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NAME: ARUN KUMAR NAYAK
CLASS : X-A
ROLL NO:- 35
TOPIC: BHAGAVAD GITA SLOKAS
SUBJECT TEACHER: SURENDRA
DASH
 भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामम हहतकाम्यया ॥
भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त
वचन को सुन, जिसे मैं तुझे अततशय प्रेम रखने वाले के मलए हहत की इच्छा से
कहूूँगा|
 न मे ववदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमाहदहहष देवानां महर्ीणां च सवषशः ॥
भावार्थ : िो मुझको अिन्मा अर्ाषत वास्तव में िन्मरहहत, अनाहद (अनाहद उसको
कहते हैं िो आहद रहहत हो एवं सबका कारण हो) और लोकों का महान ईश्वर तत्त्व
से िानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान पुरुर् संपूणष पापों से मुक्त हो िाता है |
 बुद्धिज्ञाषनमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥
अहहंसा समता तुजष्िस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवजन्त भावा भूतानां मत्त एव पृर्जवविाः ॥
भावार्थ : तनश्चय करने की शजक्त, यर्ार्ष ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इंहियों का
वश में करना, मन का तनग्रह तर्ा सुख-दुःख, उत्पवत्त-प्रलय और भय-अभय तर्ा
अहहंसा, समता, संतोर् तप (स्विमष के आचरण से इंहियाहद को तपाकर शुद्ि करने
का नाम तप है), दान, कीततष और अपकीततष- ऐसे ये प्राणणयों के नाना प्रकार के भाव
मुझसे ही होते हैं |
 महर्षयः सप्त पूवे चत्वारो मनवस्तर्ा ।
मद्भावा मानसा िाता येर्ां लोक इमाः प्रिाः ॥
भावार्थ : सात महवर्षिन, चार उनसे भी पूवष में होने वाले सनकाहद तर्ा
स्वायम्भुव आहद चौदह मनु- ये मुझमें भाव वाले सब-के -सब मेरे संकल्प से
उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसार में यह संपूणष प्रिा है |
 एतां ववभूततं योगं च मम यो वेवत्त तत्त्वतः ।
सोऽववकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥
भावार्थ : िो पुरुर् मेरी इस परमैश्वयषरूप ववभूतत को और योगशजक्त को
तत्त्व से िानता है (िो कु छ दृश्यमात्र संसार है वह सब भगवान की माया है
और एक वासुदेव भगवान ही सवषत्र पररपूणष है, यह िानना ही तत्व से
िानना है), वह तनश्चल भजक्तयोग से युक्त हो िाता है- इसमें कु छ भी
संशय नहीं है |
 अहं सवषस्य प्रभवो मत्तः सवं प्रवतषते ।
इतत मत्वा भिन्ते मां बुिा भावसमजन्वताः ॥
भावार्थ : मैं वासुदेव ही संपूणष िगत की उत्पवत्त का कारण हूूँ और मुझसे ही
सब िगत चेष्िा करता है, इस प्रकार समझकर श्रद्िा और भजक्त से युक्त
बुद्धिमान भक्तिन मुझ परमेश्वर को ही तनरंतर भिते हैं |
 मजच्चत्ता मद्गतप्राणा बोियन्तः परस्परम ।
कर्यन्तश्च मां तनत्यं तुष्यजन्त च रमजन्त च ॥
भावार्थ : निरंतर मुझमें मि लगािे वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्थण करिे वाले
(मुझ वासुदेव के ललए ही जिन्होंिे अर्िा िीवि अर्थण कर ददया है उिका िाम
मद्गतप्राणााः है।) भक्तिि मेरी भजक्त की चचाथ के द्वारा आर्स में मेरे प्रभाव को
िािते हुए तर्ा गुण और प्रभाव सदहत मेरा कर्ि करते हुए ही निरंतर संतुष्ट होते
हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं |
 तेर्ां सततयुक्तानां भितां प्रीततपूवषकम ।
ददामम बद्धियोगं तं येन मामुपयाजन्त ते ॥
भावार्थ : उि निरंतर मेरे ध्याि आदद में लगे हुए और प्रेमर्ूवथक भििे वाले भक्तों
को मैं वह तत्त्वज्ञािरूर् योग देता हूूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त त होते हैं |
 तेर्ामेवानुकम्पार्षमहमज्ञानिं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्र्ो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
भावार्थ : हे अिुषन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के मलए उनके अंतःकरण में
जस्र्त हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानितनत अंिकार को प्रकाशमय
तत्त्वज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ि कर देता हूूँ |
 अनाधश्रतः कमषिलं कायं कमष करोतत यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न तनरजवननष चाफियः ॥
भावार्थ : श्री भगवान बोले- िो पुरुर् कमषिल का आश्रय न लेकर करने
योवय कमष करता है, वह संन्यासी तर्ा योगी है और के वल अजवन का त्याग
करने वाला संन्यासी नहीं है तर्ा के वल फियाओं का त्याग करने वाला योगी
नहीं है |
 यं सन्न्यासममतत प्राहुयोगं तं ववद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवतत कश्चन ॥
भावार्थ : हे अिुषन! जिसको संन्यास (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की हिप्पणी
में इसका खुलासा अर्ष मलखा है।) ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग (गीता
अध्याय 3 श्लोक 3 की हिप्पणी में इसका खुलासा अर्ष मलखा है।) िान
क्योंफक संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुर् योगी नहीं होता |
 आरुरुक्षोमुषनेयोगं कमष कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥
भावार्थ : योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुर् के मलए योग
की प्राजप्त में तनष्काम भाव से कमष करना ही हेतु कहा िाता है और योगारूढ़
हो िाने पर उस योगारूढ़ पुरुर् का िो सवषसंकल्पों का अभाव है, वही
कल्याण में हेतु कहा िाता है |
 यदा हह नेजन्ियार्ेर्ु न कमषस्वनुर्ज्िते ।
सवषसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥
भावार्थ : जिस काल में न तो इजन्ियों के भोगों में और न कमों में ही
आसक्त होता है, उस काल में सवषसंकल्पों का त्यागी पुरुर् योगारूढ़ कहा
िाता है |
 उद्िरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्िुरात्मैव ररपुरात्मनः ॥
