2. योग
योग योग सब करते
कोई नह ीं बताता कै से करना योग
योग के प्रकार बताते अनेक
शब्दकोष में योग का अर्ण होता-जुड़ना
कौन ककससे जुड़ रहा
क्या है दो मे सींबींध
ना करे योग, तो क्या है नुकसान?
करके योग, क्या खोया क्या पाया?
देखा इततहास भारत का तो
एक शब्द में लिखा भारत का इततहास
वो शब्द है ‘‘योग’’।
3. श्रीअरववन्द का पााँचवा सींक्प
पूछे सब योग और योगी की उपयोगगता
न पूछे कोई सत्य का मागण
यह है भौततकवाद की छाप
अींताराष्ट्र य योग ददवस के द्वार से
पुनः भारत में आ रहा ‘‘योग’’
पश्चचम से आता तो िगता है यह पूर तरह उपयोगी
योग है स्वदेशी
योग है स्वराज
योग देता आयण आदशण
योग है श्रीअरववन्द का पााँचवा सींक्प
लमिता 15 अगस्त 1947 के सींदेश में।
कक पृथ्वी के ववकास क्रम में योग की होगी अहम
भूलमका
योग मे है ववचव की समस्याओीं का समाधान
4. योग है पूर तरह आींतररक
योग सबको देता समान अवसर
नह ीं करता भेद तमस, रजस और सत में
योग करो आरम्भ ककसी भी स्तर से
योग है पूर तरह आींतररक,
जााँच कर स्वयीं का स्वधमण व स्वभाव।
स्वधमण पािन करने में अगर होता पतन,
तो भी बडी मानी जाती उस जीत से
जो जीत लमिती दूसरे के धमण की राह पर
चिने से
5. योग कहता है पहिे करो स्र्ावपत
एकता स्वींय में
शाींतत, सदभाव, समता तो अलभव्यश्क्त है
आींतररक प्रगतत की
योग कहता है पहिे करो स्र्ावपत एकता स्वींय में
तभी पाओगें मानव एकता का आदशण इस जगत
मे
देख कर अपना स्वभाव,
अपनाओीं योग-राजयोग, कमणयोग भश्क्तयोग,
ज्ञानयोग या पूर्ण योग
इस राह पर होता सभी का समन्वय
जब भी हो सींशय तो कर िो सतसींग।
6. ‘‘सारा जीवन योग है’’
कहते वेद ‘‘जानने से श्जसे,
सभी को जाना जा सके ’’
योग ह देता वो ज्ञान।
गीता में भी योग पर हुए बड़ी चचाण
श्री कृ ष्ट्र् बतिाते योग की महत्ता
स्वामी वववेकान्द भी सरि भाषा में समझाते
योग
क्रम ववकास में गतत देता योग।
श्रीअरववन्द लिखते ‘‘सारा जीवन योग है’’
7. आध्याश्त्मक समता
समता-योग है।
कायण कु शिता-योग है।
क्या योग से कमण बींधन से छु टकारा लमिता?
क्या योग से सुख दुख से लमिती मुश्क्त?
क्या योग से लमिती जन्म मृत्यु से मुश्क्त?
कमण बींधन से छु टकारा देता स्वतींत्रता का भान
सुख दुख से मुक्त हो लमिता आनन्द
सुख-दुख आते जाते, रूकते नह ीं -ववराम नह ीं,
पर योगी तो समता में रहता
योगी की समता हैं आध्याश्त्मक समता।
8. ‘‘असीम का तकण ’’
अगर नह ीं होगा जन्म, तो जीव जाएगा कहॉ?
क्या इस जगत से जाने के लिए ह योग ककया जाता
है?
इस प्रचन में है एक त्रुदट
जगत है अलभव्यश्क्त की सींभावना
रहता ‘‘वो’’ तीनो स्तर पर ‘‘एक’’ सार्
यह है ‘‘असीम का तकण ’’ बतिाते श्रीअरववन्द
जाना आना तो मात्र यह बतिाता
कक तीनों में से एक का भान ज्यादा मात्रा में,
श्जसका भान जहााँ है, ज्यादा एकग्रता वहााँ है।
इसके बबना कै से कर पाएगा व्यवहार
यह है योगी के व्यवहार को समझने का सार।
9. समश्ष्ट्ट व परात्पर
हजारो वषो से भारत कर रहा अनुसींधान
पूछ रहा स्वींय से ‘‘मै कौन हूाँ?’’
