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राम लक्ष्मण परशुराम संवाद
जन्म & रामबोला१४९७ ई० ( संवत १५५४वव० ) राजापुर, उत्तर
प्रदेश, भारत
गुरु/शिक्षक & नरहररदास
खिताब/सम्मान &गोस्वामी, अभभनववाल्मीकि, इत्यादद
कथन & सीयराममय सब जग जानी ।
िरउँ प्रनाम जोरर जुग पानी ॥
तुलसीदास
गोस्वामी तुलसीदास 1511 - 1623 एि महान िवव थे। उनिा
जन्म सोरों शूिरक्षेत्र (वततमान िासगंज जनपद) उत्तर प्रदेश में हुआ
था। िु छ ववद्वान् आपिा जन्म राजापुर में हुआ मानते हैं। अपने
जीवनिाल में उन्होंने १२ ग्रन्थ भलखे। उन्हें संस्िृ त ववद्वान होने िे
साथ ही दहन्दी भाषा िे प्रभसद्ध और सवतश्रेष्ठ िववयों में एि माना
जाता है। उनिो मूल आदद िाव्य रामायण िे रचययता
महवषत वाल्मीकि िा अवतार भी माना जाता
है। श्रीरामचररतमानस वाल्मीकि रामायण िा प्रिारान्तर से ऐसा
अवधी भाषान्तर है जजसमें अन्य भी िई िृ यतयों से महत्वपूणत
सामग्री समादहत िी गयी थी। रामचररतमानस िो समस्त उत्तर
भारत में बडे भजततभाव से पढा जाता है। इसिे बाद ववनय
पत्रत्रिा उनिा एि अन्य महत्वपूणत िाव्य है। त्रेता युग
िे ऐयतहाभसि राम-रावण युद्ध पर आधाररत उनिे प्रबन्ध िाव्य
रामचररतमानस िो ववश्व िे १०० सवतश्रेष्ठ लोिवप्रय िाव्यों में ४६वाँ
स्थान ददया गया।
 रामचररतमानस
 ववनयपत्रत्रिा
ववनयपत्रत्रिा
 दोहावली
 िववतावली
 हनुमान चालीसा
 वैराग्य सन्दीपनी
वैराग्य सन्दीपनी
 जानिी मंगल
 पावतती मंगल
 तुलसीदास जी जब िाशी िे ववख्यात ् घाट असीघाट पर
रहने लगे तो एि रात िभलयुग मूतत रूप धारण िर उनिे
पास आया और उन्हें पीडा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने
उसी समय हनुमान जी िा ध्यान किया। हनुमान जी ने
साक्षात ् प्रिट होिर उन्हें प्राथतना िे पद रचने िो िहा,
इसिे पश्चात ् उन्होंने अपनी अजन्तम िृ यत ववनय-पत्रत्रिा
भलखी और उसे भगवान िे चरणों में समवपतत िर ददया।
श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर िर ददये और
तुलसीदास जी िो यनभतय िर ददया।
 संवत ् १६८० में श्रावण िृ ष्ण तृतीया शयनवार िो तुलसीदास
जी ने "राम-राम" िहते हुए अपना शरीर पररत्याग किया।
'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' बालिांड से भलया गया है।
यह तुलसीदास द्वारा रचचत है। इस िाव्यांश में सीता-
स्वयंवर िे समय िा वणतन है। भशव धनुष भंग होने िा
समाचार सुनिर परशुराम क्रोचधत होिर सभा में उपजस्थत
हो जाते हैं। वह उस व्यजतत पर बहुत क्रोचधत होते हैं,
जजसने उनिे आराध्य देव भशव िा धनुष तोडा है। वह उसे
दण्ड देने िे उद्देश्य से सभा में पुिारते हैं। यहीं से राम-
लक्ष्मण-परशुराम संवाद िा आरंभ होता है। जस्थयत िो
त्रबगडती देखिर राम ववनम्र भाव से उनिा क्रोध शान्त
िरने िा प्रयास िरते हैं। परशुराम िो राम िे वचन अच्छे
नहीं लगते। लक्ष्मण अपने भाई िे साथ ऋवष िा ऐसा
व्यवहार देखिर स्वयं िो रोि नहीं पाते। इस तरह इस
संवाद में उनिा आगमन भी हो जाता है। वह परशुराम जी
पर नाना प्रिार िे व्यंग्य िसते हैं।
उनिे व्यंग्य परशुराम िो शूल िे समान चुभते
हैं। उनिा क्रोध िम होने िे स्थान पर बढता
जाता है। परशुराम अपने अंहिार िे िारण
सभी क्षत्रत्रयों िा अपमान िरते हैं। लक्ष्मण िो
यह सहन नहीं होती। वह भी उनिे िटाक्षों िा
उत्तर िटाक्षों में देते हैं। अंत में उनिे द्वारा
ऐसी अवप्रय बात बोल दी जाती है, जजसिे
िारण सभा में हाहािार मच जाता है। राम
जस्थयत िो और त्रबगडती देखिर लक्ष्मण िो
चुप रहने िा संिे त िरते हैं। वह परशुराम िे
क्रोध िो शान्त िरने िा प्रयास िरते हैं।
कववता का साराांि
यह अंश रामचररतमानस िे बाल िांड से भलया गया है। सीता
स्वयंवर मे राम द्वारा भशव-धनुष भंग िे बाद मुयन परशुराम
िो जब यह समाचार भमला तो वे क्रोचधत होिर वहाँ आते हैं।
भशव-धनुष िो खंडडत देखिर वे आपे से बाहर हो जाते हैं।
राम िे ववनय और ववश्वाभमत्र िे समझाने पर तथा राम िी
शजतत िी परीक्षा लेिर अंततः उनिा गुस्सा शांत होता है।
इस बीच राम, लक्ष्मण और परशुराम िे बीच जो संवाद हुआ
उस प्रसंग िो यहाँ प्रस्तुत किया गया है। परशुराम िे क्रोध
भरे वातयों िा उत्तर लक्ष्मण व्यंग्य वचनों से देते हैं। इस
प्रसंग िी ववशेषता है लक्ष्मण िी वीर रस से पगी
व्यंग्योजततयाँ और व्यंजना शैली िी सरस अभभव्यजतत।
कववता
नाथ संभुधनु भंजयनहारा, होइदह िे उ एि दास तुम्हारा।।
आयेसु िाह िदहअ किन मोही। सुयन ररसाइ बोले मुयन िोही।।
सेविु सो जो िरै सेविाई। अररिरनी िरर िररअ लराई।।
सुनहु राम जेदह भसवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो ररपु मोरा।।
सो त्रबलगाउ त्रबहाइ समाजा। न त मारे जैहदहं सब राजा॥
सुयन मुयनबचन लखन मुसुिाने। बोले परसुधरदह अवमाने॥
बहु धनुहीं तोरीं लररिाईं। िबहुँ न अभस ररस िीजन्ह गोसाईं॥
एदह धनु पर ममता िे दह हेतू। सुयन ररसाइ िह भृगुिु लिे तू॥
रे नृप बालि िाल बस बोलत तोदह न सँभार।
धनुही सम यतपुरारर धनु त्रबददत सिल संसार।।
भावाथत- परशुराम िे क्रोध िो देखिर श्रीराम बोले - हे नाथ!
