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काव्य गुण
(काव्यप्रकाश - अष्टम उल्लास)
डॉ. नीलम शममा
असिस्टेंट प्रोफे िर , िंस्कृ त सिभमग
कु ममरी ममयमिती रमजकीय मसिलम स्नमतकोत्तर मिमसिद्यमलय बमदलपुर,
गौतम बुद्ध नगर
उद्देश्य
● काव्यशास्त्र में काव्य गुणों की अवधारणा का अवबोध।
● काव्यशास्त्र में गुणों एवं अलंकारों की पररभाषा एवं भेद का
ज्ञान।
● काव्य में गुणों के महत्व का बोध।
● आचायय मम्मट की दृष्ष्ट में काव्य गुणों का समीक्षात्मक बोध।
● गुणरय के लक्षण एवं व्यंजकों का ववशशष्ट ज्ञान।
● काव्यशास्त्र में काव्य गुणों के प्रति आलोचनात्मक क्षमिा का
ववकास।
ये रसस्त्याङ्गगनो धमायाः शौयायदय इवात्मनाः।
उत्कषयहेिवस्त्िे स्त्युरचलष्स्त्िियो गुणााः।।
आत्मा के शौर्ाादि धमों के समान मुख्र् रस के जो अपररहार्ा
तथा उत्कर्ााधार्क धमा है, वे गुण कहलाते है।
गुण के संबंध में 3 पि मुख्र् हैं-
● अङ्गी रस के धमा
● अचल स्थथतत
● उत्कर्ा के हेतु
गुण रस के धमा है वे र्ोग्र् वणों से अभिव्र्क्त होते हैं ,
के वल वणों के आश्रित रहने वाले नह ं हैं- माधुयायदयो
रसधमायाः समुगचिैवयणेव्ययज्यन्िे न िु वणयमाराश्रयााः।
र्द्र्पप मुख्र् रूप से गुण रस के धमा है परंतु गौणी वृपि
से शब्ि और अथा में िी उनकी स्थथतत मानी जाती है-
गुणवृत्त्यापुनस्त्िेषां वृवताः शब्दािययोमयिा।।
उपकु वयष्न्ि िं सन्िं येऽङ्गद्वारेण जािुगचि ्।
हाराददवदलङ्कारास्त्िेऽनुप्रासोपमादयाः।।
जो काव्र् में पवद्र्मान उस अंगी रस को शब्ि तथा अथा रूप अंगों के
द्वारा किी-किी उपकृ त करते हैं । वे हार आदि िैदहक अलंकारों के
समान अनुप्रास और उपमा आदि शब्िालंकार तथा अथाालंकार है ।
काव्र् में अलंकार शर र के शोिा द्वारा परंपरर्ा शर र आत्मा के
उत्कर्ा जनक होते हैं।
● शब्ि तथा अथा रूप अंगों के उत्कर्ा द्वारा पवद्र्मान मुख्र् रस को
उपकृ त करते हैं।
● जहां रस नह ं होता वहां उस्क्त वैश्रचत्र्र् मात्र प्रतीत होते हैं।
● कह ं तो काव्र् में रस होने पर िी उसके उत्कर्ााधार्क नह ं होते हैं।
गुण और अलंकार में भेद
1. गुण रस तनष्ठ है ििा आत्मा के
धमय है।
2. गुण शौयय आदद के समान है।
3. गुण अंगी रस के ष्स्त्िर धमय है
4. गुण रस के तनत्य धमय है ।
5. गुणो का समवाय संबंध है।
6. गुण रस के साि रहकर रस के
साक्षाि उपकारक होिे हैं
7. गुण रस के बबना नह ं रहिे है।
1. अलंकार शब्द अियतनष्ठ हैं और शर र के धमय
हैं
2. अलंकार कटक कुं डल आदद के समान हैं।
3. अलंकार अष्स्त्िर धमय हैं।
4. अलंकार तनत्य धमय नह ं है कभी-कभी नीरस
काव्य में भी अलंकार देखे जािे हैं।
