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सिद्धांत की
लघुकविताएँ
इंकलाब का शुभारंभ करना चाहता हूँ,
रूबरू मुक़ाबला करना चाहता हूँ अत्त्याचारों का|
अफ़सोस, शिकार बन गया हूँ समाज की रूढ़िवादिता का,
बहिष्कृ त किया गया मुझे, हाय इस भ्रमित कौम का क्या करू|
प्रथम मशालधारक बनना चाहता हूँ,
उज्ज्वलन करना चाहता हूँ इस अँधेरी सियासत का|
इंतज़ार जारी रखूंगा एक अवसर का,
मगर इस दरमियान बेक़रार रहेगी मेरी रूह|
शूर-वीर देशभक्तों से क्रांति की तमन्ना करता हूँ,
पर्दाफ़ाश करना चाहता हूँ लाशों पर चूल्हा सेंकने वाले नेताओं का|
मुखर तलब करता हूँ जनता के एकीकृ त आक्रोश का,
ताकि सत्ता के हवसी लोगों से प्रजातंत्र बचा पाऊँ |
अन्याय व अधर्म को कानून बनते देख रहा हूँ,
रोकना चाहता हूँ भेड़ियों को परोसा जाना, निरपराध भेड़ों का|
इल्म है मुझे इस कर्तव्यपथ पर मौजूद काटों का,
मगर पाँवों में छाले सहने को तैयार हूँ|
-SIDDHANTH NADKARNI
क्रांति की तमन्ना
एक पराजित राही
-SIDDHANTH NADKARNI
न जाने क्यों, ऊपर-वाला उसपर बेरहम है काफ़ी,
नहीं बख्श्ता है वह उसकी खामियों को|
ये राही तमन्नाएं पाला करता था मगर, हकीकत की तेज़ आंधी,
लगातार ध्वस्त कर गई है उसकी मुरादों को|
इतना मसरूफ़ है वह तय करने में, डगर जिंदगी की,
कि भूल गया है वह जिंदगी जीने के सलीके को|
न दिखाई देती है उसे सुरंग के पार कोई रौशनी,
और ना ही कु एँ के तल पर पानी पीने को|
नतमस्तक होने के कगार पर है अब यह खोया सा राही,
आख़िर चूर कर ही दिया बाधाओं ने उसके बुलंद हौसलों को|
ख़ाक में मिल गई है अब उसकी कामयाबी हासिल करने की दीवानगी,
खो चूका है अब वह चूहा-दौड़ में भिड़ने की ताकत को|
आने वाली सुबह, लगती है उसे एक आफ़त सी,
क्योंकि वह भुला न पाया है अपने बीते दुर्भाग्यों को|
ऐ खुदा, बौछार कर सौभाग्य के महज़ कु छ बूंदों की,
राहत मिलेगी इस प्यासे राही को|
....जैसे मन्ना मिला भटकते यहूदियों को|
सदा पूछा करते हो,
कि कु दरत से क्या दोहन कर सकते हो,
मगर यदा थमकर महफ़ू ज़ नहीं रखते उसको|
पीड़ित है वह प्रकृ ति, जिसकी कोख से जन्मे हो,
त्रस्त हैं वे तत्त्व, जिनपर पलते आए हो,
सुधरो, वरना बिलखकर कोसेंगी वे, तुमही को|
