4. व्यतचध पररचय -
प्रमेह ममथ्यत आहतर ववहतर से उत्पन्न ववक्रत त्रिदोष क
े द्वतरत होने वतले ववमिष् लक्षण समूह वतली
जह्ल व्यतचध है।
आचतयों ने इसे महतगद मतनत है।
“ प्रकषेण प्रर्ूतं मूित्यतगं करोती यस्स्मन रोगे सत प्रमेह:”।। (मत. नन.)
मूि की मतित में वृद्चध होती है तथत मूि प्रवृवि की बहुलतत होती है
इस मलए इस व्यतचध को प्रमेह कहते हैं।
5. ननरुस्तत-
प्रमेह शब्द प्र उपसर्व पूर्वक ममहक्षिणे िािु से घञ् प्रत्यय कििे पि बिा है क्िसका अर्व है प्रभूि
मात्रा में वर्क्रि मूत्र का त्यार् कििा।
प्रमेह कत इनतहतस -
दक्ष प्रजतपनत क
े यज्ञ कत ववध्वंस हो जतने क
े बतद र्यर्ीत हुए प्रतणणयों में अफरततफरी
मच गई। र्गदड़ मचने, तैरने, र्तगने, क
ू दने लतंघने जैसी िरीर को पीडित करने
वतली घ्नतएं हो गयी। तत्पश्चतत उत्पन्न धततु क्षोर् को ितंत करने क
े मलए ककए
गए घृत पतन से प्रमेह की उत्पवि हो गयी।
14. प्रमेह क
े पूवारूप -
1.अनतस्वेद
2. िरीर से ववस्िगंध आनत
3. मिचथलतंगतत
4. नेि, कतन, स्जह्वत, दताँत क
े मलों की अचधकतत
5. िीतल द्रव्यों की अचधक कतमनत
6. िरीर व मूि में चींह्यों कत लगनत
7. हस्त, पतद तथत तल में दतह
8. आलस्य
9. िरीर में र्तरीपन
10.तन्द्रत
15. प्रमेह क
े सतमतन्य लक्षण
“सतमतन्यम ्लक्षण तेषतम प्रर्ुत अववल मूितत”।।
प्रचुि मात्रा में िर्ा प्रभुि मात्रा में मूत्र निर्वमि
अवर्ल मूत्रिा
श्र्ेि िर्ा घि मूत्र की प्रर्ृवि
अकस्माि्मूत्र निर्वमि
शिीि िाढ्यिा
16. सतध्य असतध्यतत :
1. समकक्रयत होने से कफ़ज प्रमेह सतध्य होते हैं अथतात्समतन गुण वतले मेद क
े
आश्रय होने से, कफ की प्रधतनतत से तथत दोष दूषयों की समतन
चचककत्सत से दसों कफज प्रमेह सतध्य होते हैं.
2. ववषम कक्रय होने से वपिज प्रमेह यतप्य होते हैं।
3. दोष व दूषयों की चचककत्सत ववरुद्ध होने से वतततज प्रमेह असतध्य होतत है।
4. उपद्रवों से युतत प्रमेह असतध्य होतत है।