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ISSN 2454-2725
विषय सूची
कविता
डॉ. श्याम गुप्त (कविता), सरोज उत्प्रेती (कनाड़ा)
(कविता), हर्षिधषन आयष (कविता), महेश कु मार
माटा (कविता), निीन मवि विपाठी (कविता),
रजनीकाांत शुक्ला (कविता), शावलनी ‘शालू’ नज़ीर
(कविता), सांजय िमाष (कविता), सोनू चौधरी
(कविता), सुशाांत सुवरय (कविता), रीता चौधरी
(कविता)
कहानी
पानी: सीमा जैन (कहानी)
लघुकथा
पानी का हर बूांद: लालजी ठाकूर (लघुकथा)
व्यंग्य
सरकारी हैडपम्प की व्यथा: मोहनलाल मौयष (व्यांग्य)
आलेख: जल सम्पदा एिं जल संकट
21िीं सदी की बड़ी और विकराल समस्या: अनीता
देिी
वहांदी सावहत्प्य में पानी एक सिेक्षि: सुनीता
राकृवतक उपहार ‘जल’: अमर कुमार चौधरी
मेघों का मनाने का अांदाज अपना-अपना: आकाांक्षा
यादि
जल की धार-राि आधार: डॉ. मृिावलका ओझा
सभ्यता और सांस्कृवत की अविरल धारा है गांगा:
कृष्ि कुमार यादि
डॉक्यूमेंटरी विल्मों में वचवित विश्वव्यापी जल सांकट
की दशा और वदशा: मनीर् खारी
रुपहले पदे पर पानी (Water in Cinema): उमेश
कुमार राय
अब की बार िसल शहर में: वनलामे गजानन
सूयषकाांत
भारत का जल सांसाधन: वमवथलेश िामनकर एिां
विजय वमिा
लातूर पानी के वलए सांघर्ष: रिीि पाठक
एवशयाई देशों में गहराता जल सांकट: विश्व
जलरिीि रभाकर
भारत में पानी: रेमचांद श्रीिास्ति
जल एिां सांभावित स्िास््य सांकट: आर. सपना
भारत में घटते सांसाधन: रांजीत
जल समस्या: स्थानीयता ही है समाधान: एस.जी.
िोम्बाटकर
जल सांकट के मुहाने पर गांगा यमुना का दोआब:
शालू अग्रिाल
जल रदूर्ि के कारि और रभाि: सोवनया माला
सांकट में पानी: यूएनईपी
बैगा जनजावत में िर्ाष गीत: अजुषन वसांह धुिे
लोकगीतों में िर्ाष: डॉ. रामनारायाि वसांह ‘मधुर’
आलेख: जल संरक्षण एिं प्रबंधन
जल सांकट के रवत लोगों को जागरूक करने में
विज्ञापन की भूवमका: शवश गौड़
जल विद्युत नीवत, बाांधों के वनमाषि, समीक्षा की
आिश्यकता: वििेक रांजन श्रीिास्ति
‘जल’ ‘सांरक्षि’ ही अांवतम विकल्प: शौभा जैन
जल भण्डारि, सांरक्षि तथा रबांधन: ए. के . चतुिेदी
सम्पूिष जल रबांधन: राजेश गुप्ता
िर्ाष जल सांरक्षि: रेशमा भारती
कैसे सहज और व्यिवस्थत हो तालाब वनमाषि:
मविशांकर उपाध्याय
जल सांरक्षि के आसान उपाय: वनवतन रोडेकर
सरकां डे से होगी नवदयों की सिाई: विकास
धूवलया/अरविांद शेखर
िॉर िॉर िाटर: एएमएि न्यूज़
छत के पानी का एकिीकरि: इांवडया िॉटर पोटषल
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ISSN 2454-2725
भारत में जलक्षेि के वनजीकरि और बाजारीकरि के
रभाि: इांवडया िॉटर पोटषल
जल रदूर्ि: वनजात वदलाएगा एसएसएि: इवण्डया
िॉटर पोटषल
जलाशयों की मरम्मत, जीिोद्धार ि निीकरि स्कीम
पर नोट: जल सांसाधन मांिालय, भारत सरकार
Some Useful Website, Articles and
Documentary on Water Issue: Kavita
Singh Chauhan
Water and Journey: Rakesh Kumar
Mathur (London)
अवतवथ संपादक: रमेश कुमार
विशेष आभार: इवण्डया िॉटर पोटषल
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ISSN 2454-2725
जल की प्रत्येक बूूंद का सूंचयन आने वाली सभ्यता का भववष्य तय करेगी...
कु छ वक्त पहले यह चेतावनी दी गई वक
अगला ववश्वयु्ध  पानी क लेकर ह सकता
है. यह चेतावनी सही सावबत ह सकती है,
वजस तरह से जल का द हन ह रहा है और
हमारे अवततत्व पर सूंकट मूंडरा रहा है ऐसे में
वनवित ही यह पररवतथवत उत्पन्न ह सकती
है. आप इन्टरनेट पर तलाशेंगे त अफ्रीका
से लेकर कई देशों की भयावह ततवीर देखने
क वमलेगी. आवखर जल की एक बूूंद क
तरसते हुए ल गों की इस वतथवत का असली
कारण ख जे त हमें तवयूं पर प्र्न  उााने
होंगे. आज जब जल सूंरक्षण क लेकर
वचूंता व्यक्त की जा रही है कई सूंतथाएूं इस
क्षेत्र में प्रयासरत है तब भी हम भववष्य में
जल की उपवतथवत क लेकर सशूंवकत है.
हमारी यह वचूंता मानव अवततत्व क लेकर
है कयूूंवक धरती पर कु छ ही प्रवतशत पानी
पीने य ग्य है और इसमें भी ज शेष जल है
उसे हमारे तवाथथ ने ववकास के नाम पर खत्म
कर वदया है.
यवद हम अपने मानव सभ्यता के प्रारूंवभक
समय क देखें त वहाूं जल सूंरक्षण के कई
उपाय नजर आयेंगे इसका तपष्ट उदाहरण
तालाब सूंतकृ वत है. एक वक्त था जब भारत
में तालाबों की सूंख्या में थी आज इनकी
सूंख्या उलगवलयों पर वगनी जा सकती है.
हमारी अूंधाधुूंध ववकास की दौड़ में हमने
अपने प्राकृ वतक सूंसाधनों का लगातार
श षण वकया अब यह वतथवत ववकराल रूप
धारण कर चुकी है इसका तपष्ट उदाहरण हम
उत्तर प्रदेश के बुूंदेलखूंड इलाके एवूं
महाराष्र के लातूर वजले क देख सकते हैं,
जहाल अकाल जैसी वतथवत उत्पन्न ह गई.
इस वतथवत से वनपटने के वलए सरकार ने
तत्कालीन उपाय भी वकए लेवकन
वैज्ञावनकों की चेतावनी क दरवकनार करते
हुए क ई सशक्त कदम नहीं उााए गए.
आवखर हम इस तरह की पररवतथवत का
इूंतज़ार कयूल करते हैं. यवद हमें ऐसी वतथवत से
वनपटना है त तालाब सूंतकृ वत की ओर
लौटना ह गा. हमें अपने प्राचीन जल
सूंरक्षण नीवतयों एवूं आधुवनक साधनों के
वमश्रण से ऐसा मागथ तलाशना ह गा, वजससे
शेष जल क सूंरवक्षत वकया जा सके .
जनकृ वत का यह अूंक वतथमान जल सूंकट,
जल सूंरक्षण एवूं जल सूंसाधनों पर के वन्ित
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है. इस अूंक में जल के ववववध पक्षों पर
ववचारों क प्रकावशत वकया है. इस अूंक के
माध्यम से हम जल सूंकट की भयावता क
वदखाना चाहते हैं और आग्रह करते हैं वक
हम इस समतया के प्रवत गूंभीरता से स चें
और कारगर कदम उााएूं. इस अूंक में
ववश्वभर में जल सूंरक्षण क लेकर कायथ कर
रही सूंतथाओूंके वलूंक क भी तथान वदया है
तावक हम जल सूंरक्षण क लेकर ह रहे
वैवश्वक कायों से जुड़ सकें . इस आशा के
साथ वक हम ‘जल’ के महत्त्व क समझेंगे
और इस वदशा में कारगर कदम उााएूंगे,
जनकृ वत अूंतरराष्रीय पवत्रका का जल
ववशेषाूंक आपके समक्ष प्रततुत है.
अूंत में इस अूंक क साथथक रूप देने हेतु
इूंवडया वॉटर प टथल का ववशेष रूप से
आभार..
-कु मार गौरव वमश्र
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में हूँ पानी की वही बूूँद ,
आततहास मेरा देखा भाला |
मैं शाश्वत, तवतवध रूप मेरे,
सागर घन वषाा तहम नाला। 1
धरती आक अग का गोला थी,
जब मातंड से तवलग हुइ।
शीतल हो ऄणु परमाणु बने,
बहु तवतध तत्वों की सृति हुइ । 2
अकाश व धरती मध्य बना,
जल वाष्प रूप में छाया था।
शीतल होने पर पुनः वही,
बन प्रथम बूूँद आठलाया था । 3
जग का हर कण कण मेरी आस ,
शीतलता का था मतवाला ।
मैं पानी की वही बूूँद,
आततहास मेरा देखा भाला।। 4
तिर युगों युगों तक वषाा बन,
मैं रही ईतरती धरती पर ।
तन मन पृथ्वी का शीतल कर,
मैं तनखरी सप्ततसन्धु बनकर। 5
पहली मछली तजसमें तैरी,
मैं ईस पानी का तहस्सा हूँ।
ऄततकाय जंतु से मानव तक,
की प्यास बुझाता तकस्सा हूँ। 6
रतव ने ज्वाला से वातष्पत कर,
तिर बादल मुझे बना डाला।
मैं हूँ पानी की वही बूूँद,
आततहास मेरा देखा भाला॥ 7
मैं वही बूूँद जो पृथ्वी पर,
पहला बादल बनकर बरसी।
नतदया नाला बनकर बहती,
झीलों तालों को थी भरती। 8
राजा संतों की राहों को,
मुझसे ही सींचा जाता था।
मीठा ठंडा और शुद्ध नीर,
कुओंसे खींचा जाता था। 9
बन कुए सरोवर नद झीलें ,
मैंने सब धरती को पाला।
मैं वही बूूँद हूँ पानी की ,
आततहास मेरा देखा भाला॥ 10
उूँ चे उूँ चे तगरर- पवात पर,
शीतल होकर जम जाती हूँ।
तहमवानों की गोदी में पल,
तहमनद बनकर आठलाती हूँ। 11
सतवता के शौया रूप से मैं,
हो द्रतवत भाव जब बहती हूँ।
प्रेयतस सा नतदया रूप तलए,
सागर में पुनः तसमटती हूँ। 12
मैं ईस तहमनद का तहस्सा हूँ,
तनकला पहला नतदया नाला।
मैं हूँ पानी की वही बूूँद,
आततहास मेरा देखा भाला॥ 13
तब से ऄब तक मैं वही बूूँद,
तन मन मेरा यह शाश्वत है।
6
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वाष्पन संघनन व द्रवणन से ,
मेरा यह जीवन तनयतमत है। 14
मैं वही पुरातन जल कण हूँ ,
शाश्वत हैं नि न होते हैं ।
यह मेरी शाश्वत यात्रा है,
जलचक्र आसी को कहते हैं। 15
सूरज सागर नभ मतह तगरर ने,
तमलकर मुझको पाला ढाला।
मैं ही पानी बादल वषाा,
ओला तहमपात ओस पाला। 16
मेरे कारण ही तो ऄब तक,
नश्वर जीवन भी शाश्वत है।
ऄतत सुख-ऄतभलाषा से नर की,
ऄब जल थल वायु प्रदूतषत है ।१७.
सागर सर नदी कूप पवात,
मानव कृत्यों से प्रदूतषत हैं।
आनसे ही पोतषत होता यह,
मानव तन मन भी दूतषत है। 18
प्रकृतत का नर ने स्वाथा हेतु,
है भीषण शोषण कर डाला।
मैं हूँ पानी की वही बूूँद ,
आततहास मेरा देखा भाला॥ 19
कर रहा प्रदूषण तप्त सभी,
धरती अकाश वायु जल को।
ऄपने ऄपने सुख मस्त मनुज,
है नहीं सोचता ईस पल को। 20
पवातों ध्रुवों की तहम तपघले,
सारा पानी बन जायेगी।
भीषण गमी से बादल बन,
ईस महावृति को लायेगी। 21
अयेगी महा जलप्रलय जब,
ईमडे सागर हो मतवाला।
मैं वही बूूँद हूँ पानी की ,
आततहास मेरा देखा भाला॥ २२.
डा श्याम गुप्त, सुश्यानिदी, के -३४८, आनियािा,
लखिऊ २२६०१२
मो. ९४१५१५६४६४..
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बबना जल के रेत के टीलों सा यह संसार होता
हम ना होते तुम ना होते, अगर दुबनयां में जल न होता
कै से उडती फूल की खुशबू कै से भंवरो का गुन्जन होता
हरी भरी घास न होती , बन उपवन सब उजड़ा होता
गंगा होती ना, जमुना होती ना बहता झरनो से पानी
सूखे ताल तलैय्या होते, सागर गड्डे सा फैला होता
देश बवदेश कुछ भी नही होते ,संसार नाम नही होता
धरती का सीना रहता खाली , रहने वाला कोई नही होता
नही होती सभ्यता बवकबसत, पुराना कोई इबतहास न होता
मंबदर मबजजद नही चचच न होते, ग्रन्थ साबहब पाठ न होता
- सरोज उप्रेती ( कनाडा)
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"जल" जजसके जिना सृजि के अजतित्व की कल्पना करना ही मुजककल है । सूक्ष्मिम जीव से लेकर वनतपजियााँ िक
जजसके जिना जनजीव हैं । ऐसे अमृि रस जल को ििााद करना जीव हत्या के समान जनिंदनीय है ।
जागो !! समझो !! अपनाओ !!
जल िचाओ -जीवन िचाओ ।
प्रेरणा गीत :
…………………….
वरुण देव के अमृि घट से िहिा जीवन रस प्रजिपल
अरे सम्हालो धरिी पुत्रो नि ना हो धरिी का जल ॥
जल में धरिी, धरिी में जल है अद्भुि िाना-िाना
जल के जिन धरिी पर अन्न का उग सकिा ना इक दाना
पेड़ धरा की िाहें िन कर िुला रहे होिे हैं घन
उमड़-घुमड़ घन सुख वर्ाा से भरिे धरिी का आाँगन
िहिी सरस नेह की धारा एकाकार हुवे जल-थल
अरे सम्हालो धरिी पुत्रो नि ना हो धरिी का जल ॥
जल जीवन का सार धरा पर, जल सिसे अनमोल रिन
जल जिन है जग सूना मरुथल, जल जिन है दुखमय जीवन
थलचर-नभचर-जलचर सिका जल ही है जीवन दािा
धरिी पर जीवों का जल से जपिा-पुत्र का है नािा
जो जल को दूजर्ि करिे हैं, करिे मानविा से छल
अरे सम्हालो धरिी पुत्रो नि ना हो धरिी का जल ॥
चााँद-जसिारों पर पानी को मानव आज रहा है खोज
पर धरिी के अमृि -घट को दूजर्ि करिा है हर रोज
भौजिक सुख में जलप्त रसायन िहा रहा है नजदयों में
जमनटों में जवर्मय करिा जो अमृि िनिा सजदयों में
आज सुधारोगे ग़र खुद को िभी सुधर पायेगा कल
अरे सम्हालो धरिी पुत्रो नि ना हो धरिी का जल ॥
वरुण देव के अमृि घट से िहिा जीवन रस प्रजिपल
अरे सम्हालो धरिी पुत्रो नि ना हो धरिी का जल ॥
9
ISSN 2454-2725
2.
जल के जिना है सूनी, मानुर् की यह जूनी
जल से कभी भी, जखलवाड़ मि कररये
िूिंद-िूिंद जल अनमोल होिा मोजियों सा
नल खुला छोड़ने का, लाड़ मि कररये
जल को िहा रहे जो मूढ़ मजि नाजलयों में
ऐसे िावलों की कभी, आड़ मि कररये
जल ना रहा िो जल जाएगा ये जग सारा
भूल के भी जल से, जिगाड़ मि कररये ।।
अध्यक्ष -रोटरी क्लब ऑफ दिल्ली अपटाउन
पिा - 2497/191,ओिंकार नगर ,जत्रनगर ,जैन तथानक रोड,जदल्ली -110035
मोिाइल - 9968421236,
10
ISSN 2454-2725
हाथो में तलवार ललए
बूूंद बूूँद पानी को तरसते
कूं ठ में भीषण चीत्कार ललए
मर रहे असमय मौत से
चहूँ और हाहाकार ललए
हे लवधाता
लवशाल जलसमूह में समायी है धरा
लिर क्यों खाली है घड़ा
वीरान कमरे में औूंधा धरा
शुष्क लनजीव पड़ा
मन हो रहा क्रलददत
सूखी नलदयाूं देख
नालो पे थामे पतवार ललए
हे मनुष्य
अब भी सम्भल जा
अदयथा बहत पछतायेगा
या तो रेलगस्तान में मरता
या समुद्र में डूबता नज़र आयेगा
चीख चीख कर कह रही धरती
रोक लो अभी भी दोहन मेरे गभभ का
बचा लो पानी की एक एक बूूँद
हाथों में समय की धार ललए
न लबगाड़ो सदतुलन प्रकृलत का
कर लो प्रलतज्ञा
ह्रदय में भलवष्य का ज्वार ललए
नही तो यूूँ ही कटते रहोगे
एक एक बूूँद के ललए
हाथो में तलवार ललए
हाथों में तलवार ललए
(महेश कु मार माटा )
Mahesh kumar matta
114-A, k-1 extension, gurudwara road, mohan
garden, new delhi 110059
Phone: 9711782028
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जल जीवन आधार है मत कर जल बरबाद ।
बूूँद बूूँद में प्राण है, है यह ईश प्रसाद ।।
जल को संरक्षित करो बाधो तगड़ा सेतु ।
क्षवश्वयुद्ध अगला कभी होगा जल के हेतु ।।
कं करीट जंगल हुआ नगर नगर का िेत्र ।
पानी क्षबन बेहाल हो तरसा मानव नेत्र ।।
ताल तलैया खो रहे इन्हें बचाये कौन ।
जल संरिण पर हुआ संक्षवधान क्यों मौन ।।
उन्नक्षत की कैसी चुनी यह तुमने तरकीब ।
दूक्षषत सारा जल हुआ मरने लगा गरीब ।।
नक्षदयों के इस देश का यह कैसा सम्मान ।
मल्टी नेशनल जल क्षलए सजी हुई दूकान।।
रुष्ट हुई गंगा बहुत हुआ बहुत अपमान ।
देवी अपना खो गयीं कलयुग में पहचान ।।
जीवन से गर प्रीक्षत है तो मत करना उपहास ।
जल की मयाादा रखो हो तभी बुझेगी प्यास ।।
--नवीन मणि णिपाठी
12
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मैं हूं नन्हीं बूूंद जल की ,
बूूंद-बूूंद प्रवाहहत
सागर तल की ।
मुझमें हहम्मत सराबोर है ,
मेरी आशाएूं चहूंओर है ॥
पल में प्रलय ,
पल में सूखा ,
हजूंदगी का एक कोना ,
अभी है रूखा-रूखा ।
तुम्हारी नजरें ढूूंढे ,
मुझे पहरों में ,
मैं कल-कल करती ,
बहती लहरों में ॥
पहाडों से उद्गार हआ ,
कभी सागर का श्ृूंगार हकया ,
वसुूंधरा तुझपे बहते-बहते
मातृत्व सा व्यवहार हआ ।
मुझे चोट लगे ,
गर पाषाणों से ,
नादान बालक है वो ,
मैं चाहूं उसे जी प्राणों से ॥
मैं जब- जब आती ,
बहती बाररश में ,
कोख हररयाली हो जाए ,
वसुूंधरा की खव्वाहहश में ।
हिर से िहर उठे ,
प्रकृहत की पताका ,
बस इतनी सी
अजमाइश है ।
िेंक रहा मानुष ,
कूडा करकट
समा रहा मुझमें
गूंदगी का जमघट ॥
रूके - रूके से
ये श्ाूंस है ,
अब मुझे ना ,
मौत का आभास है ।
हर क्षण ,
हर पल ,
समा रही मैं तुझमें ,
तेरा अूंत हमल जायेगा
ऐ मानुष !
