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भारत के हस्तलिपिबद्ध मूि
संपिधान
में सभ्यता का चित्रण
श्री अरपिंद के आिोक में
oSfnd dky
‘‘ इन हजारों-हजार िर्षों में जो कु द हम हहंदुओं ने ककया है, चिंतन ककया है तथा कहा है, हम जो
कु छ हैं और जो कु छ बनने की िेष्टा करते हैं, उसे सब के मूि में प्रच्छन्न रूि से स्स्थत है हमारे
दर्शनों का स्त्रोत, हमारे धमों का सुदृढ़ आधार, हमारे चिंतन का सार, हमारी आिारनीतत और
समाज का स्िष्टीकरण, हमारी सभ्यता का सांरार्, हमारी राष्रीयता को थामे रखने िािा
स्तम्भ, िाणी की एक िघु रार्ी, अथाशत ््् िेद। इस एक ही उद्््गम से अनेकानेक रूिों में
पिकलसत होने िािी असंख्य आयामी एिं उत्कृ ष्ट उत्िपि, स्जसे हहंदु धमश कहते हैं, अिना
अक्षय अस्स्तत्ि धारण करती हैं अिनी प्रर्ाखा ईसाई धमश के साथ ही बौद्ध धमश भी इसी आहद
स्त्रोत से प्रिाहमान हुआ। इसनेअिनी छाि फारस िर छोड़ी, फासरस के द्िारा यहूदी धमश िर,
और यहूदी धमश द्िारा ईसाई धमश तथा सूफीिाद से इस्िाम धमश िर, बुद्ध के द्िारा यह छाि
कन्फ्््यूर्ीिाद िर, ईसा एिं मध्यकािीन सूफीिाद, यूनानी और जमशन दर्शन तथा संस्कृ त के
ज्ञान द्िारा यह छाि यूरोि के पििार एिं सभ्यता िर िड़ी। यहद िेद न होते तो पिश्ि की
आध्यास्त्मकता का पिश्ि के धमश का, पिश्ि के चिंतन का ऐसा कोई भी भाग नहीं है जो िैसा
होता जैसा कक िह आज है। पिश्ि की ककसी भी अन्य िाक् रार्ी के पिर्षय में ऐसा नही कहा जा
सकता।‘‘
- श्रीअरपिन्द
रहस्यिाहदयों का लसद्िान्त िेदमें उनतनर्षदों का उच्ि आध्यास्त्मक सारत्ि पिद्यमान है य
िरन्तु उसमें उनकी र्ब्दाििी नहीं िाई जाती । यह एक अन्तः स्फू तश ज्ञान है जो अभी बौद्पिक
और दार्शतनक िररभार्षाओं से ियाशप्त रूि से पिभूपर्षत नही। िेदमें हम उन कपियों और ऋपर्षयों
की भार्षा िातें है स्जनके लिए समस्त अनुभि िास्तपिक, सुस्िष्ट एिं बोधगम्य है य यहााँ तक
कक मूततशमनत है य िर िहााँ हम अभी उन पििारकों और संहहताकारों (व्यिस्थत संकिन
करनेिािों) की भार्षा नहीं िाते स्जनके लिए मन और आत्माको गोिर होने िािी िास्तपिक
सिाएाँ अमूतश िस्तुएाँ बन गई है। तो भी उसमें एक िद्ितत एिं लसद्िान्त अिश्य है। िरन्तु
उसकी बनािट ििकीिी है, उसकी िररभार्षाएाँ मूतश है य उसके पििार का ढांिा एक िुरानी
सुतनस्श्ित अनुभूतत के संलसद्ि नमूने के रूि में व्यािहाररक और प्रयोगलसद्ध है, - ककसी ऐसी
अनुभूतत के नमूने के रूि में नहीं जो अभी तक बनने की प्रकिया में होने के कारण अिररिक्ि
और अतनश्ियात्मक हो। यहााँ हमें एक ऐसा प्रािीन मनोपिज्ञान और अध्यास्त्मक जीिन की
ऐसी किा लमिती हें स्जनका दार्शतनक िररणाम एिं दार्शतनक संर्ोचधत रूि ही है िेदान्त,
सांख्य और योग। िरन्तू समस्त जीिन की तरह, ऐसे समस्त पिज्ञान की तरह जो अब तक
प्राणिंत है, यह (िेद) तकश र्ीि बुद्पिकी कििबद्ध कठोरताओं से मुक्त है। अिने स्थापित
प्रतीकों ओर िपित्र सूत्रों के रहते भी यह पिर्ाि, मुक्त ििकीिा, तरि, नमनर्ीि और सूक्ष्म
है। यह जीिन की गतत और आत्मा के पिर्ाि तनःश्िास से युक्त है। और जब कक िरिती
दर्शनर्ास्त्र ज्ञान की िुस्तकें है। और मुस्क्तकों एक मात्र िरम तनःश्रेयस मानते है य िेद
कमोकी िुस्तक है और स्जस िीज की आर्ा से िह हमारे ितशमान िंधनों और क्षुद्रताको ठु करा
फें कता है, िह है िूणशता, आत्म-उििस्ब्ध और अमरता।
- श्रीअरपिन्द
रामायण
भारत में यह अन्तर िराथशिाद और अंहकार के बीि नहीं होता, बस्कक यह फकश है तनस्िृहता
और इच्छा के बीि। एक िरोिकारी अिने बारें में गहराई से सिेत रहता है और िरमाथश में
िस्तुतः िह अिना अलभकताश बना रहता है य इसी भािुकता की तप्त और बीमा गन्ध और
िाखण्ड कारंग यूरोपियन िरोिकाररत से चििका हुआ है। सच्िे हहन्दू के लिए अंह का भाि
पिश्रिबोध के साथ पििीन हो जाता है य उसे अिने कतशव्य का िािन करना है, उसे कोई अन्त
नही िड़ता कक इससे दूसरों का या उसका हहत साधन होता है। यहद उसके कायश में अचधकांर्त
: तनजी स्िाथश-साधन की अिेक्षा िरोिकारी भाि हदखता है, तो यह इसलिए कक उसके कतशिय
तनजी िाभ से दूसरों के िभ के अचधक अनुकू ि हो रहे हैं। एक िुत्र के रूि में राम का कतशव्य था
आत्म त्याग य अिना साम्राज्य छोड़कर एक लभक्षुक और एक सन्यासी बन जाना य उन्होंने
यह प्रसन्नतािूिशक दृढ़ता के साथ ककया। िेककन जब सीता अिह्त हो गयी तब एक ितत के
रूि में उनका कतशिय था अिहरणकताश से सीता का उद्धार करना और अगर रािण अिने
कु कृ त्य िर अड़ा रहे तो एक क्षत्रत्रय की तरह आगे बढ़ कर उसकी हत्या कर देना। इस कतशव्य
का िािन भी िे उसी अटि र्स्क्त से करते हैं जैसे िहिे कतशव्य का िािन ककया था। िे सत्य के
मागश से के िि इसलिए नही हटते कक यह उनके तनजी स्िाथश से मेि खाता है।
- श्रीअरपिन्द
महाभारत
िाण्डिा भी िनिास और दाररद्रय को अिनाकर त्रबना एक र्ब्द बोिे ििे गये क्योंकक यह
उनके सम्मान का सिाि था य िेककन कहठन िरीक्षा समाप्त होने िर यद्यपि उन्होनें
समझौते के लिए भरसक झुककर कोलर्र् की, िरन्तु दुयोधन के समाने धरार्ायी नहीं हुए,
क्योंकक एक क्षत्रत्रय के रूि में यह उनका कतशव्य था कक िे संसार को अन्याय के राज्य से बिायें
य क्योंकक उन्ही की िजय से अधमश राजय बना हुआ था। ईसाइयत और बौद्धधमश यह यह
लसद्धान्त कक िांटा मारने िािे के सामने अिना दूसरा गाि भी प्रस्तुत कर दो- स्जतना ही
खतरनाक है, उतना ही अव्यािहाररक है। यूरोि में एक ओर िाइस्ट और दूसरी और र्ैतान
प्रेररत देह-सुख के बीि झूमा-झूमी का खेि ििात है य इसमें देह-सुख और र्ैतान की ओर ही
दीघश झुकाि होता हैय इससे यह लसद्ध होता है कक यह लमथ्या नैततक भेदभािहै और इसमें एक
ऐसे आदर्श का मात्र िाचिक उिदेर् है स्जसे मानि समुदाय िािन करने को न तो इच्छु क हुआ,
न उसका िािन कर िाने की योग्यता ही उसमें थी। तटस्थ होकर तनःस्िाथश कतशव्य का िािन
सबसे समथश िौरूर्ष की िीरगाथा है य इसके पििरीत तमािा मारने िािे के सामने दूसरा गाि
प्रस्तुत कर देना कमजोर और कायर की अिकीततश कथा है। बच्िे और दुधमुंहों को मजबूरी में
ऐसा करना िड़ सकता है, िेककन दूसरों के लिए तो यह एक िाखण्ड है।
- श्रीअरपिन्द
गीता का िरम ििन, गीता का महािाक्य क्या है सो ढू ढकर नहीं तनकािना है य गीता स्ियं ही
अिने अंततम श्िोकों में उस महान ््् संगीत का िरम स्िर घोपर्षत करती है :-
तमेि र्रणं गच्छ सिशभािेन भारत।
तत्प्रगसादात्िरां र्ांततं स्थानं प्राप्स्यलस र्ाश्ितम ्््।।
इतत ते ज्ञानमाख्यातं गुह्यद्््गुह्यतरं मया।....
