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प्रस्तुतकर्त्ता
रंजय कु मतर पटेल
(शोधतर्थी, शैक्षिक अध्ययन क्षिभतग, महतत्मत गताँधी के न्द्रीय
क्षिश्वक्षिद्यतलय, पूिी चम्पतरण, क्षिहतर, भतरत )
मीमतंसत दशान
क्षिषय-प्रिेश
 स ांख्य, योग, न्य य, वैशेषिक, मीम ांस और वेद न्त ये िड्दशशन आषततक दशशन म ने ज ते हैं।
 इन िड् आषततक दशशनों में मीम ांस दशशन अग्रणी है क्योंषक यह पूणशतः वेदों पर आध ररत है।
 मीम ांस दशशन के प्रषतप दक आच यश महषिश जैषमषन हैं ।
 महषिश पर सर के षशष्य वेदव्य स (ब दर यण य कृष्ण द्वैप यन) हुए तथ वेदव्य स के षशष्य आच यश
जैषमषन ने 'मीम ांस सूत्र' की रचन की
 मीम ांस दशशन क मूल ग्रन्थ मीम ांस सूत्र है।
 मीम ांस दशशन सोलह अध्य यों क है, िोडि ध्य यी मीम ांस के रहते हुए भी पठन-प ठन केवल
द्व दश ध्य य क ही होत है।
 वततुतः इसक क म कोई नय दशशन प्रततुत करन नहीं, वरन् वैषदक धमश एवां मन्त्रों की षवततृत व्य ख्य
करन है।
 भ रतीय दशशन में इसक अत्यन्त महत्त्व है क्योंषक इसी से क्रमशः मीम ांस और वेद न्त दशशन क
षवक स हुआ है । षजसे पूवश मीम ांस और उत्तर मीम ांस भी कह ज त है। पहल कमशक ण्ड पूवश मीम ांस
क मुख्य तो दूसर ज्ञ न क ण्ड उत्तर मीम ांस (वेद न्त) क मुख्य षविय है।
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मीमतंसत कत शतक्षददक अर्था
 मीम ांस शब्द की उत्पषत्त सांतकृत भ ि के ‘म न्’ ध तु में ‘सन्’ प्रत्यय के योग से हुई है,
षजसक श षब्दक अथश होत है- ‘षजज्ञ स (ज नने की इच्छ )’ य ‘षवच र करन ’ । ह ल ाँषक
षवषभन्न षवद्व नों ने इसके षभन्न-षभन्न अथश बतल ये हैं, जैसे- व्य ख्य करन , समीक्ष करन ,
पूषजत षवच र, पूषजत षजज्ञ स , सांषचत षवच र, खोज, गम्भीर छ नबीन अथव अनुसांध न
सम्बन्धी षवच र इत्य षद ।
 मूलतः षकसी वततु के तवरूप क यथ थश षनणशय कर ने की षवषध को मीम ांस कहते हैं अथव
पक्ष-प्रषतपक्ष को लेकर वेद व क्यों के षनणीत अथश के षवच र क न म मीम ांस है ।
 श्रुषतयों के परतपर षभन्न मतों की व्य ख्य कर उनको एक त्मक बन ने के षलए षकय ज ने व ल
षवच र मीम ांस कहल त है ।
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मीमतंसत दशान की उत्पक्षर्त्, आिश्यकतत एिं क्षिकतस
 कमशक ण्ड एवां ज्ञ न के षनरूपण में षदख ई पड़ने व ले आप तत: षवरोधों को दूर करने क लक्ष्य
लेकर मीम ांस दशशन की आवृषत्त हुई है ।
 मीम ांस के उद्भव क क रण जनत में कमश और रीषतयों के प्रषत उत्पन्न सांदेह थ ।
 ऐस अनुम न षकय ज त है षक मीम ांस श स्त्र क उद्भव उस समय हुआ थ , जब बौद्धों क
वचशतव बढ़त ज रह थ । बौद्धमत के उदय के पश्च त् वैषदक धमश व वैषदक अनुष्ठ नों पर बौद्धों
के द्व र बहुत आक्षेप षकये ज रहे थे षजससे अनेक शांक एां और षवव द होने लगी थी ।
 लोग यह समझने लगे थे षक रीषतयों और कमों क कोई मूल्य नहीं है, हवन, यज्ञ, बषल आषद
कमों से कोई ल भ नहीं है । इससे लोग वैषदक धमश, यज्ञ और बषल आषद षक्रय ओांसे हटने लगे
थे । उस समय वेद की रक्ष के षलए मीम ांस श स्त्र की रचन की गयी ।
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मीमतंसत सूत्र यत जैक्षमक्षन सूत्र
 आच यश जैषमषन ने 'मीम ांस सूत्र' की रचन की ।
 द शशषनक ग्रन्थों में यह सबसे बृहत् है ।
 वतशम न क ल में उपलब्ध मीम ांस दशशन में द्व दश अध्य य हैं, अतः इसे ‘द्व दशलक्षणी’ कहते हैं ।
 यह ाँ लक्षण शब्द अध्य य व चक है, अतः इसक एक अन्य न म द्व दश ध्य यी भी है ।
 यह मीम ांस दशशन क आध र ग्रन्थ है । मूलतः इसको दो प्रक रों (भ गों) में षवभक्त षकय गय है, षजसे उपदेश
और अषतदेश कहते हैं ।
 प्रथम भ ग (पूवश िट्क) के अध्य यों में उपदेश क षववेचन है तथ षद्वतीय भ ग (उत्तर िट्क) के छ: अध्य यों में
अषतदेश क षववेचन है ।
 एक अन्य आध र पर जैषमषन सूत्र तीन भ गों में षवभक्त है- (1) प्रम ण षवच र (2) तत्व षवच र तथ (3) धमश
षवच र ।
 मीम ांस के मूल ग्रन्थ में सूत्रों की सांख्य 2745 बत ई गई है, जबषक वतशम न में उपलब्ध मीम ांस दशशन के
सांतकरणों में यह सांख्य अलग-अलग प ई ज ती है ।
 सभी सांतकरणों के समीक्ष त्मक अध्ययन व अनुसन्ध न के ब द सांशोषधत सांतकरण में सूत्रों की सांख्य 2741
तवीक र की गयी है।
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प्रमुख मीमतंसक (दतशाक्षनक)
 महषिश जैषमषन
 शबर तव मी
 कुम ररल भट्ट
 प्रभ कर षमश्र
 मुर री षमश्र
 प थशस रषथ षमश्र
उल्लेखनीय है षक आच यश जैषमषन आषद के अषतररक्त उस क ल के आस-प स कुछ और आच यों
ने वैषदक कमशक ण्ड की मीम ांस की थी षजनमें प्रमुख है, आत्रय, आश्मरथ्य, क ष्ण शषजषन, ब दरर,
ऐषतशयन, क मुक यन, ल बुक यन तथ आलेखन आषद षकन्तु इनकी रचन एाँ अनुपलब्ध हैं ।
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कु मतररल भट्ट