भटकते-भटकते मुझमें॥
शालिनी'शािू' नजी ऺर
नोहर तहसीि
लजिा हनुमानगढ़(राजस्थान)
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जल कहता
इंसान व्यर्थ क्यों ढोलता है मुझे
आवश्यकता होने पर
खोजने लगता है क्यों मुझे ।
बादलों से छनकर मै
जब बरसता
सहेजना ना जानता
इंसान इसललए तरसता ।
ये माहौल देख के
नलदयााँ रुदन करने लगती
उनका पानी आाँसुओंके रूप में
इंसानों की आाँखों में भरने लगती ।
कै से कहे मुझे व्यर्थ न बहाओ
जल ही जीवन है
ये बातें इंसानो को कहााँ से
समझाओ ।
आकाश को लनहारते मोर
सोच रहे , बादल भी इज्जत वाले हो गए
लबन बुलाए बरसते नहीं
शायद बदल को
कड़कड़ाती लबजली डराती होगी
सौतन की तरह ।
बादल का लदल पत्र्र का नहीं होता
प्रेम जागृत होता है
आकषथक सुंदर, धरती के ललए
धरती पर आने को
तरसते बादल
तभी तो सावन में
पानी का प्रेम -संदेशा भेजते रहे
ररमलझम फुहारों से ।
धरती का रोम -रोम, संदेशा पाकर
हररयाली बन खड़े हो जाते
मोर पंखों को फैलाकर
स्वागत हेतु नाचने लगते
लकं तु बादल चले जाते
बेवफाई करके
छोड़ जाते हररयाली/ पानी की यादें
धरती पर
प्रेम संदेश के रूप में ।
संजय वर्मा "दृष्टि "
125 , शहीद भगत ष्टसंग र्मगा
र्नमवर ष्टजलम -धमर (र् प्र )
454446
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ISSN 2454-2725
फितरत
ये पुल की फितरत है
सब का भार सहन करना
और फितरत ये नदी के मुहाने की
पानी की टकराती धार वहन करना
पववत की फितरत
गडररये के फकस्सों की
पोटली संभाले रखना
सागर की फितरत है
नदी के मैले पानी को
अपनी साफ़ नजर देना
बाररश की फितरत
बादल को चीर देना
..और तुम्हारी
मुखर मौन
फगरते उठते मौसम की माफनंद
सारी सुवासों से भीगा था मन
बस एक कसक बाकी थी
इधर उधर की बातों के बीच
लम्बी चुप्पी का अन्तराल
और इस मौन में
मुखर होने की कुलबुलाहट
ये तो नयी बात हुई
पुराने फकस्सों को खंगालना
फदन भर यादों की अंजुरी भर महकना
फबना बात के छोटी को धौल जमाना
कनफखयों से देख कर मुस्कराना
इस उम्र में नवेली जैसी चाल
क्या हो गया तुम्हें
तरेरती नजरों में उठे सवाल
अब फकस फकस को
क्या क्या बताएं
जाना है उस पी के घर
जहााँ से लौटना नहीं
नयी बात इसफलये
कह दी , कर दी बस
कहीं कोई मलाल न रह जाये
ररश्ते
तल्ख़ ख़ामोशी के बीच
गुनगुनाती हवाएं
16
ISSN 2454-2725
रूह को आजाद करती
बादल की बोफलयााँ
फकतनी दूर तलक
मौसम संभालेगा
संबंधों की धूपछााँव को
फिन्दगी
रोटी सी फसकती है
तेरी मेरी प्रेम कहानी
जरा सा झंझावत आते ही
अधपकी रह जाती है
हााँ कभी कभी
भुनते, भूनते
जल भी जाती है
खो जाते हैं जब
एक दूसरे के अहं में हम
17
ISSN 2454-2725
1.
यह बुझे हुए गााँव का ससयार नहीं
सगरवी पडे खेतों का रुदन है
यह सूखी नदी नहीं
ददद का ाअख्यान है
यह बरबाद खेती नहीं
सनष्ठुर त्रासदी है
यह सकसान की पूरी ाईम्र नहीं
ाईसके गददन तक दलदल में
धाँसे होने की छटपटाहट है
यह कसवता नहीं
ममाांतक पीडा है
यह मरघटी शाांसत नहीं
प्रजातांत्र का क्षरण है
………………..
शोक-गीत-सा यह देश
त्रासदी-सा यह काल
कासलख़-पुते-से ये नीसत-सनयांता
और मैं जैसे
समट्टी से भर सदया गया कुाअाँ
सजसके सीने में धडकती है ाऄब भी
मीठे जल की स्मृसत
…………..
3.
बहुत सदनों बाद
सजगरी यार से समलना
जैसे
मीठे पानी के कुएाँ पर
प्यास बुझाना
जैसे
सूख रहे खेत का
सिर से लहलहा जाना
जैसे
हााँिते हुए िेिडों में
सिर से ताजी हवा भर जाना
जैसे
सिर से बचपन में
लौट कर
कां चे खेलना
रांग-सबरांगी पतांगें ाईडाना
जैसे
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पशु-पसक्षयों
पेड-पौधों
िूलों-सततसलयों
चााँद-ससतारों से
सिर से बसतयाना
बहुत सदनों बाद
सजगरी यार से समलना
जैसे
तन-मन का
सूरजमुखी-सा सखलना
प्रेषकाः
A-5001, गौड ग्रीन ससटी ,
वैभव खांड, ाआांसदरापुरम,
गासजयाबाद – 201014, ( ाई. प्र. )
मो: 8512070086
ाइ-मेल : sushant1968@gmail.com
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ISSN 2454-2725
रीता चौधरी
शोधार्थी (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
कहते हैं
‘जल’ ही जीिन है
पर,
आज इसके ही अवततत्ि पर
मंडरा रहा है खतरा....
‘जल’ रहा है....
इसका ही जीिन।
मनुष्य भविष्य के वलए
संचय करता है ‘धन’
बनाता है बैंक-बैलेन्स
भविष्य के वकस हद तक काम आएगा
ऐसा धन??
कौन करेगा
संचय ‘प्रकृवत-धन’....
‘जल’?
जो पूरी धरती का है भविष्य.
एक ग्लास पानी
पीने के वलए
चार ग्लास के नुकसान को
कौन चुकाएगा
सोचा है कभी?
पहले तो गन्दगी और
कूड़ा-करकट से
जल को दूवित भी खुद ही करो
और...विर उसकी शुद्धता के वलए
मशीनें भी खुद ही बनाओ
िाह! िाही! पाओ?
अपने वहतसे की विम्मेदाररयों को
मशीनों के कं धे डालकर
कब तक ? कब तक ?
जीिन बच सकता है
कब तक ?
सारी की सारी गंदवगयों को
जल में यूूँ बेविक्र बहाकर
खुद को तिच्छ और तितर्थ
रखा जा सकता है
सोचनीय वििय है….
वक....
रफ्तार विकास की ओर है
या विर विनाश की ओर....
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ISSN 2454-2725
सीमा जैन
मेरा बचपन और मााँ का जीवन सबकुछ पानी की भेंट चढ़ गया।क्या करते? मेरी मााँ इस घर में पानी भरने के लिए ही
िाई ंगई थी।
राजस्थान के गााँवों में जो थोड़ा खचच उठा सकते है; दो शालदयााँ करते है।एक पत्नी घर में राज करने के लिए और एक
पानी िाने के लिए। पैसे दे कर लकसी को रखने से सस्ता जो पड़ता है। ररश्ते से जुड़ी वफ़ादारी काम आ जाती है।
मेरी मााँ गरीब घर से थी तो उनके लहस्से आया, घर का काम और पानी भरना।
सुबह तीन बजे उठना, कोसों दूर जाकर पानी िाना लिर लदन भर घर का काम।
मााँ हड़बड़ा कर सुबह उठती, कभी देर हो जाये तो छोटी मााँ का लचल्िाना शुरू हो जाता।बीमारी हो या त्यौहार मााँ को
कभी भी इस काम में छुट नही लमिी।
बूाँद-बूाँद टपकते पानी से एक घड़ा भरने में घण्टों िग जाते थे।
इस रेलगस्तान से तपते कलठन जीवन की एक ही उपिलधध थी मेरी पढ़ाई।सुबह जब मााँ पानी भरने के लिए उठती तो मैं
भी जाग जाता और पढ़ने बैठ जाता।सुबह की पढ़ाई और मेरी िगन का उजािा ही हमारी आज की दौित है।
पानी िाकर मााँ घर के काम करने में िग जाती।मुझे गोदी में बैठाकर सीने से िगाकर बहुत प्यार करती और हमेशा
कहती-"िािा, मन िगाकर पढ़ना यही तेरे काम आएगा।"
लपताजी ने कभी लखिौने और नए कपडों का िाड़ तो नही लकया पर लशक्षा से जुड़े खचे का मना भी नही लकया। गांव
के मास्टरजी को घर बुिाकर कहते-"िािा का ध्यान रखना कोई ज़रूरत हो तो बता देना।"
मााँ की बात सही हुई, लशक्षा ही हमारे काम आई। आज जो भी लमिा उसमें मााँ की दुआ और लकताबों का योगदान ही
है।
दो साि बाद गााँव जा रहा हाँ। अब मााँ शहर में मेरे साथ ही रहेगी। सुबह के चार बजे घर गया तो मााँ नही लमिी लिर याद
आया वो तो पानी िेने गई होगी।
हाड़ कं पा देने वािी ठण्ड में इस अंधेरे में कार से जाते समय मैं सोच रहा था लपछिे पच्चीस सािों से मााँ ऐसे
ही...जीवन इतना दुुःखद भी हो सकता है! कोई लशकायत सुनने वािा भी नही।
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मुझे देखकर मााँ ने मुझे गिे िगा लिया बोिी -"यहााँ क्यों आया िािता तू? लकतनी ठण्ड है चि, घर चि मैं अभी
पानी िे कर आती हाँ।"
मैने मााँ का हाथ थाम कर कहा-"मााँ, ये पानी यहीं छोड़ और मेरे साथ घर चि ।"
मााँ के लिए पानी छोड़ना लकसी आश्चयच से कम नही था वो बोिी -"बेटा, लिर लदन भर...
मैने मााँ को बीच में ही रोककर कहा-"एक लदन पानी के लबना भी इनको रहने दे ना मााँ!"
लपता तो अब है नही लकससे इजाज़त िेते, मााँ को अपने साथ िेकर मैं शहर में आ गया।
सोसायटी में मेरा फ्िैट है सारी सुलवधाओंसे युक्त।
मााँ को अपने साथ लस्वलमंग पुि िे कर गया तो वहां पहुंच कर मााँ उदास हो गई।मुझे तैरता देख मााँ रोने िगी।
घर आकर मााँ से पूछा-"क्या बात है मााँ तुम उदास क्यों हो गई?"
मााँ ने बहुत दुुःखी होकर बोिा-"लजस पानी के चार घड़ो ने पूरी लज़न्दगी का सुख िे लिया उस पानी का ये हाि..."
हम दोनों की आाँखों में पानी और बीता कि घूम गया।
मुझे िगा में भी छोटी मााँ जैसा हो गया हाँ दूसरों के ददच से अनजान!
मैं भी मााँ के ददच को पूरी तरह नही समझ पाया।यदी समझा होता तो...
पता-82, माधव नगर
201,संगम अपार्टमेंर्
ग्वालियर-9
फोन~09826511033
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लघुकथा
लालजी ठाकु र
हम स्वाथी के साथ साथ इतने लोभी हो गए है कक खुद के जान की परवाह ही नहीं करते तो अपने बच्चे और
दुकनया की परवाह कै से करेंगे बस मस्ती करते है और मस्ती करते रह जाते है।एक बार हम अपने पररवार के साथ
घूमने का मन बनाया।सोचा की साथ कमलकर कही दूर घूमने के कलए कनकला जाए।और एक दो कदन बाद कनकल
भी गया घूमने के कलए।बहुत दूर सुन सान जंगल में एक रमणीय स्थल बनाया गया था जो प्रकृकत की असकलयत को
यूूँ ही बयां करती थी।यहाूँ पहुंचना सब की बस की बात नहीं थी।हमने तो कहम्मत जुटाई कसर्फ इसकलए की हमने कई
साल से कमाई रखी थी और आमदनी भी अच्छी थी।बहुत दूर दूर ही नही बककक कवदेशो से भी लोग आये थे। बड़े
बड़े टैंकर से हजारो लीटर पानी लाया जाता था और बनाये हुए कस्वकमंग पूल आकद में डाला जाता था ताकक वहाूँ
का लुत्फ़ उठाया जा सके ।और कर्र पानी यूूँ ही बबाफद हो जाता था।पर ये सारा इसकलए चल रहा था क्योंकक उसके
प्रत्येक कदन कमाई बहुत अकधक थी।और बहुत दूर से पानी लाना हो या कर्र कही से वो उसका इंतजाम कर ही
लेता था।आसपास की हररयाली देखते ही बनता था क्या बताऊूँ उसके सुंदरता के बारे में।उसका र्व्वारा इस तरह
कदख रहा था जैसे समुन्दर से जुड़ा हुआ हो।पर इस सब का कजम्मेबार तो बस हम लोग ही थे।पानी की बबाफदी मुझे
झकझोर कर रख दी इसकलए क्योंकक जब मैं घूमने जा रहा था तभी मैंने एक अखबार उसी शहर का पढ़ा था,कजसमे
कलखा हुआ था"चार मासूम बच्चे और एक बुजुगफ की मौत" कजसका मुख्य कारण था पानी का न कमलना मतलब
प्यास की वजह से उन सारे की कजंदगी गई थी।सच में ककतनी तरपी होगी उन सबो की आत्मा।हम अगर यही पानी
उन सबो को कदए होते तो आज वो भी हमारे साथ होते और शायद हम सभी घूमने वाले और पानी को बबाफद करने
वाले उनकी मौत का कजम्मेदार थे।मैं यूूँ ही एक जगह पानी में स्तब्ध बैठा सोच रहा था ।तभी मेरी छोटी बेटी जो
कसर्फ पांच साल की थी अपने कपडे एक हाथ में कलए और दूसरे हाथ में अखबार का वो पेज कलए दौड़ती हुई मेरे
नजदीक आ कर बोली ,पापा ये देकखये इन लोगो की मौत प्यास के कारण हुई है और हम यहाूँ पानी को बबाफद कर
रहे है।मैं यहाूँ एक पल भी नहीं रहना चाहती हूँ।मेरी आूँखे भर आई और मैंने उसे गले से लगा कलया।कर्र बोला हाूँ
बेटा इसका कजम्मेदार हम जैसे लोग ही है जो यहाूँ आकर मस्ती करते है।और कर्र हम अपने पररवार के साथ बाहर
आ गए पत्नी के मना करने पर भी क्योंकक मेरी बेटी ने मुझे साथ ही नहीं बेटी होने का एहसास भी करा दी।। उसके
बाद से पानी के हर बून्द को बचाना चाहता हूँ ।और गमी में प्यासे ट्रेन के यात्रीयों को अपने पररवार के साथ उसके
प्यास को बुझाता हूँ।
लालजी ठाकु र दरभंगा बिहार।।
09421055750,व्हाटसअप 9097081932 ।।।
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व्यंग्य
मोहनलाल मौयय,(एम.ए,बीएड़,बीजेएमसी,)
मैं वहीं हैंडपम्प हूं। जजसके पनघट पर जमघट लग रहता था। पजनहारी 'मन की बात’ करती थी। मोहल्ले के कच्चे
जचट़ठे यहीं खोलते थे। सुख-दुख की वाताालाप होती थी। तू-तू,मैं-मैं होती थी। पानी भरने पर। कतार पर। नम्बर पर। मैं
अपना ठण्डा पेयजल जपलाकर,इनको शाूंत कर देता था। मेरे समीप मेरा जल गता भरा रहता था। जजसमें पशु-पक्षी
अपनी प्यास बूझाते थे। मेरे प्रादुभााव पर ग्राममुजखया ने गुड बाूंटा था। पूरे मोहल्ले में मुनादी हुई थी। सरकारी हैंडपम्प
का जल पेयजल है। लोग प्रफुजल्लत थे। मैंने कभी भी मोहल्लेवाजसयों को धोखा न जदया। सदैव उनकी सेवा में तत्पर
रहा। यह भी मेरा पूरा खयाल रखते थे। समय-समय पर मेरी सजवास-वजवास करवाते रहते थे। मेरा और मोहल्लेवाजसयों
का अटूट सूंबूंध था। जब से मेरी जलपूजता बूंद हुई है। तब से सूंबूंध टूट गया। अब तो मोहल्लेवासी मेरी ओर झाकते भी
नहीं। इनसान जकत्ता खुदगजा है,जब मैं इनकी जलपूजता करता था,तो मेरा गुणगान करते थे। अब कोई मेरा हाल भी नहीं
पहुूंचने आता। धरा में जल ही नहीं है,तो मैं कहाूं से खींचकर लाओूं?जल रसातल में चल गया है। वहाूं तक मेरी पहुूंच
असूंभव है। मैं दलाल तो हूं नहीं,जो जुगाड करके पहुूंच जाओूं। ररश्वत देकर जल ले आऊूं । लेन-देन का काया तो इनसान
करता है। वैसे भी भारतीय मानव जुगाड करने में अग्रणी हैं। इन्होंने तो जल बचाने का ही जुगाड नहीं जकया। जब तो
चार-चार बाल्टी उडेलते थे। नहाने-धोने में। पशुओूंको लहलाने में। वाहन साफ करने में। अब बूूंद-बूूंद के जलए तरस रहे
हैं। सरकार को कोस रहे हैं। जल सरकार की मुट्ठी में थोडी है,जो भींच कर बैठी है। देने से नकार कर रही है। सरकार
अपील कर सकती है। जल बचाने की। जलमूंत्री को भेज सकती है। सूखाग्रस्त इलाकों में। जायजा लेने। सेल्फी लेने।
एक पत्रकार बूंधु इधर से गुजर रहा था। उससे मेरी हालत देखी नहीं गई। इसजलए छाप जदया अखबार में। मैं अखबार में
क्या छपा?स्थानीय नेताओूंमें होड मच गई। मुझे दुरूस्त करवाने की। श्रेय लेने की। वोट बटोरने की। इनके भी अखबार
में छपने के बाद ही चक्षु खोले। जबजक मैं तो इनके नाक तले ही था। खैर,छोडो। नेताओूंको मुद्दा चाजहए,सो जमल गया।
ग्रामसजचव से बीडीओूंतक। ग्राम पूंचायत से पूंचायत सजमजत तक। मुझे घसीट ले गए। मुद्दा बनाकर। इनको,जलसूंकट
में। सूखे में। मेरा मुद्दा क्या जमल गया?अखबारों की कजटूंग काट-काट कर सोशल मीजडया पर चस्पा कर रहे हैं। सुजखायाूं
बटोर रहे हैं। एक सरकारी हैंडपम्प की इज्जत उछाल रहे हैं। दरअसल असर यह हुआ जक जलदाय जवभाग का कमी
आया। मुझे देख बुदबुदाया। जो पहले से दुरूस्त है। उसे क्या दुरूस्त करों? इत्ती दूर से आया हूं। कुछ करके ही जाऊूं गा।
ओर वह मेरे मेरे कुछ नये अूंग लगाकर चला गया। उसे भी ज्ञात है। मुझे भी ज्ञात है। लोगों को भी ज्ञात है। जल
जलस्तर तक नहीं रहा। यह जल बबााद करने का नतीजा है। अब तो मुझे मानसून ही दुरूस्त कर सकता है। वहीं मेेेरे
पनघट पर जफर से जमघट लगा सकता है। (नोटः- यह रचना दैजनक हररभूजम में 29 अप्रैल 2016 के अूंक में एवूं दैजनक
साूंध्य 6pm में 01 मई 2016 के अूंक मे प्रकाजशत हुई है)
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अनीता देवी
जल के बिना जीवन की कल्पना भी नही की जा सकती| जल प्रकृबत का बदया एक ऄनुपम ईपहार है जो न बसर्फ जीवन
िबल्क पयाफवरण के बलए भी ऄमूल्य है| जैसे पानी के बिना जीवन संभव नहीं है वैसे सार् पानी के बिना स्वस्थ जीवन
संभव नहीं| अज बवश्व भर में स्वच्छ पेयजल के संकट की बस्थबत िनी हुयी है|भारत जैसे बवकासशील देश आस समस्या
से सवाफबधक प्रभाबवत हैं| ‚ बवश्व िैंक की एक ररपोटफ के ऄनुसार 21वीं सदी की सिसे िड़ी और बवकराल समस्या
होगी पेयजल की| आसका बवस्तार सम्पूणफ बवश्व में होगा तथा बवश्व के सभी िड़े शहरों में पानी के बलए युद्ध जैसी
बस्थबत हो जाएगी|‛¹ जल का ऄंधाधुंध व बववेकहीन प्रयोग वतफमान जल संकट का सिसे प्रमुख कारण है , जो अज
बवश्व के सम्मुख एक गंभीर समस्या के रूप में खड़ा है| एक मूलभूत अवश्यकता होने के कारण मानवीय प्रजाबत सबहत