सिशगुह्यतमं भूयः श्रृणु में िरमें ििः।........
मन्मना भि मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कु रू।
मामेिैष्यलस सत्यं ते प्रततजाने पप्रयोऽस्स्म में।।
सिशधमाशनिररत्यज्य मामेकं र्रणं व्रज।
अंह त्िां सिशिािेभ्यो मोक्षतयष्यालम मा र्ुिः।।
‘‘ अिने हृदेर्स्स्थत भगिान ््् की, सिशभाि से, र्रण िे य उन्हीं के प्रसाद से तू िरार्ांतत और
र्ाश्ित िद को िाभ करेगा। मैने तुझे गुह्य से भी गुह्यतर ज्ञान बताया हैं अब उस गुह्यतम
ज्ञान को, उस िरम ििन को सुन जो मैं अब बतिाता हूाँ। मेरे मनिािा हो जा, मेरा भक्त बन,
मेरे लिए यज्ञकर, और मेरा नमन-िूजन कर य तू तनश्िय ही मेरे िास आयेगा, क्योंकक तू मेरा
पप्रय है। सब धमों का िररत्याग करके मुझ एक की र्रण िे। मैं तुझे िािों से मुक्त करूाँ गा य
र्ोक मत कर। ‘‘गीता का प्रततिादन अिने-आिको तीन सोिानों में बााँट िेता है, स्जनिर
िढ़कर कमश मानि-स्तर से ऊिर उठकर हदव्य स्तर में िहुाँि जाता है और िह उच्ितर धमश की
मुक्तािस्था के लिए नीिे के धमश-बंधनों को नीिे ही छोड़ जाता है। िहिे सोिान में मनुष्य
कामना का त्याग कर, िूणश समता के सथ अिने को कताश समझता हुआ यज्ञ-रूि से कमश
करेगा, यह यज्ञ िह उन भगिान ््् के लिए करेगा जो िरम हैं और एकमात्र आत्मा हैं, यद्यपि
अभी तक उसने इनको स्ियं अिने सिा में अनुभि नहीं ककया हैं यह आरंरलभक सोिान है।
दूसरा सोिान है के िि फिेच्छा का त्याग नहीं, बस्कक कताश होने के भाि का भी त्याकग और
यह अनुभूतत कक आत्मा सम, अकताश, अक्षर तत्ि हैऔर सब कमश पिश्ि-र्स्क्त के , प्रकृ तत के हैं
जो पिर्षयम, कती और क्षर र्स्क्त है। अंततम सोिान है िरम आत्मा को िह िरम-िुरूर्ष जान
िेना जो प्रकृ तत के तनयामक हैं, प्रकृ ततगत जीि उन्हीं की आंलर्क अलभव्यस्क्त है, िे ही अिनी
िूणश िरात्िर स्स्थतत में रहते हुए प्रकृ तत के द्िारा सारे कमश कराते है। प्रेम, भजन, िूजन और
कमों का यज्ञन सब उन्ही को अपिशत करना हेगा यअिनी सारी सिा उन्हीं को समपिशत करनी
होगी और अिनी सारी िेतना को ऊिर उठाकर इस भागित िैतन्य में तनिास करना होगा
स्जसमें मान-जीि भगिान ््् की प्रकृ तत और कमों से िरे जो हदव्य िरात्िरता है उसमें भागी हो
सके और िूणश अध्यास्त्मक मुस्क्त की अिस्था में रहते हुए कमश कर सकें ।
प्रथम सोिान है कमशयोग, भगित्प्रीतत के लिए तनष्काम कमों का यज्ञ यऔर यहााँ गीता का जोर
कमश िर है। द्पितीय सोिान है ज्ञानयोग, आत्म-उििस्ब्ध, आत्मा और जगत्के सत्स्िरूि का
ज्ञान य यहााँ उसका ज्ञान िर जोर है, िर साथ-साथ तनष्काम कमश भी ििता रहता है, यहााँ
कमशमागश ज्ञानमागश के साथ एक हो जाता है िर उसमें घुि-लमिकर अिना अस्स्तत्ि नहीं
खोता। तृतीय सोिान है भस्क्तयोग, िरमात्मा की भगिान ््् के रूि में उिासना और खोज य
यहााँ भस्क्त िर जोर है, िर ज्ञान भी गौण नही है, िह के िि उन्नत हो जाता है, उसमें एक ज्ञान
आ जाती है और िह कृ ताथश हो जाता है, और कफर भी कमों का यज्ञ जारी रहता है य द्पिपिध
मागश यहााँ ज्ञान, कमश और भस्क्त का पिपिध मागश हो जता है। और, यज्ञ का फि, एकमात्र फि
जो साधक के सामने ध्येय-रूि से अभी तक रखा हुआ है, प्राप्त हो जाता है, अथाशत ््् भगिान के
साथ योग और िरा भागिती प्रकृ तत के साथ एकत्ि प्राप्त हो जाता है।
- श्रीअरपिन्द
गौतम बुद्ध
यहां तक अत्यन्त ऐकांततक दर्शनों और धमों, बौद्धमत और मायािद ने भी जो जिीन को एक
ऐसी अतनत्य या अपिद्यात्मक िस्तु मानते थे स्जसे अिश्य ही अततिम करना और त्याग
देना िाहहये, इस सत्य को दृस्ष्ट से ओझि नही ककया था कक िहिे मनुष्य को इस ितशमान
अज्ञान या अतनत्यता की अिस्थाओं में अिना पिकास करना हेगा और तब कही िह ज्ञान तथा
उस तनतय तत्ि को प्राप्त कर सकता है जो कागत सिा का तनर्षेध-रूि है। बौद्ध धमश के िि
तनिाशण, र्ून्यता एिं िय का धूलमि उदातीकरण ही नहीं था, न िह कमश की िू र तनःसारता ही
था य इसने हमें मनुष्य के ऐहिौककक जीिन के लिये एक महान ््् और र्स्क्तर्ािी साधना
प्रदान की। समाज और आिारर्ास्त्र िर अनेक प्रकार से इसका जो बड़ा भारी भाित्मक प्रभाि
िड़ा और किा एिं चििन को तथा कु छ कम मात्रा में साहहत्य को इसने जो सृजन की प्रेरणा
प्रदान की िे इसकी प्रणािी की प्रबि जीिनी-र्स्क्त का ियाशप्त प्रमाण है। यहद सिा का तनर्षेध
करनेिािे इस अत्यन्त ऐकांततक दर्शन में यह भािात्मक प्रिृपि पिद्यमान थी तो भारतीय
संस्कृ तत के समग्र स्िरूि में यह कहीं अचधक व्यािक रूि में उिस्स्थत थी।
- श्रीअरपिन्द
सम्राट अर्ोक
भातीय आध्यास्त्मकता और जीिन -5 र्ािशमा´ या, यह कहें कक कान्स्टैन्टाईन की तुिना
मेंअर्ोक को तनस्तेज क्यों कहना िाहहए ? क्या इसका कारण यह है कक उन्होंने के िि अिनी
रक्तािातिूणश कलिंगपिजय की ही ििाश की है ताकक िह अिने िश्िाताि तथा अिनी आत्मा के
िररितशन की बात कह सकें , जोएकऐी भािना है स्जसे र्ािशमात्र, अच्छा ईसाई बनाने के लिए
सैक्सनों का संहार करता हुआ जरा भी न समझ सकता, और न र्ायद उसे अलभपर्षक्त
करनेिािा िोि ही उससे कु छ अचधक समझ सकता? कान्स्टैन्टाईन ने ईसाई धमश को पिजय
हदिायी, िर उसके व्यस्क्तत्ि में ईसाईिन जरा भी नहीं हैं य अर्ोक ने बौद्धधमश को के िि
लसहांसन िर प्रततस्ष्ठत ही नहीं ककया, अपितु बुद्ि के द्िारा प्रततिाहदत मागश का अनुसरण