 मीम ांस दशशन की परम्पर में मील के पत्थर कुम ररल भट्ट को ही म न गय है ।
 इन्होंने न के वल श बर भ ष्य पर तकश पूणश ग्रन्थ षलखे वरन् आच यश शांकर के सम न बौद्धों के
षवरुद्ध त षकश क षववेचन प्रततुत कर उन्हें पर तत षकय ।
 अषभप्र य यह है षक कुम ररल भट्ट ने बड़ी कुशलत से बौद्ध मतों क खण्डन और वैषदक मत
क मण्डन षकय है ।
 इस तरह वैषदक धमश की रक्ष में उन्होंने अपन स र जीवन समषपशत कर षदय ।
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प्रक्षतपतद्य क्षिषय यत प्रयोजन
 मीम ांस दशशन क प्रध न षविय 'धमश' है, धमश की व्य ख्य (षववेचन ) करन ही इस दशशन क मुख्य
प्रयोजन है ।
 धमश षजज्ञ स व ल प्रथम सूत्र- अर्थततो धमाक्षजज्ञतसत ।
 षद्वतीय सूत्र में ही सूत्रक र ने धमश क लक्षण बतल य है- चोदनत लिणोऽर्थों धमा: अथ शत् प्रेरण देने
व ल अथश ही धमश है ।
 कुम ररल भट्ट ने इसे ‘धमताख्यं क्षिषयं िक्ुं मीमतंसतयताः प्रयोजनम्’ के रूप में अषभव्यक्त षकय है ।
 इसषलए धमशज्ञ न ही मीम ांस दशशन क प्रयोजन है ।
 इसमें सभी कमों को यज्ञों / मह यज्ञों के अन्तगशत सम वेषशत षकय गय है ।
 पूषणशम तथ अम वतय में जो छोटी-छोटी इषिय ाँ की ज ती हैं । इनक न म यज्ञ और अश्वमेध आषद
यज्ञों क न म मह यज्ञ है ।
 वैषदक कमश-क ण्ड के पीछे जो षवश्व स षछपे हुए हैं उनक भी द शशषनक समथशन मीम ांस करती है ।
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यज्ञ
 ब्रह्मयज्ञ - प्र तः और स ांय क ल की सन्ध्य तथ तव ध्य य ।
 देियज्ञ - प्र तः और स ांयक ल क हवन ।
 क्षपतृयज्ञ - देव और षपतरों की पूज अथ शत् म त , षपत , गुरु आषद की सेव तथ उनके प्रषत
श्रद्ध -भषक्त ।
 िक्षल िैश्व देियज्ञ - पक ये हुए अन्न में से अन्य प्र षणयों के षलए भ ग षनक लन ।
 अक्षतक्षर्थ यज्ञ - घर पर आये हुए अषतषथयों क सत्क र ।
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िेद कत िगीकरण
 मन्त्र तथ ब्र ह्मण दोनों को ही 'वेद' शब्द से अषभषहत षकय ज त है, यथ -
'मन्द्त्रब्रतह्मणयोिेदनतमधेयम्' । वेद क वगीकरण प ाँच भ गों में षकय गय है- षवषध, मन्त्र, न मधेय,
षनिेध और अथशव द ।
1. क्षिक्षध- षवषधपरक आदेश वे आदेश है जो व्यषक्त को षवशेि कमश करने के षलए प्रेररत करते हैं त षक
षवशेि फल षमल सके । जैसे- ‘स्िगाकतमो यजेत’ अथ शत् ‘षजन्हें तवगश की क मन हो वे यज्ञ करें’
यह षवषध परक आदेश है ।
2. मन्द्त्र- ये यज्ञकत श को यज्ञ से सम्बषन्धत षवषवध षवियों क तमरण कर ने में उपयोगी षसद्ध होते हैं,
जैसे षक वे देवत , षजन्हें लक्ष्य करके आहुषतय ाँ देनी है ।
3. नतमधेय- न मधेय यज्ञों के न म को कह ज त है दूसरे शब्दों में न मधेय क त त्पयश यज्ञों क व्यषक्त
व चक न म है ।
4. क्षनषेध- षनिेध षवषध क उल्ट है । षवषधव क्य जह ाँ कुछ करने के षलए प्रेररत करते हैं वह ाँ षनिेध
व क्य क्य नहीं करन है ? इसक षनदेश देते हैं, क्योंषक इससे अव ांषछत फल की प्र षि होगी । जैसे-
झूठ नहीं बोलन च षहए, यह एक षनिेध व क्य है । इसके फल से हम सभी पररषचत ही हैं ।
5. अर्थाितद- ये वे व क्य है जो वणशन त्मक है । ये षकसी पद थश के सच्चे गुणों क कथन करते हैं ।
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क्षिक्षध के प्रकतर
1. उत्पक्षर्त् क्षिक्षध- षजस व क्य से कमश तवरूप की कत्तशव्यत प्रथमत: षवषदत होती हो उसे उत्पषत्त षवषध
कहते हैं । यह कमश के तवरूप म त्र को बतल ने व ली है । उद हरण थश ‘अक्षननहोत्रं जुहोक्षत’ इस
व क्य से ‘अषननहोत्र न मक होम से इि को प्र ि करन ’ अथश होत है ।
2. क्षिक्षनयोग क्षिक्षध- अांगप्रध न क सम्बन्ध षजस षवषधव क्य से ज्ञ त होत है उसे षवषनयोग षवषध
कहते हैं । यह कमश के अांग तथ प्रध न षवियों की सम्बोधक है । उद हरण थश ‘दध्नत जुहोक्षत’ इस
व क्य से दही से हवन करने क अथश बोषधत होत है । इसमें दषध स धन है और होम स ध्य है । यह ाँ
षवषनयोग षवषध में षवषनयोग शब्द से सम्बन्ध को समझन च षहए । वह सम्बन्ध स ध्य-स धन-भ व,
अांग ांषग भ व अथव शेिशेिी भ व में सम ि होत है ।
3. प्रयोग क्षिक्षध- जो प्रध न और अांग के अनुष्ठ न में क्रम क बोध कर त है उसे प्रयोग षवषध कहते हैं ।
यह कमश से उत्पन्न फल के तव षमत्व की ओर सांकेत करती है । उद हरण थश- प्रय ज षद अांग से
उपकृत प्रध न दशशपूणशम स य ग से तवगश की प्र षि होती है । इसी अषभप्र य से इसक लक्षण षकय
गय है ‘अंगतनतं क्रमिोधको क्षिक्षध: प्रयोगक्षिक्षध:’ ।
4. अक्षधकतर क्षिक्षध- षजस षवषध से कमशजन्य फल क भोक्त कत श को म न ज त हो उसे अषधक र
षवषध कहते हैं । यह प्रयोग की शीघ्रत की बोधक षवषध है । उद हरण थश ‘यजेत स्िगाकतम:’ यह ाँ
जो य गकत श है वही तवगशफल क भोक्त है ।
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ज्ञतन कत प्रतमतण्य (स्ित:) यत प्रतमतण्यितद
