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सपनों क
े -से दिन !!
लेखक:गुरियाल ससिंह
बचपन में भले ही सभी सोचते हों की काश! हम बडे होते तो
ककतना अच्छा होता। परन्तु जब सच में बडे हो जाते हैं, तो उसी
बचपन की यािों को याि कर-करक
े खुश हो जाते हैं। बचपन में
बहुत सी ऐसी बातें होती हैं जो उस समय समझ में नहीिं आती
क्योंकक उस समय सोच का िायरा सीसमत होता है। और ऐसा भी
कई बार होता है कक जो बातें बचपन में बुरी लगती है वही बातें
समझ आ जाने क
े बाि सही साबबत होती हैं।प्रस्तुत पाठ में भी
लेखक अपने बचपन की यािों का जजक्र कर रहा है कक ककस
तरह से वह और उसक
े साथी स्क
ू ल क
े दिनों में मस्ती करते थे
और वे अपने अध्यापकों से ककतना डरते थे। बचपन में लेखक
अपने अध्यापक क
े व्यवहार को नहीिं समझ पाया था उसी का
वर्णन लेखक ने इस पाठ में ककया है।
क्या आपने ककसी
बच्चे को स्क
ू ल क
े
नाम से डरकर
भागते हुए िेखा है ?
यदि हााँ, तो उसक
े
बारे में बताइए ।
पाठ सार!!
लेखक कहते है कक उसक
े
बचपन में उसक
े साथ
खेलने वाले बच्चों का हाल
भी उसी की तरह होता था।
सभी क
े पााँव निंगे, फटी-
मैली सी कच्छी और कई
जगह से फटे क
ु ते , जजनक
े
बटन टूटे हुए होते थे और
सभी क
े बाल बबखरे हुए
होते थे।
जब सभी खेल कर, धूल से सलपटे हुए, कई जगह
से पााँव में छाले सलए, घुटने और टखने क
े बीच
का टााँग क
े पीछे मााँस वाले भाग पर खून क
े
ऊपर जमी हुई रेत-समट्टी से लथपथ पपिंडसलयााँ ले
कर अपने-अपने घर जाते तो सभी की मााँ-बहनें
उन पर तरस नहीिं खाती बजकक उकटा और ज्यािा
पीट िेतीिं। कई बच्चों क
े पपता तो इतने गुस्से
वाले होते कक जब बच्चे को पीटना शुरू करते तो
यह भी ध्यान नहीिं रखते कक छोटे बच्चे क
े नाक-
मुाँह से लहू बहने लगा है और ये भी नहीिं पूछते
कक उसे चोट कहााँ लगी है। परन्तु इतनी बुरी
पपटाई होने पर भी िूसरे दिन सभी बच्चे कफर से
खेलने क
े सलए चले आते। लेखक कहते है कक यह
बात लेखक को तब समझ आई जब लेखक स्क
ू ल
अध्यापक बनने क
े सलए प्रसशक्षर् ले रहा था।
वहााँ लेखक ने बच्चों क
े मन क
े पवज्ञान का पवषय
पढा था।
लेखक कहते है कक बचपन में ककसी को भी स्क
ू ल क
े
उस कमरे में बैठ कर पढ़ाई करऩा ककसी क
ै द से कम
नहीीं लगत़ा थ़ा। बचपन में घ़ास ज्य़ाद़ा हरी और फ
ू लों
की सुगींध बहुत ज्य़ाद़ा मन को लुभ़ाने व़ाली लगती
है। लेखक कहते है की उस समय स्क
ू ल की छोटी
क्य़ाररयों में फ
ू ल भी कई तरह क
े उग़ाए ज़ाते थे
जजनमें गुल़ाब, गेंद़ा और मोततय़ा की दूध-सी सफ
े द
कललय़ााँ भी हुआ करतीीं थीीं। ये कललय़ााँ इतनी सूींदर
और खुशबूद़ार होती थीीं कक लेखक और उनक
े स़ाथी
चपऱासी से छ
ु प-छ
ु प़ा कर कभी-कभी क
ु छ फ
ू ल तोड़
ललय़ा करते थे। परन्तु लेखक को अब यह य़ाद नहीीं
कक कफर उन फ
ू लों क़ा वे क्य़ा करते थे। लेखक कहते
है कक श़ायद वे उन फ
ू लों को य़ा तो जेब में ड़ाल लेते
होंगे और म़ााँ उसे धोने क
े समय तनक़ालकर ब़ाहर
फ
ें क देती होगी य़ा लेखक और उनक
े स़ाथी खुद ही,
स्क
ू ल से ब़ाहर आते समय उन्हें बकरी क
े मेमनों की
तरह ख़ा य़ा 'चर' ज़ाय़ा करते होगें।
लेखक कहते है कक उसक
े समय में स्क
ू लों में, स़ाल क
े शुरू
