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अलंकार
अलंकार अलंकृ ति ; अलंकार : अलम ् अर्ााि ् भूषण। जो भूषषि करे वह अलंकार है।
अलंकार, कषविा-काममनी के सौन्दर्ा को बढाने वाले ित्व होिे हैं। जजस प्रकार
आभूषण से नारी का लावण्र् बढ जािा है, उसी प्रकार अलंकार से कषविा की शोभा
बढ जािी है। कहा गर्ा है - अलंकरोति इति अलंकारः (जो अलंकृ ि करिा है, वही
अलंकार है।) भारिीर् साहहत्र् में नुप्रास, उपमा, रूपक, अनन्वर्, र्मक, श्लेष,
उत्प्रेक्षा, संदेह, अतिशर्ोजति, वक्रोजति आहद प्रमुख अलंकार हैं।
इस कारण व्र्ुत्पषि से उपमा आहद अलंकार कहलािे हैं। उपमा आहद के मलए अलंकार
शब्द का संकु चिि अर्ा में प्रर्ोग ककर्ा गर्ा है। व्र्ापक रूप में सौंदर्ा मात्र को
अलंकार कहिे हैं और उसी से काव्र् ग्रहण ककर्ा जािा है। (काव्र्ं ग्राह्ममलंकाराि ्।
सौंदर्ामलंकार: - वामन)। िारुत्व को भी अलंकार कहिे हैं। (टीका,
व्र्जतिषववेक)।भामह के षविार से वक्रार्ाषवजाएक शब्दोजति अर्वा शब्दार्ावैचित्र्र् का
नाम अलंकार है (वक्रामभधेिशब्दोजतिररष्टा वािामलं-कृ ति:।) रुद्रट अमभधानप्रकारषवशेष
को ही अलंकार कहिे हैं (अमभधानप्रकाशषवशेषा एव िालंकारा:)। दंडी के मलए अलंकार
काव्र् के शोभाकर धमा हैं (काव्र्शोभाकरान् धमाान् अलंकारान् प्रिक्षिे)। सौंदर्ा,
िारुत्व, काव्र्शोभाकर धमा इन िीन रूपों में अलंकार शब्द का प्रर्ोग व्र्ापक अर्ा में
हुआ है और शेष में शब्द िर्ा अर्ा के अनुप्रासोपमाहद अलंकारों के संकु चिि अर्ा में।
एक में अलंकार काव्र् के प्राणभूि ित्व के रूप में ग्रहीि हैं और दूसरे में
सुसजजजिकिाा के रूप में।
आधार
सामान्र्ि: कर्नीर् वस्िु को अच्छे से अच्छे रूप में अमभव्र्जति देने के षविार से अलंकार
प्रर्ुति होिे हैं। इनके द्वारा र्ा िो भावों को उत्कषा प्रदान ककर्ा जािा है र्ा रूप, गुण,
िर्ा कक्रर्ा का अचधक िीव्र अनुभव करार्ा जािा है। अि: मन का ओज ही अलंकारों का
वास्िषवक कारण है। रुचिभेद आएँबर और िमत्कारषप्रर् व्र्जति शब्दालंकारों का और भावुक
व्र्जति अर्ाालंकारों का प्रर्ोग करिा है। शब्दालंकारों के प्रर्ोग में पुररुजति, प्रर्त्नलाघव
िर्ा उच्िारण र्ा ध्वतनसाम्र् मुख्र् आधारभूि मसद्धांि माने जािे हैं और पुनरुजति को ही
आवृषि कहकर इसके वणा, शब्द िर्ा पद के क्रम से िीन भेद माने जािे हैं, जजनमें क्रमश:
अनुप्रास और छेक एवं र्मक, पररुतिावदाभास िर्ा लाटानुप्रास को ग्रहण ककर्ा जािा है।
वृत्र्नुप्रास प्रर्त्नलाघव का उदाहरण है। वृषिर्ों और रीतिर्ों का आषवष्कर इसी प्रर्त्नलाघव
के कारण होिा है। श्रुत्र्नुप्रास में ध्वतनसाम्र् स्पष्ट है ही। इन प्रवृषिर्ों के अतिररति
चित्रालंकारों की रिना में कौिूहलषप्रर्िा, वक्रोजति, अन्र्ोजति िर्ा षवभावनाहद अर्ाालंकारों
की रिना मं वैचित्र्र् में आनंद मानने की वृषि कार्ारि रहिी हैं। भावामभव्र्ंजन,
न्र्ूनाचधकाररणी िर्ा िका ना नामक मनोवृषिर्ों के आधार पर अर्ाालंकारों का गठन होिा है।
ज्ञान के सभी क्षेत्रों में अलंकारें की सामग्री ली जािी है, जैसे व्र्ाकरण के आधार पर
कक्रर्ामूलक भाषवक और षवशेष्र्-षवशेषण-मूलक अलंकारों का प्रर्ोग होिा है। मनोषवज्ञान से
स्मरण, भ्रम, संदेह िर्ा उत्प्रेक्षा की सामग्री ली जािी है, दशान से कार्ा-कारण-संबंधी
असंगति, हेिु िर्ा प्रमाण आहद अलंकार मलए जािे हैं और न्र्ार्शास्त्र के क्रमश:
वातर्न्र्ार्, िका न्र्ार् िर्ा लोकन्र्ार् भेद करके अनेक अलंकार गहठि होिे हैं। उपमा जैसे
कु छ अलंकार भौतिक षवज्ञान से संबंचधि हैं और रसालंकार, भावालंकार िर्ा कक्रर्ािािुरीवाले
अलंकार नाट्र्शास्त्र से ग्रहण ककए जािे हैं।
स्र्ान और महत्व
आिार्ों ने काव्र्शरीर, उसके तनत्र्धमा िर्ा बहहरंग उपकारक का षविार करिे हुए
काव्र् में अलंकार के स्र्ान और महत्व का व्र्ाख्र्ान ककर्ा है। इस संबंध में इनका
षविार, गुण, रस, ध्वतन िर्ा स्वर्ं के प्रसंग में ककर्ा जािा है। शोभास्रष्टा के रूप में
अलंकार स्वर्ं अलंकार्ा ही मान मलए जािे हैं और शोभा के वृद्चधकारक के रूप में वे
आभूषण के समान उपकारक मात्र माने जािे हैं। पहले रूप में वे काव्र् के तनत्र्धमा
और दूसरे रूप में वे अतनत्र्धमा कहलािे हैं। इस प्रकार के षविारों से अलंकारशास्त्र में
दो पक्षों की नींव पड़ गई। एक पक्ष ने, जो रस को ही काव्र् की आत्मा मानिा है,
अलंकारों को गौण मानकर उन्हें अजस्र्रधमा माना और दूसरे पक्ष ने उन्हें गुणों के
स्र्ान पर तनत्र्धमा स्वीकार कर मलर्ा। काव्र् के शरीर की कल्पना करके उनका
तनरूपण ककर्ा जाने लगा। आिार्ा वामन ने व्र्ापक अर्ा को ग्रहण करिे हुए संकीणा
अर्ा की ििाा के समर् अलंकारों को काव्र् का शोभाकार धमा न मानकर उन्हें के वल
गुणों में अतिशर्िा लानेवाला हेिु माना (काव्र्शोभार्ा: किाारो धमाा गुणा:।
िदतिशर्हेिवस्त्वलंकारा:।-का. सू.)। आिार्ा आनंदवधान ने इन्हें काव्र्शरीर पर
कटककुं डल आहद के सदृश मात्र माना है। (िमर्ामवलंबिे र्े%ङिगनं िे गुणा: स्मृिा:।
अंगाचश्रिास्त्वलंकारा मन्िव्र्ा: कटकाहदवि्। -ध्वन्र्ालोक)। आिार्ा मम्मट ने गुणों को
शौर्ााहदक अंगी धमों के समान िर्ा अलंकारों को उन गुणों का अंगद्वारा से उपकार
करनेवाला बिाकर उन्हीं का अनुसरण ककर्ा है (र्े रसस्र्ांचगनी धमाा: शौर्ादर्
इवात्मन:। उत्कषाहेिवस्िेस्र्ुरिलजस्र्िर्ो गुणा: ।। उपकु वंति िे संिं र्े%िगद्वारेण
जािुचिि्। हाराहदवदलंकारास्िे%नुप्रासोपमादर्:।) उन्होंने गुणों को तनत्र् िर्ा अलंकारों
को अतनत्र् मानकर काव्र् में उनके न रहने पर भी कोई हातन नहीं मानी (िददोषौ
शब्दार्ौ सगुणावनलंकृ िी पुन: तवाषप-का.प्र.)। आिार्ा हेमिंद्र िर्ा आिार्ा षवश्वनार्
दोनों ने उन्हें अंगाचश्रि ही माना है। हेमिंद्र ने िो "अंगाचश्रिास्त्वलंकारा:" कहा ही है
और षवश्वनार् ने उन्हें अजस्र्र धमा बिकर काव्र् में गुणों के समान आवश्र्क नहीं
माना है (शब्दार्ार्ोरजस्र्रा र्े धमाा: शोभातिशतर्न:।
रसादीनुपकु वंिो%लंकारास्िे%िगदाहदवि्।--सा.द्र.)। इसी प्रकार र्द्र्षप अजननपुराणकार
ने "वानवैधनध्र्प्रधाने%षप रसएवात्रजीषविम ्" कहकर काव्र् में रस की प्रधानिा स्वीकार
की है, िर्ाषप अलंकारों को तनिांि अनावश्र्क न मानकर उन्हें शोभातिशार्ी कारण
मान मलर्ा है (अर्ाालंकाररहहिा षवधवेव सरस्विी)।
इन मिों के षवरोध में 13वीं शिी में जर्देव ने अलंकारों को काव्र्धमा के रूप में
प्रतिजष्ठि करिे हुए उन्हें अतनवार्ा स्र्ान हदर्ा है। जो व्र्जति अजनन में उष्णिा न
मानिा हो, उसी की बुद्चधवाला व्र्जति वह होगा जो काव्र् में अलंकार न मानिा हो।
अलंकार काव्र् के तनत्र्धमा हैं (अंगीकरोति र्: काव्र्ं शब्दार्ाावनलंकृ िी। असौ न
मन्र्िे कस्मादनुष्णमनलं कृ िी ।-िंद्रालोक)।
