साईं बाबा की भक्तों को शिक्षाएं - अमृतोपदेश - http://spiritualworld.co.in
आत्मचिंतन: अपने आपकी पहचान करो, कि मेरा जन्म क्यों हुआ? मैं कौन हूँ? आत्म-चिंतन व्यक्ति को ज्ञान की ओर ले जाता है|
विनम्रता: जब तक तुममें विनम्रता का वास नहीं होगा तब तक तुम गुरु के प्रिय शिष्य नहीं बन सकते और जो शिष्य गुरु को प्रिय नहीं, उसे ज्ञान हो ही नहीं सकता|
क्षमा: दूसरों को क्षमा करना ही महानता है| मैं उसी की भूलें क्षमा करता हूँ जो दूसरों की भूले क्षमा करता है|
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Homemade Remedies for Indigestion (Dyspepsia) - 002
Shirdi Shri Sai Baba Ji - Teachings 009
1.
2. आतमिचतन: अपने आपकी पहचान करो, िक मेरा
जन्म क्यो हुआ? मै कौन हूँ? आतम-िचतन व्यक्ति कक को
ज्ञान की ओर ले जाता है|
ि कवनमता: जब तक तुममे ि कवनमता का वास नही होगा
तब तक तुम गुर के ि कप्रिय ि कशिष्य नही बन सकते और जो
ि कशिष्य गुर को ि कप्रिय नही, उसे ज्ञान हो ही नही सकता|
कमा: दूसरो को कमा करना ही महानता है| मै उसी की
भूले कमा करता हूँ जो दूसरो की भूले कमा करता है|
शदा और सबुरी (धीरज और ि कवशास): पूणशर्णशदा
और ि कवशास के साथ गुर का पूजन करो समय आने पर
मनोकामना भी पूरी होगी|
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कमर्णचक: कमर्ण देह प्रिारम्भ (वतर्णमान भाग्य) ि कपछले कमो
का फल अवश्य भोगना पड़ेगा, गुर इन कष्टो को सहकर
सहना ि कसखाता है, गुर सृष्टि कष्ट नही दृष्टि कष्ट बदलता है|
दया: मेरे भको मे दया कूट-कूटकर भरी रहती है, दूसरो
पर दया करने का अथर्ण है मुझे प्रिेम करना चाि कहए, मेरी
भि कक करना|
संतोष: ईशर से जो कुछ भी (अच्छा या बुरा) प्रिाप है,
हमे उसी मे संतोष रखना चाि कहए|
सादगी, सचाई और सरलता: सदैव सादगी से रहना
चाि कहए और सचाई तथा सरलता को जीवन मे पूरी तरह
से उतार लेना चाि कहए|
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अनासि कक: सभी वस्तुएं हमरे उपयोग के ि कलए है, पर
उन्हे एकि कत्रित करके रखने का हमे कोई अि कधकार नही है|
प्रितयेक जीव मे मै हूँ: प्रितयेक जीव मे मै हूँ, सभी जगह
मेरे दशिर्णन करो|
गुर अपर्णणश: तुम्हारा प्रितेक कायर्ण मुझे अपर्णणश होता है, तुम
िकसी दूसरे प्रिाणशी के साथ जैसा भी अच्छा या बुरा
व्यक्तवहार करते हो, सब मुझे पता होता है, व्यक्तवहार जो
दूसरो से होता है सीधा मेरे साथ होता है| यिद तुम
िकसी को गाली देते हो, तो वह मुझे ि कमलती है, प्रिेम
करते हो तो वह भी मुझे ही प्रिाप होता है|
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भक: जो भी व्यक्ति कक पत्नी, संतान और माता-ि कपता से
पूणशर्णतया ि कवमुख होकर केवल मुझसे प्रिेम करता है, वही
