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सूरदास के पिता रामदास गायक थे। सूरदास के जनमाांध होने के
पिषय में मतभेद है। प्रारांभ में सूरदास आगरा के समीि गऊघाट
िर रहते थे। िह ां उनकी भेंट श्री िल्लभाचायय से हुई और िे उनके
शिष्य बन गए। िल्लभाचायय ने उनको िुष्ष्टमागय में द क्षित कर के
कृ ष्णल ला के िद गाने का आदेि ददया।
सन् 1583 में िारसौल में उनका ननधन हो गया।
(१) सूरसागर - जो सूरदास की प्रशसद्ध रचना है। ष्जसमें
सिा
लाख िद सांग्रदहत थे। ककां तु अब सात-आठ
हजार िद ह शमलते हैं।
(२) सूरसारािल
(३) सादहत्य-लहर - ष्जसमें उनके कू ट िद सांकशलत हैं।
(४) नल-दमयनती
(५) ब्याहलो
ऊधौ , तुम हो अतत बड़भागी ।
अपरस रहत सनेह तगा तैं , नाहहन मन अनुरागी।
पुरइतन पात रहत जल भीतर , ता रस देह न दागी।
ज्यों जल माांह तेल की गागरर , बूँद न ताकौं लागी ।
प्रीतत - नदी में पाूँव न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
'सरदास ' अबला हम भोरी , गुर चाूँिी ज्यों पागी ॥
अतत- बड़ा बड़भागी- भाग्यवान
अपरस- अछता तगा- धागा, बांधन
नहहन- नहीां अनुरागी- प्रेमी
पुरइतन पात- कमाल का पत्ता दागी- धब्बा, दाग
अबला- नारी भोरी- भोली
परागी- मुग्ध होना माांह- में
बोरयौ- डुबोया ज्यौं- जैसे
तै – से ताकौं - उसको
गुर चाूँिी ज्यों फागी- ष्जस प्रकार चीांिी गुड़
में ललपिती है, उसी प्रकार हम कृ टण के
प्रेम मे अनुरक्त है
व्याख्या
प्रस्तुत पद में गोपपयों ने उद्धव के ज्ञान-मागग और योग-साधना को नकारते हुए
उनकी प्रेम-सांबांधी उदासीनता को लक्ष्य कर व्यांग्य ककया है साथ ही भष्क्त-मागग
में अपनी आस्था व्यक्त करते हुए कहा है- हे उद्धव जी! आप बड़े भाग्यशाली हैं
जो प्रेम के बांधन में नहीां बांधे और न आपके मन में ककसी के प्रतत कोई अनुराग
जगा। ष्जस प्रकार जल में रहनेवाले कमल के पत्ते पर एक भी बूँद नहीां
ठहरती,ष्जस प्रकार तेल की गगरी को जल में लभगोने पर उस पानी की एक भी
बूँद नहीां ठहर पाती,ठीक उसी प्रकार आप श्री कृ टण रूपी प्रेम की नदी के साथ रहते
हुए भी उसमें स्नान करने की बात तो दर आप पर तो श्रीकृ टण-प्रेम की एक छीांि
भी नहीां पड़ी। अत: आप भाग्यशाली नहीां हैं क्योंकक हम तो श्रीकृ टण के प्रेम की
नदी में डबती-उतराती रहती हैं। हे उद्धव जी! हमारी दशा तो उस चीांिी के समान
है जो गुड़ के
प्रतत आकपषगत होकर वहाूँ जाती और वहीां पर चचपक जाती है और चाहकर लभ
अपने को अलग नहीां कर पाती और अपने अांततम साूँस तक बस वहीां
चचपके रहती है।
सांदेिा
तनगुगण की उपासना के प्रतत उद्धव की अनुरष्क्त पर
व्यांग्य करते हुए गोपपयों ने कहना चाहा है कक हम आप
जैसे सांसार से पवरक्त नहीां हो सकते। हम साांसाररक हैं।
अत:एक दजे से प्रेम करते हैं। हमारे मन में कृ टण की