इस षववाद के रहिे हुए भी आनंदवधान जैसे समन्वर्वाहदर्ों ने अलंकारों का महत्व
प्रतिपाहदि करिे हुए उन्हें आंिर मानने में हहिक नहीं हदखाई है। रसों को अमभव्र्ंजना
वाच्र्षवशेष से ही होिी है और वाच्र्षवशेष के प्रतिपादक शब्दों से रसाहद के प्रकाशक
अलंकार, रूपक आहद भी वाच्र्षवशेष ही हैं, अिएव उन्हें अंिरंग रसाहद ही मानना
िाहहए। बहहरंगिा के वल प्रर्त्नसाध्र् र्मक आहद के संबंध में मानी जाएगी (र्िो रसा
वाच्र्षवशेषैरेवाक्षेप्िव्र्ा:। िस्मान्न िेषां बहहरंगत्वं रसामभव्र्तिौ। र्मकदुष्करमागेषु िु
िि् जस्र्िमेव।-ध्वन्र्ालोक)।
बन जाएँगे। जैसे खेलिा हुआ बालक राजा का रूप बनाकर अपने को सिमुि राजा ही
समझिा है और उसके सार्ी भी उसे वैसा ही समझिे हैं, वैसे ही रस के पोषक अलंकार
भी प्रधान हो सकिे हैं (सुकषव: षवदनधपुरंध्रीवि् भूषणं र्द्र्षप जश्लष्टं र्ोजर्ति, िर्ाषप
शरीरिापषिरेवास्र् कष्टसंपाद्र्ा, कुं कु मपीतिकार्ा इव। बालक्रीडार्ामषप
राजत्वममवेत्र्ममुमर्ं मनमस कृ त्वाह।-लोिन)।
वामन से पहले के आिार्ों ने अलंकार िर्ा गुणों में भेद नहीं माना है। भामह
"भाषवक" अलंकार के मलए गुण शब्द का प्रर्ोग करिे हैं। दंडी दोनों के मलए "मागा"
शब्द का प्रर्ोग करिे हैं और र्हद अजननपुराणकार काव्र् में अनुपम शोभा के आजाएक
को गुण मानिे हैं (र्: काव्र्े महिीं छार्ामनुगृह् णात्र्सौ गुण:) िो दंडी भी काव्र् के
शोभाकर धमा को अलंकार की संज्ञा देिे हैं। वामन ने ही गुणों की उपमा र्ुविी के
सहज सौंदर्ा से और शालीनिा आहद उसके सहज गुणों से देकर गुणरहहि ककं िु
अलंकारमर्ी रिना काव्र् नहीं माना है। इसी के पश्िाि् इस प्रकार के षववेिन की
परंपरा प्रिमलि हुई।
अमभनवगुप्ि के षविार से भी र्द्र्षप रसहीन काव्र् में अलंकारों की र्ोजना करना शव
को सजाने के समान है (िर्ाहह अिेिनं शवशरीरं कुं डलाद्र्ुपेिमषप न भाति,
अलंकार्ास्र्ाभावाि्-लोिन), िर्ाषप र्हद उनका प्रर्ोग अलंकार्ा सहार्क के रूप में ककर्ा
जाएगा िो वे कटकवि् न रहकर कुं कु म के समान शरीर को सुख और सौंदर्ा प्रदान
करिे हुए अद्भुि सौंदर्ा से मंङडि करेंगे; र्हाँ िक कक वे काव्र्ात्मा ही
वगीकरण
ध्वन्र्ालोक में "अनन्िा हह वाजनवकल्पा:" कहकर अलंकारों की अगणेर्िा की ओर
संके ि ककर्ा गर्ा है। दंडी ने "िे िाद्र्ाषप षवकल्प्र्ंिे" कहकर इनकी तनत्र् संख्र्वृद्चध
का ही तनदेश ककर्ा है। िर्ाषप षविारकों ने अलंकारों को शब्दालंकार, अर्ाालंकार,
रसालंकार, भावालंकार, ममश्रालंकार, उभर्ालंकार िर्ा संसृजष्ट और संकर नामक भेदों में
बाँटा है। इनमें प्रमुख शब्द िर्ा अर्ा के आचश्रि अलंकार हैं। र्ह षवभाग
अन्वर्व्र्तिरेक के आधार पर ककर्ा जािा है। जब ककसी शब्द के पर्ाार्वािी का प्रर्ोग
करने से पंजति में ध्वतन का वही िारुत्व न रहे िब मूल शब्द के प्रर्ोग में शब्दालंकार
होिा है और जब शब्द के पर्ाार्वािी के प्रर्ोग से भी अर्ा की िारुिा में अंिर न
आिा हो िब अर्ाालंकार होिा है। सादृश्र् आहद को अलंकारों के मूल में पाकर पहले
पहले उद्भट ने षवषर्ानुसार, कु ल 44 अलंकारों को छह वगों में षवभाजजि ककर्ा र्ा,
ककं िु इनसे अलंकारों के षवकास की मभन्न अवस्र्ाओं पर प्रकाश पड़ने की अपेक्षा मभझ
प्रवृषिर्ों का ही पिा िलिा है। वैज्ञातनक वगीकरण की दृजष्ट से िो रुद्रट ने ही पहली
बार सफलिा प्राप्ि की है। उन्होंने वास्िव, औपम्र्, अतिशर् और श्लेष को आधार