मेरा सचा भक है, वह भक मुझमे इस प्रिकार से लीन हो
जाता है, जैसे निदयां समुद मे ि कमलकर उसमे लीन हो
जाती है|
एकस्वरप: भोजन करने से पहले तुमने ि कजस कुत्ते को
देखा, ि कजसे तुमने रोटी का टुकड़ा िदया, वह मेरा ही रूप
है| इसी तरह समस्त जीव-जन्तु इतयािद सभी मेरे ही
रूप है| मै उन्ही का रूप धरकर घूम रहा हूं| इसि कलए
द्वैत-भाव तयाग के कुत्ते को भोजन कराने की तरह ही
मेरी सेवा िकया करो|
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कत्तर्णव्यक्त: ि कवि कध अनुसार प्रितेक जीवन अपना एक ि कनि कश्चित
लक्ष्य लेकर आता है| जब तक वह अपने जीवन मे उस
लक्ष्य का संतोषजनक रूप और असंबद भाव से पालन
नही करता, तब तक उसका मन ि कनिवकार नही हो
सकता याि कन वह मोक और ब्रह ज्ञान पने का अि कधकारी
नही हो सकता|
लोभ (लालच): लोभ और लालच एक-दूसरे के परस्पर
द्वेषी है| वे सनातक काल से एक-दूसरे के ि कवरोधी है|
जहां लाभ है वहां ब्रह का ध्यान करने की कोई गूंजाइशि
नही है| िफर लोभी व्यक्ति कक को अनासि कक और मोक को
प्रिाि कप कैसे हो सकती है|
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दिरदता: दिरदता (गरीबी) सवोच संपि कत्त है और ईशर
से भी उच है| ईशर गरीब का भाई होता है| फकीर ही
सचा बादशिाह है| फकीर का नाशि नही होता, लिकन
अमीर का सामाज्य शिीघ ही ि कमट जाता है|
भेदभाव: अपने मध्य से भेदभाव रपी दीवार को सदैव
के ि कलए ि कमटा दो तभी तुम्हारे मोक का मागर्ण प्रिशिस्त हो
सकेगा| ध्यान रखो साई सूक्ष्म रूप से तुम्हारे भीतर
समाए हुए है और तुम उनके अंदर समाए हुए हो|
इसि कलए मै कौन हूं? इस प्रिशिन के साथ सदैव आतमा पर
ध्यान केि कन्दत करने का प्रियास करो| वैसे जो ि कबना िकसी
भेदभाव के परस्पर एक-दूसरे से प्रिेम करते है, वे सच मे
बड़े महान होते है|
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मृतयु: प्राणी सदा से मृतयु के अधीन रहा है| मृतयु
की कल्पना करके ही वह भयभीत हो उठता है|
कोई मरता नही है| यिद तुम अपने अंदर की आंखे
खोलकर देखोगे| तब तुम्हे अनुभव होगा िक तुम
ईश्वर हो और उससे िभन नही हो| वास्तव मे
िकसी भी प्राणी की मृतु नही होती| वह अपने कमो
के अनुसार, शरीर का चोला बदल लेता है| िजिस
तरह मनुष्य पुराने वस तयक कर दूसरे नए वसो
को ग्रहण करता है, ठीक उसी के समान जिीवातमा
भी अपने पुराने शरीर को तयागकर दूसरे नए
शरीर को धारण कर लेती है|
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ईश्वर: उस महान् सवर्वशिक्तिमान् का सवर्वभूतो मे वास है|
वह सतय स्वरुप परमततव है| जिो समस्त चराचर जिगत
का पालन-पोषण एवं िवनाश करने वाला एवं कमो के
फल देने वाला है| वह अपनी योग माया से सतय साई का