भशवजी िे धनुष िो तोडऩे वाला आपिा िोई एि दास ही
होगा। तया आज्ञा है, मुझसे तयों नहीं िहते। यह सुनिर मुयन
क्रोचधत होिर बोले िी सेवि वह होता है जो सेवा िरे, शत्रु
िा िाम िरिे तो लडाई ही िरनी चादहए। हे राम! सुनो,
जजसने भशवजी िे धनुष िो तोडा है, वह सहस्रबाहु िे समान
मेरा शत्रु है। वह इस समाज िो छोडिर अलग हो जाए, नहीं
तो सभी राजा मारे जाएँगे। परशुराम िे वचन सुनिर
लक्ष्मणजी मुस्िु राए और उनिा अपमान िरते हुए बोले-
बचपन में हमने बहुत सी धनुदहयाँ तोड डालीं, किन्तु आपने
ऐसा क्रोध िभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस
िारण से है? यह सुनिर भृगुवंश िी ध्वजा स्वरूप
परशुरामजी क्रोचधत होिर िहने लगे - अरे राजपुत्र! िाल िे
वश में होिर भी तुझे बोलने में िु छ होश नहीं है। सारे संसार
में ववख्यात भशवजी िा यह धनुष तया धनुही िे समान है?
लखन िहा हँभस हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।
िा छयत लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन िे भोरें।।
छु अत टूट रघुपयतहु न दोसू। मुयन त्रबनु िाज िररअ ित रोसू।।
बोले चचतइ परसु िी ओरा। रे सठ सुनेदह सुभाउ न मोरा।।
बालिु बोभल बधउँ नदहं तोही। िे वल मुयन जड जानदह मोह।।
बाल ब्रह्मचारी अयत िोही। त्रबस्व त्रबददत छत्रत्रयिु ल द्रोही।।
भुजबल भूभम भूप त्रबनु िीन्ही। त्रबपुल बार मदहदेवन्ह दीन्ही।।
सहसबाहु भुज छेदयनहारा। परसु त्रबलोिु महीपिु मारा।।
मातु वपतदह जयन सोचबस िरभस महीसकिसोर।
गभतन्ह िे अभति दलन परसु मोर अयत घोर।।
भावाथत- लक्ष्मणजी ने हँसिर िहा- हे देव! सुयनए, हमारे जान
में तो सभी धनुष एि से ही हैं। पुराने धनुष िे तोडने में तया
हायन-लाभ! श्री रामचन्द्रजी ने तो इसे नवीन िे धोखे से देखा
था। परन्तु यह तो छू ते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी िा भी
िोई दोष नहीं है। मुयन! आप त्रबना ही िारण किसभलए क्रोध
िरते हैं? परशुरामजी अपने फरसे िी ओर देखिर बोले- अरे
दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना। मैं तुझे बालि जानिर नहीं
मारता हूँ। अरे मूखत! तया तू मुझे यनरा मुयन ही जानता है। मैं
बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रत्रयिु ल िा शत्रु तो
ववश्वभर में ववख्यात हूँ। अपनी भुजाओं िे बल से मैंने पृथ्वी
िो राजाओं से रदहत िर ददया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों
िो दे डाला। हे राजिु मार! सहस्रबाहु िी भुजाओं िो िाटने
वाले मेरे इस फरसे िो देख। अरे राजा िे बालि! तू अपने
माता-वपता िो सोच िे वश न िर। मेरा फरसा बडा भयानि
है, यह गभों िे बच्चों िा भी नाश िरने वाला है।
त्रबहभस लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी।।
पुयन पुयन मोदह देखाव िु ठारू। चहत उडावन फूँ कि पहारू।।
इहाँ िु म्हडबयतया िोउ नाहीं। जे तरजनी देखख मरर जाहीं।।
देखख िु ठारु सरासन बाना। मैं िछु िहा सदहत अभभमाना।।
भृगुसुत समुखझ जनेउ त्रबलोिी। जो िछु िहहु सहउँ ररस रोिी।।
सुर मदहसुर हररजन अरु गाई। हमरें िु ल इन्ह पर न सुराई।।
बधें पापु अपिीरयत हारें। मारतहूँ पा पररअ तुम्हारें।।
िोदट िु भलस सम बचनु तुम्हारा। ब्यथत धरहु धनु बान िु ठारा।।
जो त्रबलोकि अनुचचत िहेउँ छमहु महामुयन धीर।
भावाथत- लक्ष्मणजी हँसिर िोमल वाणी से बोले- अहो,
मुनीश्वर आप अपने िो बडा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार
मुझे िु ल्हाडी ददखाते हैं। फूँ ि से पहाड उडाना चाहते हैं। यहाँ
िोई िु म्हडे िी बयतया (बहुत छोटा फल) नहीं है, जो तजतनी
(अंगूठे िी पास िी) अँगुली िो देखते ही मर जाती हैं। िु ठार
और धनुष-बाण देखिर ही मैंने िु छ अभभमान सदहत िहा था।
भृगुवंशी समझिर और यज्ञोपवीत देखिर तो जो िु छ आप
िहते हैं, उसे मैं क्रोध िो रोििर सह लेता हूँ। देवता,
ब्राह्मण, भगवान िे भतत और गो- इन पर हमारे िु ल में
वीरता नहीं ददखाई जाती है। तयोंकि इन्हें मारने से पाप लगता
है और इनसे हार जाने पर अपिीयतत होती है, इसभलए आप
मारें तो भी आपिे पैर ही पडना चादहए। आपिा एि-एि
वचन ही िरोडों वज्रों िे समान है। धनुष-बाण और िु ठार तो
आप व्यथत ही धारण िरते हैं। इन्हें देखिर मैंने िु छ अनुचचत
िहा हो, तो उसे हे धीर महामुयन! क्षमा िीजजए। यह सुनिर
भृगुवंशमखण परशुरामजी क्रोध िे साथ गंभीर वाणी बोले।
िौभसि सुनहु मंद यहु बालिु । िु दटल िालबस यनज िु ल घालिु ।।
भानु बंस रािे स िलंिू । यनपट यनरंिु स अबुध असंिू ।।
िाल िवलु होइदह छन माहीं। िहउँ पुिारर खोरर मोदह नाहीं।।
तुम्ह हटिहु जौं चहहु उबारा। िदह प्रतापु बलु रोषु हमारा।।
लखन िहेउ मुयन सुजसु तुम्हारा। तुम्हदह अछत िो बरनै पारा।।
अपने मुँह तुम्ह आपयन िरनी। बार अनेि भाँयत बहु बरनी।।
नदहं संतोषु त पुयन िछु िहहू। जयन ररस रोकि दुसह दुख सहहू।।
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।
सूर समर िरनी िरदहं िदह न जनावदहं आपु।
त्रबद्यमान रन पाइ ररपु िायर िथदहं प्रतापु।।
भावाथत- हे ववश्वाभमत्र! सुनो, यह बालि बडा िु बुद्चध और
िु दटल है, िाल िे वश होिर यह अपने िु ल िा घाति बन
रहा है। यह सूयतवंश रूपी पूणत चन्द्र िा िलंि है। यह त्रबल्िु ल
उद्दण्ड, मूखत और यनडर है। अभी क्षण भर में यह िाल िा
ग्रास हो जाएगा। मैं पुिारिर िहे देता हूँ, कफर मुझे दोष नहीं
देना। यदद तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप, बल