मानकर उनके िार वगा ककए हैं। वस्िु के स्वरूप का वणान वास्िव है। इसके अंिगाि
23 अलंकार आिे हैं। ककसी वस्िु के स्वरूप की ककसी अप्रस्िुि से िुलना करके
स्पष्टिापूवाक उसे उपजस्र्ि करने पर औपम्र्मूलक 21 अलंकार माने जािे हैं। अर्ा
िर्ा धमा के तनर्मों के षवपर्ार् में अतिशर्मूलक 12 अलंकार और अनेक अर्ोंवाले
पदों से एक ही अर्ा का बोध करानेवाले श्लेषमूलक 10 अलंकार होिे हैं।
षवभाजन
अलंकार के मुख्र्ि: भेद माने जािे हैं--शब्दालंकार, अर्ाालंकार िर्ा उभर्ालंकार। शब्द
के पररवृषिसह स्र्लों में अर्ाालंकार और शब्दों की पररवृषि न सहनेवाले स्र्लों में
शब्दालंकार की षवमशष्टिा रहने पर उभर्ालंकार होिा है। अलंकारों की जस्र्ति दो रूपें
में हो सकिी है--के वल रूप और ममचश्रि रूप। ममश्रण की द्षवषवधिा के कारण "संकर"
िर्ा "संसृजष्ट" अलंकारों का उदर् होिा है। शब्दालंकारों में अनुप्रास, र्मक िर्ा
वक्रोजति की प्रमुखिा है। अर्ाालंकारों की संख्र्ा लगभग एक सौ पिीस िक पहुँि गई
है।
सब अर्ाालंकारों की मूलभूि षवशेषिाओं को ध्र्ान में रखकर आिार्ों ने इन्हें मुख्र्ि:
पांि वगों में षवभाजजि ककर्ा है :
1. सादृश्र्मूलक-उपमा, रूपक आहद;
2. षवरोधमूलक-षवषर्, षवरोधभास आहद;
3. श्रृंखलाबंध--सार, एकावली आहद;
4. िका , वातर्, लोकन्र्ार्मूलक काव्र्मलंग, र्र्ासंख्र् आहद;
5. गूढार्ाप्रिीतिमूलक-सूक्ष्म, षपहहि, गूढोजति आहद।
उपमा अलंकार
काव्र् में जब ककसी प्रमसद्ध व्र्जति र्ा वस्िु की समिा दूसरे समान गुण वाले व्र्जति र्ा वस्िु
से की जािी है िब उपमा अलंकार होिा है। उदाहरण -
पीपर पाि सररस मन डोला ।
राधा बदन िन्द्र सो सुन्दर।
अतिशर्ोजति अलंकार
अतिशर्ोजति = अतिशर् + उजति = बढा-िढाकर कहना । जब ककसी बाि को बढा िढा कर
बिार्ा जार्े, िब
हनुमान की पूँछ में, लग न पार्ी आग।
लंका सारी जल गई, गए तनशािर भाग।।
षवभावना अलंकार
जहाँ कारण के न होिे हुए भी कार्ा का होना पार्ा जािा है, वहाँ षवभावना अलंकार होिा है।
उदाहरण -
बबनु पग िलै सुनै बबनु काना।
कर बबनु कमा करै षवचध नाना।
आनन रहहि सकल रस भोगी।
बबनु वाणी वतिा बड़ जोगी।
र्मक अलंकार
जब एक शब्द का प्रर्ोग दो बार होिा है और दोनों बार उसके अर्ा अलग-अलग होिे हैं
िब र्मक अलंकार होिा है। उदाहरण -
१ ऊँ िे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी, ऊँ िे घोर मन्दर के अन्दर रहािी हैं।
(र्हाँ पर मन्दर के अर्ा हैं अट्टामलका और गुफा।)
अनुप्रास अलंकार
वणों की आवृषि को अनुप्रास कहिे हैं। उदाहरण -
िारु िन्द्र की िंिल ककरणें,
खेल रहीं र्ीं जल-र्ल में।
स्वच्छ िाँदनी बबछी हुई र्ी,
अवतन और अम्बरिल में॥
जब ककसी शब्द का प्रर्ोग एक बार ही ककर्ा जािा है पर उसके एक से
अचधक अर्ा तनकलिे हैं िब श्लेष अलंकार होिा है। उदाहरण -
रहहमन पानी राखखर्े,बबन पानी सब सून। पानी गर्े न ऊबरै, मोिी मानुष िून।
र्हां पानी शब्द का प्रर्ोग र्द्र्षप िीन बार ककर्ा गर्ा है, ककन्िु दूसरी पंजति में प्रर्ुति
एक ही पानी शब्द के िीन षवमभन्न अर्ा हैं - मोिी के मलर्े पानी का अर्ा िमक, मनुष्र्
के मलर्े इजजि (सम्मान) और िूने के मलर्े पानी (जल) है। अिः र्हाँ श्लेष अलंकार है।
२ कनक-कनक िे सौ गुनी मादकिा अचधकार्, र्ा खार्े बौरार् जग, वा पार्े बौरार्।
(र्हाँ पर कनक के अर्ा हैं धिूरा और सोना।)
श्लेष अलंकार
