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Swatantra ka mahtva
संसार के ककसी विकससत देश से तुलना की जाये तो एक आम भारतीय कह ं अधिक आज़ाद है। चलती बसों में चढ़ने तरने से लेकर कह ं भी -
कचरा फै लाने, थूकने से लेकर ननत्यकिया तक के सलये कह ं भी बैठ जाना सामान्य सी बात है। ैजसे कभी दो िैसे का ननिेश-करना नह ं आया
िह ररज़िव बैंक की नीनतयों िर व्याख्यान दे डालता है और जो नागालैंड को इंग्लैंड का प्ांत समझता है िह िांच समनट में विदेश नीनत की
ककसम ककसम की िांच हजार कसमयां ननकाल सकता है।
भगदड़ में मर जाना मंज़ूर है लेककन बस हो, रेल हो, मंददर या मज़ार हो, हमने िंैतत बनाना नह ं सीखा। और सीखते भी कै से? हमारे आज़ाद
ख्याल अध्यािकों ने ससखाया ह नह ं। िे कै से ससखाते जब न्हें यह खुद कभी नह ं आया।
आज़ाद के मायने अलगनागररकों -अलग हो सकते हैं। दसे लोग कम ह हैं जो देश की आज़ाद का अथव अिने सह-अलग लोगों के सलये अलग-
की आज़ाद का आदर करना मानते हैं। सच्चे अथों में आज़ाद िह है जो अिने सहनागररक की आज़ाद का अनतिम न करे। तयोंकक यह -
एक दसा मागव है ैजसमें प्त्येक नागररक की रितं ता सुननैसचत की जा सकती है।
और इस आज़ाद को िाने के सलये नागररकों के व्यैततगत प्यास के साथ एक अन्य तत्ि भी आिसयक है, और िह है सुदृढ प्शासन व्यिरथा।
सामान्य अिराधियों से लेकर नृशंस आतंकिाददयों तक सभी को अिराि की कल्िना करने से िहले ह दण्ड का भय िता हो तो नागररकों की
रितं ता सुननैसचत है।
दण्डः शाैरत प्जाः सिाव दण्ड एिासभरक्षनत।
दण्डः सुप्तेषु जागनतव दण्डं िमं विदुबुविाः।।
दंड ह शासन करता है। दंड ह रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दंड ह जागता है। बुद्धिमानों ने दंड को ह िमव कहा है।
ईंटों के भट्टे के सलये समट्ट काटने िाले बच्चे को अंदाज़ भी नह ं है कक राष्ट्र के सशक्षक्षत िगव के सलये ैजस प्कार च्च सशक्षा के संसािन
िलब्ि हैं। इन संसािनों के अंशमा से राष्ट्र के ननिवन और िंधचत िगव को मूलभूत सशक्षा िलब्ि कराई जा सकती है। देश के दसलतिंधचत -
िगव के सलये जेएनयू आज़ाद का प्तीक नह ं है, नके सलये आज़ाद का मतलब है बेससक सशक्षा तक नकी िहुंच।
भारत की तार फ में कसीदे िढ़ने िाले अतसर हमार िाररिाररक व्यिरथा और बड़ों के सम्मान का दाहर ज़रूर देते हैं। अिने से बड़ों के िााँि
िड़ना भारतीय संरकृ नत की विशेषता है। अब ये बड़े ककसी भी रूि में हो सकते हैं। राजनीनतज्ञों के िााँि िड़नेिालों की कतार देखी जा सकती है।
बड़े। बड़े बाबा गुािू वमा िर अिने गुा के िााँि िड़े रहने का िुण्य त्यागकर अिने सशष्ट्यों को अिना चर ामृत िलब्ि कराने में जुट जाते हैं-
।रिीकायव है-बच्चे बचिन से यह देखकर बड़े होते हैं कक बड़े के िााँि िड़ना और रोटे का कान मरोड़ना सहजताकतिर के सामने ननबवल का
झुकना सामान्य बात बन जाती है।
विकससत देशों में इस प्कार की दहराकी को चुनौती समलना सामान्य बात है। भारत में मेरे कई अध्यािक मुझे इससलए नािसंद करते थे तयोंकक
मैं िह सिाल िूर लेता था ैजसके सलए िे िहले से तैयार नह ं होते थे। भारत में यह आसान नह ं था। अध्यािक को न िढ़ाने की आज़ाद थी
मगर रा को प्सन िूरने की आज़ाद नह ं थी। िैसचम में यह रितं ता हर कक्षा में है और रा ों की सशक्षा सम्बंिी रितन् ता यहााँ सहज
रिीकायव है, ठीक सी रूि में ैजसमें हमारे मनीवषयों ने कल्िना की थी। सच िूनरए तो जो प्ाचीन गौरिमय भारतीय संरकृ नत हमारे यहााँ मुझे
ससफव ककताबों में समल िह यहााँ हर ओर बबखर हुई है। िैसचम में रितन् ता का अथव च्रृ ंखलता नह ं होता। आसचयव नह ं कक िहााँ के नागररक
आज़ाद का अथव समझते हैं और से बचाने के सलये प्नतबद्ि हैं।
हमें भी एक िल ठहरकर यह सोचना िड़ेगा कक आज़ाद के असल मायने तया हैं। नागररकों के मूलभूत सुवििाओं के अधिकारों के प्नत
संिैिाननक संरथाओं की प्नतबद्िता और दूसरों की व्यैततगत रितं ता के आदर के साथसाथ अिराधियों को त्िररत और यथोधचत दण्ड देने -
शािाल प्सननक न्याय व्यिरथा मेर नज़र में रितं ता के मूलभूत तीन तत्ि हैं

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