भष्क्त और अनुरष्क्त है । कृ टण से अलग हमारी कोई
पहचान नहीां। हम अबलाओां के ललए ज्ञान-मागग बड़ा
कहठन है।
िद - 2
मन की मन ही माूँझ रही ।
कहहए जाइ कौन पै ऊधौ , नाहीां परत कही ।
अवचध अधार आस आवन की , तन - मन पवथा सही।
अब इन जोग सूँदेसतन सुतन-सुतन ,पवरहहतन पवरह दही ।
चाहतत हुती गुहारर ष्जतहहां तैं , उत तैं धार बही ।
'सरदास' अब धीर धरहहां क्यौं , मरजादा न लही ॥
माूँझ- अांदर
अवचध- समय
अधार- आधार
आस- आशा
आवन- आगमन
पवथा- ब्यथा
जोग- योग
पवरहहतन- पवयोग मे जीने वाली
बबरह दही- पवरह की आग मे जल रही है
हुतीां- थीां गुहरर- रक्षा के ललए पुकारना
ष्जतहहां तै- जहाूँ से उत- उधर
धार- योग की प्रबल धारा धीर- धैयग
क्यौं- कै से मरजादा- मयागदा
न लही- नहीां रही परत- दसरों से
धार- योग की धारा न लाही- नहीां रखी
उत तै- वहाूँ से
श्री कृ टण के लमत्र उद्धव जी जब कृ टण का सांदेश सुनाते हैं कक वे
नहीां आ सकते , तब गोपपयों का हृदय मचल उठता है और अधीर
होकर उद्धव से कहती हैं-हे उद्धव जी! हमारे मन की बात तो
हमारे मन में ही रह गई। हम कृ टण से बहुत कु छ कहना चाह
रही थीां, पर अब हम कै से कह पाएूँगी। हे उद्धव जी! जो बातें
हमें के वल और के वल श्री कृ टण से कहनी है, उन बातों को ककसी
और को कहकर सांदेश नहीां भेज सकती। श्री कृ टण ने जाते समय
कहा था कक काम समाप्त कर वे जल्दी ही लौिेंगे। हमारा तन और
मन उनके पवयोग में दुखी है, कफर भी हम उनके वापसी के समय का
इांतजार कर रही थीां ।
मन में बस एक आशा थी कक वे आएूँगे तो हमारे सारे दुख
दर हो जाएूँगे। परन्तु; श्री कृ टण ने हमारे ललए ज्ञान-योग का
सांदेश भेजकर हमें और भी दुखी कर हदया। हम तो पहले ही
दुखी थीां, अब इस सांदेश ने तो हमें कहीां का नहीां छोड़ा। हे
उद्धव जी! हमारे ललए यह पवपदा की घड़ी है,ऐसे में हर कोई
अपने रक्षक को आवाज लगाता है। पर, हमारा दुभागग्य देखखए
कक ऐसी घड़ी में ष्जसे हम पुकारना चाहती हैं, वही हमारे दुख
का कारण है। हे उद्धव जी! प्रेम की मयागदा है कक प्रेम के बदल
प्रेम ही हदया जाए ,पर श्री कृ टण ने हमारे साथ छल ककया
है। उन्होने मयागदा का उल्लांघन ककया है। अत: अब हमारा
धैयग भी जवाब दे रहा है।
सांदेिा
प्रेम का प्रसार बस प्रेम के आदान-प्रदान से ही
सांभव है और यही इसकी मयागदा भी है। प्रेम के
बदले योग का सांदेशा देकर श्री कृ टण ने मयागदा
को तोड़ा,तो उन्हे भी जली-किी सुननी पड़ी। और
प्रेम के बदले योग का पाठ पढ़ानेवाले उद्धव को
भी व्यांग्य और अपमान झेलना पड़ा। अत: ककसी
के प्रेम का अनादर करना अनुचचत है।
िद - 3
हमारे हरर हाररल की लकरी ।
मन - क्रम - वचन नांद - नांदन उर , यह दृढ़ करर पकरी ।
जागत सोवत स्वप्न हदवस - तनलस , कान्ह - कान्ह जकरी ।
सुनत जोग लागत है ऐसो , ज्यौं करूई ककरी ।