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  • 2. अलंकार अलंकार अलंकृ ति ; अलंकार : अलम ् अर्ााि ् भूषण। जो भूषषि करे वह अलंकार है। अलंकार, कषविा-काममनी के सौन्दर्ा को बढाने वाले ित्व होिे हैं। जजस प्रकार आभूषण से नारी का लावण्र् बढ जािा है, उसी प्रकार अलंकार से कषविा की शोभा बढ जािी है। कहा गर्ा है - अलंकरोति इति अलंकारः (जो अलंकृ ि करिा है, वही अलंकार है।) भारिीर् साहहत्र् में नुप्रास, उपमा, रूपक, अनन्वर्, र्मक, श्लेष, उत्प्रेक्षा, संदेह, अतिशर्ोजति, वक्रोजति आहद प्रमुख अलंकार हैं। इस कारण व्र्ुत्पषि से उपमा आहद अलंकार कहलािे हैं। उपमा आहद के मलए अलंकार शब्द का संकु चिि अर्ा में प्रर्ोग ककर्ा गर्ा है। व्र्ापक रूप में सौंदर्ा मात्र को अलंकार कहिे हैं और उसी से काव्र् ग्रहण ककर्ा जािा है। (काव्र्ं ग्राह्ममलंकाराि ्। सौंदर्ामलंकार: - वामन)। िारुत्व को भी अलंकार कहिे हैं। (टीका, व्र्जतिषववेक)।भामह के षविार से वक्रार्ाषवजाएक शब्दोजति अर्वा शब्दार्ावैचित्र्र् का नाम अलंकार है (वक्रामभधेिशब्दोजतिररष्टा वािामलं-कृ ति:।) रुद्रट अमभधानप्रकारषवशेष को ही अलंकार कहिे हैं (अमभधानप्रकाशषवशेषा एव िालंकारा:)। दंडी के मलए अलंकार काव्र् के शोभाकर धमा हैं (काव्र्शोभाकरान् धमाान् अलंकारान् प्रिक्षिे)। सौंदर्ा, िारुत्व, काव्र्शोभाकर धमा इन िीन रूपों में अलंकार शब्द का प्रर्ोग व्र्ापक अर्ा में हुआ है और शेष में शब्द िर्ा अर्ा के अनुप्रासोपमाहद अलंकारों के संकु चिि अर्ा में। एक में अलंकार काव्र् के प्राणभूि ित्व के रूप में ग्रहीि हैं और दूसरे में सुसजजजिकिाा के रूप में।
  • 3. आधार सामान्र्ि: कर्नीर् वस्िु को अच्छे से अच्छे रूप में अमभव्र्जति देने के षविार से अलंकार प्रर्ुति होिे हैं। इनके द्वारा र्ा िो भावों को उत्कषा प्रदान ककर्ा जािा है र्ा रूप, गुण, िर्ा कक्रर्ा का अचधक िीव्र अनुभव करार्ा जािा है। अि: मन का ओज ही अलंकारों का वास्िषवक कारण है। रुचिभेद आएँबर और िमत्कारषप्रर् व्र्जति शब्दालंकारों का और भावुक व्र्जति अर्ाालंकारों का प्रर्ोग करिा है। शब्दालंकारों के प्रर्ोग में पुररुजति, प्रर्त्नलाघव िर्ा उच्िारण र्ा ध्वतनसाम्र् मुख्र् आधारभूि मसद्धांि माने जािे हैं और पुनरुजति को ही आवृषि कहकर इसके वणा, शब्द िर्ा पद के क्रम से िीन भेद माने जािे हैं, जजनमें क्रमश: अनुप्रास और छेक एवं र्मक, पररुतिावदाभास िर्ा लाटानुप्रास को ग्रहण ककर्ा जािा है। वृत्र्नुप्रास प्रर्त्नलाघव का उदाहरण है। वृषिर्ों और रीतिर्ों का आषवष्कर इसी प्रर्त्नलाघव के कारण होिा है। श्रुत्र्नुप्रास में ध्वतनसाम्र् स्पष्ट है ही। इन प्रवृषिर्ों के अतिररति चित्रालंकारों की रिना में कौिूहलषप्रर्िा, वक्रोजति, अन्र्ोजति िर्ा षवभावनाहद अर्ाालंकारों की रिना मं वैचित्र्र् में आनंद मानने की वृषि कार्ारि रहिी हैं। भावामभव्र्ंजन, न्र्ूनाचधकाररणी िर्ा िका ना नामक मनोवृषिर्ों के आधार पर अर्ाालंकारों का गठन होिा है। ज्ञान के सभी क्षेत्रों में अलंकारें की सामग्री ली जािी है, जैसे व्र्ाकरण के आधार पर कक्रर्ामूलक भाषवक और षवशेष्र्-षवशेषण-मूलक अलंकारों का प्रर्ोग होिा है। मनोषवज्ञान से स्मरण, भ्रम, संदेह िर्ा उत्प्रेक्षा की सामग्री ली जािी है, दशान से कार्ा-कारण-संबंधी असंगति, हेिु िर्ा प्रमाण आहद अलंकार मलए जािे हैं और न्र्ार्शास्त्र के क्रमश: वातर्न्र्ार्, िका न्र्ार् िर्ा लोकन्र्ार् भेद करके अनेक अलंकार गहठि होिे हैं। उपमा जैसे कु छ अलंकार भौतिक षवज्ञान से संबंचधि हैं और रसालंकार, भावालंकार िर्ा कक्रर्ािािुरीवाले अलंकार नाट्र्शास्त्र से ग्रहण ककए जािे हैं।