अंश धारण करके इस धरती के प्रतयेक जिीव मे वास
करता है| चाहे वह िवषैले िबच्छू हो या जिहरीले नाग-
समस्त जिीव केवल उसी की आज्ञा का ही पालन करते है|
ईश्वर का अनुग्रह: तुमको सदैव सतय का पालन पूणर्व
दृढ़ता के साथ करना चािहए और िदए गए वचनो का
सदा िनवार्वह करना चािहए| श्रद्धा और धैयर्व सदैव ह्रदय मे
धारण करो| िफर तुम जिहाँ भी रहोगे, मै सदा तुम्हारे
साथ रहूंगा|
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ईश्वर प्रदत उपहार: मनुष्य द्वरा िदया गया उपहार
िचरस्थायी नही होता और वह सदैव अपूणर्व होता है|
चाहकर भी तुम उसे सारा जिीवन अपने पास सहेजिकर
सुरिक्षित नही रख सकते| परन्तु ईश्वर जिो उपहार
प्रतेकप्राणी को देता है वह जिीवन भर उसके पास रहता
है| ईश्वर के पांच मूल्यवान उपहार - सादगी, सच्चाई,
सुिमरन, सेवा, सतसंग की तुलना मनुष्य प्रदत िकसी
उपहार से नही हो सकती है|
ईश्वर की इच्छा: जिब तक ईश्वर की इच्छा नही होगी-
तब तक तुम्हारे साथ अच्छा या बुरा कभी नही हो
सकता| जिब तक तुम ईश्वर की शरण मे हो, तो कोई
चहाकर भी तुम्हे हािन नही पहुँचा सकता|
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आतमसमपर्वण: पूरी तरह से मेरे प्रित समिपत हो चुका
है, जिो श्रद्धा-िवश्वासपूवर्वक मेरी पूजिा करता है, जिो मुझे
सदैव याद करता है और जिो िनरन्तर मेरे इस स्वरूप का
ध्यान करता है, उसे मोक्षि प्रदान करना मेरा िविशष गुण
है|
सार-ततव: केवल ब्रह ही सार-ततव है और संसार
नश्वर है| इस संसार मे वस्तुतः हमार कोई नही, चाहे
वह पुत हो, िपता हो या पत्नी ही क्यो न हो|
भलाई: यिद तुम भलाई के कायर्व करते हो तो भलाई
सचमुच मे तुम्हारा अनुसरण करेगी|
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सौन्दयर्व: हमको िकसी भी व्यक्तिक्ति की सुंदरता अथवा
कुरूपता से परेशान नही होना चािहए, बिल्क उसके रूप
मे िनिहत ईश्वर पर ही मुख्य रूप से अपना ध्यान केिन्द्रित
करना चािहए|
दिक्षिणा: दिक्षिणा (श्रद्धापूवर्वक भेट) देना वैराग्ये मे
बढोतरी करता है और वैराग्ये के द्वारा भिक्ति की वृिद्ध
होती है|
मोक्षि: मोक्षि की आशा मे आध्याितमक ज्ञान की खोजि मे,
मोक्षि प्रािप के िलए गुरु-चरणो की सेवा अिनवायर्व है|
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दान: दाता देता है यानी वह भिवष्य मे अच्छी फसल
काटने के िलए बीजि बोता है| धन को धमार्वथर्व कायो का
साधन बनाना चािहए| यिद यह पहले नही िदया गया है
तो अब तुम उसे नही पाओगे| अतएव पाने के िलए उतम
मागर्व दान देना है|
सेवा: इस धारणा के साथ सेवा करना िक मै स्वतंत हूं,
सेवा करूं या न करूं , सेवा नही है| िशष्य को यह जिानना