और क्रोध बतलािर इसे मना िर दो। लक्ष्मणजी ने िहा- हे
मुयन! आपिा सुयश आपिे रहते दूसरा िौन वणतन िर सिता
है? आपने अपने ही मुँह से अपनी िरनी अनेिों बार बहुत
प्रिार से वणतन िी है। इतने पर भी संतोष न हुआ हो तो कफर
िु छ िह डाभलए। क्रोध रोििर असह्य दुःख मत सदहए। आप
वीरता िा व्रत धारण िरने वाले, धैयतवान और क्षोभरदहत हैं।
गाली देते शोभा नहीं पाते। शूरवीर तो युद्ध में शूरवीरता िा
प्रदशतन िरते हैं, िहिर अपने िो नहीं जनाते। शत्रु िो युद्ध
में उपजस्थत पािर िायर ही अपने प्रताप िी डींग मारा िरते
हैं।
तुम्ह तौ िालु हाँि जनु लावा। बार बार मोदह लाचग बोलावा।।
सुनत लखन िे बचन िठोरा। परसु सुधारर धरेउ िर घोरा।।
अब जयन देइ दोसु मोदह लोगू। िटुबादी बालिु बधजोगू।।
बाल त्रबलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरयनहार भा साँचा।।
िौभसि िहा छभमअ अपराधू। बाल दोष गुन गनदहं न साधू।।
खर िु ठार मैं अिरुन िोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही।।
उतर देत छोडउँ त्रबनु मारें। िे वल िौभसि सील तुम्हारें।।
न त एदह िादट िु ठार िठोरें। गुरदह उररन होतेउँ श्रम थोरे।।
गाचधसूनु िह हृदयँ हँभस मुयनदह हररअरइ सूझ।
भावाथत- आप तो मानो िाल िो हाँि लगािर बार-बार उसे मेरे भलए
बुलाते हैं। लक्ष्मणजी िे िठोर वचन सुनते ही परशुरामजी ने अपने
भयानि फरसे िो सुधारिर हाथ में ले भलया और बोले - अब लोग मुझे
दोष न दें। यह िडवा बोलने वाला बालि मारे जाने िे ही योग्य है। इसे
बालि देखिर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने िो ही आ
गया है। ववश्वाभमत्रजी ने िहा- अपराध क्षमा िीजजए। बालिों िे दोष
और गुण िो साधु लोग नहीं चगनते। परशुरामजी बोले - तीखी धार िा
िु ठार, मैं दयारदहत और क्रोधी और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे
सामने- उत्तर दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे त्रबना मारे छोड रहा हूँ, सो
हे ववश्वाभमत्र! िे वल तुम्हारे प्रेम)से, नहीं तो इसे इस िठोर िु ठार से
िाटिर थोडे ही पररश्रम से गुरु से उऋण हो जाता। ववश्वाभमत्रजी ने
हृदय में हँसिर िहा - परशुराम िो हरा ही हरा सूझ रहा है (अथातत
सवतत्र ववजयी होने िे िारण ये श्री राम-लक्ष्मण िो भी साधारण क्षत्रत्रय
ही समझ रहे हैं), किन्तु यह फौलाद िी बनी हुई खाँड है, रस िी खाँड
नहीं है जो मुँह में लेते ही गल जाए। खेद है, मुयन अब भी बेसमझ बने
हुए हैं, इनिे प्रभाव िो नहीं समझ रहे हैं।
िहेउ लखन मुयन सीलु तुम्हारा। िो नदहं जान त्रबददत संसारा।।
माता वपतदह उररन भए नीिें । गुर ररनु रहा सोचु बड जीिें ।।
सो जनु हमरेदह माथे िाढा। ददन चभल गए ब्याज बड बाढा।।
अब आयनअ ब्यवहररआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।
सुयन िटु बचन िु ठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुिारा।।
भृगुबर परसु देखावहु मोही। त्रबप्र त्रबचारर बचउँ नृपदोही।।
भमले न िबहुँ सुभट रन गाढे। द्ववज देवता घरदह िे बा ा़ढे।।
अनुचचत िदह सब लोग पुिारे। रघुपयत सयनदहं लखनु नेवारे।।
लखन उतर आहुयत सररस भृगुबर िोपु िृ सानु।
बढत देखख जल सम बचन बोले रघुिु लभानु।।
भावाथत-लक्ष्मणजी ने िहा- हे मुयन! आपिे प्रेम िो िौन नहीं जानता?
वह संसार भर में प्रभसद्ध है। आप माता-वपता से तो अच्छी तरह उऋण
हो ही गए, अब गुरु िा ऋण रहा, जजसिा जी में बडा सोच लगा है। वह
मानो हमारे ही मत्थे िाढा था। बहुत ददन बीत गए, इससे ब्याज भी
बहुत बढ गया होगा। अब किसी दहसाब िरने वाले िो बुला लाइए, तो
मैं तुरंत थैली खोलिर दे दूँ। लक्ष्मणजी िे िडवे वचन सुनिर
परशुरामजी ने िु ठार संभाला। सारी सभा हाय-हाय! िरिे पुिार उठी।
लक्ष्मणजी ने िहा- हे भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा ददखा रहे हैं? पर हे
राजाओं िे शत्रु! मैं ब्राह्मण समझिर बचा रहा हूँ। आपिो िभी रणधीर
बलवान् वीर नहीं भमले हैं। हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में बडे हैं।
यह सुनिर 'अनुचचत है, अनुचचत है' िहिर सब लोग पुिार उठे। तब
श्री रघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी िो रोि ददया। लक्ष्मणजी िे उत्तर
से, जो आहुयत िे समान थे, परशुरामजी िे क्रोध रूपी अजग्न िो बढते
देखिर रघुिु ल िे सूयत श्री रामचंद्रजी जल िे समान शांत िरने वाले
वचन बोले।
शब्दाथत• भंजयनहारा - भंग िरने वाला
• ररसाइ - क्रोध िरना
• ररपु – शत्रु
• त्रबलगाउ - अलग होना
• अवमाने - अपमान िरना
• लररिाईं - बचपन में
• परसु – फरसा
• िोही – क्रोधी
• मदहदेव – ब्राह्मण
• त्रबलोि – देखिर
• अयमय - लोहे िा बना हुआ
अभति – बच्चा
• महाभट - महान योद्धा
• मही – धरती
• िु ठारु – िु ल्हाडा
• िु म्हडबयतया - बहुत िमजोर
• तजतनी - अंगूठे िे पास िी अंगुली
• िु भलस – िठोर
• सरोष - क्रोध सदहत
• िौभसि – ववश्वाभमत्र
• भानुबंस – सूयतवंश
• नेवारे - मना िरना
• ऊखमय - गन्ने से बना हुआ
यनरंिु श - जजस पर किसी िा
दबाब ना हो।
• असंिू - शंिा सदहत
• घालुि - नाश िरने वाला
• िालिवलु – मृत
• अबुधु – नासमझ
• हटिह - मना िरने पर
• अछोभा – शांत
• बधजोगु - मारने योग्य
• अिरुण - जजसमे िरुणा ना हो
• गाचधसूनु - गाचध िे पुत्र यानी
ववश्वाभमत्र
• िृ सानु - अजग्न
प्रश्न-उत्तर
1. परिुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टू ट जाने के शल
कौन-कौन से तकक दद ?