में एक-डेढ महीऩा ही पढ़ाई हुआ करती थी, कफर डेढ-दो
महीने की छ
ु टटय़ााँ शुरू हो ज़ाती थी। हर स़ाल ही छ
ु टटयों
में लेखक अपनी म़ााँ क
े स़ाथ अपनी ऩानी क
े घर चले
ज़ात़ा थ़ा। वह़ााँ ऩानी खूब दूध-दहीीं, मक्खन खखल़ाती, बहुत
ज्य़ाद़ा प्य़ार करती थी। दोपहर तक तो लेखक और उनक
े
स़ाथी उस त़ाल़ाब में नह़ाते कफर ऩानी से जो उनक़ा जी
करत़ा वह म़ााँगकर ख़ाने लगते। लेखक कहते है कक जजस
स़ाल वह ऩानी क
े घर नहीीं ज़ा प़ात़ा थ़ा, उस स़ाल लेखक
अपने घर से दूर जो त़ाल़ाब थ़ा वह़ााँ ज़ाय़ा करत़ा थ़ा।
लेखक और उसक
े स़ाथी कपड़े उत़ार कर प़ानी में क
ू द
ज़ाते, कफर प़ानी से तनकलकर भ़ागते हुए एक रेतीले टीले
पर ज़ाकर रेत क
े ऊपर लोटने लगते कफर गीले शरीर को
गमम रेत से खूब लथपथ करक
े कफर उसी ककसी ऊ
ाँ ची
जगह ज़ाकर वह़ााँ से त़ाल़ाब में छल़ााँग लग़ा देते थे। लेखक
कहते है कक उसे यह य़ाद नहीीं है कक वे इस तरह दौड़ऩा,
रेत में लोटऩा और कफर दौड़ कर त़ाल़ाब में क
ू द ज़ाने क़ा
लसललसल़ा प़ााँच-दस ब़ार करते थे य़ा पींद्रह-बीस ब़ार।
लेखक कहते है कक जैसे-जैसे उनकी
छ
ु ट्दटयों क
े दिन ख़त्म होने लगते तो वे
लोग दिन गगनने शुरू कर िेते थे। डर क
े
कारर् लेखक और उसक
े साथी खेल-क
ू ि क
े
साथ-साथ तालाब में नहाना भी भूल जाते।
अध्यापकों ने जो काम छ
ु ट्दटयों में करने
क
े सलए दिया होता था, उसको क
ै से करना
है इस बारे में सोचने लगते। काम न
ककया होने क
े कारर् स्क
ू ल में होने वाली
पपटाई का डर अब और ज्यािा बढने
लगता। लेखक बताता है कक उसक
े ककतने
ही सहपाठी ऐसे भी होते थे जो छ
ु ट्दटयों
का काम करने क
े बजाय अध्यापकों की
पपटाई अगधक 'सस्ता सौिा' समझते। ऐसे
समय में लेखक और उसक
े साथी का सबसे
बडा 'नेता' ओमा हुआ करता था।
ओम़ा की ब़ातें, ग़ाललय़ााँ और
उसकी म़ार-पपट़ाई क़ा ढींग सभी से
बहुत अलग थ़ा। वह देखने में भी
सभी से बहुत अलग थ़ा। उसक़ा
मटक
े क
े जजतऩा बड़़ा लसर थ़ा, जो
उसक
े च़ार ब़ाललश्त (ढ़ाई फ
ु ट) क
े
छोटे कद क
े शरीर पर ऐस़ा लगत़ा
थ़ा जैसे बबल्ली क
े बच्चे क
े म़ाथे
पर तरबूज रख़ा हो।बड़े लसर पर
ऩाररयल जैसी आाँखों व़ाल़ा उसक़ा
चेहऱा बींदररय़ा क
े बच्चे जैस़ा और
भी अजीब लगत़ा थ़ा। जब भी
लड़़ाई होती थी तो वह अपने ह़ाथ-
प़ााँव क़ा प्रयोग नहीीं करत़ा थ़ा,
वह अपने लसर से ही लड़़ाई ककय़ा
करत़ा थ़ा।
लेखक कहते है कक वह जजस स्क
ू ल में पढत़ा थ़ा वह
स्क
ू ल बहुत छोट़ा थ़ा। उसमें क
े वल छोटे-छोटे नौ कमरे
थे, जो अींग्रेजी क
े अक्षर एच (H) की तरह बने हुए थे।
द़ाईं ओर क़ा पहल़ा कमऱा हेडम़ास्टर श्री मदनमोहन
शम़ाम जी क़ा थ़ा। स्क
ू ल की प्रेयर (प्ऱाथमऩा) क
े समय वह
ब़ाहर आते थे और सीधी पींजक्तयों में कद क
े अनुस़ार
खड़े लड़कों को देखकर उनक
े गोऱा चेहरे पर खुशी स़ाफ
ही टदख़ाई देती थी।म़ास्टर प्रीतम चींद जो स्क
ू ल क
े
'पीटी' थे, वे लड़कों की पींजक्तयों क
े पीछे खड़े-खड़े यह
देखते रहते थे कक कौन स़ा लड़क़ा पींजक्त में ठीक से
नहीीं खड़़ा है। उनकी धमकी भरी ड़ााँट तथ़ा ल़ात-घुस्से क
े
डर से लेखक और लेखक क
े स़ाथी पींजक्त क
े पहले और
आखरी लड़क
े क़ा ध्य़ान रखते, सीधी पींजक्त में बने रहने
की पूरी कोलशश करते थे। म़ास्टर प्रीतम चींद बहुत ही