करने का भी यत्न ककया, यद्यपि इसमें िह िूणश रूि से सफि नहीं हुए। और भारतीय मन उन्हें
कान्स्टैन्टाईन या र्ािशमात्र की अिेक्षा के िि एक श्रेष्ठतर-संककिर्ािी िुरूर्ष के रूि में ही नहीं
बस्कक एक अचधक महान ्और आकर्षशण व्यस्क्तत्ि के रूि में भी आदृत करेगा। भारत िाणक्य
में रूचि अिश्य रखता है, िर उससे कहीं अचधक रूचि िैतन्य महाप्रभु में रखता है।
और यथाथश जीिन की ही तरह साहहत्य में भी उसकी ऐसी ही प्रिृपि है। यह यूरोिीय मन राम
और सीता को अरूचिकर और अिास्तपिक अनुभि करता है, क्योंकक िे अतत धमाशत्मा, अतत
आदर्शमय, अतत आदर्शमय, अतत उज्जिि िररत्रिािे हैं य िरंतु भारतीय मन के लिए, समस्त
धालमशक भािना को एक और रख देने िर भी, िे एक अत्यंत आकर्षशक सद्िस्तु की साकार
मूततशयां हैं जो हमारी सिा के अंतरतम तंतुओं को आकपर्षशत करती है। एक यूरोिीय पिद्िान
महाभारत की आिोिना करता हुआ उस महान ््् काव्य में बिर्ािी और अग्र भम को ही
एकमात्र सच्िा िात्र अनुभि करता है य इसके पििरीत, भारतीय मन अजुशन की र्ांत-स्स्थर
िीरता में, युचधस्ष्ठर के उिम नैततक स्िभाि में, कु रूक्षेत्र के हदव्य सारथी में जो अिनेअचधकर
के लिए नहीं बस्कक धमश और न्याय के लिए राज्य की स्थािना करने के लिए कमश करते हैं, एक
अचधक महान ््् िात्र के दर्शन करता है तथा एक अचधक मालमशक आकर्षशण अनुभि करता है जो
उग्र या अंहख्यािक अथिा अिनी िासनाओं की आंधी के याथ उडनेिािेिात्र यूरोिीय
महाकाव्य और नाटक के मुख्यतर : रूचिकर पिर्षय हैं उन्हें िह या तो दूसरी श्रेणी में डाि देगा
अथिा, यहद िह उनहे एक पिर्ाि आकार-प्रकार में प्रस्तुत करेगा भी तो िह उनहे इस प्रकार
स्थान देगा कक अचधक उच्ि कोहट के व्यस्क्तत्ि की महानता उभरकर सामने आ जाये, जैसे
कक रािण राम के पििरीत गुणों का प्रदर्शन करता है। तथा उसे अचधक आकर्षशण बना देता है।
जीिनपिर्षयक सौदयश-पिज्ञान में इनमें से एक प्रकार का मन तडक-भड़किािे व्यस्क्तत्ि की
सराहना करता है और दूसरे प्रकार का मन जेजस्िी व्यस्क्तत्ि की। अथिा, स्ियं भारतीय मन
इनमें जो भेद करता है उसकी िररभार्षा में कहें तो, एक प्रकार के मन की रूचि राजलसक संककि
और िररत्र में अचधक के स्न्द्रत रहती है और दूसरे की सास्त्िक संककि और िररत्र में। यह भेद
भारतीय जीिन और सृजन-संबंधी सौंदयश-पिज्ञान िर हीनता को थोिता है या नहीं इस बात का
तनणशय हर एक को अिने-आिकरना होगा य िरंतु इतना तनस्श्ित है कक इस पिर्षय में भारतीय
पििार अचधक पिकलसत एिं अचधक आध्यास्त्मक है। भारतीय मन का पिश्िास है कक सिा के
राजलसक या अचधक रंस्जत अंहकारी स्तर से सास्त्मि और अचधक प्रकार्मय स्तर की ओर
बढने से संककि और व्यस्क्तत्ि हीन नहीं बस्कक उन्नत होते है।
- श्रीअरपिन्द
भारतीय किा
भारतीय संस्कृ तत का समथशन प्रािीन भारतीय किा के
महिम स्िरूि का लसद्धांन्त - और िह महिम स्िरूि
ही र्ेर्ष सारी किा को उसका आकार-प्रकार प्रदान करता
है तथा कु छ अंर् में उसिर अिनी छाि और प्रभाि भी
डािता है - एक और ही प्रकार का है। उसका सबसे उच्ि
कायश है - अंतरात्मा की दृस्ष्ट से सम्मुख िरम आत्मा,
अनंत एिं भगिान ््् के कु छ अंर् को प्रकट करना, िरम
आत्मा को उसकी अलभव्यस्क्तयों के द्िारा अंनत को
उसके संजीि सांत प्रतीकों के द्िारा और भगिान ््् को
उसनकी र्स्क्तयों के द्िारा प्रकट करना। या कफिॅ र उसे
अंतरात्मा को बोध-र्स्क्त या भस्क्त- भािना या, कम से कम, अध्यात्ममय या धमशमय
रसात्मक भािािेग के सामने देिाताओं को प्रकट करना, प्रकार्मय रूि में उनकी व्याख्या
करना या ककसी प्रकार उनका संदेर् देना होता है। जब यह िपित्रकिा इन ऊं िाइयों से उतर कर
हमारे िोकां के िीछे अिस्स्थत मध्यिती िोकों तक, हीनतर देिताओं या स्जनों तक िहुंिती है,
तब भी यह ऊिर से ककसी र्स्क्त या ककसी संके त को उनमें िे आती है। और तक यह त्रबिकु ि
नीिे जड़ जगत ््् तक और मनुष्ष्य के जीिन तथ बाहा्र प्रकृ तत की िस्तुओं तक िहुंिती है तो
भी यह महिर अंतदृशस्ष्ट, िपित्र छाि और आध्यास्त्मक दृस्ष्ट से सिशथा रहहत नहीं हो जाती,
और अचधंकार् उिम कृ ततयों में-पिश्राम के और गोिर िदाथश के साथ पिनोदिूणश या सजीि
िीड़ा के क्षणों को छोड़कर - सदा ही कोई और िीज भी होती है स्जसमें जीिन का जीितं चित्रण
ऐसे तैरता रहता है जैसे कक एक अभौथ्तक िातािरण में। जीिन को आत्का में या अनंत के या
िरे की ककसी िस्तु के एक संके त में देखा जा सकता है अथिा िहां कम-से-कम इन िस्तुओं का
एक स्िर्श एिं प्रभाि होता है जो उसे चित्रण को रूि देने में सहायक होता है। यह बात नहीं है कक
समस्त भारतीय कृ ततयों इस आदर्श को िररताथश करती है य तनःसंदेह उनमें ऐसी भी बहुत-सी
है जो इस ऊं िाई तक नहीं िहुंिती, नीिे रह जाती हैं, तनष्प्रभाि या यहां तक कक पिकृ त होती है,
िरंतु सिशश्रेष्ठ तथा अत्यन्त पिलर्ष्ट प्रभाि एिं कायाशस्न्ितत ही ककसी किा को अिनी रंगत
देती है और इन्ही के द्िारा हमे तनणशय करना िाहहए। सि िूछो तो भारतीय किा का भी
आध्यास्त्मक िक्ष्य और मूितत्ि िही है जो र्ेर्ष भारतीय संस्कृ तत का है।
- श्रीअरपिन्द
- अकबर
-
-
- मुस्स्िम पिजय ने जो समस्या िैदा कर दी िह िास्ति में पिदेर्ी र्ासन के प्रतत
अधीनता और िुनः स्ितंत्रता प्राित करने की योग्यता की नहीं बस्कक दो सभ्यताओं के
िारस्िररक संघर्षश की थी। उनमें से एक थी प्रािीन और स्िेदेर्ीय, दूसरी मध्ययुगीन
