में अवसाद सलए फिरर्ा िूूँ
जो मुझको बािर िूँसा, रुलार्ी भीर्र,
मैं , िाय, फकसी की याद सलए फिरर्ा िूूँ !
• कर यतन समटे सब, सतय फकसी ने जाना?
नादान विीं िैं, िाथ, जिाूँ पर दाना!
फिर मूढ़ न तया जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रिा िूूँ , सीखा ज्ञान भुलाना !
भावार्थ
• कवव किर्ा िै फक उसके मन पर जवानी का पागलपन सवार िै। वि
उसकी मस्र्ी में घूमर्ा रिर्ा िै। इस दीवानेपन के कारण उसे
अनेक दुख भी समले िैं। वि इन दुखों को उिाए िुए घूमर्ा िै। कवव
को जब फकसी वप्रय की याद आ जार्ी िै र्ो उसे बािर से िूँसा
जार्ी िै, परंर्ु उसका मन रो देर्ा िै अथातर् याद आने पर कवव-मन
व्याकु ल िो जार्ा िै।
• कवव किर्ा िै फक इस संसार में लोगों ने जीवन-सतय को जानने की
कोसशश की, परंर्ु कोई भी सतय निीं जान पाया। इस कारण िर
व्यजतर् नादानी करर्ा हदखाई देर्ा िै। ये मूखत (नादान) भी विीं िोर्े
िैं जिाूँ समझदार एवं चर्ुर िोर्े िैं। िर व्यजतर् वैभव, समृद्ध,
भोग-सामग्री की र्रि भाग रिा िै। िर व्यजतर् अपने स्वाथत को पूरा
करने के सलए भाग रिा िै। वे इर्ना सतय भी निीं सीख सके । कवव
किर्ा िै फक मैं सीखे िुए ज्ञान को भूलकर नई बार्ें सीख रिा िूूँ
अथातर् सांसाररक ज्ञान की बार्ों को भूलकर मैं अपने मन के किे
अनुसार चलना सीख रिा िूूँ।
काव्य सौन्दयथ
• भाव सौन्दयत : कवव यिाूँ पर आतमासभव्यजतर् की िै र्था
अंतर्म चार पंजतर्यों में सांसाररक जीवन के ववषय में बर्ाया
िै।
• सशल्प सौन्दयत : ‘उन्मादों में अवसाद’ में ववरोधाभास
अलंकार िै। खडी बोली शब्दों का प्रयोग िै। सब, सतय फकसी
ने जाना’ पंजतर् में अनुप्रास अलंकार िै। सलए फिरर्ा िूूँ’ की
आवृवत्त से गेयर्ा का गुण उतपन्न िुआ िै।
आत्मपररचय
• मैं और, और जग और, किाूँ का नार्ा,
मैं बना-बना फकर्ने जग रोज समटार्ा,
जग जजस पृथ्वी पर जोडा करर्ा वैभव,
मैं प्रतर् पग से उस पृथ्वी को िु करार्ा!