सख्त अध्य़ापक थे। परन्तु हेडम़ास्टर शम़ाम जी उनक
े
बबलक
ु ल उलट स्वभ़ाव क
े थे। वह प़ााँचवीीं और आठवीीं
कक्ष़ा को अींग्रेजी स्वयीं पढ़ाय़ा करते थे। ककसी को भी
य़ाद नहीीं थ़ा कक प़ााँचवी कक्ष़ा में कभी भी उन्होंने
हेडम़ास्टर शम़ाम जी को ककसी गलती क
े क़ारण ककसी को
म़ारते य़ा ड़ााँटते देख़ा य़ा सूऩा हो।
लेखक कहते है कक बचपन में स्क
ू ल
जाना बबलक
ु ल भी अच्छा नहीिं
लगता था परन्तु एक-िो कारर्ों क
े
कारर् कभी-कभी स्क
ू ल जाना
अच्छा भी लगने लगता था। मास्टर
प्रीतमससिंह जब परेड करवाते और
मुाँह में सीटी ले कर लेफ्ट-राइट की
आवाज़ ननकालते हुए माचण करवाया
करते थे। कफर जब वे राइट टनण या
लेफ्ट टानण या अबाऊट टनण कहते
तो सभी पवद्याथी अपने छोटे-छोटे
जूतों की एडडयों पर िाएाँ-बाएाँ या
एकिम पीछे मुडकर जूतों की ठक-
ठक करते और ऐसे घमिंड क
े साथ
चलते जैसे वे सभी पवद्याथी न हो
कर, बहुत महत्वपूर्ण 'आिमी' हों,
जैसे ककसी िेश का फौज़ी जवान
होता है ।
स्काउदटिंग करते हुए कोई भी पवद्याथी कोई गलती न करता
तो पीटी साहब अपनी चमकीली आाँखें हलक
े से झपकाते और
सभी को शाबाश कहते। उनकी एक शाबाश लेखक और उसक
े
सागथयों को ऐसे लगने लगती जैसे उन्होंने ककसी फौज क
े
सभी पिक या मैडल जीत सलए हों।
लेखक कहते है कक हर स़ाल जब वह
अगली कक्ष़ा में प्रवेश करत़ा तो उसे
पुऱानी पुस्तक
ें लमल़ा करतीीं थी। उसक
े
स्क
ू ल क
े हेडम़ास्टर शम़ाम जी एक धतन
घर क
े लड़क
े को उसक
े घर ज़ा कर
पढ़ाय़ा करते थे। हर स़ाल अप्रैल में जब
पढ़ाई क़ा नय़ा स़ाल आरम्भ होत़ा थ़ा
तो शम़ाम जी उस लड़क
े की एक स़ाल
पुऱानी पुस्तक
ें लेखक क
े ललए ले आते
थे। लेखक क
े घर में ककसी को भी
पढ़ाई में कोई रूचच नहीीं थी। यटद नयी
ककत़ाबें ल़ानी पड़तीीं तो श़ायद इसी
बह़ाने लेखक की पढ़ाई तीसरी-चौथी
कक्ष़ा में ही छ
ू ट ज़ाती।
दूसरे पवश्व युद्ध क़ा समय थ़ा, परन्तु हम़ारी ऩाभ़ा
ररय़ासत क़ा ऱाज़ा अींग्रेजों ने 1923 में चगरफ़्त़ार कर ललय़ा
थ़ा और तलमलऩाडु में कोड़ाएक
े ऩाल में ही, जींग शुरू होने
से पहले उसक़ा देह़ाींत हो गय़ा थ़ा। उस ऱाज़ा क़ा बेट़ा,
कहते थे अभी पवल़ायत में पढ रह़ा थ़ा। इसललए हम़ारे
देसी ररय़ासत में भी अींग्रेज की ही चलती थी कफर भी
ऱाज़ा क
े न रहते, अींग्रेज हम़ारी ररय़ासत क
े ग़ााँवों से
'जबरन' भरती नहीीं कर प़ाय़ा थ़ा। लोगो को फौज में भती
करने क
े ललए जब क
ु छ अफसर आते तो उनक
े स़ाथ क
ु छ
नौटींकी व़ाले भी हुआ करते। वे ऱात को खुले मैद़ान में
श़ालमय़ाने लग़ाकर लोगों को फौज क
े सुख-आऱाम, बह़ादुरी
क
े दृश्य टदख़ाकर आकपषमत ककय़ा करते। उनक़ा एक ग़ाऩा
अभी भी य़ाद है। क
ु छ मसखरे अजीब सी वटदमय़ााँ पहने
और अच्छे, बड़े फौजी बूट पहने ग़ाय़ा करते- भरती हो जा
रे रिंगरूट भरती हो जा रे…अठे समले सैं टूटे लीतर,उठै समलैंिे
बूट,भरती हो जा रे,हो जा रे रिंगरूट।अठे पहन सै फटे
पुरार्े..उठै समलेंगे सूट,भरती हो जा रे,हो जा रे
रिंगरूट।इन्हीीं स़ारी ब़ातों की वजह से क
ु छ नौजव़ान फौज
में भरती होने क
े ललए तैय़ार भी हो ज़ाय़ा करते थे।
लेखक कहते है कक उन्होंने कभी भी म़ास्टर प्रीतमचींद
को स्क
ू ल क
े समय में मुस्क
ु ऱाते य़ा हाँसते नहीीं देख़ा