मेरे जीवन का क्या है उद्देचय?
सनातन धमण कहता ‘‘वो’’ रहता तीनो िोको में
एक सार्,
व्यश्ष्ट्ट, समश्ष्ट्ट व परात्पर
जो जाने इस को, वो ह है स्वतींत्र
‘वो’ सब में
सब ‘उस’ में
किर भी वो करता ‘‘दोनो’’ का अततक्रमर्।
10. ‘‘आत्मवान’’
आत्मा हूाँ मैं तो क्यों होता दुखी?
गीता कहती कमण नह ,ंीं अज्ञान है दुख है कारर्,
बताती कारर्- अींहकार, द्वेत, काम और अज्ञान
अींहकार से छु टकारा लमिे ‘‘आत्मवान’’ को
द्वेत का परदा हटे योग से,
काम से लमिे मुक्ती ब्रहमश्स्र्त प्रज्ञ को
अज्ञान से ज्ञान लमिे गुरू की कृ पा से,
माया से ि िा मे करे प्रवेश ‘‘उसकी’’ कृ पा से,
कमण मुक्त हो-रहता जगत में,
यह है प्रारब्ध कमो की ि िा का सार।
11. ‘‘अहम्ब्रह्माश्स्म’’
क्या मै हूाँ सचमुच स्वतींत्र?
पूछ रहा मानव प्रचन आददकाि से,
सनातन धमण ने कर घोषर्ा कह कर-
‘‘अहम्ब्रह्माश्स्म’’
लमिता जवाब इस में स्वतींत्रता का,
किर उठता प्रचन-
क्या रहस्य है? क्या उद्देचय है? इस जगत का!
वेद बताते इसका रहस्य,
तनराकार देख रहा स्वयीं को आकार में,
मौन सुन रहा स्वयीं को सृश्ष्ट्ट की अलभव्यश्क्त में,
जैसे समन्दर खेि रहा कक्रड़ा िहरों में,
‘‘वो’’ ह साक्षी, ‘‘वो’’ ह अनुमन्ता, ‘‘वो’’ ह भोक्ता
‘‘वो’’ ह भताण।
12. क्रमववकास का आनन्द
श्रीअरववन्द बताते ‘‘ददव्य जीवन’’ में
जैसे जड़ में प्रार्, प्रार् में मन,
चि रहा अलभव्यक्त का क्रम।
उसी प्रकार मन अततमन का है पदाण,
उसे होना है अलभव्यश्क्त उसका भी है क्रम।
पहिे क्रम पूर तरह र्ा प्रकृ तत के हार् में,
परन्तु अततमानस के अवतरर् में,
मानव दे सकता है अलभप्सा से सहयोग।
समपणर् के सार् गतत,
नह ीं तनभणर आगामी चेतना का अवरोहर् मानव पर,
परन्तु मानव बनकर सहयात्री ववकास क्रम में,
िे सकता है क्रमववकास का आनन्द।
13. चैत्य रूपान्तरर्, आध्याश्त्मक रूपान्तरर्
,अततमानलसक रूपान्तरर्
श्रीअरववन्द के पूर्ण योग में
बताये तीन यात्रा के स्तर
प्रर्म चैत्य रूपान्तरर्,
समझो इसको उन छात्रों से
जो रहते सींयलमत जब हो गुरू जी की उपश्स्र्तत
अनुपश्स्र्ती में करते हुडदींग, बदमाशी।
द्ववतीय आध्याश्त्मक रूपान्तरर्,
नह ीं करते हुडदींग अनुपश्स्र्तत में
पर बींधे है प्रकृ तत के तनयमों में।
उसी कारर् नह ीं होता पूर्ण रूपातरर्।
बत्रतीय -अततमानलसक रूपान्तरर्,
अततमानलसक रूपान्तरर् मे नह ीं ककसी प्रकार की वववशता,
अगर ददखती कोई कमी,
या है अवगुर् तो समझो
वो है स्वैश्छछक नह ीं कोई बेबसी।
है भागवत ि िा की आवचयकता।
चैत्य को खोजना है अपररहायण शतण पूर्ण योग मे।
उसी प्रकार अततमानलसक रूपान्तरर् से पूवण
आध्याश्त्मक रूपान्तरर् है अपररहायण शतण।
14. अततमानस के अवतरर् का प्रभाव
क्या होगा
सूयण प्रताप पूछता हमेशा अततमानस के अवतरर् का
प्रभाव क्या होगा
श्रीअरववन्द कहते जैसे वानर नह ीं
समझ सकता की मनुष्ट्य क्या है?
