The Caste System : a natural outcome of development of Civilizations; Challenges and Solutions - giving due importance and respect to Principles and Merits
Karmanyevaadhikaaraste - 3 : The Caste System (वर्ण व्यवस्था) Vanita Thakkar
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कर्मण्येवाधिकारस्ते
(3) वर्म व्यवस्था
वर्ण व्यवस्था का ववकास हर संस्कृ नत में कायण प्रर्ाली और व्यवस्था नियोजित
करिे के ललए होता है । पाश्चात्य संस्कृ नत में भी (ईसाई धमण में) वर्ण व्यवस्था
है :
• ब्राह्मर् : एक्लीजिऐजस्िकल (ecclesiastical) अथाणत् चचण सम्बन्धी प्रीस्ि
(priest) / क्लिी (clergy) वगेरे िैसे पुिारी और अन्य कायणकाररयों का
वगण ।
• क्षत्रिय : शासक और रक्षक वगण – रािा और सैनिक वगेरे ।
• वैश्य : व्यापारी वगण िैसे, ड्रेपर (draper) मािे कपड़े का व्यापारी, ग्रोसर
(grocer) मािे बनिया, वगेरे ।
• शुद्र : ववलभन्ि व्यवसायों के अिुसार लेबर (labour) अथाणत् कारीगर /
श्रमिीवी वगण – मेसि (mason) मािे मकाि बिािे का काम / पत्थर से
भवि निमाणर् का काम करिे वाले या संगतराश, िेलर (tailor) या दिी,
गार्णिर (gardener) या माली, ब्लेक-जस्मथ (black smith) या लोहार,
कापेंिर (carpenter) या बढ़ई (लकड़ी का काम करिे वाले), वगेरे |
वर्ण व्यवस्था सम्बजन्धत समस्याएँ वहाँ भी रही हैं, कदाचचत हमसे भी
अचधक और व्यापक । भारतीय वर्ण व्यवस्था में सामाजिक, वैज्ञानिक और
आध्याजत्मक आधार रहा है । महाभारत में वर्ण व्यवस्था सम्बन्धी
समस्याओं का भी मालमणक निरूपर् है । एकलव्य और कर्ण के िीवि का
संघर्ण वर्ण व्यवस्था के आधार पर िैसचगणक क्षमता की अवमाििा को
प्रनतत्रबजम्बत करता है । धिुववणद्या के प्रनत अदम्य उत्कं ठा िे कर्ण को गुरु
से ब्राह्मर् होिे का झूठ बोलिे को प्रेररत ककया । धोखे से अजिणत की गई
ववद्या िे उसकी गुरु-भजक्त और क्षमता को कलंककत और शावपत ककया ।
इसके उपरांत, कर्ण के आहत आत्मसम्माि और दुयोधि की कु टिलता िे
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मैिी के आत्मघातक स्वरूप को उिागर ककया । कृ ष्र् के िीवि में वर्ण
व्यवस्था की ववसंगतता से उत्पन्ि कई संघर्ण आए, ऐसा उिके िीवि वृत्ांत
/ भागवत आटद ग्रंथ को पढ़िे से पता चलता है । िन्म से क्षत्रिय
रािकु मार, गौ पालकों के वंश में पले, ग्वाले कहलाए …. श्रेष्ठतम कलाकार –
ििवर, मुरलीधर …. सुसंस्कृ त – उत्म संस्कारों से युक्त, िागर कहलाए ….