थ़ा। उनक़ा छोट़ा कद, दुबल़ा-पतल़ा परन्तु पुष्ट शरीर,
म़ात़ा क
े द़ानों से भऱा चेहऱा य़ातन चेचक क
े द़ागों से
भऱा चेहऱा और ब़ाज सी तेज आाँखें, ख़ाकी वदी, चमड़े
क
े चौड़े पींजों व़ाले जूत-ये सभी चीजे बच्चों को
भयभीत करने व़ाली होती थी। लेखक अपनी पूरी
जजन्दगी में उस टदन को कभी नहीीं भूल प़ाय़ा जजस
टदन म़ास्टर प्रीतमचींद लेखक की चौथी कक्ष़ा को
फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। अभी उन्हें पढते हुए एक
सप्त़ाह भी नहीीं हुआ होग़ा कक प्रीतमचींद ने उन्हें एक
शब्दरूप य़ाद करने को कह़ा और आज्ञ़ा दी कक कल
इसी घींटी में क
े वल जुब़ान क
े द्व़ाऱा ही सुनेंगे। दूसरे
टदन म़ास्टर प्रीतमचींद ने ब़ारी-ब़ारी सबको सुऩाने क
े
ललए कह़ा तो एक भी लड़क़ा न सुऩा प़ाय़ा। म़ास्टर
जी ने गुस्से में चचल्ल़ाकर सभी पवद्य़ाथी को क़ान
पकड़कर पीठ ऊ
ाँ ची रखने को कह़ा। जब लेखक की
कक्ष़ा को सज़ा दी ज़ा रही थी तो उसक
े क
ु छ समय
पहले शम़ाम जी स्क
ू ल में नहीीं थे।
आते ही जो क
ु छ उन्होंने देख़ा वह सहन नहीीं कर प़ाए। श़ायद यह
पहल़ा अवसर थ़ा कक उन्होंने पीटी प्रीतमचींद की उस असभ्यत़ा एवीं
जींगलीपन को सहन नहीीं ककय़ा और वह भड़क गए थे। लेखक
कहते है कक जजस टदन से हेडम़ास्टर शम़ाम जी ने पीटी प्रीतमचींद
को तनलींबबत ककय़ा थ़ा उस टदन क
े ब़ाद यह पत़ा होते हुए भी कक
पीटी प्रीतमचींद को जब तक ऩाभ़ा से ड़ायरेक्टर 'बह़ाल' नहीीं करेंगें
तब तक वह स्क
ू ल में कदम नहीीं रख सकते, कफर भी जब भी
फ़ारसी की घींटी बजती तो लेखक की और उसकी कक्ष़ा क
े सभी
बच्चों की छ़ाती धक्-धक् करने लगती और लगत़ा जैसे छ़ाती
फटने व़ाली हो।लेखक कहत़ा है कक कई सप्त़ाह तक पीटी म़ास्टर
स्क
ू ल नहीीं आए। लेखक और उसक
े स़ाचथयों को पत़ा चल़ा कक
ब़ाज़ार में एक दूक़ान क
े ऊपर उन्होंने जो छोटी-छोटी खखड़ककयों
व़ाल़ा चौब़ाऱा (वह कमऱा जजसमें च़ारों और से खखड़ककय़ााँ और
दरव़ाजें हों) ककऱाए पर ले रख़ा थ़ा, पीटी म़ास्टर वहीीं आऱाम से रह
रहे थे। क
ु छ स़ातवीीं-आठवीीं क
े पवद्य़ाथी लेखक और उसक
े स़ाचथयों
को बत़ाय़ा करते थे कक उन्हें तनष्क़ालसत होने की थोड़ी सी भी
चचींत़ा नहीीं थी।
जजस तरह वह पहले आराम से पपिंजरे में
रखे िो तोतों को दिन में कई बार,
सभगोकर रखे बािामों की गगररयों का
नछलका उतारकर खखलाते थे, वे आज भी
उसी तरह से रह रहे हैं। लेखक और उसक
े
सागथयों क
े सलए यह चमत्कार ही था कक
जो प्रीतमचिंि पट्टी या डिंडे से मार-मारकर
पवद्यागथणयों की चमडी तक उधेड िेते, वह
अपने तोतों से मीठी-मीठी बातें क
ै से कर
लेते थे। लेखक स्वयिं में सोच रहा था कक
क्या तोतों को उनकी आग की तरह जलती,
भूरी आाँखों से डर नहीिं लगता होगा। लेखक
और उसक
े सागथयों की समझ में ऐसी बातें
तब नहीिं आ पाती थीिं, क्योंकक तब वे बहुत
छोटे हुआ करते थे। वे तो बस पीटी मास्टर
क
े इस रूप को एक तरह से अद्भुत ही
मानते थे।
चररत्र चचत्रण : (म़ास्टर प्रीतम चींद)
लेखक का सहपाठी (ओमा )
हेडमास्टर (शमाण जी )
पवद्यागथणयों को
अनुशासन में रखने
क
े सलए पाठ में
अपनाई गई युजक्तयों
और वतणमान में
स्वीकृ त मान्यताओिं
क
े सिंबिंध में अपने
पवचार प्रकट कीजजए।
धन्यवाि !!!