जीव ,वनस्पबत व सम्पूणफ पाररबस्थबतक तंत्र के बलए जल जरूरी है| जल संकट ने मानव जाबत के समक्ष ऄबसतत्व का
संकट पैदा कर बदया है| ईसके बलए जल की ईपलब्धता सुबनबित करना एक िड़ी चुनौती िन गयी है|संयुक्त राष्ट्र के
अकलन के ऄनुसार पृथ्वी पर जल की कुल मात्रा लगभग 1700 बमबलयन घन बक.मी. है बजससे पृथ्वी पर जल की
3000 मीटर मोटी परत बिछ सकती है ,लेबकन आस िड़ी मात्रा में मीठे जल का ऄनुपात ऄत्यंत ऄल्प है| पृथ्वी पर
ईपलब्ध कुल जल में मीठा जल 2.7% है|आसमें से लगभग 75.2% ध्रुवीय प्रदेशों में बहम के रूप में बवद्यमान है और
22.6% जल ,भूबमगत जल के रूप में है ,शेष जल झीलों ,नबदयों ,वायुमंडल में अर्द्फता व जलवाष्ट्प के रूप में तथा
मृदा और वनस्पबत में ईपबस्थत है|घरेलू तथा औधोबगक ईपयोग के बलए प्रभावी जल की ईपलब्धता मुबश्कल से
0.8% है|ऄबधकांश जल आस्तेमाल के बलए ईपलब्ध न होने और आसकी ईपलब्धता में बवषमता होने के कारण जल
संकट एक बवकराल समस्या के रूप में हमारे सम्मुख अ खड़ा हुअ है|
‚यद्दबप जल एक चक्रीय संसाधन है तथाबप यह एक बनशबचत सीमा तक ही ईपलब्ध होता है| मानव को ईपलब्ध होने
वाले जल की मात्रा ईतनी है बजतनी बक पहले थी| परन्तु जनसंख्या में बनरंतर वृबद्ध तथा कु छ जलाशयों के ह्रास से प्रबत
व्यबक्त जल में भारी कमी अ रही है|1947 में स्वतंत्रता के समय भारत में 6008 घन मीटर जल प्रबत व्यबक्त प्रबतवषफ
ईपलब्ध था ,1951 में यह मात्रा घट कर 5177 घन मीटर प्रबत व्यबक्त रह गइ तथा 2001 में 1820 घन मीटर प्रबत
व्यबक्त प्रबतवषफ रह गइ| दसवीं योजना के मध्यवती अकलन के ऄनुसार यह मात्रा 2025 में 1340 घन मीटर तथा
2050 में 1140 घन मीटर रह जाएगी|‛²
देश का पानी सूख रहा है|धरती पर भी और धरती के नीचे भी| जलसंकट के कारण मराठवाड़ा और महाराष्ट्र के ऄन्य
बहस्सों तथा अंध्र प्रदेश एवं तेलांगना के ग्रामीण क्षेत्रों से िड़ी संख्या में लोग नगरों की तरर् पलायन कर रहें है|
‚ मराठवाड़ा के परभणी कस्िे में पानी के बलए झगड़ा न हो आसबलए ऄप्रैल के पहले हफ्ते में धारा 144 लगा दी गइ|
लातूर में रेन से पानी पहुंचाया जा रहा है|‛³
जल संसाधन पानी के वह स्रोत हैं जो मानव के बलए ईपयोगी हों या बजनके ईपयोग की संभावना हो। पानी के ईपयोगों
में शाबमल हैं कृबष, औद्योबगक, घरेलू, मनोरंजन हेतु और पयाफवरणीय गबतबवबधयों में । वस्तुतः आन सभी मानवीय
ईपयोगों में से ज्यादातर में ताजे जल की अवश्यकता होती है । अज जल संसाधन की कमी, आसके ऄवनयन और
आससे संिंबधत तनाव और संघषफ बवश्वराजनीबत और राष्ट्रीय राजनीबत में महत्वपूणफ मुद्दे हैं। जल बववाद राष्ट्रीय और
ऄंतराफष्ट्रीय दोनों स्तरों पर महत्वपूणफ बवषय िन चुके हैं। यबद हम भारत के संदभफ में िात करें तो भी हालात बचंताजनक
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है बक हमारे देश में जल संकट की भयावह बस्थबत है और आसके िावजूद हम लोगों में जल के प्रबत चेतना जागृत नहीं
हुइ है। ऄगर समय रहते देश में जल के प्रबत ऄपनत्व व चेतना की भावना पैदा नहीं हुइ तो अने वाली पीबियां जल के
ऄभाव में नष्ट हो जाएगी। हम छोटी छोटी िातों पर गौर करें और बवचार करें तो हम जल संकट की आस बस्थबत से बनपट
सकते हैं। बवकबसत देशों में जल ररसाव मतलि पानी की बछजत सात से पंर्द्ह प्रबतशत तक होती है जिबक भारत में
जल ररसाव 20 से 25 प्रबतशत तक होता है। आसका सीधा मतलि यह है बक ऄगर मोबनटररंग ईबचत तरीके से हो और
जनता की बशकायतों पर तुरंत कायफवाही हो साथ ही ईपलब्ध संसाधनों का समुबचत प्रकार से प्रिंधन व ईपयोग बकया
जाए तो हम िड़ी मात्रा में होने वाले जल ररसाव को रोक सकते हैं।
बवकबसत देशों में जल राजस्व का ररसाव दो से अठ प्रबतशत तक है, जिबक भारत में जल राजस्व का ररसाव दस से
िीस प्रबतशत तक है यानी बक आस देश में पानी का बिल भरने की मनोवृबि अमजन में नहीं है और साथ ही सरकारी
स्तर पर भी प्रबतिंधात्मक या कठोर कानून के ऄभाव के कारण या यूं कहें बक प्रशासबनक बशबथलता के कारण िहुत
िड़ी राबश का ररसाव पानी के मामले में हो रहा है। ऄगर देश का नागररक ऄपने राष्ट्र के प्रबत भबक्त व कतफव्य की
भावना रखते हुए समय पर बिल का भुगतान कर दे तो आस बस्थबत से बनपटा जा सकता है साथ ही संस्थागत स्तर पर
प्रखर व प्रिल प्रयास हो तो भी आस बस्थबत पर बनयंत्रण प्राप्त बकया जा सकता है।
प्रत्येक घर में चाहे गांव हो या शहर पानी के बलए टोंटी जरूर होती है और प्रायः यह देखा गया है बक आस टोंटी या नल
या टेप के प्रबत लोगों में ऄनदेखा भाव होता है। यह टोंटी ऄबधकांशत: टपकती रहती है और बकसी भी व्यबक्त का ध्यान
आस ओर नहीं जाता है। प्रबत सेकं ड नल से टपकती जल िूंद से एक बदन में 17 लीटर जल का ऄपव्यय होता है और
आस तरह एक क्षेत्र बवशेष में 200 से 500 लीटर प्रबतबदन जल का ररसाव होता है और यह अंकड़ा देश के संदभफ में
देखा जाए तो हजारों लीटर जल बसर्फ टपकते नल से ििाफद हो जाता है। ऄि ऄगर आस टपकते नल के प्रबत संवेदना
ईत्पन्न हो जाए और जल के प्रबत ऄपनत्व का भाव अ जाए तो हम हजारों लीटर जल की ििाफदी को रोक सकते हैं।
ऄि और कुछ सूक्ष्म दैबनक ईपयोग की िातें है बजन पर ध्यान देकर जल की ििाफदी को रोका जा सकता है।
 र्व्वारे से या नल से सीधा स्नान करने के स्थान पर िाल्टी से स्नान करने से पानी की कर सकते हैं।
 शौचालय में फ्लश टेंक का ईपयोग करने की जगह यही काम छोटी िाल्टी से बकया जाए तो पानी की िचत
कर सकते हैं।
ऄि राष्ट्र के प्रबत और मानव सभ्यता के प्रबत बजम्मेदारी के साथ सोचना अम अदमी को है बक वो कैसे जल िचत
में ऄपनी महत्वपूणफ बजम्मेदारी बनभा सकता है। याद रखें पानी पैदा नहीं बकया जा सकता है यह प्राकृबतक संसाधन है
बजसकी ईत्पबि मानव के हाथ में नहीं है। पानी की िूंद-िूंद िचाना समय की मांग है और हमारी वतफमान सभ्यता की
जरूरत भी।
आस समस्या से ईिरने के बलए मात्र सरकारी प्रयास ही पयाफप्त नहीं है क्योंबक जल का ईपयोग सभी लोगों द्वारा बकया
जाता है और सभी का जीवन जल पर अबित है| देश के नागररकों ऄपनी क्षमता के ऄनुसार जल संरक्षण के प्रयासों में
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ऄपना योगदान देना चाबहए तभी देश में नये लातूर को िनने से रोका जा सकता है| ‚वल्डफ वाच आंस्टीट्यूट के ऄनुसार
पानी को पानी की तरह िहाना िंद करना होगा| यबद समाज पानी को एक दुलफभ वस्तु नहीं मानेगा , तो अने वाले
समय में पानी हम सिके के बलए दुलफभ हो जायेगा|‛4
ग्लोिल वाबमिंग में वृबद्ध भी वतफमान जल संकट का एक महत्वपूणफ कारण है| वैबश्वक तापमान में होने वाली वृबद्ध से
बवश्व के मौसम , जलवायु , कृबष व जल स्रोतों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है| ग्लोिल वाबमिंग के कारण तापमान में
होने वाली वृबद्ध से ग्लेबशयर तीव्रता से बपघल रहें है| आससे भबवष्ट्य में जल संकट का खतरा ईत्पन्न हो सकता है|
जल संकट से बनपटने के बलए :
 तालािों और गड्डों का बनमाफण करना चाबहए बजससे वषाफ का जल एकबत्रत हो सके और प्रयोग में लाया जा
सके | आससे जलस्तर में वृबद्ध होगी और भूबमगत जल िना रहेगा|
 पेड़ों को काटने से रोकना और वृक्षारोपण को िढावा देना बजससे वैबश्वक तापन की समस्या कम हो| वैबश्वक
तापन से बहम बपघलते हैं और बहम का जल नबदयों के माध्यम से समुर्द् में चला जाता है|
 नदी बकनारे िसने वाले नगरों द्वारा नबदयों को प्रदूबषत बकया जाता है बजससे नबदयों का जल पीने लायक नही
रहता और नबदयााँ सूखने की कगार पर अ खड़ी है ईदाहरण के बलए बदल्ली में यमुना नदी|
 ईिर भारत की नबदयों में सदा जल िहता रहता है और दबक्षण भारत की नबदयााँ सदा वाहनी नहीं रहती ऐसे में
नदी जोड़ो पररयोजना का सहारा बलया जा सकता है|
ऄंत में कह सकते है बक सृबष्ट के हर जीव का ऄबसतत्व पानी पर ही बटका है| जल संकट जैसी बवकराल
समस्या का सामना करने के बलए वयबक्तगत , सामुदाबयक , सामाबजक ,राष्ट्रीय व ऄंतराफष्ट्रीय स्तर पर साथफक
पहल की जरूरत है|
सन्दर्भ :
1. कुरुक्षेत्र पबत्रका , मइ 2015
2. खंड – ‘घ’ 14.35 , भूगोल , डी. अर. खुल्लर
3. पृष्ठ 26 , क्राबनकल , जून 2016
4. पृष्ठ 2 , क्राबनकल , जून 2016
5. दृबष्ट The Vision ,करेंट ऄर्े यसफ टुडे , नवम्िर 2015
शोधार्थी
कमरा न.115/2
यमुना छात्रावास
जवाहरलाल नेहरु ववश्वववद्यालय
नई वदल्ली (110067)
मोबाइल न. 9013927321
27
ISSN 2454-2725
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gS D;ksafd blesa cgqr rst xfr ls cnyko vkus yxk gSA fiNys 200&300 lkyksa esa vkS|ksfxd fodkl
ds lkFk&lkFk geus tks dkcZu mRltZu fd;k] og [krjukd fLFkfr rd vk igq¡pk gSA vxj /kjrh
dk rkieku c<+sxk rks lcls igys cQZ fi?kysxh blls tqM+k gS ^fgeky; dk ladV*A
cQZ vkSj ikuh ds chp ds QdZ dks le>uk gksxkA igkM+ksa esa tc cQZ fxjrh gS rks og igys
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,d larqfyr pØ gSA ijUrq D;k gksxk tc lfnZ;ksa esa cQZckjh dh txg ckfj'k gksus yxsA ,d rks
cQZ fxjus ds ekSle esa cQZckjh ugha gqbZ vkSj nwljk ckfj'k gks xbZ ftlls tek cQZ fupys bykdksa esa
cgdj pyh xbZA 2013 esa dsnkjukFk dh rckgh bldk uewuk gSA dsnkjukFk esa rckgh ds le; vkSlr
ls 200 xquk T;knk ckfj'k gqbZ FkhA
i;kZoj.k esa lc ,d&nwljs ls tqM+s gq, gSa blfy, fdlh Hkh xM+cM+h dks vyx&vyx djds
ns[kuk lgh ugha gksxkA bls vxj ,d txg ls Bhd djsaxs rks mldk ldkjkRed vlj nwljh txg
fn[kus yxsxkA ;g Li"V gS fd fodkl ds uke ij va/kk/kqa/k [kuu] taxyksa dks lekIr dj yxk, x,
ikoj IykaV vkSj vU; m|ksxksa esa ftl rjg i;kZoj.k dh vuns[kh dh xbZ gS og varr% lewps
okrkoj.k dks nwf"kr dj jgk gSA gesa miHkksx dh y{e.k js[kk rks [khapuh gh iM+sxhA mlls nks
leL;k,¡ gy gksxhA igyk izÑfr dh fouk'kyhyk ls cpk tk,xk nwljk lkekftd vlekurk dks nwj
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lH;rk fouk'k ls cp ldrh gSA
i;kZoj.k ds ladV ij fopkj&foe'kZ djus okys okdbZ fdrus xaHkhj gSa bl ij 'kadk tkfgj
dh tk ldrh gS] ijUrq blesa dksbZ nks jk; ugha gS fd i;kZoj.kh; ladV orZeku esa lcls vf/kd
yksdfiz; vkSj egRoiw.kZ fo"k; cu pqdk gSA fiNys dqN le; ls i;kZoj.k ij ljdkjh rFkk
xSj&ljdkjh laLFkkuksa }kjk fpark tkfgj dh tk jgh gSA LFkkuh; Lrj ls ysdj jk"Vªh; ,oa varjk"Vªh;
Lrj rd Xykscy okfe±x vkSj ikuh ds ladV dks ysdj xksf"B;ksa dk vk;kstu tkjh gSA ;gk¡ rd fd
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lHkh tukankssyuksa dk eq[; eqn~nk i;kZoj.k gh gSA ns'k ds Hkhrj ueZnk vkanksyu] fpidks] fVgjh lc
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ftl fo"k; us lekt dks bruk fpafrr dj j[kk gS mlls Hkyk lkfgR; dSls vNwrk jg
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gS vkSj bl ftEesnkjh dks fuHkkus esa dfork mldh enn djrh gSA 'kqDy th fy[krs gSa ^dfork euq";
ds ân; dks LokFkZ&laca/kksa ds ladqfpr eaMy ls Åij mBkdj yksd&lkekU; dh Hkko&Hkwfe ij ys
tkrh gSA ;kuh ckdh lHkh ds cus jgus esa gh euq"; dk vfLrRo Hkh laHko gSA
;gk¡ ;g ns[kuk fnypLi gksxk fd lkfgR; ds laca/k esa dh xbZ ;g ifjdYiuk vk/kqfud
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vkykspuk ds u, mikxe lkfgR; dh dlkSVh cu jgs gSaA
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,sls vk x, gSa fd ns'k Hkj esa dbZ txg yksx cwan&cwan ikuh dks rjlus yxs gSaA ikuh dh egÙkk ij
cgqr dqN dgk vkSj fy[kk x;k gSA ikuh dks thou] ve`r vkSj u tkus D;k&D;k miek,¡ nh x;hA
iz'u ;g mBrk gS fd D;k ikuh dks geus ve`r vkSj thounk;h inkFkks± dh rjg lgst dj j[kuk
lh[kk gS
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gksrk gSA ;gk¡ rd fd i`Foh ftu ik¡p rRoksa ls feydj cuh gS mlesa ls ,d rRo ty gh gSA
leL;k dsoy ikuh cpkus dh ugha gS cfYd mldk bLrseky Hkh U;k;fiz; rjhds ls gksuk pkfg, og
Hkh leku fgLlsnkjh ds lkFkA fgUnh lkfgR; esa vxj ikuh dh ckr djsa rks lcls igys jghe dk
nksgk ;kn vkrk gSA
^^jfgeu ikuh jkf[k,A fcu ikuh lc lwuAA
ikuh x, u ÅcjsA eksrh ekul pwu**AA
;g nksgk ikuh ds egRo dks Li"V dj jgk gSA ,slk ugha gS fd dgha ij dsoy ikuh gh lw[ksxk cfYd
mlds izHkko ls lkjk thou gh lw[k tk,xkA
ikuh ij fy[ks lkfgR; ds vykok ikuh ds fy, yM+s x, tukanksyuksa dk fo'ys"k.k Hkh t:jh
gSA 1927 esa MkW- vEcsMdj us egkM+ lR;kxzg dj pkSnkj rkykc dk ikuh vNwrksa ds iz;ksx ds fy,
[kqyok;k FkkA og ,slk nkSj Fkk tc ikuh bruk ewY;oku Fkk fd mldh igq¡p lekt ds ,d fof'k"V
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^tkfr&O;oLFkk*A blh lanHkZ esa ge izsepan }kjk jfpr dgkuh ^Bkdqj dk dq¡vk* ns[k ldrs gSaA
;g dgkuh 1923 dh gS ftlesa xaxh vius chekj ifr tks[kw }kjk eSyk&xank ikuh ihus dk
fojks/k djrh gS vkSj jkr esa fNidj Bkdqj ds dq,¡ ls ikuh Hkjus Hkh tkrh gSA ijUrq dgkuh dk var
izsepan dqN bl rjg djrs gSas fd ^xaxh ds gkFk ls jLlh NwV x;hA jLlh ds lkFk ?kM+k /kM+ke ls
ikuh esa fxjk vkSj dbZ {k.k rd ikuh esa gydksjs dh vkotsa lqukbZ nsrh jghaA Bkdqj dkSu gS] dkSu gS
iqdkjrs gq, dq,¡ dh rjQ tk jgs Fks vkSj xaxh txr ls dqndj Hkkxh tk jgh FkhA ?kj igq¡pdj
mlus ns[kk fd tks[kw yksVk eq¡g ls yxk, ogha eSyk xank ikuh ih jgk gSA
fopkj.kh; iz'u ;g gS fd nfyr xaxh foæksg ds ckotwn ikuh tSls izkÑfrd lalk/ku dh
tkfrxr ?ksjkcanh D;ksa rksM+ ugha ikrh izsepan tSls cM+s lkfgR;dkj Hkh xaxh dks lQy gksrs ugha
fn[kk ikrsA 'kk;n ml le; egkM+ lR;kxzg tSlk dksbZ vkanksyu ugha FkkA MkW- vEcsMdj ikuh ij
vNwrksa ds vf/kdkj ds fy, vkanksyu 1927 esa djrs gSaA vFkkZr~ ikuh ij fy[ks x, lkfgR; vkSj ikuh
ds fy, yM+s x, ledkyhu tu tukanksyuksa esa xgjs varZlaca/k ns[kus dks feyrs gSaA
orZeku le; dh ckr djsa rks ^Bkdqj dk dq¡vk* vkt Hkh ftank gSA cqansy[kaM lesr ns'k ds
dbZ bykdksa esa vkt Hkh nfyrksa dks dq¡vksa ls ikuh Hkjus dh vuqefr ugha gSA cs'kd ;g mudk
laoS/kkfud vf/kdkj gSA cqansy[k.M dh izfl) yksdksfDr gS&
^cqansyk rsjk ikuh xtc dj tk,
xkxj u QwVs Hkys ifr ej tk,A*
;g cgqr gh 'keZukd gS fd 21oha lnh ds 16osa lky esa Hkh ikuh ij tkfrxr igjk gS
ubZ lnh esa ikuh ds lkFk 'kq)hdj.k dk ewY; Hkh tqM+ x;k gSA vc eVdh dk ikuh ihus okys
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cksry dh dher 200 #i;kA orZeku le; esa fodkl dk fijkfeM dqN bl rjg f'k¶V gks x;k gS
fd tks fgeky; dk ikuh ihrk gS oks lcls T;knk fodflr gSA ikuh ds bl 'kq)hdj.k dk vk/kkj gS
oxZ&HksnA dfo mek'kadj dh dfork gS&
^^cksrycan ikuh ihdj
ml cksry dks Ø'k dj nsrs gks
D;ksafd rqEgs ;kn gS] og funsZ'k
Ø'k n cksry vk¶Vj ;wt!
