1. भारतीय छन्दशास
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छंद शब्द अनेक अथों मे प्रयुक्त िकया जाता है। "छंदस" विकेद का पयार्यायविकाची नाम है। सामान्यत: विकणों और
मात्राओं की गेयव्यविकस्था को छंद कहा जाता है। इसी अथर्या मे पद्य शब्द का भी प्रयोग िकया जाता है। पद्य
अिधिक व्यापक अथर्या मे प्रयुक्त होता है। भाषा मे शब्द और शब्दों मे विकणर्या तथा स्विकर रहते है। इन्हीं को एक
िनिश्चत िविकधिान से सुव्यविकिस्थत करने पर छंद का नाम िदया जाता है।
छंदशास इसिलिये अत्यंत पुष्ट शास माना जाता है क्योंिक विकह गिणत पर आधिािरत है। विकस्तुत: देखने पर
ऐसा प्रतीत होता है िक छंदशास की रचना इसिलिये की गई िजससे अिग्रिम संतित इसके िनयमों के
आधिार पर छंदरचना कर सके । छंदशास के ग्रिंथों को देखने से यह भी ज्ञात होता है िक जहाँ एक ओर
आचायर्या प्रस्तारािद के द्वारा छंदो को िविककिसत करते रहे विकहीं दूसरी ओर किविकगण अपनी ओर से छंदों मे
िकं िचत् पिरविकर्यान करते हुए नविकीन छंदों की सृष्टिष्ट करते रहे िजनका छंदशास के ग्रिथों मे कालिांतर मे समाविकेश
हो गया।
अनुक्रम
1 इितहास
2 छ्न्दशास का िविकविकेच्य िविकषय
3 छन्द के प्रकार
3.1 विकैिदक छंद
2. 3.2 लिौकिकक छंद
4 छंदों का विकगीकरण
4.1 विकिणर्याक छन्द
4.2 माित्रक छन्द
4.2.1 दोहा
4.2.2 हिरगीितका
4.2.3 गीितका
4.3 सम, िविकषम, अधिर्यासम छन्द
4.4 स्विकतंत्र छंद और िमिश्रित छंद
4.5 यित के िविकचार से छन्द
5 छन्दशास से सम्बन्धिन्धित संस्कृष्ट त ग्रिन्थ
6 इन्हे भी देखे
7 बन्धाहरी किड़ियाँ
इितहास
छंदशास की रचना कबन्ध हुई? इस संबन्धंधि मे कोई िनिश्चत िविकचार नहीं िदया जा सकता। िकं विकदंती है िक
महिषर्या विकाल्मीिक आिदकिविक है और उनका रामायण नामक काव्य आिदकाव्य है। मा िनषाद प्रितष्ठां त्विकं गम:
शाश्विकती समा: यत्क्रौंचिमथुनादेकमविकिधि:, काममोिहतं - यह अनुष्टुप छंद विकाल्मीिक के मुख से िनकलिा हुआ
प्रथम छंद है जो शोक के कारण सहसा श्लिोक के रूप मे प्रकट हुआ। यिद इस िकं विकदंती को मान िलिया
जाए, छंद की रचना पहलिे हुई और छंदशास उसके पश्चात् आया। विकाल्मीकीय रामायण मे अनुष्टुप छंद
3. का प्रयोग आद्योपांत हुआ ही है, अन्य उपजाित आिद का भी प्रयोग प्रचुर मात्रा मे प्राप्त होता है।
एक अन्य िकं विकदंती यह है िक छंदशास के आिद आिविकष्कतार्या भगविकान् शेष है। एक बन्धार गरुड़ि ने उन्हे पकड़ि
िलिया। शेष ने कहा िक हमारे पास एक अप्रितम िविकद्या है जो आप सीख लिे, तदुपरांत हमे खाएँ। गरुड़ि ने
कहा िक आप बन्धहाने बन्धनाते है और स्विकरक्षाथर्या हमे िविकभ्रिमत कर रहे है। शेष ने उत्तर िदया िक हम असत्य
भाषण नहीं करते। इसपर गरुड़ि ने स्विकीकार कर िलिया और शेष उन्हे छंदशास का उपदेश करने लिगे।