तथा बाहर से िायी हुई। स्जस बात ने समस्या के समाधान को दुःसाध्य बना हदया िह
यह थी ककउनमें से प्रत्येक एक र्स्क्तर्ािी धमश के प्रतत आसक्त थी। उनमें से एक का
धमश युद्िपप्रय और आिमणकारी था, दूसरी का आध्यास्त्मक दृस्ष्ट से तो अिश्यक ही
सहहष्णु और नमनीय था िर अिने साधनाभ्यास मेंअिने लसद्धांन्त के प्रतत दृढ़तनष्ठ
था और सामास्जक पिचध-पिधानों की दीिार के िीछे अिनी प्रततरक्षा करने के लिए
कहटबद्ध रहता था। इसके दो समाधान समझ मेंआने योग्य थे, या तो एक ऐसे महिर
आध्यास्त्मक लसद्िांत एिं रिना का उदय होता जो दोनो धमों का समन्िय कर सकती
अथिा एक ऐसी राजनीततमूिक देर्भस्क्त का उदय होता जो धालमशक संघर्षश को
अततिम करके दोनो जाततयों को एक कर सकती। इनमें से िहिा समाधान उस युग में
संभि ही नहीं था। अकबर ने मुस्स्िम िक्ष की ओर से इसके लिये यत्न ककया, िरंतु
उसका धमश एक आध्यास्त्मक रिना होने की अिेक्षा कहीं अचधक एक बौद्पिक एिं
राजनीततक रिना था और उसे दोनो जाततयों के प्रबितया धालमशक मन से स्िीकृ तत
प्राप्त करने का कभीकोई अिसर नहीं लमिा
- - श्रीअरपिन्द
-
-
गुरू गोपिंद लसंह
लसक्खों का खािसा संप्रदाय एक ऐसी रिना था जो आश्ियशजनक रूि से मौथ्िक तथा अनूठी
थी और उसकी दृस्ष्ट भूत िर नहीं भपिष्य िर िगी हुई थी। अिने धमशतांत्रत्रक नेतृत्ि तथा
अिने जनतंत्रीय भािना और रिना में, अिने गंभीर आध्यास्त्मक आंरभ में तथा इस्िाम और
िेंदान्त के गहनतम तत्िों को संयुक्त करने के प्रथम प्रयास में स्ितंत्र और अद्पितीय होता
हुआ भी िह मानिसमाज की तीसरी या आध्यास्त्मक अिस्थ में प्रिेर् करने के लिए एक
असामतयक प्रिृपि था, िंरतु िह आत्मा और बाहा्र जीिन के बीि समृद्ध सजशनक्षम
पििारधारा और संस्कृ तत का एक संिारक माध्यम नहीं उत्िन्न कर सका। और इस प्रकार
बाधाओं और त्रुहटयों से ग्रस्त होने के कारण िह संकीणश स्थानीय सामाओं में आंरभ हुआ और
उन्होने समाप्त हो गया, उसने तीव्रता तोअचधगम को िर पिस्तार की क्षमता नहीं। उस समय
िे अिस्थाएं पिद्यमान ही नहीं थी स्जनमें िह प्रयत्न सफि हो सकता।
- श्रीअरपिन्द
महात्मा गांधी
तनस्ष्िय प्रततरोध की िद्ितत क्या हो सकती है ?
श्री अरपिन्द इस संदभश में सकिय प्रततरोध अथिा
आिामक प्रततरोध और तनस्ष्िय ििािात्मक
प्रततरोध का अन्तर स्िष्ट करते हुए लिखते है- ‘‘
िहिे का उद्््देश्य र्ासन को तनस्श्ित रूि से
क्षततग्रस्त करना है जबकक दूसरे का र्ासन
कोककसी प्रकार की सहायता प्राप्त कर सकने से
रोकना हैं इस तरह व्यािक दृस्ष्ट से उद्््देश्य
करीब समान हैं, िर रास्ते लभन्न है।‘‘ तनस्ष्िय
प्रततरोध का िहिा लसद्िान्त है, जनता की
संगहठत र्स्क्त के असहयोग द्िारा र्ासन को िंगु
बनाना य बहहष्कार, र्ासन का, पिदेर्ी सामानों
का, पिदेर्ी सिा को सहायता िहुाँिाने िािी सभी
कियाओं का बहहष्कार। इस बहहष्कार द्िारा हम
पिदेर्ी सिा को इस गरीब देर् का तनरन्तर र्ोर्षण
करते रहने से यथासंभि रोक सकते है। ‘कर मत दो‘ यह बहुत ही महत्ििूणश नारा है, स्जसे
तनस्ष्िय प्रततरोध र्ीर्षश स्थान देना िाहता है। जैसा अनेक योरोिीय देर्ों में ककया गया य िर
अभी हम इस कायशिम िर तुरन्त अमि नहीं करना िाहते।
तनस्ष्िय प्रततरोध आन्दोिन की कु छ बाध्यताएाँ हैं, स्जनका िािन करना अतनिायश है। िहिी
बाध्यता है - ‘‘ सभी अमानिीय कानूनों की अिज्ञा। ऐसे कानूनों को बदिने की प्राथशना के
स्थान िर इन्हे खुिे आम तोड़ना जरूरी है। यहद पिदेर्ी सरकार हमारे कायश को गैरकानूनी
करार देती है, तो भी हमें अिना कतशव्य करना है, झूठ बोिकर, कानून न तोडने की सफाई देना
अिने को ितत बनाना है, अिने िौरूर्ष को कतंककत करना है। इसके िररणामस्िरूि नौकरर्ाही
यहद जेि देती है तो हमें स्िेच्छा से और हममें यहद जारा भी भद्रता र्ेर्ष है तो प्रसन्नतािूशिक
जेि जाना िाहहए। तनस्ष्िय प्रततरोध की एक और बाध्यता है। सर्स्त्र िास्न्त। गद्््दारी का
बहुत महत्ि नही होता, क्योंकक अन्त में जो उच्िस्तरीय र्स्त्रबि है िह पिजयी होही जाता है
य िरन्तु तनस्ष्िय प्रततरोध में गद्््दारी अक्षम्य है य क्योंकक ऐसी एक भी घटना यहद क्षमा
कर दी जाती है तो भयानक रूि िे िेगी और हो सकता है िूरे आन्दोिन को तहस-नहस कर दे,
इसलिए गद्््दोरों का सामास्जक बहहष्कार इस आन्दोिन की बहुत महत्ििूणश बाध्यता है।
गद्दारों से सािधान रहने की िेतािनी देकर ही िे संतुष्ट नही हो गये। िे जानते थे कक आदमी
की सहनर्ककत की एक सीमा है। उसे हद से ज्यादा खींिने िर या तो गद्््दारी िैदा होगी या
तनस्ष्ियता हहंसा में बदि जायेगी। ऐसी स्स्थतत मेंिे गद्््दारी के नही, हहंसा के िक्ष में थे। इन
स्स्थततयों को िूणशतः स्िष्ट करते हुए श्री अरपिन्द इस प्रकार के आन्दोिन की सीमा िर भी
हमारा ध्यान आकृ ष्ट करते है - ‘‘ जब तक र्ासन की प्रततकिया र्ास्न्तिूणश ढंग की रहती है
और िडाई के तनयमों के भीतर कायश ििने हदया जाता है, तनस्ष्िय प्रततरोध तनश्िय ही र्ान्त
रहेगा। ककन्तु इससे लभन्न स्स्थत आने िर तनस्ष्ियता को एक क्षण के लिए भी तनस्ष्िय रहने
की जरूरत नहीं है। अमानुपर्षक अिैधातनक अत्यािारों के आगे झुकना या समशिण कर देना,
देर् की िैधातनक व्यिस्था के नाम िर अिमान और गुण्डागदी सह िेना कायशरत है और देर् के
िौरूर्ष को िततत करना है, यह कायश हमारे, अिने और मातृभूलम के भीतर तनहहत देित्ि का
