ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय
एवं महानिदेशक, महर्षि विश्व शांति की वैश्विक राजधानी
भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश
1. प्रशंसा और न ंदा
महर्षि कहते थे र्क जब तक मानव के हृदय में अनुर्ित तृष्णा ने अपना स्थान बना रखा
है तब तक उसे ज्ञान-र्वज्ञान के प्रकाश का
मूल्य नह ीं होगा और वह अन्धकारमय ज वन
ह ज ता रहेगा। सभ लोग आँखोीं पर अविेतन
क पट्ट बाींधे शाींर्त िाहते हैं। यह तृष्णा ठ क
वैस ह है जैस एक कस्तुर मृग भ अपन
नार्भ से आ रह सुगींध को वन में खोजना
िाहता है। वह इस सत्य से अनर्भज्ञ है र्क वह
सुगींध तो उसक नार्भ से आ रह तो वह वन में
भटक-भटक कर अपन अविेतना को ह
प्रस्तुत करता है। ठ क उस प्रकार मानव के भ तर ह समस्त सुख र्वद्यमान हैं। वह इस
भौर्तक जगत क्षर्िक सुखोीं क अनुभूर्त अवश्य करा सकता है परींतु अक्षय आनींद क
प्राप्ति नह ीं। यह क्षिभींगुर सुख मानव के सुखोीं क अनवरत इच्छाओीं को जागृत कर
जाता है और मन इच्छाओीं के इस जाल में फसता िला जाता है। मनुष्य का हृदय बाहर
सुख, दुख, यश, अपयश और र्नींदा और प्रशींसा क धूप-छाींव से प्रभार्वत होता है और
कभ भ परमआनींद क अनुभूर्त नह ीं कर पाता। इसके ठ क र्वपर त ‘‘भावात त ध्यान”
का साधक र्नींदा व प्रशींसा के भाव से अछु ता रहकर परमआनींद का शरि में िला जाता
है। एक पवित पर एक सींत रहते थे। एक र्दन एक भक्त आया और बोला-महात्मा ज ,
मुझे त थियात्रा के र्लए जाना है। मेर यह स्विि मुद्रओीं क थैल अपने पास रख ल र्जए।
सींत ने कहा-भाई, हमें इस धन-दौलत से क्या मतलब! भक्त बोला-महाराज, आपके
र्सवाय मुझे और कोई सुरर्क्षत एवीं र्वश्वसन य नह ीं र्दखता। कृ पया इसे यह ीं कह ीं रख
ल र्जए। यह सुनकर सींत बोले-ठ क है, यह ीं इसे गडा खोदकर रख दो। भक्त ने वैसा ह
र्कया और त थियात्रा के र्लए र्नकल पड़ा। लौटकर आया तो महात्मा ज से अपन थैल
माींग । महात्मा ज ने कहा-जहाीं तुमने रख थ , वह ीं से खोदकर र्नकाल लो। भक्त ने
थैल र्नकाल ल । प्रसन्न होकर भक्त ने सींत का बहुत गुिगान र्कया लेर्कन सींत पर
प्रशींसा का कोई प्रभाव नह ीं पड़ा। भक्त घर पहुींिा। उसने पत्न को थैल द और नहाने
िला गया। पत्न ने पर्त के लौटने क खुश में लड्डू बनाने का र्नििय र्कया। उसने थैल
में से एक स्वििमुद्रा र्नकाल और लड्डू के र्लए आवश्यक सामग्र बाजार से मींगवा ल ।
भक्त जब स्नान करके लौटा तो उसने स्विि मुद्राएीं र्गन ीं। एक स्विि मुद्रा कम पाकर वह
सन्न रह गया। उसे लगा र्क अवश्य ह सींत ने एक मुद्रा र्नकाल ल है। वह तेज से
आश्रम क ओर भागा। वहाीं पहुींिकर उसने सींत को भला-बुरा कहना प्रारींभ कर र्कया-
Brahmachari Girish Ji
2. अरे ओ पाखींड ! मैं तो तुम्हें पहुींिा हुआ सींत समझता था पर स्विि मुद्रा देखकर तेर भ
न यत खराब हो गई। सींत ने कोई उत्तर नह ीं र्दया। तभ उसक पत्न वहाीं पहुींि । उसने
बताया र्क मुद्रा उसने र्नकाल ल थ । यह सुनकर भक्त लप्तित होकर सींत के िरिोीं
पर र्गर गया। उसने रोते हुए कहा-मुझे क्षमा कर दें। मैंने आपको क्या-क्या कह र्दया।
सींत ने दोनोीं मुर्ियोीं में धूल लेकर कहा-ये है प्रशींसा और ये है र्नींदा। दोनोीं मेरे र्लए धूल
के बराबर हैं। यर्द हृदय को सच्चे आनींद क अनुभूर्त कराना है तो र्नींदा व प्रशींसा के
प्रर्त समभाव उत्पन्न करना होगा और र्नींदा व प्रशींसा क क्षिभींगुरता का ज्ञान प्राि
करना होगा और उस मागि पर िलना होगा जहाीं हम इन कारकोीं का त्याग कर स्वयीं
अपने शर र के भ तर अपन आत्मा से सुख प्राि करें, स्वयीं से साक्षात्कार करें और
अपने मप्तस्तष्क, मन व शर र को लयबद्ध करें। जब हमारा मन, मप्तस्तष्क व शर र
लयबद्ध होगा तो हमारे कमि फल भूत होींगे। हमार ऊजाि का अपव्यय नह ीं होगा, र्विारोीं
में क्रमबद्धता आयेग र्जससे लक्ष्य क प्राप्ति सरल हो जायेग और मन, मप्तस्तष्क और
शर र को एक लय में लाने के र्लये हमें भावात त ध्यान के मागि को अपनाना होगा
क्योींर्क भावात त ध्यान योग शैल से मन, मप्तस्तष्क व शर र में एकरूपता आत है। जब
हम भावत त ध्यान के प्रयोग से इन कारकोीं के प्रभाव से मुक्त होकर भ तर उतरते िले
जाते हैं तब मन आनींद से भरता जाता है। हमें परमआनींद क प्राप्ति हेतु र्कस व्यप्तक्त
या वस्तु क ओर नह ीं देखना होगा और हम भावात त ध्यान के माध्यम से स्वयीं में ह
आनींद को पा जायेंगे।
ब्रह्मचारी निरीश
कु लार्धपर्त, महर्षि महेश योग वैर्दक र्वश्वर्वद्यालय
एवीं महार्नदेशक, महर्षि र्वश्व शाींर्त क वैर्श्वक राजधान
भारत का ब्रह्मस्थान, करौींद , र्जला कटन (पूवि में जबलपुर), मध्य प्रदेश