सु तौ ब्याचध हमकौं लै आए , देखी सुनी न करी ।
यह तौ 'सर' ततनहहां लै सौंपौ , ष्जनके मन चकरी ।।
हरर हाररल
हरर- श्री कृ टण
हाररल- एक पक्षी जो अपने पैरों मे सदैव एक लकड़ी
ललए रेहता है
लकरी- लकड़ी क्रम- कमग
नन्द-नन्दन - कृ टण पकरी- पकड़ी
तनलस- रात उर- हृदय
जकरी- रिती रहती है सु- वह
करुई- कड़वी
ब्याचध- रोग, पीड़ा पाहुचाने वाली वस्तु
करी- भोगा ततनहहां – उनको
मन चकरी- ष्जनका मन ष्स्थर नहीां होता
व्याख्या
महाकपव सरदास द्वारा रचचत ‘सरसागर’ के पाूँचवें खण्ड
से उद्धॄत इस पद में गोपपयों ने उद्धव के योग-
सन्देश
के प्रतत अरुचच हदखाते हुए कृ टण के प्रतत अपनी
अनन्य भष्क्त को व्यक्त ककया है। गोपपयाूँ कहती हैं
कक हे उद्धव ! कृ टण तो हमारे ललये हाररल पक्षी की
लकड़ी की तरह हैं। जैसे हाररल पक्षी उड़ते वक्त
अपने पैरों मे कोई लकड़ी या ततनका थामे रहता
है और उसे पवश्वास होता है कक यह लकड़ी
उसे चगरने नहीां देगी , ठीक उसी प्रकार
कृ टण भी हमारे जीवन के आधार हैं ।
हमने मन कमग और वचन से नन्द बाबा
के पुत्र कृ टण को अपना माना है। अब तो सोते-जागते
या सपने में हदन-रात हमारा मन बस कृ टण-कृ टण
का जाप करते रहता है। हे उद्धव! हम कृ टण की
दीवानी गोपपयों को तुम्हारा यह योग-सन्देश कड़वी
ककड़ी के समान त्याज्य लग रहा है। हमें तो कृ टण-
प्रेम का रोग लग चुका है, अब हम तुम्हारे कहने पर
योग का रोग नहीां लगा सकतीां क्योंकक हमने तो इसके
बारे में न कभी सुना, न देखा और न कभी इसको
भोगा ही है। हमारे ललये यह ज्ञान-मागग सवगथा
अनजान है। अत: आप ऎसे लोगों को इसका ज्ञान
बाूँहिए ष्जनका मन चांचल है अथागत जो ककसी एक के
प्रतत आस्थावान नहीां हैं।
सनदेिा
भष्क्त और आस्था तनतान्त व्यष्क्तगत भाव हैं।
अत: इसके मागग और पद्धतत का चुनाव भी व्यष्क्तगत
ही होता है। ककसी पर अपने पवचार थोपना या
अपनी पद्धतत को ही श्रेटठ कहना और अन्य को
व्यथग बताना तकग -सांगत नहीां होता । प्रेम कोई
व्यापार नहीां है ष्जसमें हातन-लाभ की चचन्ता की जाय ।
पद - 4
हरर हैं राजनीतत पहि आए ।
समुझी बात कहत मधुकर के , समाचार सब पाए ।
इक अतत चतुर हुतै पहहलें हीां , अब गुरुग्रांथ पिाए ।
बढ़ी बुद्चध जानी जो उनकी , जोग सूँदेस पठाए ।
ऊधौ लोग भले आगे के , पर हहत डोलत धाए ।
अब अपने मन फे र पाईहें , चलत जु हुते चुराए ।
तें क्यौं अनीतत करें आपुन ,जे और अनीतत छु ड़ाए ।
राज धरम तो यहै ' सर ' , जो प्रजा न जाहहां सताए ॥
पहढ़ आए- सीख आए समुझी- समझ
मधुकर- उद्धव के ललए गोपपयों द्वारा प्रयुक्त सांबोधन
हुतै- थे गुरुग्रांथ- राजनीतत रूपी ग्रांथ
पठाए- भेजा आगे के - पहले के
पर हहत- दसरों के कल्याण के ललए
डोलत धाए- घमते कफरते हुए
फे र- कफर से पाईहें- पा लेंगी
आपुन- स्वांय जे – जो