भावार्थ : अपने द्वारा अपना संसार-समुि से उद्िार करे और अपने को
अिोगतत में न डाले क्योंफक यह मनुष्य आप ही तो अपना ममत्र है और
आप ही अपना शत्रु है |
 बन्िुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वतेतात्मैव शत्रुवत ॥
भावार्थ : जिस िीवात्मा द्वारा मन और इजन्ियों सहहत शरीर िीता हुआ
है, उस िीवात्मा का तो वह आप ही ममत्र है और जिसके द्वारा मन तर्ा
इजन्ियों सहहत शरीर नहीं िीता गया है, उसके मलए वह आप ही शत्रु के
सदृश शत्रुता में बतषता है |
 जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहहतः ।
शीतोष्णसुखदुःखेर्ु तर्ा मानापमानयोः ॥
भावार्थ : सरदी-गरमी और सुख-दुःखाहद में तर्ा मान और अपमान में जिसके
अन्तःकरण की वृवत्तयाूँ भलीभाूँतत शांत हैं, ऐसे स्वािीन आत्मावाले पुरुर् के ज्ञान में
सजच्चदानन्दघन परमात्मा सम्यक प्रकार से जस्र्त है अर्ाषत उसके ज्ञान में
परमात्मा के मसवा अन्य कु छ है ही नहीं |
 ज्ञानववज्ञानतृप्तात्मा कू िस्र्ो ववजितेजन्ियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्िाश्मकांचनः ॥
भावार्थ : जिसका अन्तःकरण ज्ञान-ववज्ञान से तृप्त है, जिसकी जस्र्तत ववकाररहहत
है, जिसकी इजन्ियाूँ भलीभाूँतत िीती हुई हैं और जिसके मलए ममट्िी, पत्र्र और
सुवणष समान हैं, वह योगी युक्त अर्ाषत भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा िाता है |
 सुहृजन्मत्रायुषदासीनमध्यस्र्द्वेष्यबन्िुर्ु ।
सािुष्ववप च पापेर्ु समबुद्धिववषमशष्यते ॥
भावार्थ : सुहृद् (स्वार्ष रहहत सबका हहत करने वाला), ममत्र, वैरी, उदासीन
(पक्षपातरहहत), मध्यस्र् (दोनों ओर की भलाई चाहने वाला), द्वेष्य और बन्िुगणों
में, िमाषत्माओं में और पावपयों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है |
 योगी युञ्िीत सततमात्मानं रहमस जस्र्तः ।
एकाकी यतधचत्तात्मा तनराशीरपररग्रहः ॥
भावार्थ : मन और इजन्ियों सहहत शरीर को वश में रखने वाला, आशारहहत और
संग्रहरहहत योगी अके ला ही एकांत स्र्ान में जस्र्त होकर आत्मा को तनरंतर
परमात्मा में लगाए |
 शुचौ देशे प्रततष्ठाप्य जस्र्रमासनमात्मनः ।
नात्युजच्ितं नाततनीचं चैलाजिनकु शोत्तरम ॥
भावार्थ : शुद्ि भूमम में, जिसके ऊपर िमशः कु शा, मृगछाला और वस्त्र बबछे हैं,
िो न बहुत ऊूँ चा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को जस्र्र स्र्ापन
करके |
 तत्रैकाग्रं मनः कृ त्वा यतधचत्तेजन्ियफियः ।
उपववश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मववशुद्िये ॥
भावार्थ : उस आसन पर बैठकर धचत्त और इजन्ियों की फियाओं को वश में रखते
हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के मलए योग का अभ्यास करे |
 समं कायमशरोग्रीवं िारयन्नचलं जस्र्रः ।
सम्प्रेक्ष्य नामसकाग्रं स्वं हदशश्चानवलोकयन ॥
भावार्थ : काया, मसर और गले को समान एवं अचल िारण करके और जस्र्र होकर,
अपनी नामसका के अग्रभाग पर दृजष्ि िमाकर, अन्य हदशाओं को न देखता हुआ |
 प्रशान्तात्मा ववगतभीर्ब्षह्मचाररव्रते जस्र्तः ।
मनः संयम्य मजच्चत्तो युक्त आसीत मत्परः ॥
भावार्थ : र्ब्ह्मचारी के व्रत में जस्र्त, भयरहहत तर्ा भलीभाूँतत शांत अन्तःकरण
वाला साविान योगी मन को रोककर मुझमें धचत्तवाला और मेरे परायण होकर जस्र्त
होए |
 युञ्िन्नेवं सदात्मानं योगी तनयतमानसः ।
शाजन्तं तनवाषणपरमां मत्संस्र्ामधिगच्छतत ॥
भावार्थ : वश में फकए हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को तनरंतर मुझ
परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप
शाजन्त को प्राप्त होता है |
• नात्यश्नतस्तु योगोऽजस्त न चैकान्तमनश्नतः ।
न चातत स्वप्नशीलस्य िाग्रतो नैव चािुषन ॥
भावार्थ : हे अिुषन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बबलकु ल न खाने वाले
का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा िागने वाले का ही
मसद्ि होता है |
• युक्ताहारववहारस्य युक्तचेष्िस्य कमषसु ।
युक्तस्वप्नावबोिस्य योगो भवतत दुःखहा ॥
भावार्थ : दुःखों का नाश करने वाला योग तो यर्ायोवय आहार-ववहार करने वाले का,
कमों में यर्ायोवय चेष्िा करने वाले का और यर्ायोवय सोने तर्ा िागने वाले का
ही मसद्ि होता है |
• यदा ववतनयतं धचत्तमात्मन्येवावततष्ठते ।
तनःस्पृहः सवषकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥
भावार्थ : अत्यन्त वश में फकया हुआ धचत्त जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाूँतत
जस्र्त हो िाता है, उस काल में सम्पूणष भोगों से स्पृहारहहत पुरुर् योगयुक्त है, ऐसा
कहा िाता है |
• यर्ा दीपो तनवातस्र्ो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योधगनो यतधचत्तस्य युञ्ितो योगमात्मनः ॥
भावार्थ : जिस प्रकार वायुरहहत स्र्ान में जस्र्त दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी
ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के िीते हुए धचत्त की कही गई है |
• यत्रोपरमते धचत्तं तनरुद्िं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मतन तुष्यतत ॥
भावार्थ : योग के अभ्यास से तनरुद्ि धचत्त जिस अवस्र्ा में उपराम हो िाता है
और जिस अवस्र्ा में परमात्मा के ध्यान से शुद्ि हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा
को साक्षात करता हुआ सजच्चदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ि रहता है |
• सुखमात्यजन्तकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीजन्ियम ।
वेवत्त यत्र न चैवायं जस्र्तश्चलतत तत्त्वतः ॥
भावार्थ : इजन्ियों से अतीत, के वल शुद्ि हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योवय