 मीम ांस सत्य को तवत: प्रक श्य म नती है । अषभप्र य यह है षक मीम ांस दशशन तवतः
प्र म ण्यव द क पोिक है, षजसके अनुस र ज्ञ न क प्र म ण्य उस ज्ञ न की उत्प दक स मग्री में
ही षवद्यम न रहत है, कहीं ब हर से नहीं आत (प्रतमतण्यं स्िताः उत्पद्यते) और ज्ञ न उत्पन्न
होते ही उसके प्र म ण्य क षनश्चय भी हो ज त है (प्रतमतण्यं स्ित: ज्ञतयते च) । इस प्रक र ज्ञ न
के प्र म ण्य की उत्पषत्त और ज्ञषि दोनों तवतः है । जैसे- घड़े में जल के होने की पुषि जल क
प्रत्यक्ष करते ही हो ज ती है।
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तत्त्ि मीमतंसत
 तत्त्वमीम ांस की दृषि से मीम ांसक वततुव द य बहुतत्त्व व द को तवीक र करते हैं ।
 मीम ांस दशशन में जगत् एवां आत्म के अषततत्व को तो सत्य तवीक र षकय गय है ।
 षकन्तु जगत् के रचषयत के रूप में अथव जीव के कम शध्यक्ष य मोक्ष-प्रद त के रूप में ईश्वर
क कोई अषततत्व नहीं है ।
 यद्यषप मीम ांसक अनेक देवत ओां क अषततत्व तवीक र करते हैं षजससे षक उन्हें यज्ञ में
आहुषतय ाँ दी ज सके ।
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कमा कत स्िरूप
 क्षनत्य कमा: वे कमश षजनको षनत्य षकये ज ने क षवध न षकय गय है, जैसे- ध्य न, पूज , सन्ध्य वन्दन
आषद ।
 नैक्षमक्षर्त्क कमा: वे कमश जो षकसी षवशेि अवसर के षनषमत्त षकये ज ते हैं, जैसे- एक दशी व्रत, श्र द्ध
आषद । प्रभ कर इन्हें षनष्क म भ व से करने की सल ह देते हैं, ह ल ाँषक इनसे प प य पुण्य फल नहीं
षमलत केवल ये कत्तशव्य म त्र हैं । परन्तु कुम ररल की दृषि में इनके न करने से प प षमलत है और करने
से पूवश प प क न श होत है ।
 प्रक्षतक्षषद्ध कमा: वे कमश षजनको करन वेद के द्व र षववषजशत षकय गय है, क्योंषक अशुभ क रक होने
से इनको करने से प प जशन होत है । जैसे- षविदनध शस्त्र से मरे पशु क म ांस वषजशत है ।
 कतम्य कमा: वे कमश षजसको षकसी षवशेि इच्छ य क मन की षसषद्ध के षलए षकय ज त है, जैसे-
तवगश की क मन करने व ल यज्ञ करे तथ र ज्य के षवतत र की क मन करने व ल अश्वमेध यज्ञ ।
 प्रतयक्षित् कमा: प प कमश करने से जो बुर ई आयी है, उनको रोकने के षलए षकय ज ने व ल कमश ।
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शक्षक् (शक्षक्ितद), अपूिा यत कमाितद कत क्षसद्धतन्द्त
 मूलतः मीम ांस दशशन अनीश्वरव दी दशशन रह है जो षक ईश्वर की सत्त को तवीक र न म नकर सांस र में
एक अदृि शषक्त की सत्त को तवीक र करत है और इसी शषक्त से क यश उत्पन्न होते हैं । क रण से क यश
उत्पन्न नहीं होत । इस लोक में षकय गय क यश एक अदृि शषक्त क प्र दुभ शव करत है षजसे
मीम ांस क र ‘अपूिा’ कहते हैं । अपूवश क षसद्ध न्त मीम ांसकों क एक अत्यन्त महत्त्वपूणश षसद्ध न्त है ।
मीम ांस के अनुस र अपूवश एक अदृश्य शषक्त है जो कमश-फल क षनण शयक है । अपूवश ही कमश और
कमशफल को ब ांधने व ली श्रृांखल है । यज्ञ षद कमश हम इस लोक में करते हैं तथ इस कमश क फल
तवग शषद परलोक में म नते हैं । कमश तो नि हो ज त है षफर उसके फल की प्र षि कैसे होती है ? यजम न
वतशम न क ल में यज्ञ करत है, परन्तु भषवष्य क ल में उसे तवग शषद फल प्र ि होग , यह ाँ तपि षवरोध
षदखल यी देत है । इसी षवरोध क पररह र करने के षलए मीम ांसक अपूवश को म नते हैं । अपूवश एक
प्रक र की अदृश्य शषक्त है जो कमश करने से उत्पन्न होती है और अपूवश से ही फल उत्पन्न होत है ।
अतः कमश और कमश फल के बीच अपूवश ही म ध्यम है । हम यज्ञ षद कमश इस लोक में करेंगे षजससे अपूवश
न मक अदृश्य शषक्त क उदय होग पुनः वही शषक्त हमें तवग शषद फल देगी ।
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ईश्वर क्षिचतर
 मीम ांस दशशन ईश्वर के अषततत्व को म नत है य नहीं इसे लेकर षवद्व नों में मतभेद है ।
 स म न्यतय मीम ांस दशशन को षनरीश्वरव दी (अनीश्वरव दी) ही समझ ज त है ।
 प्र चीन मीम ांस ग्रन्थों के आध र पर ईश्वर की सत्त षबल्कुल अषसद्ध है ।
 मीम ांस के अनुस र कमश अपन फल तवयां देते हैं ।
 य षज्ञक कमों से अपूवश उत्पन्न होत है तथ अपूवश से तवग शषद फल की प्र षि होती है । इसमें ईश्वर की
आवश्यकत नहीं है ।
 षकन्तु कुछ षवद्व नों क षवच र है षक मीम ांस ग्रन्थों में अनेक ऐसे अन्तस शक्ष्य हैं, जो इसे ईश्वरव दी षसद्ध
करते हैं ।
 इसके अषतररक्त प्र चीन मीम ांसकों की तुलन में ब द के मीम ांसकों, जैसे- कुम ररल, प्रभ कर, आपदेव,
लौग षक्षभ तकर आषद के ग्रन्थ को देखने से पत चलत है षक वे ईश्वर की सत्त में षवश्व स करते हैं ।
अतः स ांख्य दशशन के सम न मीम ांस क भी क्षनरीश्वर और सेश्वर दो रूप प्रतीत होत है ।
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िन्द्धन एिं जगत् कत स्िरुप
 मीम ांस दशशन के अनुस र व सन और मोह की इच्छ से षकये गये कमश अनुषचत कमश हैं, जो