ij D;k rqEgsa irk gS] bl rjg Q¡lrs&Q¡lrs fopkj ds en esaA ml cksry
dh rjg rqe Hkh fjDr gksrs tk jgs gks!
vkSj ftl fnu rqe iwjh rjg fjDr gks tkvksxs
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rqe Hkh dj fn, tkvksxs Ø'k!**
dfo us bl dfork esa ty lalk/ku dh ywV] cktkjhdj.k dh miHkksx laLÑfr vkSj ;wt ,.M Fkzks ls
iSnk gq, dpjs ls vVh i`Foh ds ladV dks dV?kjs esa [kM+k fd;k gSA
izkÑfrd lalk/kuksa fo'ks"kdj ikuh ds vfoosdiw.kZ nksgu ls mRiUu izkÑfrd vkinkvksa vkSj
lkekftd [krjksa dks le>uk vkSj mldk fo'ys"k.k djuk cgqr t:jh gks x;k gSA euq"; lnSo ls
izÑfr dk lgpj jgk gSA b/kj fodkl dh va/kk/kqa/k nkSM+ ds en esa euq"; us izÑfr dks fu;af=r djus
dh dksf'k'k dh izÑfr dk iyVokj 'kq: gqvk rks lewph i`Foh ij i;kZoj.k dk ladV mRiUu gks
x;kA QkLVj us bl ckr dks js[kkafdr fd;k gS fd ^i`Foh dk ladV dsoy izÑfr dk ladV ugha gS
cfYd ;g lekt dk ladV gS*A
lkspus okyh ckr gS fd dbZ lkS o"kZ iwoZ dchj }kjk jfpr myVcklh dSls orZeku esa ikuh ds
ladV ls tqM+ tkrh gSA
^vks ubZ vkbZ cnjhA cjlu yxk lalkjAA
mBh dchj /kkg nsA nk{kr gS lalkj!!AA*
ckny f?kj vk, rks yksxksa us lkspk ikuh cjlsxkA blls riu feVsxh] I;kl cq>sxh] i`Foh
lty gksxh] thou dk ;g nkg feV tk,xk] fdUrq gqvk Bhd mYVkA ;g nwljs rjg ds ckny gSa]
buls ikuh dh cw¡ns ugha vaxkjs cjl jgs gSaA lalkj ty jgk gSA dchj ,sls Ny ckny ls lalkj dks
cpkus ds fy, cspSu gks mBrs gSaA ikuh esa vkx yxkuk ,d eqgkojk gSA ysfdu fodkl dh vk/kqfud
vo/kkj.kk vkSj mlds fØ;kUo;u us bl eqgkojs dks pfjrkFkZ Hkh dj fn;k gS! fiNys fnuksa cSaxyq:
dh lcls cM+h >hy] csYykMqaj esa vkx yx xbZA bl vkx dh otg ml >hy ij QSyk vlk/kkj.k
iznw"k.k FkkA
chrs nks n'kdksa ds nkSjku caxyw: 'kgj dh dbZ cM+h >hyksa dks igys nwf"kr fd;k x;k fQj
mUgsa ikVk x;k vkSj mlds ckn mldk bLrseky 'kgjhdj.k ds fy, gks x;kA blh dk ifj.kke gS fd
FkksM+h lh ckfj'k esa vc 'kgj esa ck<+ vk tkrh gSA gSnjkckn dh ckr djsa rks ;g 'kgj 15oha 'krkCnh
esa clk;k x;k FkkA ml le; bls <sj lkjh >hyksa vkSj rkykcksa ls lEiUu cuk;k x;kA ijUrq fodkl
dh pdkpkSa/k us bldks iznw"k.k ls vkV fn;k vkSj [kwclwjr thounkf;uh >hyksa o rkykc 'kgjhdj.k
dh HksaV p<+ x,A orZSeku esa Hkkjr ds dbZ 'kgj ikuh ds ladV ls tw> jgs gSa cqansy[k.M vkSj ykrwj
dk lw[ks ls cqjk gky gS fonHkZ esa fdlkuksa dh vkRegR;k dk lcls cM+k dkj.k lw[kk gSA vr% orZeku
;qx esa ikuh cgqr laosnu'khy eqn~nk cu pqdk gSA
/kjrh ds rkieku esa gks jgh c<+ksrjh ds pyrs ekSle esa cnyko gks jgk gS vkSj blh dk
ifj.kke gS fd ;k rks ckfj'k vfu;fer gks jgh gS ;k fQj csgn deA ;s lHkh ifjfLFkfr;k¡ ufn;ksa ds
fy, vfLrRo dk ladV iSnk dj jgh gSaA ikuh vkSj taxy laHkor% nks ,sls lalk/ku gSa ftuesa Hkkjrh;
i;kZoj.k vkanksyu dks gky ds o"kks± esa lcls T;knk la?k"kZ djuk iM+k gSA ^fpidks vkanksyu* izkÑfrd
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lalk/kuksa ls lacaf/kr la?k"kks± ds O;kid flyflys dk izfrfuf/k Fkk tks fd 1970 ls 80 ds n'kd esa
Hkkjr ds fofHkUu fgLlksa esa QwV iM+s FksA bu la?k"kks± esa taxy] eNyh vkSj i'kqvksa ds fy, pkjs ds
lalk/kuksa rd igq¡p ds la?k"kZ vkS|ksfxd iznw"k.k vkSj [kuu ds ifj.kkeksa ls tqM+s la?k"kZ vkSj cM+s cka/kksa
ds f[kykQ la?k"kZ 'kkfey FksA ;gk¡ /;ku nsus ;ksX; gS fd dSls i;kZoj.kh; vkanksyu oxZ&la?k"kZ dk
elyk Hkh cu tkrs gSa jkepaæ xqgk us viuh fdrkc ^miHkksx dh y{e.k js[kk* esa bls le>kus dk
iz;kl fd;k gSA os crkrs gSa fd bu vf/kdrj fooknksa esa vly esa vehjksa us xjhcksas dk neu fd;k
ftldk izfrjks/k tukanksyuksa ds :i esa QwVkA
 ydM+h dkVus okyh daifu;ksa us igkM+h xkaookyksa dk
 cka/k fuekZrkvksa us taxy esa jgus okys vkfnfok;ksa dk
 cM+s tky okys tgktksa okyh cgqjk"Vªh; daifu;ksa us NksVh ukoksa ds tfj, eNyh idM+us okys
NksVs eNqvkjksa dk
tSls fd e/; Hkkjr esa ueZnk ij ljnkj ljksoj cka/k ds fuekZ.k dk ekeyk gS ftldk edln xqtjkr
dks fctyh vkSj ikuh eqgS;k djkuk gS tcfd e/; izns'k ds Åijh bykdksa esa fdlku vkSj vkfnoklh
cs?kj gq, gSaA 1970 ds n'kd esa Hkkjrh; i;kZoj.koknh cgl ij ou laca/kh fookn gkoh FksA tcfd
1980&90 ds n'kdksa esa ueZnk cpkvks vkanksyu vkSj dsjy ds eNqvkjksa ds la?k"kZ us ikuh vkSj eNyh
ds leqfpr mi;ksx ds loky dks dsUæfcUnq cuk;kA
usg: tSls mifuos'kokn fojks/kh usrkvksa ds fy, lkezkT;okn dsoy vkSifuosf'kd rkdrksa dh
vkfFkZd vkSj rduhdh Js"Brk }kjk gh laHko gqvk FkkA vukSifuos'khdj.k us igys ls vfodflr Hkkjr
ds fy, if'pe dh rtZ ij gh fodkl dh lEHkkouk,¡ [kksyh FhkA ,d ih<+h xqtjh vkSj urhts lkeus
vk,A nqfu;k dks ns[kus dk utfj;k cnyk vkSj i;kZoj.kh; ljksdkj ,d ckj fQj /khjs&/khjs
lkoZtfud foe'kZ esa txg ikus yxsA lkfgR; esa ikuh dh leL;k ij ckr djus ds fy, lcls
egRoiw.kZ gksxk unh&dFkkvksa ij ckr djukA
ve`ryky csxM+ }kjk jfpr ^lkSan;Z dh unh ueZnk* vkSj jtuhdkar dh ^ueZnk dh ubZ dFkk*
esa dkQh cM+k varj gSA csxM+ dh unh ds izfr lkSan;Zoknh n`f"V vf/kd izHkkoh jgh gSA tSlk fd
'kh"kZd ls gh Li"V gS mUgksaus ueZnk dk cgqr gh dykRed fp=.k fd;k gSA ys[kd cka/k ifj;kstukvksa
dks Hkh mRlkg vkSj vk'kk dh n`f"V ls ns[krk gSA og bls cgqr gh mi;ksxh Hkh ekurs gSa ftlls ,d
rjQ rks lw[ks ls ihfM+r yksxksa dks jkgr feysxh ogha nwljh rjQ ueZnk dk O;FkZ cgrk ty mi;ksx
esa yk;k tk,xkA csxM+ dh /kkfeZd vkSj ikSjkf.kd vkLFkk Hkh ueZnk ds izfr fdrkc esa ns[kus dks
feyrh gSA ogha jtuhdkar }kjk jfpr ^ueZnk dh ubZ dFkk* esa ys[kd cka/k dks unh] izÑfr vkSj
foLFkkfirksa dh =klnh ds :i esa ns[krs gSaA cka/kksijkar tks Hk;kog n`'; mRiUu gqvk mldh dFkk Hkh
blesa 'kkfey gS ftlus ve`ryky dh lkSan;Z dh unh ueZnk dks yqIr izk;% dj nsus dk chM+k mBk;k
gSA
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;gk¡ loky [kM+k gksrk gS fd vk/kqfud lekt esa ,d unh dks fdl rjg gksuk pkfg,! D;k
;g unh ds o'k esa jg x;k gS ck¡/k dj Ñf=e Mwc iSnk dj lw[kk xzLr bykdksa esa gfj;kyh dk
izca/k djuk] 'kgjksa esa txexkrs rduhdh fodkl ds fy, ÅtkZ mRiUu dj [ki tkuk] ;k fQj
izkÑfrd :i ls fu'Ny cgrs jguk vkSj vpkud vk;h ck<+ ls yksxksa dks rckg djuk ;k lw[kk
izHkkfor {ks=ksa ls fdukjk dj ysukA ;g iz'u bruk ljy ;k likV ugha gS blesa dbZ isphnk eqn~ns
gSaA blfy, gesa unh dh fodkl ;k=k ds lkFk&lkFk fodflr gksrh lH;rk vkSj le; dh xfr dks
Hkh ysdj pyuk gksxkA
Hkkjrh; lekt esa unh ,d thou n'kZu dh rjg gS ftldk fo'ks"k egRo gSA foy{k.k iznw"k.k
ukf'kuh 'kfDr okyh xaxk dkuiqj esa eSyk <ksus okyh ekyxkM+h cu pqdh gSA xaxk unh dk 'kks"k.k vkSj
fouk'k /kkfeZd deZdkaM vkSj vkMEcjksa us fd;kA iznw"k.k dh ck<+ us mls e`r;q ds dxkj ij igq¡pk
fn;kA xaxk dks LoPN djus ds fy, orZeku ljdkj }kjk Hkkjh&Hkjde ctV okyh ;kstuk ^uekfe
xaxs* pyk;h tk jgh gSA uke esa gh fganw laLÑfr dh xksycanh utj vk jgh gSA budk /;s; i;kZoj.k
laj{k.k ;k unh dks lkQ djus esa ugha gS cfYd jktuhfrd rkSj ij ,d unh dks xksn ysdj mldk
fganwdj.k dj /kkfeZd mUeknrk QSykuk gSA
ueZnk tSlh fo'kkydk; unh dk 'kks"k.k vkSj fouk'k vk/kqfud lH;rk vkSj rduhd us fd;kA
lalk/kuksa dk nksgu dj cM+h&cM+h ifj;kstukvksa us unh gh ugha mlds vkl&ikl clh ijaijk dks Hkh
jkSandj cckZn dj fn;kA ikuh cgqr egRoiw.kZ lalk/ku gSA orZeku le; esa ekStwn lcls cM+s oSf'od
ladV ds ifj.kke vkSj dkj.k nksuksa esa ikuh egRoiw.kZ :i ls 'kkfey gSA gesa ;g ns[kuk gksxk fd
gekjk lkfgR; vkSj lekt bldks fdl :i esa le>rk vkSj O;k[;kf;r djrk gSA
unh o ikuh ij vk/kkfjr lkfgR; dk fo'ys"k.k djsa rks irk pyrk gS fd dbZ iqLrdsa furkar
/kkfeZd o f?klh&fiVh ikSjkf.kd ifjikVh ij fy[kh xbZ gSaA tSlk fd MkW- yksfg;k us dgk Fkk fd
^Hkkjrh; lekt ,sfrgkfld ugh cfYd ikSjkf.kd ewY;ks ds vk/kkj ij pyrk gS*A Bhd ;gh ckr Hkkjr
dh ufn;ksa vkSj ty ij Hkh ykxw gksrh gSA ,d vkSj rks vke tu dh le> dk ;g fiNM+kiu vkSj
nwljh rjQ uo lkezkT;okn }kjk ty lalk/kuksa dh fnu&jkr dh ywV [klkSVA c<+rs ty iznw"k.k us
ty ds vfLrRo dk ladV iSnk dj fn;k gSA ty ls tqM+k gS ^i`Foh ij thou*A
^Mwc* miU;kl esa ohjsUæ tSu us cM+s cks/kksa ds dkj.k vk;h rckgh ds lkFk&lkFk nks laLÑfr ds
chp ds varjky dks Hkh js[kkafdr fd;k gSA miU;kl ;g iz'u [kM+k djrk gS fd ^;fn vlqfo/kk ls gh
lqfo/kk vkus okyh gS rks ml vlqfo/kk vkSj lqfo/kk esa Hkkxhnkjh dk vuqikr cjkcj D;ksa ugha gS xk¡o
mtM+s vkfnokfl;ksa ds foLFkkfir os gks] mudh tehu nyny cus] ftudk taxy lewpk u"V gks vkSj
vki ikuh fctyh dgha vkSj ys tk, rks ;g dSlk U;k; gqvkA*
ohjsUæ tSu bl miU;kl esa ,d NksVs ls izlax ds ek/;e ls fn[kkrs gSa fd dSls lÙkk i{k bl
rckgh dk lw=/kkj cudj ywV dh eykbZ mM+k jgk gSA miU;kl dk va'k gS ^^bafnjk th ,d b±V j[k
xbZ Fkh] fd Qsad xbZ Fkha] jke tkus] exj ml ,d b±V ls csrck esa tks mQku vk;k og tkus fdrus
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xk¡o ds xk¡o yhy x;kA yMSbZ esa igyh ckj gk¡] igyh ckj ck<+ vkbZ Fkh ml cjlA** ikuh ds ladV
ds lkFk foLFkkiu dh leL;k xgu :i esa tqM+h gqbZ gSA ;g le>uk t:jh gS fd dSls ^ueZnk
fookn* vkfnoklh cuke xSj&vkfnoklh ds :i esa ns[kk x;k gSA vkfnokfl;ksa dk loky gS fd muds
vkt ds vfLrRo dks xSj vkfnoklh vfHktkR; oxZ dh Hkkoh ih<+h ds fy, D;ksa dqckZu dj fn;k tk,
es/kk ikVdj fy[krh gSa ^ijEijk vksj vk/kqfudrk ds chp dk foHkktu vc iqjkuk gks x;kA fodkl ds
lanHkZ esa vc tks loky mBuk pkfg, og gS lkekftd&vkfFkZd U;k; dkA vr% fodkl i;kZoj.k
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  • 1. 1
  • 2. ISSN 2454-2725 विषय सूची कविता डॉ. श्याम गुप्त (कविता), सरोज उत्प्रेती (कनाड़ा) (कविता), हर्षिधषन आयष (कविता), महेश कु मार माटा (कविता), निीन मवि विपाठी (कविता), रजनीकाांत शुक्ला (कविता), शावलनी ‘शालू’ नज़ीर (कविता), सांजय िमाष (कविता), सोनू चौधरी (कविता), सुशाांत सुवरय (कविता), रीता चौधरी (कविता) कहानी पानी: सीमा जैन (कहानी) लघुकथा पानी का हर बूांद: लालजी ठाकूर (लघुकथा) व्यंग्य सरकारी हैडपम्प की व्यथा: मोहनलाल मौयष (व्यांग्य) आलेख: जल सम्पदा एिं जल संकट 21िीं सदी की बड़ी और विकराल समस्या: अनीता देिी वहांदी सावहत्प्य में पानी एक सिेक्षि: सुनीता राकृवतक उपहार ‘जल’: अमर कुमार चौधरी मेघों का मनाने का अांदाज अपना-अपना: आकाांक्षा यादि जल की धार-राि आधार: डॉ. मृिावलका ओझा सभ्यता और सांस्कृवत की अविरल धारा है गांगा: कृष्ि कुमार यादि डॉक्यूमेंटरी विल्मों में वचवित विश्वव्यापी जल सांकट की दशा और वदशा: मनीर् खारी रुपहले पदे पर पानी (Water in Cinema): उमेश कुमार राय अब की बार िसल शहर में: वनलामे गजानन सूयषकाांत भारत का जल सांसाधन: वमवथलेश िामनकर एिां विजय वमिा लातूर पानी के वलए सांघर्ष: रिीि पाठक एवशयाई देशों में गहराता जल सांकट: विश्व जलरिीि रभाकर भारत में पानी: रेमचांद श्रीिास्ति जल एिां सांभावित स्िास््य सांकट: आर. सपना भारत में घटते सांसाधन: रांजीत जल समस्या: स्थानीयता ही है समाधान: एस.जी. िोम्बाटकर जल सांकट के मुहाने पर गांगा यमुना का दोआब: शालू अग्रिाल जल रदूर्ि के कारि और रभाि: सोवनया माला सांकट में पानी: यूएनईपी बैगा जनजावत में िर्ाष गीत: अजुषन वसांह धुिे लोकगीतों में िर्ाष: डॉ. रामनारायाि वसांह ‘मधुर’ आलेख: जल संरक्षण एिं प्रबंधन जल सांकट के रवत लोगों को जागरूक करने में विज्ञापन की भूवमका: शवश गौड़ जल विद्युत नीवत, बाांधों के वनमाषि, समीक्षा की आिश्यकता: वििेक रांजन श्रीिास्ति ‘जल’ ‘सांरक्षि’ ही अांवतम विकल्प: शौभा जैन जल भण्डारि, सांरक्षि तथा रबांधन: ए. के . चतुिेदी सम्पूिष जल रबांधन: राजेश गुप्ता िर्ाष जल सांरक्षि: रेशमा भारती कैसे सहज और व्यिवस्थत हो तालाब वनमाषि: मविशांकर उपाध्याय जल सांरक्षि के आसान उपाय: वनवतन रोडेकर सरकां डे से होगी नवदयों की सिाई: विकास धूवलया/अरविांद शेखर िॉर िॉर िाटर: एएमएि न्यूज़ छत के पानी का एकिीकरि: इांवडया िॉटर पोटषल 2
  • 3. ISSN 2454-2725 भारत में जलक्षेि के वनजीकरि और बाजारीकरि के रभाि: इांवडया िॉटर पोटषल जल रदूर्ि: वनजात वदलाएगा एसएसएि: इवण्डया िॉटर पोटषल जलाशयों की मरम्मत, जीिोद्धार ि निीकरि स्कीम पर नोट: जल सांसाधन मांिालय, भारत सरकार Some Useful Website, Articles and Documentary on Water Issue: Kavita Singh Chauhan Water and Journey: Rakesh Kumar Mathur (London) अवतवथ संपादक: रमेश कुमार विशेष आभार: इवण्डया िॉटर पोटषल 3