चािहए िक उसके शरीर पर उसका नही बिल्क उसके
'गुरु' का अिधकार है और इस शरीर का अिस्ततव केवल
'गुरु' की सेवा करने मे ही साथर्वक है|
शोषण: िकसी को िकसी से भी मुफ्त मे कोई काम नही
लेना चािहए| काम करने वाले को उसके काम के बदले
शीघ और उदारतापूवर्वक पािरश्रिमक देना चािहए|
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अनदान: यह िनिश्चित समझो िक जिो भूखे को भोजिन
कराता है, वह वास्तव मे उस भोजिन द्वारा मेरी सेवा
िकया करता है| इसे अटल सतय समझो|
भोजिन: इस मिस्जित मे बैठकर मै कभी असतय नही
बोलूंगा| इसी तरह मेरे ऊपर दया करते रहो| पहले भूखे
को रोटी दो, िफर तुम स्वंय खाओ| इस बात को गांठ
बांध लो|
बुिद्धमान: िजिसे ईश्वर की कृपालुता (दया) का वरदान
िमल चुका है, वह फालतू (ज्यादा) बाते नही िकया
करता| भगवान की दया के अभाव मे व्यक्तिक्ति अनावश्यक
बाते करता है|
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झगडे: यदिद कोई व्यक्ति तक तुम्हारे पास आकर तुम्हे
गाि तलियदां देता है यदा दण्ड देता है तो उससे झगडा मत
करो| यदिद तुम इसे सहन नही कर सकते तो उससे एक-
दो सरलितापूर्वकर्वक शब्द बोलिो अथवका उस स्थान से हट
जाओ, लिेिकन उससे हाथापाई (झगडा) मत करो|
वकासना: ि तजसने वकासनाओ पर ि तवकजयद नही प्राप की है,
उसे प्रभु के दशर्वन (आत्म-साक्षात्कार) नही हो सकता|
पाप: मन-वकचन-कमर्व द्वारा दूर्सरो के शरीर को चोट
पहुंचाना पाप है और दूर्सरे को सुख पहुंचना पुण्यद है,
भलिाई है|
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सि तहषणुता: सुख और दुख तो हमारे पूर्वकर्वजन्म के कमो के
फलि है| इसि तलिए जो भी सुख-दुःख सामने आयदे, उसे उसे
अि तवकचलि रहकर सहन करो|
सत्यद: तुम्हे सदैवक सत्यद ही बोलिना चाि तहए| िफर चाहे
तुम जहां भी रहो और हर समयद मै सदा तुम्हारे साथ ही
रहूंगा|
एकत्वक: राम और रहीम दोनो एक ही थे और समान थे|
उन दोनो मे िकि तचत मात भी भेद नही था| तुम नासमझ
लिोगो, बच्चो, एक-दूर्सरे से हाथ ि तमलिा और दोनो
समुदायदो को एक साथ ि तमलिकर रहना चाि तहए|
बुि तद्धिमानी के साथ एक-दूर्सरे से व्यक्तवकहार करो-तभी तुम
अपने राष्ट्रीयद एकता के उद्देश्यद को पूर्रा कर पाओगे|
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अहंकार: कौन िकसका शतु है? िकसी के ि तलिए ऐसा मत
कहो, िक वकह तुम्हारा शतु है? सभी एक है और वकही है|
आधार स्तम्भ: चाहे जो हो जायदे, अपने आधार स्तम्भ
'गुर' पर दृढ रहो और सदैवक उसके साथ एककार रूप मे
रहकर ि तस्थत रहो|
आशासन: यदिद कोई व्यक्ति तक सदैवक मेरे नाम का उच्चारण
करता है तो मै उसकी समस्त इच्छायदे पूर्री करूं गा| यदिद
वकह ि तनष्ठापूर्वकर्वक मेरी जीवकन गाथाओ और लिीलिाओ का
