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रस का शाब्दिक अर्थ है – निचोड़। काव्य में जो आिन्ि आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य
में आिे वाला आिन्ि अर्ाथत् रस लौककक ि होकर अलौककक होता है। रस काव्य की आत्मा है।
संस्कृ त में कहा गया है कक “रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्” अर्ाथत् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है।
भारतीय काव्यशास्त्र क
े विभभन्न सम्प्रदायों में रस भसद्धान्त सबसे राचीन भसद्धान्त है। रस भसद्धान्त का
विशद एिं रामाणिक वििेचन भरत मुनन क
े नाट्यशास्त्र में ही सिवरथम उपलब्ध होता है।
⇔ आचायव विश्िनाथ – ’िाक्यं रसात्मक
ं काव्यम्’
⇒ काव्य क
े पठन – श्रिि, दशवन से राप्त होने िाला लोकोत्तर आनन्द ही आस्त्िाद दशा में रस कहलाता है।
⇔ रस की ननष्पवत्त सामाजिक क
े हृदय में तभी होती है, िब उसक
े हृदय में रिोगुि और तमोगुि का
नतरोभाि होकर सत्िगुि का उद्रेक होता है। इसमें ममत्ि और परत्ि की भािना तथा सांसाररक राग-द्िेष का
पूिवतया लोप हो िाता है।
रस अखण्ड होता है। सहृदय को विभाि अनुभाि व्यभभचारी भािों की पृथक्-पृथक् अनुभूनत न
होकर समजन्ित अनुभूनत होती है।
रस की ववशेषताएँ :
⇔ रस िेद्यान्तर स्त्पशव शून्य है।
⇒ रस स्त्िरकाशानन्द तथा चचन्मय है।
⇔ रस को ब्रह्मानन्द सहोदर माना गया है। (साहहत्य दपवि-आचायव विश्िनाथ)
⇒ रसानुभूनत अलौककक चमत्कार क
े समान है।
⇔ रस को क
ु छ आचायव सुख-दुखात्मक मानते हैं।
⇒ रस मूलतः आस्त्िाद रूप है, आस्त्िाद्य पदाथव नहीं है, किर भी व्यिहार में ’रस का आस्त्िाद
ककया िाता है’ ऐसा रयोग गौि रूप से रचभलत है। इसभलए रस अपने रूप से िननत है।
भरतमुनन ने नाट्यशास्त्र में रस सूर हदया है।
’विभािानुभािव्यभभचाररसंयोगाद्रसननष्पनत’
इस मत क
े अनुसार जिस रकार नाना व्यंिनों क
े संयोग से भोिन करते समय पाक रसों का
आस्त्िादन होता है। उसी रकार काव्य या नाटक क
े अनुशीलन से अनेक भािों का संयोग होता है,
िो आस्त्िाद-दशा में ’रस’ कहलाता है।
बहुत बहुत धन्यिाद Æ

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  • 1.
  • 2. रस का शाब्दिक अर्थ है – निचोड़। काव्य में जो आिन्ि आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आिे वाला आिन्ि अर्ाथत् रस लौककक ि होकर अलौककक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृ त में कहा गया है कक “रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्” अर्ाथत् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। भारतीय काव्यशास्त्र क े विभभन्न सम्प्रदायों में रस भसद्धान्त सबसे राचीन भसद्धान्त है। रस भसद्धान्त का विशद एिं रामाणिक वििेचन भरत मुनन क े नाट्यशास्त्र में ही सिवरथम उपलब्ध होता है। ⇔ आचायव विश्िनाथ – ’िाक्यं रसात्मक ं काव्यम्’ ⇒ काव्य क े पठन – श्रिि, दशवन से राप्त होने िाला लोकोत्तर आनन्द ही आस्त्िाद दशा में रस कहलाता है। ⇔ रस की ननष्पवत्त सामाजिक क े हृदय में तभी होती है, िब उसक े हृदय में रिोगुि और तमोगुि का नतरोभाि होकर सत्िगुि का उद्रेक होता है। इसमें ममत्ि और परत्ि की भािना तथा सांसाररक राग-द्िेष का पूिवतया लोप हो िाता है।
  • 3.
  • 4. रस अखण्ड होता है। सहृदय को विभाि अनुभाि व्यभभचारी भािों की पृथक्-पृथक् अनुभूनत न होकर समजन्ित अनुभूनत होती है। रस की ववशेषताएँ : ⇔ रस िेद्यान्तर स्त्पशव शून्य है। ⇒ रस स्त्िरकाशानन्द तथा चचन्मय है। ⇔ रस को ब्रह्मानन्द सहोदर माना गया है। (साहहत्य दपवि-आचायव विश्िनाथ) ⇒ रसानुभूनत अलौककक चमत्कार क े समान है। ⇔ रस को क ु छ आचायव सुख-दुखात्मक मानते हैं। ⇒ रस मूलतः आस्त्िाद रूप है, आस्त्िाद्य पदाथव नहीं है, किर भी व्यिहार में ’रस का आस्त्िाद ककया िाता है’ ऐसा रयोग गौि रूप से रचभलत है। इसभलए रस अपने रूप से िननत है। भरतमुनन ने नाट्यशास्त्र में रस सूर हदया है। ’विभािानुभािव्यभभचाररसंयोगाद्रसननष्पनत’ इस मत क े अनुसार जिस रकार नाना व्यंिनों क े संयोग से भोिन करते समय पाक रसों का आस्त्िादन होता है। उसी रकार काव्य या नाटक क े अनुशीलन से अनेक भािों का संयोग होता है, िो आस्त्िाद-दशा में ’रस’ कहलाता है।
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