वह ीं वानर श्स्तगर् है आज के मानव की
जब बात करते अततमानस की।
श्रीअरववन्द बताते अततमानस का प्रभाव होगा
होगा रूपान्तरर् प्रकृ तत का
अब कु त्तें की पूींछ भी सीधी होगी।
जब कहा र्ा स्वामी वववेकानन्द ने
सींसार को बदिना कु त्ते की पूींछ को सीधा करना सा है,
श्रीअरववन्द कहते स्वामी वववेकानन्द का कर्न सह है
जब तक अततमानस का अवरोहर् नह है।
15. तनयती
तनयती पर श्रीअरववन्द ने लिखा
ददव्य तनदेशन में होते कायण
तनयती-वो अटि है,
हमें होना है सींगत ददव्य तनदेशन मे,
तो बन जाएगी हमार तनयती ददव्य, हमारे कमण
ददव्य
नह ीं तो मजबूर हो कर भी,
बैठाना होगा सुर ‘‘उससे’’,
नह ीं कोई ववक्प मानव के पास
हम कर सकते मात्र वविम्ब
सभी को माननी पडेगी उसकी योजना
क्योंकक ‘‘सारा जीवन योग है’’।
16. पूर्ण योग
पूर्ण योग में आरोहरर् व अवरोहर्
दोनो का है यह खेि तनरािा,
प्रचलित योग में करते सब आरोहरर्
और समझते उसे सवोछय िक्ष्य,
परन्तु श्रीअरववन्द कहते वो तो शुरूआत है
अवरोहरर् के बबना नह ीं ककया
जा सकता ‘‘पूर्ण योग’’।
पूर्ण योग है क्रम ववकास के सींकटकाि का योग
पूर्ण योग है अततमानस का योग
पूर्ण योग है रूपाींतरर् का योग
पूर्ण योग है भववष्ट्य का योग
पूर्ण योग है भगवान का योग
पूर्ण योग है समश्ष्ट्ट का योग
पूर्ण योग है ददव्य जीवन के आधार का योग
पूर्ण योग है ‘‘साववत्री’’ का योग
पूर्ण योग है प्रकाश से उछचतर प्रकाश की और जाने का योग।
17. भगवान का योग
जब पूछा मुमुखु ने ‘‘श्रीमॉ’’ से
क्या है उनके योग का उद्देचय?