अनीतत- अन्याय
जाहहां सताए- सताया जाए
व्याख्या
उद्धव द्वारा कृ टण के सन्देश को सुनकर तथा उनके
मांतव्य को जानकर गोपपयों को बहुत दुख हुआ।
गोपपयाूँ बात करती हुई व्यांग्यपवगक कहती हैं कक वे
तो पहले से ही बहुत चतुर - चालाक थे । अब
राजनीततक कारण से मथुरा गये हैं तो शायद
राजनीतत शास्त्र मे भी महारत हालसल कर ली है और
हमारे साथ ही राजनीतत कर रहे हैं। वहाूँ जाकर शायद
उनकी बुद्चध बढ़ गई है तभी तो हमारे बारे में सब
कु छ
जानते हुए भी उन्होंने हमारे पास उद्धव से योग का
सन्देश भेजा है।
उद्धव जी का इसमे कोई दोष नहीां। वे तो अगले ज़माने
के आदमी की तरह दसरों के कल्याण करने में ही आनन्द
का अनुभव करते हैं। हे उद्धव जी यहद कृ टणा ने हमसे
दर
रहने का तनणगय ललया है तो हम भी कोई मरे नहीां जा
रहे है। आप जाकर कहहएगा की यहा से मथुरा जाते वक़्त
श्री कृ टण हमारे मन भी अपने साथ ले गए थे। हमारे मन
भी उनही के साथ है। उसे वे आपस कर दे। अत्याचारी
का दमन कर प्रजा को अत्याचार से मुष्क्त हदलाने
के ललए वे मथुरा गए थे।
हे उद्धव जी! यहद कृ टण ने हमसे दर रहने
का
तनणगय ले ही ललया है तो हम भी कोई मरे
नही जा रहीां। आप जाकर कहहएगा कक यहाूँ
से मथुरा जाते वक्त श्रीकृ टण हमारा मन भी
अपने साथ ले गए थे। हमारा मन तो उन्हीां के
साथ है ; उसे वे वापस कर दें। अत्याचारी
का दमन कर प्रजा को अत्याचार से
मुष्क्त हदलाने के ललए वे मथुरा गए थे।
सन्देशा
गोपपयों ने अपनी बातों से जताया है कक वे
कृ टण से अलग हो ही नहीां सकतीां। उनका मन सदा
कृ टण मे ही लगा रहता है। गोपपयों ने अगले "जमाने
का आदमी” कहकर उद्धव पर तो व्यांग्य ककया ही है
बात ही बात में उन्होंने श्रीकृ टण को उलाहना भी
हदया है कक योग सन्देश भेजकर उन्होंने
अत्याचार ककया है । मात्र एक लक्ष्य को
पाने के ललए अपनों से मुूँह मोड़ना या भल
जाना बुद्चधमानी नहीां कही जाती। हर
हाल
में अपने धमग का तनवागह करना चाहहए।
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  • 1.
  • 2.
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  • 4.
  • 5.
  • 6. सूरदास के पिता रामदास गायक थे। सूरदास के जनमाांध होने के पिषय में मतभेद है। प्रारांभ में सूरदास आगरा के समीि गऊघाट िर रहते थे। िह ां उनकी भेंट श्री िल्लभाचायय से हुई और िे उनके शिष्य बन गए। िल्लभाचायय ने उनको िुष्ष्टमागय में द क्षित कर के कृ ष्णल ला के िद गाने का आदेि ददया। सन् 1583 में िारसौल में उनका ननधन हो गया।
  • 7. (१) सूरसागर - जो सूरदास की प्रशसद्ध रचना है। ष्जसमें सिा लाख िद सांग्रदहत थे। ककां तु अब सात-आठ हजार िद ह शमलते हैं। (२) सूरसारािल (३) सादहत्य-लहर - ष्जसमें उनके कू ट िद सांकशलत हैं। (४) नल-दमयनती (५) ब्याहलो
  • 8.