उत्तर- परिुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टू ट जाने पर
ननम्नशलखित तकक दद -
1. हमें तो यह असाधारण शिव धुनष साधारण धनुष की भााँनत लगा।
2. श्री राम को तो ये धनुष, न धनुष के समान लगा।
3. श्री राम ने इसे तोडा नहीां बस उनके छू ते ही धनुष स्वत: टू ट
गया।
4. इस धनुष को तोडते हु उन्होंने ककसी लाभ व हानन के ववषय में
नहीां सोचा था।
5. उन्होंने ऐसे अनेक धनुषों को बालपन में यूाँ ही तोड ददया था।
इसशल यही सोचकर उनसे यह कायक हो गया।
1. परशुराम िे क्रोध िरने पर लक्ष्मण ने धनुष िे टूट जाने िे भलए
िौन-िौन से तित ददए?
उत्तर- परशुराम िे क्रोध िरने पर लक्ष्मण ने धनुष िे टूट जाने पर
यनम्नभलखखत तित ददए -
1. हमें तो यह असाधारण भशव धुनष साधारण धनुष िी भाँयत लगा।
2. श्री राम िो तो ये धनुष, नए धनुष िे समान लगा।
3. श्री राम ने इसे तोडा नहीं बस उनिे छू ते ही धनुष स्वत: टूट
गया।
4. इस धनुष िो तोडते हुए उन्होंने किसी लाभ व हायन िे ववषय में
नहीं सोचा था।
5. उन्होंने ऐसे अनेि धनुषों िो बालपन में यूँ ही तोड ददया था।
इसभलए यही सोचिर उनसे यह िायत हो गया।
3. लक्ष्मण और परशुराम िे संवाद िा जो अंश
आपिो सबसे अच्छा लगा उसे अपने शब्दों में
संवाद शैली में भलखखए।
उत्तर- लक्ष्मण - हे मुयन! बचपन में हमने खेल-
खेल में ऐसे बहुत से धनुष तोडे हैं तब तो आप
िभी क्रोचधत नहीं हुए थे। कफर इस धनुष िे
टूटने पर इतना क्रोध तयों िर रहे हैं?
परशुराम - अरे, राजपुत्र! तू िाल िे वश में
आिर ऐसा बोल रहा है। यह भशव जी िा धनुष
है।
4. परशुराम ने अपने ववषय में सभा में तया-तया िहा, यनम्न पद्यांश
िे आधार पर भलखखए –
बाल ब्रह्मचारी अयत िोही। त्रबस्वत्रबददत क्षत्रत्रयिु ल द्रोही||
भुजबल भूभम भूप त्रबनु िीन्ही। त्रबपुल बार मदहदेवन्ह दीन्ही||
सहसबाहुभुज छेदयनहारा। परसु त्रबलोिु महीपिु मारा||
मातु वपतदह जयन सोचबस िरभस महीसकिसोर।
गभतन्ह िे अभति दलन परसु मोर अयत घोर||
उत्तर-परशुराम ने अपने ववषय में ये िहा कि वे बाल ब्रह्मचारी हैं और
क्रोधी स्वभाव िे हैं। समस्त ववश्व में क्षत्रत्रय िु ल िे ववद्रोही िे रुप में
ववख्यात हैं। वे आगे, बढे अभभमान से अपने ववषय में बताते हुए िहते
हैं कि उन्होंने अनेिों बार पृथ्वी िो क्षत्रत्रयों से ववहीन िर इस पृथ्वी िो
ब्राह्मणों िो दान में ददया है और अपने हाथ में धारण इस फरसे से
सहस्त्रबाहु िे बाहों िो िाट डाला है। इसभलए हे नरेश पुत्र! मेरे इस
फरसे िो भली भाँयत देख ले।राजिु मार! तू तयों अपने माता-वपता िो
सोचने पर वववश िर रहा है। मेरे इस फरसे िी भयानिता गभत में पल
रहे भशशुओं िो भी नष्ट िर देती है।
5. लक्ष्मण ने वीर योद्धा िी तया-तया ववशेषताएँ बताई?
उत्तर-लक्ष्मण ने वीर योद्धा िी यनम्नभलखखत ववशेषताएँ बताई है-
1. वीर पुरुष स्वयं अपनी वीरता िा बखान नहीं िरते अवपतु वीरता पूणत
िायत स्वयं वीरों िा बखान िरते हैं।
2. वीर पुरुष स्वयं पर िभी अभभमान नहीं िरते। वीरता िा व्रत धारण
िरने वाले वीर पुरुष धैयतवान और क्षोभरदहत होते हैं।
3. वीर पुरुष किसी िे ववरुद्ध गलत शब्दों िा प्रयोग नहीं िरते। अथातत्
दूसरों िो सदैव समान रुप से आदर व सम्मान देते हैं।
4. वीर पुरुष दीन-हीन, ब्राह्मण व गायों, दुबतल व्यजततयों पर अपनी
वीरता िा प्रदशतन नहीं िरते हैं। उनसे हारना व उनिो मारना वीर पुरुषों
िे भलए वीरता िा प्रदशतन न होिर पाप िा भागीदार होना है।
5. वीर पुरुषों िो चादहए कि अन्याय िे ववरुद्ध हमेशा यनडर भाव से
खडे रहे।
6. किसी िे ललिारने पर वीर पुरुष िभी पीछे िदम नहीं रखते अथातत्
वह यह नहीं देखते कि उनिे आगे िौन है वह यनडरता पूवति उसिा
जवाब देते हैं।
6. साहस और शजतत िे साथ ववनम्रता हो तो बेहतर है। इस िथन पर
अपने ववचार भलखखए।
उत्तर-साहस और शजतत ये दो गुण एि व्यजतत िो वीर बनाते हैं। यदद
किसी व्यजतत में साहस ववद्यमान है तो शजतत स्वयं ही उसिे आचरण
में आ जाएगी परन्तु जहाँ ति एि व्यजतत िो वीर बनाने में सहायि
गुण होते हैं वहीं दूसरी ओर इनिी अचधिता एि व्यजतत िो अभभमानी
व उद्दंड बना देती है। िारणवश या अिारण ही वे इनिा प्रयोग िरने
लगते हैं। परन्तु यदद ववन्रमता इन गुणों िे साथ आिर भमल जाती है
तो वह उस व्यजतत िो श्रेष्ठतम वीर िी श्रेणी में ला देती है जो साहस
और शजतत में अहंिार िा समावेश िरती है। ववनम्रता उसमें सदाचार व
मधुरता भर देती है,वह किसी भी जस्थयत िो सरलता पूवति शांत िर
सिती है। जहाँ परशुराम जी साहस व शजतत िा संगम है। वहीं राम
ववनम्रता, साहस व शजतत िा संगम है। उनिी ववनम्रता िे आगे
परशुराम जी िे अहंिार िो भी नतमस्ति होना पडा नहीं तो लक्ष्मण
जी िे द्वारा परशुराम जी िो शांत िरना सम्भव नहीं था।
7. भाव स्पष्ट िीजजए –
(ि) त्रबहभस लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी||
पुयन पुयन मोदह देखाव िु ठारू। चहत उडावन फूँ कि पहारू||
उत्तर- प्रसंग - प्रस्तुत पंजततयाँ तुलसीदास द्वारा रचचत रामचररतमानस
से ली गई हैं। उतत पंजततयों में लक्ष्मण जी द्वारा परशुराम जी िे बोले
हुए अपशब्दों िा प्रयतउत्तर ददया गया है।
भाव - भाव यह है कि लक्ष्मण जी मुस्िराते हुए मधुर वाणी में परशुराम
पर व्यंग्य िसते हुए िहते हैं कि हे मुयन आप अपने अभभमान िे वश
में हैं। मैं इस संसार िा श्रेष्ठ योद्धा हूँ। आप मुझे बार-बार अपना
फरसा ददखािर डरा रहे हैं। आपिो देखिर तो ऐसा लगता है मानो फूँ ि
से पहाड उडाने िा प्रयास िर रहे हों। अथातत् जजस तरह एि फूँ ि से
पहाड नहीं उड सिता उसी प्रिार मुझे बालि समझने िी भूल मत
किजजए कि मैं आपिे इस फरसे िो देखिर डर जाऊँ गा।
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  • 2.