  • 4. ISSN 2454-2725 जल की प्रत्येक बूूंद का सूंचयन आने वाली सभ्यता का भववष्य तय करेगी... कु छ वक्त पहले यह चेतावनी दी गई वक अगला ववश्वयु्ध पानी क लेकर ह सकता है. यह चेतावनी सही सावबत ह सकती है, वजस तरह से जल का द हन ह रहा है और हमारे अवततत्व पर सूंकट मूंडरा रहा है ऐसे में वनवित ही यह पररवतथवत उत्पन्न ह सकती है. आप इन्टरनेट पर तलाशेंगे त अफ्रीका से लेकर कई देशों की भयावह ततवीर देखने क वमलेगी. आवखर जल की एक बूूंद क तरसते हुए ल गों की इस वतथवत का असली कारण ख जे त हमें तवयूं पर प्र्न उााने होंगे. आज जब जल सूंरक्षण क लेकर वचूंता व्यक्त की जा रही है कई सूंतथाएूं इस क्षेत्र में प्रयासरत है तब भी हम भववष्य में जल की उपवतथवत क लेकर सशूंवकत है. हमारी यह वचूंता मानव अवततत्व क लेकर है कयूूंवक धरती पर कु छ ही प्रवतशत पानी पीने य ग्य है और इसमें भी ज शेष जल है उसे हमारे तवाथथ ने ववकास के नाम पर खत्म कर वदया है. यवद हम अपने मानव सभ्यता के प्रारूंवभक समय क देखें त वहाूं जल सूंरक्षण के कई उपाय नजर आयेंगे इसका तपष्ट उदाहरण तालाब सूंतकृ वत है. एक वक्त था जब भारत में तालाबों की सूंख्या में थी आज इनकी सूंख्या उलगवलयों पर वगनी जा सकती है. हमारी अूंधाधुूंध ववकास की दौड़ में हमने अपने प्राकृ वतक सूंसाधनों का लगातार श षण वकया अब यह वतथवत ववकराल रूप धारण कर चुकी है इसका तपष्ट उदाहरण हम उत्तर प्रदेश के बुूंदेलखूंड इलाके एवूं महाराष्र के लातूर वजले क देख सकते हैं, जहाल अकाल जैसी वतथवत उत्पन्न ह गई. इस वतथवत से वनपटने के वलए सरकार ने तत्कालीन उपाय भी वकए लेवकन वैज्ञावनकों की चेतावनी क दरवकनार करते हुए क ई सशक्त कदम नहीं उााए गए. आवखर हम इस तरह की पररवतथवत का इूंतज़ार कयूल करते हैं. यवद हमें ऐसी वतथवत से वनपटना है त तालाब सूंतकृ वत की ओर लौटना ह गा. हमें अपने प्राचीन जल सूंरक्षण नीवतयों एवूं आधुवनक साधनों के वमश्रण से ऐसा मागथ तलाशना ह गा, वजससे शेष जल क सूंरवक्षत वकया जा सके . जनकृ वत का यह अूंक वतथमान जल सूंकट, जल सूंरक्षण एवूं जल सूंसाधनों पर के वन्ित 4
  • 5. ISSN 2454-2725 है. इस अूंक में जल के ववववध पक्षों पर ववचारों क प्रकावशत वकया है. इस अूंक के माध्यम से हम जल सूंकट की भयावता क वदखाना चाहते हैं और आग्रह करते हैं वक हम इस समतया के प्रवत गूंभीरता से स चें और कारगर कदम उााएूं. इस अूंक में ववश्वभर में जल सूंरक्षण क लेकर कायथ कर रही सूंतथाओूंके वलूंक क भी तथान वदया है तावक हम जल सूंरक्षण क लेकर ह रहे वैवश्वक कायों से जुड़ सकें . इस आशा के साथ वक हम ‘जल’ के महत्त्व क समझेंगे और इस वदशा में कारगर कदम उााएूंगे, जनकृ वत अूंतरराष्रीय पवत्रका का जल ववशेषाूंक आपके समक्ष प्रततुत है. अूंत में इस अूंक क साथथक रूप देने हेतु इूंवडया वॉटर प टथल का ववशेष रूप से आभार.. -कु मार गौरव वमश्र 5
  • 6. ISSN 2454-2725 में हूँ पानी की वही बूूँद , आततहास मेरा देखा भाला | मैं शाश्वत, तवतवध रूप मेरे, सागर घन वषाा तहम नाला। 1 धरती आक अग का गोला थी, जब मातंड से तवलग हुइ। शीतल हो ऄणु परमाणु बने, बहु तवतध तत्वों की सृति हुइ । 2 अकाश व धरती मध्य बना, जल वाष्प रूप में छाया था। शीतल होने पर पुनः वही, बन प्रथम बूूँद आठलाया था । 3 जग का हर कण कण मेरी आस , शीतलता का था मतवाला । मैं पानी की वही बूूँद, आततहास मेरा देखा भाला।। 4 तिर युगों युगों तक वषाा बन, मैं रही ईतरती धरती पर । तन मन पृथ्वी का शीतल कर, मैं तनखरी सप्ततसन्धु बनकर। 5 पहली मछली तजसमें तैरी, मैं ईस पानी का तहस्सा हूँ। ऄततकाय जंतु से मानव तक, की प्यास बुझाता तकस्सा हूँ। 6 रतव ने ज्वाला से वातष्पत कर, तिर बादल मुझे बना डाला। मैं हूँ पानी की वही बूूँद, आततहास मेरा देखा भाला॥ 7 मैं वही बूूँद जो पृथ्वी पर, पहला बादल बनकर बरसी। नतदया नाला बनकर बहती, झीलों तालों को थी भरती। 8 राजा संतों की राहों को, मुझसे ही सींचा जाता था। मीठा ठंडा और शुद्ध नीर, कुओंसे खींचा जाता था। 9 बन कुए सरोवर नद झीलें , मैंने सब धरती को पाला। मैं वही बूूँद हूँ पानी की , आततहास मेरा देखा भाला॥ 10 उूँ चे उूँ चे तगरर- पवात पर, शीतल होकर जम जाती हूँ। तहमवानों की गोदी में पल, तहमनद बनकर आठलाती हूँ। 11 सतवता के शौया रूप से मैं, हो द्रतवत भाव जब बहती हूँ। प्रेयतस सा नतदया रूप तलए, सागर में पुनः तसमटती हूँ। 12 मैं ईस तहमनद का तहस्सा हूँ, तनकला पहला नतदया नाला। मैं हूँ पानी की वही बूूँद, आततहास मेरा देखा भाला॥ 13 तब से ऄब तक मैं वही बूूँद, तन मन मेरा यह शाश्वत है। 6
  • 7. ISSN 2454-2725 वाष्पन संघनन व द्रवणन से , मेरा यह जीवन तनयतमत है। 14 मैं वही पुरातन जल कण हूँ , शाश्वत हैं नि न होते हैं । यह मेरी शाश्वत यात्रा है, जलचक्र आसी को कहते हैं। 15 सूरज सागर नभ मतह तगरर ने, तमलकर मुझको पाला ढाला। मैं ही पानी बादल वषाा, ओला तहमपात ओस पाला। 16 मेरे कारण ही तो ऄब तक, नश्वर जीवन भी शाश्वत है। ऄतत सुख-ऄतभलाषा से नर की, ऄब जल थल वायु प्रदूतषत है ।१७. सागर सर नदी कूप पवात, मानव कृत्यों से प्रदूतषत हैं। आनसे ही पोतषत होता यह, मानव तन मन भी दूतषत है। 18 प्रकृतत का नर ने स्वाथा हेतु, है भीषण शोषण कर डाला। मैं हूँ पानी की वही बूूँद , आततहास मेरा देखा भाला॥ 19 कर रहा प्रदूषण तप्त सभी, धरती अकाश वायु जल को। ऄपने ऄपने सुख मस्त मनुज, है नहीं सोचता ईस पल को। 20 पवातों ध्रुवों की तहम तपघले, सारा पानी बन जायेगी। भीषण गमी से बादल बन, ईस महावृति को लायेगी। 21 अयेगी महा जलप्रलय जब, ईमडे सागर हो मतवाला। मैं वही बूूँद हूँ पानी की , आततहास मेरा देखा भाला॥ २२. डा श्याम गुप्त, सुश्यानिदी, के -३४८, आनियािा, लखिऊ २२६०१२ मो. ९४१५१५६४६४.. 7
  • 8. ISSN 2454-2725 बबना जल के रेत के टीलों सा यह संसार होता हम ना होते तुम ना होते, अगर दुबनयां में जल न होता कै से उडती फूल की खुशबू कै से भंवरो का गुन्जन होता हरी भरी घास न होती , बन उपवन सब उजड़ा होता गंगा होती ना, जमुना होती ना बहता झरनो से पानी सूखे ताल तलैय्या होते, सागर गड्डे सा फैला होता देश बवदेश कुछ भी नही होते ,संसार नाम नही होता धरती का सीना रहता खाली , रहने वाला कोई नही होता नही होती सभ्यता बवकबसत, पुराना कोई इबतहास न होता मंबदर मबजजद नही चचच न होते, ग्रन्थ साबहब पाठ न होता - सरोज उप्रेती ( कनाडा) 8
  • 9. ISSN 2454-2725 "जल" जजसके जिना सृजि के अजतित्व की कल्पना करना ही मुजककल है । सूक्ष्मिम जीव से लेकर वनतपजियााँ िक जजसके जिना जनजीव हैं । ऐसे अमृि रस जल को ििााद करना जीव हत्या के समान जनिंदनीय है । जागो !! समझो !! अपनाओ !! जल िचाओ -जीवन िचाओ । प्रेरणा गीत : ……………………. वरुण देव के अमृि घट से िहिा जीवन रस प्रजिपल अरे सम्हालो धरिी पुत्रो नि ना हो धरिी का जल ॥ जल में धरिी, धरिी में जल है अद्भुि िाना-िाना जल के जिन धरिी पर अन्न का उग सकिा ना इक दाना पेड़ धरा की िाहें िन कर िुला रहे होिे हैं घन उमड़-घुमड़ घन सुख वर्ाा से भरिे धरिी का आाँगन िहिी सरस नेह की धारा एकाकार हुवे जल-थल अरे सम्हालो धरिी पुत्रो नि ना हो धरिी का जल ॥ जल जीवन का सार धरा पर, जल सिसे अनमोल रिन जल जिन है जग सूना मरुथल, जल जिन है दुखमय जीवन थलचर-नभचर-जलचर सिका जल ही है जीवन दािा धरिी पर जीवों का जल से जपिा-पुत्र का है नािा जो जल को दूजर्ि करिे हैं, करिे मानविा से छल अरे सम्हालो धरिी पुत्रो नि ना हो धरिी का जल ॥ चााँद-जसिारों पर पानी को मानव आज रहा है खोज पर धरिी के अमृि -घट को दूजर्ि करिा है हर रोज भौजिक सुख में जलप्त रसायन िहा रहा है नजदयों में जमनटों में जवर्मय करिा जो अमृि िनिा सजदयों में आज सुधारोगे ग़र खुद को िभी सुधर पायेगा कल अरे सम्हालो धरिी पुत्रो नि ना हो धरिी का जल ॥ वरुण देव के अमृि घट से िहिा जीवन रस प्रजिपल अरे सम्हालो धरिी पुत्रो नि ना हो धरिी का जल ॥ 9
  • 10. ISSN 2454-2725 2. जल के जिना है सूनी, मानुर् की यह जूनी जल से कभी भी, जखलवाड़ मि कररये िूिंद-िूिंद जल अनमोल होिा मोजियों सा नल खुला छोड़ने का, लाड़ मि कररये जल को िहा रहे जो मूढ़ मजि नाजलयों में ऐसे िावलों की कभी, आड़ मि कररये जल ना रहा िो जल जाएगा ये जग सारा भूल के भी जल से, जिगाड़ मि कररये ।। अध्यक्ष -रोटरी क्लब ऑफ दिल्ली अपटाउन पिा - 2497/191,ओिंकार नगर ,जत्रनगर ,जैन तथानक रोड,जदल्ली -110035 मोिाइल - 9968421236, 10
  • 11. ISSN 2454-2725 हाथो में तलवार ललए बूूंद बूूँद पानी को तरसते कूं ठ में भीषण चीत्कार ललए मर रहे असमय मौत से चहूँ और हाहाकार ललए हे लवधाता लवशाल जलसमूह में समायी है धरा लिर क्यों खाली है घड़ा वीरान कमरे में औूंधा धरा शुष्क लनजीव पड़ा मन हो रहा क्रलददत सूखी नलदयाूं देख नालो पे थामे पतवार ललए हे मनुष्य अब भी सम्भल जा अदयथा बहत पछतायेगा या तो रेलगस्तान में मरता या समुद्र में डूबता नज़र आयेगा चीख चीख कर कह रही धरती रोक लो अभी भी दोहन मेरे गभभ का बचा लो पानी की एक एक बूूँद हाथों में समय की धार ललए न लबगाड़ो सदतुलन प्रकृलत का कर लो प्रलतज्ञा ह्रदय में भलवष्य का ज्वार ललए नही तो यूूँ ही कटते रहोगे एक एक बूूँद के ललए हाथो में तलवार ललए हाथों में तलवार ललए (महेश कु मार माटा ) Mahesh kumar matta 114-A, k-1 extension, gurudwara road, mohan garden, new delhi 110059 Phone: 9711782028 11
  • 12. ISSN 2454-2725 जल जीवन आधार है मत कर जल बरबाद । बूूँद बूूँद में प्राण है, है यह ईश प्रसाद ।। जल को संरक्षित करो बाधो तगड़ा सेतु । क्षवश्वयुद्ध अगला कभी होगा जल के हेतु ।। कं करीट जंगल हुआ नगर नगर का िेत्र । पानी क्षबन बेहाल हो तरसा मानव नेत्र ।। ताल तलैया खो रहे इन्हें बचाये कौन । जल संरिण पर हुआ संक्षवधान क्यों मौन ।। उन्नक्षत की कैसी चुनी यह तुमने तरकीब । दूक्षषत सारा जल हुआ मरने लगा गरीब ।। नक्षदयों के इस देश का यह कैसा सम्मान । मल्टी नेशनल जल क्षलए सजी हुई दूकान।। रुष्ट हुई गंगा बहुत हुआ बहुत अपमान । देवी अपना खो गयीं कलयुग में पहचान ।। जीवन से गर प्रीक्षत है तो मत करना उपहास । जल की मयाादा रखो हो तभी बुझेगी प्यास ।। --नवीन मणि णिपाठी 12
  • 13. ISSN 2454-2725 cwan&cwandj cgrk tk,] ty vueksy [k+tkuk] gS lhfer HkaM+kj /kjk ij] ty dks gesa cpkuk] cckZnh gks de] cpr djsaxs ge] /;ku vxj nsa] NksVh ckrsa] Ckgqr cM+h cu tkrh] cwan&cwan ls curk lkxj] vkSj ufn;k Hkj tkrh] lkxj dks ckny ls gksdj] fQj ufn;ksa rd ykuk] gS lhfer HkaM+kj /kjk ij] ty dks gesa cpkuk] ckrksa esa gS ne] cpr djsaxs ge] rjl tk, ;s lw[kh /kjrh] Ik”kq i{kh vkS turk] D;k nwtk fodYi gS dksbZ] Tkks dj ik, lerk] i<+s&fy[ks dks vkSj vui<+ dks] lcdks ;s le>kuk] gS lhfer HkaM+kj /kjk ij] ty dks gesa cpkuk] lq[kh cus lc tu] cpr djsaxs ge] jtuhdkUr “kqDy 13
  • 14. ISSN 2454-2725 मैं हूं नन्हीं बूूंद जल की , बूूंद-बूूंद प्रवाहहत सागर तल की । मुझमें हहम्मत सराबोर है , मेरी आशाएूं चहूंओर है ॥ पल में प्रलय , पल में सूखा , हजूंदगी का एक कोना , अभी है रूखा-रूखा । तुम्हारी नजरें ढूूंढे , मुझे पहरों में , मैं कल-कल करती , बहती लहरों में ॥ पहाडों से उद्गार हआ , कभी सागर का श्ृूंगार हकया , वसुूंधरा तुझपे बहते-बहते मातृत्व सा व्यवहार हआ । मुझे चोट लगे , गर पाषाणों से , नादान बालक है वो , मैं चाहूं उसे जी प्राणों से ॥ मैं जब- जब आती , बहती बाररश में , कोख हररयाली हो जाए , वसुूंधरा की खव्वाहहश में । हिर से िहर उठे , प्रकृहत की पताका , बस इतनी सी अजमाइश है । िेंक रहा मानुष , कूडा करकट समा रहा मुझमें गूंदगी का जमघट ॥ रूके - रूके से ये श्ाूंस है , अब मुझे ना , मौत का आभास है । हर क्षण , हर पल , समा रही मैं तुझमें , तेरा अूंत हमल जायेगा ऐ मानुष ! भटकते-भटकते मुझमें॥ शालिनी'शािू' नजी ऺर नोहर तहसीि लजिा हनुमानगढ़(राजस्थान) 14
  • 15. ISSN 2454-2725 जल कहता इंसान व्यर्थ क्यों ढोलता है मुझे आवश्यकता होने पर खोजने लगता है क्यों मुझे । बादलों से छनकर मै जब बरसता सहेजना ना जानता इंसान इसललए तरसता । ये माहौल देख के नलदयााँ रुदन करने लगती उनका पानी आाँसुओंके रूप में इंसानों की आाँखों में भरने लगती । कै से कहे मुझे व्यर्थ न बहाओ जल ही जीवन है ये बातें इंसानो को कहााँ से समझाओ । आकाश को लनहारते मोर सोच रहे , बादल भी इज्जत वाले हो गए लबन बुलाए बरसते नहीं शायद बदल को कड़कड़ाती लबजली डराती होगी सौतन की तरह । बादल का लदल पत्र्र का नहीं होता प्रेम जागृत होता है आकषथक सुंदर, धरती के ललए धरती पर आने को तरसते बादल तभी तो सावन में पानी का प्रेम -संदेशा भेजते रहे ररमलझम फुहारों से । धरती का रोम -रोम, संदेशा पाकर हररयाली बन खड़े हो जाते मोर पंखों को फैलाकर स्वागत हेतु नाचने लगते लकं तु बादल चले जाते बेवफाई करके छोड़ जाते हररयाली/ पानी की यादें धरती पर प्रेम संदेश के रूप में । संजय वर्मा "दृष्टि " 125 , शहीद भगत ष्टसंग र्मगा र्नमवर ष्टजलम -धमर (र् प्र ) 454446 15
  • 16. ISSN 2454-2725 फितरत ये पुल की फितरत है सब का भार सहन करना और फितरत ये नदी के मुहाने की पानी की टकराती धार वहन करना पववत की फितरत गडररये के फकस्सों की पोटली संभाले रखना सागर की फितरत है नदी के मैले पानी को अपनी साफ़ नजर देना बाररश की फितरत बादल को चीर देना ..और तुम्हारी मुखर मौन फगरते उठते मौसम की माफनंद सारी सुवासों से भीगा था मन बस एक कसक बाकी थी इधर उधर की बातों के बीच लम्बी चुप्पी का अन्तराल और इस मौन में मुखर होने की कुलबुलाहट ये तो नयी बात हुई पुराने फकस्सों को खंगालना फदन भर यादों की अंजुरी भर महकना फबना बात के छोटी को धौल जमाना कनफखयों से देख कर मुस्कराना इस उम्र में नवेली जैसी चाल क्या हो गया तुम्हें तरेरती नजरों में उठे सवाल अब फकस फकस को क्या क्या बताएं जाना है उस पी के घर जहााँ से लौटना नहीं नयी बात इसफलये कह दी , कर दी बस कहीं कोई मलाल न रह जाये ररश्ते तल्ख़ ख़ामोशी के बीच गुनगुनाती हवाएं 16