• मैं तनज रोदन में राग सलए फिरर्ा िूूँ,
शीर्ल वाणी में आग सलए फिरर्ा िूूँ,
िों जजस पर भूपों के प्रासाद तनछावर,
मैं वि खंडिर का भाग सलए फिरर्ा िूूँ।
भावार्थ
• कवव किर्ा िै फक मुझमें और संसार-दोनों में कोई संबंध
निीं िै। संसार के साथ मेरा टकराव चल रिा िै। कवव
अपनी कल्पना के अनुसार संसार का तनमातण करर्ा िै, फिर
उसे समटा देर्ा िै। यि संसार इस धरर्ी पर सुख के साधन
एकत्रत्रर् करर्ा िै, परंर्ु कवव िर कदम पर धरर्ी को
िु कराया करर्ा िै। अथातर् वि जजस संसार में रि रिा िै,
उसी के प्रतर्कू ल आचार-ववचार रखर्ा िै।
• कवव किर्ा िै फक वि अपने रोदन में भी प्रेम सलए फिरर्ा
िै। उसकी शीर्ल वाणी में भी आग समाई िुई िै अथातर्
उसमें असंर्ोष झलकर्ा िै। उसका जीवन प्रेम में तनराशा के
कारण खंडिर-सा िै, फिर भी उस पर राजाओं के मिल
न्योछावर िोर्े िैं। ऐसे खंडिर का वि एक हिस्सा सलए
घूमर्ा िै जजसे मिल पर न्योछावर कर सके ।
काव्य सौन्दयथ
• सशल्प सौन्दयत : किाूँ का नार्ा’ में प्रश्न अलंकार िै।
• रोदन में राग’ और ‘शीर्ल वाणी में आग’ में ववरोधाभास
अलंकार र्था ‘बना-बना’ में पुनरुजतर् प्रकाश अलंकार िै।
• ‘और’ की आवृवत्त में यमक अलंकार िै।
• किाूँ का’ और ‘जग जजस पृथ्वी पर’ में अनुप्रास अलंकार की
छटा िै।
• श्ृंगार रस की असभव्यजतर् िै र्था खडी बोली का प्रयोग िै।
आत्मपररचय
• मैं रोया, इसको र्ुम किर्े िो गाना,
मैं िू ट पडा, र्ुम किर्े, छंद बनाना,
तयों कवव किकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुतनया का िूूँ एक तया दीवाना”
• मैं दीवानों का वेश सलए फिरर्ा िूूँ
मैं मादकर्ा तन:शेष सलए फिरर्ा िूूँ
जजसको सुनकर ज़ग झूम, झुके ; लिराए,
मैं मस्र्ी का संदेश सलए फिरर्ा िूूँ
भावार्थ
• कवव किर्ा िै फक प्रेम की पीडा के कारण उसका मन रोर्ा िै। अथातर्
हृदय की व्यथा शब्द रूप में प्रकट िुई। उसके रोने को संसार गाना मान
बैिर्ा िै। जब वेदना अगधक िो जार्ी िै र्ो वि दुख को शब्दों के माध्यम
से व्यतर् करर्ा िै। संसार इस प्रफिया को छंद बनाना किर्ी िै। कवव
प्रश्न करर्ा िै फक यि संसार मुझे कवव के रूप में अपनाने के सलए र्ैयार
तयों िै?वि स्वयं को नया दीवाना किर्ा िै जो िर जस्थतर् में मस्र् रिर्ा
िै।
• समाज उसे दीवाना तयों निीं स्वीकार करर्ा। वि दीवानों का रूप धारण
करके संसार में घूमर्ा रिर्ा िै। उसके जीवन में जो मस्र्ी शेष रि गई िै,
उसे सलए वि घूमर्ा रिर्ा िै। इस मस्र्ी को सुनकर सारा संसार झूम
उिर्ा िै। कवव के गीर्ों की मस्र्ी सुनकर लोग प्रेम में झुक जार्े िैं र्था
आनंद से झूमने लगर्े िैं। मस्र्ी के संदेश को लेकर कवव संसार में घूमर्ा
िै जजसे लोग गीर् समझने की भूल कर बैिर्े िैं।
काव्य सौन्दयथ
• सशल्प सौन्दयत : मैं’ शैली के प्रयोग से कवव ने अपनी
बार् किी िै।र्तसम शब्दावली की प्रमुखर्ा िै।
• कवव किकर’ र्था ‘झूम झुके ’ में अनुप्रास अलंकार और ‘तयों
कवव . अपनाए’ में प्रश्न अलंकार िै।
• सलए फिरर्ा िूूँ’ की आवृवत्त गेयर्ा में वृद्गध करर्ी िै।
• खडी बोली का स्वाभाववक प्रयोग िै।
मूलयांकन
1.शीर्ल वाणी में आग सलए फिरर्ा िूूँ – इसका
तया र्ातपयत िै
2.कवव को संसार तयों अच्छा निीं लगर्ा िै ?
3.कवव स्नेि सुरा का पान कै से करर्ा िै ?
प्रश्नोत्तर
• एक वातय में उत्तर दीजजये –
• (क)कवव के हृदय में कौन-सी अजनन जल रिी िै ?
• उत्तर: कवव के हृदय में प्रेम रूपक अजनन जल रिी िै ।
• (ख)कवव को संसार अच्छा तयों निीं लगर्ा ?