िो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्र्ा में अनुभव करता है, और जिस अवस्र्ा
में जस्र्त यह योगी परमात्मा के स्वरूप से ववचमलत होता ही नहीं |
 यं लब्धध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यजस्मजन्स्र्तो न दुःखेन गुरुणावप ववचाल्यते ॥
भावार्थ : परमात्मा की प्राजप्त रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक
दूसरा कु छ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राजप्त रूप जिस अवस्र्ा में
जस्र्त योगी बडे भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता |
 तं ववद्याद् दुःखसंयोगववयोगं योगसजञ्ज्ञतम।
स तनश्चयेन योक्तव्यो योगोऽतनववषण्णचेतसा ॥
भावार्थ : िो दुःखरूप संसार के संयोग से रहहत है तर्ा जिसका नाम योग
है, उसको िानना चाहहए। वह योग न उकताए हुए अर्ाषत िैयष और
उत्साहयुक्त धचत्त से तनश्चयपूवषक करना कतषव्य है |
 सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सवाषनशेर्तः ।
मनसैवेजन्ियग्रामं ववतनयम्य समन्ततः ॥
भावार्थ : संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूणष कामनाओं को तनःशेर् रूप से
त्यागकर और मन द्वारा इजन्ियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाूँतत
रोककर |
 शनैः शनैरुपरमेद्बुद्िया िृततगृहीतया।
आत्मसंस्र्ं मनः कृ त्वा न फकं धचदवप धचन्तयेत ॥
भावार्थ : िम-िम से अभ्यास करता हुआ उपरतत को प्राप्त हो तर्ा
िैयषयुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में जस्र्त करके परमात्मा के
मसवा और कु छ भी धचन्तन न करे |
 यतो यतो तनश्चरतत मनश्चञ्चलमजस्र्रम ।
ततस्ततो तनयम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत ॥
भावार्थ : यह जस्र्र न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्धदाहद
ववर्य के तनममत्त से संसार में ववचरता है, उस-उस ववर्य से रोककर
यानी हिाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही तनरुद्ि करे |
 प्रशान्तमनसं ह्येनं योधगनं सुखमुत्तमम ।
उपैतत शांतरिसं र्ब्ह्मभूतमकल्मर्म ॥
भावार्थ : क्योंफक जिसका मन भली प्रकार शांत है, िो पाप से रहहत है
और जिसका रिोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सजच्चदानन्दघन र्ब्ह्म
के सार् एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है |
 युञ्िन्नेवं सदात्मानं योगी ववगतकल्मर्ः ।
सुखेन र्ब्ह्मसंस्पशषमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥
भावार्थ : वह पापरहहत योगी इस प्रकार तनरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता
हुआ सुखपूवषक परर्ब्ह्म परमात्मा की प्राजप्त रूप अनन्त आनंद का अनुभव
करता है |
 सवषभूतस्र्मात्मानं सवषभूतातन चात्मतन ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सवषत्र समदशषनः ॥
भावार्थ : सवषव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से जस्र्तत रूप योग से युक्त
आत्मा वाला तर्ा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूणष
भूतों में जस्र्त और सम्पूणष भूतों को आत्मा में कजल्पत देखता है |
 यो मां पश्यतत सवषत्र सवं च मतय पश्यतत ।
तस्याहं न प्रणश्यामम स च मे न प्रणश्यतत ॥
भावार्थ : िो पुरुर् सम्पूणष भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही
व्यापक देखता है और सम्पूणष भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तगषत (गीता
अध्याय 9 श्लोक 6 में देखना चाहहए।) देखता है, उसके मलए मैं अदृश्य नहीं
होता और वह मेरे मलए अदृश्य नहीं होता |
• सवषभूतजस्र्तं यो मां भित्येकत्वमाजस्र्तः ।
सवषर्ा वतषमानोऽवप स योगी मतय वतषते ॥
भावार्थ : िो पुरुर् एकीभाव में जस्र्त होकर सम्पूणष भूतों में आत्मरूप
से जस्र्त मुझ सजच्चदानन्दघन वासुदेव को भिता है, वह योगी सब
प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है |
• आत्मौपम्येन सवषत्र समं पश्यतत योऽिुषन ।
सुखं वा यहद वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
भावार्थ : हे अिुषन! िो योगी अपनी भाूँतत (िैसे मनुष्य अपने मस्तक,
हार्, पैर और गुदाहद के सार् र्ब्ाह्मण, क्षबत्रय, शूि और म्लेच्छाहदकों
का-सा बताषव करता हुआ भी उनमें आत्मभाव अर्ाषत अपनापन समान
होने से सुख और दुःख को समान ही देखता है, वैसे ही सब भूतों में
देखना 'अपनी भाूँतत' सम देखना है।) सम्पूणष भूतों में सम देखता है
और सुख अर्वा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम
श्रेष्ठ माना गया है |
• काम एर् िोि एर् रिोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा ववद्ियेनममह वैररणम ॥
भावार्थ : श्री भगवान बोले- रिोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही िोि
है। यह बहुत खाने वाला अर्ाषत भोगों से कभी न अघानेवाला और
बडा पापी है। इसको ही तू इस ववर्य में वैरी िान |
• िूमेनावव्रयते वजह्नयषर्ादशो मलेन च।
यर्ोल्बेनावृतो गभषस्तर्ा तेनेदमावृतम ॥
भावार्थ : जिस प्रकार िुएूँ से अजवन और मैल से दपषण ढूँका िाता है
तर्ा जिस प्रकार िेर से गभष ढूँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा
यह ज्ञान ढूँका रहता है |
• आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञातननो तनत्यवैररणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥
भावार्थ : और हे अिुषन! इस अजवन के समान कभी न पूणष होने वाले
काम रूप ज्ञातनयों के तनत्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढूँका हुआ है |
 तताः र्दं तत्र्ररमार्गथतव्यं यजममन्गता ि निवतथजन्त भूयाः ।
तमेव चाद्यं र्ुरुषं प्रर्द्ये यताः प्रवृत्ताः प्रसृता र्ुराणी ॥
भावार्थ : उसके पश्चात उस परम-पदरूप परमेश्वर को भलीभाूँतत खोिना चाहहए,
