*पंवार(पोवार) समाज की प्रतिष्ठा और वैभव*🚩🚩🚩
*समाज का सर्वविकास*🤝🤝
*पोवारी सांस्कृतिक चेतना केंद्र*🚩
नगरधन-वैनगंगा क्षेत्र में पंवारों को आकर बसने में लगभग 325 वर्ष हो चुके हैं और इन तीन शतकों में इस समाज ने इस क्षेत्र में विशेष पहचान बनाई हैं। मालवा राजपुताना से आये इन क्षत्रियों के पंवार(पोवार) संघ ने इस नवीन क्षेत्र के अनुरूप खुद को ढाल लिया लेकिन साथ में अपनी मूल राजपुताना पहचान को भी बनाये रखा है।
पोवार अपनी पोवारी संस्कृति और गरिमा के साथ जीवन व्यापन करते हैं और निरंतर विकास पथ पर अग्रसर हैं। शाह बुलन्द बख्त से लेकर ब्रिटिश काल तक इन क्षत्रियों की स्थानीय प्रशासन और सैन्य भागीदारी में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वैनगंगा क्षेत्र में बसने के बाद पंवारों ने खेती को अपना मूल व्यवसाय चुना और इन क्षेत्रों में उन्नत कृषि विकसित की।
देश की आजादी के बाद से समाज में खेती के अतिरिक्त नौकरी और अन्य व्यवसाय की तरफ झुकाव बढ़ता गया और आज सभी क्षेत्रों में पोवार भाई निरंतर तरक्की कर रहे है। जनसंख्या में बढ़ोतरी के साथ कृषि जोत का आकार छोटा होता गया और छोटी जोत तथा श्रमिक न मिलने के कारण अब कृषि के साथ नौकरी और अन्य आय के साधनों को अपनाना समय की आवश्यकता है इसीलिए अब समाज जन दुसरो शहरों की ओर रोजगार हेतु विस्थापित भी हो रहे हैं। वैनगंगा क्षेत्र से बड़ा विस्थापन नागपुर, रायपुर सहित कई अन्य शहरों में हुआ है, हालांकि कोरोना जनित परिस्थितियों के कारण कई परिवार वापस अपने मूल गांव भी आये हैं। बालाघाट, गोंदिया, सिवनी और भंडारा जिलों के मूल निवासी, छत्तीश कुल के पोवार अब देश-विदेश में अपने कार्यों से समाज के वैभव को आगे बढ़ा रहे हैं।
विकास के आर्थिक पहलुओं के साथ सामाजिक पहलुओं पर भी चिंतन किया जाना आवश्यक है। समाज की तरक्की के साथ सांस्कृतिक मूल्यों का संरक्षण भी जरूरी हैं तभी इसे समग्र विकास माना जायेगा। यह बहुत ही गौरव का विषय है कि समाज की बोली अपनी बोली है, जिसे पोवारी कहते है। आज समाज की जनसंख्या लगभग तेरह से पंद्रह लाख के मध्य है और लगभग आधी जनसंख्या ही पोवारी बोली बोलती है या जानती हैं, जिसका प्रतिशत धीरे धीरे और भी कम हो रहा है। समाज के सभी लोग इस दिशा में मिलकर काम करे तो नई पीढ़ी को अनिवार्य रूप से पोवारी सिखा सकते है। पोवारी ही समाज की मातृभाषा है, लेकिन हिंदी और मराठी, क्षेत्रवार यह स्थान ले रही है। पोवारी सिर्फ हमारे समाज की बोली है इसीलिए यह उतनी व्यापक तो नही हो सकती पर अपने परिवार और समाज के मध्य इसका बहुतायत में प्रयोग करें तो पूरा समाज इसे बोल पायेगा।
