1. तैि रीयोपिनषद्- भृगुव ली का संि िववरण
Taittirīyopaniṣad- Summary of Bhṛguvalli
Dr. Ajay PalDr. Ajay Pal
Assistant Professor
Department of Yoga
Central University Haryana, Mahendragarh,
Email:Email: ajaypal@cuh.ac.inajaypal@cuh.ac.in, Mobil:, Mobil: 87502999028750299902
2. तावनातावना// INTRODUCTIONINTRODUCTION
इसम ऋिषवर भृगु क परक िज ासा का समाधान
उनके िपता महिष व ण ारा िकया जाता है। वे उ ह
त व ान का बोध कराने के उपरा त, साधना ारा उसेत व ान का बोध कराने के उपरा त, साधना ारा उसे
वयं अनुभव करने के िलए कहते ह। तब वे वयं
अ न, ाण, मन, िव ान और आन द को - प म
अनुभव करते ह।
3. तावनातावना// INTRODUCTIONINTRODUCTION
ऐसा अनुभव हो जाने पर महिष व ण उ ह आशीवाद
देते ह और अ नािद का दु पयोग न करके उसे
सुिनयोिजत प से िवतरण करने क णाली समझातेसुिनयोिजत प से िवतरण करने क णाली समझाते
ह। अ त म परमा मा के ित साधक के भाव और
उसके समतायु उ ार का उ लेख करते ह।
4. पहला-अनुवाक
इस अनुवाक म भृगु वा िण अपने िपता व ण के पास
जाकर ' ' के बारे म पूछते ह। व ण उ ह बताते ह
िक अ न, ाण, च ु, ो , मन और वाणी- ये सभीच ु
क ाि के साधन ह। ये सारे ाणी, िजससे ज म
लेते ह, उसी म लय हो जाते ह। वही ' ' है। उसे
साधना ारा जानने का यास करो। इस कार जानकर
भृगु तप करने चले गये।
5. दूसरा-अनुवाक
तप के बाद उ ह बोध हआ िक 'अ न' ही है;
य िक अ न से ही जीवन है और अ न के न िमलने से
मृ यु को ा जीव अ न (पृ वी) म ही समा जाता है।मृ यु पृ वी
उनके िपता व ण ने भी उनक सोच का समथन िकया,
िक तु अभी और सोचने के िलए कहा। तप से ही ' '
को जाना जा सकता है।
6. तीसरा-अनुवाक
पुन: तप करने के बाद भृगु को बोध हआ िक ' ाण' ही
है; य िक उसी से जीवन है और उसी म जीवन
का लय है। िमलने पर व ण ऋिष ने अपने पु कपु
सोच का समथन िकया, िक तु अभी सोचने के िलए
कहा। तप से ही ' ' को जाना जा सकता है।
7. चौथा-अनुवाक
भृगु ारा पुन: तप या करने पर उ ह बोध हआ िक
'मन' ही है, िक तु व ण ऋिष ने उ ह और तप
करने के िलए कहा िक तप से ही 'त व' को जाना जा
सकता है। तप ही ' ' है।
8. पांचवा-अनुवाक
भृगु ऋिष िफर तप करने लगे। तप के बाद उ ह ने जाना
िक 'िव ान' ही ' ' है। व ण ऋिष ने उसक सोच का
समथन तो िकया, पर उसे और तप करने के िलए कहा।
तप ही ' ' है। उसी से त व को जाना जा सकता है।
9. छठा-अनुवाक
इस बार तप करने के प ात् भृगु मुिन ने जाना िक
'आन द' ही ' ' है। सब ाणी इसी से उ प न होते ह,
जीिवत रहते ह और मृ यु होने पर इसी म समा जाते ह।मृ यु
इस बार व ण ऋिष ने उसे बताया िक वे ' ान' से
पूण हो गये ह। िजस समय साधक ' ' के 'आन द-
व प' को जान जाता है,
10. छठा-अनुवाक
उस समय वह चुर अ न, पाचन-शि , जा, पशु,
वचस तथा महान् क ित से सम न होकर महान्
कहलाता है। ऋिष उ ह बताते ह िक े तम
' िव ा' िकसी यि -िवशेष म ि थत नह है। यह
परम योम (आकाश) म ि थत है। इसे साधना ारा ही
जाना जा सकता है। कोई भी साधक इसे जान सकता
है।
11. सातवां-अनुवाक
ऋिष ने कहा िक अ न क कभी िन दा नह करनी
चािहए। ' ाण' ही अ न है। शरीर म ाण है और यह
शरीर ाण के आ य म है। अ न म ही अ न क
ित ा है। जो साधक इस मम को समझ जाता है, वह