  • 4. स्र्ान और महत्व आिार्ों ने काव्र्शरीर, उसके तनत्र्धमा िर्ा बहहरंग उपकारक का षविार करिे हुए काव्र् में अलंकार के स्र्ान और महत्व का व्र्ाख्र्ान ककर्ा है। इस संबंध में इनका षविार, गुण, रस, ध्वतन िर्ा स्वर्ं के प्रसंग में ककर्ा जािा है। शोभास्रष्टा के रूप में अलंकार स्वर्ं अलंकार्ा ही मान मलए जािे हैं और शोभा के वृद्चधकारक के रूप में वे आभूषण के समान उपकारक मात्र माने जािे हैं। पहले रूप में वे काव्र् के तनत्र्धमा और दूसरे रूप में वे अतनत्र्धमा कहलािे हैं। इस प्रकार के षविारों से अलंकारशास्त्र में दो पक्षों की नींव पड़ गई। एक पक्ष ने, जो रस को ही काव्र् की आत्मा मानिा है, अलंकारों को गौण मानकर उन्हें अजस्र्रधमा माना और दूसरे पक्ष ने उन्हें गुणों के स्र्ान पर तनत्र्धमा स्वीकार कर मलर्ा। काव्र् के शरीर की कल्पना करके उनका तनरूपण ककर्ा जाने लगा। आिार्ा वामन ने व्र्ापक अर्ा को ग्रहण करिे हुए संकीणा अर्ा की ििाा के समर् अलंकारों को काव्र् का शोभाकार धमा न मानकर उन्हें के वल गुणों में अतिशर्िा लानेवाला हेिु माना (काव्र्शोभार्ा: किाारो धमाा गुणा:। िदतिशर्हेिवस्त्वलंकारा:।-का. सू.)। आिार्ा आनंदवधान ने इन्हें काव्र्शरीर पर कटककुं डल आहद के सदृश मात्र माना है। (िमर्ामवलंबिे र्े%ङिगनं िे गुणा: स्मृिा:। अंगाचश्रिास्त्वलंकारा मन्िव्र्ा: कटकाहदवि्। -ध्वन्र्ालोक)। आिार्ा मम्मट ने गुणों को शौर्ााहदक अंगी धमों के समान िर्ा अलंकारों को उन गुणों का अंगद्वारा से उपकार करनेवाला बिाकर उन्हीं का अनुसरण ककर्ा है (र्े रसस्र्ांचगनी धमाा: शौर्ादर् इवात्मन:। उत्कषाहेिवस्िेस्र्ुरिलजस्र्िर्ो गुणा: ।। उपकु वंति िे संिं र्े%िगद्वारेण जािुचिि्। हाराहदवदलंकारास्िे%नुप्रासोपमादर्:।) उन्होंने गुणों को तनत्र् िर्ा अलंकारों
  • 5. को अतनत्र् मानकर काव्र् में उनके न रहने पर भी कोई हातन नहीं मानी (िददोषौ शब्दार्ौ सगुणावनलंकृ िी पुन: तवाषप-का.प्र.)। आिार्ा हेमिंद्र िर्ा आिार्ा षवश्वनार् दोनों ने उन्हें अंगाचश्रि ही माना है। हेमिंद्र ने िो "अंगाचश्रिास्त्वलंकारा:" कहा ही है और षवश्वनार् ने उन्हें अजस्र्र धमा बिकर काव्र् में गुणों के समान आवश्र्क नहीं माना है (शब्दार्ार्ोरजस्र्रा र्े धमाा: शोभातिशतर्न:। रसादीनुपकु वंिो%लंकारास्िे%िगदाहदवि्।--सा.द्र.)। इसी प्रकार र्द्र्षप अजननपुराणकार ने "वानवैधनध्र्प्रधाने%षप रसएवात्रजीषविम ्" कहकर काव्र् में रस की प्रधानिा स्वीकार की है, िर्ाषप अलंकारों को तनिांि अनावश्र्क न मानकर उन्हें शोभातिशार्ी कारण मान मलर्ा है (अर्ाालंकाररहहिा षवधवेव सरस्विी)। इन मिों के षवरोध में 13वीं शिी में जर्देव ने अलंकारों को काव्र्धमा के रूप में प्रतिजष्ठि करिे हुए उन्हें अतनवार्ा स्र्ान हदर्ा है। जो व्र्जति अजनन में उष्णिा न मानिा हो, उसी की बुद्चधवाला व्र्जति वह होगा जो काव्र् में अलंकार न मानिा हो। अलंकार काव्र् के तनत्र्धमा हैं (अंगीकरोति र्: काव्र्ं शब्दार्ाावनलंकृ िी। असौ न मन्र्िे कस्मादनुष्णमनलं कृ िी ।