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आत्मत्राण
मूल रचना (बंगला) - रव ंद्रनाथ ठाक
ु र
अनुवाद (हिन्द ) - आचार्य िजार प्रसाद हिवेद
सामान्य प्राथयना कहवताओं में मनुष्य अपन रक्षा क
े हलए
तथा सुख-समृद्धि क
े हलए ईश्वर से प्राथयना करता िै; हक
ं तु
र्ि प्राथयना (आत्मत्राण) अन्य प्राथयनाओं से हबल्क
ु ल हिन्न
िै क्यंहक इसमें कहव ईश्वर क मदद नि ं चािता बद्धल्क
अपन रक्षा खुद करना चािता िै।
रव ंद्रनाथ ठाक
ु र
जन्म- १८६१ मृत्यु – १९४१
हिक्षा-द क्षा – घर पर स्वाध्यार्
पररवार – बंगाल का संपन्न पररवार
रुहच – हचत्रकला, संग त िावनृत्य, प्रक
ृ हत से लगाव
स्थापना – िांहत हनक
े तन में द्धस्थत हवश्विारत हवश्वहवद्यालर् ( िैहक्षक और
सांस्क
ृ हतक संस्था )
रचनाएँ – लयक संस्क
ृ हत का स्वर प्रमुख
‘ग त ंजहल’ क
े हलए नयबल पुरस्कार
नैवेद्य,पूरब ,बलाका,क्षहणका,हचत्र और सांध्यग त,काबुल वाला।
गयरा,घरेबाइरे(उपन्यास)
पाठ- प्रवेश
तैरना स खने वाले कय पान में कयई उतार तय सकता िै,उसक
े
आस-पास ि बना रि सकता िै, मगर तैरना चािने वाला जब
स्वर्ं िाथ-पाँव चलाता िै ति तैराक बन पाता िै।
पर क्षा देने जाने वाला जाते समर् बड़यं से आि वायद क कामना करता
िै, बड़े आि वायद देते ि िैं, लेहकन पर क्षा तय उसे स्वर्ं ि देन पड़त
िै।
जब दय पिलवान क
ु श्त लड़ते िैं तब उनका उत्साि तय सि दियक
बढ़ाते िैं, इससे उनका मनयबल बढ़्ता िै, मगर क
ु श्त तय उन्हें खुद ि
लड़न पड़त िै।
प्रस्तुत पाठ में कववगुरु मानते हैं वक प्रभु में सब
क
ु छ संभव कर देने की शक्ति होती है , विर भी
वह यह कतई नहीं चाहता वक वही सब क
ु छ कर
दें। कवव कामना करता है वक वकसी भी आपद-
ववपद में , वकसी भी द्वंद्व में सिल होने क
े वलए
संघर्ष वह स्वयं करे, प्रभु को क
ु छ न करना पड़े।
विर आक्तिर वह अपने प्रभु से चाहते क्या हैं?
रव ंद्रनाथ ठाक
ु र क प्रस्तुत कहवता का
बंगला से हिन्द अनुवाद श्रिेर् आचार्य
िजार प्रसाद हिवेद ज ने हकर्ा िै।
हिवेद ज का हिन्द साहित्य कय समृि
करने मे अपूवय र्यगदान िै। र्ि अनुवाद
बताता िै हक अनुवाद क
ै से मूल रचना क
‘आत्मा’ कय अक्षुण्ण बनाए रखने में सक्षम
िै।
हवपदाओं से मुझे बचाओ, र्ि मेर प्राथयना नि ं
क
े वल इतना िय (करुणामर्) कि न हवपदा में पाऊ
ँ िर्
दुुःख-ताप से व्यहथत हचत्त कय न दय सांत्वना नि ं सि
पर इतना ियवे(करुणामर्) दुख कय मैं कर सक
ूँ सदा जर्
कोई कहीं सहायक न वमले तो अपना बल पौरुर् न वहले
हावन उठानी पड़े जगत में लाभ अगर वंचना रही
तो भी मन में ना मानूँ क्षय
मेरा त्राण करो अनुवदन तुम यह मेरी प्रार्षना नहीं
बस इतना होवे (करुणामय) तरने की हो शक्ति अनामय
कष्ट – मुस बत में कयई सिार्क न हमलने पर ि मेर िद्धि कमज़यर न
पड़े। लाि क
े बदले िाहन उठान पड़े तय ि मैं िार न मानूँ।मेर रक्षा करय,
र्ि मेर प्राथयना नि ं िै। बस इतन िद्धि िय हक मैं इस दुख रूप सागर
कय तैरकर पार कर सक
ूँ ।
मेरा भार अगर लघु करक
े न दो सांत्वना नहीं सही
क
े वल इतना रिना अनुनय- वहन कर सक
ूँ इसको वनभषय
नत वशर होकर सुि क
े वदन में तव मुि पहचानूँ वछन-वछन
में।
ज वन क
े दुख रूप िार कय अगर कम न कर सकय तय न सि , मगर
इतन दर्ा करना हक मैं हनियर् ियकर इसे ढय सक
ूँ ।
दुुःख-राहत्र में करे वंचना मेर हजस हदन हनद्धखल मि
उस हदन ऐसा िय करुणामर्, तुम पर करु
ँ नि ं क
ु छ संिर्
गृि-कार्य
• ‘ग तांजहल’ पुस्तकालर् से लेकर पहढ़ए।
• ‘हवश्विारत हवश्वहवद्यालर्’ तथा ‘िांहतहनक
े तन’ क
े बारे में
जानकार एकहत्रत क हजए।
• रव ंद्र संग त संबंध क
ै सेट व स .ड . लेकर सुहनए।

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आत्मत्राण - रवींद्रनाथ ठाकुर