श्री मााँ कहती पूर्ण योग है-
‘‘भगवान का योग’’
नह ीं हमार इछछा शाींतत, मोक्ष, मुश्क्त की
जो ये समझे स्पष्ट्ट रूप से
वह ीं पाए दाखखिा पूर्ण योग में।
18. समपणर्
समपणर् है प्रर्म अहणत,
समपणर् है अश्न्तम अहणत ‘‘पूर्ण योग के लिए’’
श्री अरववन्द बताते वेदों में है इसके सींके त
अततमानस का इशारा लमिता ‘‘सत्यम्ऋतम बृहद’’ में
श्री अरववन्द बतिाते मन के स्तर
श्जन पर करनी है सींक्प से लसद्धी,
करना नह ीं है इन्हें बईपास
उछचतर मन, प्रद प्त मन, अन्तभाणस, अगधमन और
अततमन
यह है उत्तोत्तर मन का क्रम।
24 नवम्बर 1926 से मनाते लसद्वव ददवस श्रीअरववन्द
आश्रम मे
कराया अवरोहर् अगधमन का श्रीअरववन्द ने
19. सुपरमेन
है अगधमन आधार आगे की यात्रा का
लिया पूर्ण एकाींतवास श्रीअरववन्द ने अब
क्योंकक अभी अततमानस का अवरोहर् शेष र्ा
5 ददसम्बर 950 को छोडी देह श्रीअरववन्द ने
श्जससे लमिे अततमानस चेतन को अवरोहर् को गतत।
29 िरवर 956 को ‘‘श्रीमााँ’’ ने की कर घोषर्ा
पृथ्वी की चेतना में अततमानस के अवरोहर् के प्रर्म
कदम ताि की।
श्रीअरववन्द का सुपरमेन होगा
नेत्से के सुपरमेन से लभन्न
क्योंकक अततमानव नह ीं करेगा कोई गिती,
नह ीं होगी त्रृदट की कोई सींभावना
कारर् ‘‘चैत्य पुरूष’’ है अततमानव का आधार।
20. व्यश्क्तत्व
उठता प्रचन ज्ञानी को
क्या होगा मेरे व्यश्क्तत्व का जब लमिेंगे ‘‘मेरे
भगवान’’?
जब होता साक्षात्कार ‘‘उससे’’
तो नह ीं होता कोई शींखनाद
नह ीं बदिती चाि कोई गचींट भी।
समझ आता खेि उसका,
स्वतींत्रता लमिती चेतना में,
रहेगा तीनो चेतना के िोको म,ंेंीं
परन्तु एकाग्रता से दूसर चेतना का भान मात्र कम
होता
यह होता आत्मसाक्षत्कार में
सनातनी यात्रा के मागण पर।
21. दहींसा और अदहींसा
ववभन्न कोष तो अलभव्यश्क्त के बनते कारर्
स्वींय तो है अमर,
किर वो मौन हो जात,ंे ज्ञान मे अज्ञान के
प्रचन,
नीरवता में दहींसा और अदहींसा के सींशय।
22. कमण लसींद्धत ,भागतव कृ पा और
भागवत करूर्ा
कमण का रहस्य है गूढ
नह ीं समझो इसको मानव चेतना के चचमे से
क्या आग बदिते अपनी प्रकृ तत साधु या
असुर को देखकर?
कमण लसींद्धत चिता अपनी राह पर,
पर भागतव कृ पा और भागवत करूर्ा का
करता सम्मान पूरा पूरा।
23. अततमानस
अततमानस है प्रर्म स्तर अलभव्यश्क्त का
जहााँ एकत्व है, सत ्गचत ्आनन्द के रूप मे
अततमानस हैः अलभव्यक्त सींसार का आधार
वहॉ ज्ञान ह कमण, है
वहा ज्ञान-इछछा में एकरूपता है।
सभी ‘‘एक’’ वह ीं, है।
स्वामी वववेकानन्द बताते मात्र चेतना की मात्रा
का िकण है
अलभव्यश्क्त मे,
गचींट और पहाड़ में चेतना मात्रा का अन्तर
और ककसी प्रकार का नह ीं भेद।
24. वासुदेव कु टुम्बकम्ब
सब पूछते कै से योग से सम्भव मानव एकता?
आयण कहता ‘‘वासुदेव कु टुम्बकम्ब’’
जो है आध्याश्त्मकता का आधार,
श्जसे करना है भारत को चररतार्ण,
यह है ववचवगुरू भारत का दातयत्व
तो िेना होगा योग का सार्,
के वि आत्मा ह समझे सारे सींसार को कु टुम्ब
आत्मवान देखता सभी में स्वयीं का स्वरूप
आत्मा ह देती अनेकता मे एकता की अनुभूतत
जो देखे सभी में स्वयीं का स्वरूप
उससे पूछते हो दहींसा-अदहींसा का भेद
युद्ध और शाींतत उसके लिए है
मात्र एक साधन, प्रगतत का।
क्या गचककत्सक काटे कें सर के भाग को
तो करता क्या वो दहींसा ?