  • 17. ISSN 2454-2725 रूह को आजाद करती बादल की बोफलयााँ फकतनी दूर तलक मौसम संभालेगा संबंधों की धूपछााँव को फिन्दगी रोटी सी फसकती है तेरी मेरी प्रेम कहानी जरा सा झंझावत आते ही अधपकी रह जाती है हााँ कभी कभी भुनते, भूनते जल भी जाती है खो जाते हैं जब एक दूसरे के अहं में हम 17
  • 18. ISSN 2454-2725 1. यह बुझे हुए गााँव का ससयार नहीं सगरवी पडे खेतों का रुदन है यह सूखी नदी नहीं ददद का ाअख्यान है यह बरबाद खेती नहीं सनष्ठुर त्रासदी है यह सकसान की पूरी ाईम्र नहीं ाईसके गददन तक दलदल में धाँसे होने की छटपटाहट है यह कसवता नहीं ममाांतक पीडा है यह मरघटी शाांसत नहीं प्रजातांत्र का क्षरण है ……………….. शोक-गीत-सा यह देश त्रासदी-सा यह काल कासलख़-पुते-से ये नीसत-सनयांता और मैं जैसे समट्टी से भर सदया गया कुाअाँ सजसके सीने में धडकती है ाऄब भी मीठे जल की स्मृसत ………….. 3. बहुत सदनों बाद सजगरी यार से समलना जैसे मीठे पानी के कुएाँ पर प्यास बुझाना जैसे सूख रहे खेत का सिर से लहलहा जाना जैसे हााँिते हुए िेिडों में सिर से ताजी हवा भर जाना जैसे सिर से बचपन में लौट कर कां चे खेलना रांग-सबरांगी पतांगें ाईडाना जैसे 18
  • 19. ISSN 2454-2725 पशु-पसक्षयों पेड-पौधों िूलों-सततसलयों चााँद-ससतारों से सिर से बसतयाना बहुत सदनों बाद सजगरी यार से समलना जैसे तन-मन का सूरजमुखी-सा सखलना प्रेषकाः A-5001, गौड ग्रीन ससटी , वैभव खांड, ाआांसदरापुरम, गासजयाबाद – 201014, ( ाई. प्र. ) मो: 8512070086 ाइ-मेल : sushant1968@gmail.com 19
  • 20. ISSN 2454-2725 रीता चौधरी शोधार्थी (कलकत्ता विश्वविद्यालय) कहते हैं ‘जल’ ही जीिन है पर, आज इसके ही अवततत्ि पर मंडरा रहा है खतरा.... ‘जल’ रहा है.... इसका ही जीिन। मनुष्य भविष्य के वलए संचय करता है ‘धन’ बनाता है बैंक-बैलेन्स भविष्य के वकस हद तक काम आएगा ऐसा धन?? कौन करेगा संचय ‘प्रकृवत-धन’.... ‘जल’? जो पूरी धरती का है भविष्य. एक ग्लास पानी पीने के वलए चार ग्लास के नुकसान को कौन चुकाएगा सोचा है कभी? पहले तो गन्दगी और कूड़ा-करकट से जल को दूवित भी खुद ही करो और...विर उसकी शुद्धता के वलए मशीनें भी खुद ही बनाओ िाह! िाही! पाओ? अपने वहतसे की विम्मेदाररयों को मशीनों के कं धे डालकर कब तक ? कब तक ? जीिन बच सकता है कब तक ? सारी की सारी गंदवगयों को जल में यूूँ बेविक्र बहाकर खुद को तिच्छ और तितर्थ रखा जा सकता है सोचनीय वििय है…. वक.... रफ्तार विकास की ओर है या विर विनाश की ओर.... 20
  • 21. ISSN 2454-2725 सीमा जैन मेरा बचपन और मााँ का जीवन सबकुछ पानी की भेंट चढ़ गया।क्या करते? मेरी मााँ इस घर में पानी भरने के लिए ही िाई ंगई थी। राजस्थान के गााँवों में जो थोड़ा खचच उठा सकते है; दो शालदयााँ करते है।एक पत्नी घर में राज करने के लिए और एक पानी िाने के लिए। पैसे दे कर लकसी को रखने से सस्ता जो पड़ता है। ररश्ते से जुड़ी वफ़ादारी काम आ जाती है। मेरी मााँ गरीब घर से थी तो उनके लहस्से आया, घर का काम और पानी भरना। सुबह तीन बजे उठना, कोसों दूर जाकर पानी िाना लिर लदन भर घर का काम। मााँ हड़बड़ा कर सुबह उठती, कभी देर हो जाये तो छोटी मााँ का लचल्िाना शुरू हो जाता।बीमारी हो या त्यौहार मााँ को कभी भी इस काम में छुट नही लमिी। बूाँद-बूाँद टपकते पानी से एक घड़ा भरने में घण्टों िग जाते थे। इस रेलगस्तान से तपते कलठन जीवन की एक ही उपिलधध थी मेरी पढ़ाई।सुबह जब मााँ पानी भरने के लिए उठती तो मैं भी जाग जाता और पढ़ने बैठ जाता।सुबह की पढ़ाई और मेरी िगन का उजािा ही हमारी आज की दौित है। पानी िाकर मााँ घर के काम करने में िग जाती।मुझे गोदी में बैठाकर सीने से िगाकर बहुत प्यार करती और हमेशा कहती-"िािा, मन िगाकर पढ़ना यही तेरे काम आएगा।" लपताजी ने कभी लखिौने और नए कपडों का िाड़ तो नही लकया पर लशक्षा से जुड़े खचे का मना भी नही लकया। गांव के मास्टरजी को घर बुिाकर कहते-"िािा का ध्यान रखना कोई ज़रूरत हो तो बता देना।" मााँ की बात सही हुई, लशक्षा ही हमारे काम आई। आज जो भी लमिा उसमें मााँ की दुआ और लकताबों का योगदान ही है। दो साि बाद गााँव जा रहा हाँ। अब मााँ शहर में मेरे साथ ही रहेगी। सुबह के चार बजे घर गया तो मााँ नही लमिी लिर याद आया वो तो पानी िेने गई होगी। हाड़ कं पा देने वािी ठण्ड में इस अंधेरे में कार से जाते समय मैं सोच रहा था लपछिे पच्चीस सािों से मााँ ऐसे ही...जीवन इतना दुुःखद भी हो सकता है! कोई लशकायत सुनने वािा भी नही। 21
  • 22. ISSN 2454-2725 मुझे देखकर मााँ ने मुझे गिे िगा लिया बोिी -"यहााँ क्यों आया िािता तू? लकतनी ठण्ड है चि, घर चि मैं अभी पानी िे कर आती हाँ।" मैने मााँ का हाथ थाम कर कहा-"मााँ, ये पानी यहीं छोड़ और मेरे साथ घर चि ।" मााँ के लिए पानी छोड़ना लकसी आश्चयच से कम नही था वो बोिी -"बेटा, लिर लदन भर... मैने मााँ को बीच में ही रोककर कहा-"एक लदन पानी के लबना भी इनको रहने दे ना मााँ!" लपता तो अब है नही लकससे इजाज़त िेते, मााँ को अपने साथ िेकर मैं शहर में आ गया। सोसायटी में मेरा फ्िैट है सारी सुलवधाओंसे युक्त। मााँ को अपने साथ लस्वलमंग पुि िे कर गया तो वहां पहुंच कर मााँ उदास हो गई।मुझे तैरता देख मााँ रोने िगी। घर आकर मााँ से पूछा-"क्या बात है मााँ तुम उदास क्यों हो गई?" मााँ ने बहुत दुुःखी होकर बोिा-"लजस पानी के चार घड़ो ने पूरी लज़न्दगी का सुख िे लिया उस पानी का ये हाि..." हम दोनों की आाँखों में पानी और बीता कि घूम गया। मुझे िगा में भी छोटी मााँ जैसा हो गया हाँ दूसरों के ददच से अनजान! मैं भी मााँ के ददच को पूरी तरह नही समझ पाया।यदी समझा होता तो... पता-82, माधव नगर 201,संगम अपार्टमेंर् ग्वालियर-9 फोन~09826511033 22
  • 23. ISSN 2454-2725 लघुकथा लालजी ठाकु र हम स्वाथी के साथ साथ इतने लोभी हो गए है कक खुद के जान की परवाह ही नहीं करते तो अपने बच्चे और दुकनया की परवाह कै से करेंगे बस मस्ती करते है और मस्ती करते रह जाते है।एक बार हम अपने पररवार के साथ घूमने का मन बनाया।सोचा की साथ कमलकर कही दूर घूमने के कलए कनकला जाए।और एक दो कदन बाद कनकल भी गया घूमने के कलए।बहुत दूर सुन सान जंगल में एक रमणीय स्थल बनाया गया था जो प्रकृकत की असकलयत को यूूँ ही बयां करती थी।यहाूँ पहुंचना सब की बस की बात नहीं थी।हमने तो कहम्मत जुटाई कसर्फ इसकलए की हमने कई साल से कमाई रखी थी और आमदनी भी अच्छी थी।बहुत दूर दूर ही नही बककक कवदेशो से भी लोग आये थे। बड़े बड़े टैंकर से हजारो लीटर पानी लाया जाता था और बनाये हुए कस्वकमंग पूल आकद में डाला जाता था ताकक वहाूँ का लुत्फ़ उठाया जा सके ।और कर्र पानी यूूँ ही बबाफद हो जाता था।पर ये सारा इसकलए चल रहा था क्योंकक उसके प्रत्येक कदन कमाई बहुत अकधक थी।और बहुत दूर से पानी लाना हो या कर्र कही से वो उसका इंतजाम कर ही लेता था।आसपास की हररयाली देखते ही बनता था क्या बताऊूँ उसके सुंदरता के बारे में।उसका र्व्वारा इस तरह कदख रहा था जैसे समुन्दर से जुड़ा हुआ हो।पर इस सब का कजम्मेबार तो बस हम लोग ही थे।पानी की बबाफदी मुझे झकझोर कर रख दी इसकलए क्योंकक जब मैं घूमने जा रहा था तभी मैंने एक अखबार उसी शहर का पढ़ा था,कजसमे कलखा हुआ था"चार मासूम बच्चे और एक बुजुगफ की मौत" कजसका मुख्य कारण था पानी का न कमलना मतलब प्यास की वजह से उन सारे की कजंदगी गई थी।सच में ककतनी तरपी होगी उन सबो की आत्मा।हम अगर यही पानी उन सबो को कदए होते तो आज वो भी हमारे साथ होते और शायद हम सभी घूमने वाले और पानी को बबाफद करने वाले उनकी मौत का कजम्मेदार थे।मैं यूूँ ही एक जगह पानी में स्तब्ध बैठा सोच रहा था ।तभी मेरी छोटी बेटी जो कसर्फ पांच साल की थी अपने कपडे एक हाथ में कलए और दूसरे हाथ में अखबार का वो पेज कलए दौड़ती हुई मेरे नजदीक आ कर बोली ,पापा ये देकखये इन लोगो की मौत प्यास के कारण हुई है और हम यहाूँ पानी को बबाफद कर रहे है।मैं यहाूँ एक पल भी नहीं रहना चाहती हूँ।मेरी आूँखे भर आई और मैंने उसे गले से लगा कलया।कर्र बोला हाूँ बेटा इसका कजम्मेदार हम जैसे लोग ही है जो यहाूँ आकर मस्ती करते है।और कर्र हम अपने पररवार के साथ बाहर आ गए पत्नी के मना करने पर भी क्योंकक मेरी बेटी ने मुझे साथ ही नहीं बेटी होने का एहसास भी करा दी।। उसके बाद से पानी के हर बून्द को बचाना चाहता हूँ ।और गमी में प्यासे ट्रेन के यात्रीयों को अपने पररवार के साथ उसके प्यास को बुझाता हूँ। लालजी ठाकु र दरभंगा बिहार।। 09421055750,व्हाटसअप 9097081932 ।।। 23
  • 24. ISSN 2454-2725 व्यंग्य मोहनलाल मौयय,(एम.ए,बीएड़,बीजेएमसी,) मैं वहीं हैंडपम्प हूं। जजसके पनघट पर जमघट लग रहता था। पजनहारी 'मन की बात’ करती थी। मोहल्ले के कच्चे जचट़ठे यहीं खोलते थे। सुख-दुख की वाताालाप होती थी। तू-तू,मैं-मैं होती थी। पानी भरने पर। कतार पर। नम्बर पर। मैं अपना ठण्डा पेयजल जपलाकर,इनको शाूंत कर देता था। मेरे समीप मेरा जल गता भरा रहता था। जजसमें पशु-पक्षी अपनी प्यास बूझाते थे। मेरे प्रादुभााव पर ग्राममुजखया ने गुड बाूंटा था। पूरे मोहल्ले में मुनादी हुई थी। सरकारी हैंडपम्प का जल पेयजल है। लोग प्रफुजल्लत थे। मैंने कभी भी मोहल्लेवाजसयों को धोखा न जदया। सदैव उनकी सेवा में तत्पर रहा। यह भी मेरा पूरा खयाल रखते थे। समय-समय पर मेरी सजवास-वजवास करवाते रहते थे। मेरा और मोहल्लेवाजसयों का अटूट सूंबूंध था। जब से मेरी जलपूजता बूंद हुई है। तब से सूंबूंध टूट गया। अब तो मोहल्लेवासी मेरी ओर झाकते भी नहीं। इनसान जकत्ता खुदगजा है,जब मैं इनकी जलपूजता करता था,तो मेरा गुणगान करते थे। अब कोई मेरा हाल भी नहीं पहुूंचने आता। धरा में जल ही नहीं है,तो मैं कहाूं से खींचकर लाओूं?जल रसातल में चल गया है। वहाूं तक मेरी पहुूंच असूंभव है। मैं दलाल तो हूं नहीं,जो जुगाड करके पहुूंच जाओूं। ररश्वत देकर जल ले आऊूं । लेन-देन का काया तो इनसान करता है। वैसे भी भारतीय मानव जुगाड करने में अग्रणी हैं। इन्होंने तो जल बचाने का ही जुगाड नहीं जकया। जब तो चार-चार बाल्टी उडेलते थे। नहाने-धोने में। पशुओूंको लहलाने में। वाहन साफ करने में। अब बूूंद-बूूंद के जलए तरस रहे हैं। सरकार को कोस रहे हैं। जल सरकार की मुट्ठी में थोडी है,जो भींच कर बैठी है। देने से नकार कर रही है। सरकार अपील कर सकती है। जल बचाने की। जलमूंत्री को भेज सकती है। सूखाग्रस्त इलाकों में। जायजा लेने। सेल्फी लेने। एक पत्रकार बूंधु इधर से गुजर रहा था। उससे मेरी हालत देखी नहीं गई। इसजलए छाप जदया अखबार में। मैं अखबार में क्या छपा?स्थानीय नेताओूंमें होड मच गई। मुझे दुरूस्त करवाने की। श्रेय लेने की। वोट बटोरने की। इनके भी अखबार में छपने के बाद ही चक्षु खोले। जबजक मैं तो इनके नाक तले ही था। खैर,छोडो। नेताओूंको मुद्दा चाजहए,सो जमल गया। ग्रामसजचव से बीडीओूंतक। ग्राम पूंचायत से पूंचायत सजमजत तक। मुझे घसीट ले गए। मुद्दा बनाकर। इनको,जलसूंकट में। सूखे में। मेरा मुद्दा क्या जमल गया?अखबारों की कजटूंग काट-काट कर सोशल मीजडया पर चस्पा कर रहे हैं। सुजखायाूं बटोर रहे हैं। एक सरकारी हैंडपम्प की इज्जत उछाल रहे हैं। दरअसल असर यह हुआ जक जलदाय जवभाग का कमी आया। मुझे देख बुदबुदाया। जो पहले से दुरूस्त है। उसे क्या दुरूस्त करों? इत्ती दूर से आया हूं। कुछ करके ही जाऊूं गा। ओर वह मेरे मेरे कुछ नये अूंग लगाकर चला गया। उसे भी ज्ञात है। मुझे भी ज्ञात है। लोगों को भी ज्ञात है। जल जलस्तर तक नहीं रहा। यह जल बबााद करने का नतीजा है। अब तो मुझे मानसून ही दुरूस्त कर सकता है। वहीं मेेेरे पनघट पर जफर से जमघट लगा सकता है। (नोटः- यह रचना दैजनक हररभूजम में 29 अप्रैल 2016 के अूंक में एवूं दैजनक साूंध्य 6pm में 01 मई 2016 के अूंक मे प्रकाजशत हुई है) 24
