3. निरुक्ति
हरीतकी - हररिः वर्रिः इतो यस्याम् इशत । हरशत रोगान् इशत हरीतकी । इसका वर्र हररताभ पीत होता है । अथवा यह
रोगों का हरर् करती है।
अभया न भयं अस्यािः इशत । इसक
े सेवन से शकसी प्रकार का भय नहीं रहता । यह रोगों क
े आक्रमर् क
े भय से दू र
रखती है।
अव्यथा -न व्यथा अस्यािः इशत । न व्यथयशत इशत वा । यह व्यथामात्र को दू र करती है।
पथ्या -पथोऽनपेता इशत । पशथ साधुिः इशत पथ्या शहता इत्यथरिः । इसका सेवन शहतकर होता है।
कायस्था - कायिः शतष्ठशत अनया इशत ! काये शतष्ठशत इशत वा शनष्फला न भवशत इत्यथरिः । इसक
े सेवन से िरीर स्थथर
बनता है । अथवा िरीर में प्रवेि करने क
े अनन्तर यह शनष्फल नहीं जाती, िरीर क
े शलए अवश्य शहतावह होती है।
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4. पूतिा -पूतं करोशत इशत । शवरेचकत्वात् । यह शवरेचक होने क
े कारर् दू शित वायु एवं मल को बाहर शनकालती है, और
िरीर को पशवत्र करती है ।
हैमवती -शहमवशत जाता इशत । यह शहमवान् पवरत पर उत्पन्न होती है ।
चेतकी -चेतयतीशत । 'शचती संज्ञाने' । चेतयशत अनया स्रोतिःिुद्ेिः । इससे स्रोतों की िुस्द् होकर मन भी सचेतन एवं पशवत्र
बनता है।
श्रेयसी -अशत प्रिस्ता इशत । श्रेयस्करत्वात् । यह सेवन करने वाले क
े शलए श्रेयस्कर होने क
े कारर् अत्यन्त प्रिस्त मानी
जाती है ।
निवा -शिवं करोशत इशत । यह सेवन करनेवाले का पूर्र कल्यार् करती है।
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5. हरीतकी क
े भेद - सप्तभेद
१. शवजया,
२. रोशहर्ी,
३. पूतना,
४. अमृता,
५. अभया,
६. जीवन्ती,
७. चेतकी
ये हरीतकी की सात जाशतयााँ (भेद) हैं।
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6. जाशत स्वरूप प्रयोग उत्पशिथथान
१. नवजया अलाबुवृि सवररोग शवन्ध्य
२. रोनहणी वि व्रर् प्रशतथथानक
े (सवरत्र)
३. पूतिा सूक्ष्म, अस्थथमय प्रलेप शसन्ध
४. अमृता मांसल िोधन चम्पा (भागलपुर)
५. अभया पंचरेखायुक्त नेत्ररोग चम्पा (भागलपुर)
६. जीवन्ती स्वर्रवर्र सवररोग सौराष्ट्र
७. चेतकी शत्ररेखायुक्त रेचन शहमाचल
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7. हरीतकी क
े उत्पनिस्थाि–
शवन्ध्य पवरत पर शवजया, शहमालय पर चेतकी, शसन्ध देि में पर प्रत्येक थथानों में रोशहर्ी, चम्पा देि में अमृता तथा अभया एवं
राष्ट्र देि में जीवन्ती जाशत की हरीती क
े उत्पन्न होने से उक्त प्रकार क
े सात भेद शवद्वानों ने कहे हैं।
यह भारत में सवरत्र शविेितिः शनचले शहमालय क्षेत्र में रावी से पूवर पशिम बंगाल और आसाम तक ५ हजार फीट की ऊ
ं चाई
तक होता है।
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8. व्यावहाररक दृशष्ट् से यह तीन प्रकार की है :-
(१) छोटी हरें
(२) पीली हरे
(३) बडी हरे
ये तीनों वस्तुतिः एक ही वृक्ष क
े फल हैं जो अवथथाभेद से शभन्न हो जाते हैं ।