-िंद्रालोक)। इस षववाद के रहिे हुए भी आनंदवधान जैसे समन्वर्वाहदर्ों ने अलंकारों का महत्व प्रतिपाहदि करिे हुए उन्हें आंिर मानने में हहिक नहीं हदखाई है। रसों को अमभव्र्ंजना वाच्र्षवशेष से ही होिी है और वाच्र्षवशेष के प्रतिपादक शब्दों से रसाहद के प्रकाशक अलंकार, रूपक आहद भी वाच्र्षवशेष ही हैं, अिएव उन्हें अंिरंग रसाहद ही मानना िाहहए। बहहरंगिा के वल प्रर्त्नसाध्र् र्मक आहद के संबंध में मानी जाएगी (र्िो रसा वाच्र्षवशेषैरेवाक्षेप्िव्र्ा:। िस्मान्न िेषां बहहरंगत्वं रसामभव्र्तिौ। र्मकदुष्करमागेषु िु िि् जस्र्िमेव।-ध्वन्र्ालोक)।
  • 6. बन जाएँगे। जैसे खेलिा हुआ बालक राजा का रूप बनाकर अपने को सिमुि राजा ही समझिा है और उसके सार्ी भी उसे वैसा ही समझिे हैं, वैसे ही रस के पोषक अलंकार भी प्रधान हो सकिे हैं (सुकषव: षवदनधपुरंध्रीवि् भूषणं र्द्र्षप जश्लष्टं र्ोजर्ति, िर्ाषप शरीरिापषिरेवास्र् कष्टसंपाद्र्ा, कुं कु मपीतिकार्ा इव। बालक्रीडार्ामषप राजत्वममवेत्र्ममुमर्ं मनमस कृ त्वाह।-लोिन)। वामन से पहले के आिार्ों ने अलंकार िर्ा गुणों में भेद नहीं माना है। भामह "भाषवक" अलंकार के मलए गुण शब्द का प्रर्ोग करिे हैं। दंडी दोनों के मलए "मागा" शब्द का प्रर्ोग करिे हैं और र्हद अजननपुराणकार काव्र् में अनुपम शोभा के आजाएक को गुण मानिे हैं (र्: काव्र्े महिीं छार्ामनुगृह् णात्र्सौ गुण:) िो दंडी भी काव्र् के शोभाकर धमा को अलंकार की संज्ञा देिे हैं। वामन ने ही गुणों की उपमा र्ुविी के सहज सौंदर्ा से और शालीनिा आहद उसके सहज गुणों से देकर गुणरहहि ककं िु अलंकारमर्ी रिना काव्र् नहीं माना है। इसी के पश्िाि् इस प्रकार के षववेिन की परंपरा प्रिमलि हुई। अमभनवगुप्ि के षविार से भी र्द्र्षप रसहीन काव्र् में अलंकारों की र्ोजना करना शव को सजाने के समान है (िर्ाहह अिेिनं शवशरीरं कुं डलाद्र्ुपेिमषप न भाति, अलंकार्ास्र्ाभावाि्-लोिन), िर्ाषप र्हद उनका प्रर्ोग अलंकार्ा सहार्क के रूप में ककर्ा जाएगा िो वे कटकवि् न रहकर कुं कु म के समान शरीर को सुख और सौंदर्ा प्रदान करिे हुए अद्भुि सौंदर्ा से मंङडि करेंगे; र्हाँ िक कक वे काव्र्ात्मा ही
  • 7. वगीकरण ध्वन्र्ालोक में "अनन्िा हह वाजनवकल्पा:" कहकर अलंकारों की अगणेर्िा की ओर संके ि ककर्ा गर्ा है। दंडी ने "िे िाद्र्ाषप षवकल्प्र्ंिे" कहकर इनकी तनत्र् संख्र्वृद्चध का ही तनदेश ककर्ा है। िर्ाषप षविारकों ने अलंकारों को शब्दालंकार, अर्ाालंकार, रसालंकार, भावालंकार, ममश्रालंकार, उभर्ालंकार िर्ा संसृजष्ट और संकर नामक भेदों में बाँटा है। इनमें प्रमुख शब्द िर्ा अर्ा के आचश्रि अलंकार हैं। र्ह षवभाग अन्वर्व्र्तिरेक के आधार पर ककर्ा जािा है। जब ककसी शब्द के पर्ाार्वािी का प्रर्ोग करने से पंजति में ध्वतन का वही िारुत्व न रहे िब मूल शब्द के प्रर्ोग में शब्दालंकार होिा है और जब शब्द के पर्ाार्वािी के प्रर्ोग से भी अर्ा की िारुिा में अंिर न आिा हो िब अर्ाालंकार होिा है। सादृश्र् आहद को अलंकारों के मूल में पाकर पहले पहले उद्भट ने षवषर्ानुसार, कु ल 44 अलंकारों को छह वगों में षवभाजजि ककर्ा र्ा, ककं िु इनसे अलंकारों के षवकास की मभन्न अवस्र्ाओं पर प्रकाश पड़ने की अपेक्षा मभझ प्रवृषिर्ों का ही पिा िलिा है। वैज्ञातनक वगीकरण की दृजष्ट से िो रुद्रट ने ही पहली बार सफलिा प्राप्ि की है। उन्होंने वास्िव, औपम्र्, अतिशर् और श्लेष को आधार मानकर उनके िार वगा ककए हैं। वस्िु के स्वरूप का वणान वास्िव है। इसके अंिगाि 23 अलंकार आिे हैं। ककसी वस्िु के स्वरूप की ककसी अप्रस्िुि से िुलना करके स्पष्टिापूवाक उसे उपजस्र्ि करने पर औपम्र्मूलक 21 अलंकार माने जािे हैं। अर्ा िर्ा धमा के तनर्मों के षवपर्ार् में अतिशर्मूलक 12 अलंकार और अनेक अर्ोंवाले पदों से एक ही अर्ा का बोध करानेवाले श्लेषमूलक 10 अलंकार होिे हैं।