जिसमें गए हुए पुरुर् फिर लौिकर संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर से इस
पुरातन संसार वृक्ष की प्रवृवत्त ववस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आहदपुरुर् नारायण के
मैं शरण हूूँ- इस प्रकार दृढ़ तनश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और तनहदध्यासन
करना चाहहए |
 निमाथिमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या त्वनिवृतकामााः ।
द्वन्द्वैत्वथमुक्तााः सुखदुाःखसञ्ज्ज्ञैगथच्छन्त्यमूढााः र्दमव्ययं तत ॥
भावार्थ : जिनका मान और मोह नष्ि हो गया है, जिन्होंने आसजक्त रूप दोर् को
िीत मलया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में तनत्य जस्र्तत है और जिनकी
कामनाएूँ पूणष रूप से नष्ि हो गई हैं- वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से ववमुक्त
ज्ञानीिन उस अववनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं |
 ि तद्भासयते सूयो ि शशाङ्को ि र्ावकाः ।
यद्गत्वा ि निवतथन्ते तद्धाम र्रमं मम ॥
भावार्थ : जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौिकर संसार में नहीं आते
उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूयष प्रकामशत कर सकता है, न चन्िमा
और न अजवन ही, वही मेरा परम िाम ('परम िाम' का अर्ष गीता अध्याय
8 श्लोक 21 में देखना चाहहए।) है |
 शरीरं यदवाप्नोतत यच्चाप्युत्िामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतातन संयातत वायुगषन्िातनवाशयात ॥
भावार्थ : वायु गन्ि के स्र्ान से गन्ि को िैसे ग्रहण करके ले िाता है,
वैसे ही देहाहदका स्वामी िीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे
इन मन सहहत इजन्ियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है-
उसमें िाता है |
 श्रोत्रं चक्षुः स्पशषनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं ववर्यानुपसेवते ॥
भावार्थ : यह िीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तर्ा रसना, घ्राण और मन
को आश्रय करके -अर्ाषत इन सबके सहारे से ही ववर्यों का सेवन करता है |
 उत्िामन्तं जस्र्तं वावप भुञ्िानं वा गुणाजन्वतम ।
ववमूढा नानुपश्यजन्त पश्यजन्त ज्ञानचक्षुर्ः ॥
भावार्थ : शरीर को छोडकर िाते हुए को अर्वा शरीर में जस्र्त हुए को
अर्वा ववर्यों को भोगते हुए को इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी
अज्ञानीिन नहीं िानते, के वल ज्ञानरूप नेत्रों वाले वववेकशील ज्ञानी ही तत्त्व
से िानते हैं |
 यतन्तो योधगनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवजस्र्तम ।
यतन्तोऽप्यकृ तात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥
भावार्थ : यत्न करने वाले योगीिन भी अपने हृदय में जस्र्त इस आत्मा
को तत्त्व से िानते हैं, फकन्तु जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ि नहीं
फकया है, ऐसे अज्ञानीिन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं
िानते |
 यदाहदत्यगतं तेिो िगद्भासयतेऽणखलम ।
यच्चन्िममस यच्चावनौ तत्तेिो ववद्धि मामकम ॥
भावार्थ : सूयष में जस्र्त िो तेि सम्पूणष िगत को प्रकामशत करता है तर्ा
िो तेि चन्िमा में है और िो अजवन में है- उसको तू मेरा ही तेि िान |
 गामाववश्य च भूतातन िारयाम्यहमोिसा ।
पुष्णामम चौर्िीः सवाषः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥
भावार्थ : और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शजक्त से सब भूतों को
िारण करता हूूँ और रसस्वरूप अर्ाषत अमृतमय चन्िमा होकर सम्पूणष
ओर्धियों को अर्ाषत वनस्पततयों को पुष्ि करता हूूँ |
 उत्तमः पुरुर्स्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाववश्य बबभत्यषव्यय ईश्वरः ॥
भावार्थ : इन दोनों से उत्तम पुरुर् तो अन्य ही है, िो तीनों
लोकों में प्रवेश करके सबका िारण-पोर्ण करता है एवं अववनाशी
परमेश्वर और परमात्मा- इस प्रकार कहा गया है |
 यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादवप चोत्तमः ।
अतोऽजस्म लोके वेदे च प्रधर्तः पुरुर्ोत्तमः ॥
भावार्थ : क्योंफक मैं नाशवान िडवगष- क्षेत्र से तो सवषर्ा अतीत
हूूँ और अववनाशी िीवात्मा से भी उत्तम हूूँ, इसमलए लोक में और
वेद में भी पुरुर्ोत्तम नाम से प्रमसद्ि हूूँ |
 यो मामेवमसम्मूढो िानातत पुरुर्ोत्तमम ।
स सवषववद्भितत मां सवषभावेन भारत ॥
भावार्थ : भारत! िो ज्ञानी पुरुर् मुझको इस प्रकार तत्त्व से
पुरुर्ोत्तम िानता है, वह सवषज्ञ पुरुर् सब प्रकार से तनरन्तर मुझ
वासुदेव परमेश्वर को ही भिता है |
 इतत गुह्यतमं शास्त्रममदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृ तकृ त्यश्च भारत ॥
भावार्थ : हे तनष्पाप अिुषन! इस प्रकार यह अतत रहस्ययुक्त गोपनीय
शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से िानकर मनुष्य ज्ञानवान
और कृ तार्ष हो िाता है |
 मय्यासक्तमनाः पार्ष योगं युञ्िन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यर्ा ज्ञास्यमस तच्छृ णु ॥
भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे पार्ष! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त
धचत तर्ा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू
जिस प्रकार से सम्पूणष ववभूतत, बल, ऐश्वयाषहद गुणों से युक्त, सबके
आत्मरूप मुझको संशयरहहत िानेगा, उसको सुन |
 ज्ञानं तेऽहं सववज्ञानममदं वक्ष्याम्यशेर्तः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवमशष्यते ॥
भावार्थ : मैं तेरे मलए इस ववज्ञान सहहत तत्व ज्ञान को सम्पूणषतया
कहूूँगा, जिसको िानकर संसार में फिर और कु छ भी िानने योवय शेर्
नहीं रह िाता |