अ न-पाचन क शि , जा, पशु, वचस का ाता
होकर महान् यश को ा करता है।
12. आठवां-अनुवाक
अ न का कभी ितर कार न कर। यह त है। जल अ न
है। तेजस अ न का भोग करता है। तेजस जल म ि थत
है और तेजस म जल क ि थित है। इस कार अ न म
ही अ न िति त है। जो साधक इस रह य को जान
लेता है, वह अ न प म ित त हो जाता है। उसे
सभी सुख, वैभव और यश ा हो जाते ह और वह
महान् हो जाता है।
13. नौवां-अनुवाक
इसीिलए अ न क पैदावार बढ़ाय। पृ वी ही अ न है
और अ न का उ पादन बढ़ाना ही संक प होना
चािहए। आकाश अ न का आधार है, इसीिलए वह
उसका उपभो ा है। पृ वी म आकाश और आकाश म
पृ वी ि थत है। इस कार अ न म ही अ न अिधि त
है। जो साधक इस रह य को जान लेता है, वह यश का
भागी होता है। उसे सम त सुख-वैभव सहज ही
उपल ध हो जाते ह।
14. दसवां-अनुवाक
इस अनुवाक म ऋिष बताते ह िक घर म आये अितिथ
का कभी ितर कार न कर। िजस कार भी बने, अितिथ
का मन से आदर-स कार कर। उसे ेम से भोजन कराय।
आप उसे िजस भाव से भी-ऊं चे, म यम अथवा िन न-
भाव से भोजन कराते ह, आपको वैसा ही अ न ा
होता है। जो इस त य को जानता है, वह अितिथ का
उ म आदर-स कार करता है।
15. दसवां-अनुवाक
वह परमा मा, मनु य क वाणी म शि - प से िव मान
है। वह ाण-अपान म दाता भी है और र क भी है।
वह हाथ म कम करने क शि , पैर म चलने क गित,
गुदा म िवसजन क शि के प म ि थत है। यह
क 'मानुषी स ा' है।
16. दसवां-अनुवाक
• परमा मा अपनी 'दैवी स ा' का दशन वषा ारा,
िव ुत ारा, पशुओं ारा, ह-न क योित ारा,
उप थ म जनन-साम य ारा, वीय और आन द के
ारा अिभ य करता है। वह आकाश म यापक िव
अथवा ा ड के प म ि थत है। वह सबका आधार
रस है। वह सबसे महान् है। वह 'मन' है, वह नमन के
यो य है, वह है, वह आकाश है,
17. दसवां-अनुवाक
• वह मृ यु है, वह सूय है, वह अ नमय आ मा है, वह
ाणमय है, वह मनोमय है, वह िव ानमय है, वह
आन दमय है।
• इस कार जो उसे जान लेता है, वह मननशील, स पूण• इस कार जो उसे जान लेता है, वह मननशील, स पूण
कामनाओं को पूण करे लेने वाला, मय, श ु-
िवनाशक और इि छत भोग को ा करने वाला महान्
आन दमय साधक हो जाता है। सभी लोक म उसका
गमन सहज हो जाता है।
18. दसवां-अनुवाक
• तब उसे आ य होता है िक वह वयं आ मत व अ न
है, आ मा है, यं ही उसे भोग करने वाला है। वही
उसका िनयामक है और वही उसका भो ा है। वही म
है और वही म ा है। वही इस य स य- पहै और वही म ा है। वही इस य स य- प
जगत् का थम उ पि कता है और वही उसको लय
कर जाता है। उसका तेज सूय के समान है। जो साधक
ऐसा अनुभव करने लगता है, वह उसी के अनु प
साम यवान हो जाता है।
19. उपसंहार/Conclusion
तैि रीय उपिनषद के भृगुव ली म यह बताया गया है
िक अ न ही है, ाण ही है, मन ही है,
िव ान ही है, आनंद ही है। इस उपिनषद म
अ न क िनंदा न करने के िलए कहा गया है। अितिथअ न क िनंदा न करने के िलए कहा गया है। अितिथ
का स कार करने क बात कही है । अितिथ का स कार
िजस भाव से िकया जाएगा हम उसी कार से अ न
देगा ।
20. उपसंहार/Conclusion
अपनी अिभ यि को कृित के मा यम से, सूय
के मा यम से, चं मा के मा यम से, ह न के
मा यम से, वाणी के मा यम से कराता है इसिलए
पर कोई अिव ास ना कर। ऐसा इस उपिनषद का कथनपर कोई अिव ास ना कर। ऐसा इस उपिनषद का कथन
है।