• उत्तर : कवव को संसार अच्छा निीं लगर्ा तयोंफक उसके दृजष्टकोण
के अनुसार संसार अधूरा िै ,उसमें प्रेम निीं िै ।जो कु छ भी िै वि
बनाबटी िै ।
• (ग)कवव स्वयं को तया किना पसंद करर्ा िै?
• उत्तर:कवव स्वयं को कवव के वजाय दीवाना किलवाना पसंद करर्ा
िै ।
• (घ)कवव नादान फकसे किा िै?
• उत्तर:स्वाथी र्था भौतर्कवादी लोगों को नादान किा िै।
• (ङ)कवव की मनोदशा कै सी िै ?
• उत्तर: कवव की मनोदशा दीवानों जैसी िै।वि मस्र्ी में चूर िै ।
आत्मपररचय(सारांश)
• कववर्ा 'आतमपररचय' में कवव अपना पररचय देर्ा िै। कवववर बच्चन जी
इस कववर्ांश में अपने और संसार के मध्य के ररश्र्ों की वववेचना करर्े
िुए किर्े िैं फक यि संसार जजसमें मैं आया िुआ िूं, उसका जीवन जीने
का और जीवन के साथ व्यविार करने का अपना एक पारंपररक ढंग िै।
कवव अपना आतमपररचय देर्े िुए किर्े िैं फक मैं इसी प्राप्र् प्रेम की शराब
को वपया करर्ा िूं। इसका नशा मुझे अलौफकक आनंद से सराबोर कर देर्ा
िै। इसमें डूबे रिने के कारण मैं दुतनया के बारे में सोचर्ा र्क निीं। इसी
कारण से दुतनया ने मुझे उपेक्षक्षर् कर रखा िै।कवव के हृदय में उनके अपने
मौसलक ववचार िैं। वे उन्िें व्यतर् करने के सलये व्याकु ल रिर्े िैं। उनके
पास संसार को देने के सलये अनोखे और अनुपम उपिार िैं, वे उन्िें संसार
को भेंट कर देने के सलये उतसाि से भरे िुए िैं। उनके सामने जैसा संसार
िै, उसमें उन्िें अधूरापन हदखायी देर्ा िै। इसी अधूरेपन के कारण यि
दुतनया उन्िें अच्छी निीं लगर्ी। उनके जीवन में अन्य लोगों की र्रि िी
सुख और दुख दोनों िी िैं, पर कवव सुख में अिंकारी निीं िोर्े और दुख में
ववचसलर् निीं िो जार्े। दोनें में िी एक प्रकार की मस्र्ी का अनुभव करर्े
िैं।कवव किर्े िैं फक वे अपने अंदर युवावस्था की जो ववषेश उमंग िोर्ी िै,
दसे सदैव िी साथ सलये रिर्े िैं।
धन्यवाद
प्रस्र्ुतर्:हदलीप कु मार बडतया
पीज़ीटी(हिंदी)

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Atmparichaya xii

  • 1. स्वागतम कक्षा –XII पुस्तक – आरोह - 2 जवाहर नवोदय ववद्यालय, बौध ओडिशा
  • 2. आत्मपररचय • हररवंश राय बच्चन (२७ नवम्बर १९०७ – १८ जनवरी २००३) हिन्दी भाषा के एक कवव और लेखक थे। अलािाबाद के प्रवर्तक बच्चन हिन्दी कववर्ा के उत्तर छायावर् काल के प्रमुख कववयों में से एक िैं। उनकी सबसे प्रससद्ध कृ तर् मधुशाला िै। भारर्ीय फिल्म उद्योग के प्रख्यार् असभनेर्ा असमर्ाभ बच्चन उनके सुपुत्र िैं। • उन्िोंने इलािाबाद ववश्वववद्यालय में अंग्रेजी का अध्यापन फकया। बाद में भारर् सरकार के ववदेश मंत्रालय में हिन्दी ववशेषज्ञ रिे। अनन्र्र राज्य सभा के मनोनीर् सदस्य। बच्चन जी की गगनर्ी हिन्दी के सवातगधक लोकवप्रय कववयों में िोर्ी िै।
  • 3. सीखने का प्रतर्िल • 1.स्वयं को जानना दुतनया को जानने से बेिद कहिन िै,ये बार् समझ सकें गे । • 2.सामाजजक कहिनाइयों के बावजूद जीवन से प्यार करना सीखेंगे । • 3.ववद्याथी सुख-दुुःख यश-अपयश िातन-लाभ आहद पररजस्थतर्यों में समान भाव से रि सकें गे ।
  • 4. आत्मपररचय • मैं जग – जीवन का भार सलए फिरर्ा िूूँ, फिर भी जीवन में प्यार सलए फिरर्ा िूूँ; कर हदया फकसी ने झंकृ र् जजनको छू कर मैं साूँसों के दो र्ार सलए फिरर्ा िूूँ! • मैं स्नेि-सुरा का पान फकया करर्ा िूूँ, में कभी न जग का ध्यान फकया करर्ा िूूँ, जग पूछ रिा उनको, जो जग की गार्े, मैं अपने मन का गान फकया करर्ा िूूँ !