िविकिविकधि छंदों के रचनािनयम बन्धताते हुए अंत मे शेष ने "भुजंगप्रयाित" छंद का िनयम बन्धताया और शीघ्र ही
समुद्र मे प्रविकेश कर गए। गरुड़ि ने इसपर कहा िक तुमने हमे धिोखा िदया, शेष ने उत्तर िदया िक हमने जाने
के पूविकर्या आपको सूचना दे दी। चतुिभर्यामकारे भुजंगप्रयाित अथार्यात चार गणों से भुजंग प्रयात छंद बन्धनता है,
और प्रयुक्त होता है। इस प्रकार छंदशास का आिविकभार्याविक हुआ। इससे प्रतीत होता है। िक छंदशास एक
दैविकी िविकद्या के रूप मे प्रकट हुआ। इस प्रकार भी कहा जा सकता है िक इसके आिविकष्ककतार्या शेष नामक
कोई आचायर्या थे िजनके िविकषय मे इस समय कु छ िविकशेष ज्ञान और सूचना नहीं है। इसके पश्चात् कहा
जाता है िक शेष ने अविकतार लिेकर िपंगलिाचायर्या के रूप मे छंदसूत्र की रचना की, जो िपंगलिशास कहा जाता
है। यह ग्रिंथ सूत्रशैलिी मे िलिखा गया है और इस समय तक उपलिब्धि है। इसपर टीकाएँ तथा व्याख्याएँ हो
चुकी है। यही छंदशास का सविकर्याप्रथम ग्रिंथ माना जाता है। इसके पश्चात् इस शास पर संस्कृष्ट त सािहत्य मे
अनेक ग्रिंथों की रचना हुई।
छंदशास के रिचयताओं को दो श्रिेिणयों मे िविकभक्त िकया जा सकता है : एक आचायर्या श्रिेणी, जो छंदशास
का शासीय िनरूपण करती है, और दूसरी किविक श्रिेणी, जो छंदशास पर पृष्टथक् रचनाएँ प्रस्तुत करती है।
थोड़िे समय के पश्चात् एक लिेखक श्रिेणी और प्रकट हुई िजनमे ऐसे लिेखक आते है जो छंदों के
िनयमािदकों की िविकविकेचना अपनी ओर से करते है िकं तु उदाहरण दूसरे के रचे हुए तथा प्रचिलित अंशों से
उदृष्टत करते है। िहंदी मे भी छंदशास पर अनेक ग्रिंथ िलिखे गए है।
छ्न्दशास का िविकविकेच्य िविकषय
छंदशास मे मुख्य िविकविकेच्य िविकषय दो है :
4. छंदों की रचनाविविधिधि तथाव
छंद संबंधिी गणनाव िजिसमे प्रस्तावर, पतावकाव, उद्दिद्दिष, नष आदिद काव विधणरन िकयाव गयाव है। इनकी सहावयताव से
िकसी िनिश्चत संख्यावत्मक विधगों और मावत्रावओं के छंदों की पूर्णर संख्याविद काव बोधि सरलताव से हो जिावताव है।
छन्द के प्रकावर
छंद मुख्यत: दो प्रकावर के है :
विधैिदक छंद
िजिनकाव प्रयोंग विधेदों मे प्रावप्त होताव है। इनमे ह्रस्विध, दीघर, प्लुत और स्विधिरत, इन चावर प्रकावर के स्विधरों काव
िविधचावर िकयाव जिावताव है, यथाव "अनुषुप" इत्याविद। विधैिदक छंद अपौरुषेय मावने जिावते है।
लौिकक छंद
इनकाव प्रयोग सावहत्यावंतगरत िकयाव जिावताव है, िकं तु विधस्तुत: लौिकक छंद विधे छंद है िजिनकाव प्रचावर सावमावन्य
लोक अथविधाव जिनसमुदावय मे रहताव है। ये छंद िकसी िनिश्चत िनयम पर आदधिाविरत न होकर िविधशेषत: तावल
और लय पर ही आदधिाविरत रहते है, इसिलये इनकी रचनाव सावमावन्य अपिठित जिन भी कर लेते है। लौिकक
छंदों से तावत्पयर होताव है उद्दन छंदों से िजिनकी रचनाव िनिश्चत िनयमों के आदधिावर पर होती है और िजिनकाव