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  • 1. सपनों क े -से दिन !! लेखक:गुरियाल ससिंह
  • 2. बचपन में भले ही सभी सोचते हों की काश! हम बडे होते तो ककतना अच्छा होता। परन्तु जब सच में बडे हो जाते हैं, तो उसी बचपन की यािों को याि कर-करक े खुश हो जाते हैं। बचपन में बहुत सी ऐसी बातें होती हैं जो उस समय समझ में नहीिं आती क्योंकक उस समय सोच का िायरा सीसमत होता है। और ऐसा भी कई बार होता है कक जो बातें बचपन में बुरी लगती है वही बातें समझ आ जाने क े बाि सही साबबत होती हैं।प्रस्तुत पाठ में भी लेखक अपने बचपन की यािों का जजक्र कर रहा है कक ककस तरह से वह और उसक े साथी स्क ू ल क े दिनों में मस्ती करते थे और वे अपने अध्यापकों से ककतना डरते थे। बचपन में लेखक अपने अध्यापक क े व्यवहार को नहीिं समझ पाया था उसी का वर्णन लेखक ने इस पाठ में ककया है।
  • 3. क्या आपने ककसी बच्चे को स्क ू ल क े नाम से डरकर भागते हुए िेखा है ? यदि हााँ, तो उसक े बारे में बताइए ।
  • 4. पाठ सार!! लेखक कहते है कक उसक े बचपन में उसक े साथ खेलने वाले बच्चों का हाल भी उसी की तरह होता था। सभी क े पााँव निंगे, फटी- मैली सी कच्छी और कई जगह से फटे क ु ते , जजनक े बटन टूटे हुए होते थे और सभी क े बाल बबखरे हुए होते थे।
  • 5. जब सभी खेल कर, धूल से सलपटे हुए, कई जगह से पााँव में छाले सलए, घुटने और टखने क े बीच का टााँग क े पीछे मााँस वाले भाग पर खून क े ऊपर जमी हुई रेत-समट्टी से लथपथ पपिंडसलयााँ ले कर अपने-अपने घर जाते तो सभी की मााँ-बहनें उन पर तरस नहीिं खाती बजकक उकटा और ज्यािा पीट िेतीिं। कई बच्चों क े पपता तो इतने गुस्से वाले होते कक जब बच्चे को पीटना शुरू करते तो यह भी ध्यान नहीिं रखते कक छोटे बच्चे क े नाक- मुाँह से लहू बहने लगा है और ये भी नहीिं पूछते कक उसे चोट कहााँ लगी है। परन्तु इतनी बुरी पपटाई होने पर भी िूसरे दिन सभी बच्चे कफर से खेलने क े सलए चले आते। लेखक कहते है कक यह बात लेखक को तब समझ आई जब लेखक स्क ू ल अध्यापक बनने क े सलए प्रसशक्षर् ले रहा था। वहााँ लेखक ने बच्चों क े मन क े पवज्ञान का पवषय पढा था।
  • 6.
  • 7. लेखक कहते है कक बचपन में ककसी को भी स्क ू ल क े उस कमरे में बैठ कर पढ़ाई करऩा ककसी क ै द से कम नहीीं लगत़ा थ़ा। बचपन में घ़ास ज्य़ाद़ा हरी और फ ू लों की सुगींध बहुत ज्य़ाद़ा मन को लुभ़ाने व़ाली लगती है। लेखक कहते है की उस समय स्क ू ल की छोटी क्य़ाररयों में फ ू ल भी कई तरह क े उग़ाए ज़ाते थे जजनमें गुल़ाब, गेंद़ा और मोततय़ा की दूध-सी सफ े द कललय़ााँ भी हुआ करतीीं थीीं। ये कललय़ााँ इतनी सूींदर और खुशबूद़ार होती थीीं कक लेखक और उनक े स़ाथी चपऱासी से छ ु प-छ ु प़ा कर कभी-कभी क ु छ फ ू ल तोड़ ललय़ा करते थे। परन्तु लेखक को अब यह य़ाद नहीीं कक कफर उन फ ू लों क़ा वे क्य़ा करते थे। लेखक कहते है कक श़ायद वे उन फ ू लों को य़ा तो जेब में ड़ाल लेते होंगे और म़ााँ उसे धोने क े समय तनक़ालकर ब़ाहर फ ें क देती होगी य़ा लेखक और उनक े स़ाथी खुद ही, स्क ू ल से ब़ाहर आते समय उन्हें बकरी क े मेमनों की तरह ख़ा य़ा 'चर' ज़ाय़ा करते होगें।
  • 8.