  • 3. जन्म & रामबोला१४९७ ई० ( संवत १५५४वव० ) राजापुर, उत्तर प्रदेश, भारत गुरु/शिक्षक & नरहररदास खिताब/सम्मान &गोस्वामी, अभभनववाल्मीकि, इत्यादद कथन & सीयराममय सब जग जानी । िरउँ प्रनाम जोरर जुग पानी ॥
  • 4. तुलसीदास गोस्वामी तुलसीदास 1511 - 1623 एि महान िवव थे। उनिा जन्म सोरों शूिरक्षेत्र (वततमान िासगंज जनपद) उत्तर प्रदेश में हुआ था। िु छ ववद्वान् आपिा जन्म राजापुर में हुआ मानते हैं। अपने जीवनिाल में उन्होंने १२ ग्रन्थ भलखे। उन्हें संस्िृ त ववद्वान होने िे साथ ही दहन्दी भाषा िे प्रभसद्ध और सवतश्रेष्ठ िववयों में एि माना जाता है। उनिो मूल आदद िाव्य रामायण िे रचययता महवषत वाल्मीकि िा अवतार भी माना जाता है। श्रीरामचररतमानस वाल्मीकि रामायण िा प्रिारान्तर से ऐसा अवधी भाषान्तर है जजसमें अन्य भी िई िृ यतयों से महत्वपूणत सामग्री समादहत िी गयी थी। रामचररतमानस िो समस्त उत्तर भारत में बडे भजततभाव से पढा जाता है। इसिे बाद ववनय पत्रत्रिा उनिा एि अन्य महत्वपूणत िाव्य है। त्रेता युग िे ऐयतहाभसि राम-रावण युद्ध पर आधाररत उनिे प्रबन्ध िाव्य रामचररतमानस िो ववश्व िे १०० सवतश्रेष्ठ लोिवप्रय िाव्यों में ४६वाँ स्थान ददया गया।
  • 13.  तुलसीदास जी जब िाशी िे ववख्यात ् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एि रात िभलयुग मूतत रूप धारण िर उनिे पास आया और उन्हें पीडा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी िा ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात ् प्रिट होिर उन्हें प्राथतना िे पद रचने िो िहा, इसिे पश्चात ् उन्होंने अपनी अजन्तम िृ यत ववनय-पत्रत्रिा भलखी और उसे भगवान िे चरणों में समवपतत िर ददया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर िर ददये और तुलसीदास जी िो यनभतय िर ददया।  संवत ् १६८० में श्रावण िृ ष्ण तृतीया शयनवार िो तुलसीदास जी ने "राम-राम" िहते हुए अपना शरीर पररत्याग किया।
  • 14. 'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' बालिांड से भलया गया है। यह तुलसीदास द्वारा रचचत है। इस िाव्यांश में सीता- स्वयंवर िे समय िा वणतन है। भशव धनुष भंग होने िा समाचार सुनिर परशुराम क्रोचधत होिर सभा में उपजस्थत हो जाते हैं। वह उस व्यजतत पर बहुत क्रोचधत होते हैं, जजसने उनिे आराध्य देव भशव िा धनुष तोडा है। वह उसे दण्ड देने िे उद्देश्य से सभा में पुिारते हैं। यहीं से राम- लक्ष्मण-परशुराम संवाद िा आरंभ होता है। जस्थयत िो त्रबगडती देखिर राम ववनम्र भाव से उनिा क्रोध शान्त िरने िा प्रयास िरते हैं। परशुराम िो राम िे वचन अच्छे नहीं लगते। लक्ष्मण अपने भाई िे साथ ऋवष िा ऐसा व्यवहार देखिर स्वयं िो रोि नहीं पाते। इस तरह इस संवाद में उनिा आगमन भी हो जाता है। वह परशुराम जी पर नाना प्रिार िे व्यंग्य िसते हैं।
  • 15. उनिे व्यंग्य परशुराम िो शूल िे समान चुभते हैं। उनिा क्रोध िम होने िे स्थान पर बढता जाता है। परशुराम अपने अंहिार िे िारण सभी क्षत्रत्रयों िा अपमान िरते हैं। लक्ष्मण िो यह सहन नहीं होती। वह भी उनिे िटाक्षों िा उत्तर िटाक्षों में देते हैं। अंत में उनिे द्वारा ऐसी अवप्रय बात बोल दी जाती है, जजसिे िारण सभा में हाहािार मच जाता है। राम जस्थयत िो और त्रबगडती देखिर लक्ष्मण िो चुप रहने िा संिे त िरते हैं। वह परशुराम िे क्रोध िो शान्त िरने िा प्रयास िरते हैं।
  • 16.
  • 17. कववता का साराांि यह अंश रामचररतमानस िे बाल िांड से भलया गया है। सीता स्वयंवर मे राम द्वारा भशव-धनुष भंग िे बाद मुयन परशुराम िो जब यह समाचार भमला तो वे क्रोचधत होिर वहाँ आते हैं। भशव-धनुष िो खंडडत देखिर वे आपे से बाहर हो जाते हैं। राम िे ववनय और ववश्वाभमत्र िे समझाने पर तथा राम िी शजतत िी परीक्षा लेिर अंततः उनिा गुस्सा शांत होता है। इस बीच राम, लक्ष्मण और परशुराम िे बीच जो संवाद हुआ उस प्रसंग िो यहाँ प्रस्तुत किया गया है। परशुराम िे क्रोध भरे वातयों िा उत्तर लक्ष्मण व्यंग्य वचनों से देते हैं। इस प्रसंग िी ववशेषता है लक्ष्मण िी वीर रस से पगी व्यंग्योजततयाँ और व्यंजना शैली िी सरस अभभव्यजतत।
  • 18. कववता नाथ संभुधनु भंजयनहारा, होइदह िे उ एि दास तुम्हारा।। आयेसु िाह िदहअ किन मोही। सुयन ररसाइ बोले मुयन िोही।। सेविु सो जो िरै सेविाई। अररिरनी िरर िररअ लराई।। सुनहु राम जेदह भसवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो ररपु मोरा।। सो त्रबलगाउ त्रबहाइ समाजा। न त मारे जैहदहं सब राजा॥ सुयन मुयनबचन लखन मुसुिाने। बोले परसुधरदह अवमाने॥ बहु धनुहीं तोरीं लररिाईं। िबहुँ न अभस ररस िीजन्ह गोसाईं॥ एदह धनु पर ममता िे दह हेतू। सुयन ररसाइ िह भृगुिु लिे तू॥ रे नृप बालि िाल बस बोलत तोदह न सँभार। धनुही सम यतपुरारर धनु त्रबददत सिल संसार।।
  • 19. भावाथत- परशुराम िे क्रोध िो देखिर श्रीराम बोले - हे नाथ! भशवजी िे धनुष िो तोडऩे वाला आपिा िोई एि दास ही होगा। तया आज्ञा है, मुझसे तयों नहीं िहते। यह सुनिर मुयन क्रोचधत होिर बोले िी सेवि वह होता है जो सेवा िरे, शत्रु िा िाम िरिे तो लडाई ही िरनी चादहए। हे राम! सुनो, जजसने भशवजी िे धनुष िो तोडा है, वह सहस्रबाहु िे समान मेरा शत्रु है। वह इस समाज िो छोडिर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएँगे। परशुराम िे वचन सुनिर लक्ष्मणजी मुस्िु राए और उनिा अपमान िरते हुए बोले- बचपन में हमने बहुत सी धनुदहयाँ तोड डालीं, किन्तु आपने ऐसा क्रोध िभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस िारण से है? यह सुनिर भृगुवंश िी ध्वजा स्वरूप परशुरामजी क्रोचधत होिर िहने लगे - अरे राजपुत्र! िाल िे वश में होिर भी तुझे बोलने में िु छ होश नहीं है। सारे संसार में ववख्यात भशवजी िा यह धनुष तया धनुही िे समान है?