  • 9. ऊधौ , तुम हो अतत बड़भागी । अपरस रहत सनेह तगा तैं , नाहहन मन अनुरागी। पुरइतन पात रहत जल भीतर , ता रस देह न दागी। ज्यों जल माांह तेल की गागरर , बूँद न ताकौं लागी । प्रीतत - नदी में पाूँव न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी। 'सरदास ' अबला हम भोरी , गुर चाूँिी ज्यों पागी ॥
  • 10. अतत- बड़ा बड़भागी- भाग्यवान अपरस- अछता तगा- धागा, बांधन नहहन- नहीां अनुरागी- प्रेमी पुरइतन पात- कमाल का पत्ता दागी- धब्बा, दाग अबला- नारी भोरी- भोली परागी- मुग्ध होना माांह- में बोरयौ- डुबोया ज्यौं- जैसे तै – से ताकौं - उसको गुर चाूँिी ज्यों फागी- ष्जस प्रकार चीांिी गुड़ में ललपिती है, उसी प्रकार हम कृ टण के प्रेम मे अनुरक्त है
  • 11. व्याख्या प्रस्तुत पद में गोपपयों ने उद्धव के ज्ञान-मागग और योग-साधना को नकारते हुए उनकी प्रेम-सांबांधी उदासीनता को लक्ष्य कर व्यांग्य ककया है साथ ही भष्क्त-मागग में अपनी आस्था व्यक्त करते हुए कहा है- हे उद्धव जी! आप बड़े भाग्यशाली हैं जो प्रेम के बांधन में नहीां बांधे और न आपके मन में ककसी के प्रतत कोई अनुराग जगा। ष्जस प्रकार जल में रहनेवाले कमल के पत्ते पर एक भी बूँद नहीां ठहरती,ष्जस प्रकार तेल की गगरी को जल में लभगोने पर उस पानी की एक भी बूँद नहीां ठहर पाती,ठीक उसी प्रकार आप श्री कृ टण रूपी प्रेम की नदी के साथ रहते हुए भी उसमें स्नान करने की बात तो दर आप पर तो श्रीकृ टण-प्रेम की एक छीांि भी नहीां पड़ी। अत: आप भाग्यशाली नहीां हैं क्योंकक हम तो श्रीकृ टण के प्रेम की नदी में डबती-उतराती रहती हैं। हे उद्धव जी! हमारी दशा तो उस चीांिी के समान है जो गुड़ के प्रतत आकपषगत होकर वहाूँ जाती और वहीां पर चचपक जाती है और चाहकर लभ अपने को अलग नहीां कर पाती और अपने अांततम साूँस तक बस वहीां चचपके रहती है।
  • 12. सांदेिा तनगुगण की उपासना के प्रतत उद्धव की अनुरष्क्त पर व्यांग्य करते हुए गोपपयों ने कहना चाहा है कक हम आप जैसे सांसार से पवरक्त नहीां हो सकते। हम साांसाररक हैं। अत:एक दजे से प्रेम करते हैं। हमारे मन में कृ टण की भष्क्त और अनुरष्क्त है । कृ टण से अलग हमारी कोई पहचान नहीां। हम अबलाओां के ललए ज्ञान-मागग बड़ा कहठन है।
  • 13.
  • 14. िद - 2 मन की मन ही माूँझ रही । कहहए जाइ कौन पै ऊधौ , नाहीां परत कही । अवचध अधार आस आवन की , तन - मन पवथा सही। अब इन जोग सूँदेसतन सुतन-सुतन ,पवरहहतन पवरह दही । चाहतत हुती गुहारर ष्जतहहां तैं , उत तैं धार बही । 'सरदास' अब धीर धरहहां क्यौं , मरजादा न लही ॥
  • 15. माूँझ- अांदर अवचध- समय अधार- आधार आस- आशा आवन- आगमन पवथा- ब्यथा जोग- योग पवरहहतन- पवयोग मे जीने वाली बबरह दही- पवरह की आग मे जल रही है
  • 16. हुतीां- थीां गुहरर- रक्षा के ललए पुकारना ष्जतहहां तै- जहाूँ से उत- उधर धार- योग की प्रबल धारा धीर- धैयग क्यौं- कै से मरजादा- मयागदा न लही- नहीां रही परत- दसरों से धार- योग की धारा न लाही- नहीां रखी उत तै- वहाूँ से