गायदन करता है तो मै सदैवक उसके आगे-पीछे, दायदे-बायदे
सदैवक उपि तस्थत रहूंगा|
18. 17 of 25 Contd…
मन-शि तक: चाहे संसार उलिट-पलिट क्यदो न हो जायदे,
तुम अपने स्थान पर ि तस्थत बने रहो| अपनी जगह पर
खडे रहकर यदा ि तस्थत रहकर शांि ततपूर्वकर्वक अपने सामने से
गुजरते हुए सभी वकस्तुओ के दृश्यदो के अि तवकचि तलित देखते
रहो|
भि तक: वकेदो के ज्ञान अथवका महान् ज्ञानी (ि तवकद्वान) के
रूप मे प्रि तसि तद्धि अथवका औपचािरकता भजन (उपासना)
का कोई महत्त्वक नही है, जब तक उसमे भि तक का यदोग न
हो|
19. 18 of 25 Contd…
भक और भि तक: जो भी कोई प्राणी अपने पिरवकार के
प्रि तत अपने कतर्वव्यक्त और उत्तरदाि तयदत्वको का ि तनवकार्वह करने के
बाद, ि तनषकाम भावक से मेरी शरण मे आ जाता है| ि तजसे
मेरी भि तक ि तबना यदह संसार सुना-सुना जान पडता है जो
िदन रात मेरे नाम का जप करता है मै उसकी इस
अमूर्ल्यद भि तक का ऋण, उसकी मुि तक करके चुका देता हूँ|
भागयद: ि तजसे दण्ड ि तनधार्विरत है, उसे दण्ड अवकश्यद
ि तमलिेगा| ि तजसे मरना है, वकह मरेगा| ि तजसे प्रेम ि तमलिना है
उसे प्रेम ि तमलिेगा| यदह ि तनि तश्चित जानो|
नाम स्मरण: यदिद तुम ि तनत्यद 'राजाराम-राजाराम'
रटते रहोगे तो तुम्हे शांि तत प्राप होगी और तुमको लिाभ
होगा|
20. 19 of 25 Contd…
अि तति तथ सत्कार: पूर्वकर्व ऋणानुबन्ध के ि तबना कोई भी
हमारे संपकर्व मे नही आता| पुराने जन्म के बकायदा लिेन-
देन 'ऋणानुबन्ध' कहलिाता है| इसि तलिए कोई कुत्ता,
ि तबल्लिी, सूर्अर, मि तक्खयदां अथवका कोई व्यक्ति तक तुम्हारे पास
आता है तो उसे दुत्कार कर भगाओ मत|
गुर: अपने गुर के प्रि तत अि तडग श्रद्धिा रखो| अन्यद गुरूओ
मे चाहे जो भी गुण हो और तुम्हारे गुर मे चाहे ि तजतने
कम गुण हो|
आत्मानुभवक: हमको स्वकंयद वकस्तुओ का अनुभवक करना
चाि तहए| िकसी ि तवकषयद मे दूर्सरे के पास जाकर उसके
ि तवकचार यदा अनुभवको के बारे मे जानने की क्यदा
आवकश्यदकता है?
21. 20 of 25 Contd…
गुर-कृ पा: मां कछुवकी नदी के दूर्सरे िकनारे पर
रहती है और उसके छोटे-छोटे बच्चे दूर्सरे िकनारे
पर| कछुवकी न तो उन बच्चो को दूर्ध ि तपलिाती है और
न ही उषणता प्रदान करती है| पर उसकी दृि तष्टिमात
ही उन्हे उषणता प्रदान करती है| वके छोटे-छोटे बच्चे
अपने मां को यदाद करने के अलिावका कुछ नही करते|
कछुवकी की दृि तष्टि उसके बच्चो के ि तलिए अमृत वकषार्व है,
उनके जीवकन का एक मात आधार है, वकही उनके
सुख का भी आधार है| गुर और ि तशषयद के परस्पर
सम्बन्ध भी इसी प्रकार के है|
22. 21 of 25 Contd…
सहायता: जो भी अहंकार त्याग करके, अपने को
कृतज मानकर साई पर पूर्ण र िविश्वास करेगा और
जब भी विह अपनी मदद के िलिए साई को पुकारेगा