अिमान है।
CIVILIZATION OF INDIA - IN LIGHT OF SRI AUROBINDO HINDI

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  • 4. रहस्यिाहदयों का लसद्िान्त िेदमें उनतनर्षदों का उच्ि आध्यास्त्मक सारत्ि पिद्यमान है य िरन्तु उसमें उनकी र्ब्दाििी नहीं िाई जाती । यह एक अन्तः स्फू तश ज्ञान है जो अभी बौद्पिक और दार्शतनक िररभार्षाओं से ियाशप्त रूि से पिभूपर्षत नही। िेदमें हम उन कपियों और ऋपर्षयों की भार्षा िातें है स्जनके लिए समस्त अनुभि िास्तपिक, सुस्िष्ट एिं बोधगम्य है य यहााँ तक कक मूततशमनत है य िर िहााँ हम अभी उन पििारकों और संहहताकारों (व्यिस्थत संकिन करनेिािों) की भार्षा नहीं िाते स्जनके लिए मन और आत्माको गोिर होने िािी िास्तपिक सिाएाँ अमूतश िस्तुएाँ बन गई है। तो भी उसमें एक िद्ितत एिं लसद्िान्त अिश्य है। िरन्तु उसकी बनािट ििकीिी है, उसकी िररभार्षाएाँ मूतश है य उसके पििार का ढांिा एक िुरानी सुतनस्श्ित अनुभूतत के संलसद्ि नमूने के रूि में व्यािहाररक और प्रयोगलसद्ध है, - ककसी ऐसी अनुभूतत के नमूने के रूि में नहीं जो अभी तक बनने की प्रकिया में होने के कारण अिररिक्ि और अतनश्ियात्मक हो। यहााँ हमें एक ऐसा प्रािीन मनोपिज्ञान और अध्यास्त्मक जीिन की ऐसी किा लमिती हें स्जनका दार्शतनक िररणाम एिं दार्शतनक संर्ोचधत रूि ही है िेदान्त, सांख्य और योग। िरन्तू समस्त जीिन की तरह, ऐसे समस्त पिज्ञान की तरह जो अब तक प्राणिंत है, यह (िेद) तकश र्ीि बुद्पिकी कििबद्ध कठोरताओं से मुक्त है। अिने स्थापित प्रतीकों ओर िपित्र सूत्रों के रहते भी यह पिर्ाि, मुक्त ििकीिा, तरि, नमनर्ीि और सूक्ष्म है। यह जीिन की गतत और आत्मा के पिर्ाि तनःश्िास से युक्त है। और जब कक िरिती दर्शनर्ास्त्र ज्ञान की िुस्तकें है। और मुस्क्तकों एक मात्र िरम तनःश्रेयस मानते है य िेद कमोकी िुस्तक है और स्जस िीज की आर्ा से िह हमारे ितशमान िंधनों और क्षुद्रताको ठु करा फें कता है, िह है िूणशता, आत्म-उििस्ब्ध और अमरता। - श्रीअरपिन्द
  • 5. रामायण भारत में यह अन्तर िराथशिाद और अंहकार के बीि नहीं होता, बस्कक यह फकश है तनस्िृहता और इच्छा के बीि। एक िरोिकारी अिने बारें में गहराई से सिेत रहता है और िरमाथश में िस्तुतः िह अिना अलभकताश बना रहता है य इसी भािुकता की तप्त और बीमा गन्ध और िाखण्ड कारंग यूरोपियन िरोिकाररत से चििका हुआ है। सच्िे हहन्दू के लिए अंह का भाि पिश्रिबोध के साथ पििीन हो जाता है य उसे अिने कतशव्य का िािन करना है, उसे कोई अन्त नही िड़ता कक इससे दूसरों का या उसका हहत साधन होता है। यहद उसके कायश में अचधकांर्त : तनजी स्िाथश-साधन की अिेक्षा िरोिकारी भाि हदखता है, तो यह इसलिए कक उसके कतशिय तनजी िाभ से दूसरों के िभ के अचधक अनुकू ि हो रहे हैं। एक िुत्र के रूि में राम का कतशव्य था आत्म त्याग य अिना साम्राज्य छोड़कर एक लभक्षुक और एक सन्यासी बन जाना य उन्होंने यह प्रसन्नतािूिशक दृढ़ता के साथ ककया। िेककन जब सीता अिह्त हो गयी तब एक ितत के रूि में उनका कतशिय था अिहरणकताश से सीता का उद्धार करना और अगर रािण अिने कु कृ त्य िर अड़ा रहे तो एक क्षत्रत्रय की तरह आगे बढ़ कर उसकी हत्या कर देना। इस कतशव्य का िािन भी िे उसी अटि र्स्क्त से करते हैं जैसे िहिे कतशव्य का िािन ककया था। िे सत्य के मागश से के िि इसलिए नही हटते कक यह उनके तनजी स्िाथश से मेि खाता है। - श्रीअरपिन्द
  • 6. महाभारत िाण्डिा भी िनिास और दाररद्रय को अिनाकर त्रबना एक र्ब्द बोिे ििे गये क्योंकक यह उनके सम्मान का सिाि था य िेककन कहठन िरीक्षा समाप्त होने िर यद्यपि उन्होनें समझौते के लिए भरसक झुककर कोलर्र् की, िरन्तु दुयोधन के समाने धरार्ायी नहीं हुए, क्योंकक एक क्षत्रत्रय के रूि में यह उनका कतशव्य था कक िे संसार को अन्याय के राज्य से बिायें य क्योंकक उन्ही की िजय से अधमश राजय बना हुआ था। ईसाइयत और बौद्धधमश यह यह लसद्धान्त कक िांटा मारने िािे के सामने अिना दूसरा गाि भी प्रस्तुत कर दो- स्जतना ही खतरनाक है, उतना ही अव्यािहाररक है। यूरोि में एक ओर िाइस्ट और दूसरी और र्ैतान प्रेररत देह-सुख के बीि झूमा-झूमी का खेि ििात है य इसमें देह-सुख और र्ैतान की ओर ही दीघश झुकाि होता हैय इससे यह लसद्ध होता है कक यह लमथ्या नैततक भेदभािहै और इसमें एक ऐसे आदर्श का मात्र िाचिक उिदेर् है स्जसे मानि समुदाय िािन करने को न तो इच्छु क हुआ, न उसका िािन कर िाने की योग्यता ही उसमें थी। तटस्थ होकर तनःस्िाथश कतशव्य का िािन सबसे समथश िौरूर्ष की िीरगाथा है य इसके पििरीत तमािा मारने िािे के सामने दूसरा गाि प्रस्तुत कर देना कमजोर और कायर की अिकीततश कथा है। बच्िे और दुधमुंहों को मजबूरी में ऐसा करना िड़ सकता है, िेककन दूसरों के लिए तो यह एक िाखण्ड है। - श्रीअरपिन्द