  • 1. आत्मत्राण मूल रचना (बंगला) - रव ंद्रनाथ ठाक ु र अनुवाद (हिन्द ) - आचार्य िजार प्रसाद हिवेद
  • 2. सामान्य प्राथयना कहवताओं में मनुष्य अपन रक्षा क े हलए तथा सुख-समृद्धि क े हलए ईश्वर से प्राथयना करता िै; हक ं तु र्ि प्राथयना (आत्मत्राण) अन्य प्राथयनाओं से हबल्क ु ल हिन्न िै क्यंहक इसमें कहव ईश्वर क मदद नि ं चािता बद्धल्क अपन रक्षा खुद करना चािता िै।
  • 3. रव ंद्रनाथ ठाक ु र जन्म- १८६१ मृत्यु – १९४१ हिक्षा-द क्षा – घर पर स्वाध्यार् पररवार – बंगाल का संपन्न पररवार रुहच – हचत्रकला, संग त िावनृत्य, प्रक ृ हत से लगाव स्थापना – िांहत हनक े तन में द्धस्थत हवश्विारत हवश्वहवद्यालर् ( िैहक्षक और सांस्क ृ हतक संस्था ) रचनाएँ – लयक संस्क ृ हत का स्वर प्रमुख ‘ग त ंजहल’ क े हलए नयबल पुरस्कार नैवेद्य,पूरब ,बलाका,क्षहणका,हचत्र और सांध्यग त,काबुल वाला। गयरा,घरेबाइरे(उपन्यास)
  • 4. पाठ- प्रवेश तैरना स खने वाले कय पान में कयई उतार तय सकता िै,उसक े आस-पास ि बना रि सकता िै, मगर तैरना चािने वाला जब स्वर्ं िाथ-पाँव चलाता िै ति तैराक बन पाता िै।
  • 5. पर क्षा देने जाने वाला जाते समर् बड़यं से आि वायद क कामना करता िै, बड़े आि वायद देते ि िैं, लेहकन पर क्षा तय उसे स्वर्ं ि देन पड़त िै।
  • 6. जब दय पिलवान क ु श्त लड़ते िैं तब उनका उत्साि तय सि दियक बढ़ाते िैं, इससे उनका मनयबल बढ़्ता िै, मगर क ु श्त तय उन्हें खुद ि लड़न पड़त िै।
  • 7. प्रस्तुत पाठ में कववगुरु मानते हैं वक प्रभु में सब क ु छ संभव कर देने की शक्ति होती है , विर भी वह यह कतई नहीं चाहता वक वही सब क ु छ कर दें। कवव कामना करता है वक वकसी भी आपद- ववपद में , वकसी भी द्वंद्व में सिल होने क े वलए संघर्ष वह स्वयं करे, प्रभु को क ु छ न करना पड़े। विर आक्तिर वह अपने प्रभु से चाहते क्या हैं?
  • 8. रव ंद्रनाथ ठाक ु र क प्रस्तुत कहवता का बंगला से हिन्द अनुवाद श्रिेर् आचार्य िजार प्रसाद हिवेद ज ने हकर्ा िै। हिवेद ज का हिन्द साहित्य कय समृि करने मे अपूवय र्यगदान िै। र्ि अनुवाद बताता िै हक अनुवाद क ै से मूल रचना क ‘आत्मा’ कय अक्षुण्ण बनाए रखने में सक्षम िै।
  • 9. हवपदाओं से मुझे बचाओ, र्ि मेर प्राथयना नि ं क े वल इतना िय (करुणामर्) कि न हवपदा में पाऊ ँ िर् दुुःख-ताप से व्यहथत हचत्त कय न दय सांत्वना नि ं सि पर इतना ियवे(करुणामर्) दुख कय मैं कर सक ूँ सदा जर्
  • 10. कोई कहीं सहायक न वमले तो अपना बल पौरुर् न वहले हावन उठानी पड़े जगत में लाभ अगर वंचना रही तो भी मन में ना मानूँ क्षय मेरा त्राण करो अनुवदन तुम यह मेरी प्रार्षना नहीं बस इतना होवे (करुणामय) तरने की हो शक्ति अनामय कष्ट – मुस बत में कयई सिार्क न हमलने पर ि मेर िद्धि कमज़यर न पड़े। लाि क े बदले िाहन उठान पड़े तय ि मैं िार न मानूँ।मेर रक्षा करय, र्ि मेर प्राथयना नि ं िै। बस इतन िद्धि िय हक मैं इस दुख रूप सागर कय तैरकर पार कर सक ूँ ।
  • 11. मेरा भार अगर लघु करक े न दो सांत्वना नहीं सही क े वल इतना रिना अनुनय- वहन कर सक ूँ इसको वनभषय नत वशर होकर सुि क े वदन में तव मुि पहचानूँ वछन-वछन में। ज वन क े दुख रूप िार कय अगर कम न कर सकय तय न सि , मगर इतन दर्ा करना हक मैं हनियर् ियकर इसे ढय सक ूँ ।
  • 12. दुुःख-राहत्र में करे वंचना मेर हजस हदन हनद्धखल मि उस हदन ऐसा िय करुणामर्, तुम पर करु ँ नि ं क ु छ संिर्
  • 13. गृि-कार्य • ‘ग तांजहल’ पुस्तकालर् से लेकर पहढ़ए। • ‘हवश्विारत हवश्वहवद्यालर्’ तथा ‘िांहतहनक े तन’ क े बारे में जानकार एकहत्रत क हजए। • रव ंद्र संग त संबंध क ै सेट व स .ड . लेकर सुहनए।