  • 8. षवभाजन अलंकार के मुख्र्ि: भेद माने जािे हैं--शब्दालंकार, अर्ाालंकार िर्ा उभर्ालंकार। शब्द के पररवृषिसह स्र्लों में अर्ाालंकार और शब्दों की पररवृषि न सहनेवाले स्र्लों में शब्दालंकार की षवमशष्टिा रहने पर उभर्ालंकार होिा है। अलंकारों की जस्र्ति दो रूपें में हो सकिी है--के वल रूप और ममचश्रि रूप। ममश्रण की द्षवषवधिा के कारण "संकर" िर्ा "संसृजष्ट" अलंकारों का उदर् होिा है। शब्दालंकारों में अनुप्रास, र्मक िर्ा वक्रोजति की प्रमुखिा है। अर्ाालंकारों की संख्र्ा लगभग एक सौ पिीस िक पहुँि गई है। सब अर्ाालंकारों की मूलभूि षवशेषिाओं को ध्र्ान में रखकर आिार्ों ने इन्हें मुख्र्ि: पांि वगों में षवभाजजि ककर्ा है : 1. सादृश्र्मूलक-उपमा, रूपक आहद; 2. षवरोधमूलक-षवषर्, षवरोधभास आहद; 3. श्रृंखलाबंध--सार, एकावली आहद; 4. िका , वातर्, लोकन्र्ार्मूलक काव्र्मलंग, र्र्ासंख्र् आहद; 5. गूढार्ाप्रिीतिमूलक-सूक्ष्म, षपहहि, गूढोजति आहद।
  • 9. उपमा अलंकार काव्र् में जब ककसी प्रमसद्ध व्र्जति र्ा वस्िु की समिा दूसरे समान गुण वाले व्र्जति र्ा वस्िु से की जािी है िब उपमा अलंकार होिा है। उदाहरण - पीपर पाि सररस मन डोला । राधा बदन िन्द्र सो सुन्दर। अतिशर्ोजति अलंकार अतिशर्ोजति = अतिशर् + उजति = बढा-िढाकर कहना । जब ककसी बाि को बढा िढा कर बिार्ा जार्े, िब हनुमान की पूँछ में, लग न पार्ी आग। लंका सारी जल गई, गए तनशािर भाग।। षवभावना अलंकार जहाँ कारण के न होिे हुए भी कार्ा का होना पार्ा जािा है, वहाँ षवभावना अलंकार होिा है। उदाहरण - बबनु पग िलै सुनै बबनु काना। कर बबनु कमा करै षवचध नाना। आनन रहहि सकल रस भोगी। बबनु वाणी वतिा बड़ जोगी। र्मक अलंकार जब एक शब्द का प्रर्ोग दो बार होिा है और दोनों बार उसके अर्ा अलग-अलग होिे हैं िब र्मक अलंकार होिा है। उदाहरण - १ ऊँ िे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी, ऊँ िे घोर मन्दर के अन्दर रहािी हैं। (र्हाँ पर मन्दर के अर्ा हैं अट्टामलका और गुफा।)
  • 10. अनुप्रास अलंकार वणों की आवृषि को अनुप्रास कहिे हैं। उदाहरण - िारु िन्द्र की िंिल ककरणें, खेल रहीं र्ीं जल-र्ल में। स्वच्छ िाँदनी बबछी हुई र्ी, अवतन और अम्बरिल में॥ जब ककसी शब्द का प्रर्ोग एक बार ही ककर्ा जािा है पर उसके एक से अचधक अर्ा तनकलिे हैं िब श्लेष अलंकार होिा है। उदाहरण - रहहमन पानी राखखर्े,बबन पानी सब सून। पानी गर्े न ऊबरै, मोिी मानुष िून। र्हां पानी शब्द का प्रर्ोग र्द्र्षप िीन बार ककर्ा गर्ा है, ककन्िु दूसरी पंजति में प्रर्ुति एक ही पानी शब्द के िीन षवमभन्न अर्ा हैं - मोिी के मलर्े पानी का अर्ा िमक, मनुष्र् के मलर्े इजजि (सम्मान) और िूने के मलर्े पानी (जल) है। अिः र्हाँ श्लेष अलंकार है। २ कनक-कनक िे सौ गुनी मादकिा अचधकार्, र्ा खार्े बौरार् जग, वा पार्े बौरार्। (र्हाँ पर कनक के अर्ा हैं धिूरा और सोना।) श्लेष अलंकार