5. अलंकारों का संयोग संबंध हैं।
6. रस के साि अंगरूप में रहकर अंगों शब्द
और अिय के द्वारा कभी-कभी उपकृ ि करिे
हैं और कभी नह ं भी।
7. अलंकार रस के बबना भी रह सकिे हैं।
माधुयय
गुण
ओज प्रसाद
माधुयौजाःप्रसादाख्यास्त्रयस्त्िे न पुनदयश।
माधुयय गुण-
आह्लादकत्वं माधुयं श्रृंगारे द्रुतिकारणम ्।
श्रचि के द्रवीिाव का कारण और िृंगार रस में रहने वाला
आह्लािथवरूपत्व है, वह माधुर्ा नामक गुण कहलाता है।
िृंगार अथाात संिोग िंगार में ।
द्रुतत अथाात श्रचि का पवगभलतत्व सा होना।
करुणे ववप्रलम्भे िच्छान्िे चातिशयाष्न्विम ्।
र्ह माधुर्ा गुण सामान्र्तः संिोग िृंगार में रहता है , ककं तु करुण ,
पवप्रलम्ि िृंगार तथा शांत रस में वह उिरोिर अश्रधक चमत्कार
जनक होता है।
गुण के व्यञ्जक-
वणाय: समासो रचना िेषां व्यञ्जकिाशमिााः।
माधुयय गुण के व्यंजक-
मूष््नय वगायन्त्यगााः स्त्पशाय अटवगायाः रणौ लघू।
अवृवतमय्यवृवतवाय माधुये घटना ििा ।।
● अपने भशर पर स्थथत अपने-अपने वगा के अंततम वणा से र्ुक्त।
● ट वगा को छोड़कर शेर् थपशा वणा।
● ह्रथव से व्र्वदहत रेफ और णकार।
● समास रदहत अथवा मध्र्म समास र्ुक्त।
● अन्र् पिों के साथ र्ोग अथाात संश्रध से माधुर्ा र्ुक्त रचना।
उदाहरण
अनङ्गरङ्गप्रतिमं िदङ्गं भङ्गीशभरङ्गीकृ िमानिाङ्गयााः।
कु वयष्न्ि यूनां सहसा यिैिााः स्त्वान्िातन शान्िापरगचन्िनातन।।
● र्हां गकार तथा तकार अपने वगा के अंततम वणा से र्ुक्त हैं।
अनङ्ग, तिङ्ग, िङ्गीभिः, अङ्गीकृ तम आदिमें गकार तथा
थवान्त, शान्त, श्रचन्तन आदिपिोंमें तकार अपने-अपने वगों के
अंततम अक्षर से र्ुक्त है और रङ्ग आदि पिों में ह्रथव से व्र्वदहत
रेफ है। र्ह सब वणा माधुर्ा के व्र्ंजक है।
● अनङ्गरङ्गप्रततम र्ह मध्र्मवृपि अथाात थवल्प समास वाल
रचना की माधुर्ा के व्र्ंजक है।
● ‘प्रततमं तिङ्गं’ माधुर्ावती रचना है।
इस प्रकार र्े तीनों पवप्रलम्ििृंगार में माधुर्ा के व्र्ञ्जक हैं।
ओज गुण
द प्तत्यात्मववस्त्िृिेहेिुरोजो वीररसष्स्त्िति।
श्रचि के पवथतार की हेतुिूत वीर रस में रहने वाल ि स्तत ओज गुण
कहलाती है ।
गचतस्त्यववस्त्िाररूपद प्तित्वजनकमोजाः।
बीभत्सरौद्ररसयोस्त्िस्त्यागधक्यं क्रमेण च।
र्ह औज गुण सामान्र्तः वीर रस में रहता है, परंतु बीित्स और रौद्र
रसों में क्रमशः इसका आश्रधक्र् रहता है अथाात्उिरोिर चमत्कार
बनता जाता है।
ओज गुण के व्यञ्जक-
योग आद्यिृिीयाभ्यामन्त्ययो रेण िुल्ययोाः।
टाददाः शषौ वृवतदै्यं गुम्फ उद्धि ओजशस।।
● वगा के प्रथम तथा तृतीर् वणा के साथ उसके बाि के अथाात ्द्पवतीर् और
चतुथा वणो का र्ोग।
● ऊपर नीचे अथवा िोनों जगह ककसी िी रूप में रकार का ककसी िी वणा के
