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आध्यात्मिकता से
दृत्टिकोण िें परिवततन
दृत्टिकोण िें परिवततन के दो प्रकाि
१. आकत्मिक (संयोगवश) परिवततन
२. क्रमिक परिवततन
१. आकस्मिक (संयोगवश) परिवर्तन: ककसी िहापुरुष के प्रमयक्षीकिण से (संगतत से) अचानक ही
व्यत्तत का हृदय परिवततन होता है ककन्तु इसके पीछे भी जन्िो जन्ि के संमकाि ही कािण होते
है | बिना संमकािों के अचानक परिवततन संभव नहीं है |
२. क्रमिक परिवर्तन: व्यत्तत धीिे-धीिे अच्छे गुणों को ग्रहण किता है | उस व्यत्तत को कु छ
सालो िाद देखने पि ही दृत्टिकोण िें हुआ परिवततन प्रमयक्षरूप से ददखायी देता है | िोज-िोज उस
व्यत्तत के संपकत िें आने पि शायद दृत्टिकोण का परिवततन प्रमयक्षरूप से ना ददखे ऐसा भी हो
सकता है |
आध्यास्मिकर्ा से दृस्टिकोण िें ककस प्रकाि के परिवर्तन आ सकर्े है ?
* दहंसक व्यत्तत अदहंसक िन जाता है
* साधािण व्यत्तत आदशत िागत पि चल ने लगता है
* भोग ववलास िें डूिा हुआ व्यत्तत पिोपकाि के िागत िें प्रवृत्त हो जाता
है
* धनी व्यत्तत अपने संग्रह ककए हुए धन को सिाज सेवा के मलए लगा
देता है
अंगुमििाि िौद्ध कालीन एक दुदाांत डाकू था जो
िाजा प्रसेन्नत्जत के िाज्य श्रावमती िें तनिापद जंगलों
िें िाहगीिों को िाि देता था औि उनकी उंगमलयों की
िाला िनाकि पहनता था। इसीमलए उसका नाि
अंगुमलिाल पड़ गया था। वह एक डाकू था जो िाद िें
संत िन गया।
भगवान िुद्ध एक सिय उसी वन से जाने को उद्यत हुए तो अनेक पुिवामसयों-श्रिणों ने उन्हें सिझाया कक वे
अंगुमलिाल ववचिण क्षेत्र िें न जायें। अंगुमलिाल का इतना भय था कक िहािाजा प्रसेन्नत्जत भी उसको वश िें नहीं
कि पाए। भगवान िुद्ध िौन धािण कि चलते िहे। कई िाि िोकने पि भी वे चलते ही गए। अंगुमलिाल ने दूि से ही
भगवान को आते देखा। वह सोचने लगा - 'आश्चयत है! पचासों आदिी भी मिलकि चलते हैं तो िेिे हाथ िें पड़ जाते
हैं, पि यह श्रिण अके ला ही चला आ िहा है, िानो िेिा ततिमकाि ही किता आ िहा है। तयों न इसे जान से िाि
दूूँ।‘अंगुमििाि ढाल-तलवाि औि तीि-धनुष लेकि भगवान की तिफ दौड़ पड़ा। कफि भी वह उन्हें नहीं पा सका।
अंगुमलिाल सोचने लगा - 'आश्चयत है! िैं दौड़ते हुए हाथी, घोड़े, िथ को
पकड़ लेता हूूँ, पि िािूली चाल से चलने वाले इस श्रिण को नहीं पकड़ पा
िहा हूूँ! िात तया है। वह भगवान िुद्ध से िोला - 'खड़ा िह श्रिण!' इस पि
भगवान िोले - 'िैं त्मथत हूूँ अूँगुमलिाल! तू भी त्मथत हो जा।' अंगुमलिाल
िोला - 'श्रिण! चलते हुए भी तू कहता है 'त्मथत हूूँ' औि िुझ खड़े हुए को
कहता है 'अत्मथत'। भला यह तो िता कक तू कै से त्मथत है औि िैं कै से
अत्मथत?'