  • 9. लेखक कहते है कक उसक े समय में स्क ू लों में, स़ाल क े शुरू में एक-डेढ महीऩा ही पढ़ाई हुआ करती थी, कफर डेढ-दो महीने की छ ु टटय़ााँ शुरू हो ज़ाती थी। हर स़ाल ही छ ु टटयों में लेखक अपनी म़ााँ क े स़ाथ अपनी ऩानी क े घर चले ज़ात़ा थ़ा। वह़ााँ ऩानी खूब दूध-दहीीं, मक्खन खखल़ाती, बहुत ज्य़ाद़ा प्य़ार करती थी। दोपहर तक तो लेखक और उनक े स़ाथी उस त़ाल़ाब में नह़ाते कफर ऩानी से जो उनक़ा जी करत़ा वह म़ााँगकर ख़ाने लगते। लेखक कहते है कक जजस स़ाल वह ऩानी क े घर नहीीं ज़ा प़ात़ा थ़ा, उस स़ाल लेखक अपने घर से दूर जो त़ाल़ाब थ़ा वह़ााँ ज़ाय़ा करत़ा थ़ा। लेखक और उसक े स़ाथी कपड़े उत़ार कर प़ानी में क ू द ज़ाते, कफर प़ानी से तनकलकर भ़ागते हुए एक रेतीले टीले पर ज़ाकर रेत क े ऊपर लोटने लगते कफर गीले शरीर को गमम रेत से खूब लथपथ करक े कफर उसी ककसी ऊ ाँ ची जगह ज़ाकर वह़ााँ से त़ाल़ाब में छल़ााँग लग़ा देते थे। लेखक कहते है कक उसे यह य़ाद नहीीं है कक वे इस तरह दौड़ऩा, रेत में लोटऩा और कफर दौड़ कर त़ाल़ाब में क ू द ज़ाने क़ा लसललसल़ा प़ााँच-दस ब़ार करते थे य़ा पींद्रह-बीस ब़ार।
  • 10.
  • 11. लेखक कहते है कक जैसे-जैसे उनकी छ ु ट्दटयों क े दिन ख़त्म होने लगते तो वे लोग दिन गगनने शुरू कर िेते थे। डर क े कारर् लेखक और उसक े साथी खेल-क ू ि क े साथ-साथ तालाब में नहाना भी भूल जाते। अध्यापकों ने जो काम छ ु ट्दटयों में करने क े सलए दिया होता था, उसको क ै से करना है इस बारे में सोचने लगते। काम न ककया होने क े कारर् स्क ू ल में होने वाली पपटाई का डर अब और ज्यािा बढने लगता। लेखक बताता है कक उसक े ककतने ही सहपाठी ऐसे भी होते थे जो छ ु ट्दटयों का काम करने क े बजाय अध्यापकों की पपटाई अगधक 'सस्ता सौिा' समझते। ऐसे समय में लेखक और उसक े साथी का सबसे बडा 'नेता' ओमा हुआ करता था।
  • 12. ओम़ा की ब़ातें, ग़ाललय़ााँ और उसकी म़ार-पपट़ाई क़ा ढींग सभी से बहुत अलग थ़ा। वह देखने में भी सभी से बहुत अलग थ़ा। उसक़ा मटक े क े जजतऩा बड़़ा लसर थ़ा, जो उसक े च़ार ब़ाललश्त (ढ़ाई फ ु ट) क े छोटे कद क े शरीर पर ऐस़ा लगत़ा थ़ा जैसे बबल्ली क े बच्चे क े म़ाथे पर तरबूज रख़ा हो।बड़े लसर पर ऩाररयल जैसी आाँखों व़ाल़ा उसक़ा चेहऱा बींदररय़ा क े बच्चे जैस़ा और भी अजीब लगत़ा थ़ा। जब भी लड़़ाई होती थी तो वह अपने ह़ाथ- प़ााँव क़ा प्रयोग नहीीं करत़ा थ़ा, वह अपने लसर से ही लड़़ाई ककय़ा करत़ा थ़ा।
  • 13. लेखक कहते है कक वह जजस स्क ू ल में पढत़ा थ़ा वह स्क ू ल बहुत छोट़ा थ़ा। उसमें क े वल छोटे-छोटे नौ कमरे थे, जो अींग्रेजी क े अक्षर एच (H) की तरह बने हुए थे। द़ाईं ओर क़ा पहल़ा कमऱा हेडम़ास्टर श्री मदनमोहन शम़ाम जी क़ा थ़ा। स्क ू ल की प्रेयर (प्ऱाथमऩा) क े समय वह ब़ाहर आते थे और सीधी पींजक्तयों में कद क े अनुस़ार खड़े लड़कों को देखकर उनक े गोऱा चेहरे पर खुशी स़ाफ ही टदख़ाई देती थी।म़ास्टर प्रीतम चींद जो स्क ू ल क े 'पीटी' थे, वे लड़कों की पींजक्तयों क े पीछे खड़े-खड़े यह देखते रहते थे कक कौन स़ा लड़क़ा पींजक्त में ठीक से नहीीं खड़़ा है। उनकी धमकी भरी ड़ााँट तथ़ा ल़ात-घुस्से क े डर से लेखक और लेखक क े स़ाथी पींजक्त क े पहले और आखरी लड़क े क़ा ध्य़ान रखते, सीधी पींजक्त में बने रहने की पूरी कोलशश करते थे। म़ास्टर प्रीतम चींद बहुत ही सख्त अध्य़ापक थे। परन्तु हेडम़ास्टर शम़ाम जी उनक े बबलक ु ल उलट स्वभ़ाव क े थे। वह प़ााँचवीीं और आठवीीं कक्ष़ा को अींग्रेजी स्वयीं पढ़ाय़ा करते थे। ककसी को भी य़ाद नहीीं थ़ा कक प़ााँचवी कक्ष़ा में कभी भी उन्होंने हेडम़ास्टर शम़ाम जी को ककसी गलती क े क़ारण ककसी को म़ारते य़ा ड़ााँटते देख़ा य़ा सूऩा हो।