  • 25. ISSN 2454-2725 अनीता देवी जल के बिना जीवन की कल्पना भी नही की जा सकती| जल प्रकृबत का बदया एक ऄनुपम ईपहार है जो न बसर्फ जीवन िबल्क पयाफवरण के बलए भी ऄमूल्य है| जैसे पानी के बिना जीवन संभव नहीं है वैसे सार् पानी के बिना स्वस्थ जीवन संभव नहीं| अज बवश्व भर में स्वच्छ पेयजल के संकट की बस्थबत िनी हुयी है|भारत जैसे बवकासशील देश आस समस्या से सवाफबधक प्रभाबवत हैं| ‚ बवश्व िैंक की एक ररपोटफ के ऄनुसार 21वीं सदी की सिसे िड़ी और बवकराल समस्या होगी पेयजल की| आसका बवस्तार सम्पूणफ बवश्व में होगा तथा बवश्व के सभी िड़े शहरों में पानी के बलए युद्ध जैसी बस्थबत हो जाएगी|‛¹ जल का ऄंधाधुंध व बववेकहीन प्रयोग वतफमान जल संकट का सिसे प्रमुख कारण है , जो अज बवश्व के सम्मुख एक गंभीर समस्या के रूप में खड़ा है| एक मूलभूत अवश्यकता होने के कारण मानवीय प्रजाबत सबहत जीव ,वनस्पबत व सम्पूणफ पाररबस्थबतक तंत्र के बलए जल जरूरी है| जल संकट ने मानव जाबत के समक्ष ऄबसतत्व का संकट पैदा कर बदया है| ईसके बलए जल की ईपलब्धता सुबनबित करना एक िड़ी चुनौती िन गयी है|संयुक्त राष्ट्र के अकलन के ऄनुसार पृथ्वी पर जल की कुल मात्रा लगभग 1700 बमबलयन घन बक.मी. है बजससे पृथ्वी पर जल की 3000 मीटर मोटी परत बिछ सकती है ,लेबकन आस िड़ी मात्रा में मीठे जल का ऄनुपात ऄत्यंत ऄल्प है| पृथ्वी पर ईपलब्ध कुल जल में मीठा जल 2.7% है|आसमें से लगभग 75.2% ध्रुवीय प्रदेशों में बहम के रूप में बवद्यमान है और 22.6% जल ,भूबमगत जल के रूप में है ,शेष जल झीलों ,नबदयों ,वायुमंडल में अर्द्फता व जलवाष्ट्प के रूप में तथा मृदा और वनस्पबत में ईपबस्थत है|घरेलू तथा औधोबगक ईपयोग के बलए प्रभावी जल की ईपलब्धता मुबश्कल से 0.8% है|ऄबधकांश जल आस्तेमाल के बलए ईपलब्ध न होने और आसकी ईपलब्धता में बवषमता होने के कारण जल संकट एक बवकराल समस्या के रूप में हमारे सम्मुख अ खड़ा हुअ है| ‚यद्दबप जल एक चक्रीय संसाधन है तथाबप यह एक बनशबचत सीमा तक ही ईपलब्ध होता है| मानव को ईपलब्ध होने वाले जल की मात्रा ईतनी है बजतनी बक पहले थी| परन्तु जनसंख्या में बनरंतर वृबद्ध तथा कु छ जलाशयों के ह्रास से प्रबत व्यबक्त जल में भारी कमी अ रही है|1947 में स्वतंत्रता के समय भारत में 6008 घन मीटर जल प्रबत व्यबक्त प्रबतवषफ ईपलब्ध था ,1951 में यह मात्रा घट कर 5177 घन मीटर प्रबत व्यबक्त रह गइ तथा 2001 में 1820 घन मीटर प्रबत व्यबक्त प्रबतवषफ रह गइ| दसवीं योजना के मध्यवती अकलन के ऄनुसार यह मात्रा 2025 में 1340 घन मीटर तथा 2050 में 1140 घन मीटर रह जाएगी|‛² देश का पानी सूख रहा है|धरती पर भी और धरती के नीचे भी| जलसंकट के कारण मराठवाड़ा और महाराष्ट्र के ऄन्य बहस्सों तथा अंध्र प्रदेश एवं तेलांगना के ग्रामीण क्षेत्रों से िड़ी संख्या में लोग नगरों की तरर् पलायन कर रहें है| ‚ मराठवाड़ा के परभणी कस्िे में पानी के बलए झगड़ा न हो आसबलए ऄप्रैल के पहले हफ्ते में धारा 144 लगा दी गइ| लातूर में रेन से पानी पहुंचाया जा रहा है|‛³ जल संसाधन पानी के वह स्रोत हैं जो मानव के बलए ईपयोगी हों या बजनके ईपयोग की संभावना हो। पानी के ईपयोगों में शाबमल हैं कृबष, औद्योबगक, घरेलू, मनोरंजन हेतु और पयाफवरणीय गबतबवबधयों में । वस्तुतः आन सभी मानवीय ईपयोगों में से ज्यादातर में ताजे जल की अवश्यकता होती है । अज जल संसाधन की कमी, आसके ऄवनयन और आससे संिंबधत तनाव और संघषफ बवश्वराजनीबत और राष्ट्रीय राजनीबत में महत्वपूणफ मुद्दे हैं। जल बववाद राष्ट्रीय और ऄंतराफष्ट्रीय दोनों स्तरों पर महत्वपूणफ बवषय िन चुके हैं। यबद हम भारत के संदभफ में िात करें तो भी हालात बचंताजनक 25
  • 26. ISSN 2454-2725 है बक हमारे देश में जल संकट की भयावह बस्थबत है और आसके िावजूद हम लोगों में जल के प्रबत चेतना जागृत नहीं हुइ है। ऄगर समय रहते देश में जल के प्रबत ऄपनत्व व चेतना की भावना पैदा नहीं हुइ तो अने वाली पीबियां जल के ऄभाव में नष्ट हो जाएगी। हम छोटी छोटी िातों पर गौर करें और बवचार करें तो हम जल संकट की आस बस्थबत से बनपट सकते हैं। बवकबसत देशों में जल ररसाव मतलि पानी की बछजत सात से पंर्द्ह प्रबतशत तक होती है जिबक भारत में जल ररसाव 20 से 25 प्रबतशत तक होता है। आसका सीधा मतलि यह है बक ऄगर मोबनटररंग ईबचत तरीके से हो और जनता की बशकायतों पर तुरंत कायफवाही हो साथ ही ईपलब्ध संसाधनों का समुबचत प्रकार से प्रिंधन व ईपयोग बकया जाए तो हम िड़ी मात्रा में होने वाले जल ररसाव को रोक सकते हैं। बवकबसत देशों में जल राजस्व का ररसाव दो से अठ प्रबतशत तक है, जिबक भारत में जल राजस्व का ररसाव दस से िीस प्रबतशत तक है यानी बक आस देश में पानी का बिल भरने की मनोवृबि अमजन में नहीं है और साथ ही सरकारी स्तर पर भी प्रबतिंधात्मक या कठोर कानून के ऄभाव के कारण या यूं कहें बक प्रशासबनक बशबथलता के कारण िहुत िड़ी राबश का ररसाव पानी के मामले में हो रहा है। ऄगर देश का नागररक ऄपने राष्ट्र के प्रबत भबक्त व कतफव्य की भावना रखते हुए समय पर बिल का भुगतान कर दे तो आस बस्थबत से बनपटा जा सकता है साथ ही संस्थागत स्तर पर प्रखर व प्रिल प्रयास हो तो भी आस बस्थबत पर बनयंत्रण प्राप्त बकया जा सकता है। प्रत्येक घर में चाहे गांव हो या शहर पानी के बलए टोंटी जरूर होती है और प्रायः यह देखा गया है बक आस टोंटी या नल या टेप के प्रबत लोगों में ऄनदेखा भाव होता है। यह टोंटी ऄबधकांशत: टपकती रहती है और बकसी भी व्यबक्त का ध्यान आस ओर नहीं जाता है। प्रबत सेकं ड नल से टपकती जल िूंद से एक बदन में 17 लीटर जल का ऄपव्यय होता है और आस तरह एक क्षेत्र बवशेष में 200 से 500 लीटर प्रबतबदन जल का ररसाव होता है और यह अंकड़ा देश के संदभफ में देखा जाए तो हजारों लीटर जल बसर्फ टपकते नल से ििाफद हो जाता है। ऄि ऄगर आस टपकते नल के प्रबत संवेदना ईत्पन्न हो जाए और जल के प्रबत ऄपनत्व का भाव अ जाए तो हम हजारों लीटर जल की ििाफदी को रोक सकते हैं। ऄि और कुछ सूक्ष्म दैबनक ईपयोग की िातें है बजन पर ध्यान देकर जल की ििाफदी को रोका जा सकता है।  र्व्वारे से या नल से सीधा स्नान करने के स्थान पर िाल्टी से स्नान करने से पानी की कर सकते हैं।  शौचालय में फ्लश टेंक का ईपयोग करने की जगह यही काम छोटी िाल्टी से बकया जाए तो पानी की िचत कर सकते हैं। ऄि राष्ट्र के प्रबत और मानव सभ्यता के प्रबत बजम्मेदारी के साथ सोचना अम अदमी को है बक वो कैसे जल िचत में ऄपनी महत्वपूणफ बजम्मेदारी बनभा सकता है। याद रखें पानी पैदा नहीं बकया जा सकता है यह प्राकृबतक संसाधन है बजसकी ईत्पबि मानव के हाथ में नहीं है। पानी की िूंद-िूंद िचाना समय की मांग है और हमारी वतफमान सभ्यता की जरूरत भी। आस समस्या से ईिरने के बलए मात्र सरकारी प्रयास ही पयाफप्त नहीं है क्योंबक जल का ईपयोग सभी लोगों द्वारा बकया जाता है और सभी का जीवन जल पर अबित है| देश के नागररकों ऄपनी क्षमता के ऄनुसार जल संरक्षण के प्रयासों में 26
  • 27. ISSN 2454-2725 ऄपना योगदान देना चाबहए तभी देश में नये लातूर को िनने से रोका जा सकता है| ‚वल्डफ वाच आंस्टीट्यूट के ऄनुसार पानी को पानी की तरह िहाना िंद करना होगा| यबद समाज पानी को एक दुलफभ वस्तु नहीं मानेगा , तो अने वाले समय में पानी हम सिके के बलए दुलफभ हो जायेगा|‛4 ग्लोिल वाबमिंग में वृबद्ध भी वतफमान जल संकट का एक महत्वपूणफ कारण है| वैबश्वक तापमान में होने वाली वृबद्ध से बवश्व के मौसम , जलवायु , कृबष व जल स्रोतों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है| ग्लोिल वाबमिंग के कारण तापमान में होने वाली वृबद्ध से ग्लेबशयर तीव्रता से बपघल रहें है| आससे भबवष्ट्य में जल संकट का खतरा ईत्पन्न हो सकता है| जल संकट से बनपटने के बलए :  तालािों और गड्डों का बनमाफण करना चाबहए बजससे वषाफ का जल एकबत्रत हो सके और प्रयोग में लाया जा सके | आससे जलस्तर में वृबद्ध होगी और भूबमगत जल िना रहेगा|  पेड़ों को काटने से रोकना और वृक्षारोपण को िढावा देना बजससे वैबश्वक तापन की समस्या कम हो| वैबश्वक तापन से बहम बपघलते हैं और बहम का जल नबदयों के माध्यम से समुर्द् में चला जाता है|  नदी बकनारे िसने वाले नगरों द्वारा नबदयों को प्रदूबषत बकया जाता है बजससे नबदयों का जल पीने लायक नही रहता और नबदयााँ सूखने की कगार पर अ खड़ी है ईदाहरण के बलए बदल्ली में यमुना नदी|  ईिर भारत की नबदयों में सदा जल िहता रहता है और दबक्षण भारत की नबदयााँ सदा वाहनी नहीं रहती ऐसे में नदी जोड़ो पररयोजना का सहारा बलया जा सकता है| ऄंत में कह सकते है बक सृबष्ट के हर जीव का ऄबसतत्व पानी पर ही बटका है| जल संकट जैसी बवकराल समस्या का सामना करने के बलए वयबक्तगत , सामुदाबयक , सामाबजक ,राष्ट्रीय व ऄंतराफष्ट्रीय स्तर पर साथफक पहल की जरूरत है| सन्दर्भ : 1. कुरुक्षेत्र पबत्रका , मइ 2015 2. खंड – ‘घ’ 14.35 , भूगोल , डी. अर. खुल्लर 3. पृष्ठ 26 , क्राबनकल , जून 2016 4. पृष्ठ 2 , क्राबनकल , जून 2016 5. दृबष्ट The Vision ,करेंट ऄर्े यसफ टुडे , नवम्िर 2015 शोधार्थी कमरा न.115/2 यमुना छात्रावास जवाहरलाल नेहरु ववश्वववद्यालय नई वदल्ली (110067) मोबाइल न. 9013927321 27
  • 28. ISSN 2454-2725 lquhrk 'kks/kkFkhZ ih,p-Mh- vEcsMdj fo'ofo|ky;] fnYyh nqfu;k esa tyok;q ifjorZu dk vlj yxkrkj ns[kus dks fey jgk gSA dgha lw[kk gS rks dgha ck<+] rkieku ds fjdkWMZ VwV jgs gSaA ekSle dk fetkt rsth ls cny jgk gSA ekSle foHkkx ds vuqlkj Hkkjr esa 114 cjl ckn chrs lky dk fnlEcj ekg lcls xeZ jgk rks bl lky dk 'kq:vkrh lIrkg fiNys ukS lky esa lcls xeZ jgk gSA fiNys lky Hkkjr esa dbZ bykdksa us detksj ekulwu dh ekj >syh rks nf{k.k esa Hkkjh ckfj'k dk lkeuk djuk iM+kA vkf[kj okrkoj.k esa c<+rs bl vlarqyu ds dkj.k D;k gS i;kZoj.k esa cnyko vkuk rks ,d LokHkkfod izfØ;k gSA ysfdu fnDdr vc blfy, gks jgh gS D;ksafd blesa cgqr rst xfr ls cnyko vkus yxk gSA fiNys 200&300 lkyksa esa vkS|ksfxd fodkl ds lkFk&lkFk geus tks dkcZu mRltZu fd;k] og [krjukd fLFkfr rd vk igq¡pk gSA vxj /kjrh dk rkieku c<+sxk rks lcls igys cQZ fi?kysxh blls tqM+k gS ^fgeky; dk ladV*A cQZ vkSj ikuh ds chp ds QdZ dks le>uk gksxkA igkM+ksa esa tc cQZ fxjrh gS rks og igys ls tek cQZ ds Åij terh gS blls igys ls tek cQZ dks jksdus esa enn feyrh gSA ;g ekSle dk ,d larqfyr pØ gSA ijUrq D;k gksxk tc lfnZ;ksa esa cQZckjh dh txg ckfj'k gksus yxsA ,d rks cQZ fxjus ds ekSle esa cQZckjh ugha gqbZ vkSj nwljk ckfj'k gks xbZ ftlls tek cQZ fupys bykdksa esa cgdj pyh xbZA 2013 esa dsnkjukFk dh rckgh bldk uewuk gSA dsnkjukFk esa rckgh ds le; vkSlr ls 200 xquk T;knk ckfj'k gqbZ FkhA i;kZoj.k esa lc ,d&nwljs ls tqM+s gq, gSa blfy, fdlh Hkh xM+cM+h dks vyx&vyx djds ns[kuk lgh ugha gksxkA bls vxj ,d txg ls Bhd djsaxs rks mldk ldkjkRed vlj nwljh txg fn[kus yxsxkA ;g Li"V gS fd fodkl ds uke ij va/kk/kqa/k [kuu] taxyksa dks lekIr dj yxk, x, ikoj IykaV vkSj vU; m|ksxksa esa ftl rjg i;kZoj.k dh vuns[kh dh xbZ gS og varr% lewps okrkoj.k dks nwf"kr dj jgk gSA gesa miHkksx dh y{e.k js[kk rks [khapuh gh iM+sxhA mlls nks leL;k,¡ gy gksxhA igyk izÑfr dh fouk'kyhyk ls cpk tk,xk nwljk lkekftd vlekurk dks nwj fd;k tk ldsxkA i;kZoj.k laj{k.k vkSj vkfFkZd izxfr ds chp rkyesy djds pyus esa gh ekuo lH;rk fouk'k ls cp ldrh gSA i;kZoj.k ds ladV ij fopkj&foe'kZ djus okys okdbZ fdrus xaHkhj gSa bl ij 'kadk tkfgj dh tk ldrh gS] ijUrq blesa dksbZ nks jk; ugha gS fd i;kZoj.kh; ladV orZeku esa lcls vf/kd yksdfiz; vkSj egRoiw.kZ fo"k; cu pqdk gSA fiNys dqN le; ls i;kZoj.k ij ljdkjh rFkk xSj&ljdkjh laLFkkuksa }kjk fpark tkfgj dh tk jgh gSA LFkkuh; Lrj ls ysdj jk"Vªh; ,oa varjk"Vªh; Lrj rd Xykscy okfe±x vkSj ikuh ds ladV dks ysdj xksf"B;ksa dk vk;kstu tkjh gSA ;gk¡ rd fd 28
  • 29. ISSN 2454-2725 lHkh tukankssyuksa dk eq[; eqn~nk i;kZoj.k gh gSA ns'k ds Hkhrj ueZnk vkanksyu] fpidks] fVgjh lc blh dk fgLlk gSA 21oha lnh esa foe'kZ dk lcls cM+k eqn~nk i;kZoj.k gSA ftl fo"k; us lekt dks bruk fpafrr dj j[kk gS mlls Hkyk lkfgR; dSls vNwrk jg ldrk gSA vxj iwNk tk, fd lkfgR; D;k gS rks bldk lcls lVhd tokc jkepaæ 'kqDy us dqN bl rjg fn;k ^lkfgR; 'ks"k l`f"V ds lkFk gekjs jkxkRed laca/k dh j{kk vkSj fuokZg djrk gSA* bl 'ks"k l`f"V esa vkrk gS lewy izk.kh txr vkSj leLr izÑfrA euq"; dh l`f"V ds izfr ,d ftEesnkjh gS vkSj bl ftEesnkjh dks fuHkkus esa dfork mldh enn djrh gSA 'kqDy th fy[krs gSa ^dfork euq"; ds ân; dks LokFkZ&laca/kksa ds ladqfpr eaMy ls Åij mBkdj yksd&lkekU; dh Hkko&Hkwfe ij ys tkrh gSA ;kuh ckdh lHkh ds cus jgus esa gh euq"; dk vfLrRo Hkh laHko gSA ;gk¡ ;g ns[kuk fnypLi gksxk fd lkfgR; ds laca/k esa dh xbZ ;g ifjdYiuk vk/kqfud fgUnh lkfgR; esa fdl :i esa ifjyf{kr gks jgh gSA lkfgR; esa ^izÑfr* ges'kk ls ekStwn jgh gS] ijUrq ;gk¡ egRoiw.kZ loky ;g gS fd i;kZoj.kh; ladV] fgUnh lkfgR; dk fo"k; dc cuk njvly tc ls lekt esa i;kZoj.kh; psruk mBh rHkh ls bl fo"k; ij fy[kk Hkh T;knk tkus yxkA vc ;g ekax iqjtksj mBus yxh gS fd lkfgR; dh vkykspuk i;kZoj.kksUeq[kh gksuh pkfg,A ifjfLFkfrdh ds :i esa vkykspuk ds u, mikxe lkfgR; dh dlkSVh cu jgs gSaA geus dHkh ikuh ds eksy dks ugha le>k vkSj ns[krs gh ns[krs ikuh vueksy gks x;kA gkykr ,sls vk x, gSa fd ns'k Hkj esa dbZ txg yksx cwan&cwan ikuh dks rjlus yxs gSaA ikuh dh egÙkk ij cgqr dqN dgk vkSj fy[kk x;k gSA ikuh dks thou] ve`r vkSj u tkus D;k&D;k miek,¡ nh x;hA iz'u ;g mBrk gS fd D;k ikuh dks geus ve`r vkSj thounk;h inkFkks± dh rjg lgst dj j[kuk lh[kk gS euq"; ds 'kjhj dk 70 Qhlnh fgLlk ikuh ls cuk gqvk gSA ek¡ ds nw/k esa Hkh 70 Qhlnh ty gksrk gSA ;gk¡ rd fd i`Foh ftu ik¡p rRoksa ls feydj cuh gS mlesa ls ,d rRo ty gh gSA leL;k dsoy ikuh cpkus dh ugha gS cfYd mldk bLrseky Hkh U;k;fiz; rjhds ls gksuk pkfg, og Hkh leku fgLlsnkjh ds lkFkA fgUnh lkfgR; esa vxj ikuh dh ckr djsa rks lcls igys jghe dk nksgk ;kn vkrk gSA ^^jfgeu ikuh jkf[k,A fcu ikuh lc lwuAA ikuh x, u ÅcjsA eksrh ekul pwu**AA ;g nksgk ikuh ds egRo dks Li"V dj jgk gSA ,slk ugha gS fd dgha ij dsoy ikuh gh lw[ksxk cfYd mlds izHkko ls lkjk thou gh lw[k tk,xkA ikuh ij fy[ks lkfgR; ds vykok ikuh ds fy, yM+s x, tukanksyuksa dk fo'ys"k.k Hkh t:jh gSA 1927 esa MkW- vEcsMdj us egkM+ lR;kxzg dj pkSnkj rkykc dk ikuh vNwrksa ds iz;ksx ds fy, [kqyok;k FkkA og ,slk nkSj Fkk tc ikuh bruk ewY;oku Fkk fd mldh igq¡p lekt ds ,d fof'k"V 29