प्रयोग सुपिठित किविध कावव्याविद रचनाव मे करते है। इन लौिकक छंदों के रचनाव-िविधिधि-संबंधिी िनयम
सुव्यविधिस्थत रूप से िजिस शावस्त्र मे रखे गए है उद्दसे छंदशावस्त्र कहते है।
छंदों काव विधगीकरण
5. छंदों काव िविधभावजिन विधणों और मावत्रावओं के आदधिावर पर िकयाव गयाव है। छंद प्रथमत: दो प्रकावर के मावने गए है :
विधिणरक और मावित्रक ।
विधिणरक छन्द
इनमे विधृत्तों की संख्याव िनिश्चत रहती है। इसके दो भी प्रकावर है- गणावत्मक और अगणावत्मक।
गणावत्मक विधिणंक छंदों को विधृत्त भी कहते है। इनकी रचनाव तीन लघु और दीघर गणों से बने हुए गणों के
आदधिावर पर होती है। लघु तथाव दीघर के िविधचावर से यिद विधणों क प्रस्तावरव्यविधस्थाव की जिावए आदठि रूप बनते
है। इन्हीं को "आदठि गण" कहते है इनमे भ, न, म, य शुभ गण मावने गए है और जि, र, स, त अशुभ मावने गए
है। विधावक्य के आदिद मे प्रथम चावर गणों काव प्रयोग उद्दिचत है, अंितम चावर काव प्रयोग िनिषद्ध है। यिद अशुभ
गणों से प्रावरंभ होनेविधावले छंद काव ही प्रयोग करनाव है, देविधतावविधावची याव मंगलविधावची विधणर अथविधाव शब्द काव प्रयोग
प्रथम करनाव चाविहए - इससे गणदोष दूर्र हो जिावताव है। इन गणों मे परस्पर िमत्र, शत्रु और उद्ददावसीन भावविध
मावनाव गयाव है। छंद के आदिद मे दो गणों काव मेल मावनाव गयाव है। विधणों के लघु एविधं दीघर मावनने काव भी िनयम
है। लघु स्विधर अथविधाव एक मावत्रावविधावले विधणर लघु अथविधाव ह्रस्विध मावने गए और इसमे एक मावत्राव मावनी गई है। दीघर
स्विधरों से युक्त संयुक्त विधणों से पूर्विधर काव लघु विधणर भी िविधसगर युक्त और अनुस्विधावर विधणर तथाव छंद काव विधणर दीघर
मावनाव जिावताव है।
अगणावत्मक विधिणरक विधृत्त विधे है िजिनमे गणों काव िविधचावर नहीं रखाव जिावताव, के विधल विधणों की िनिश्चत संख्याव काव
िविधचावर रहताव है िविधशेष मावित्रक छंदों मे के विधल मावत्रावओं काव ही िनिश्चत िविधचावर रहताव है और यह एक िविधशेष
लय अथविधाव गित (पावठिप्रविधावह अथविधाव पावठिपद्धित) पर आदधिाविरत रहते है। इसिलये ये छंद लयप्रधिावन होते है।
मावित्रक छन्द
संस्कृ त मे अिधिकतर विधिणरक छन्दो काव ही ज्ञावन करावयाव जिावताव है; मावित्रक छन्दों काव कम ।
6. दोहाव
संस्कृ त मे इस काव नावम 'दोहिडिकाव' छन्द है । इसके िविधषम चरणों मे तेरह-तेरह और सम चरणों मे ग्यावरह-
ग्यावरह मावत्रावएँ होती है । िविधषम चरणों के आदिद मे ।ऽ । (जिगण) इस प्रकावर काव मावत्राव-क्रम नहीं होनाव चाविहए
और अंत मे गुरु और लघु (ऽ ।) विधणर होने चाविहए । सम चरणों की तुक आदपस मे िमलनी चाविहए । जिैसे:
।ऽ ।ऽ । । ऽ । ऽ ऽऽ ऽ ऽऽ ।
महद्धनं यिद ते भविधेत्, दीनेभ्यस्तद्दिेिह ।
िविधधिेिह कमर सदाव शुभं, शुभं फलं त्विधं प्रेिह ॥
इस दोहे को पहली पंिक्त मे िविधषम और सम दोनों चरणों पर मावत्राविचह्न लगाव िदए है । इसी प्रकावर दूर्सरी