मनुष्य के बन्धन क क रण बनते हैं । इनसे मुषक्त ही बन्धन न श क उप य है । वेद षवषहत कमों
के अनुष्ठ न से कमश बन्धन तवत: सम ि हो ज त है । इस हेतु मनुष्य के षलए उषचत कमश क
अनुष्ठ न अभीि है, कमश क पररत्य ग नहीं । अषभप्र य यह है षक कमश करन आवश्यक है ।
तत्त्वज्ञ न की दृषि से मीम ांस जगत् प्रपांच की षनत्यत तवीक र करती है । मीम ांस दशशन के
अनुस र जगत् को षमथ्य नहीं म न ज त , अषपतु वह सत्य है । यह दशशन ब ह्य थश सत्त व दी है ।
इसके अनुस र जगत् के तीन तत्त्व हैं-
 शरीर / भोगतयतन- षभन्न-षभन्न आत्म अपने पूवश कमों को भोगती है ।
 ज्ञतनेक्षन्द्रय / कमेक्षन्द्रय- सुख-दुःख उपभोग के स धन ।
 भोग क्षिषय- व ह्य षविय / वततुएाँ भोग षविय हैं ।
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आत्मत कत स्िरुप
 मीम ांसक शरीर, मन, इषन्िय एवां बुषद्ध से परे आत्मतत्त्व के अषततत्व को तवीक र करते हैं, जो
शरीर के मृत्यु के ब द भी नहीं मरत , जो कम शनुस र पुनः शरीर ध रण करत है और तब तक इस
सांस र में ब र-ब र आत है, जब तक षक उसे मोक्ष की प्र षि नहीं हो ज ती । मीम ांस दशशन में
आत्म के तवरूप को षनम्नषलषखत रूपों में तवीक र षकय गय है -
1. आत्मत की अमरतत-
2. आत्मत की अनेकतत-
3. आत्मत की चेतनत-
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स्िगा और मोि
 प्र चीन मीम ांसकों के अनुस र तवगश की प्र षि अथ शत् षनरषतशय आनन्द की प्र षि ही परम लक्ष्य
थ । उनके अनुस र वैषदक कमों क फल तवगश की प्र षि म न गय है ।
 परन्तु धीरे-धीरे जब मीम ांस दशशन षवकषसत हुआ तब तवगश के तथ न पर मोक्ष को जीवन क
परम लक्ष्य म न गय ।
 सांभवतः इसक क रण तवगश फल की अषनत्यत है। षनरषतशय सुख रूप तवगश षनत्य नहीं है ।
पुण्य के क्षीण होने पर पुन: मृत्युलोक में आकर बन्धन जन्य न न प्रक र के दुःखों को सहन
पड़ेग ।
 मीम ांसको के अनुस र इस जगत् के स थ आत्म के सम्बन्ध षवच्छेद को मोक्ष कहते हैं । यथ -
'प्रपञ्चसम्िन्द्धक्षिलयो मोिाः'
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प्रमतण क्षिचतर
(1) प्रत्यक्ष
(2) अनुम न
(3) उपम न
(4) शब्द
(5) अथ शपषत्त
(6) अनुपलषब्ध
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भ्रतक्षन्द्त क्षनरूपण (ख्यतक्षतितद)
 भ रतीय द शशषनकों ने भ्रम को भी एक प्रक र क ज्ञ न (षमथ्य ज्ञ न ) म नते हुए इसके क रण व
षनव रण की खोज में इसकी गहन व्य ख्य की है । भ रतीय दशशन में यह षसद्ध न्त ख्य षतव द के
न म से षवख्य त है । उल्लेखनीय है षक षवषभन्न दशशनों के ख्य षतव द के अपनी-अपनी
षवशेित ओां के क रण अलग-अलग न म हैं । जह ाँ तक मीम ांस दशशन क प्रश्न है, यह ाँ भी
मतभेद है । प्रभ कर क इस सम्बन्ध में षसद्ध न्त अख्य षतव द है जबषक कुम ररल भट्ट क
षवपरीत ख्य षतव द ।
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 अख्यतक्षतितद- यह प्रभ कर क मत है । प्रभ कर यह ाँ कहते है षक भ्रम व ततव में एक प्रक र
क ज्ञ न ही है । इसमें दोि के वल यह है षक यह अपूणश ज्ञ न है । प्रम समग्र ज्ञ न है जबषक भ्रम
आांषशक और अपूणश ज्ञ न है । इस तरह वे भ्रम को षमथ्य ज्ञ न नहीं अपूणश ज्ञ न कहते हैं । यह
हम रे तमृषत दोि के क रण होती है । अतः भ्रम तमृषत दोि के क रण उत्पन्न भेद-ज्ञ न (शुषक्त
और रजत में भेद) क अभ व है । यह हम र अषववेक है । यह अख्य षत (अज्ञ न) है, षमथ्य
ख्य षत नहीं ।
 क्षिपरीत ख्यतक्षतितद- मीम ांसक कुम ररल भट्ट षवपरीत ख्य षतव द को अज्ञ न की व्य ख्य के
षलए प्रततुत करते हैं । उनके अनुस र यह षवपरीत ग्रहण है अथ शत् प्रत्यक्ष वततु के तथ न पर
अन्य वततु क ग्रहण (दशशन) है, जैसे- शुषक्त-रजत भ्रम में शुषक्त क रजत के रूप में षवपरीत
ग्रहण होत है । इसक क रण नेत्र-दोि है । इसक बोध सम्यक् ज्ञ न से हो ज त है ।
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मीमतंसत दशान के प्रकतर
 मीम ांस दशशन के दो भ ग हैं- ‘पूवश मीम ांस ’ तथ ‘उत्तर मीम ांस ’ । पूवश मीम ांस को ‘मीम ांस ’
और उत्तर मीम ांस को ‘वेद न्त’ कह ज त है । पूवश मीम ांस कमश क षवच र करती है और उत्तर
मीम ांस ज्ञ न क षवच र करती है ।
1. मन्त्र (सांषहत ) + ब्र ह्मण = पूवश मीम ांस
2. आरण्यक + उपषनिद् = उत्तर मीम ांस
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मीमतंसत दशान के सम्प्रदतय
1. कुम ररल भट्ट के अनुय यी ‘भ ट्ट मत’ के कहल ते हैं ।
2. प्रभ कर षमश्र के अनुय यी 'गुरु मत’ के कहल ते हैं ।
3. इनके अषतररक्त एक अन्य सम्प्रद य मुर री षमश्र क है, षजसे ‘मुर री मत’ कह ज त है ।
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मीमतंसत दशान कत प्रभति
 मीम ांस दशशन क प्रभ व षहन्दुओांके जीवन पर सव शषधक पड़ है ।
 डॉ. द सगुि षलखते है 'षहन्दुओां के षनत्य-प्रषत के ध षमशक कृत्य, पूज -अनुष्ठ न आषद की