आर्थिक समस्याओं के साथ अंतरजातीय विवाह, धर्मपरिवर्तन, पोवारी सांस्कृतिक मूल्यों का पतन, देवघर की चौरी का त्याग, ऐतिहासिक नाम पंवार और पोवार के साथ छेड़छाड़ कर दूसरे समाजों के नामों को ग्रहण करवाना, बुजुर्गों के अच्छे पालन-पोषण में कमी, दहेज की मांग आदि अनेक समस्याएं समाज के सामने खड़ी हैं जिसको सभी को मिलकर सुलझाना है। सामाजिक संस्थाओं को भी पोवारी बोली और उन्नत पंवारी संस्कृति को बचाने के लिए आगे आना होगा।
1. पंवार(पोवार) समाज क� प्रित�ा और वैभव
समाज का सवर्िवकास
पोवारी सांस्कृ ितक चेतना कें द्र
नगरधन-वैनगंगा �ेत्र में पंवारों को आकर बसने में लगभग 325 वषर् हो चुके हैं और इन तीन शतकों
में इस समाज ने इस �ेत्र में िवशेष पहचान बनाई हैं। मालवा राजपुताना से आये इन �ित्रयों के पंवार(पोवार)
संघ ने इस नवीन �ेत्र के अनु�प खुद को ढाल िलया लेिकन साथ में अपनी मूल राजपुताना पहचान को
भी बनाये रखा है । पोवार अपनी पोवारी संस्कृित और ग�रमा के साथ जीवन व्यापन करते हैं और िनरंतर
िवकास पथ पर अग्रसर हैं। शाह बुलन्द बख्त से लेकर िब्रिटश काल तक इन �ित्रयों क� स्थानीय प्रशासन
और सैन्य भागीदारी में महत्वपूणर् भूिमका रही है। वैनगंगा �ेत्र में बसने के बाद पंवारों ने खेती को अपना
मूल व्यवसाय चुना और इन �ेत्रों में उन्नत कृिष िवकिसत क�।
देश क� आजादी के बाद से समाज में खेती के अित�र� नौकरी और अन्य व्यवसाय क� तरफ झुकाव
बढ़ता गया और आज सभी �ेत्रों में पोवार भाई िनरंतर तरक्क� कर रहे है। जनसंख्या में बढ़ोतरी के साथ
कृिष जोत का आकार छोटा होता गया और छोटी जोत तथा श्रिमक न िमलने के कारण अब कृिष के साथ
नौकरी और अन्य आय के साधनों को अपनाना समय क� आवश्यकता है इसीिलए अब समाज जन दुसरो
शहरों क� ओर रोजगार हेतु िवस्थािपत भी हो रहे हैं। वैनगंगा �ेत्र से बड़ा िवस्थापन नागपुर, रायपुर सिहत
कई अन्य शहरों में ह�आ है, हालांिक कोरोना जिनत प�रिस्थितयों के कारण कई प�रवार वापस अपने मूल
गांव भी आये हैं। बालाघाट, गोंिदया, िसवनी और भंडारा िजलों के मूल िनवासी, छ�ीश कुल के पोवार
अब देश-िवदेश में अपने कायोर्ं से समाज के वैभव को आगे बढ़ा रहे हैं।
िवकास के आिथर्क पहलुओंके साथ सामािजक पहलुओंपर भी िचंतन िकया जाना आवश्यक है।
समाज क� तरक्क� के साथ सांस्कृितक मूल्यों का संर�ण भी ज�री हैंतभी इसे समग्र िवकास माना जायेगा।
यह बह�त ही गौरव का िवषय है िक समाज क� बोली अपनी बोली है, िजसे पोवारी कहते है। आज समाज
क� जनसंख्या लगभग तेरह से पंद्रह लाख के मध्य हैऔर लगभग आधी जनसंख्या ही पोवारी बोली बोलती
है या जानती हैं, िजसका प्रितशत धीरे धीरे और भी कम हो रहा है। समाज के सभी लोग इस िदशा में
िमलकर काम करे तो नई पीढ़ी को अिनवायर् �प से पोवारी िसखा सकते है। पोवारी ही समाज क� मातृभाषा