  • 30. ISSN 2454-2725 rcds ds lkFk lhfer dj nh x;h FkhA ikuh ds lkFk ifo=rk cks/k tqM+k gqvk Fkk ftldk vk/kkj Fkh ^tkfr&O;oLFkk*A blh lanHkZ esa ge izsepan }kjk jfpr dgkuh ^Bkdqj dk dq¡vk* ns[k ldrs gSaA ;g dgkuh 1923 dh gS ftlesa xaxh vius chekj ifr tks[kw }kjk eSyk&xank ikuh ihus dk fojks/k djrh gS vkSj jkr esa fNidj Bkdqj ds dq,¡ ls ikuh Hkjus Hkh tkrh gSA ijUrq dgkuh dk var izsepan dqN bl rjg djrs gSas fd ^xaxh ds gkFk ls jLlh NwV x;hA jLlh ds lkFk ?kM+k /kM+ke ls ikuh esa fxjk vkSj dbZ {k.k rd ikuh esa gydksjs dh vkotsa lqukbZ nsrh jghaA Bkdqj dkSu gS] dkSu gS iqdkjrs gq, dq,¡ dh rjQ tk jgs Fks vkSj xaxh txr ls dqndj Hkkxh tk jgh FkhA ?kj igq¡pdj mlus ns[kk fd tks[kw yksVk eq¡g ls yxk, ogha eSyk xank ikuh ih jgk gSA fopkj.kh; iz'u ;g gS fd nfyr xaxh foæksg ds ckotwn ikuh tSls izkÑfrd lalk/ku dh tkfrxr ?ksjkcanh D;ksa rksM+ ugha ikrh izsepan tSls cM+s lkfgR;dkj Hkh xaxh dks lQy gksrs ugha fn[kk ikrsA 'kk;n ml le; egkM+ lR;kxzg tSlk dksbZ vkanksyu ugha FkkA MkW- vEcsMdj ikuh ij vNwrksa ds vf/kdkj ds fy, vkanksyu 1927 esa djrs gSaA vFkkZr~ ikuh ij fy[ks x, lkfgR; vkSj ikuh ds fy, yM+s x, ledkyhu tu tukanksyuksa esa xgjs varZlaca/k ns[kus dks feyrs gSaA orZeku le; dh ckr djsa rks ^Bkdqj dk dq¡vk* vkt Hkh ftank gSA cqansy[kaM lesr ns'k ds dbZ bykdksa esa vkt Hkh nfyrksa dks dq¡vksa ls ikuh Hkjus dh vuqefr ugha gSA cs'kd ;g mudk laoS/kkfud vf/kdkj gSA cqansy[k.M dh izfl) yksdksfDr gS& ^cqansyk rsjk ikuh xtc dj tk, xkxj u QwVs Hkys ifr ej tk,A* ;g cgqr gh 'keZukd gS fd 21oha lnh ds 16osa lky esa Hkh ikuh ij tkfrxr igjk gS ubZ lnh esa ikuh ds lkFk 'kq)hdj.k dk ewY; Hkh tqM+ x;k gSA vc eVdh dk ikuh ihus okys dks vlH;] vLoPN vksj xjhc le>k tkrk gSA ikuh ds 'kq)hdj.k dks ysdj mldk O;kolk;hdj.k rsth ls gks jgk gSA 1 yhVj lkekU; ikuh dh dher 15 #i;k vkSj 1 yhVj fgeky; ds ikuh dh cksry dh dher 200 #i;kA orZeku le; esa fodkl dk fijkfeM dqN bl rjg f'k¶V gks x;k gS fd tks fgeky; dk ikuh ihrk gS oks lcls T;knk fodflr gSA ikuh ds bl 'kq)hdj.k dk vk/kkj gS oxZ&HksnA dfo mek'kadj dh dfork gS& ^^cksrycan ikuh ihdj ml cksry dks Ø'k dj nsrs gks D;ksafd rqEgs ;kn gS] og funsZ'k Ø'k n cksry vk¶Vj ;wt! ij D;k rqEgsa irk gS] bl rjg Q¡lrs&Q¡lrs fopkj ds en esaA ml cksry dh rjg rqe Hkh fjDr gksrs tk jgs gks! vkSj ftl fnu rqe iwjh rjg fjDr gks tkvksxs 30
  • 31. ISSN 2454-2725 rqe Hkh dj fn, tkvksxs Ø'k!** dfo us bl dfork esa ty lalk/ku dh ywV] cktkjhdj.k dh miHkksx laLÑfr vkSj ;wt ,.M Fkzks ls iSnk gq, dpjs ls vVh i`Foh ds ladV dks dV?kjs esa [kM+k fd;k gSA izkÑfrd lalk/kuksa fo'ks"kdj ikuh ds vfoosdiw.kZ nksgu ls mRiUu izkÑfrd vkinkvksa vkSj lkekftd [krjksa dks le>uk vkSj mldk fo'ys"k.k djuk cgqr t:jh gks x;k gSA euq"; lnSo ls izÑfr dk lgpj jgk gSA b/kj fodkl dh va/kk/kqa/k nkSM+ ds en esa euq"; us izÑfr dks fu;af=r djus dh dksf'k'k dh izÑfr dk iyVokj 'kq: gqvk rks lewph i`Foh ij i;kZoj.k dk ladV mRiUu gks x;kA QkLVj us bl ckr dks js[kkafdr fd;k gS fd ^i`Foh dk ladV dsoy izÑfr dk ladV ugha gS cfYd ;g lekt dk ladV gS*A lkspus okyh ckr gS fd dbZ lkS o"kZ iwoZ dchj }kjk jfpr myVcklh dSls orZeku esa ikuh ds ladV ls tqM+ tkrh gSA ^vks ubZ vkbZ cnjhA cjlu yxk lalkjAA mBh dchj /kkg nsA nk{kr gS lalkj!!AA* ckny f?kj vk, rks yksxksa us lkspk ikuh cjlsxkA blls riu feVsxh] I;kl cq>sxh] i`Foh lty gksxh] thou dk ;g nkg feV tk,xk] fdUrq gqvk Bhd mYVkA ;g nwljs rjg ds ckny gSa] buls ikuh dh cw¡ns ugha vaxkjs cjl jgs gSaA lalkj ty jgk gSA dchj ,sls Ny ckny ls lalkj dks cpkus ds fy, cspSu gks mBrs gSaA ikuh esa vkx yxkuk ,d eqgkojk gSA ysfdu fodkl dh vk/kqfud vo/kkj.kk vkSj mlds fØ;kUo;u us bl eqgkojs dks pfjrkFkZ Hkh dj fn;k gS! fiNys fnuksa cSaxyq: dh lcls cM+h >hy] csYykMqaj esa vkx yx xbZA bl vkx dh otg ml >hy ij QSyk vlk/kkj.k iznw"k.k FkkA chrs nks n'kdksa ds nkSjku caxyw: 'kgj dh dbZ cM+h >hyksa dks igys nwf"kr fd;k x;k fQj mUgsa ikVk x;k vkSj mlds ckn mldk bLrseky 'kgjhdj.k ds fy, gks x;kA blh dk ifj.kke gS fd FkksM+h lh ckfj'k esa vc 'kgj esa ck<+ vk tkrh gSA gSnjkckn dh ckr djsa rks ;g 'kgj 15oha 'krkCnh esa clk;k x;k FkkA ml le; bls <sj lkjh >hyksa vkSj rkykcksa ls lEiUu cuk;k x;kA ijUrq fodkl dh pdkpkSa/k us bldks iznw"k.k ls vkV fn;k vkSj [kwclwjr thounkf;uh >hyksa o rkykc 'kgjhdj.k dh HksaV p<+ x,A orZSeku esa Hkkjr ds dbZ 'kgj ikuh ds ladV ls tw> jgs gSa cqansy[k.M vkSj ykrwj dk lw[ks ls cqjk gky gS fonHkZ esa fdlkuksa dh vkRegR;k dk lcls cM+k dkj.k lw[kk gSA vr% orZeku ;qx esa ikuh cgqr laosnu'khy eqn~nk cu pqdk gSA /kjrh ds rkieku esa gks jgh c<+ksrjh ds pyrs ekSle esa cnyko gks jgk gS vkSj blh dk ifj.kke gS fd ;k rks ckfj'k vfu;fer gks jgh gS ;k fQj csgn deA ;s lHkh ifjfLFkfr;k¡ ufn;ksa ds fy, vfLrRo dk ladV iSnk dj jgh gSaA ikuh vkSj taxy laHkor% nks ,sls lalk/ku gSa ftuesa Hkkjrh; i;kZoj.k vkanksyu dks gky ds o"kks± esa lcls T;knk la?k"kZ djuk iM+k gSA ^fpidks vkanksyu* izkÑfrd 31
  • 32. ISSN 2454-2725 lalk/kuksa ls lacaf/kr la?k"kks± ds O;kid flyflys dk izfrfuf/k Fkk tks fd 1970 ls 80 ds n'kd esa Hkkjr ds fofHkUu fgLlksa esa QwV iM+s FksA bu la?k"kks± esa taxy] eNyh vkSj i'kqvksa ds fy, pkjs ds lalk/kuksa rd igq¡p ds la?k"kZ vkS|ksfxd iznw"k.k vkSj [kuu ds ifj.kkeksa ls tqM+s la?k"kZ vkSj cM+s cka/kksa ds f[kykQ la?k"kZ 'kkfey FksA ;gk¡ /;ku nsus ;ksX; gS fd dSls i;kZoj.kh; vkanksyu oxZ&la?k"kZ dk elyk Hkh cu tkrs gSa jkepaæ xqgk us viuh fdrkc ^miHkksx dh y{e.k js[kk* esa bls le>kus dk iz;kl fd;k gSA os crkrs gSa fd bu vf/kdrj fooknksa esa vly esa vehjksa us xjhcksas dk neu fd;k ftldk izfrjks/k tukanksyuksa ds :i esa QwVkA  ydM+h dkVus okyh daifu;ksa us igkM+h xkaookyksa dk  cka/k fuekZrkvksa us taxy esa jgus okys vkfnfok;ksa dk  cM+s tky okys tgktksa okyh cgqjk"Vªh; daifu;ksa us NksVh ukoksa ds tfj, eNyh idM+us okys NksVs eNqvkjksa dk tSls fd e/; Hkkjr esa ueZnk ij ljnkj ljksoj cka/k ds fuekZ.k dk ekeyk gS ftldk edln xqtjkr dks fctyh vkSj ikuh eqgS;k djkuk gS tcfd e/; izns'k ds Åijh bykdksa esa fdlku vkSj vkfnoklh cs?kj gq, gSaA 1970 ds n'kd esa Hkkjrh; i;kZoj.koknh cgl ij ou laca/kh fookn gkoh FksA tcfd 1980&90 ds n'kdksa esa ueZnk cpkvks vkanksyu vkSj dsjy ds eNqvkjksa ds la?k"kZ us ikuh vkSj eNyh ds leqfpr mi;ksx ds loky dks dsUæfcUnq cuk;kA usg: tSls mifuos'kokn fojks/kh usrkvksa ds fy, lkezkT;okn dsoy vkSifuosf'kd rkdrksa dh vkfFkZd vkSj rduhdh Js"Brk }kjk gh laHko gqvk FkkA vukSifuos'khdj.k us igys ls vfodflr Hkkjr ds fy, if'pe dh rtZ ij gh fodkl dh lEHkkouk,¡ [kksyh FhkA ,d ih<+h xqtjh vkSj urhts lkeus vk,A nqfu;k dks ns[kus dk utfj;k cnyk vkSj i;kZoj.kh; ljksdkj ,d ckj fQj /khjs&/khjs lkoZtfud foe'kZ esa txg ikus yxsA lkfgR; esa ikuh dh leL;k ij ckr djus ds fy, lcls egRoiw.kZ gksxk unh&dFkkvksa ij ckr djukA ve`ryky csxM+ }kjk jfpr ^lkSan;Z dh unh ueZnk* vkSj jtuhdkar dh ^ueZnk dh ubZ dFkk* esa dkQh cM+k varj gSA csxM+ dh unh ds izfr lkSan;Zoknh n`f"V vf/kd izHkkoh jgh gSA tSlk fd 'kh"kZd ls gh Li"V gS mUgksaus ueZnk dk cgqr gh dykRed fp=.k fd;k gSA ys[kd cka/k ifj;kstukvksa dks Hkh mRlkg vkSj vk'kk dh n`f"V ls ns[krk gSA og bls cgqr gh mi;ksxh Hkh ekurs gSa ftlls ,d rjQ rks lw[ks ls ihfM+r yksxksa dks jkgr feysxh ogha nwljh rjQ ueZnk dk O;FkZ cgrk ty mi;ksx esa yk;k tk,xkA csxM+ dh /kkfeZd vkSj ikSjkf.kd vkLFkk Hkh ueZnk ds izfr fdrkc esa ns[kus dks feyrh gSA ogha jtuhdkar }kjk jfpr ^ueZnk dh ubZ dFkk* esa ys[kd cka/k dks unh] izÑfr vkSj foLFkkfirksa dh =klnh ds :i esa ns[krs gSaA cka/kksijkar tks Hk;kog n`'; mRiUu gqvk mldh dFkk Hkh blesa 'kkfey gS ftlus ve`ryky dh lkSan;Z dh unh ueZnk dks yqIr izk;% dj nsus dk chM+k mBk;k gSA 32
  • 33. ISSN 2454-2725 ;gk¡ loky [kM+k gksrk gS fd vk/kqfud lekt esa ,d unh dks fdl rjg gksuk pkfg,! D;k ;g unh ds o'k esa jg x;k gS ck¡/k dj Ñf=e Mwc iSnk dj lw[kk xzLr bykdksa esa gfj;kyh dk izca/k djuk] 'kgjksa esa txexkrs rduhdh fodkl ds fy, ÅtkZ mRiUu dj [ki tkuk] ;k fQj izkÑfrd :i ls fu'Ny cgrs jguk vkSj vpkud vk;h ck<+ ls yksxksa dks rckg djuk ;k lw[kk izHkkfor {ks=ksa ls fdukjk dj ysukA ;g iz'u bruk ljy ;k likV ugha gS blesa dbZ isphnk eqn~ns gSaA blfy, gesa unh dh fodkl ;k=k ds lkFk&lkFk fodflr gksrh lH;rk vkSj le; dh xfr dks Hkh ysdj pyuk gksxkA Hkkjrh; lekt esa unh ,d thou n'kZu dh rjg gS ftldk fo'ks"k egRo gSA foy{k.k iznw"k.k ukf'kuh 'kfDr okyh xaxk dkuiqj esa eSyk <ksus okyh ekyxkM+h cu pqdh gSA xaxk unh dk 'kks"k.k vkSj fouk'k /kkfeZd deZdkaM vkSj vkMEcjksa us fd;kA iznw"k.k dh ck<+ us mls e`r;q ds dxkj ij igq¡pk fn;kA xaxk dks LoPN djus ds fy, orZeku ljdkj }kjk Hkkjh&Hkjde ctV okyh ;kstuk ^uekfe xaxs* pyk;h tk jgh gSA uke esa gh fganw laLÑfr dh xksycanh utj vk jgh gSA budk /;s; i;kZoj.k laj{k.k ;k unh dks lkQ djus esa ugha gS cfYd jktuhfrd rkSj ij ,d unh dks xksn ysdj mldk fganwdj.k dj /kkfeZd mUeknrk QSykuk gSA ueZnk tSlh fo'kkydk; unh dk 'kks"k.k vkSj fouk'k vk/kqfud lH;rk vkSj rduhd us fd;kA lalk/kuksa dk nksgu dj cM+h&cM+h ifj;kstukvksa us unh gh ugha mlds vkl&ikl clh ijaijk dks Hkh jkSandj cckZn dj fn;kA ikuh cgqr egRoiw.kZ lalk/ku gSA orZeku le; esa ekStwn lcls cM+s oSf'od ladV ds ifj.kke vkSj dkj.k nksuksa esa ikuh egRoiw.kZ :i ls 'kkfey gSA gesa ;g ns[kuk gksxk fd gekjk lkfgR; vkSj lekt bldks fdl :i esa le>rk vkSj O;k[;kf;r djrk gSA unh o ikuh ij vk/kkfjr lkfgR; dk fo'ys"k.k djsa rks irk pyrk gS fd dbZ iqLrdsa furkar /kkfeZd o f?klh&fiVh ikSjkf.kd ifjikVh ij fy[kh xbZ gSaA tSlk fd MkW- yksfg;k us dgk Fkk fd ^Hkkjrh; lekt ,sfrgkfld ugh cfYd ikSjkf.kd ewY;ks ds vk/kkj ij pyrk gS*A Bhd ;gh ckr Hkkjr dh ufn;ksa vkSj ty ij Hkh ykxw gksrh gSA ,d vkSj rks vke tu dh le> dk ;g fiNM+kiu vkSj nwljh rjQ uo lkezkT;okn }kjk ty lalk/kuksa dh fnu&jkr dh ywV [klkSVA c<+rs ty iznw"k.k us ty ds vfLrRo dk ladV iSnk dj fn;k gSA ty ls tqM+k gS ^i`Foh ij thou*A ^Mwc* miU;kl esa ohjsUæ tSu us cM+s cks/kksa ds dkj.k vk;h rckgh ds lkFk&lkFk nks laLÑfr ds chp ds varjky dks Hkh js[kkafdr fd;k gSA miU;kl ;g iz'u [kM+k djrk gS fd ^;fn vlqfo/kk ls gh lqfo/kk vkus okyh gS rks ml vlqfo/kk vkSj lqfo/kk esa Hkkxhnkjh dk vuqikr cjkcj D;ksa ugha gS xk¡o mtM+s vkfnokfl;ksa ds foLFkkfir os gks] mudh tehu nyny cus] ftudk taxy lewpk u"V gks vkSj vki ikuh fctyh dgha vkSj ys tk, rks ;g dSlk U;k; gqvkA* ohjsUæ tSu bl miU;kl esa ,d NksVs ls izlax ds ek/;e ls fn[kkrs gSa fd dSls lÙkk i{k bl rckgh dk lw=/kkj cudj ywV dh eykbZ mM+k jgk gSA miU;kl dk va'k gS ^^bafnjk th ,d b±V j[k xbZ Fkh] fd Qsad xbZ Fkha] jke tkus] exj ml ,d b±V ls csrck esa tks mQku vk;k og tkus fdrus 33
  • 34. ISSN 2454-2725 xk¡o ds xk¡o yhy x;kA yMSbZ esa igyh ckj gk¡] igyh ckj ck<+ vkbZ Fkh ml cjlA** ikuh ds ladV ds lkFk foLFkkiu dh leL;k xgu :i esa tqM+h gqbZ gSA ;g le>uk t:jh gS fd dSls ^ueZnk fookn* vkfnoklh cuke xSj&vkfnoklh ds :i esa ns[kk x;k gSA vkfnokfl;ksa dk loky gS fd muds vkt ds vfLrRo dks xSj vkfnoklh vfHktkR; oxZ dh Hkkoh ih<+h ds fy, D;ksa dqckZu dj fn;k tk, es/kk ikVdj fy[krh gSa ^ijEijk vksj vk/kqfudrk ds chp dk foHkktu vc iqjkuk gks x;kA fodkl ds lanHkZ esa vc tks loky mBuk pkfg, og gS lkekftd&vkfFkZd U;k; dkA vr% fodkl i;kZoj.k lEer gksuk pkfg,A fgUnh lkfgR; esa ikuh dks ysdj dkSu dkSu lh n`f"V;k¡ vkSj leL;k,¡ ekStwn gSa blds xgu fo'ys"k.k dh vko';drk gSA tSls /kkfeZd n`f"V] lkSan;Zoknh n`f"V] tkfr dk iz'u oxZ&Hksn vkSj foLFkkiu dh leL;k vkfn orZeku le; esa ikuh dk ladV vius vki esa ,d cgqr xaHkhj leL;k cu dj mHkjk gS ;fn gekjk lekt vc Hkh lpsr ugha gqvk rks cgqr nsj gks tk,xhA lanHkZ xzaFk%& 1. izsepan dh loZJs"B dgkfu;k¡] jktdey izdk'ku] ubZ fnYyh 2. Mwc] ohjsUæ tSu] ok.kh izdk'ku] ubZ fnYyh 3. lkSan;Z dh unh ueZnk] ve`ryky csxM+] iSaxqbu izdk'ku 4. ueZnk dh ubZ dFk] jtuhdkar] Lojkt izdk'ku 5. miHkksx dh y{e.k js[kk] jkepaæ xqgk 6. ty] taxy] tehu lora= feJ] Lojkt izdk'ku 7. es/kk ikVddj ueZnk vkanksyu vkSj vkxs] v:.k dqekj f=ikBh 34