साथ र्ोग।
● तुल्र् वणों का र्ोग।
● टवगा अथाात ्णकार को छोड़कर ट,ठ,ड,ढ का प्रर्ोग।
● श और र् का प्रर्ोग।
● ि धा समास।
● उद्धत अथाात ्पवकट रचना।
उदाहरण-
मू्नायमुद्वृतकृ ताववरलगलद्रक्िसंसक्िधारा-
धौिेशाङ्तिप्रसादोपनिजयजगज्जािशमथ्यामदहम्नाम ्।
कै लासोल्लासनेच्छाव्यतिकरवपशुनोत्सवपयदपोद्धुराणां
दोष्णां चैषां ककमेित्फलशमह नगर रक्षणे यत्प्रयासाः।।
र्हााँ पर ‘मूध्नााम्’, उत्सपपा, तथा िपाादि में रेफ का ऊपर तथा
गलद्रक्त एवं अंति में रेफ का नीचे संर्ोग, उद्वृि, कृ ि आदि में
िो तुल्र् वणों का संर्ोग, इच्छा और िपोद्धुर आदि में च्, छ्
तथा द्, ध्का संर्ोग ; ि धा समास और पवकट रचना र्ह सिी
ओजगुण को अभिव्र्ंस्जत कर रहे हैं।
प्रसाद गुण-
शुष्के न्धनाष्ननवि्स्त्वच्छजलवत्सहसैव याः।
व्याप्तनोत्यन्यि्प्रसादोऽसौ सवयर ववदहिष्स्त्ितिाः।।
सूखे ईंधन में अस्ग्न के समान अथवा थवच्छ वथत्र में जल के
समान जो गुण सहसा श्रचि में व्र्ातत हो जाता है, वह सिी
रसों में रहने वाला प्रसाि गुण कहलाता है।
प्रसाि गुण सिी रसों एवं समथत रचनाओं में रहता है।
प्रसाद गुण के व्यंजक-
श्रुतिमारेण शब्दातु येनाियप्रत्ययो भवेि्।
साधारणाः समग्राणां स प्रसादो गुणो मिाः।।
स्जस वणा, समास र्ा रचना के द्वारा िवण मात्र से शब्ि से
अथा की प्रतीतत हो जाए वह सिी वणों, समासो तथा रचनाओं
में रहने वाला प्रसाि गुण माना जाता है।
उदाहरण- पररम्लानं पीनस्त्िनजघनसङ्गादुभयिाः
- िनोमय्यस्त्यान्िाः पररशमलनमप्राप्तय हररिम्।
इदं व्यस्त्िन्यासं श्लिभुजलिाक्षेपवलनैाः
कृ शाङ्गयााःसन्िापं वदति बबशसनीपरशयनम्।।
ऊं चे थतनों और तनतंबों के संपका से िोनों ओर मुरझाए हुए और शर र के मध्र्
िाग के भमलन को प्रातत ना होने के कारण बीच में हर और भशश्रथल िुजाओं
के पटकने तथा करवटें बिलने से स्जसकी बनावट बबगड़ गई है , इस प्रकार
की कमभलनी के पिों की र्ह शय्र्ा कृ शाङ्गी अथाात ्सागररका के पवरह जन्र्
संंंताप को बतला रह है।
र्हां पर माधुर्ा के व्र्ंजक वणा मध्र् समास तथा मधुर रचना सिी प्रसाि
गुण को अभिव्र्ंस्जत कर रहे हैं । पढ़ने र्ा िवण मात्र से अथा की प्रतीतत हो
रह है अतः र्हां प्रसाि गुण है।
अभ्यासािय प्रश्न
लघु उतर य
1. गुण ककसके धमा है ?
2. गुण और अलंकार में क्र्ा िेि है ?
3. आचार्ा मम्मट ने ककतने काव्र् गुण को थवीकार ककए हैं ?
4. माधुर्ा गुण का अततशर् ककस रस में होता है ?
5. माधुर्ा के गुण के व्र्ंजक वणा कौन कौन से हैं ?
6. ओज गुण का लक्षण क्र्ा है ?
7. ट वगा की प्रधानता ककस गुण में होती है ?
8. प्रसाि गुण की स्थथतत ककस रस में पाई जाती है?