हरीतकी वृक्ष से कच्चे कोमल फल ( गुठली होने से पूवर ) स्वयं शगर जाते हैं या तोड कर सुखा शलए
जाते हैं वे 'छोटी हरें' कहलाते हैं । गुठली होने क
े बाद प्रौढावथथा में जो अपररपक्व फल शलए जाते
हैं वे 'पीली हर' कहलाते हैं और हरीतकी क
े पूर्र पररपक्व फल 'बडी हरे' क
े नाम से शलए जाते हैं ।
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9. गण
(च० ) प्रजाथथापन
ज्वरघ्न
क
ु ष्ठघ्न
कासघ्न
अिोघ्न ।
( सु०) शत्रफला
आमलक्याशद
परुिकाशद
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10. स्वरूप (External morphology)
यह 50-70 फ
ु ट तक ऊ
ं चा वृक्ष होता है ।
छाल- गहरे भूरे रंग की, प्रायिः लम्बाई में फटी होती है।
पत्र - 3-8 इंच लम्बे, 2-4 इंच चौडे, लट्वाकार या अंडाकार होते हैं। पत्रवृन्त क
े िीर्ष भाग पर दो बडी ग्रक्तियााँ होती हैं। पत्रशसराय ६-
८ जोडी होती हैं।
पुष्प -छोटे, पीताभ श्वेत, अन्त्य मजररयों में होते हैं।
फल -1-2 इंच लम्बा, अंडाकार, कशठन होता है शजसक
े पृष्ठभाग पर पांच रेखाएं होती हैं। ये कच्चे में हरे तथा पकने पर पीताभ धूसर
हो जाते हैं।
बीज -प्रत्येक फल में एक होता है। फरवरी-माचर में पशियां झड जाती है। अप्रैल-मई में नये पल्लवों क
े साथ पुष्प आते हैं। फल-
िीतकाल' में लगते हैं। पक्व फलों का संग्रह जनवरी से अप्रैल तक करते हैं।
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12. स्वरूप (External morphology)
यह 50-70 फ
ु ट तक ऊ
ं चा वृक्ष होता है ।
छाल- गहरे भूरे रंग की, प्रायिः लम्बाई में फटी होती है।
पत्र - 3-8 इंच लम्बे, 2-4 इंच चौडे, लट्वाकार या अंडाकार होते हैं। पत्रवृन्त क
े िीर्ष भाग पर दो बडी ग्रक्तियााँ होती हैं। पत्रशसराय ६-
८ जोडी होती हैं।
पुष्प -छोटे, पीताभ श्वेत, अन्त्य मजररयों में होते हैं।
फल -1-2 इंच लम्बा, अंडाकार, कशठन होता है शजसक
े पृष्ठभाग पर पांच रेखाएं होती हैं। ये कच्चे में हरे तथा पकने पर पीताभ धूसर
हो जाते हैं।
बीज -प्रत्येक फल में एक होता है। फरवरी-माचर में पशियां झड जाती है। अप्रैल-मई में नये पल्लवों क
े साथ पुष्प आते हैं। फल-
िीतकाल' में लगते हैं। पक्व फलों का संग्रह जनवरी से अप्रैल तक करते हैं।
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13. Fruit fresh (External morphology)
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14. Fruit fresh (External morphology)
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15. Fruit dry (External morphology)
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17. कमर ------ प्रभाव
हरड में मधुर, शतक्त और किाय रस रहता है, अतएव यह शपिनािक है ।
कटु शतक्त तथा किाय रस होने से कफनािक है।
अम्ल रस होने से वायु का भी िमन करती है।
जब हरड में कटु तथा अम्ल रस है, तब क्यों नहीं यह शपि तथा वातकारक होती है ?
