2. जीवनी
मतभेद भरा जीवन
धर्म के प्रति
वाणी संग्रह
कबीर के दोहे
3. काशी के इस अक्खड़, ननडर एवं संत कवव का जन्म लहरतारा के पास
सन्१३९८ में ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ। जुलाहा पररवार में पालन
पोषण हुआ, संत रामानंद के शशष्य बने और अलख जगाने लगे।
कबीर सधुक्कड़ी भाषा में ककसी भी सम्प्रदाय और रूढ़िययं की परवाह
ककये बबना खरी बात कहते थे। कबीर ने ढ़िहंदू-मुसलमान सभी समाज
में व्याप्त रूढ़ियवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर ववरोध ककया। कबीर
की वाणी उनके मुखर उपदेश उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावन-
अक्षरी, उलटबासी में देखें जा सकते हैं। गुरु ग्रंथ साहब में उनके २००
पद और २५० सार्खयां हैं। काशी में रचशलत मान्यता है कक जो यहॉ
मरता है उसे मोक्ष राप्त होता है। रूढ़िय के ववरोधी कबीर को यह कै से
मान्य होता। काशी छोड़ मगहर चले गये और सन्१५१८ के आस
पास वहीं देह त्याग ककया। मगहर में कबीर की समाधध है जजसे ढ़िहन्दू
मुसलमान दोनं पूजते हैं।
4. ढ़िहंदी साढ़िहत्य में कबीर का व्यजक्तत्व अनुपम है। गोस्ववामी
तुलसीदास को छोड़ कर इतना मढ़िहमामजडडत व्यजक्तत्व कबीर के
शसवा अन्य ककसी का नहीं है। कबीर की उत्पवि के संबंध में अनेक
ककं वदजन्तयााँ हैं। कु छ लोगं के अनुसार वे जगद्गुरु रामानन्द स्ववामी
के आशीवािद से काशी की एक ववधवा ब्राह्मणी के गभि से उत्पन्न हुए
थे। ब्राह्मणी उस नवजात शशशु को लहरतारा ताल के पास फें क
आयी। उसे नीरु नाम का जुलाहा अपने घर ले आया। उसी ने उसका
पालन-पोषण ककया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया। कनतपय
कबीर पजन्थयं की मान्यता है कक कबीर की उत्पवि काशी में
लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के
रूप में हुई। एक राचीन ग्रंथ के अनुसार ककसी योगी के औरस तथा
रतीनत नामक देवाङ्गना के गभि से भक्तराज रहलाद ही संवत ्१४५५
ज्येष्ठ शुक्ल १५ को कबीर के रूप में रकट हुए थे।
मतभेद भरा जीवन
5. मतभेद भरा जीवन
कु छ लोगं का कहना है कक वे जन्म से मुसलमान थे
और युवावस्वथा में स्ववामी रामानन्द के रभाव से उन्हें
ढ़िहंदू धमि की बातें मालूम हुईं। एक ढ़िदन, एक पहर रात
रहते ही कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़िययं पर धगर
पड़े। रामानन्द जी गंगास्वनान करने के शलये सीढ़िययााँ
उतर रहे थे कक तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़
गया। उनके मुख से तत्काल 'राम-राम' शब्द ननकल
पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्र मान शलया
और रामानन्द जी को अपना गुरु स्ववीकार कर शलया।
6. मतभेद भरा जीवन
कु छ लोगं का कहना है कक वे जन्म से मुसलमान थे
और युवावस्वथा में स्ववामी रामानन्द के रभाव से उन्हें
ढ़िहंदू धमि की बातें मालूम हुईं। एक ढ़िदन, एक पहर रात
रहते ही कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़िययं पर धगर
पड़े। रामानन्द जी गंगास्वनान करने के शलये सीढ़िययााँ
उतर रहे थे कक तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़
गया। उनके मुख से तत्काल 'राम-राम' शब्द ननकल
पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्र मान शलया
और रामानन्द जी को अपना गुरु स्ववीकार कर शलया।
7. धर्म के प्रति
साधु संतं का तो घर में जमावड़ा रहता ही था। कबीर पये-शलखे नहीं थे-
'मशस कागद छू वो नहीं, कलम गही नढ़िहं हाथ।'उन्हंने स्ववयं ग्रंथ नहीं
शलखे, मुाँह से भाखे और उनके शशष्यं ने उसे शलख शलया। आप के
समस्वत ववचारं में रामनाम की मढ़िहमा रनतध्वननत होती है। वे एक ही
ईश्वर को मानते थे और कमिकाडड के घोर ववरोधी थे। अवतार, मूविि,
रोजा, ईद, मसजजद, मंढ़िदर आढ़िद को वे नहीं मानते थे।