  • 14. लेखक कहते है कक बचपन में स्क ू ल जाना बबलक ु ल भी अच्छा नहीिं लगता था परन्तु एक-िो कारर्ों क े कारर् कभी-कभी स्क ू ल जाना अच्छा भी लगने लगता था। मास्टर प्रीतमससिंह जब परेड करवाते और मुाँह में सीटी ले कर लेफ्ट-राइट की आवाज़ ननकालते हुए माचण करवाया करते थे। कफर जब वे राइट टनण या लेफ्ट टानण या अबाऊट टनण कहते तो सभी पवद्याथी अपने छोटे-छोटे जूतों की एडडयों पर िाएाँ-बाएाँ या एकिम पीछे मुडकर जूतों की ठक- ठक करते और ऐसे घमिंड क े साथ चलते जैसे वे सभी पवद्याथी न हो कर, बहुत महत्वपूर्ण 'आिमी' हों, जैसे ककसी िेश का फौज़ी जवान होता है ।
  • 15. स्काउदटिंग करते हुए कोई भी पवद्याथी कोई गलती न करता तो पीटी साहब अपनी चमकीली आाँखें हलक े से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। उनकी एक शाबाश लेखक और उसक े सागथयों को ऐसे लगने लगती जैसे उन्होंने ककसी फौज क े सभी पिक या मैडल जीत सलए हों।
  • 16. लेखक कहते है कक हर स़ाल जब वह अगली कक्ष़ा में प्रवेश करत़ा तो उसे पुऱानी पुस्तक ें लमल़ा करतीीं थी। उसक े स्क ू ल क े हेडम़ास्टर शम़ाम जी एक धतन घर क े लड़क े को उसक े घर ज़ा कर पढ़ाय़ा करते थे। हर स़ाल अप्रैल में जब पढ़ाई क़ा नय़ा स़ाल आरम्भ होत़ा थ़ा तो शम़ाम जी उस लड़क े की एक स़ाल पुऱानी पुस्तक ें लेखक क े ललए ले आते थे। लेखक क े घर में ककसी को भी पढ़ाई में कोई रूचच नहीीं थी। यटद नयी ककत़ाबें ल़ानी पड़तीीं तो श़ायद इसी बह़ाने लेखक की पढ़ाई तीसरी-चौथी कक्ष़ा में ही छ ू ट ज़ाती।
  • 17. दूसरे पवश्व युद्ध क़ा समय थ़ा, परन्तु हम़ारी ऩाभ़ा ररय़ासत क़ा ऱाज़ा अींग्रेजों ने 1923 में चगरफ़्त़ार कर ललय़ा थ़ा और तलमलऩाडु में कोड़ाएक े ऩाल में ही, जींग शुरू होने से पहले उसक़ा देह़ाींत हो गय़ा थ़ा। उस ऱाज़ा क़ा बेट़ा, कहते थे अभी पवल़ायत में पढ रह़ा थ़ा। इसललए हम़ारे देसी ररय़ासत में भी अींग्रेज की ही चलती थी कफर भी ऱाज़ा क े न रहते, अींग्रेज हम़ारी ररय़ासत क े ग़ााँवों से 'जबरन' भरती नहीीं कर प़ाय़ा थ़ा। लोगो को फौज में भती करने क े ललए जब क ु छ अफसर आते तो उनक े स़ाथ क ु छ नौटींकी व़ाले भी हुआ करते। वे ऱात को खुले मैद़ान में श़ालमय़ाने लग़ाकर लोगों को फौज क े सुख-आऱाम, बह़ादुरी क े दृश्य टदख़ाकर आकपषमत ककय़ा करते। उनक़ा एक ग़ाऩा अभी भी य़ाद है। क ु छ मसखरे अजीब सी वटदमय़ााँ पहने और अच्छे, बड़े फौजी बूट पहने ग़ाय़ा करते- भरती हो जा रे रिंगरूट भरती हो जा रे…अठे समले सैं टूटे लीतर,उठै समलैंिे बूट,भरती हो जा रे,हो जा रे रिंगरूट।अठे पहन सै फटे पुरार्े..उठै समलेंगे सूट,भरती हो जा रे,हो जा रे रिंगरूट।इन्हीीं स़ारी ब़ातों की वजह से क ु छ नौजव़ान फौज में भरती होने क े ललए तैय़ार भी हो ज़ाय़ा करते थे।