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  • 2.  भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः । यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामम हहतकाम्यया ॥ भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को सुन, जिसे मैं तुझे अततशय प्रेम रखने वाले के मलए हहत की इच्छा से कहूूँगा|  न मे ववदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः । अहमाहदहहष देवानां महर्ीणां च सवषशः ॥ भावार्थ : िो मुझको अिन्मा अर्ाषत वास्तव में िन्मरहहत, अनाहद (अनाहद उसको कहते हैं िो आहद रहहत हो एवं सबका कारण हो) और लोकों का महान ईश्वर तत्त्व से िानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान पुरुर् संपूणष पापों से मुक्त हो िाता है |  बुद्धिज्ञाषनमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः । सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥ अहहंसा समता तुजष्िस्तपो दानं यशोऽयशः । भवजन्त भावा भूतानां मत्त एव पृर्जवविाः ॥ भावार्थ : तनश्चय करने की शजक्त, यर्ार्ष ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इंहियों का वश में करना, मन का तनग्रह तर्ा सुख-दुःख, उत्पवत्त-प्रलय और भय-अभय तर्ा अहहंसा, समता, संतोर् तप (स्विमष के आचरण से इंहियाहद को तपाकर शुद्ि करने का नाम तप है), दान, कीततष और अपकीततष- ऐसे ये प्राणणयों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं |
  • 3.  महर्षयः सप्त पूवे चत्वारो मनवस्तर्ा । मद्भावा मानसा िाता येर्ां लोक इमाः प्रिाः ॥ भावार्थ : सात महवर्षिन, चार उनसे भी पूवष में होने वाले सनकाहद तर्ा स्वायम्भुव आहद चौदह मनु- ये मुझमें भाव वाले सब-के -सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसार में यह संपूणष प्रिा है |  एतां ववभूततं योगं च मम यो वेवत्त तत्त्वतः । सोऽववकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥ भावार्थ : िो पुरुर् मेरी इस परमैश्वयषरूप ववभूतत को और योगशजक्त को तत्त्व से िानता है (िो कु छ दृश्यमात्र संसार है वह सब भगवान की माया है और एक वासुदेव भगवान ही सवषत्र पररपूणष है, यह िानना ही तत्व से िानना है), वह तनश्चल भजक्तयोग से युक्त हो िाता है- इसमें कु छ भी संशय नहीं है |  अहं सवषस्य प्रभवो मत्तः सवं प्रवतषते । इतत मत्वा भिन्ते मां बुिा भावसमजन्वताः ॥ भावार्थ : मैं वासुदेव ही संपूणष िगत की उत्पवत्त का कारण हूूँ और मुझसे ही सब िगत चेष्िा करता है, इस प्रकार समझकर श्रद्िा और भजक्त से युक्त बुद्धिमान भक्तिन मुझ परमेश्वर को ही तनरंतर भिते हैं |
  • 4.  मजच्चत्ता मद्गतप्राणा बोियन्तः परस्परम । कर्यन्तश्च मां तनत्यं तुष्यजन्त च रमजन्त च ॥ भावार्थ : निरंतर मुझमें मि लगािे वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्थण करिे वाले (मुझ वासुदेव के ललए ही जिन्होंिे अर्िा िीवि अर्थण कर ददया है उिका िाम मद्गतप्राणााः है।) भक्तिि मेरी भजक्त की चचाथ के द्वारा आर्स में मेरे प्रभाव को िािते हुए तर्ा गुण और प्रभाव सदहत मेरा कर्ि करते हुए ही निरंतर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं |  तेर्ां सततयुक्तानां भितां प्रीततपूवषकम । ददामम बद्धियोगं तं येन मामुपयाजन्त ते ॥ भावार्थ : उि निरंतर मेरे ध्याि आदद में लगे हुए और प्रेमर्ूवथक भििे वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञािरूर् योग देता हूूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त त होते हैं |  तेर्ामेवानुकम्पार्षमहमज्ञानिं तमः। नाशयाम्यात्मभावस्र्ो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ भावार्थ : हे अिुषन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के मलए उनके अंतःकरण में जस्र्त हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानितनत अंिकार को प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ि कर देता हूूँ |
  • 5.  अनाधश्रतः कमषिलं कायं कमष करोतत यः । स सन्न्यासी च योगी च न तनरजवननष चाफियः ॥ भावार्थ : श्री भगवान बोले- िो पुरुर् कमषिल का आश्रय न लेकर करने योवय कमष करता है, वह संन्यासी तर्ा योगी है और के वल अजवन का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तर्ा के वल फियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है |  यं सन्न्यासममतत प्राहुयोगं तं ववद्धि पाण्डव । न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवतत कश्चन ॥ भावार्थ : हे अिुषन! जिसको संन्यास (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की हिप्पणी में इसका खुलासा अर्ष मलखा है।) ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की हिप्पणी में इसका खुलासा अर्ष मलखा है।) िान क्योंफक संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुर् योगी नहीं होता |  आरुरुक्षोमुषनेयोगं कमष कारणमुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ भावार्थ : योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुर् के मलए योग की प्राजप्त में तनष्काम भाव से कमष करना ही हेतु कहा िाता है और योगारूढ़ हो िाने पर उस योगारूढ़ पुरुर् का िो सवषसंकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा िाता है |