द धय उतर य
1. आचार्ा मम्मट की दृस्टट में काव्र् गुणों की पववेचना कीस्जए ।
2. गुण एवं अलंकार को पररिापर्त करते हुए िोनों में िेि का तनरूपण कीस्जए।

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  • 1. काव्य गुण (काव्यप्रकाश - अष्टम उल्लास) डॉ. नीलम शममा असिस्टेंट प्रोफे िर , िंस्कृ त सिभमग कु ममरी ममयमिती रमजकीय मसिलम स्नमतकोत्तर मिमसिद्यमलय बमदलपुर, गौतम बुद्ध नगर
  • 2. उद्देश्य ● काव्यशास्त्र में काव्य गुणों की अवधारणा का अवबोध। ● काव्यशास्त्र में गुणों एवं अलंकारों की पररभाषा एवं भेद का ज्ञान। ● काव्य में गुणों के महत्व का बोध। ● आचायय मम्मट की दृष्ष्ट में काव्य गुणों का समीक्षात्मक बोध। ● गुणरय के लक्षण एवं व्यंजकों का ववशशष्ट ज्ञान। ● काव्यशास्त्र में काव्य गुणों के प्रति आलोचनात्मक क्षमिा का ववकास।
  • 3. ये रसस्त्याङ्गगनो धमायाः शौयायदय इवात्मनाः। उत्कषयहेिवस्त्िे स्त्युरचलष्स्त्िियो गुणााः।। आत्मा के शौर्ाादि धमों के समान मुख्र् रस के जो अपररहार्ा तथा उत्कर्ााधार्क धमा है, वे गुण कहलाते है। गुण के संबंध में 3 पि मुख्र् हैं- ● अङ्गी रस के धमा ● अचल स्थथतत ● उत्कर्ा के हेतु
  • 4.
  • 5. गुण रस के धमा है वे र्ोग्र् वणों से अभिव्र्क्त होते हैं , के वल वणों के आश्रित रहने वाले नह ं हैं- माधुयायदयो रसधमायाः समुगचिैवयणेव्ययज्यन्िे न िु वणयमाराश्रयााः। र्द्र्पप मुख्र् रूप से गुण रस के धमा है परंतु गौणी वृपि से शब्ि और अथा में िी उनकी स्थथतत मानी जाती है- गुणवृत्त्यापुनस्त्िेषां वृवताः शब्दािययोमयिा।।
  • 6. उपकु वयष्न्ि िं सन्िं येऽङ्गद्वारेण जािुगचि ्। हाराददवदलङ्कारास्त्िेऽनुप्रासोपमादयाः।। जो काव्र् में पवद्र्मान उस अंगी रस को शब्ि तथा अथा रूप अंगों के द्वारा किी-किी उपकृ त करते हैं । वे हार आदि िैदहक अलंकारों के समान अनुप्रास और उपमा आदि शब्िालंकार तथा अथाालंकार है । काव्र् में अलंकार शर र के शोिा द्वारा परंपरर्ा शर र आत्मा के उत्कर्ा जनक होते हैं। ● शब्ि तथा अथा रूप अंगों के उत्कर्ा द्वारा पवद्र्मान मुख्र् रस को उपकृ त करते हैं। ● जहां रस नह ं होता वहां उस्क्त वैश्रचत्र्र् मात्र प्रतीत होते हैं। ● कह ं तो काव्र् में रस होने पर िी उसके उत्कर्ााधार्क नह ं होते हैं।
  • 7. गुण और अलंकार में भेद 1. गुण रस तनष्ठ है ििा आत्मा के धमय है। 2. गुण शौयय आदद के समान है। 3. गुण अंगी रस के ष्स्त्िर धमय है 4. गुण रस के तनत्य धमय है । 5. गुणो का समवाय संबंध है। 6. गुण रस के साि रहकर रस के साक्षाि उपकारक होिे हैं 7. गुण रस के बबना नह ं रहिे है। 1. अलंकार शब्द अियतनष्ठ हैं और शर र के धमय हैं 2. अलंकार कटक कुं डल आदद के समान हैं। 3. अलंकार अष्स्त्िर धमय हैं। 4. अलंकार तनत्य धमय नह ं है कभी-कभी नीरस काव्य में भी अलंकार देखे जािे हैं। 5. अलंकारों का संयोग संबंध हैं। 6. रस के साि अंगरूप में रहकर अंगों शब्द और अिय के द्वारा कभी-कभी उपकृ ि करिे हैं और कभी नह ं भी। 7. अलंकार रस के बबना भी रह सकिे हैं।