स्वयं का विस्तृत मकान खड़ा हो,
वाहनों के लिए सड़क चौड़ा हो,
इसलिए बेघर किया तुमने सैंकड़ो परिंदों को|
बेक़सूर हैं वे पेड़, जिन्हें निर्दयता से काटते हो,
शिथिल हुई हैं भूमाता, जिन्हें रोज़ाना रौंदते हो,
सुधरो, वरना करेंगी वे भूस्खलन से बेघर, तुमही को|
लम्बे पुल बाँधते जाते हो,
बेशुमार ईमारतें खड़ी करते जाते हो,
बदलते हो जीवनदायी नदियों के मार्ग को|
अरक्षणीय हैं यह हरकतें, जिन्हें "विकास" कहलाते हो,
ऋणी हैं यह ईमारतें, जिन्हें घर कहलाते हो,
सुधरो, वरना सूखकर तड़पाएंगी नदियाँ, तुम्ही को|
कारखानों में सीसा व लोहा गलाते हो,
फ़सलें काटकर खेत जलाते हो,
उत्सर्जन से मलिन करते हो पावन वायु को|
तेज़ाब की होगी, जिस वर्षा के लिए बेताब रहते हो,
ध्वस्त होंगे खेत, जिनमें मशक्कत से जुताई-बुवाई करते हो,
सुधरो, वरना भूखो मारेगा सावन, तुम्ही को|
वाकई अहसानफ़रामोश हो,
जो निर्लज्‍जता से कु दरत शोषित करते जाते हो,
पूरा करने तुम्हारी अनंत तक़ाज़ों को|
कोसेगी तुम्हें वह पीढ़ी, जिसे जन्म दिए हो,
धिक्कारेंगे तुम्हें वे जीव, जिनका जीवन नर्क बनाए हो,
सुधरो, वरना सताएंगे तुम्हारे कु कर्म, तुम्ही को|
कु दरत की हाय
-SIDDHANTH NADKARNI
ज्यों ही सोचता हूँ मैं
ज्यों ही सोचता हूँ मैं, कि डुबा पाया हूँ मैं
अपनी आशंकाओं को,
त्यों ही अहसास होता है मुझको, कि
तैरना आता है उन्हें|
ज्यों ही सोचता हूँ मैं, कि पंख स्वरूप
पहन पाया हूँ मैं अपनी ज़ख्मों को,
त्यों ही अहसास होता है मुझको, कि
ज़ंजीरें बनाई गई हैं उन्हें|
ज्यों ही सोचता हूँ मैं, कि भुला पाया हूँ मैं
अपने बीते आप को,
त्यों ही अहसास होता है मुझको, कि मैंने
वर्तमान आप में भी बसाया है उन्हें|
ज्यों ही सोचता हूँ मैं, कि रेगिस्तान में
मरूद्यान मिला है मेरी सूखी साँसों को,
त्यों ही अहसास होता है मुझको, कि एक
मृगतृषा ने चकमा दिया है उन्हें|
By Siddhanth Nadkarni
महाभारत के महाकाव्य को, गहन और प्राचीन,
यदि पढ़ने में हुए हम पूरी तरह लीन,
हर पात्र से सीखेंगे हम कु छ मूल्यवान उसूल,
जिनका पालन किये बिना, हम होंगे फ़िज़ूल|
अर्जुन से सीखते हैं हम समर्पण की कला,
जिसके बिना हर उधमी बनेगा एक खला|
आख़िर कै से बन पाए वे एक निपुण तीरंदाज़?