  • 6.  यदा हह नेजन्ियार्ेर्ु न कमषस्वनुर्ज्िते । सवषसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥ भावार्थ : जिस काल में न तो इजन्ियों के भोगों में और न कमों में ही आसक्त होता है, उस काल में सवषसंकल्पों का त्यागी पुरुर् योगारूढ़ कहा िाता है |  उद्िरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत । आत्मैव ह्यात्मनो बन्िुरात्मैव ररपुरात्मनः ॥ भावार्थ : अपने द्वारा अपना संसार-समुि से उद्िार करे और अपने को अिोगतत में न डाले क्योंफक यह मनुष्य आप ही तो अपना ममत्र है और आप ही अपना शत्रु है |  बन्िुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वतेतात्मैव शत्रुवत ॥ भावार्थ : जिस िीवात्मा द्वारा मन और इजन्ियों सहहत शरीर िीता हुआ है, उस िीवात्मा का तो वह आप ही ममत्र है और जिसके द्वारा मन तर्ा इजन्ियों सहहत शरीर नहीं िीता गया है, उसके मलए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बतषता है |
  • 7.  जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहहतः । शीतोष्णसुखदुःखेर्ु तर्ा मानापमानयोः ॥ भावार्थ : सरदी-गरमी और सुख-दुःखाहद में तर्ा मान और अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृवत्तयाूँ भलीभाूँतत शांत हैं, ऐसे स्वािीन आत्मावाले पुरुर् के ज्ञान में सजच्चदानन्दघन परमात्मा सम्यक प्रकार से जस्र्त है अर्ाषत उसके ज्ञान में परमात्मा के मसवा अन्य कु छ है ही नहीं |  ज्ञानववज्ञानतृप्तात्मा कू िस्र्ो ववजितेजन्ियः । युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्िाश्मकांचनः ॥ भावार्थ : जिसका अन्तःकरण ज्ञान-ववज्ञान से तृप्त है, जिसकी जस्र्तत ववकाररहहत है, जिसकी इजन्ियाूँ भलीभाूँतत िीती हुई हैं और जिसके मलए ममट्िी, पत्र्र और सुवणष समान हैं, वह योगी युक्त अर्ाषत भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा िाता है |  सुहृजन्मत्रायुषदासीनमध्यस्र्द्वेष्यबन्िुर्ु । सािुष्ववप च पापेर्ु समबुद्धिववषमशष्यते ॥ भावार्थ : सुहृद् (स्वार्ष रहहत सबका हहत करने वाला), ममत्र, वैरी, उदासीन (पक्षपातरहहत), मध्यस्र् (दोनों ओर की भलाई चाहने वाला), द्वेष्य और बन्िुगणों में, िमाषत्माओं में और पावपयों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है |
  • 8.  योगी युञ्िीत सततमात्मानं रहमस जस्र्तः । एकाकी यतधचत्तात्मा तनराशीरपररग्रहः ॥ भावार्थ : मन और इजन्ियों सहहत शरीर को वश में रखने वाला, आशारहहत और संग्रहरहहत योगी अके ला ही एकांत स्र्ान में जस्र्त होकर आत्मा को तनरंतर परमात्मा में लगाए |  शुचौ देशे प्रततष्ठाप्य जस्र्रमासनमात्मनः । नात्युजच्ितं नाततनीचं चैलाजिनकु शोत्तरम ॥ भावार्थ : शुद्ि भूमम में, जिसके ऊपर िमशः कु शा, मृगछाला और वस्त्र बबछे हैं, िो न बहुत ऊूँ चा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को जस्र्र स्र्ापन करके |  तत्रैकाग्रं मनः कृ त्वा यतधचत्तेजन्ियफियः । उपववश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मववशुद्िये ॥ भावार्थ : उस आसन पर बैठकर धचत्त और इजन्ियों की फियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के मलए योग का अभ्यास करे |
  • 9.  समं कायमशरोग्रीवं िारयन्नचलं जस्र्रः । सम्प्रेक्ष्य नामसकाग्रं स्वं हदशश्चानवलोकयन ॥ भावार्थ : काया, मसर और गले को समान एवं अचल िारण करके और जस्र्र होकर, अपनी नामसका के अग्रभाग पर दृजष्ि िमाकर, अन्य हदशाओं को न देखता हुआ |  प्रशान्तात्मा ववगतभीर्ब्षह्मचाररव्रते जस्र्तः । मनः संयम्य मजच्चत्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ भावार्थ : र्ब्ह्मचारी के व्रत में जस्र्त, भयरहहत तर्ा भलीभाूँतत शांत अन्तःकरण वाला साविान योगी मन को रोककर मुझमें धचत्तवाला और मेरे परायण होकर जस्र्त होए |  युञ्िन्नेवं सदात्मानं योगी तनयतमानसः । शाजन्तं तनवाषणपरमां मत्संस्र्ामधिगच्छतत ॥ भावार्थ : वश में फकए हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को तनरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शाजन्त को प्राप्त होता है |
  • 10. • नात्यश्नतस्तु योगोऽजस्त न चैकान्तमनश्नतः । न चातत स्वप्नशीलस्य िाग्रतो नैव चािुषन ॥ भावार्थ : हे अिुषन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बबलकु ल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा िागने वाले का ही मसद्ि होता है | • युक्ताहारववहारस्य युक्तचेष्िस्य कमषसु । युक्तस्वप्नावबोिस्य योगो भवतत दुःखहा ॥ भावार्थ : दुःखों का नाश करने वाला योग तो यर्ायोवय आहार-ववहार करने वाले का, कमों में यर्ायोवय चेष्िा करने वाले का और यर्ायोवय सोने तर्ा िागने वाले का ही मसद्ि होता है | • यदा ववतनयतं धचत्तमात्मन्येवावततष्ठते । तनःस्पृहः सवषकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ भावार्थ : अत्यन्त वश में फकया हुआ धचत्त जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाूँतत जस्र्त हो िाता है, उस काल में सम्पूणष भोगों से स्पृहारहहत पुरुर् योगयुक्त है, ऐसा कहा िाता है |
  • 11. • यर्ा दीपो तनवातस्र्ो नेंगते सोपमा स्मृता । योधगनो यतधचत्तस्य युञ्ितो योगमात्मनः ॥ भावार्थ : जिस प्रकार वायुरहहत स्र्ान में जस्र्त दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के िीते हुए धचत्त की कही गई है | • यत्रोपरमते धचत्तं तनरुद्िं योगसेवया । यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मतन तुष्यतत ॥ भावार्थ : योग के अभ्यास से तनरुद्ि धचत्त जिस अवस्र्ा में उपराम हो िाता है और जिस अवस्र्ा में परमात्मा के ध्यान से शुद्ि हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सजच्चदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ि रहता है | • सुखमात्यजन्तकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीजन्ियम । वेवत्त यत्र न चैवायं जस्र्तश्चलतत तत्त्वतः ॥ भावार्थ : इजन्ियों से अतीत, के वल शुद्ि हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योवय िो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्र्ा में अनुभव करता है, और जिस अवस्र्ा में जस्र्त यह योगी परमात्मा के स्वरूप से ववचमलत होता ही नहीं |