  • 9. माधुयय गुण- आह्लादकत्वं माधुयं श्रृंगारे द्रुतिकारणम ्। श्रचि के द्रवीिाव का कारण और िृंगार रस में रहने वाला आह्लािथवरूपत्व है, वह माधुर्ा नामक गुण कहलाता है। िृंगार अथाात संिोग िंगार में । द्रुतत अथाात श्रचि का पवगभलतत्व सा होना। करुणे ववप्रलम्भे िच्छान्िे चातिशयाष्न्विम ्। र्ह माधुर्ा गुण सामान्र्तः संिोग िृंगार में रहता है , ककं तु करुण , पवप्रलम्ि िृंगार तथा शांत रस में वह उिरोिर अश्रधक चमत्कार जनक होता है।
  • 10. गुण के व्यञ्जक- वणाय: समासो रचना िेषां व्यञ्जकिाशमिााः। माधुयय गुण के व्यंजक- मूष््नय वगायन्त्यगााः स्त्पशाय अटवगायाः रणौ लघू। अवृवतमय्यवृवतवाय माधुये घटना ििा ।। ● अपने भशर पर स्थथत अपने-अपने वगा के अंततम वणा से र्ुक्त। ● ट वगा को छोड़कर शेर् थपशा वणा। ● ह्रथव से व्र्वदहत रेफ और णकार। ● समास रदहत अथवा मध्र्म समास र्ुक्त। ● अन्र् पिों के साथ र्ोग अथाात संश्रध से माधुर्ा र्ुक्त रचना।
  • 11. उदाहरण अनङ्गरङ्गप्रतिमं िदङ्गं भङ्गीशभरङ्गीकृ िमानिाङ्गयााः। कु वयष्न्ि यूनां सहसा यिैिााः स्त्वान्िातन शान्िापरगचन्िनातन।। ● र्हां गकार तथा तकार अपने वगा के अंततम वणा से र्ुक्त हैं। अनङ्ग, तिङ्ग, िङ्गीभिः, अङ्गीकृ तम आदिमें गकार तथा थवान्त, शान्त, श्रचन्तन आदिपिोंमें तकार अपने-अपने वगों के अंततम अक्षर से र्ुक्त है और रङ्ग आदि पिों में ह्रथव से व्र्वदहत रेफ है। र्ह सब वणा माधुर्ा के व्र्ंजक है। ● अनङ्गरङ्गप्रततम र्ह मध्र्मवृपि अथाात थवल्प समास वाल रचना की माधुर्ा के व्र्ंजक है। ● ‘प्रततमं तिङ्गं’ माधुर्ावती रचना है। इस प्रकार र्े तीनों पवप्रलम्ििृंगार में माधुर्ा के व्र्ञ्जक हैं।
  • 12. ओज गुण द प्तत्यात्मववस्त्िृिेहेिुरोजो वीररसष्स्त्िति। श्रचि के पवथतार की हेतुिूत वीर रस में रहने वाल ि स्तत ओज गुण कहलाती है । गचतस्त्यववस्त्िाररूपद प्तित्वजनकमोजाः। बीभत्सरौद्ररसयोस्त्िस्त्यागधक्यं क्रमेण च। र्ह औज गुण सामान्र्तः वीर रस में रहता है, परंतु बीित्स और रौद्र रसों में क्रमशः इसका आश्रधक्र् रहता है अथाात्उिरोिर चमत्कार बनता जाता है।
  • 13. ओज गुण के व्यञ्जक- योग आद्यिृिीयाभ्यामन्त्ययो रेण िुल्ययोाः। टाददाः शषौ वृवतदै्यं गुम्फ उद्धि ओजशस।। ● वगा के प्रथम तथा तृतीर् वणा के साथ उसके बाि के अथाात ्द्पवतीर् और चतुथा वणो का र्ोग। ● ऊपर नीचे अथवा िोनों जगह ककसी िी रूप में रकार का ककसी िी वणा के साथ र्ोग। ● तुल्र् वणों का र्ोग। ● टवगा अथाात ्णकार को छोड़कर ट,ठ,ड,ढ का प्रर्ोग। ● श और र् का प्रर्ोग। ● ि धा समास। ● उद्धत अथाात ्पवकट रचना।
