2. घृत गुण
एषु चैवोत्तर्ं सर्पििःसंस्कांस्यानुवतिनात
ch.su.13/13
तत्रार्प चोत्तर्ं सर्पि: संस्कांस्यानुवतिनात ||
र्ाधुयािदर्वदाहहत्त्वाज्जन्र्ाद्येव च शीलनात |
अ.ह.सु. 16/2
3. वगीकंण
नव्य - १ वषि तक
पुंाण - १ वषि के बाद
पुंाण - ४ प्रकां
पुंाण - १ से १० वषि तक
प्रपुंाण - ११ से १०० ;”
कौम्भ - १००-११०
र्हाघृत >११० वषि
Latin name - Butyrum Depuratu
रस - र्धुं , पुंाण - अम्ल
वीर्य - शीत, पुंाण - उष्ण
ववपाक - र्धुं, पुंाण - कटु(गुरु-सुस्रुत)
गुण - स्स्नग्ध,शीत,गुरु,र्ृदु,सौम्य,सूक्ष्र्,अभभष्यस्न्द(सु.),
पुंाण - सं,तीक्ष्ण,लघु
दोषघ्नता - वातर्पत्त शार्क,कफकं ,
पुंाण - त्रत्रदोषनत
4. धातु पर क्रिर्ा - ंस,शुक्र,ओज के भलये हहतकं, ंसायन
कर्य - घृतं र्पत्ताननलहंं ंसशुक्रौजसां हहतर्|
ननवािपणं र्ृदुकंं स्वंवणिप्रसादनर्||
घृतपानं र्पत्तशूल शर्नर् सु उ. ४२/१०६
धीस्र्ृनतर्ेधास्ग्नकाक्षिणां घृतं शस्यते
अ.स. सु. २५
श्रेष्ठं र्वषहंर् अ.स.उ.४०
घृतंिींस्य ंसाहदभभस्तुल्यर्र्प र्वशेषतो दीपनं
अ.स. सु. १७
ऋतु - शंदऋतु
14. घृत तैल स्नेह र्ज्जा इन चांों स्नेहों र्ें
यर्क स्नेह
२ स्नेह को भर्लाने पं
1 सर्पि+तैल 2 सर्पि+वसा
3 सर्पि+र्ज्जा 4 तैल+वसा
5 तैल+र्ज्जा 6 वसा+र्ज्जा
त्रत्रवृत
३ स्नेह को भर्लाने पं त्रत्रवृत
1 सर्पि+तैल+वसा 2 सर्पि+तैल+र्ज्जा
3 तैल+वसा+र्ज्जा 4 सर्पि +वसा+र्ज्जा
४ को भर्लाने पं र्हास्नेह
1 तैल+वसा+र्ज्जा + सर्पि
15. अच्छस्नेह
ह्यस्तने जीणि एवान्ने स्नेहोबच्ि शुद्धये बहु: । अ.ह.सू.१६/१९
के बल स्नेह का , त्रबना क्रकसी िव्य र्ें भर्लाये बहुत र्ात्रा र्ें प्रयोग अच्ि
स्नेह कहलाता है ।
यहद अच्सस्नेह िुदाकाल र्ें हदया जाता है तो बह शोधन कर्ि र्े उपयोगी
नहीं होता - अरुण्दत्त
बाह्यस्नेहन र्ें प्रयुक्त स्नेह जाठंास्ग्न के संपकि र्े न आने से अच्सस्नेह
नहीं - चंक
"अच्ि" का अाि स्वच्ि अघन( not solid) अर्ंकोष
अच्ििः के वलस्नेहिः सु. ड्लल्हण
के वल का अाि
के वलर् असहायर्, अन्यिवैंसंयुक्तभर््याििः, तच्च संस्कृ तर्संस्कृ तं वा;
स्यप्तयन्यिव्यसंयोगे संस्कृ त्वं लभ्यत एव,
संयोगसंस्कांयोगुिणयोभभिन्न्वात| एतेन संस्कृ तर्संस्कृ तं वा के वलं
क्वााचूणािहदप्रिेपंहहतं सर्पििःपातव्यभर्नत ज्ञेयर्
16. अच्छ स्नेह गुण र्हत्व
इसे प्रार् कल्पना या र्ुख्य कल्पना कह्ते हैं
नाच्सपेयो र्वचांणा ।
स्नेहस्य कल्प: स श्रेष्ठ: स्नेहकर्िसु साधनर् ।
अ.ह.सू.२५/२१
स्नेहसा्म्यिः क्लेशसहिः काले ना्युष्णशीतले |
अच्िर्ेव र्पबेत स्नेहर्च्िपानं हह पूस्जतर् |
अयोग्य
स्नेहद्वेषी िार्ो र्ृदुकोष्ठ: स्नेहर्द्यननतयश्च ।
अध्वप्रजागंस्स्त्रश्रान्ता नाच्िं र्पबेयुस्ते का.सु. २२/५२
17. ववचारणा (प्रववचारणा) स्नेह
ओदनश्च र्वलेपी च ंसो र्ांसं पयो दर्ध|
यवागूिः सूपशाकौ च यूषिः काम्बभलकिः खडिः||२३||
सक्तवस्स्तलर्पष्टं च र्द्यं लेहास्ताैव च|