  • 7. गीता का िरम ििन, गीता का महािाक्य क्या है सो ढू ढकर नहीं तनकािना है य गीता स्ियं ही अिने अंततम श्िोकों में उस महान ््् संगीत का िरम स्िर घोपर्षत करती है :- तमेि र्रणं गच्छ सिशभािेन भारत। तत्प्रगसादात्िरां र्ांततं स्थानं प्राप्स्यलस र्ाश्ितम ्््।। इतत ते ज्ञानमाख्यातं गुह्यद्््गुह्यतरं मया।.... सिशगुह्यतमं भूयः श्रृणु में िरमें ििः।........ मन्मना भि मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कु रू। मामेिैष्यलस सत्यं ते प्रततजाने पप्रयोऽस्स्म में।। सिशधमाशनिररत्यज्य मामेकं र्रणं व्रज। अंह त्िां सिशिािेभ्यो मोक्षतयष्यालम मा र्ुिः।। ‘‘ अिने हृदेर्स्स्थत भगिान ््् की, सिशभाि से, र्रण िे य उन्हीं के प्रसाद से तू िरार्ांतत और र्ाश्ित िद को िाभ करेगा। मैने तुझे गुह्य से भी गुह्यतर ज्ञान बताया हैं अब उस गुह्यतम ज्ञान को, उस िरम ििन को सुन जो मैं अब बतिाता हूाँ। मेरे मनिािा हो जा, मेरा भक्त बन, मेरे लिए यज्ञकर, और मेरा नमन-िूजन कर य तू तनश्िय ही मेरे िास आयेगा, क्योंकक तू मेरा पप्रय है। सब धमों का िररत्याग करके मुझ एक की र्रण िे। मैं तुझे िािों से मुक्त करूाँ गा य र्ोक मत कर। ‘‘गीता का प्रततिादन अिने-आिको तीन सोिानों में बााँट िेता है, स्जनिर िढ़कर कमश मानि-स्तर से ऊिर उठकर हदव्य स्तर में िहुाँि जाता है और िह उच्ितर धमश की मुक्तािस्था के लिए नीिे के धमश-बंधनों को नीिे ही छोड़ जाता है। िहिे सोिान में मनुष्य कामना का त्याग कर, िूणश समता के सथ अिने को कताश समझता हुआ यज्ञ-रूि से कमश करेगा, यह यज्ञ िह उन भगिान ््् के लिए करेगा जो िरम हैं और एकमात्र आत्मा हैं, यद्यपि अभी तक उसने इनको स्ियं अिने सिा में अनुभि नहीं ककया हैं यह आरंरलभक सोिान है। दूसरा सोिान है के िि फिेच्छा का त्याग नहीं, बस्कक कताश होने के भाि का भी त्याकग और यह अनुभूतत कक आत्मा सम, अकताश, अक्षर तत्ि हैऔर सब कमश पिश्ि-र्स्क्त के , प्रकृ तत के हैं जो पिर्षयम, कती और क्षर र्स्क्त है। अंततम सोिान है िरम आत्मा को िह िरम-िुरूर्ष जान िेना जो प्रकृ तत के तनयामक हैं, प्रकृ ततगत जीि उन्हीं की आंलर्क अलभव्यस्क्त है, िे ही अिनी िूणश िरात्िर स्स्थतत में रहते हुए प्रकृ तत के द्िारा सारे कमश कराते है। प्रेम, भजन, िूजन और कमों का यज्ञन सब उन्ही को अपिशत करना हेगा यअिनी सारी सिा उन्हीं को समपिशत करनी होगी और अिनी सारी िेतना को ऊिर उठाकर इस भागित िैतन्य में तनिास करना होगा स्जसमें मान-जीि भगिान ््् की प्रकृ तत और कमों से िरे जो हदव्य िरात्िरता है उसमें भागी हो सके और िूणश अध्यास्त्मक मुस्क्त की अिस्था में रहते हुए कमश कर सकें ।
  • 8. प्रथम सोिान है कमशयोग, भगित्प्रीतत के लिए तनष्काम कमों का यज्ञ यऔर यहााँ गीता का जोर कमश िर है। द्पितीय सोिान है ज्ञानयोग, आत्म-उििस्ब्ध, आत्मा और जगत्के सत्स्िरूि का ज्ञान य यहााँ उसका ज्ञान िर जोर है, िर साथ-साथ तनष्काम कमश भी ििता रहता है, यहााँ कमशमागश ज्ञानमागश के साथ एक हो जाता है िर उसमें घुि-लमिकर अिना अस्स्तत्ि नहीं खोता। तृतीय सोिान है भस्क्तयोग, िरमात्मा की भगिान ््् के रूि में उिासना और खोज य यहााँ भस्क्त िर जोर है, िर ज्ञान भी गौण नही है, िह के िि उन्नत हो जाता है, उसमें एक ज्ञान आ जाती है और िह कृ ताथश हो जाता है, और कफर भी कमों का यज्ञ जारी रहता है य द्पिपिध मागश यहााँ ज्ञान, कमश और भस्क्त का पिपिध मागश हो जता है। और, यज्ञ का फि, एकमात्र फि जो साधक के सामने ध्येय-रूि से अभी तक रखा हुआ है, प्राप्त हो जाता है, अथाशत ््् भगिान के साथ योग और िरा भागिती प्रकृ तत के साथ एकत्ि प्राप्त हो जाता है। - श्रीअरपिन्द
  • 9. गौतम बुद्ध यहां तक अत्यन्त ऐकांततक दर्शनों और धमों, बौद्धमत और मायािद ने भी जो जिीन को एक ऐसी अतनत्य या अपिद्यात्मक िस्तु मानते थे स्जसे अिश्य ही अततिम करना और त्याग देना िाहहये, इस सत्य को दृस्ष्ट से ओझि नही ककया था कक िहिे मनुष्य को इस ितशमान अज्ञान या अतनत्यता की अिस्थाओं में अिना पिकास करना हेगा और तब कही िह ज्ञान तथा उस तनतय तत्ि को प्राप्त कर सकता है जो कागत सिा का तनर्षेध-रूि है। बौद्ध धमश के िि तनिाशण, र्ून्यता एिं िय का धूलमि उदातीकरण ही नहीं था, न िह कमश की िू र तनःसारता ही था य इसने हमें मनुष्य के ऐहिौककक जीिन के लिये एक महान ््् और र्स्क्तर्ािी साधना प्रदान की। समाज और आिारर्ास्त्र िर अनेक प्रकार से इसका जो बड़ा भारी भाित्मक प्रभाि िड़ा और किा एिं चििन को तथा कु छ कम मात्रा में साहहत्य को इसने जो सृजन की प्रेरणा प्रदान की िे इसकी प्रणािी की प्रबि जीिनी-र्स्क्त का ियाशप्त प्रमाण है। यहद सिा का तनर्षेध करनेिािे इस अत्यन्त ऐकांततक दर्शन में यह भािात्मक प्रिृपि पिद्यमान थी तो भारतीय संस्कृ तत के समग्र स्िरूि में यह कहीं अचधक व्यािक रूि में उिस्स्थत थी। - श्रीअरपिन्द
  • 10. सम्राट अर्ोक भातीय आध्यास्त्मकता और जीिन -5 र्ािशमा´ या, यह कहें कक कान्स्टैन्टाईन की तुिना मेंअर्ोक को तनस्तेज क्यों कहना िाहहए ? क्या इसका कारण यह है कक उन्होंने के िि अिनी रक्तािातिूणश कलिंगपिजय की ही ििाश की है ताकक िह अिने िश्िाताि तथा अिनी आत्मा के िररितशन की बात कह सकें , जोएकऐी भािना है स्जसे र्ािशमात्र, अच्छा ईसाई बनाने के लिए सैक्सनों का संहार करता हुआ जरा भी न समझ सकता, और न र्ायद उसे अलभपर्षक्त करनेिािा िोि ही उससे कु छ अचधक समझ सकता? कान्स्टैन्टाईन ने ईसाई धमश को पिजय हदिायी, िर उसके व्यस्क्तत्ि में ईसाईिन जरा भी नहीं हैं य अर्ोक ने बौद्धधमश को के िि लसहांसन िर प्रततस्ष्ठत ही नहीं ककया, अपितु बुद्ि के द्िारा प्रततिाहदत मागश का अनुसरण करने का भी यत्न ककया, यद्यपि इसमें िह िूणश रूि से सफि नहीं हुए। और भारतीय मन उन्हें कान्स्टैन्टाईन या र्ािशमात्र की