भगवान बुद्ध बोिे - 'अंगुमलिाल! सािे प्राणणयों के प्रतत दंड
छोड़ने से िैं सवतदा त्मथत हूूँ। तू प्राणणयों िें असंयिी है।
इसमलए तू अत्मथत है। अंगुमलिाल पि भगवान की िातों का
असि पड़ा। उसने तनश्चय ककया कक िैं चचिकाल के पापों को
छोड़ूूँगा। उसने अपनी तलवाि व हचथयाि खोह औि प्रपात नाले
िें फें क ददए। भगवान के चिणों की वंदना की औि उनसे
प्रव्रज्या िाूँगी। 'आ मभक्षु!' कहकि भगवान ने उसे दीक्षा दी।
अंगुमलिाल पात्र - चीवि ले श्रावमती िें मभक्षा के मलए तनकला। ककसी का फें का ढेला उसके
शिीि पि लगा। दूसिे का फें का डंडा उसके शिीि पि लगा। तीसिे का फें का ढेला कं कड़ उसके
शिीि पि लगा। िहते खून, फिे मसि, िूिे पात्र, फिी संघािी के साथ अंगुमलिाल भगवान के
पास पहुूँचा। उन्होंने दूि से कहा- 'ब्राह्िण! तूने किूल कि मलया। त्जस कितफल के मलए
तुझे हजािों वषत निक िें पड़ना पड़ता, उसे तू इसी जन्ि िें भोग िहा है।
िहर्षत वाल्िीकक संमकृ त भाषा के आदद कवव औि दहन्दुओं के आदद काव्य
'िािायण' के िचतयता के रूप िें प्रमसद्ध है। िहवषत कश्यप औि अददतत के नवि
पुत्र वरुण (आददमय) से इनका जन्ि हुआ। इनकी िाता चषतणी औि भाई भृगु थे।
वरुण का एक नाि प्रचेत भी है, इसमलये इन्हें प्राचेतस् नाि से उल्लेणखत ककया
जाता है । उपतनषद के ववविण के अनुसाि ये भी अपने भाई भृगु की भांतत पिि
ज्ञानी थे। एक िाि ध्यान िें िैठे हुए वरुण-पुत्र के शिीि को दीिकों ने अपना ढूह
(बााँबी) बनाकि ढक मिया था। साधना पूिी किके जि ये दीिक-ढूह से त्जसे
वाल्िीकक कहते हैं, िाहि तनकले तो लोग इन्हें वाल्िीकक कहने लगे।
िहवषत वाल्िीकक का पहले का नाि िमनाकि था। इनका जन्ि
पववत्र ब्राह्िण कु ल िें हुआ था, ककन्तु डाकु ओं के संसगत िें िहने के कािण
ये लूि-पाि औि हमयाएूँ किने लगे औि यही इनकी आजीववका का साधन
िन गया। इन्हें जो भी िागत िें मिल जाता, ये उसकी सम्पतत लूि मलया
किते थे। एक ददन इनकी िुलाकात देववषत नािद से हुई।
इन्होंने नािद जी से कहा कक 'तुम्हािे पास जो कु छ है, उसे तनकालकि िख दो! नहीं
तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।' देववषत नािद ने कहा- 'िेिे पास इस वीणा औि वमत्र
के अततरितत है ही तया? तुि लेना चाहो तो इन्हें ले सकते हो, लेककन तुि यह क्रू ि
कित किके भयंकि पाप तयों किते हो? देववषत की कोिल वाणी सुनकि वाल्िीकक
का कठोि हृदय कु छ द्रववत हुआ। इन्होंने कहा- भगवान ! िेिी आजीववका का यही
साधन है। इसके द्वािा िैं अपने परिवाि का भिण-पोषण किता हूूँ।'
नािद ने प्रश्न ककया कक तया इस कायत के फलमवरूप जो पाप तुम्हें होगा उसका
दण्ड भुगतने िें तुम्हािे परिवाि वाले तुम्हािा साथ देंगे। िमनाकि ने जवाि
ददया पता नहीं, नािदिुतन ने कहा कक जाओ उनसे पूछ आओ। ति िमनाकि ने
नािद ऋवष को पेड़ से िाूँध ददया तथा घि जाकि पमनी तथा अन्य परिवाि