भक्ष्यर्भ्यञ्जनं बस्स्तस्ताा चोत्तंबस्तयिः||२४||
गण्डूषिः कणितैलं च नस्तिःकणािक्षितपिणर्|
चतुर्विंशनतरं्येतािः स्नेहस्य प्रर्वचांणािः ||
च.सु.१३/२३-५
18. र्ोग्र्
सुकु र्ांं कृ शं वृद्धं भशशुं स्नेहद्र्वषं ताा |
तृष्णातिर्ुष्णकाले च सह भक्तेन पाययेत ||
सु सू .र्च. ३१/३७
स्नेहद्र्वषिः स्नेहनन्या र्ृदुकोष्ठाश्च ये नंािः|
क्लेशासहा र्द्यनन्यास्तेषाभर्ष्टा र्वचांणा||
च.सु.१३/८२ उपंोक्त र्ें
अच्ि स्नेहपान से त्रबभभन्न प्रकां की व्यार्धयां हो जाती हैं जो
कृ च्ससाध्य एवं असाध्य हो जाती हैं
19. सद्र् स्नेहन
तुंंत या कर् सर्य र्ें स्स्नग्ध लिण प्राप्तत कंने के भलय
यह र्वचांणा स्नेह का र्वकल्प भेद है
1. ड्लल्हण , आढ्र्ल,चक्रपाणी के अनुसां सद्य स्नेह प्रयुक्त हदन र्ें
स्स्नग्ध लिण प्राप्तत होते हैं।
2. अरुणदत्त के अनुसां - सद्य स्नेह से ३ हदन के अंदं स्नेहन होता है।
3. चक्रपाणी औं आढ्र्ल के अनुसां स्नेहन हेतु जो स्नेहपान ३ हदन र्ें
सम्यक स्स्नग्ध लक्ष्ण उ्पन्न कंता है , उसे सद्य स्नेह कहेंगे ।
योग
पाञ्चप्रसृततकी पेर्ा
सर्पिस्तैलवसार्ज्जातण्डुलप्रसृतैिः शृ(कृ )ता|
पाञ्चप्रसृनतकी पेया पेया स्नेहनभर्च्िता
लवणर्ुक्त स्नेह
लवणयुक्त स्नेह का प्रयोग शीघ्र स्नेहनकारं
( लवण अभभष्यस्न्द,सूक्ष्र्,अरुि,उष्ण,व्यवायी
20. चंक अनुसां
१ भोजन से पूवि स्नेह के साा ंाव खाकं नतल ओं प्रभूत स्नेह भर्लाकं खखचडी खाने से
२ र्हदंा र्ंड के साा तैल,वसा,र्ज्जा
३ दूध र्ेर् ंाव भर्लाकं पीना
४ धांोष्ण दूध र्ें स्नेह औं चीनी भर्लाकं पीना
५ दही की र्लाइ र्ें ंाव भर्लाकं पीना
सुस्रुत अनुसां
१ र्पप्तप्तली,सैन्धव,घी,नतलर्पष्ट,वंाह वसा
२ र्पप्तपली,सैन्धव,चांोंस्नेह,दर्धर्स्तु
३ स्स्नग्ध यवागू र्ांसंस र्ें भूनकं
४ दूध दुहने वाले पात्र र्े घृतयुक्त शकि ंा ंखकं उसर्ें दूध दुह कं पीना
५ जौ,बें,कु लाी के क्वाा र्ें र्पप्तपली कल्क के साा दूध ,दही ,सुंा एवं घृत भर्लाकं पीना
वागभट
१ घी र्ें भुने र्ांसंस र्ें यवागू बनाकं
२ अर्धक स्नेहयुक्त नतलकाम्बभलक का सेवन
३ अर्धक स्नेह युक्त दूध र्ें भसद्ध उडद औं चावल की खीं
४ त्रत्रफ़ला ंस र्ें चांों स्नेह को भसद्ध कं पीना
५ घी बहुल गंर् गंर् पेया को दूध के साा
28. ग्रन्थ
नार्
र्ात्रा
नार्
जीणयकाल प्रर्ोज्र् स्थल ( रोगी एवं रोग
अनुसार)
गुण उपर्ोग
चंक
वाग्भट
काश्यप
बंगसेन
प्रधान
या
उत्तर्
र्ात्रा
8 प्रहं
या 24
घंटे र्ें
जीणि होने
वाली
१ प्रनतहदन प्रभूत स्नेह सेवी
२ जो भूख प्तयास व क्लेश सहहष्णु
हो
३ प्रबल जाठंास्ग्न वाला
४ उत्तर् शंीं बल
५ गुल्र् , र्वसपि , उन्र्ाद ,
र्ूत्रकृ च्ि ंोगी
६ सपिदंश
७ रुि र्ल, रुि प्रकृ नत, उदावति
ंोगी
८ जो अर्धक
र्ैाुन,व्यायार्,र्द्यपान,यान,र्ागि
गर्न से श्रान्त हो अघो भाग र्ें
वात से पीडडत, ताा वात प्रकृ नत
वाला
१ शीघ्र ंोगो को शांत
कंती है
२ सभी र्ागों का
अनुसंण कंते हुए
दोषों का अनुकषिण
कंती है.