पूर्ण पुरुर्ोत्म – हर रूप, हर भूलमका में उत्म / श्रेष्ठ …. िीवि के ममण को
श्रीमद् भगवद् गीता द्वारा प्रकालशत ककया, जिसमें हर अध्याय का “योग़” के
रूप में दशणि प्रस्तुत ककया …. । भारतीय वर्ण व्यवस्था में कालक्रम में आई
िड़ता और उससे प्रेररत भेद-भाव की प्रर्ाली का ववदेशी और ववधमी ताकतों
िे भरपूर लाभ उठाया है – आचथणक और रािकीय प्रभुत्व और किर भारतीय
संस्कृ नत और धमण प्रभा को ही लमिा देिे की ववकृ त, घृणर्त लालसा !! हर
प्रर्ाली / व्यवस्था मयाणदाओं से सीलमत होती है, िो पारस्पररकता को संिोए
रखती हैं । उि मयाणदाओं का सम्माि करिा िीवि की गररमा को बिाए
रखिे के ललए आवश्यक है । साथ ही स्थावपत परम्पराओं के िाम पर िड़
नियमों को थोपिा भी मयाणदाओं को अपमानित करते अत्याचार का ही दूसरा
स्वरूप है । कृ ष्र् के िीवि में ये दोिों बातें साथणक होती हैं ।
• श्रीमद् भगवद् गीता के 18 अध्याय के वाताणलाप द्वारा श्री कृ ष्र् िे
अिुणि को कतणव्य-बोध करवाया । और अंत में कहा, यटद उचचत लगे
तो मेरे बताए मागण को अपिाओ । गुरु और सखा होिे के िाते
श्रीकृ ष्र् िे अिुणि को अपिे वचिों को माििे के ललए बाध्य िहीं
ककया । अिुणि क्षत्रिय थे और न्याय / रक्षर् हेतु युद्ध करिा उिका
स्वाभाववक कमण था । अपिे सगे-सम्बजन्धयों को सामिे देखकर मोह-
वश अटहंसा का वास्ता देकर अपिे कतणव्य से मुँह मोड़िा उन्हें अपिे
स्वभाव और धमण से ववमुख कर रहा था । यटद अधमण करिे वाला
कोई सगा-सम्बंधी-लमि ि होता (िैसा कक महाभारत के युद्ध के
समय हुआ था), तो उसे सबक लसखािे का अपिा धमण / कतणव्य वे
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कभी ि चूकते । अटहंसा की आड़ में दुबणलता और कायरता को बढ़ावा
देिा अिुचचत है । गाँधीिी पर ललखी गई एक पुस्तक “गाँधी गंगा”
में एक प्रसंग पढ़ा था – ववभािि के समय औरतों और बच्चों पर हुए
अत्याचार की आँखों-देखी व्यथा की लशकायत करिे और दु:खड़ा रोिे
आए कु छ (का)पुरुर्ों को बापू िे क्रोचधत होकर कहा था कक वे ककस
मुँह से और क्यों उन्हें यह सब बतािे आए हैं ? िब यह सब हो रहा
था तब वे क्यों उिके बचाव में तत्पर ि हुए ? …. पररजस्थनत को
काबू में लािे के ललए हर ककसी की समझ, हर ककसी का तत्काल
योगदाि आवश्यक था …. । बापू िे उन्हें अटहंसा के िाम पर शाबाशी
िहीं दी थी । सत्याग्रह के द्वारा अटहंसक आन्दोलि करके अत्याचारी
शासकों का प्रनतकार करिा टहंसा और युद्ध के त्रबिा समाधाि की
खोि का एक आदशण मागण था – अत्याचारी की अमािुर्ी वृवत्यों को
चुिौती देते हुए, मािो कहा िा रहा हो, कब तक तुम्हारे अन्दर सोए
मिुष्य का दमि करके अत्याचारी बिे रहोगे ? सत्याग्रह के द्वारा
सभ्यता, शालीिता और आत्मगौरव के साथ अपिी बात रखकर
न्यायोचचत अचधकारों की माँग की गई । अपिी बात द्वारा ककसी की
भाविाओं या आत्म-सम्माि को ठेस पहुँचािा भी टहंसा मािा गया है ।