पंिक्त मे भी आदप दोनों चरणों पर ये िचह्न लगाव सकते है । अतः दोहाव एक अधिरसम मावित्रक छन्द है ।
हिरगीितकाव
हिरगीितकाव छन्द मे प्रत्येक चरण मे 28 मावत्रावएँ होती है और अन्त मे लघु और िफर गुरु विधणर अविधश्य होनाव
चाविहए । इसमे यित 16 तथाव 12 मावत्रावओं के बावद होती है; जिैसे
। । ऽ । ऽ ऽ ऽ ।ऽ । ।ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ
मम मावतृभूर्िमः भावरतं धिनधिावन्यपूर्णर स्यावत् सदाव ।
नग्नो न क्षुिधितो कोऽिप स्याविदह विधधिरतावं सुख-सन्तितः ।
स्युज्ञावरिननो गुणशाविलनो हुपकावर-िनरताव मावनविधः,
7. अपकारकतार्ता कोऽपिप न स्याद् दुष्टवृत्तित्तिर्दार्दांवः ॥
गीतितका
इस छन्द मे प्रत्येक चरण मे छब्बीतस मात्राएँ होतीत है और 14 तथा 12 मात्राओं के बाद यित होतीत है ।
जैसे:
ऽप । ऽप ॥ ऽप । ऽप ऽप ऽप । ऽप ऽप ऽप । ऽप
हे दयामय दीतनबन्धो, प्राथर्ताना मे श्रूयतां
यच्च दुिरतं दीतनबन्धो, पूणर्तातो व्यपनीतयताम् ।
चञ्चलािन मम चेिन्द्रियािण, मानसं मे पूयतां
शरणं याचेऽपहं सदा िह, सेवकोऽपस्म्यनुगृत्तह्यताम् ॥
सम, िवषम, अधर्तासम छन्द
छंदों का िवभाजन मात्राओं और वणों की चरण-भेद-संबंधीत िविभन्न संख्याओं पर आधािरत है। इस प्रकार
छंद सम, िवषम, अधर्तासम होते है। सम छंदों मे छंद के चारों चरणों मे वणर्तास्वरसंख्या समान रहतीत है।
अधर्तासम मे प्रथम, तृत्ततीतय और िद्वितीतय तथा चतुथर्ता मे वणर्तास्वर संख्या समान रहतीत है। िवषम छंद के चारों
चरणों मे वणों एवं स्वरों की संख्या असमान रहतीत है। ये वणर्ता परस्पर पृत्तथक् होते है वणों और मात्राओं की
कु छ िनिश्चत संख्या के पश्चात् बहुसंख्यक वणों औ स्वरों से युक्त छंद दंडक कहे जाते है। इनकी संख्या
बहुत अिधक है।
स्वतंत्र छंद और िमिश्रत छंद
छंदो का िवभाजन िफिर अन्य प्रकार से भीत िकया जा सकता है। स्वतंत्र छंद और िमिश्रत छंद। स्वतंत्र छंद
8. एक हीत छंद िवशेष िनयम से रचा हुआ रहता है।
िमिश्रत छंद दो प्रकार के है :
1. िजनमे दो छंदों के चरण एक दूसरे से िमला िदए जाते है। प्राय: ये अलग-अलग जान पड़ते है िकं तु
कभीत-कभीत नहीं भीत जान पड़ते।
2. िजनमे दो स्वतंत्र छंद स्थान-स्थान पर रखे जाते है और कभीत उनके िमलाने का प्रयत्न िकया जाता है,
जैसे कुं डिलया छंद एक दोहा और चार पद रोला के िमलाने से बनता है।
दोहा और रोला के िमलाने से दोहे के चतुथर्ता चरण की आवृत्तित्तिर् उसके प्रथम चरण के आिद मे की जातीत है
और दोहे के प्रारंिभक कु छ शब्द रोले के अंत मे रखे जाते है। दूसरे प्रकार का िमिश्रत छंद है "छप्पय"
िजसमे चार चरण रोला के देकर दो उल्लाला के िदए जाते है। इसीतिलये इसे षट्पदीत अथवा छप्पय (छप्पद)
कहा जाता है।
इनके देखने से यह ज्ञात होता है िक छंदों का िवकास न के वल प्रस्तार के आधार पर हीत हुआ है वरन्