वालों से पूछा कक तया दमयु कित के फलमवरूप होने वाले पाप के दण्ड िें तुि
िेिा साथ दोगे तो सिनें िना कि ददया।
अपने कु िुत्म्ियों की िात सुनकि वाल्िीकक के हृदय िें आघात लगा।
उनके ज्ञान नेत्र खुल गये। उन्होंने जल्दी से जंगल िें जाकि देववषत के
िन्धन खोले औि ववलाप किते हुए उनके चिणों िें पड़ गये। नािद जी ने
उन्हें धैयत िूँधाया औि िाि-नाि के जप का उपदेश ददया, ककन्तु पूवतकृ त
भयंकि पापों के कािण उनसे िाि-नाि का उच्चािण नहीं हो पाया।
तदनन्ति नािद जी ने सोच-सिझकि उनसे ििा-ििा जपने के मलये कहा।
भगवान्नाि का तनिन्ति जप किते-किते वाल्िीकक अि ऋवष हो गये।
उनके पहले की क्रू िता अि प्राणणिात्र के प्रतत दया िें िदल गयी।
भर्ततहरि एक िहान् संमकृ त कवव थे। संमकृ त सादहमय के इततहास िें
भतृतहरि एक नीततकाि के रूप िें प्रमसद्ध हैं।
इनके शर्कत्रय ( नीततशतक, शृंगािशतक, वैिाग्यशतक ) की उपदेशामिक
कहातनयाूँ भाितीय जनिानस को ववशेष रूप से प्रभाववत किती हैं। प्रमयेक
शतक िें सौ-सौ श्लोक हैं। िाद िें इन्होंने गुरु गोिखनाथ के मशटय िनकि
वैिाग्य धािण कि मलया था इसमलये इनका एक लोकप्रचमलत नाि िािा
भिथिी भी है।
एक िाि िाजा भतृतहरि के दििाि िें एक साधु आया तथा िाजा के प्रतत
श्रद्धा प्रदमशतत किते हुए उन्हें एक अिि फल प्रदान ककया। इस फल को
खाकि िाजा या कोई भी व्यत्तत अिि को सकता था। िाजा ने इस फल
को अपनी वप्रय िानी वपंगला को खाने के मलए दे ददया, ककन्तु िानी ने उसे
मवयं न खाकि अपने एक वप्रय सेनानायक को दे ददया त्जसका सम्िन्ध
िाजनतततकी से था। उसने भी फल को मवयं न खाकि उसे उस िाजनतततकी
को दे ददया।
इस प्रकाि यह अिि फल िाज नततकी के पास पहुूँच गया। फल को पाकि
उस िाज नततकी ने इसे िाजा को देने का ववचाि ककया। वह िाज दििाि िें
पहुूँची तथा िाजा को फल अवपतत कि ददया। िानी वपंगला को ददया हुआ
फल िाज नततकी से पाकि िाजा आश्चयतचककत िह गये तथा इसे उसके
पास पहुूँचने का वृत्तान्त पूछा। िाज नततकी ने संक्षेप िें िाजा को सि कु छ
िता ददया।
इस घिना का िाजा के ऊपि अमयन्त गहिा प्रभाव पड़ा तथा उन्होंने संसाि की
नश्विता को जानकि संन्यास लेने का तनश्चय कि मलया औि अपने छोिे भाई
ववक्रि को िाज्य का उत्तिाचधकािी िनाकि वन िें तपमया किने चले गये। इनके
तीनों ही शतक उमकृ टिति संमकृ त काव्य हैं। इनके अनेक पद्य व्यत्ततगत
अनुभूतत से अनुप्राणणत हैं तथा उनिें आमि-दशतन का तत्त्व पूणतरूपेण परिलक्षक्षत
होता है।
यां चचन्तयामि सततं ितय सा ववितता
साप्यन्यमिच्छतत जनं स जनोऽन्यसततः।
अमिमकृ ते च परितुटयतत * काचचदन्या
चधततां च तं च िदनं च इिां च िां च॥
The girl of whom I always think is indifferent to me.
She desires another man, who is committed to someone
else;
And some other girl is pleased by all I do.
Damn her, and him, and passion, and this woman, and
me.