है, लेिकन िहंदी और मराठी, �ेत्रवार यह स्थान ले रही है। पोवारी िसफर् हमारे समाज क� बोली है इसीिलए
2. यह उतनी व्यापक तो नही हो सकती पर अपने प�रवार और समाज के मध्य इसका बह�तायत में प्रयोग करें
तो पूरा समाज इसे बोल पायेगा।
आिथर्क समस्याओंके साथ अंतरजातीय िववाह, धमर्प�रवतर्न, पोवारी सांस्कृितक मूल्यों का पतन,
देवघर क� चौरी का त्याग, ऐितहािसक नाम पंवार और पोवार के साथ छेड़छाड़ कर दूसरे समाजों के नामों
को ग्रहण करवाना, बुजुगोर्ं के अच्छे पालन-पोषण में कमी, दहेज क� मांग आिद अनेक समस्याएं समाज
के सामने खड़ी हैं िजसको सभी को िमलकर सुलझाना है। सामािजक संस्थाओंको भी पोवारी बोली और
उन्नत पंवारी संस्कृित को बचाने के िलए आगे आना होगा। केवल वषर् में राजा भोज जयंती या वािषर्क
कायर्क्रम मना लेने या जन्मिदन/वषर्गांठ/शोक संदेश देने भर से काम नही चलेगा। इन्हें वषर् भर समाजोत्थान
के साथ अपनी बोली और संस्कृित को बचाने के िलए िनरंतर कायर् करते रहना होगा। कुछ लोग समाज
सेवा के नाम से चंदा लेकर अपने िनजी स्वाथर् िसिद्ध में लगे हैं और ऐसे लोगो क� पहचान बह�त ज�री है।
समाज का सावर्जिनक धन िसफर् समाजोत्थान और सांस्कृितक उत्कषर् के िलए उपयोग होना चािहए न िक
िकसी िनजी स्वाथर् या समाज क� पहचान िमटाने में या िकसी िवघटनकारी कायर् को करने में।
हमारे पुरखों ने बड़े जतन से अपने गौरवशाली इितहास को बचा कर हमें सौंपा है और इसे संरि�त
और संविधर्त कर नई पीढ़ी को सौंपना हैं। धन आता जाता रहेगा लेिकन संस्कृित का पतन होने पर उसे
वापस लाना बह�त मुिश्कल होता है। सामािजक कायोर्ं में लोगो क� �िच वैसे ही कम होती है और सच्चे मन
से समाज का सवर्िवकास चाहते है उन्हें प्रोत्सािहत िकया जाना चािहए िजससे अिधक से अिधक लोग
िनस्वाथर् भाव से समाज के कल्याण के िलए आगे आये। समाज के कायर् में राजनीितक स्वाथर् नही आना
चािहए। राजनीितक िवचारधारा, सामािजक कायोर्ं में नही आनी चािहए। सामािजक मंच और राजनीितक
मंचों क� अपनी मयार्दाएं होती है और दोनों को आपस मे िमलाने से समाज में टकराव बढ़ता है और
सामािजक तथा सांस्कृितक िवकास के कायर् बािधत होते है, इसीिलए राजनीितक िवचारधारा, सामािजक
समूह और मंचों से दूर रहना चािहये।
हमें िकसी भी हाल में अपनी ऐितहािसक ग�रमा को नही भूलना चािहए और इसे िनरंतर नई पीढ़ी को
िसखाते रहना होगा। हर गांव और शहर के वाडर् में पोवारी सांस्कृितक चेतना कें द्र काम करने चािहए तािक
उसमेअपनी बोली, इितहास, रीित-�रवाज, संस्कृित, नेंग-दस्तूर पर बुज़ुगोर्ं के द्वारा क�ाएं िलए जाने चािहए।
इसे हमारे समाज के सदस्यों में अपनी बोली, संस्कृित और समृद्ध इितहास के प्रित सम्मान जागेगा और
समाज का सांस्कृितक पतन �क जाएगा।
�ित्रय पंवार(पोवार) समाजोत्थान संस्थान, बालाघाट