उनकी विशेषज्ञता का रहस्य, निरंतर रियाज़|
है युधिष्ठिर की सत्यनिष्ठा बेमिसाल,
सिखलाते हैं वे नैतिकता का शम्मा लेकर चलना, जीवन की कष्टमय चाल|
बतलाते हैं वे, कि ईमानदारी और सदाचार,
पुल बनकर कराएंगे हमें दुविधाओं की प्रबल नदी के पार|
जो चुनौतियों से डटकर लड़ते हैं, जिनकी शक्ति है असीम,
ऐसे हैं लाखों में एक, हमारे निर्भय योद्धा भीम|
देते हैं वे हमें मुश्किलों पर फ़तेह पाने की प्रेरणा,
करते हुए अपनी आशंकाओं की अवहेलना|
कर्ण की वफ़ादार मित्रता, दुर्योधन के प्रति,
दिखलाती है उनकी नेक प्रवृत्ति|
कठिन भाग्य के बावजूद उनका बलिदान,
युगों-युगों तक देगा हमें स्वार्थहीनता की सीख का वरदान|
दिव्य सारथी कृ ष्ण, जिनकी प्रबुद्ध सम्मति,
है जीवन के सभी प्रयासों में फ़लती,
सिखलाते हैं हमें कि आंतरिक प्रकाश,
की कभी थमनी नहीं चाहिए हमारी उत्कट तलाश|
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जीवनकाल के चक्रव्यूहों का हल निकाल पाएंगे तब|
चाहे आप आस्तिक हो या नहीं,
जीवन के हर पहलू के अनंत सवालों के जवाब, मिलेंगे आपको यहीं|
महाभारत की शिक्षाएँ
-Siddhanth Nadkarni
ओ छोटी राजकु मारी, तुम
खुलकर बहती हो एक मृदुल नदिका सी|
अपनी कल-कल ध्वनि से करती हो तुम,
अपनी मासूमियत और हुलास का इज़हार|
जैसे उम्र के साथ परिपक्व बनोगी तुम,
बहोगी तुम एक गतिशील निर्झरिणी सी|
किसी दिन अपनी गूँजती गर्जन ध्वनि से करोगी तुम,
अपनी स्वाधीनता और प्रचंड शक्ति का इज़हार|
By Siddhanth Nadkarni
बहोगी तुम
राजनीति की ओखली में,
फ़सा है आम आदमी|
नेताओं के मूसल के तले,
उसकी आवाज़ का पिसना है लाज़मी|
गेहूँ समान पिसेंगे अधिकार भी उसके ,
ताकि बनती रहे रोटी भ्रष्टों की|
फिर तड़के में डालकर झूठे वादे,
बनेगी सब्ज़ी उसके टूटे ख़्वाबों की|
राजनीति
सर्वप्रथम आश्रम, ब्रह्मचर्य,
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जैसे पानी के सहारे, बीज करता है जड़ जमाना शुरू,
ज्ञान के सहारे, बालक के नींव मज़बूत करते हैं गुरु|
द्वितीय आश्रम, गृहस्थ,
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जैसे मन होता है आशावान, देख वसंत में वृक्ष नवपल्लवित,
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गोधूलि वर्ष होते हैं प्रारंभ, जीवन में सूर्य होने लगता है अस्त|
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प्रौढ़ मनुष्य ने बाँटे ज्ञान से, है भावी पीढ़ी बेहतर बनती|
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जैसे स्वर्ग के द्वार खटखटाती हैं अब रिक्त शाखाएँ व गगनचुम्बी तना,
सुबह-सांझ अब करता है मनुष्य, परमात्मा की याचना|