अिेक्षा के िि एक श्रेष्ठतर-संककिर्ािी िुरूर्ष के रूि में ही नहीं बस्कक एक अचधक महान ्और आकर्षशण व्यस्क्तत्ि के रूि में भी आदृत करेगा। भारत िाणक्य में रूचि अिश्य रखता है, िर उससे कहीं अचधक रूचि िैतन्य महाप्रभु में रखता है। और यथाथश जीिन की ही तरह साहहत्य में भी उसकी ऐसी ही प्रिृपि है। यह यूरोिीय मन राम और सीता को अरूचिकर और अिास्तपिक अनुभि करता है, क्योंकक िे अतत धमाशत्मा, अतत आदर्शमय, अतत आदर्शमय, अतत उज्जिि िररत्रिािे हैं य िरंतु भारतीय मन के लिए, समस्त धालमशक भािना को एक और रख देने िर भी, िे एक अत्यंत आकर्षशक सद्िस्तु की साकार मूततशयां हैं जो हमारी सिा के अंतरतम तंतुओं को आकपर्षशत करती है। एक यूरोिीय पिद्िान महाभारत की आिोिना करता हुआ उस महान ््् काव्य में बिर्ािी और अग्र भम को ही एकमात्र सच्िा िात्र अनुभि करता है य इसके पििरीत, भारतीय मन अजुशन की र्ांत-स्स्थर
  • 11. िीरता में, युचधस्ष्ठर के उिम नैततक स्िभाि में, कु रूक्षेत्र के हदव्य सारथी में जो अिनेअचधकर के लिए नहीं बस्कक धमश और न्याय के लिए राज्य की स्थािना करने के लिए कमश करते हैं, एक अचधक महान ््् िात्र के दर्शन करता है तथा एक अचधक मालमशक आकर्षशण अनुभि करता है जो उग्र या अंहख्यािक अथिा अिनी िासनाओं की आंधी के याथ उडनेिािेिात्र यूरोिीय महाकाव्य और नाटक के मुख्यतर : रूचिकर पिर्षय हैं उन्हें िह या तो दूसरी श्रेणी में डाि देगा अथिा, यहद िह उनहे एक पिर्ाि आकार-प्रकार में प्रस्तुत करेगा भी तो िह उनहे इस प्रकार स्थान देगा कक अचधक उच्ि कोहट के व्यस्क्तत्ि की महानता उभरकर सामने आ जाये, जैसे कक रािण राम के पििरीत गुणों का प्रदर्शन करता है। तथा उसे अचधक आकर्षशण बना देता है। जीिनपिर्षयक सौदयश-पिज्ञान में इनमें से एक प्रकार का मन तडक-भड़किािे व्यस्क्तत्ि की सराहना करता है और दूसरे प्रकार का मन जेजस्िी व्यस्क्तत्ि की। अथिा, स्ियं भारतीय मन इनमें जो भेद करता है उसकी िररभार्षा में कहें तो, एक प्रकार के मन की रूचि राजलसक संककि और िररत्र में अचधक के स्न्द्रत रहती है और दूसरे की सास्त्िक संककि और िररत्र में। यह भेद भारतीय जीिन और सृजन-संबंधी सौंदयश-पिज्ञान िर हीनता को थोिता है या नहीं इस बात का तनणशय हर एक को अिने-आिकरना होगा य िरंतु इतना तनस्श्ित है कक इस पिर्षय में भारतीय पििार अचधक पिकलसत एिं अचधक आध्यास्त्मक है। भारतीय मन का पिश्िास है कक सिा के राजलसक या अचधक रंस्जत अंहकारी स्तर से सास्त्मि और अचधक प्रकार्मय स्तर की ओर बढने से संककि और व्यस्क्तत्ि हीन नहीं बस्कक उन्नत होते है। - श्रीअरपिन्द
  • 12. भारतीय किा भारतीय संस्कृ तत का समथशन प्रािीन भारतीय किा के महिम स्िरूि का लसद्धांन्त - और िह महिम स्िरूि ही र्ेर्ष सारी किा को उसका आकार-प्रकार प्रदान करता है तथा कु छ अंर् में उसिर अिनी छाि और प्रभाि भी डािता है - एक और ही प्रकार का है। उसका सबसे उच्ि कायश है - अंतरात्मा की दृस्ष्ट से सम्मुख िरम आत्मा, अनंत एिं भगिान ््् के कु छ अंर् को प्रकट करना, िरम आत्मा को उसकी अलभव्यस्क्तयों के द्िारा अंनत को उसके संजीि सांत प्रतीकों के द्िारा और भगिान ््् को उसनकी र्स्क्तयों के द्िारा प्रकट करना। या कफिॅ र उसे अंतरात्मा को बोध-र्स्क्त या भस्क्त- भािना या, कम से कम, अध्यात्ममय या धमशमय रसात्मक भािािेग के सामने देिाताओं को प्रकट करना, प्रकार्मय रूि में उनकी व्याख्या करना या ककसी प्रकार उनका संदेर् देना होता है। जब यह िपित्रकिा इन ऊं िाइयों से उतर कर हमारे िोकां के िीछे अिस्स्थत मध्यिती िोकों तक, हीनतर देिताओं या स्जनों तक िहुंिती है, तब भी यह ऊिर से ककसी र्स्क्त या ककसी संके त को उनमें िे आती है। और तक यह त्रबिकु ि नीिे जड़ जगत ््् तक और मनुष्ष्य के जीिन तथ बाहा्र प्रकृ तत की िस्तुओं तक िहुंिती है तो भी यह महिर अंतदृशस्ष्ट, िपित्र छाि और आध्यास्त्मक दृस्ष्ट से सिशथा रहहत नहीं हो जाती, और अचधंकार् उिम कृ ततयों में-पिश्राम के और गोिर िदाथश के साथ पिनोदिूणश या सजीि िीड़ा के क्षणों को छोड़कर - सदा ही कोई और िीज भी होती है स्जसमें जीिन का जीितं चित्रण ऐसे तैरता रहता है जैसे कक एक अभौथ्तक िातािरण में। जीिन को आत्का में या अनंत के या िरे की ककसी िस्तु के एक संके त में देखा जा सकता है अथिा िहां कम-से-कम इन िस्तुओं का एक स्िर्श एिं प्रभाि होता है जो उसे चित्रण को रूि देने में सहायक होता है। यह बात नहीं है कक समस्त भारतीय कृ ततयों इस आदर्श को िररताथश करती है य तनःसंदेह उनमें ऐसी भी बहुत-सी है जो इस ऊं िाई तक नहीं िहुंिती, नीिे रह जाती हैं, तनष्प्रभाि या यहां तक कक पिकृ त होती है, िरंतु सिशश्रेष्ठ तथा अत्यन्त पिलर्ष्ट प्रभाि एिं कायाशस्न्ितत ही ककसी किा को अिनी रंगत देती है और इन्ही के द्िारा हमे तनणशय करना िाहहए। सि िूछो तो भारतीय किा का भी आध्यास्त्मक िक्ष्य और मूितत्ि िही है जो र्ेर्ष भारतीय संस्कृ तत का है। - श्रीअरपिन्द