  • 12.  यं लब्धध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः । यजस्मजन्स्र्तो न दुःखेन गुरुणावप ववचाल्यते ॥ भावार्थ : परमात्मा की प्राजप्त रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कु छ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राजप्त रूप जिस अवस्र्ा में जस्र्त योगी बडे भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता |  तं ववद्याद् दुःखसंयोगववयोगं योगसजञ्ज्ञतम। स तनश्चयेन योक्तव्यो योगोऽतनववषण्णचेतसा ॥ भावार्थ : िो दुःखरूप संसार के संयोग से रहहत है तर्ा जिसका नाम योग है, उसको िानना चाहहए। वह योग न उकताए हुए अर्ाषत िैयष और उत्साहयुक्त धचत्त से तनश्चयपूवषक करना कतषव्य है |  सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सवाषनशेर्तः । मनसैवेजन्ियग्रामं ववतनयम्य समन्ततः ॥ भावार्थ : संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूणष कामनाओं को तनःशेर् रूप से त्यागकर और मन द्वारा इजन्ियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाूँतत रोककर |
  • 13.  शनैः शनैरुपरमेद्बुद्िया िृततगृहीतया। आत्मसंस्र्ं मनः कृ त्वा न फकं धचदवप धचन्तयेत ॥ भावार्थ : िम-िम से अभ्यास करता हुआ उपरतत को प्राप्त हो तर्ा िैयषयुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में जस्र्त करके परमात्मा के मसवा और कु छ भी धचन्तन न करे |  यतो यतो तनश्चरतत मनश्चञ्चलमजस्र्रम । ततस्ततो तनयम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत ॥ भावार्थ : यह जस्र्र न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्धदाहद ववर्य के तनममत्त से संसार में ववचरता है, उस-उस ववर्य से रोककर यानी हिाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही तनरुद्ि करे |  प्रशान्तमनसं ह्येनं योधगनं सुखमुत्तमम । उपैतत शांतरिसं र्ब्ह्मभूतमकल्मर्म ॥ भावार्थ : क्योंफक जिसका मन भली प्रकार शांत है, िो पाप से रहहत है और जिसका रिोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सजच्चदानन्दघन र्ब्ह्म के सार् एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है |
  • 14.  युञ्िन्नेवं सदात्मानं योगी ववगतकल्मर्ः । सुखेन र्ब्ह्मसंस्पशषमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ भावार्थ : वह पापरहहत योगी इस प्रकार तनरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूवषक परर्ब्ह्म परमात्मा की प्राजप्त रूप अनन्त आनंद का अनुभव करता है |  सवषभूतस्र्मात्मानं सवषभूतातन चात्मतन । ईक्षते योगयुक्तात्मा सवषत्र समदशषनः ॥ भावार्थ : सवषव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से जस्र्तत रूप योग से युक्त आत्मा वाला तर्ा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूणष भूतों में जस्र्त और सम्पूणष भूतों को आत्मा में कजल्पत देखता है |  यो मां पश्यतत सवषत्र सवं च मतय पश्यतत । तस्याहं न प्रणश्यामम स च मे न प्रणश्यतत ॥ भावार्थ : िो पुरुर् सम्पूणष भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूणष भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तगषत (गीता अध्याय 9 श्लोक 6 में देखना चाहहए।) देखता है, उसके मलए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे मलए अदृश्य नहीं होता |
  • 15. • सवषभूतजस्र्तं यो मां भित्येकत्वमाजस्र्तः । सवषर्ा वतषमानोऽवप स योगी मतय वतषते ॥ भावार्थ : िो पुरुर् एकीभाव में जस्र्त होकर सम्पूणष भूतों में आत्मरूप से जस्र्त मुझ सजच्चदानन्दघन वासुदेव को भिता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है | • आत्मौपम्येन सवषत्र समं पश्यतत योऽिुषन । सुखं वा यहद वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ भावार्थ : हे अिुषन! िो योगी अपनी भाूँतत (िैसे मनुष्य अपने मस्तक, हार्, पैर और गुदाहद के सार् र्ब्ाह्मण, क्षबत्रय, शूि और म्लेच्छाहदकों का-सा बताषव करता हुआ भी उनमें आत्मभाव अर्ाषत अपनापन समान होने से सुख और दुःख को समान ही देखता है, वैसे ही सब भूतों में देखना 'अपनी भाूँतत' सम देखना है।) सम्पूणष भूतों में सम देखता है और सुख अर्वा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है |
  • 16. • काम एर् िोि एर् रिोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा ववद्ियेनममह वैररणम ॥ भावार्थ : श्री भगवान बोले- रिोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही िोि है। यह बहुत खाने वाला अर्ाषत भोगों से कभी न अघानेवाला और बडा पापी है। इसको ही तू इस ववर्य में वैरी िान | • िूमेनावव्रयते वजह्नयषर्ादशो मलेन च। यर्ोल्बेनावृतो गभषस्तर्ा तेनेदमावृतम ॥ भावार्थ : जिस प्रकार िुएूँ से अजवन और मैल से दपषण ढूँका िाता है तर्ा जिस प्रकार िेर से गभष ढूँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढूँका रहता है | • आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञातननो तनत्यवैररणा । कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥ भावार्थ : और हे अिुषन! इस अजवन के समान कभी न पूणष होने वाले काम रूप ज्ञातनयों के तनत्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढूँका हुआ है |