व्यवतथ मीम ांस में की गई है । तमृषत, जो ध षमशक षनयमों क सांकलन है, उसक आध र मीम ांस
दशशन ही है । षब्रषटश क ल में षहन्दुओां के स म षजक जीवन षनयमन के षलए षजस षवषध और
क नून क षनम शण षकय गय है, वह भी इसके द्व र षनरूषपत तमृषत और दशशन के आध र पर ही
हुआ है । उत्तर षधक र एवां सम्पषत्त सम्बन्धी स री व्यवतथ भी इसी दशशन पर आध ररत है ।
 डॉ. र ध कृष्णन् भी षलखते हैं 'एक षहन्दू क जीवन वैषदक षनयमों से श षसत है और इसीषलए
षहन्दू षवध न की व्य ख्य के षलए मीम ांस के षनयम महत्त्वपूणश है ।
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  • 1. 1 प्रस्तुतकर्त्ता रंजय कु मतर पटेल (शोधतर्थी, शैक्षिक अध्ययन क्षिभतग, महतत्मत गताँधी के न्द्रीय क्षिश्वक्षिद्यतलय, पूिी चम्पतरण, क्षिहतर, भतरत ) मीमतंसत दशान
  • 2. क्षिषय-प्रिेश  स ांख्य, योग, न्य य, वैशेषिक, मीम ांस और वेद न्त ये िड्दशशन आषततक दशशन म ने ज ते हैं।  इन िड् आषततक दशशनों में मीम ांस दशशन अग्रणी है क्योंषक यह पूणशतः वेदों पर आध ररत है।  मीम ांस दशशन के प्रषतप दक आच यश महषिश जैषमषन हैं ।  महषिश पर सर के षशष्य वेदव्य स (ब दर यण य कृष्ण द्वैप यन) हुए तथ वेदव्य स के षशष्य आच यश जैषमषन ने 'मीम ांस सूत्र' की रचन की  मीम ांस दशशन क मूल ग्रन्थ मीम ांस सूत्र है।  मीम ांस दशशन सोलह अध्य यों क है, िोडि ध्य यी मीम ांस के रहते हुए भी पठन-प ठन केवल द्व दश ध्य य क ही होत है।  वततुतः इसक क म कोई नय दशशन प्रततुत करन नहीं, वरन् वैषदक धमश एवां मन्त्रों की षवततृत व्य ख्य करन है।  भ रतीय दशशन में इसक अत्यन्त महत्त्व है क्योंषक इसी से क्रमशः मीम ांस और वेद न्त दशशन क षवक स हुआ है । षजसे पूवश मीम ांस और उत्तर मीम ांस भी कह ज त है। पहल कमशक ण्ड पूवश मीम ांस क मुख्य तो दूसर ज्ञ न क ण्ड उत्तर मीम ांस (वेद न्त) क मुख्य षविय है। 2
  • 3. मीमतंसत कत शतक्षददक अर्था  मीम ांस शब्द की उत्पषत्त सांतकृत भ ि के ‘म न्’ ध तु में ‘सन्’ प्रत्यय के योग से हुई है, षजसक श षब्दक अथश होत है- ‘षजज्ञ स (ज नने की इच्छ )’ य ‘षवच र करन ’ । ह ल ाँषक षवषभन्न षवद्व नों ने इसके षभन्न-षभन्न अथश बतल ये हैं, जैसे- व्य ख्य करन , समीक्ष करन , पूषजत षवच र, पूषजत षजज्ञ स , सांषचत षवच र, खोज, गम्भीर छ नबीन अथव अनुसांध न सम्बन्धी षवच र इत्य षद ।  मूलतः षकसी वततु के तवरूप क यथ थश षनणशय कर ने की षवषध को मीम ांस कहते हैं अथव पक्ष-प्रषतपक्ष को लेकर वेद व क्यों के षनणीत अथश के षवच र क न म मीम ांस है ।  श्रुषतयों के परतपर षभन्न मतों की व्य ख्य कर उनको एक त्मक बन ने के षलए षकय ज ने व ल षवच र मीम ांस कहल त है । 3
  • 4. मीमतंसत दशान की उत्पक्षर्त्, आिश्यकतत एिं क्षिकतस  कमशक ण्ड एवां ज्ञ न के षनरूपण में षदख ई पड़ने व ले आप तत: षवरोधों को दूर करने क लक्ष्य लेकर मीम ांस दशशन की आवृषत्त हुई है ।  मीम ांस के उद्भव क क रण जनत में कमश और रीषतयों के प्रषत उत्पन्न सांदेह थ ।  ऐस अनुम न षकय ज त है षक मीम ांस श स्त्र क उद्भव उस समय हुआ थ , जब बौद्धों क वचशतव बढ़त ज रह थ । बौद्धमत के उदय के पश्च त् वैषदक धमश व वैषदक अनुष्ठ नों पर बौद्धों के द्व र बहुत आक्षेप षकये ज रहे थे षजससे अनेक शांक एां और षवव द होने लगी थी ।  लोग यह समझने लगे थे षक रीषतयों और कमों क कोई मूल्य नहीं है, हवन, यज्ञ, बषल आषद कमों से कोई ल भ नहीं है । इससे लोग वैषदक धमश, यज्ञ और बषल आषद षक्रय ओांसे हटने लगे थे । उस समय वेद की रक्ष के षलए मीम ांस श स्त्र की रचन की गयी । 4
  • 5. मीमतंसत सूत्र यत जैक्षमक्षन सूत्र  आच यश जैषमषन ने 'मीम ांस सूत्र' की रचन की ।  द शशषनक ग्रन्थों में यह सबसे बृहत् है ।  वतशम न क ल में उपलब्ध मीम ांस दशशन में द्व दश अध्य य हैं, अतः इसे ‘द्व दशलक्षणी’ कहते हैं ।  यह ाँ लक्षण शब्द अध्य य व चक है, अतः इसक एक अन्य न म द्व दश ध्य यी भी है ।  यह मीम ांस दशशन क आध र ग्रन्थ है । मूलतः इसको दो प्रक रों (भ गों) में षवभक्त षकय गय है, षजसे उपदेश और अषतदेश कहते हैं ।  प्रथम भ ग (पूवश िट्क) के अध्य यों में उपदेश क षववेचन है तथ षद्वतीय भ ग (उत्तर िट्क) के छ: अध्य यों में अषतदेश क षववेचन है ।  एक अन्य आध र पर जैषमषन सूत्र तीन भ गों में षवभक्त है- (1) प्रम ण षवच र (2) तत्व षवच र तथ (3) धमश षवच र ।  मीम ांस के मूल ग्रन्थ में सूत्रों की सांख्य 2745 बत ई गई है, जबषक वतशम न में उपलब्ध मीम ांस दशशन के सांतकरणों में यह सांख्य अलग-अलग प ई ज ती है ।  सभी सांतकरणों के समीक्ष त्मक अध्ययन व अनुसन्ध न के ब द सांशोषधत सांतकरण में सूत्रों की सांख्य 2741 तवीक र की गयी है। 5