25. पररवार
पूछते हो योगी से पररवार का प्रचन
श्जसने अपनाया सारा सींसार,
क्या उस सींसार में नह ीं उसका पररवार ?
अब गचींतन करता बडे पररवार के लिए
यह भेद नह ीं जाना अज्ञानी ने।
26. क्या शाचवत की हो सकी कभी नई
बात?
यह सन्देश है भारत का
मुत्यु से अमरता की ओर,
अज्ञान से ज्ञान की ओर,
नह ीं लिखी नई बात,
नह ीं लमिेगी नई सोच,
नह ीं सुनाई देगी नई कहानी
ये तो वह ीं पुरानी बाते है
उसी परम्परा में छोटा सा राह सूयण प्रताप
क्या शाचवत की हो सकी कभी नई बात?
क्यों सत्में ढूींडे नवीनता?
नवीनता शब्दों को गुींर्ने मात्र में है।
सत्की अलभव्यश्क्त मे है
लसद्धी व समपणर् के लिए, मानव की सहमती देने की है सार बात
प्रवीर्ता के वि सत्की अलभप्सा जगाने में।
27. ददव्य जीवन
पढ़ो मेरे श्रीअरववन्द का ‘‘ददव्य जीवन’’
पाठ करो ‘‘सववत्री’’ का
तो जानोगे की कै से
मींत्रो की होती अलभव्यश्क्त कववता म,ंे सदहत्य
में,
करते सब बात व्याश्क्त ववकास की,
व्यश्क्त तनमाणर् तो वह ीं करे
जो जाने चेतना के तीन स्तर- व्यश्ष्ट्ट, समश्ष्ट्ट
और परात्पर
वह करे सह यात्रा, बने सनातनी यात्री
सींक्प से लसद्धी की पूर्ण यात्रा, पूर्ण योग के
सार्
बाकी बस के वि बात, नह ीं श्जसमे कोई
गींभीरता।
28. अततमानस के अवरोहर् की योजना
उठा प्रचन अततमानस के अवरोहर् की योजना
का,
पहिे हो अवरोहर् एक व्यश्क्त में
या किर हो अवरोहर् समूह में
क्या होगी भूलमका एक-एक व्यश्क्त की ?
क्या होगा असर समूह पर ?
क्यों बनाया समूह जो बना आश्रम ?
करेगा समूह कै से प्रभाववत पूरे जगत को
29. पूर्ण आनन्द वो नह ीं होता
श्जसे बाींटा नह ीं जा सकता
श्रीअरववन्द कहते हमेशा
पूर्ण आनन्द वो नह ीं होता
श्जसे बाींटा नह ीं जा सकता।
पूर्ण योग में है िक्ष्य समश्ष्ट्ट का
परम्परागत योग में रहा िक्ष्य व्यश्क्त का
पूर्ण योग में बताते श्रीमााँ श्रीअरववन्द
न्यूनतम सींख्या का करना होगा रूपाींतरर्
लसिण एक से नह ीं होगा रूपाींतरर् पूर पृथ्वी का
इसमें है गहरा राज
योगी ददखता एके िा,
परन्तु है जुडा पूरे सींसार से
अतः होना है रूपाींतरर् समग्रता में
तो करना पडेगा न्यूनतम सींख्या का रूपाींतरर्त
तभी ‘‘सििता’’ लमिेगी सारे सींसार में।
30. न्यूनतम सींख्या
व्यश्क्त की है उपयोगगता।
हर व्यश्क्त को जीतना होगा एक ककिा
दो चरर्ो में
प्रर्म स्वयीं में
समश्ष्ट्ट के लिए न्यूनतम सींख्या में
तभी िाभ लमिेगा पूर पृथ्वी को
आींतररक अनुभूतत के लिए नह ीं कोई रूकावट
बाह्य अनुभूतत के लिए
व्यश्ष्ट्ट और समश्ष्ट्ट लसद्गध के मागण है अपररहायण