यह क
े वल समझाने क
े शलये अथारत् इन इन रसों में इन इन दोिों को दू र करने की िस्क्त रहती है परंतु
वस्तुत: हरड जो दोिों का नाि करती है (शत्रदोिनािकता) वह अपने प्रभाव से ही करती है।
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18. गुर् प्रयोग
हरीतकी मृदु शवरेचक द्रव्य है। इससे शकसी प्रकार की हाशन नहीं होती। िरीर की सभी शक्रयाएाँ इसक
े सेवन से
सुधरती हैं।
इसका उपयोग जीर्र ज्वर, अशतसार, रक्ताशतसार, अिर, नेत्ररोग, अजीर्र, प्रमेह, पाण्डु, अम्लशपि, कामला आशद
में लाभकर होता है।
आधुशनक प्रयोगों से भी इसकी शवशभन्न रोगों में उपयोशगता शसद् हुई है।
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19. प्रयोज्य अंग फल
मात्रा- चूर्र 3 – 6 gm
हरीतकी क
े फल पूर्र पकने तक वृक्ष में बहुत कम ठहरते हैं। प्राय: कच्ची अवथथा में ही शगर
जाया करते हैं। पका फल उिम समझा जाता है। उिम फल वह है जो नया हो और शचकना,
लंब गोल, भारी, तौल में कम से कम 10 ग्राम से भी अशधक हो तथा पानी में ड
ू ब जाय ।
अपक्व अवथथा क
े छोटे, काले, द्राक्ष क
े समान फल शमलते हैं। यह बडे हरें की अपेक्षा बहुत
छोटे होते हैं। इन्हें शहन्दी में जंगी हरड एवं मराठी में बालशहरडा कहा जाता है। इनका स्वाद
अशधक कसैला तथा कडवा होता है।
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20. प्रमुख योग
शत्रफला चूर्र, महाशत्रफला घृत, अभयाररष्ट्,
अगस्त्य हरीतकी, शचत्रक हरीतकी, दंती हरीतकी, दिमूल हरीतकी,
पथ्याशद क्वाथ आशद अन्य हैं।
जीर्र कास, अिर आशद में अगस्त्य हरीतकी एवं व्याघ्री हरीतकी आशद योगों क
े रूप में भी
इसका व्यवहार शकया जाता है।
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21. रासायनिक संघटि (chemical constituents)
Tannins, anthraquinones, polyphenolic compounds
फल में टैशनन ( 24.6-32.5 ) होता है। टैशनन क
े घटकों में चेबुलशगक एशसड ( Chebulagic acid ), चेबुशलशनक एशसड (
Chébulinic acid ), कोररलेशजन ( Corilagin ) प्रमुख हैं ।
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22. आमशयक प्रयोग
चरक
1. अिर में भोजन क
े पूवर प्रशतशदन शनयशमत हरीतकीचूर्र और गुड का सेवन करना चाशहए । शच. अ. ९.
2. अतीसार में अशतसार होने पर तुरन्त उसे बन्द करने की औिशध नहीं देनी चाशहए। इससे अनेक रोग हो जाते हैं। दोिों क
े
पचन और शनहरर् क
े शलए प्रथम हरीतकी देना उशचत है. इससे दोिों का शनहरर् हो जायगा और अशतसार नष्ट् हो जाता
है । शच. १०.१८.
4. पक्वाशतसार में उष्णोदक क
े साथ हरीतकीचूर्र देना शहतावह होता है । शच. १९.
( गुड, घृत, मधु, और शतलतेल क
े साथ हरीतकी देने से अशतसार अवश्य नष्ट् होता है । )
3. उदररोग में एक हजार हरीतकी का व्यवस्थथत एवं शनयशमत सेवन कराना चाशहए । शच. १८.
5. कफजन्य पाण्डुरोग में गौमूत्र में स्िन्न की हुई हरीतकी का शनयशमत सेवन कराना चाशहए । शच. २०.
6. वमन में मधु क
े साथ हरीतकीचूर्र का प्रािन कराना चाशहए । शच. २३.
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23. आमशयक प्रयोग
सुश्रुत
7. वात रक्त में गुड और हरीतकी का सेवन शहतकर है । शच. ५.
8. अिर ( मस्से ) बाहर शदखाई न देते हों तो शनत्य प्रातिःकाल गुड क
े साथ हरीतकी का सेवन कराना चाशहए। शच.
६.
9. कफज श्लीपद में हरीतकीचूर्र गौमूत्र क
े साथ देते रहना चाशहए। फीलपांव नष्ट् होता है । शच. १९.
10. गुल्म में गुड क
े साथ हरीतकीचूर्र देना चाशहए । उ. ४२.
11. शहक्का में उष्णोदक से हरीतकीचूर्र देना चाशहए । उ. ५०.
24. अथ रसायनगुर्ाशथरनां क
ृ ते हरीतकीप्रयोगशवशधमाहशसंधूत्यिक
र रािुण्ठीकर्ामधुगुडैिः क्रमात् ।
विारशदष्वभया प्राश्या रसायनगुर्ैशिर्ा ॥३४॥
ऋतुहरीतकी
ऋतु अनुपान
1 विार सैन्धव
2 िरद् िक
र रा
3 हेमन्त िुण्ठी
4 शिशिर शपप्पली
5 वसन्त मधु
6 ग्रीष्म गुड
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25. प्रयोग शनिेध
अशतस्खन्न, अशतक्षीर्, रूक्ष, अशतक
ृ ि, लंघनकशिरत, शवमुक्त रक्त , शपिाशधक्ययुक्त, गभरवती मे हरीतकी का सेवन न करें।
तृष्णा, मुखिोि, नवज्वर तथा हनुस्तम्भ में भी नहीं देना चाशहए।
(किायप्रधान तथा उष्णवीयर होने से उपरोक्त रोगों में वशजरत है।)
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