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  • 3. एक पराजित राही -SIDDHANTH NADKARNI न जाने क्यों, ऊपर-वाला उसपर बेरहम है काफ़ी, नहीं बख्श्ता है वह उसकी खामियों को| ये राही तमन्नाएं पाला करता था मगर, हकीकत की तेज़ आंधी, लगातार ध्वस्त कर गई है उसकी मुरादों को| इतना मसरूफ़ है वह तय करने में, डगर जिंदगी की, कि भूल गया है वह जिंदगी जीने के सलीके को| न दिखाई देती है उसे सुरंग के पार कोई रौशनी, और ना ही कु एँ के तल पर पानी पीने को| नतमस्तक होने के कगार पर है अब यह खोया सा राही, आख़िर चूर कर ही दिया बाधाओं ने उसके बुलंद हौसलों को| ख़ाक में मिल गई है अब उसकी कामयाबी हासिल करने की दीवानगी, खो चूका है अब वह चूहा-दौड़ में भिड़ने की ताकत को| आने वाली सुबह, लगती है उसे एक आफ़त सी, क्योंकि वह भुला न पाया है अपने बीते दुर्भाग्यों को| ऐ खुदा, बौछार कर सौभाग्य के महज़ कु छ बूंदों की, राहत मिलेगी इस प्यासे राही को| ....जैसे मन्ना मिला भटकते यहूदियों को|
  • 4. सदा पूछा करते हो, कि कु दरत से क्या दोहन कर सकते हो, मगर यदा थमकर महफ़ू ज़ नहीं रखते उसको| पीड़ित है वह प्रकृ ति, जिसकी कोख से जन्मे हो, त्रस्त हैं वे तत्त्व, जिनपर पलते आए हो, सुधरो, वरना बिलखकर कोसेंगी वे, तुमही को| स्वयं का विस्तृत मकान खड़ा हो, वाहनों के लिए सड़क चौड़ा हो, इसलिए बेघर किया तुमने सैंकड़ो परिंदों को| बेक़सूर हैं वे पेड़, जिन्हें निर्दयता से काटते हो, शिथिल हुई हैं भूमाता, जिन्हें रोज़ाना रौंदते हो, सुधरो, वरना करेंगी वे भूस्खलन से बेघर, तुमही को| लम्बे पुल बाँधते जाते हो, बेशुमार ईमारतें खड़ी करते जाते हो, बदलते हो जीवनदायी नदियों के मार्ग को| अरक्षणीय हैं यह हरकतें, जिन्हें "विकास" कहलाते हो, ऋणी हैं यह ईमारतें, जिन्हें घर कहलाते हो, सुधरो, वरना सूखकर तड़पाएंगी नदियाँ, तुम्ही को| कारखानों में सीसा व लोहा गलाते हो, फ़सलें काटकर खेत जलाते हो, उत्सर्जन से मलिन करते हो पावन वायु को| तेज़ाब की होगी, जिस वर्षा के लिए बेताब रहते हो, ध्वस्त होंगे खेत, जिनमें मशक्कत से जुताई-बुवाई करते हो, सुधरो, वरना भूखो मारेगा सावन, तुम्ही को| वाकई अहसानफ़रामोश हो, जो निर्लज्‍जता से कु दरत शोषित करते जाते हो, पूरा करने तुम्हारी अनंत तक़ाज़ों को| कोसेगी तुम्हें वह पीढ़ी, जिसे जन्म दिए हो, धिक्कारेंगे तुम्हें वे जीव, जिनका जीवन नर्क बनाए हो, सुधरो, वरना सताएंगे तुम्हारे कु कर्म, तुम्ही को| कु दरत की हाय -SIDDHANTH NADKARNI
  • 5. ज्यों ही सोचता हूँ मैं ज्यों ही सोचता हूँ मैं, कि डुबा पाया हूँ मैं अपनी आशंकाओं को, त्यों ही अहसास होता है मुझको, कि तैरना आता है उन्हें| ज्यों ही सोचता हूँ मैं, कि पंख स्वरूप पहन पाया हूँ मैं अपनी ज़ख्मों को, त्यों ही अहसास होता है मुझको, कि ज़ंजीरें बनाई गई हैं उन्हें| ज्यों ही सोचता हूँ मैं, कि भुला पाया हूँ मैं अपने बीते आप को, त्यों ही अहसास होता है मुझको, कि मैंने वर्तमान आप में भी बसाया है उन्हें| ज्यों ही सोचता हूँ मैं, कि रेगिस्तान में मरूद्यान मिला है मेरी सूखी साँसों को, त्यों ही अहसास होता है मुझको, कि एक मृगतृषा ने चकमा दिया है उन्हें| By Siddhanth Nadkarni