परंतु आपात-कालीि पररजस्थनत में, खासकर मटहलाओं और बच्चों के
रक्षर् हेतु भी प्रनतकार ि करिा निम्ितम कक्षा की कायरता है । इस
संदभण में ववचार आते ही रामायर् के वृद्ध और साहसी ििायु की
वीरता याद आती है । श्रीमद् भगवद् गीता में श्रीकृ ष्र् िे दसवें
अध्याय “ववभूनत योग” में हर ओर इष्ि श्रेष्ठता के रूप में अपिे
अजस्तत्व का दशणि कराया है । िो श्रेष्ठता से, गुर्वत्ा से ही ववमुख
होकर रहिा चाहते हैं – ववचार-वार्ी-वतणि में – उन्हें राम से या कृ ष्र्
से क्या और कै सा सरोकार हो सकता है ? हर परम्परा के मूल में
िीवि के , समाि के उत्कर्ण का, कल्यार् का भाव निटहत होता है ।
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परम्परा के इस मूलभूत आदशण से भिक गए िड़ और स्वाथण-प्रेररत
खोखले कक्रयांवयि का दूर्र् समाि में जिि ववर्मताओं को उत्पन्ि
करता है, उन्हें योग्यता / गुर्वत्ा के प्रनत न्यायोचचत व्यवस्था और
सम्माि के मूल्य स्थावपत करके दूर ककया िा सकता है । अचधकारों
के िाम पर, समािता के िाम पर पारस्पररकता और उससे संबंचधत
आदशों की, गुर्वत्ा की, योग्यता की बलल चढ़ािे का कु चक्र बड़े
पैमािे पर ककतिा घातक और वविाशक होता है, इसका एक उदाहरर्
है - समुचचत अवसर प्रदाि करिे के लक्ष्य को साथणक करिे के ललए
बिी आरक्षर् की व्यवस्था, िो गुर्वत्ा और योग्यता की अवमाििा
और उिके प्रनत अन्याय की पोर्क बि कर रह गई । वह एक ऐसी
प्रर्ाली बि गई जिससे ववववधता में एकता के आदशण को मूनतणमंत
करती हमारी संस्कृ नत को कलुवर्त करती, धमण / िानत / ललंग पर
आधाररत ववर्मताएँ और अचधक ववर्म बि गईं । पररर्ामस्वरूप, वह
समाि पर, राष्र की उन्िनत पर बोझ-रूप एक वविाशक प्रर्ाली
बिकर रह गई । अपिी योग्यता और क्षमता के ललए उचचत,
प्रोत्साहक वातावरर् के अभाव में देश के होिहार िौिवािों का ववदेश-
गमि एक सामान्य और अपेक्षक्षत रुझाि बि गया है । िो लोग
भारत में रहिा पसंद करते हैं, वे अकसर प्रशासनिक, आदशण-लक्षी
संघर्ों में झुलसे हुए टदखाई देते हैं । सवालों / िररयादों और सलाहों
/ अपेक्षाओं के लगातार वार सहिे की ववशेर् अनतररक्त क्षमता होिा
उिके ललए आवश्यक हो िाता है । जिस भूलम पर उत्मोत्म योग्यता
को भी निरालभमािी िम्रता और स्वालभमािी शालीिता से सुशोलभत
करिे का आदशण रहा हो, वहाँ अपिी अक्षमता / दुबणलता का भी
अलभमाि करिा और उसका अिुचचत लाभ लेिा सामान्य हो गया है,
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यह ककतिी दुभाणग्यपूर्ण बात है, इसकी क्या कोई मािा, कोई िाप
निधाणररत ककया िा सकता है ? कम योग्यता के बाविूद लमले पद
और अचधकार के प्रनत धन्य-भाव रखकर उसकी गररमा का सम्माि
हर अवस्था में, हर तरह से बिा रहे यह सुनिजश्चत करिे का मिोबल
क्यों िहीं बि पाया, यह िाििा और समझिा आवश्यक है ।