  • 5. भावार्थ • बच्चन जी किर्े िैं फक मैं संसार में जीवन का भार उिाकर घूमर्ा रिर्ा िूूँ। इसके बावजूद मेरा जीवन प्यार से भरा-पूरा िै। जीवन की समस्याओं के बावजूद कवव के जीवन में प्यार िै। उसका जीवन ससर्ार की र्रि िै जजसे फकसी ने छू कर झंकृ र् कर हदया िै। िलस्वरूप उसका जीवन संगीर् से भर उिा िै। उसका जीवन इन्िीं र्ार रूपी साूँसों के कारण चल रिा िै। उसने स्नेि रूपी शराब पी रखी िै अथातर् प्रेम फकया िै र्था बाूँटा िै। उसने कभी संसार की परवाि निीं की। संसार के लोगों की प्रवृवत्त िै फक वे उनको पूछर्े िैं जो संसार के अनुसार चलर्े िैं र्था उनका गुणगान करर्े िैं। कवव अपने इच्छानुसार चलर्ा िै, अथातर् वि विी करर्ा िै जो उसका मन किर्ा िै।
  • 6. काव्य सौन्दयथ भाव सौन्दयत : कवव अपने प्रेम को सावतजतनक र्ौर पर स्वीकार करर्ा िै । वि कष्टों के बावजूद संसार को प्रेम बांटर्ा िै । वि सांसाररक तनयमों की परवाि निीं करर्ा वि संसार की स्वाथत प्रवृजतत्त पर कटाक्ष करर्ा िै । सशल्प सौन्दयत :सांसों के र्ार ,स्नेि सुरा में रूपक अलंकार िै । जग जीवन ,फकया करर्ा में अनुप्रास अलंकार िै । फकया करर्ा िूूँ और सलए फिरर्ा िूूँ.. में गीर् की मस्र्ी िै ।
  • 7. आत्मपररचय • मैं तनज उर के उद्गार सलए फिरर्ा िूूँ मैं तनज उर के उपिार सलए फिरर्ा िूूँ िै यि अपूणत संसार न मुझको भार्ा मैं स्वप्नों का संसार सलए फिरर्ा िूूँ। • मैं जला हृदय में अजनन, दिा करर्ा िूूँ सुख-दुख दोनों में मनन रिा करर्ा िूूँ, जग भव-सागर र्रने की नाव बनाए, मैं भव-मौजों पर मस्र् बिा करर्ा िूूँ।
  • 8. भावार्थ • कवव अपने मन की भावनाओं को दुतनया के सामने किने की कोसशश करर्ा िै। उसे खुशी के जो उपिार समले िैं, उन्िें वि साथ सलए फिरर्ा िै। उसे यि संसार अधूरा लगर्ा िै। इस कारण यि उसे पसंद निीं िै। वि अपनी कल्पना का संसार सलए फिरर्ा िै। उसे प्रेम से भरा संसार अच्छा लगर्ा िै। . • वि किर्ा िै फक मैं अपने हृदय में आग जलाकर उसमें जलर्ा िूूँ अथातर् मैं प्रेम की जलन को स्वयं िी सिन करर्ा िूूँ। प्रेम की दीवानगी में मस्र् िोकर जीवन के जो सुख-दुख आर्े िैं, उनमें मस्र् रिर्ा िूूँ। यि संसार आपदाओं का सागर िै। लोग इसे पार करने के सलए कमत रूपी नाव बनार्े िैं, परंर्ु कवव संसार रूपी सागर की लिरों पर मस्र् िोकर बिर्ा िै। उसे संसार की कोई गचंर्ा निीं िै।
  • 9. काव्य सौन्दयत • भाव सौन्दयत : कवव किर्ा िै फक प्रेम की दीवानगी में मस्र् िोकर जीवन के जो सुख-दुख आर्े िैं, मैं उसमें मस्र् रिर्ा िूूँ। यि संसार आपदाओं का सागर िै। लोग इसे पार करने के सलए कमत रूपी नाव बनार्े िैं, परंर्ु कवव संसार रूपी सागर की लिरों पर मस्र् िोकर बिर्ा िै। उसे संसार की कोई गचंर्ा निीं िै। • सशल्प सौन्दयत :स्वप्नों का संसार’ में अनुप्रास र्था • ‘भव-सागर’ और ‘भव मौजों’ में रूपक अलंकार िै। • श्ृंगार रस की असभव्यजतर् िै। • र्तसम शब्दावली की बिुलर्ा िै। • खडी बोली का स्वाभाववक प्रयोग िै।