  • 17. श्री कृ टण के लमत्र उद्धव जी जब कृ टण का सांदेश सुनाते हैं कक वे नहीां आ सकते , तब गोपपयों का हृदय मचल उठता है और अधीर होकर उद्धव से कहती हैं-हे उद्धव जी! हमारे मन की बात तो हमारे मन में ही रह गई। हम कृ टण से बहुत कु छ कहना चाह रही थीां, पर अब हम कै से कह पाएूँगी। हे उद्धव जी! जो बातें हमें के वल और के वल श्री कृ टण से कहनी है, उन बातों को ककसी और को कहकर सांदेश नहीां भेज सकती। श्री कृ टण ने जाते समय कहा था कक काम समाप्त कर वे जल्दी ही लौिेंगे। हमारा तन और मन उनके पवयोग में दुखी है, कफर भी हम उनके वापसी के समय का इांतजार कर रही थीां ।
  • 18. मन में बस एक आशा थी कक वे आएूँगे तो हमारे सारे दुख दर हो जाएूँगे। परन्तु; श्री कृ टण ने हमारे ललए ज्ञान-योग का सांदेश भेजकर हमें और भी दुखी कर हदया। हम तो पहले ही दुखी थीां, अब इस सांदेश ने तो हमें कहीां का नहीां छोड़ा। हे उद्धव जी! हमारे ललए यह पवपदा की घड़ी है,ऐसे में हर कोई अपने रक्षक को आवाज लगाता है। पर, हमारा दुभागग्य देखखए कक ऐसी घड़ी में ष्जसे हम पुकारना चाहती हैं, वही हमारे दुख का कारण है। हे उद्धव जी! प्रेम की मयागदा है कक प्रेम के बदल प्रेम ही हदया जाए ,पर श्री कृ टण ने हमारे साथ छल ककया है। उन्होने मयागदा का उल्लांघन ककया है। अत: अब हमारा धैयग भी जवाब दे रहा है।
  • 19. सांदेिा प्रेम का प्रसार बस प्रेम के आदान-प्रदान से ही सांभव है और यही इसकी मयागदा भी है। प्रेम के बदले योग का सांदेशा देकर श्री कृ टण ने मयागदा को तोड़ा,तो उन्हे भी जली-किी सुननी पड़ी। और प्रेम के बदले योग का पाठ पढ़ानेवाले उद्धव को भी व्यांग्य और अपमान झेलना पड़ा। अत: ककसी के प्रेम का अनादर करना अनुचचत है।
  • 20.
  • 21. िद - 3 हमारे हरर हाररल की लकरी । मन - क्रम - वचन नांद - नांदन उर , यह दृढ़ करर पकरी । जागत सोवत स्वप्न हदवस - तनलस , कान्ह - कान्ह जकरी । सुनत जोग लागत है ऐसो , ज्यौं करूई ककरी । सु तौ ब्याचध हमकौं लै आए , देखी सुनी न करी । यह तौ 'सर' ततनहहां लै सौंपौ , ष्जनके मन चकरी ।।
  • 23. हरर- श्री कृ टण हाररल- एक पक्षी जो अपने पैरों मे सदैव एक लकड़ी ललए रेहता है लकरी- लकड़ी क्रम- कमग नन्द-नन्दन - कृ टण पकरी- पकड़ी तनलस- रात उर- हृदय जकरी- रिती रहती है सु- वह करुई- कड़वी ब्याचध- रोग, पीड़ा पाहुचाने वाली वस्तु करी- भोगा ततनहहां – उनको मन चकरी- ष्जनका मन ष्स्थर नहीां होता
  • 24. व्याख्या महाकपव सरदास द्वारा रचचत ‘सरसागर’ के पाूँचवें खण्ड से उद्धॄत इस पद में गोपपयों ने उद्धव के योग- सन्देश के प्रतत अरुचच हदखाते हुए कृ टण के प्रतत अपनी अनन्य भष्क्त को व्यक्त ककया है। गोपपयाूँ कहती हैं कक हे उद्धव ! कृ टण तो हमारे ललये हाररल पक्षी की लकड़ी की तरह हैं। जैसे हाररल पक्षी उड़ते वक्त अपने पैरों मे कोई लकड़ी या ततनका थामे रहता है और उसे पवश्वास होता है कक यह लकड़ी उसे चगरने नहीां देगी , ठीक उसी प्रकार कृ टण भी हमारे जीवन के आधार हैं ।
  • 25. हमने मन कमग और वचन से नन्द बाबा के पुत्र कृ टण को अपना माना है। अब तो सोते-जागते या सपने में हदन-रात हमारा मन बस कृ टण-कृ टण का जाप करते रहता है। हे उद्धव! हम कृ टण की दीवानी गोपपयों को तुम्हारा यह योग-सन्देश कड़वी ककड़ी के समान त्याज्य लग रहा है। हमें तो कृ टण- प्रेम का रोग लग चुका है, अब हम तुम्हारे कहने पर योग का रोग नहीां लगा सकतीां क्योंकक हमने तो इसके बारे में न कभी सुना, न देखा और न कभी इसको भोगा ही है। हमारे ललये यह ज्ञान-मागग सवगथा अनजान है। अत: आप ऎसे लोगों को इसका ज्ञान बाूँहिए ष्जनका मन चांचल है अथागत जो ककसी एक के प्रतत आस्थावान नहीां हैं।