  • 6. प्रमुख मीमतंसक (दतशाक्षनक)  महषिश जैषमषन  शबर तव मी  कुम ररल भट्ट  प्रभ कर षमश्र  मुर री षमश्र  प थशस रषथ षमश्र उल्लेखनीय है षक आच यश जैषमषन आषद के अषतररक्त उस क ल के आस-प स कुछ और आच यों ने वैषदक कमशक ण्ड की मीम ांस की थी षजनमें प्रमुख है, आत्रय, आश्मरथ्य, क ष्ण शषजषन, ब दरर, ऐषतशयन, क मुक यन, ल बुक यन तथ आलेखन आषद षकन्तु इनकी रचन एाँ अनुपलब्ध हैं । 6
  • 7. कु मतररल भट्ट  मीम ांस दशशन की परम्पर में मील के पत्थर कुम ररल भट्ट को ही म न गय है ।  इन्होंने न के वल श बर भ ष्य पर तकश पूणश ग्रन्थ षलखे वरन् आच यश शांकर के सम न बौद्धों के षवरुद्ध त षकश क षववेचन प्रततुत कर उन्हें पर तत षकय ।  अषभप्र य यह है षक कुम ररल भट्ट ने बड़ी कुशलत से बौद्ध मतों क खण्डन और वैषदक मत क मण्डन षकय है ।  इस तरह वैषदक धमश की रक्ष में उन्होंने अपन स र जीवन समषपशत कर षदय । 7
  • 8. प्रक्षतपतद्य क्षिषय यत प्रयोजन  मीम ांस दशशन क प्रध न षविय 'धमश' है, धमश की व्य ख्य (षववेचन ) करन ही इस दशशन क मुख्य प्रयोजन है ।  धमश षजज्ञ स व ल प्रथम सूत्र- अर्थततो धमाक्षजज्ञतसत ।  षद्वतीय सूत्र में ही सूत्रक र ने धमश क लक्षण बतल य है- चोदनत लिणोऽर्थों धमा: अथ शत् प्रेरण देने व ल अथश ही धमश है ।  कुम ररल भट्ट ने इसे ‘धमताख्यं क्षिषयं िक्ुं मीमतंसतयताः प्रयोजनम्’ के रूप में अषभव्यक्त षकय है ।  इसषलए धमशज्ञ न ही मीम ांस दशशन क प्रयोजन है ।  इसमें सभी कमों को यज्ञों / मह यज्ञों के अन्तगशत सम वेषशत षकय गय है ।  पूषणशम तथ अम वतय में जो छोटी-छोटी इषिय ाँ की ज ती हैं । इनक न म यज्ञ और अश्वमेध आषद यज्ञों क न म मह यज्ञ है ।  वैषदक कमश-क ण्ड के पीछे जो षवश्व स षछपे हुए हैं उनक भी द शशषनक समथशन मीम ांस करती है । 8
  • 9. यज्ञ  ब्रह्मयज्ञ - प्र तः और स ांय क ल की सन्ध्य तथ तव ध्य य ।  देियज्ञ - प्र तः और स ांयक ल क हवन ।  क्षपतृयज्ञ - देव और षपतरों की पूज अथ शत् म त , षपत , गुरु आषद की सेव तथ उनके प्रषत श्रद्ध -भषक्त ।  िक्षल िैश्व देियज्ञ - पक ये हुए अन्न में से अन्य प्र षणयों के षलए भ ग षनक लन ।  अक्षतक्षर्थ यज्ञ - घर पर आये हुए अषतषथयों क सत्क र । 9
  • 10. िेद कत िगीकरण  मन्त्र तथ ब्र ह्मण दोनों को ही 'वेद' शब्द से अषभषहत षकय ज त है, यथ - 'मन्द्त्रब्रतह्मणयोिेदनतमधेयम्' । वेद क वगीकरण प ाँच भ गों में षकय गय है- षवषध, मन्त्र, न मधेय, षनिेध और अथशव द । 1. क्षिक्षध- षवषधपरक आदेश वे आदेश है जो व्यषक्त को षवशेि कमश करने के षलए प्रेररत करते हैं त षक षवशेि फल षमल सके । जैसे- ‘स्िगाकतमो यजेत’ अथ शत् ‘षजन्हें तवगश की क मन हो वे यज्ञ करें’ यह षवषध परक आदेश है । 2. मन्द्त्र- ये यज्ञकत श को यज्ञ से सम्बषन्धत षवषवध षवियों क तमरण कर ने में उपयोगी षसद्ध होते हैं, जैसे षक वे देवत , षजन्हें लक्ष्य करके आहुषतय ाँ देनी है । 3. नतमधेय- न मधेय यज्ञों के न म को कह ज त है दूसरे शब्दों में न मधेय क त त्पयश यज्ञों क व्यषक्त व चक न म है । 4. क्षनषेध- षनिेध षवषध क उल्ट है । षवषधव क्य जह ाँ कुछ करने के षलए प्रेररत करते हैं वह ाँ षनिेध व क्य क्य नहीं करन है ? इसक षनदेश देते हैं, क्योंषक इससे अव ांषछत फल की प्र षि होगी । जैसे- झूठ नहीं बोलन च षहए, यह एक षनिेध व क्य है । इसके फल से हम सभी पररषचत ही हैं । 5. अर्थाितद- ये वे व क्य है जो वणशन त्मक है । ये षकसी पद थश के सच्चे गुणों क कथन करते हैं । 10
  • 11. क्षिक्षध के प्रकतर 1. उत्पक्षर्त् क्षिक्षध- षजस व क्य से कमश तवरूप की कत्तशव्यत प्रथमत: षवषदत होती हो उसे उत्पषत्त षवषध कहते हैं । यह कमश के तवरूप म त्र को बतल ने व ली है । उद हरण थश ‘अक्षननहोत्रं जुहोक्षत’ इस व क्य से ‘अषननहोत्र न मक होम से इि को प्र ि करन ’ अथश होत है । 2. क्षिक्षनयोग क्षिक्षध- अांगप्रध न क सम्बन्ध षजस षवषधव क्य से ज्ञ त होत है उसे षवषनयोग षवषध कहते हैं । यह कमश के अांग तथ प्रध न षवियों की सम्बोधक है । उद हरण थश ‘दध्नत जुहोक्षत’ इस व क्य से दही से हवन करने क अथश बोषधत होत है । इसमें दषध स धन है और होम स ध्य है । यह ाँ षवषनयोग षवषध में षवषनयोग शब्द से सम्बन्ध को समझन च षहए । वह सम्बन्ध स ध्य-स धन-भ व, अांग ांषग भ व अथव शेिशेिी भ व में सम ि होत है । 3. प्रयोग क्षिक्षध- जो प्रध न और अांग के अनुष्ठ न में क्रम क बोध कर त है उसे प्रयोग षवषध कहते हैं । यह कमश से उत्पन्न फल के तव षमत्व की ओर सांकेत करती है । उद हरण थश- प्रय ज षद अांग से उपकृत प्रध न दशशपूणशम स य ग से तवगश की प्र षि होती है । इसी अषभप्र य से इसक लक्षण षकय गय है ‘अंगतनतं क्रमिोधको क्षिक्षध: प्रयोगक्षिक्षध:’ । 4. अक्षधकतर क्षिक्षध- षजस षवषध से कमशजन्य फल क भोक्त कत श को म न ज त हो उसे अषधक र षवषध कहते हैं । यह प्रयोग की शीघ्रत की बोधक षवषध है । उद हरण थश ‘यजेत स्िगाकतम:’ यह ाँ जो य गकत श है वही तवगशफल क भोक्त है । 11