किवयों के द्विारा छंद-िमश्रण-िविध के आधार पर भीत हुआ है। इसीत प्रकार कु छ छंद िकसीत एक छंद के
िवलोम रूप के भाव से आए है जैसे दोहे का िवलोम सोरठा है। ऐसा प्रतीतत होता है िक किवयों ने बहुधा
इसीत एक छंद मे दो एक वणर्ता अथवा मात्रा बढ़ा घटाकर भीत छंद मे रूपांतर कर नया छंद बनाया है। यह
छंद प्रस्तार के अंतगर्तात आ सकता है।
यित के िवचार से छन्द
लघु छंदों को छोड़कर बड़े छंदों का एक चरण जब एक बार मे पूरा नहीं पढ़ा जा सकता, उसमे रचना के
9. रुकने का स्थान िनधार्तािरत िकया जाता है। इस िवरामस्थल को यित कहते है। यित के िवचार से छंद िफिर
दो प्रकार के हो जाते है।
1- यत्यात्मक िजनमे कु छ िनिश्चत वणों या मात्राओं पर यित रखीत जातीत है। यह छंद प्राय: दीतघार्ताकारीत होते
है जैसे दोहा, किवत्तिर् आिद।
2- अयत्यात्मकिजन छंदों मे चौपाई, द्रिुत, िवलंिबत जैसे छंद आते है। यित का िवचार करते हुए गणात्मक
वृत्तत्तिर्ों मे गणों के बीतच मे भीत यित रखीत गई है जैसे मािलनीत। इससे स्पष्ट है िक यित का उद्देश्य के वल रचना
को कु छ िवश्राम देना हीत है।
छंद मे संगीतत तत्व द्विारा लािलत्य का पूरा िवचार रखा गया है। प्राय: सभीत छंद िकसीत न िकसीत रूप मे गेय
हो जाते है। राग और रािगनीतवाले सभीत पद छंदों मे नहीं कहे जा सकते। इसीत िलये "गीतित" नाम से
कितपय पद रचे जाते है। प्राय: संगीततात्मक पदों मे स्वर के आरोह तथा अवरोह मे बहुधा लघु वणर्ता को
दीतघर्ता, दीतघर्ता को लघु और अल्प लघु भीत कर िलया जाता है। कभीत कभीत िहंदीत के छंदों मे दीतघर्ता ए और ओ
जैसे स्वरों के लघु रूपों का प्रयोग िकया जाता है
10. रुकने का स्थान िनधार्धारिरित िकया जाता है। इस िविरिामस्थल को यित कहते है। यित के िविचारि से छंद िफिरि
दो प्रकारि के हो जाते है।
1- यत्यात्मक िजनमे कु छ िनिश्चत विणों या मात्राओं परि यित रिखी जाती है। यह छंद प्राय: दीघार्धारकारिी होते
है जैसे दोहा, किवित्त आदिद।
2- अयत्यात्मकिजन छंदों मे चौपाई, द्रुत, िविलंिबित जैसे छंद आदते है। यित का िविचारि करिते हुए गणात्मक
विृत्तों मे गणों के बिीच मे भी यित रिखी गई है जैसे मािलनी। इससे स्पष्ट है िक यित का उद्देश्य के विल रिचना
को कु छ िविश्राम देना ही है।
छंद मे संगीत तत्वि द्वारिा लािलत्य का पूरिा िविचारि रिखा गया है। प्राय: सभी छंद िकसी न िकसी रूप मे गेय
हो जाते है। रिाग औरि रिािगनीविाले सभी पद छंदों मे नहीं कहे जा सकते। इसी िलये "गीित" नाम से
कितपय पद रिचे जाते है। प्राय: संगीतात्मक पदों मे स्विरि के आदरिोह तथा अविरिोह मे बिहुधा लघु विणर्धार को
दीघर्धार, दीघर्धार को लघु औरि अल्प लघु भी करि िलया जाता है। कभी कभी िहंदी के छंदों मे दीघर्धार ए औरि ओ
जैसे स्विरिों के लघु रूपों का प्रयोग िकया जाता है