सत्यनिष्ठा और कमण-निष्ठा हर पद, हर कायण के ललए आवश्यक है –
उिकी डर्ग्री िहीं होती । ईमािदारी के अभाव को दूर करिे के
इंिेक्शि या गोललयाँ िहीं हो सकते । कई लोगों को राष्र-वपता
महात्मा गाँधी को इस समस्या के ललए उत्रदायी / दोर्ी मािते हुए
देखा-सुिा है, िो बेहद दुभाणग्यपूर्ण और कष्िदायक है । हमारे
ििमािस में से ऐसी गलत समझ को सही सम्वाद और लशक्षर् के
द्वारा िल्द से िल्द दूर करिा बहुत ही आवश्यक है ।
• गोवधणि पूिा और उससे क्रोचधत हुए इन्द्र के कोप से गोकु ल वालसयों
का रक्षर् करिा एक ऐसा प्रसंग है जिसमें स्थावपत परम्परा की िड़ता
और भय को दूर कर योग्यता को यथोचचत गौरव प्रदाि ककया गया ।
वर्ण व्यवस्था में, कायण-प्रर्ाली में व्यजक्त-लक्षी या वंश-लक्षी या िानत-लक्षी
महत्वाकांक्षाओं का हावी होिा िब योग्यता और गुर्वत्ा की अवहेलिा का
कारर् बिता है, तब अिेकों समस्याएँ खड़ी होती हैं और योग्य निराकरर् के
अभाव में िै लती हैं, व्यापक रूप भी धारर् कर लेती हैं । रामायर् में हिुमाि
और सुग्रीव की मैिी एक बड़ा ही रोचक और सुंदर उदाहरर् प्रस्तुत करती है ।
सुग्रीव के स्वयं से अचधक बुद्चधमाि और शजक्तशाली लमि एवं मंिी हिुमाि,
हर तरह से सुग्रीव की सहायता और रक्षर् करते हैं – भाई बाली द्वारा प्रताडड़त,
एक ववस्थावपत रािवंशी के रूप में और बाली के वध के पश्चात, एक रािा के
रूप में । सत्यनिष्ठ रामभक्त का सत्संग सुग्रीव के ललए संिीविी समाि रहा ।
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िानत और वर्ण व्यवस्था आधाररत ववर्मताओं का निराकरर् हर युग में, हर
समाि में एक मूलभूत चुिौती रहा है । प्रभु श्रीराम, श्रीकृ ष्र्, स्वामी
वववेकािंद, राष्रवपता महात्मा गाँधी – सब िे इसके ललए संघर्ण ककया और सही
मागण और मागणदशणि टदया । किर भी यह समस्या ककसी ि ककसी रूप में उभर
आती है । कु छ वर्ों पूवण मेरी एक वयोवृद्ध ब्राह्मर् पड़ोसि भद्र-मटहला िे एक
बार बातों-बातों में कहा था कक आदशों की बात तो सही है, पर “संस्कारों” की
विह से शुद्रों से दूर रहिा आवश्यक है ….। यह बात जिि सहि सवालों को
िन्म देती है (जिन्हें मैंिे तब उठाया था), उन्हें समझिा और उिके सच्चे,
निष्पक्ष िवाबों को मि में और िीवि में सहेििा बहुत आवश्यक है –
• क्या अस्वच्छ / गंदे-गलूिे-से ब्राह्मर् अच्छे / सम्माििीय लगेंगे ?
• “उच्च” िानत के दुराचारी को माि “उच्च” िानत के होिे की विह से
“अच्छा” / कम अपराधी मािा िाएगा ? कदाचचत, उसका अपराध तो
अचधक संगीि हो िाता है, क्योंकक उच्च िानत की विह से प्राप्त उच्च
अचधकारों के साथ उच्च कतणव्य भी होते हैं ।
• स्वच्छ, सुलशक्षक्षत, सद्ववचारों और सदाचरर् से युक्त, ओिस्वी, पर
तथाकचथत “निम्ि” िानत के लोगों के प्रनत क्या हमें सहि सम्माि िहीं
होता ? मीराबाई के गुरु संत रैदास मोची थे । ….