  • 20. लखन िहा हँभस हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।। िा छयत लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन िे भोरें।। छु अत टूट रघुपयतहु न दोसू। मुयन त्रबनु िाज िररअ ित रोसू।। बोले चचतइ परसु िी ओरा। रे सठ सुनेदह सुभाउ न मोरा।। बालिु बोभल बधउँ नदहं तोही। िे वल मुयन जड जानदह मोह।। बाल ब्रह्मचारी अयत िोही। त्रबस्व त्रबददत छत्रत्रयिु ल द्रोही।। भुजबल भूभम भूप त्रबनु िीन्ही। त्रबपुल बार मदहदेवन्ह दीन्ही।। सहसबाहु भुज छेदयनहारा। परसु त्रबलोिु महीपिु मारा।। मातु वपतदह जयन सोचबस िरभस महीसकिसोर। गभतन्ह िे अभति दलन परसु मोर अयत घोर।।
  • 21. भावाथत- लक्ष्मणजी ने हँसिर िहा- हे देव! सुयनए, हमारे जान में तो सभी धनुष एि से ही हैं। पुराने धनुष िे तोडने में तया हायन-लाभ! श्री रामचन्द्रजी ने तो इसे नवीन िे धोखे से देखा था। परन्तु यह तो छू ते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी िा भी िोई दोष नहीं है। मुयन! आप त्रबना ही िारण किसभलए क्रोध िरते हैं? परशुरामजी अपने फरसे िी ओर देखिर बोले- अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना। मैं तुझे बालि जानिर नहीं मारता हूँ। अरे मूखत! तया तू मुझे यनरा मुयन ही जानता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रत्रयिु ल िा शत्रु तो ववश्वभर में ववख्यात हूँ। अपनी भुजाओं िे बल से मैंने पृथ्वी िो राजाओं से रदहत िर ददया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों िो दे डाला। हे राजिु मार! सहस्रबाहु िी भुजाओं िो िाटने वाले मेरे इस फरसे िो देख। अरे राजा िे बालि! तू अपने माता-वपता िो सोच िे वश न िर। मेरा फरसा बडा भयानि है, यह गभों िे बच्चों िा भी नाश िरने वाला है।
  • 22. त्रबहभस लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी।। पुयन पुयन मोदह देखाव िु ठारू। चहत उडावन फूँ कि पहारू।। इहाँ िु म्हडबयतया िोउ नाहीं। जे तरजनी देखख मरर जाहीं।। देखख िु ठारु सरासन बाना। मैं िछु िहा सदहत अभभमाना।। भृगुसुत समुखझ जनेउ त्रबलोिी। जो िछु िहहु सहउँ ररस रोिी।। सुर मदहसुर हररजन अरु गाई। हमरें िु ल इन्ह पर न सुराई।। बधें पापु अपिीरयत हारें। मारतहूँ पा पररअ तुम्हारें।। िोदट िु भलस सम बचनु तुम्हारा। ब्यथत धरहु धनु बान िु ठारा।। जो त्रबलोकि अनुचचत िहेउँ छमहु महामुयन धीर।
  • 23. भावाथत- लक्ष्मणजी हँसिर िोमल वाणी से बोले- अहो, मुनीश्वर आप अपने िो बडा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे िु ल्हाडी ददखाते हैं। फूँ ि से पहाड उडाना चाहते हैं। यहाँ िोई िु म्हडे िी बयतया (बहुत छोटा फल) नहीं है, जो तजतनी (अंगूठे िी पास िी) अँगुली िो देखते ही मर जाती हैं। िु ठार और धनुष-बाण देखिर ही मैंने िु छ अभभमान सदहत िहा था। भृगुवंशी समझिर और यज्ञोपवीत देखिर तो जो िु छ आप िहते हैं, उसे मैं क्रोध िो रोििर सह लेता हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवान िे भतत और गो- इन पर हमारे िु ल में वीरता नहीं ददखाई जाती है। तयोंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपिीयतत होती है, इसभलए आप मारें तो भी आपिे पैर ही पडना चादहए। आपिा एि-एि वचन ही िरोडों वज्रों िे समान है। धनुष-बाण और िु ठार तो आप व्यथत ही धारण िरते हैं। इन्हें देखिर मैंने िु छ अनुचचत िहा हो, तो उसे हे धीर महामुयन! क्षमा िीजजए। यह सुनिर भृगुवंशमखण परशुरामजी क्रोध िे साथ गंभीर वाणी बोले।
  • 24. िौभसि सुनहु मंद यहु बालिु । िु दटल िालबस यनज िु ल घालिु ।। भानु बंस रािे स िलंिू । यनपट यनरंिु स अबुध असंिू ।। िाल िवलु होइदह छन माहीं। िहउँ पुिारर खोरर मोदह नाहीं।। तुम्ह हटिहु जौं चहहु उबारा। िदह प्रतापु बलु रोषु हमारा।। लखन िहेउ मुयन सुजसु तुम्हारा। तुम्हदह अछत िो बरनै पारा।। अपने मुँह तुम्ह आपयन िरनी। बार अनेि भाँयत बहु बरनी।। नदहं संतोषु त पुयन िछु िहहू। जयन ररस रोकि दुसह दुख सहहू।। बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।। सूर समर िरनी िरदहं िदह न जनावदहं आपु। त्रबद्यमान रन पाइ ररपु िायर िथदहं प्रतापु।।