कबीर के नाम से शमले ग्रंथं की संख्या शभन्न-शभन्न लेखं के
अनुसार शभन्न-शभन्न है। एच.एच. ववल्सन के अनुसार कबीर के
नाम पर आठ ग्रंथ हैं। ववशप जी.एच. वेस्वटकॉट ने कबीर के ८४
ग्रंथं की सूची रस्वतुत की तो रामदास गौड़ ने 'ढ़िहंदुत्व' में ७१ पुस्वतकें
धगनायी हैं।
8. वाणी संग्रह
कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से रशसद्ध
है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और साखी यह
पंजाबी, राजस्वथानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी,
ब्रजभाषा आढ़िद कई भाषाओं की र्खचड़ी है। कबीर
परमात्मा को शमर, माता, वपता और पनत के रूप में
देखते हैं। यही तो मनुष्य के सवािधधक ननकट रहते हैं।
वे कभी कहते हैं-
'हरिर्ोि पिउ, र्ैं िार् की बहुरिया' िो कभी कहिे
हैं, 'हरि जननी र्ैं बालक िोिा'।
9. कबीि दास जी के दोहे
बुिा जो देखन र्ैं चला, बुिा न
मर्मलया कोय,
जो ढ़िदल खोजा आपना, मुझसे
बुरा न कोय।
अर्म : जब मैं इस संसार में बुराई
खोजने चला तो मुझे कोई बुरा
न शमला. जब मैंने अपने मन में
झााँक कर देखा तो पाया कक
मुझसे बुरा कोई नहीं है.
10. कबीि दास जी के दोहे
साधु ऐसा चाहहए, जैसा सूि सुभाय,
साि-साि को गहह िहै, र्ोर्ा देई उडाय।
अथि : इस संसार में ऐसे सज्जनं की जरूरत
है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है.
जो साथिक को बचा लेंगे और ननरथिक को
उड़ा देंगे.
तिनका कबहुुँ ना तनन्ददये, जो िाुँवन िि
होय,
कबहुुँ उडी आुँखखन िडे, िो िीि घनेिी होय।
अथि : कबीर कहते हैं कक एक छोटे से नतनके
की भी कभी ननंदा न करो जो तुम्प्हारे पांवं के
नीचे दब जाता है. यढ़िद कभी वह नतनका
उड़कर आाँख में आ धगरे तो ककतनी गहरी
पीड़ा होती है !
11. कबीि दास जी के दोहे
धीिे-धीिे िे र्ना, धीिे सब कु छ होय,
र्ाली सींचे सौ घडा, ॠिु आए फल होय।
अथि : मन में धीरज रखने से सब कु छ होता
है. अगर कोई माली ककसी पेड़ को सौ
घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो
ऋतु आने पर ही लगेगा !
र्ाला फे िि जुग भया, फफिा न र्न का फे ि,
कि का र्नका डाि दे, र्न का र्नका फे ि।
अथि : कोई व्यजक्त लम्प्बे समय तक हाथ में
लेकर मोती की माला तो घुमाता है,
पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके
मन की हलचल शांत नहीं होती. कबीर की
ऐसे व्यजक्त को सलाह है कक हाथ की इस
माला को फे रना छोड़ कर मन के मोनतयं
को बदलो या फे रो.
12. कबीि दास जी के दोहे
जाति न िूछो साधु की, िूछ लीन्जये ज्ञान,
र्ोल किो ििवाि का, िडा िहन दो म्यान।
अथि : सज्जन की जानत न पूछ कर उसके ज्ञान
को समझना चाढ़िहए. तलवार का मूल्य होता है
न कक उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल
का.
दोस ििाए देखख करि, चला हसदि हसदि,
अिने याद न आवई, न्जनका आहद न अंि।
अथि : यह मनुष्य का स्ववभाव है कक जब
वह दूसरं के दोष देख कर हंसता है, तब
उसे अपने दोष याद नहीं आते जजनका न आढ़िद
है न अंत.
13. कबीि दास जी के दोहे
न्जन खोजा तिन िाइया, गहिे िानी िैठ,
र्ैं बिुिा बूडन डिा, िहा फकनािे बैठ।
अथि : जो रयत्न करते हैं, वे कु छ न कु छ वैसे ही पा ही
लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे
पानी में जाता है और कु छ ले कर आता है. लेककन
कु छ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से
ककनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कु छ नहीं पाते.
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूि,
अति का भला न बिसना, अति की भली न धूि।
अथि : न तो अधधक बोलना अच्छा है, न ही
जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है. जैसे
बहुत अधधक वषाि भी अच्छी नहीं और बहुत
अधधक धूप भी अच्छी नहीं है.