  • 12. ज्ञतन कत प्रतमतण्य (स्ित:) यत प्रतमतण्यितद  मीम ांस सत्य को तवत: प्रक श्य म नती है । अषभप्र य यह है षक मीम ांस दशशन तवतः प्र म ण्यव द क पोिक है, षजसके अनुस र ज्ञ न क प्र म ण्य उस ज्ञ न की उत्प दक स मग्री में ही षवद्यम न रहत है, कहीं ब हर से नहीं आत (प्रतमतण्यं स्िताः उत्पद्यते) और ज्ञ न उत्पन्न होते ही उसके प्र म ण्य क षनश्चय भी हो ज त है (प्रतमतण्यं स्ित: ज्ञतयते च) । इस प्रक र ज्ञ न के प्र म ण्य की उत्पषत्त और ज्ञषि दोनों तवतः है । जैसे- घड़े में जल के होने की पुषि जल क प्रत्यक्ष करते ही हो ज ती है। 12
  • 13. तत्त्ि मीमतंसत  तत्त्वमीम ांस की दृषि से मीम ांसक वततुव द य बहुतत्त्व व द को तवीक र करते हैं ।  मीम ांस दशशन में जगत् एवां आत्म के अषततत्व को तो सत्य तवीक र षकय गय है ।  षकन्तु जगत् के रचषयत के रूप में अथव जीव के कम शध्यक्ष य मोक्ष-प्रद त के रूप में ईश्वर क कोई अषततत्व नहीं है ।  यद्यषप मीम ांसक अनेक देवत ओां क अषततत्व तवीक र करते हैं षजससे षक उन्हें यज्ञ में आहुषतय ाँ दी ज सके । 13
  • 14. कमा कत स्िरूप  क्षनत्य कमा: वे कमश षजनको षनत्य षकये ज ने क षवध न षकय गय है, जैसे- ध्य न, पूज , सन्ध्य वन्दन आषद ।  नैक्षमक्षर्त्क कमा: वे कमश जो षकसी षवशेि अवसर के षनषमत्त षकये ज ते हैं, जैसे- एक दशी व्रत, श्र द्ध आषद । प्रभ कर इन्हें षनष्क म भ व से करने की सल ह देते हैं, ह ल ाँषक इनसे प प य पुण्य फल नहीं षमलत केवल ये कत्तशव्य म त्र हैं । परन्तु कुम ररल की दृषि में इनके न करने से प प षमलत है और करने से पूवश प प क न श होत है ।  प्रक्षतक्षषद्ध कमा: वे कमश षजनको करन वेद के द्व र षववषजशत षकय गय है, क्योंषक अशुभ क रक होने से इनको करने से प प जशन होत है । जैसे- षविदनध शस्त्र से मरे पशु क म ांस वषजशत है ।  कतम्य कमा: वे कमश षजसको षकसी षवशेि इच्छ य क मन की षसषद्ध के षलए षकय ज त है, जैसे- तवगश की क मन करने व ल यज्ञ करे तथ र ज्य के षवतत र की क मन करने व ल अश्वमेध यज्ञ ।  प्रतयक्षित् कमा: प प कमश करने से जो बुर ई आयी है, उनको रोकने के षलए षकय ज ने व ल कमश । 14
  • 15. शक्षक् (शक्षक्ितद), अपूिा यत कमाितद कत क्षसद्धतन्द्त  मूलतः मीम ांस दशशन अनीश्वरव दी दशशन रह है जो षक ईश्वर की सत्त को तवीक र न म नकर सांस र में एक अदृि शषक्त की सत्त को तवीक र करत है और इसी शषक्त से क यश उत्पन्न होते हैं । क रण से क यश उत्पन्न नहीं होत । इस लोक में षकय गय क यश एक अदृि शषक्त क प्र दुभ शव करत है षजसे मीम ांस क र ‘अपूिा’ कहते हैं । अपूवश क षसद्ध न्त मीम ांसकों क एक अत्यन्त महत्त्वपूणश षसद्ध न्त है । मीम ांस के अनुस र अपूवश एक अदृश्य शषक्त है जो कमश-फल क षनण शयक है । अपूवश ही कमश और कमशफल को ब ांधने व ली श्रृांखल है । यज्ञ षद कमश हम इस लोक में करते हैं तथ इस कमश क फल तवग शषद परलोक में म नते हैं । कमश तो नि हो ज त है षफर उसके फल की प्र षि कैसे होती है ? यजम न वतशम न क ल में यज्ञ करत है, परन्तु भषवष्य क ल में उसे तवग शषद फल प्र ि होग , यह ाँ तपि षवरोध षदखल यी देत है । इसी षवरोध क पररह र करने के षलए मीम ांसक अपूवश को म नते हैं । अपूवश एक प्रक र की अदृश्य शषक्त है जो कमश करने से उत्पन्न होती है और अपूवश से ही फल उत्पन्न होत है । अतः कमश और कमश फल के बीच अपूवश ही म ध्यम है । हम यज्ञ षद कमश इस लोक में करेंगे षजससे अपूवश न मक अदृश्य शषक्त क उदय होग पुनः वही शषक्त हमें तवग शषद फल देगी । 15
  • 16. ईश्वर क्षिचतर  मीम ांस दशशन ईश्वर के अषततत्व को म नत है य नहीं इसे लेकर षवद्व नों में मतभेद है ।  स म न्यतय मीम ांस दशशन को षनरीश्वरव दी (अनीश्वरव दी) ही समझ ज त है ।  प्र चीन मीम ांस ग्रन्थों के आध र पर ईश्वर की सत्त षबल्कुल अषसद्ध है ।  मीम ांस के अनुस र कमश अपन फल तवयां देते हैं ।  य षज्ञक कमों से अपूवश उत्पन्न होत है तथ अपूवश से तवग शषद फल की प्र षि होती है । इसमें ईश्वर की आवश्यकत नहीं है ।  षकन्तु कुछ षवद्व नों क षवच र है षक मीम ांस ग्रन्थों में अनेक ऐसे अन्तस शक्ष्य हैं, जो इसे ईश्वरव दी षसद्ध करते हैं ।  इसके अषतररक्त प्र चीन मीम ांसकों की तुलन में ब द के मीम ांसकों, जैसे- कुम ररल, प्रभ कर, आपदेव, लौग षक्षभ तकर आषद के ग्रन्थ को देखने से पत चलत है षक वे ईश्वर की सत्त में षवश्व स करते हैं । अतः स ांख्य दशशन के सम न मीम ांस क भी क्षनरीश्वर और सेश्वर दो रूप प्रतीत होत है । 16