  • 25. भावाथत- हे ववश्वाभमत्र! सुनो, यह बालि बडा िु बुद्चध और िु दटल है, िाल िे वश होिर यह अपने िु ल िा घाति बन रहा है। यह सूयतवंश रूपी पूणत चन्द्र िा िलंि है। यह त्रबल्िु ल उद्दण्ड, मूखत और यनडर है। अभी क्षण भर में यह िाल िा ग्रास हो जाएगा। मैं पुिारिर िहे देता हूँ, कफर मुझे दोष नहीं देना। यदद तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलािर इसे मना िर दो। लक्ष्मणजी ने िहा- हे मुयन! आपिा सुयश आपिे रहते दूसरा िौन वणतन िर सिता है? आपने अपने ही मुँह से अपनी िरनी अनेिों बार बहुत प्रिार से वणतन िी है। इतने पर भी संतोष न हुआ हो तो कफर िु छ िह डाभलए। क्रोध रोििर असह्य दुःख मत सदहए। आप वीरता िा व्रत धारण िरने वाले, धैयतवान और क्षोभरदहत हैं। गाली देते शोभा नहीं पाते। शूरवीर तो युद्ध में शूरवीरता िा प्रदशतन िरते हैं, िहिर अपने िो नहीं जनाते। शत्रु िो युद्ध में उपजस्थत पािर िायर ही अपने प्रताप िी डींग मारा िरते हैं।
  • 26. तुम्ह तौ िालु हाँि जनु लावा। बार बार मोदह लाचग बोलावा।। सुनत लखन िे बचन िठोरा। परसु सुधारर धरेउ िर घोरा।। अब जयन देइ दोसु मोदह लोगू। िटुबादी बालिु बधजोगू।। बाल त्रबलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरयनहार भा साँचा।। िौभसि िहा छभमअ अपराधू। बाल दोष गुन गनदहं न साधू।। खर िु ठार मैं अिरुन िोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही।। उतर देत छोडउँ त्रबनु मारें। िे वल िौभसि सील तुम्हारें।। न त एदह िादट िु ठार िठोरें। गुरदह उररन होतेउँ श्रम थोरे।। गाचधसूनु िह हृदयँ हँभस मुयनदह हररअरइ सूझ।
  • 27. भावाथत- आप तो मानो िाल िो हाँि लगािर बार-बार उसे मेरे भलए बुलाते हैं। लक्ष्मणजी िे िठोर वचन सुनते ही परशुरामजी ने अपने भयानि फरसे िो सुधारिर हाथ में ले भलया और बोले - अब लोग मुझे दोष न दें। यह िडवा बोलने वाला बालि मारे जाने िे ही योग्य है। इसे बालि देखिर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने िो ही आ गया है। ववश्वाभमत्रजी ने िहा- अपराध क्षमा िीजजए। बालिों िे दोष और गुण िो साधु लोग नहीं चगनते। परशुरामजी बोले - तीखी धार िा िु ठार, मैं दयारदहत और क्रोधी और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने- उत्तर दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे त्रबना मारे छोड रहा हूँ, सो हे ववश्वाभमत्र! िे वल तुम्हारे प्रेम)से, नहीं तो इसे इस िठोर िु ठार से िाटिर थोडे ही पररश्रम से गुरु से उऋण हो जाता। ववश्वाभमत्रजी ने हृदय में हँसिर िहा - परशुराम िो हरा ही हरा सूझ रहा है (अथातत सवतत्र ववजयी होने िे िारण ये श्री राम-लक्ष्मण िो भी साधारण क्षत्रत्रय ही समझ रहे हैं), किन्तु यह फौलाद िी बनी हुई खाँड है, रस िी खाँड नहीं है जो मुँह में लेते ही गल जाए। खेद है, मुयन अब भी बेसमझ बने हुए हैं, इनिे प्रभाव िो नहीं समझ रहे हैं।
  • 28. िहेउ लखन मुयन सीलु तुम्हारा। िो नदहं जान त्रबददत संसारा।। माता वपतदह उररन भए नीिें । गुर ररनु रहा सोचु बड जीिें ।। सो जनु हमरेदह माथे िाढा। ददन चभल गए ब्याज बड बाढा।। अब आयनअ ब्यवहररआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।। सुयन िटु बचन िु ठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुिारा।। भृगुबर परसु देखावहु मोही। त्रबप्र त्रबचारर बचउँ नृपदोही।। भमले न िबहुँ सुभट रन गाढे। द्ववज देवता घरदह िे बा ा़ढे।। अनुचचत िदह सब लोग पुिारे। रघुपयत सयनदहं लखनु नेवारे।। लखन उतर आहुयत सररस भृगुबर िोपु िृ सानु। बढत देखख जल सम बचन बोले रघुिु लभानु।।
  • 29. भावाथत-लक्ष्मणजी ने िहा- हे मुयन! आपिे प्रेम िो िौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रभसद्ध है। आप माता-वपता से तो अच्छी तरह उऋण हो ही गए, अब गुरु िा ऋण रहा, जजसिा जी में बडा सोच लगा है। वह मानो हमारे ही मत्थे िाढा था। बहुत ददन बीत गए, इससे ब्याज भी बहुत बढ गया होगा। अब किसी दहसाब िरने वाले िो बुला लाइए, तो मैं तुरंत थैली खोलिर दे दूँ। लक्ष्मणजी िे िडवे वचन सुनिर परशुरामजी ने िु ठार संभाला। सारी सभा हाय-हाय! िरिे पुिार उठी। लक्ष्मणजी ने िहा- हे भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा ददखा रहे हैं? पर हे राजाओं िे शत्रु! मैं ब्राह्मण समझिर बचा रहा हूँ। आपिो िभी रणधीर बलवान् वीर नहीं भमले हैं। हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में बडे हैं। यह सुनिर 'अनुचचत है, अनुचचत है' िहिर सब लोग पुिार उठे। तब श्री रघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी िो रोि ददया। लक्ष्मणजी िे उत्तर से, जो आहुयत िे समान थे, परशुरामजी िे क्रोध रूपी अजग्न िो बढते देखिर रघुिु ल िे सूयत श्री रामचंद्रजी जल िे समान शांत िरने वाले वचन बोले।
  • 30.