तो उसके कष स्वियं ही अपने आप दूर्र हो जायेगे|
ठीक उसी प्रकार यिद कोई तुमसे कुछ मांगता है
और विह विास्तु देना तुम्हारे हाथ मे है या उसे देने
की सामथ्यर तुममे है और तुम उसकी प्राथरना
स्विीकार कर सकते हो तो विह विस्तु उसे दो| मना
मत करो| यिद उसे देने के िलिए तुम्हारे पास कुछ
नही है तो उसे नम्रतापूर्विरक इंकार कर दो, पर
उसका उपहास मत उड़ाओ और न ही उस पर क्रोध
करो| ऐसा करना साई के आदेश पर चलिने के
समान है|
23. 22 of 25 Contd…
िविविेक: संसार मे दो प्रकार की विस्तुएं है - अच्छी
और आकषकरक| ये दोनो ही मनुष्य द्वारा अपनाये
जाने के िलिए उसे आकिषकत करती है| उसे सोच-
िविचार कर इन दोनो मे से कोई एक विस्तु का
चुनावि करना चािहए| बुिद्धिमान व्यक्तिक आकषकरक
विस्तु की उपेक्षा अच्छी विस्तु का चुनावि करता है,
लिेिकन मूर्ख र व्यक्तिक लिोभ और आसिक के विशीभूर्त
होकर आकषकरक या सुख द विस्तु का चयन कर लिेता
है और पिरण ामतः ब्रह्मजान (आत्मानुभूर्ित) से
विंिचत हो जाता है|
24. 23 of 25 Contd…
जीविन के उतार-चढावि: लिाभ और हािन, जीविन और
मृत्यु-भगविान के हाथो मे है, लिेिकन लिोग कैसे उस
भगविान को भूर्लि जाते है, जो इस जीविन की अंत तक
देख भालि करता है|
सांसािरक सम्मान: सांसािरक पद-प्रितष्ठा प्राप कर
भ्रमिमत मत हो| इषदेवि के स्विरुप तुम्हारे रूप तुम्हारे
मानस पटलि पर सदैवि अंिकत रहना चािहए| अपनी
समस्त एिन्द्रिक विासनाओ और अपने मन को सदैवि
भगविान की पूर्जा मे िनरंतर लिगाये रख ो|
25. 24 of 25 Contd…
िजजासा प्रश: केविलि प्रश पूर्छना ही पयारप नही है| प्रश
िकसी अनुिचत धारण ा से या गुरु को फं साने और उसकी
गलिितयां पकड़ने के िविचार से या केविलि िनिष्कय
अत्सुकताविश नही पूर्छे जाने चािहए| प्रश पूर्छने के मुख्य
उद्देश्य मोक्ष प्रािप अथविा आध्याित्मक के मागर मे प्रगित
करना होना चािहए|
आत्मानुभूर्ित: मै एक शरीर हूं, इस प्रकार की धारण ा
केविलि कोरा भ्रमम है और इस धारण ा के प्रित प्रितबद्धिता
ही सांसािरक बंधनो का मुख्य कारण है| यिद सच मे तुम
आत्मानुभूर्ित के लिक्ष्य को पाना चाहते हो तो इस धारण ा
और आसिक का त्याग कर दो|
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25 of 25 End
आत्मीय सुख : यिद कोई तुमसे घृण ा और नफरत करता
है तो तुम स्वियं को िनदोषक मत समझो| क्योिक तुम्हारा
कोई दोषक ही उसकी घृण ा और नफरत का कारण बाना
होगा| अपने अहं की झूर्ठी संतुिष के िलिए उससे व्यक्तथर
झगड़ा मोलि मत लिो, उस व्यक्तिक की उपेक्षा करके, अपने
उस दोषक को दूर्र करने का प्रयास करो िजससे कारण यह
सब घिटत हुआ है| यिद तुम ऐसा कर सकोगे तो तुम
आत्मीय सुख का अनुभवि कर सकोगे| यही सुख और
प्रसन्नता का सच्चा मागर है|