  • 13. - अकबर - - - मुस्स्िम पिजय ने जो समस्या िैदा कर दी िह िास्ति में पिदेर्ी र्ासन के प्रतत अधीनता और िुनः स्ितंत्रता प्राित करने की योग्यता की नहीं बस्कक दो सभ्यताओं के िारस्िररक संघर्षश की थी। उनमें से एक थी प्रािीन और स्िेदेर्ीय, दूसरी मध्ययुगीन तथा बाहर से िायी हुई। स्जस बात ने समस्या के समाधान को दुःसाध्य बना हदया िह यह थी ककउनमें से प्रत्येक एक र्स्क्तर्ािी धमश के प्रतत आसक्त थी। उनमें से एक का धमश युद्िपप्रय और आिमणकारी था, दूसरी का आध्यास्त्मक दृस्ष्ट से तो अिश्यक ही सहहष्णु और नमनीय था िर अिने साधनाभ्यास मेंअिने लसद्धांन्त के प्रतत दृढ़तनष्ठ था और सामास्जक पिचध-पिधानों की दीिार के िीछे अिनी प्रततरक्षा करने के लिए कहटबद्ध रहता था। इसके दो समाधान समझ मेंआने योग्य थे, या तो एक ऐसे महिर आध्यास्त्मक लसद्िांत एिं रिना का उदय होता जो दोनो धमों का समन्िय कर सकती अथिा एक ऐसी राजनीततमूिक देर्भस्क्त का उदय होता जो धालमशक संघर्षश को अततिम करके दोनो जाततयों को एक कर सकती। इनमें से िहिा समाधान उस युग में संभि ही नहीं था। अकबर ने मुस्स्िम िक्ष की ओर से इसके लिये यत्न ककया, िरंतु उसका धमश एक आध्यास्त्मक रिना होने की अिेक्षा कहीं अचधक एक बौद्पिक एिं राजनीततक रिना था और उसे दोनो जाततयों के प्रबितया धालमशक मन से स्िीकृ तत प्राप्त करने का कभीकोई अिसर नहीं लमिा - - श्रीअरपिन्द -
  • 14. -
  • 15. गुरू गोपिंद लसंह लसक्खों का खािसा संप्रदाय एक ऐसी रिना था जो आश्ियशजनक रूि से मौथ्िक तथा अनूठी थी और उसकी दृस्ष्ट भूत िर नहीं भपिष्य िर िगी हुई थी। अिने धमशतांत्रत्रक नेतृत्ि तथा अिने जनतंत्रीय भािना और रिना में, अिने गंभीर आध्यास्त्मक आंरभ में तथा इस्िाम और िेंदान्त के गहनतम तत्िों को संयुक्त करने के प्रथम प्रयास में स्ितंत्र और अद्पितीय होता हुआ भी िह मानिसमाज की तीसरी या आध्यास्त्मक अिस्थ में प्रिेर् करने के लिए एक असामतयक प्रिृपि था, िंरतु िह आत्मा और बाहा्र जीिन के बीि समृद्ध सजशनक्षम पििारधारा और संस्कृ तत का एक संिारक माध्यम नहीं उत्िन्न कर सका। और इस प्रकार बाधाओं और त्रुहटयों से ग्रस्त होने के कारण िह संकीणश स्थानीय सामाओं में आंरभ हुआ और उन्होने समाप्त हो गया, उसने तीव्रता तोअचधगम को िर पिस्तार की क्षमता नहीं। उस समय िे अिस्थाएं पिद्यमान ही नहीं थी स्जनमें िह प्रयत्न सफि हो सकता। - श्रीअरपिन्द
  • 16. महात्मा गांधी तनस्ष्िय प्रततरोध की िद्ितत क्या हो सकती है ? श्री अरपिन्द इस संदभश में सकिय प्रततरोध अथिा आिामक प्रततरोध और तनस्ष्िय ििािात्मक प्रततरोध का अन्तर स्िष्ट करते हुए लिखते है- ‘‘ िहिे का उद्््देश्य र्ासन को तनस्श्ित रूि से क्षततग्रस्त करना है जबकक दूसरे का र्ासन कोककसी प्रकार की सहायता प्राप्त कर सकने से रोकना हैं इस तरह व्यािक दृस्ष्ट से उद्््देश्य करीब समान हैं, िर रास्ते लभन्न है।‘‘ तनस्ष्िय प्रततरोध का िहिा लसद्िान्त है, जनता की संगहठत र्स्क्त के असहयोग द्िारा र्ासन को िंगु बनाना य बहहष्कार, र्ासन का, पिदेर्ी सामानों का, पिदेर्ी सिा को सहायता िहुाँिाने िािी सभी कियाओं का बहहष्कार। इस बहहष्कार द्िारा हम पिदेर्ी सिा को इस गरीब देर् का तनरन्तर र्ोर्षण करते रहने से यथासंभि रोक सकते है। ‘कर मत दो‘ यह बहुत ही महत्ििूणश नारा है, स्जसे तनस्ष्िय प्रततरोध र्ीर्षश स्थान देना िाहता है। जैसा अनेक योरोिीय देर्ों में ककया गया य िर अभी हम इस कायशिम िर तुरन्त अमि नहीं करना िाहते। तनस्ष्िय प्रततरोध आन्दोिन की कु छ बाध्यताएाँ हैं, स्जनका िािन करना अतनिायश है। िहिी बाध्यता है - ‘‘ सभी अमानिीय कानूनों की अिज्ञा। ऐसे कानूनों को बदिने की प्राथशना के स्थान िर इन्हे खुिे आम तोड़ना जरूरी है। यहद पिदेर्ी सरकार हमारे कायश को गैरकानूनी करार देती है, तो भी हमें अिना कतशव्य करना है, झूठ बोिकर, कानून न तोडने की सफाई देना अिने को ितत बनाना है, अिने िौरूर्ष को कतंककत करना है। इसके िररणामस्िरूि नौकरर्ाही यहद जेि देती है तो हमें स्िेच्छा से और हममें यहद जारा भी भद्रता र्ेर्ष है तो प्रसन्नतािूशिक जेि जाना िाहहए। तनस्ष्िय प्रततरोध की एक और बाध्यता है। सर्स्त्र िास्न्त। गद्््दारी का बहुत महत्ि नही होता, क्योंकक अन्त में जो उच्िस्तरीय र्स्त्रबि है िह पिजयी होही जाता है य िरन्तु तनस्ष्िय प्रततरोध में गद्््दारी अक्षम्य है य क्योंकक ऐसी एक भी घटना यहद क्षमा
  • 17. कर दी जाती है तो भयानक रूि िे िेगी और हो सकता है िूरे आन्दोिन को तहस-नहस कर दे, इसलिए गद्््दोरों का सामास्जक बहहष्कार इस आन्दोिन की बहुत महत्ििूणश बाध्यता है। गद्दारों से सािधान रहने की िेतािनी देकर ही िे संतुष्ट नही हो गये। िे जानते थे कक आदमी की सहनर्ककत की एक सीमा है। उसे हद से ज्यादा खींिने िर या तो गद्््दारी िैदा होगी या तनस्ष्ियता हहंसा में बदि जायेगी। ऐसी स्स्थतत मेंिे गद्््दारी के नही, हहंसा के िक्ष में थे। इन स्स्थततयों को िूणशतः स्िष्ट करते हुए श्री अरपिन्द इस प्रकार के आन्दोिन की सीमा िर भी हमारा ध्यान आकृ ष्ट करते है - ‘‘ जब तक र्ासन की प्रततकिया र्ास्न्तिूणश ढंग की रहती है और िडाई के तनयमों के भीतर कायश ििने हदया जाता है, तनस्ष्िय प्रततरोध तनश्िय ही र्ान्त रहेगा। ककन्तु इससे लभन्न स्स्थत आने िर तनस्ष्ियता को एक क्षण के लिए भी तनस्ष्िय रहने की जरूरत नहीं है। अमानुपर्षक अिैधातनक अत्यािारों के आगे झुकना या समशिण कर देना, देर् की िैधातनक व्यिस्था के नाम िर अिमान और गुण्डागदी सह िेना कायशरत है और देर् के िौरूर्ष को िततत करना है, यह कायश हमारे, अिने और मातृभूलम के भीतर तनहहत देित्ि का अिमान है।