  • 17.  तताः र्दं तत्र्ररमार्गथतव्यं यजममन्गता ि निवतथजन्त भूयाः । तमेव चाद्यं र्ुरुषं प्रर्द्ये यताः प्रवृत्ताः प्रसृता र्ुराणी ॥ भावार्थ : उसके पश्चात उस परम-पदरूप परमेश्वर को भलीभाूँतत खोिना चाहहए, जिसमें गए हुए पुरुर् फिर लौिकर संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर से इस पुरातन संसार वृक्ष की प्रवृवत्त ववस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आहदपुरुर् नारायण के मैं शरण हूूँ- इस प्रकार दृढ़ तनश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और तनहदध्यासन करना चाहहए |  निमाथिमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या त्वनिवृतकामााः । द्वन्द्वैत्वथमुक्तााः सुखदुाःखसञ्ज्ज्ञैगथच्छन्त्यमूढााः र्दमव्ययं तत ॥ भावार्थ : जिनका मान और मोह नष्ि हो गया है, जिन्होंने आसजक्त रूप दोर् को िीत मलया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में तनत्य जस्र्तत है और जिनकी कामनाएूँ पूणष रूप से नष्ि हो गई हैं- वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से ववमुक्त ज्ञानीिन उस अववनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं |  ि तद्भासयते सूयो ि शशाङ्को ि र्ावकाः । यद्गत्वा ि निवतथन्ते तद्धाम र्रमं मम ॥ भावार्थ : जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौिकर संसार में नहीं आते उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूयष प्रकामशत कर सकता है, न चन्िमा और न अजवन ही, वही मेरा परम िाम ('परम िाम' का अर्ष गीता अध्याय 8 श्लोक 21 में देखना चाहहए।) है |
  • 18.  शरीरं यदवाप्नोतत यच्चाप्युत्िामतीश्वरः । गृहीत्वैतातन संयातत वायुगषन्िातनवाशयात ॥ भावार्थ : वायु गन्ि के स्र्ान से गन्ि को िैसे ग्रहण करके ले िाता है, वैसे ही देहाहदका स्वामी िीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इन मन सहहत इजन्ियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है- उसमें िाता है |  श्रोत्रं चक्षुः स्पशषनं च रसनं घ्राणमेव च । अधिष्ठाय मनश्चायं ववर्यानुपसेवते ॥ भावार्थ : यह िीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तर्ा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके -अर्ाषत इन सबके सहारे से ही ववर्यों का सेवन करता है |  उत्िामन्तं जस्र्तं वावप भुञ्िानं वा गुणाजन्वतम । ववमूढा नानुपश्यजन्त पश्यजन्त ज्ञानचक्षुर्ः ॥ भावार्थ : शरीर को छोडकर िाते हुए को अर्वा शरीर में जस्र्त हुए को अर्वा ववर्यों को भोगते हुए को इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीिन नहीं िानते, के वल ज्ञानरूप नेत्रों वाले वववेकशील ज्ञानी ही तत्त्व से िानते हैं |
  • 19.  यतन्तो योधगनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवजस्र्तम । यतन्तोऽप्यकृ तात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥ भावार्थ : यत्न करने वाले योगीिन भी अपने हृदय में जस्र्त इस आत्मा को तत्त्व से िानते हैं, फकन्तु जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ि नहीं फकया है, ऐसे अज्ञानीिन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं िानते |  यदाहदत्यगतं तेिो िगद्भासयतेऽणखलम । यच्चन्िममस यच्चावनौ तत्तेिो ववद्धि मामकम ॥ भावार्थ : सूयष में जस्र्त िो तेि सम्पूणष िगत को प्रकामशत करता है तर्ा िो तेि चन्िमा में है और िो अजवन में है- उसको तू मेरा ही तेि िान |  गामाववश्य च भूतातन िारयाम्यहमोिसा । पुष्णामम चौर्िीः सवाषः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥ भावार्थ : और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शजक्त से सब भूतों को िारण करता हूूँ और रसस्वरूप अर्ाषत अमृतमय चन्िमा होकर सम्पूणष ओर्धियों को अर्ाषत वनस्पततयों को पुष्ि करता हूूँ |
  • 20.  उत्तमः पुरुर्स्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाववश्य बबभत्यषव्यय ईश्वरः ॥ भावार्थ : इन दोनों से उत्तम पुरुर् तो अन्य ही है, िो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका िारण-पोर्ण करता है एवं अववनाशी परमेश्वर और परमात्मा- इस प्रकार कहा गया है |  यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादवप चोत्तमः । अतोऽजस्म लोके वेदे च प्रधर्तः पुरुर्ोत्तमः ॥ भावार्थ : क्योंफक मैं नाशवान िडवगष- क्षेत्र से तो सवषर्ा अतीत हूूँ और अववनाशी िीवात्मा से भी उत्तम हूूँ, इसमलए लोक में और वेद में भी पुरुर्ोत्तम नाम से प्रमसद्ि हूूँ |  यो मामेवमसम्मूढो िानातत पुरुर्ोत्तमम । स सवषववद्भितत मां सवषभावेन भारत ॥ भावार्थ : भारत! िो ज्ञानी पुरुर् मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुर्ोत्तम िानता है, वह सवषज्ञ पुरुर् सब प्रकार से तनरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भिता है |
  • 21.  इतत गुह्यतमं शास्त्रममदमुक्तं मयानघ । एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृ तकृ त्यश्च भारत ॥ भावार्थ : हे तनष्पाप अिुषन! इस प्रकार यह अतत रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से िानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृ तार्ष हो िाता है |  मय्यासक्तमनाः पार्ष योगं युञ्िन्मदाश्रयः । असंशयं समग्रं मां यर्ा ज्ञास्यमस तच्छृ णु ॥ भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे पार्ष! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त धचत तर्ा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूणष ववभूतत, बल, ऐश्वयाषहद गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहहत िानेगा, उसको सुन |  ज्ञानं तेऽहं सववज्ञानममदं वक्ष्याम्यशेर्तः । यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवमशष्यते ॥ भावार्थ : मैं तेरे मलए इस ववज्ञान सहहत तत्व ज्ञान को सम्पूणषतया कहूूँगा, जिसको िानकर संसार में फिर और कु छ भी िानने योवय शेर् नहीं रह िाता |