  • 17. िन्द्धन एिं जगत् कत स्िरुप  मीम ांस दशशन के अनुस र व सन और मोह की इच्छ से षकये गये कमश अनुषचत कमश हैं, जो मनुष्य के बन्धन क क रण बनते हैं । इनसे मुषक्त ही बन्धन न श क उप य है । वेद षवषहत कमों के अनुष्ठ न से कमश बन्धन तवत: सम ि हो ज त है । इस हेतु मनुष्य के षलए उषचत कमश क अनुष्ठ न अभीि है, कमश क पररत्य ग नहीं । अषभप्र य यह है षक कमश करन आवश्यक है । तत्त्वज्ञ न की दृषि से मीम ांस जगत् प्रपांच की षनत्यत तवीक र करती है । मीम ांस दशशन के अनुस र जगत् को षमथ्य नहीं म न ज त , अषपतु वह सत्य है । यह दशशन ब ह्य थश सत्त व दी है । इसके अनुस र जगत् के तीन तत्त्व हैं-  शरीर / भोगतयतन- षभन्न-षभन्न आत्म अपने पूवश कमों को भोगती है ।  ज्ञतनेक्षन्द्रय / कमेक्षन्द्रय- सुख-दुःख उपभोग के स धन ।  भोग क्षिषय- व ह्य षविय / वततुएाँ भोग षविय हैं । 17
  • 18. आत्मत कत स्िरुप  मीम ांसक शरीर, मन, इषन्िय एवां बुषद्ध से परे आत्मतत्त्व के अषततत्व को तवीक र करते हैं, जो शरीर के मृत्यु के ब द भी नहीं मरत , जो कम शनुस र पुनः शरीर ध रण करत है और तब तक इस सांस र में ब र-ब र आत है, जब तक षक उसे मोक्ष की प्र षि नहीं हो ज ती । मीम ांस दशशन में आत्म के तवरूप को षनम्नषलषखत रूपों में तवीक र षकय गय है - 1. आत्मत की अमरतत- 2. आत्मत की अनेकतत- 3. आत्मत की चेतनत- 18
  • 19. स्िगा और मोि  प्र चीन मीम ांसकों के अनुस र तवगश की प्र षि अथ शत् षनरषतशय आनन्द की प्र षि ही परम लक्ष्य थ । उनके अनुस र वैषदक कमों क फल तवगश की प्र षि म न गय है ।  परन्तु धीरे-धीरे जब मीम ांस दशशन षवकषसत हुआ तब तवगश के तथ न पर मोक्ष को जीवन क परम लक्ष्य म न गय ।  सांभवतः इसक क रण तवगश फल की अषनत्यत है। षनरषतशय सुख रूप तवगश षनत्य नहीं है । पुण्य के क्षीण होने पर पुन: मृत्युलोक में आकर बन्धन जन्य न न प्रक र के दुःखों को सहन पड़ेग ।  मीम ांसको के अनुस र इस जगत् के स थ आत्म के सम्बन्ध षवच्छेद को मोक्ष कहते हैं । यथ - 'प्रपञ्चसम्िन्द्धक्षिलयो मोिाः' 19
  • 20. प्रमतण क्षिचतर (1) प्रत्यक्ष (2) अनुम न (3) उपम न (4) शब्द (5) अथ शपषत्त (6) अनुपलषब्ध 20
  • 21. भ्रतक्षन्द्त क्षनरूपण (ख्यतक्षतितद)  भ रतीय द शशषनकों ने भ्रम को भी एक प्रक र क ज्ञ न (षमथ्य ज्ञ न ) म नते हुए इसके क रण व षनव रण की खोज में इसकी गहन व्य ख्य की है । भ रतीय दशशन में यह षसद्ध न्त ख्य षतव द के न म से षवख्य त है । उल्लेखनीय है षक षवषभन्न दशशनों के ख्य षतव द के अपनी-अपनी षवशेित ओां के क रण अलग-अलग न म हैं । जह ाँ तक मीम ांस दशशन क प्रश्न है, यह ाँ भी मतभेद है । प्रभ कर क इस सम्बन्ध में षसद्ध न्त अख्य षतव द है जबषक कुम ररल भट्ट क षवपरीत ख्य षतव द । 21
  • 22.  अख्यतक्षतितद- यह प्रभ कर क मत है । प्रभ कर यह ाँ कहते है षक भ्रम व ततव में एक प्रक र क ज्ञ न ही है । इसमें दोि के वल यह है षक यह अपूणश ज्ञ न है । प्रम समग्र ज्ञ न है जबषक भ्रम आांषशक और अपूणश ज्ञ न है । इस तरह वे भ्रम को षमथ्य ज्ञ न नहीं अपूणश ज्ञ न कहते हैं । यह हम रे तमृषत दोि के क रण होती है । अतः भ्रम तमृषत दोि के क रण उत्पन्न भेद-ज्ञ न (शुषक्त और रजत में भेद) क अभ व है । यह हम र अषववेक है । यह अख्य षत (अज्ञ न) है, षमथ्य ख्य षत नहीं ।  क्षिपरीत ख्यतक्षतितद- मीम ांसक कुम ररल भट्ट षवपरीत ख्य षतव द को अज्ञ न की व्य ख्य के षलए प्रततुत करते हैं । उनके अनुस र यह षवपरीत ग्रहण है अथ शत् प्रत्यक्ष वततु के तथ न पर अन्य वततु क ग्रहण (दशशन) है, जैसे- शुषक्त-रजत भ्रम में शुषक्त क रजत के रूप में षवपरीत ग्रहण होत है । इसक क रण नेत्र-दोि है । इसक बोध सम्यक् ज्ञ न से हो ज त है । 22
  • 23. मीमतंसत दशान के प्रकतर  मीम ांस दशशन के दो भ ग हैं- ‘पूवश मीम ांस ’ तथ ‘उत्तर मीम ांस ’ । पूवश मीम ांस को ‘मीम ांस ’ और उत्तर मीम ांस को ‘वेद न्त’ कह ज त है । पूवश मीम ांस कमश क षवच र करती है और उत्तर मीम ांस ज्ञ न क षवच र करती है । 1. मन्त्र (सांषहत ) + ब्र ह्मण = पूवश मीम ांस 2. आरण्यक + उपषनिद् = उत्तर मीम ांस 23
  • 24. मीमतंसत दशान के सम्प्रदतय 1. कुम ररल भट्ट के अनुय यी ‘भ ट्ट मत’ के कहल ते हैं । 2. प्रभ कर षमश्र के अनुय यी 'गुरु मत’ के कहल ते हैं । 3. इनके अषतररक्त एक अन्य सम्प्रद य मुर री षमश्र क है, षजसे ‘मुर री मत’ कह ज त है । 24
  • 25. मीमतंसत दशान कत प्रभति  मीम ांस दशशन क प्रभ व षहन्दुओांके जीवन पर सव शषधक पड़ है ।  डॉ. द सगुि षलखते है 'षहन्दुओां के षनत्य-प्रषत के ध षमशक कृत्य, पूज -अनुष्ठ न आषद की व्यवतथ मीम ांस में की गई है । तमृषत, जो ध षमशक षनयमों क सांकलन है, उसक आध र मीम ांस दशशन ही है । षब्रषटश क ल में षहन्दुओां के स म षजक जीवन षनयमन के षलए षजस षवषध और क नून क षनम शण षकय गय है, वह भी इसके द्व र षनरूषपत तमृषत और दशशन के आध र पर ही हुआ है । उत्तर षधक र एवां सम्पषत्त सम्बन्धी स री व्यवतथ भी इसी दशशन पर आध ररत है ।  डॉ. र ध कृष्णन् भी षलखते हैं 'एक षहन्दू क जीवन वैषदक षनयमों से श षसत है और इसीषलए षहन्दू षवध न की व्य ख्य के षलए मीम ांस के षनयम महत्त्वपूणश है । 25