  • 10. आत्मपररचय • मैं यौवन का उन्माद सलए फिरर्ा िूूँ, उन्मान्दों में अवसाद सलए फिरर्ा िूूँ जो मुझको बािर िूँसा, रुलार्ी भीर्र, मैं , िाय, फकसी की याद सलए फिरर्ा िूूँ ! • कर यतन समटे सब, सतय फकसी ने जाना? नादान विीं िैं, िाथ, जिाूँ पर दाना! फिर मूढ़ न तया जग, जो इस पर भी सीखे? मैं सीख रिा िूूँ , सीखा ज्ञान भुलाना !
  • 11. भावार्थ • कवव किर्ा िै फक उसके मन पर जवानी का पागलपन सवार िै। वि उसकी मस्र्ी में घूमर्ा रिर्ा िै। इस दीवानेपन के कारण उसे अनेक दुख भी समले िैं। वि इन दुखों को उिाए िुए घूमर्ा िै। कवव को जब फकसी वप्रय की याद आ जार्ी िै र्ो उसे बािर से िूँसा जार्ी िै, परंर्ु उसका मन रो देर्ा िै अथातर् याद आने पर कवव-मन व्याकु ल िो जार्ा िै। • कवव किर्ा िै फक इस संसार में लोगों ने जीवन-सतय को जानने की कोसशश की, परंर्ु कोई भी सतय निीं जान पाया। इस कारण िर व्यजतर् नादानी करर्ा हदखाई देर्ा िै। ये मूखत (नादान) भी विीं िोर्े िैं जिाूँ समझदार एवं चर्ुर िोर्े िैं। िर व्यजतर् वैभव, समृद्ध, भोग-सामग्री की र्रि भाग रिा िै। िर व्यजतर् अपने स्वाथत को पूरा करने के सलए भाग रिा िै। वे इर्ना सतय भी निीं सीख सके । कवव किर्ा िै फक मैं सीखे िुए ज्ञान को भूलकर नई बार्ें सीख रिा िूूँ अथातर् सांसाररक ज्ञान की बार्ों को भूलकर मैं अपने मन के किे अनुसार चलना सीख रिा िूूँ।
  • 12. काव्य सौन्दयथ • भाव सौन्दयत : कवव यिाूँ पर आतमासभव्यजतर् की िै र्था अंतर्म चार पंजतर्यों में सांसाररक जीवन के ववषय में बर्ाया िै। • सशल्प सौन्दयत : ‘उन्मादों में अवसाद’ में ववरोधाभास अलंकार िै। खडी बोली शब्दों का प्रयोग िै। सब, सतय फकसी ने जाना’ पंजतर् में अनुप्रास अलंकार िै। सलए फिरर्ा िूूँ’ की आवृवत्त से गेयर्ा का गुण उतपन्न िुआ िै।
  • 13. आत्मपररचय • मैं और, और जग और, किाूँ का नार्ा, मैं बना-बना फकर्ने जग रोज समटार्ा, जग जजस पृथ्वी पर जोडा करर्ा वैभव, मैं प्रतर् पग से उस पृथ्वी को िु करार्ा! • मैं तनज रोदन में राग सलए फिरर्ा िूूँ, शीर्ल वाणी में आग सलए फिरर्ा िूूँ, िों जजस पर भूपों के प्रासाद तनछावर, मैं वि खंडिर का भाग सलए फिरर्ा िूूँ।