  • 31. शब्दाथत• भंजयनहारा - भंग िरने वाला • ररसाइ - क्रोध िरना • ररपु – शत्रु • त्रबलगाउ - अलग होना • अवमाने - अपमान िरना • लररिाईं - बचपन में • परसु – फरसा • िोही – क्रोधी • मदहदेव – ब्राह्मण • त्रबलोि – देखिर • अयमय - लोहे िा बना हुआ अभति – बच्चा • महाभट - महान योद्धा • मही – धरती • िु ठारु – िु ल्हाडा • िु म्हडबयतया - बहुत िमजोर • तजतनी - अंगूठे िे पास िी अंगुली • िु भलस – िठोर • सरोष - क्रोध सदहत • िौभसि – ववश्वाभमत्र • भानुबंस – सूयतवंश • नेवारे - मना िरना • ऊखमय - गन्ने से बना हुआ यनरंिु श - जजस पर किसी िा दबाब ना हो। • असंिू - शंिा सदहत • घालुि - नाश िरने वाला • िालिवलु – मृत • अबुधु – नासमझ • हटिह - मना िरने पर • अछोभा – शांत • बधजोगु - मारने योग्य • अिरुण - जजसमे िरुणा ना हो • गाचधसूनु - गाचध िे पुत्र यानी ववश्वाभमत्र • िृ सानु - अजग्न
  • 33. 1. परिुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टू ट जाने के शल कौन-कौन से तकक दद ? उत्तर- परिुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टू ट जाने पर ननम्नशलखित तकक दद - 1. हमें तो यह असाधारण शिव धुनष साधारण धनुष की भााँनत लगा। 2. श्री राम को तो ये धनुष, न धनुष के समान लगा। 3. श्री राम ने इसे तोडा नहीां बस उनके छू ते ही धनुष स्वत: टू ट गया। 4. इस धनुष को तोडते हु उन्होंने ककसी लाभ व हानन के ववषय में नहीां सोचा था। 5. उन्होंने ऐसे अनेक धनुषों को बालपन में यूाँ ही तोड ददया था। इसशल यही सोचकर उनसे यह कायक हो गया।
  • 34. 1. परशुराम िे क्रोध िरने पर लक्ष्मण ने धनुष िे टूट जाने िे भलए िौन-िौन से तित ददए? उत्तर- परशुराम िे क्रोध िरने पर लक्ष्मण ने धनुष िे टूट जाने पर यनम्नभलखखत तित ददए - 1. हमें तो यह असाधारण भशव धुनष साधारण धनुष िी भाँयत लगा। 2. श्री राम िो तो ये धनुष, नए धनुष िे समान लगा। 3. श्री राम ने इसे तोडा नहीं बस उनिे छू ते ही धनुष स्वत: टूट गया। 4. इस धनुष िो तोडते हुए उन्होंने किसी लाभ व हायन िे ववषय में नहीं सोचा था। 5. उन्होंने ऐसे अनेि धनुषों िो बालपन में यूँ ही तोड ददया था। इसभलए यही सोचिर उनसे यह िायत हो गया।
  • 35. 3. लक्ष्मण और परशुराम िे संवाद िा जो अंश आपिो सबसे अच्छा लगा उसे अपने शब्दों में संवाद शैली में भलखखए। उत्तर- लक्ष्मण - हे मुयन! बचपन में हमने खेल- खेल में ऐसे बहुत से धनुष तोडे हैं तब तो आप िभी क्रोचधत नहीं हुए थे। कफर इस धनुष िे टूटने पर इतना क्रोध तयों िर रहे हैं? परशुराम - अरे, राजपुत्र! तू िाल िे वश में आिर ऐसा बोल रहा है। यह भशव जी िा धनुष है।
  • 36. 4. परशुराम ने अपने ववषय में सभा में तया-तया िहा, यनम्न पद्यांश िे आधार पर भलखखए – बाल ब्रह्मचारी अयत िोही। त्रबस्वत्रबददत क्षत्रत्रयिु ल द्रोही|| भुजबल भूभम भूप त्रबनु िीन्ही। त्रबपुल बार मदहदेवन्ह दीन्ही|| सहसबाहुभुज छेदयनहारा। परसु त्रबलोिु महीपिु मारा|| मातु वपतदह जयन सोचबस िरभस महीसकिसोर। गभतन्ह िे अभति दलन परसु मोर अयत घोर|| उत्तर-परशुराम ने अपने ववषय में ये िहा कि वे बाल ब्रह्मचारी हैं और क्रोधी स्वभाव िे हैं। समस्त ववश्व में क्षत्रत्रय िु ल िे ववद्रोही िे रुप में ववख्यात हैं। वे आगे, बढे अभभमान से अपने ववषय में बताते हुए िहते हैं कि उन्होंने अनेिों बार पृथ्वी िो क्षत्रत्रयों से ववहीन िर इस पृथ्वी िो ब्राह्मणों िो दान में ददया है और अपने हाथ में धारण इस फरसे से सहस्त्रबाहु िे बाहों िो िाट डाला है। इसभलए हे नरेश पुत्र! मेरे इस फरसे िो भली भाँयत देख ले।राजिु मार! तू तयों अपने माता-वपता िो सोचने पर वववश िर रहा है। मेरे इस फरसे िी भयानिता गभत में पल रहे भशशुओं िो भी नष्ट िर देती है।
  • 37. 5. लक्ष्मण ने वीर योद्धा िी तया-तया ववशेषताएँ बताई? उत्तर-लक्ष्मण ने वीर योद्धा िी यनम्नभलखखत ववशेषताएँ बताई है- 1. वीर पुरुष स्वयं अपनी वीरता िा बखान नहीं िरते अवपतु वीरता पूणत िायत स्वयं वीरों िा बखान िरते हैं। 2. वीर पुरुष स्वयं पर िभी अभभमान नहीं िरते। वीरता िा व्रत धारण िरने वाले वीर पुरुष धैयतवान और क्षोभरदहत होते हैं। 3. वीर पुरुष किसी िे ववरुद्ध गलत शब्दों िा प्रयोग नहीं िरते। अथातत् दूसरों िो सदैव समान रुप से आदर व सम्मान देते हैं। 4. वीर पुरुष दीन-हीन, ब्राह्मण व गायों, दुबतल व्यजततयों पर अपनी वीरता िा प्रदशतन नहीं िरते हैं। उनसे हारना व उनिो मारना वीर पुरुषों िे भलए वीरता िा प्रदशतन न होिर पाप िा भागीदार होना है। 5. वीर पुरुषों िो चादहए कि अन्याय िे ववरुद्ध हमेशा यनडर भाव से खडे रहे। 6. किसी िे ललिारने पर वीर पुरुष िभी पीछे िदम नहीं रखते अथातत् वह यह नहीं देखते कि उनिे आगे िौन है वह यनडरता पूवति उसिा जवाब देते हैं।
  • 38. 6. साहस और शजतत िे साथ ववनम्रता हो तो बेहतर है। इस िथन पर अपने ववचार भलखखए। उत्तर-साहस और शजतत ये दो गुण एि व्यजतत िो वीर बनाते हैं। यदद किसी व्यजतत में साहस ववद्यमान है तो शजतत स्वयं ही उसिे आचरण में आ जाएगी परन्तु जहाँ ति एि व्यजतत िो वीर बनाने में सहायि गुण होते हैं वहीं दूसरी ओर इनिी अचधिता एि व्यजतत िो अभभमानी व उद्दंड बना देती है। िारणवश या अिारण ही वे इनिा प्रयोग िरने लगते हैं। परन्तु यदद ववन्रमता इन गुणों िे साथ आिर भमल जाती है तो वह उस व्यजतत िो श्रेष्ठतम वीर िी श्रेणी में ला देती है जो साहस और शजतत में अहंिार िा समावेश िरती है। ववनम्रता उसमें सदाचार व मधुरता भर देती है,वह किसी भी जस्थयत िो सरलता पूवति शांत िर सिती है। जहाँ परशुराम जी साहस व शजतत िा संगम है। वहीं राम ववनम्रता, साहस व शजतत िा संगम है। उनिी ववनम्रता िे आगे परशुराम जी िे अहंिार िो भी नतमस्ति होना पडा नहीं तो लक्ष्मण जी िे द्वारा परशुराम जी िो शांत िरना सम्भव नहीं था।
  • 39. 7. भाव स्पष्ट िीजजए – (ि) त्रबहभस लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी|| पुयन पुयन मोदह देखाव िु ठारू। चहत उडावन फूँ कि पहारू|| उत्तर- प्रसंग - प्रस्तुत पंजततयाँ तुलसीदास द्वारा रचचत रामचररतमानस से ली गई हैं। उतत पंजततयों में लक्ष्मण जी द्वारा परशुराम जी िे बोले हुए अपशब्दों िा प्रयतउत्तर ददया गया है। भाव - भाव यह है कि लक्ष्मण जी मुस्िराते हुए मधुर वाणी में परशुराम पर व्यंग्य िसते हुए िहते हैं कि हे मुयन आप अपने अभभमान िे वश में हैं। मैं इस संसार िा श्रेष्ठ योद्धा हूँ। आप मुझे बार-बार अपना फरसा ददखािर डरा रहे हैं। आपिो देखिर तो ऐसा लगता है मानो फूँ ि से पहाड उडाने िा प्रयास िर रहे हों। अथातत् जजस तरह एि फूँ ि से पहाड नहीं उड सिता उसी प्रिार मुझे बालि समझने िी भूल मत किजजए कि मैं आपिे इस फरसे िो देखिर डर जाऊँ गा।