  • 26. सनदेिा भष्क्त और आस्था तनतान्त व्यष्क्तगत भाव हैं। अत: इसके मागग और पद्धतत का चुनाव भी व्यष्क्तगत ही होता है। ककसी पर अपने पवचार थोपना या अपनी पद्धतत को ही श्रेटठ कहना और अन्य को व्यथग बताना तकग -सांगत नहीां होता । प्रेम कोई व्यापार नहीां है ष्जसमें हातन-लाभ की चचन्ता की जाय ।
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  • 28. पद - 4 हरर हैं राजनीतत पहि आए । समुझी बात कहत मधुकर के , समाचार सब पाए । इक अतत चतुर हुतै पहहलें हीां , अब गुरुग्रांथ पिाए । बढ़ी बुद्चध जानी जो उनकी , जोग सूँदेस पठाए । ऊधौ लोग भले आगे के , पर हहत डोलत धाए । अब अपने मन फे र पाईहें , चलत जु हुते चुराए । तें क्यौं अनीतत करें आपुन ,जे और अनीतत छु ड़ाए । राज धरम तो यहै ' सर ' , जो प्रजा न जाहहां सताए ॥
  • 29. पहढ़ आए- सीख आए समुझी- समझ मधुकर- उद्धव के ललए गोपपयों द्वारा प्रयुक्त सांबोधन हुतै- थे गुरुग्रांथ- राजनीतत रूपी ग्रांथ पठाए- भेजा आगे के - पहले के पर हहत- दसरों के कल्याण के ललए डोलत धाए- घमते कफरते हुए फे र- कफर से पाईहें- पा लेंगी आपुन- स्वांय जे – जो अनीतत- अन्याय जाहहां सताए- सताया जाए
  • 30. व्याख्या उद्धव द्वारा कृ टण के सन्देश को सुनकर तथा उनके मांतव्य को जानकर गोपपयों को बहुत दुख हुआ। गोपपयाूँ बात करती हुई व्यांग्यपवगक कहती हैं कक वे तो पहले से ही बहुत चतुर - चालाक थे । अब राजनीततक कारण से मथुरा गये हैं तो शायद राजनीतत शास्त्र मे भी महारत हालसल कर ली है और हमारे साथ ही राजनीतत कर रहे हैं। वहाूँ जाकर शायद उनकी बुद्चध बढ़ गई है तभी तो हमारे बारे में सब कु छ जानते हुए भी उन्होंने हमारे पास उद्धव से योग का सन्देश भेजा है।
  • 31. उद्धव जी का इसमे कोई दोष नहीां। वे तो अगले ज़माने के आदमी की तरह दसरों के कल्याण करने में ही आनन्द का अनुभव करते हैं। हे उद्धव जी यहद कृ टणा ने हमसे दर रहने का तनणगय ललया है तो हम भी कोई मरे नहीां जा रहे है। आप जाकर कहहएगा की यहा से मथुरा जाते वक़्त श्री कृ टण हमारे मन भी अपने साथ ले गए थे। हमारे मन भी उनही के साथ है। उसे वे आपस कर दे। अत्याचारी का दमन कर प्रजा को अत्याचार से मुष्क्त हदलाने के ललए वे मथुरा गए थे।
  • 32.
  • 33. हे उद्धव जी! यहद कृ टण ने हमसे दर रहने का तनणगय ले ही ललया है तो हम भी कोई मरे नही जा रहीां। आप जाकर कहहएगा कक यहाूँ से मथुरा जाते वक्त श्रीकृ टण हमारा मन भी अपने साथ ले गए थे। हमारा मन तो उन्हीां के साथ है ; उसे वे वापस कर दें। अत्याचारी का दमन कर प्रजा को अत्याचार से मुष्क्त हदलाने के ललए वे मथुरा गए थे।
  • 34. सन्देशा गोपपयों ने अपनी बातों से जताया है कक वे कृ टण से अलग हो ही नहीां सकतीां। उनका मन सदा कृ टण मे ही लगा रहता है। गोपपयों ने अगले "जमाने का आदमी” कहकर उद्धव पर तो व्यांग्य ककया ही है बात ही बात में उन्होंने श्रीकृ टण को उलाहना भी हदया है कक योग सन्देश भेजकर उन्होंने अत्याचार ककया है । मात्र एक लक्ष्य को पाने के ललए अपनों से मुूँह मोड़ना या भल जाना बुद्चधमानी नहीां कही जाती। हर हाल में अपने धमग का तनवागह करना चाहहए।