  • 14. भावार्थ • कवव किर्ा िै फक मुझमें और संसार-दोनों में कोई संबंध निीं िै। संसार के साथ मेरा टकराव चल रिा िै। कवव अपनी कल्पना के अनुसार संसार का तनमातण करर्ा िै, फिर उसे समटा देर्ा िै। यि संसार इस धरर्ी पर सुख के साधन एकत्रत्रर् करर्ा िै, परंर्ु कवव िर कदम पर धरर्ी को िु कराया करर्ा िै। अथातर् वि जजस संसार में रि रिा िै, उसी के प्रतर्कू ल आचार-ववचार रखर्ा िै। • कवव किर्ा िै फक वि अपने रोदन में भी प्रेम सलए फिरर्ा िै। उसकी शीर्ल वाणी में भी आग समाई िुई िै अथातर् उसमें असंर्ोष झलकर्ा िै। उसका जीवन प्रेम में तनराशा के कारण खंडिर-सा िै, फिर भी उस पर राजाओं के मिल न्योछावर िोर्े िैं। ऐसे खंडिर का वि एक हिस्सा सलए घूमर्ा िै जजसे मिल पर न्योछावर कर सके ।
  • 15. काव्य सौन्दयथ • सशल्प सौन्दयत : किाूँ का नार्ा’ में प्रश्न अलंकार िै। • रोदन में राग’ और ‘शीर्ल वाणी में आग’ में ववरोधाभास अलंकार र्था ‘बना-बना’ में पुनरुजतर् प्रकाश अलंकार िै। • ‘और’ की आवृवत्त में यमक अलंकार िै। • किाूँ का’ और ‘जग जजस पृथ्वी पर’ में अनुप्रास अलंकार की छटा िै। • श्ृंगार रस की असभव्यजतर् िै र्था खडी बोली का प्रयोग िै।
  • 16. आत्मपररचय • मैं रोया, इसको र्ुम किर्े िो गाना, मैं िू ट पडा, र्ुम किर्े, छंद बनाना, तयों कवव किकर संसार मुझे अपनाए, मैं दुतनया का िूूँ एक तया दीवाना” • मैं दीवानों का वेश सलए फिरर्ा िूूँ मैं मादकर्ा तन:शेष सलए फिरर्ा िूूँ जजसको सुनकर ज़ग झूम, झुके ; लिराए, मैं मस्र्ी का संदेश सलए फिरर्ा िूूँ
  • 17. भावार्थ • कवव किर्ा िै फक प्रेम की पीडा के कारण उसका मन रोर्ा िै। अथातर् हृदय की व्यथा शब्द रूप में प्रकट िुई। उसके रोने को संसार गाना मान बैिर्ा िै। जब वेदना अगधक िो जार्ी िै र्ो वि दुख को शब्दों के माध्यम से व्यतर् करर्ा िै। संसार इस प्रफिया को छंद बनाना किर्ी िै। कवव प्रश्न करर्ा िै फक यि संसार मुझे कवव के रूप में अपनाने के सलए र्ैयार तयों िै?वि स्वयं को नया दीवाना किर्ा िै जो िर जस्थतर् में मस्र् रिर्ा िै। • समाज उसे दीवाना तयों निीं स्वीकार करर्ा। वि दीवानों का रूप धारण करके संसार में घूमर्ा रिर्ा िै। उसके जीवन में जो मस्र्ी शेष रि गई िै, उसे सलए वि घूमर्ा रिर्ा िै। इस मस्र्ी को सुनकर सारा संसार झूम उिर्ा िै। कवव के गीर्ों की मस्र्ी सुनकर लोग प्रेम में झुक जार्े िैं र्था आनंद से झूमने लगर्े िैं। मस्र्ी के संदेश को लेकर कवव संसार में घूमर्ा िै जजसे लोग गीर् समझने की भूल कर बैिर्े िैं।
  • 18. काव्य सौन्दयथ • सशल्प सौन्दयत : मैं’ शैली के प्रयोग से कवव ने अपनी बार् किी िै।र्तसम शब्दावली की प्रमुखर्ा िै। • कवव किकर’ र्था ‘झूम झुके ’ में अनुप्रास अलंकार और ‘तयों कवव . अपनाए’ में प्रश्न अलंकार िै। • सलए फिरर्ा िूूँ’ की आवृवत्त गेयर्ा में वृद्गध करर्ी िै। • खडी बोली का स्वाभाववक प्रयोग िै।
  • 19. मूलयांकन 1.शीर्ल वाणी में आग सलए फिरर्ा िूूँ – इसका तया र्ातपयत िै 2.कवव को संसार तयों अच्छा निीं लगर्ा िै ? 3.कवव स्नेि सुरा का पान कै से करर्ा िै ?