  • 18. लेखक कहते है कक उन्होंने कभी भी म़ास्टर प्रीतमचींद को स्क ू ल क े समय में मुस्क ु ऱाते य़ा हाँसते नहीीं देख़ा थ़ा। उनक़ा छोट़ा कद, दुबल़ा-पतल़ा परन्तु पुष्ट शरीर, म़ात़ा क े द़ानों से भऱा चेहऱा य़ातन चेचक क े द़ागों से भऱा चेहऱा और ब़ाज सी तेज आाँखें, ख़ाकी वदी, चमड़े क े चौड़े पींजों व़ाले जूत-ये सभी चीजे बच्चों को भयभीत करने व़ाली होती थी। लेखक अपनी पूरी जजन्दगी में उस टदन को कभी नहीीं भूल प़ाय़ा जजस टदन म़ास्टर प्रीतमचींद लेखक की चौथी कक्ष़ा को फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। अभी उन्हें पढते हुए एक सप्त़ाह भी नहीीं हुआ होग़ा कक प्रीतमचींद ने उन्हें एक शब्दरूप य़ाद करने को कह़ा और आज्ञ़ा दी कक कल इसी घींटी में क े वल जुब़ान क े द्व़ाऱा ही सुनेंगे। दूसरे टदन म़ास्टर प्रीतमचींद ने ब़ारी-ब़ारी सबको सुऩाने क े ललए कह़ा तो एक भी लड़क़ा न सुऩा प़ाय़ा। म़ास्टर जी ने गुस्से में चचल्ल़ाकर सभी पवद्य़ाथी को क़ान पकड़कर पीठ ऊ ाँ ची रखने को कह़ा। जब लेखक की कक्ष़ा को सज़ा दी ज़ा रही थी तो उसक े क ु छ समय पहले शम़ाम जी स्क ू ल में नहीीं थे।
  • 19. आते ही जो क ु छ उन्होंने देख़ा वह सहन नहीीं कर प़ाए। श़ायद यह पहल़ा अवसर थ़ा कक उन्होंने पीटी प्रीतमचींद की उस असभ्यत़ा एवीं जींगलीपन को सहन नहीीं ककय़ा और वह भड़क गए थे। लेखक कहते है कक जजस टदन से हेडम़ास्टर शम़ाम जी ने पीटी प्रीतमचींद को तनलींबबत ककय़ा थ़ा उस टदन क े ब़ाद यह पत़ा होते हुए भी कक पीटी प्रीतमचींद को जब तक ऩाभ़ा से ड़ायरेक्टर 'बह़ाल' नहीीं करेंगें तब तक वह स्क ू ल में कदम नहीीं रख सकते, कफर भी जब भी फ़ारसी की घींटी बजती तो लेखक की और उसकी कक्ष़ा क े सभी बच्चों की छ़ाती धक्-धक् करने लगती और लगत़ा जैसे छ़ाती फटने व़ाली हो।लेखक कहत़ा है कक कई सप्त़ाह तक पीटी म़ास्टर स्क ू ल नहीीं आए। लेखक और उसक े स़ाचथयों को पत़ा चल़ा कक ब़ाज़ार में एक दूक़ान क े ऊपर उन्होंने जो छोटी-छोटी खखड़ककयों व़ाल़ा चौब़ाऱा (वह कमऱा जजसमें च़ारों और से खखड़ककय़ााँ और दरव़ाजें हों) ककऱाए पर ले रख़ा थ़ा, पीटी म़ास्टर वहीीं आऱाम से रह रहे थे। क ु छ स़ातवीीं-आठवीीं क े पवद्य़ाथी लेखक और उसक े स़ाचथयों को बत़ाय़ा करते थे कक उन्हें तनष्क़ालसत होने की थोड़ी सी भी चचींत़ा नहीीं थी।
  • 20. जजस तरह वह पहले आराम से पपिंजरे में रखे िो तोतों को दिन में कई बार, सभगोकर रखे बािामों की गगररयों का नछलका उतारकर खखलाते थे, वे आज भी उसी तरह से रह रहे हैं। लेखक और उसक े सागथयों क े सलए यह चमत्कार ही था कक जो प्रीतमचिंि पट्टी या डिंडे से मार-मारकर पवद्यागथणयों की चमडी तक उधेड िेते, वह अपने तोतों से मीठी-मीठी बातें क ै से कर लेते थे। लेखक स्वयिं में सोच रहा था कक क्या तोतों को उनकी आग की तरह जलती, भूरी आाँखों से डर नहीिं लगता होगा। लेखक और उसक े सागथयों की समझ में ऐसी बातें तब नहीिं आ पाती थीिं, क्योंकक तब वे बहुत छोटे हुआ करते थे। वे तो बस पीटी मास्टर क े इस रूप को एक तरह से अद्भुत ही मानते थे।
  • 21. चररत्र चचत्रण : (म़ास्टर प्रीतम चींद)
  • 24. पवद्यागथणयों को अनुशासन में रखने क े सलए पाठ में अपनाई गई युजक्तयों और वतणमान में स्वीकृ त मान्यताओिं क े सिंबिंध में अपने पवचार प्रकट कीजजए।