३ शांीरंक बल बढाने
वाली है.
४ शंीं इस्न्िय एवं
र्ानभसक र्वकांों को
दूं कं पुन: नवीनता
प्रदान कंती है
अच्ि स्नेहपान की जीणि कालानुसां र्ात्रा ननधािंण , प्रयोग स्ाल एवं गुण र्ववंण
ताभलका
29. ग्रन्थ
नार्
र्ात्रा
नार्
जीणयकाल प्रर्ोज्र् स्थल ( रोगी एवं रोग
अनुसार)
गुण उपर्ोग
चंक
वाग्भट
काश्यप
बंगसेन
र्ध्य
र्
र्ात्रा
4 प्रहं
या 12 घंटे
र्ें जीणि
होने वाली
१ स्जसे िोटी र्पडडका, स्फोट, शुष्क
कं डु ,पार्ा हो
२ कु ष्ठी प्रर्ेही
३ वातंक्त पीडडत
४ स्जसे अरुर्च हो
५ स्जसका कोष्ठ र्ृदु हो
६ स्जसका र्ध्यर् बल हो
१ इससे बल कर् नहीं
होता
२ सुख पूविक शंीं का
स्नेहन होता है
३ इसका प्रयोग
शोधनााि होता है
अच्ि स्नेहपान की जीणि कालानुसां र्ात्रा ननधािंण , प्रयोग स्ाल एवं गुण र्ववंण
ताभलका
30. ग्रन्थ
नार्
र्ात्रा
नार्
जीणयकाल प्रर्ोज्र् स्थल ( रोगी एवं रोग
अनुसार)
गुण उपर्ोग
चंक
वाग्भट
काश्यप
बंगसेन
ह्रस्व
र्ात्रा
2 प्रहं
या 6 घंटे
र्ें जीणि
होने वाली
१ वृद्ध , बालक, सुकु र्ां ,
सुखासीन व्यस्क्त को
२ कोष्ठ की रंक्तता पं कष्ट
अनुभव कंने वाले व्यस्क्त को
३ स्जसे र्ंदास्ग्न हो
४ अल्प बल व्यस्क्त को
नोट- इस र्ात्रा के भलये ननयर्
पालन आवश्यक नहीं है
१ जो ंोग या बल की
दृस्ष्ट से हीन हों
२ बालक वृद्ध
सुखाभ्यासी जीणि ंोग
र्े उपयुक्त है
३ कृ श वयस्क्तयों के
भलये उपयोगी है
अच्ि स्नेहपान की जीणि कालानुसां र्ात्रा ननधािंण , प्रयोग स्ाल एवं गुण र्ववंण
ताभलका
र्वशेष
काश्यप ने ह्रस्व र्ात्रा को कनीयसी ताा वाग्भट ने ३ घंटे र्ें जीणि होने वाली र्ात्रा को
ह्रसीयसी कहा है
31. ग्रन्थ
नार्
र्ात्रा
नार्
जीणयकाल
Time
गुण उपर्ोग
सुश्रुत उत्तर्
र्ात्रा
अहोंात्र र्ें जीणि
होने वाली
8 प्रहं
या 24
घंटे
दोषों को दुर्षत नहीं कंती
यह कु ष्ठ , र्वष, उन्र्ाद,ग्रह, ग्लानन
,र्ूच्िाि ,भ्रर्, एवं अपस्र्ां ंोग
नाशक है, औं स्नेहन योग्य ,
वृष्य,बृहण ताा अस्ग्नदीपक है
श्रेष्ठ
र्ात्रा
हदवस सर्ास्प्तत पं
जीणि होने वाली
4 प्रहं
या 12
घंटे
प्रबल
दोष
चतुाािंश भाग हदन
शेष ंहने पं जीणि
होने वाली
3 प्रहं
या 9 घंटे
अर्धक दोष वाले आतुं के भलए
बृहणीं
र्ात्रा
आधे हदन र्े जीणि
होने वाली
2 प्रहं
या 6 घंटे
र्ध्यर् दोष आतुं के भलए
साधां
ण
र्ात्रा
हदन के चतुाािंश र्ें
जीणि होने वाली
1 प्रहं
या 3 घंटे
अल्प दोष आतुं के भलए
सुश्रुत अनुसां अच्ि स्नेहपान की जीणि कालानुसां र्ात्रा प्रयोग स्ाल एवं गुण
र्ववंण ताभलका