  • 20. प्रश्नोत्तर • एक वातय में उत्तर दीजजये – • (क)कवव के हृदय में कौन-सी अजनन जल रिी िै ? • उत्तर: कवव के हृदय में प्रेम रूपक अजनन जल रिी िै । • (ख)कवव को संसार अच्छा तयों निीं लगर्ा ? • उत्तर : कवव को संसार अच्छा निीं लगर्ा तयोंफक उसके दृजष्टकोण के अनुसार संसार अधूरा िै ,उसमें प्रेम निीं िै ।जो कु छ भी िै वि बनाबटी िै । • (ग)कवव स्वयं को तया किना पसंद करर्ा िै? • उत्तर:कवव स्वयं को कवव के वजाय दीवाना किलवाना पसंद करर्ा िै । • (घ)कवव नादान फकसे किा िै? • उत्तर:स्वाथी र्था भौतर्कवादी लोगों को नादान किा िै। • (ङ)कवव की मनोदशा कै सी िै ? • उत्तर: कवव की मनोदशा दीवानों जैसी िै।वि मस्र्ी में चूर िै ।
  • 21. आत्मपररचय(सारांश) • कववर्ा 'आतमपररचय' में कवव अपना पररचय देर्ा िै। कवववर बच्चन जी इस कववर्ांश में अपने और संसार के मध्य के ररश्र्ों की वववेचना करर्े िुए किर्े िैं फक यि संसार जजसमें मैं आया िुआ िूं, उसका जीवन जीने का और जीवन के साथ व्यविार करने का अपना एक पारंपररक ढंग िै। कवव अपना आतमपररचय देर्े िुए किर्े िैं फक मैं इसी प्राप्र् प्रेम की शराब को वपया करर्ा िूं। इसका नशा मुझे अलौफकक आनंद से सराबोर कर देर्ा िै। इसमें डूबे रिने के कारण मैं दुतनया के बारे में सोचर्ा र्क निीं। इसी कारण से दुतनया ने मुझे उपेक्षक्षर् कर रखा िै।कवव के हृदय में उनके अपने मौसलक ववचार िैं। वे उन्िें व्यतर् करने के सलये व्याकु ल रिर्े िैं। उनके पास संसार को देने के सलये अनोखे और अनुपम उपिार िैं, वे उन्िें संसार को भेंट कर देने के सलये उतसाि से भरे िुए िैं। उनके सामने जैसा संसार िै, उसमें उन्िें अधूरापन हदखायी देर्ा िै। इसी अधूरेपन के कारण यि दुतनया उन्िें अच्छी निीं लगर्ी। उनके जीवन में अन्य लोगों की र्रि िी सुख और दुख दोनों िी िैं, पर कवव सुख में अिंकारी निीं िोर्े और दुख में ववचसलर् निीं िो जार्े। दोनें में िी एक प्रकार की मस्र्ी का अनुभव करर्े िैं।कवव किर्े िैं फक वे अपने अंदर युवावस्था की जो ववषेश उमंग िोर्ी िै, दसे सदैव िी साथ सलये रिर्े िैं।