…. हर्ें ककस बात के प्रतत अरुधि / नापसंदगी है - अस्वच्छता और दुरािार या
जातत ?
कायम के प्रतत सही दृष्टिकोर् होिा आवश्यक है – कायण करिे वाले और कायण
“करवािे” वाले, दोिों का । हर ककसी के मि में अपिे और अपिे कायण के
प्रनत यथोचचत सम्माि हो, िो दूसरों के अजस्तत्व और कायण के प्रनत भी
सम्माि िगाए । बचपि में पढ़ी एक कहािी यहाँ याद आती है – एक रािा के
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ववश्वस्त मंिी िे रािा के यहाँ झाड़ू लगािे वाले एक सेवक को तुच्छ समझकर
अिेक लोगों की उपजस्थनत में उसे अपमानित ककया । सेवक िे प्रनतशोध लेिे
की ठािी । दूसरे टदि सुबह-सुबह रािा के कक्ष में झाड़ू लगाते-लगाते वह रािा
सुि सके ऐसे बड़बड़ाया कक मंिी महारािी को बहकाकर कोई र्ड़यंि कर रहा है
…. रािा त्रबस्तर पर लेिे-लेिे सुि रहे थे । चौंककर उन्होंिे सेवक से इस बात
के बारे में पूछा, तो वह हड़बड़ािे का अलभिय करके बोला, “महाराि, कल रात
मटदरा थोड़ी अचधक पी ली थी और िींद पूरी िहीं हो पाई …. ि िािे क्या बोल
गया …. !!” रािा िे सोचा िशे में इंसाि सत्य बोलता है । अवश्य कोई बात है
…. । उन्होंिे मंिी के महल में प्रवेश को वजिणत कर टदया । अचािक आई
ववपवत् से मंिी महोदय परेशाि हो गए । आते-िाते सेवक िे मंिी का उपहास
करके अपिी खुशी को दशाणया, तो मंिी समझ गए कक सेवक िे ही कु छ ककया
है । मंिी सेवक के घर उपहार लेकर गए और कु छ टदिों पूवण हुई अपिी िुटि के
ललए खेद व्यक्त करके भववष्य में समभाव से वताणव करिे का वचि टदया ।
सेवक का प्रनतशोध पूर्ण हो गया था । दूसरे टदि सुबह-सुबह झाड़ू लगाते समय
वह रािा सुि सके इस प्रकार बड़बड़ाया, “हमारे महाराि की भला ऐसी कै सी
ववचचि आदत है कक वे शौच करते समय ककड़ी खाते हैं …. !!!” त्रबस्तर पर
लेिे-लेिे उसकी बात को सुि रहे रािा िे उठकर उसे र्ाँिा कक वह क्या उल्िी-
सीधी बातें बड़बड़ा रहा है । सेवक इस बार भी हड़बड़ािे का अलभिय करके
बोला, “महाराि, कल रात मटदरा थोड़ी अचधक पी ली थी और िींद पूरी िहीं
हो पाई …. ि िािे क्या बोल गया …. !!” रािा को मंिी के प्रनत हुए संशय
के गलत होिे का एहसास हो गया । मंिी पर लगे प्रनतबंध को हिा टदया गया
और उन्हें पूवणवत् स्थाि और सम्माि लमल गया ।
व्यवस्था, प्रर्ाली, परम्परा या नियम – अच्छाई, सच्चाई, योग्यता या न्याय के
शोर्र् या अपमाि के ललए िहीं होते । उन्हें इस समझ के साथ चलाया िाए,
निभाया िाए, उिका वववेक-प्रेररत निवाणह ककया िाए, तो ही उस व्यवस्था,
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प्रर्ाली, परम्परा या नियम का होिा साथणक होता है, तो ही उिका होिा
आवश्यक होता है ।