  • 6. महाभारत के महाकाव्य को, गहन और प्राचीन, यदि पढ़ने में हुए हम पूरी तरह लीन, हर पात्र से सीखेंगे हम कु छ मूल्यवान उसूल, जिनका पालन किये बिना, हम होंगे फ़िज़ूल| अर्जुन से सीखते हैं हम समर्पण की कला, जिसके बिना हर उधमी बनेगा एक खला| आख़िर कै से बन पाए वे एक निपुण तीरंदाज़? उनकी विशेषज्ञता का रहस्य, निरंतर रियाज़| है युधिष्ठिर की सत्यनिष्ठा बेमिसाल, सिखलाते हैं वे नैतिकता का शम्मा लेकर चलना, जीवन की कष्टमय चाल| बतलाते हैं वे, कि ईमानदारी और सदाचार, पुल बनकर कराएंगे हमें दुविधाओं की प्रबल नदी के पार| जो चुनौतियों से डटकर लड़ते हैं, जिनकी शक्ति है असीम, ऐसे हैं लाखों में एक, हमारे निर्भय योद्धा भीम| देते हैं वे हमें मुश्किलों पर फ़तेह पाने की प्रेरणा, करते हुए अपनी आशंकाओं की अवहेलना| कर्ण की वफ़ादार मित्रता, दुर्योधन के प्रति, दिखलाती है उनकी नेक प्रवृत्ति| कठिन भाग्य के बावजूद उनका बलिदान, युगों-युगों तक देगा हमें स्वार्थहीनता की सीख का वरदान| दिव्य सारथी कृ ष्ण, जिनकी प्रबुद्ध सम्मति, है जीवन के सभी प्रयासों में फ़लती, सिखलाते हैं हमें कि आंतरिक प्रकाश, की कभी थमनी नहीं चाहिए हमारी उत्कट तलाश| इन तमाम उसूलों पर अमल करेंगे जब, जीवनकाल के चक्रव्यूहों का हल निकाल पाएंगे तब| चाहे आप आस्तिक हो या नहीं, जीवन के हर पहलू के अनंत सवालों के जवाब, मिलेंगे आपको यहीं| महाभारत की शिक्षाएँ -Siddhanth Nadkarni
  • 7. ओ छोटी राजकु मारी, तुम खुलकर बहती हो एक मृदुल नदिका सी| अपनी कल-कल ध्वनि से करती हो तुम, अपनी मासूमियत और हुलास का इज़हार| जैसे उम्र के साथ परिपक्व बनोगी तुम, बहोगी तुम एक गतिशील निर्झरिणी सी| किसी दिन अपनी गूँजती गर्जन ध्वनि से करोगी तुम, अपनी स्वाधीनता और प्रचंड शक्ति का इज़हार| By Siddhanth Nadkarni बहोगी तुम
  • 8. राजनीति की ओखली में, फ़सा है आम आदमी| नेताओं के मूसल के तले, उसकी आवाज़ का पिसना है लाज़मी| गेहूँ समान पिसेंगे अधिकार भी उसके , ताकि बनती रहे रोटी भ्रष्टों की| फिर तड़के में डालकर झूठे वादे, बनेगी सब्ज़ी उसके टूटे ख़्वाबों की| राजनीति
  • 9. सर्वप्रथम आश्रम, ब्रह्मचर्य, आरम्भ होता है, शिक्षाप्राप्ति का अद्भुत कार्य| जैसे पानी के सहारे, बीज करता है जड़ जमाना शुरू, ज्ञान के सहारे, बालक के नींव मज़बूत करते हैं गुरु| द्वितीय आश्रम, गृहस्थ, होने लगता है मनुष्य, पारिवारिक कर्तव्यों में व्यस्त| जैसे मन होता है आशावान, देख वसंत में वृक्ष नवपल्लवित, आंचल में नवजात शिशु के हँसने पर, मनुष्य होता है उत्साहित| तृतीय आश्रम, वानप्रस्थ, गोधूलि वर्ष होते हैं प्रारंभ, जीवन में सूर्य होने लगता है अस्त| जैसे शरद की पतझड़ से होती है पोषित धरती, प्रौढ़ मनुष्य ने बाँटे ज्ञान से, है भावी पीढ़ी बेहतर बनती| चतुर्थ आश्रम, संन्यास, त्यागता है मनुष्य सर्व भोग-विलास, छोड़ जगत पर अपना आभास| जैसे स्वर्ग के द्वार खटखटाती हैं अब रिक्त शाखाएँ व गगनचुम्बी तना, सुबह-सांझ अब करता है मनुष्य, परमात्मा की याचना| -SIDDHANTHNADKARNI चार आश्रम, वृ क्ष समान