  • 14. उदाहरण- मू्नायमुद्वृतकृ ताववरलगलद्रक्िसंसक्िधारा- धौिेशाङ्तिप्रसादोपनिजयजगज्जािशमथ्यामदहम्नाम ्। कै लासोल्लासनेच्छाव्यतिकरवपशुनोत्सवपयदपोद्धुराणां दोष्णां चैषां ककमेित्फलशमह नगर रक्षणे यत्प्रयासाः।। र्हााँ पर ‘मूध्नााम्’, उत्सपपा, तथा िपाादि में रेफ का ऊपर तथा गलद्रक्त एवं अंति में रेफ का नीचे संर्ोग, उद्वृि, कृ ि आदि में िो तुल्र् वणों का संर्ोग, इच्छा और िपोद्धुर आदि में च्, छ् तथा द्, ध्का संर्ोग ; ि धा समास और पवकट रचना र्ह सिी ओजगुण को अभिव्र्ंस्जत कर रहे हैं।
  • 15. प्रसाद गुण- शुष्के न्धनाष्ननवि्स्त्वच्छजलवत्सहसैव याः। व्याप्तनोत्यन्यि्प्रसादोऽसौ सवयर ववदहिष्स्त्ितिाः।। सूखे ईंधन में अस्ग्न के समान अथवा थवच्छ वथत्र में जल के समान जो गुण सहसा श्रचि में व्र्ातत हो जाता है, वह सिी रसों में रहने वाला प्रसाि गुण कहलाता है। प्रसाि गुण सिी रसों एवं समथत रचनाओं में रहता है।
  • 16. प्रसाद गुण के व्यंजक- श्रुतिमारेण शब्दातु येनाियप्रत्ययो भवेि्। साधारणाः समग्राणां स प्रसादो गुणो मिाः।। स्जस वणा, समास र्ा रचना के द्वारा िवण मात्र से शब्ि से अथा की प्रतीतत हो जाए वह सिी वणों, समासो तथा रचनाओं में रहने वाला प्रसाि गुण माना जाता है।
  • 17. उदाहरण- पररम्लानं पीनस्त्िनजघनसङ्गादुभयिाः - िनोमय्यस्त्यान्िाः पररशमलनमप्राप्तय हररिम्। इदं व्यस्त्िन्यासं श्लिभुजलिाक्षेपवलनैाः कृ शाङ्गयााःसन्िापं वदति बबशसनीपरशयनम्।। ऊं चे थतनों और तनतंबों के संपका से िोनों ओर मुरझाए हुए और शर र के मध्र् िाग के भमलन को प्रातत ना होने के कारण बीच में हर और भशश्रथल िुजाओं के पटकने तथा करवटें बिलने से स्जसकी बनावट बबगड़ गई है , इस प्रकार की कमभलनी के पिों की र्ह शय्र्ा कृ शाङ्गी अथाात ्सागररका के पवरह जन्र् संंंताप को बतला रह है। र्हां पर माधुर्ा के व्र्ंजक वणा मध्र् समास तथा मधुर रचना सिी प्रसाि गुण को अभिव्र्ंस्जत कर रहे हैं । पढ़ने र्ा िवण मात्र से अथा की प्रतीतत हो रह है अतः र्हां प्रसाि गुण है।
  • 18. अभ्यासािय प्रश्न लघु उतर य 1. गुण ककसके धमा है ? 2. गुण और अलंकार में क्र्ा िेि है ? 3. आचार्ा मम्मट ने ककतने काव्र् गुण को थवीकार ककए हैं ? 4. माधुर्ा गुण का अततशर् ककस रस में होता है ? 5. माधुर्ा के गुण के व्र्ंजक वणा कौन कौन से हैं ? 6. ओज गुण का लक्षण क्र्ा है ? 7. ट वगा की प्रधानता ककस गुण में होती है ? 8. प्रसाि गुण की स्थथतत ककस रस में पाई जाती है? द धय उतर य 1. आचार्ा मम्मट की दृस्टट में काव्र् गुणों की पववेचना कीस्जए । 2. गुण एवं अलंकार को पररिापर्त करते हुए िोनों में िेि का तनरूपण कीस्जए।