िहान कवव औि नािककाि थे। उन्होंने भाित
की पौिाणणक कथाओं औि दशतन को आधाि िनाकि
िचनाएं की। कामिदास अपनी अलंकाि युतत सुंदि
सिल औि िधुि भाषा के मलये ववशेष रूप से जाने
जाते हैं। उनके ऋतु वणतन अद्ववतीय हैं औि उनकी
उपिाएं िेमिसाल। संगीत उनके सादहमय का प्रिुख
अंग है औि िस का सृजन किने िें उनकी कोई उपिा
नहीं।
उन्होंने अपने शृंगाि िस प्रधान सादहमय िें भी
सादहत्मयक सौन्दयत के साथ-साथ आदशतवादी पिंपिा
औि नैततक िूल्यों का सिुचचत ध्यान िखा है।
प्रािंमभक जीवन िें कामलदास अनपढ औि िूखत थे। कामलदास की शादी
ववद्योत्तिा नाि की िाजकु िािी से हुई। ऐसा कहा जाता है कक ववदुषी
ववद्योत्तिा ने प्रततज्ञा की थी कक जो कोई उसे शामत्राथत िें हिा देगा, वह उसी
के साथ शादी किेगी। जि ववद्योत्तिा ने शामत्राथत िें सभी ववद्वानों को हिा
ददया तो अपिान से दुखी कु छ ववद्वानों ने कामलदास से उसका शामत्राथत
किाया।
ववद्योत्तिा िौन शब्दावली िें गूढ प्रश्न पूछती थी, त्जसे कामलदास अपनी िुद्चध
से िौन संके तों से ही जवाि दे देते थे। ववद्योत्तिा को लगता था कक कामलदास गूढ
प्रश्न का गूढ जवाि दे िहे हैं। उदाहिण के मलए ववद्योत्तिा ने प्रश्न के रूप िें खुला
हाथ ददखाया तो कामलदास को लगा कक यह थप्पड़ िािने की धिकी दे िही है।
उसके जवाि िें कामलदास ने घूंसा ददखाया तो ववद्योत्तिा को लगा कक वह कह िहा
है कक पाूँचों इत्न्द्रयाूँ भले ही अलग हों, सभी एक िन के द्वािा संचामलत हैं।
चला कक कामलदास अनपढ हैं। उसने कामलदास को चधतकािा औि यह कह कि घि
से तनकाल ददया कक सच्चे पंडडत िने बिना घि वावपस नहीं आना। कामलदास ने
सच्चे िन से काली देवी की आिाधना की औि उनके आशीवातद से वे ज्ञानी औि
धनवान िन गए। ज्ञान प्रात्प्त के िाद जि वे घि लौिे तो उन्होंने दिवाजा खड़का
कि कहा - कपािि् उद्घाट्य सुन्दिी (दिवाजा खोलो, सुन्दिी)। ववद्योत्तिा ने
चककत होकि कहा -- अत्मत कत्श्चद् वात्ग्वशेषः (कोई ववद्वान लगता है)।
कामलदास ने ववद्योत्तिा को अपना पथप्रदशतक गुरु िाना औि उसके इस वातय को
उन्होंने अपने काव्यों िें जगह दी।
कु िािसंभवि्का प्रािंभ होता है- अममयुत्तिमयाि्ददमश…से,
िेघदूति्का पहला शब्द है- कत्श्चमकांता…, औि
िघुवंशि्की शुरुआत होती है- वागाथतववव… से।
1. अमभज्ञान शाकु न्तलि्: सात अंकों का नािक त्जसिें दुटयन्त औि शकु न्तला के प्रेि औि वववाह
का वणतन है।
2. ववक्रिोवशीयति्: पांच अंकों का नािक त्जसिें पुरुिवा औि उवतशी के प्रेि औि वववाह का वणतन है।
3. िालववकात्ग्नमित्रि्: पांच अंकों का नािक त्जसिें िामलववका औि अत्ग्नमित्र के प्रेि का वणतन
है।
4. िघुवंशि्: उन्नीस सगों का िहाकाव्य त्जसिें सूयतवंशी िाजाओं के जीवन चरित्र हैं।
5. कु िािसंभवि्: सत्रह सगों का िहाकाव्य त्जसिें मशव औि पावतती के वववाह औि कु िाि के जन्ि
का वणतन है जो युद्ध के देवता हैं।
6 िेघदूत : एक सौ ग्यािह छन्दों1 की कववता त्जसिें यक्ष द्वािा अपनी पमनी को िेघ द्वािा
पहुंचाए गए संदेश का वणतन है।
7. ऋतुसंहाि : इसिें ऋतुओं का वणतन है।
कर्व कामिदास की कत तर्यााँ
दृत्टिकोण िें परिवततन की आवश्यकता
वततिान सिय िें आमथा संकि के रूप िें घोि दुमभतक्ष, जन- जन के ऊपि प्रेत- वपशाच
की तिह चढा हुआ है। लोग िेहति भूल- भुलैयों िें भिक िहे हैं। दृत्टिकोण िें ऐसी
ववकृ तत सिा गई है कक उल्िा- सीधा औि सीधा- उल्िा दीखता है। हि ककसी को
आपाधापी पड़ी है। जो त्जतना भी, त्जस प्रकाि भी ििोि सकता है, उसिें किी नहीं िहने
दे िहा है। ववज्ञान भी िढा औि िुद्चधवाद भी। पि दोनों के ही दुरुपयोग से िीिािी,
गिीिी, िेकािी तनिंति िढ िही है। प्रदूषण की ववषाततता जीवन के मलए चुनौती िन िही
है। नशेिाजी, प्रपंचों की िहुलता के प्रचलनों को देखते हुए, प्रतीत होता है कक लोग धीिी
गतत से सािूदहक आमि हमया की योजनािद्ध तैयािी कि िहे हैं। सुधाि उपचाि किना हो
तो एक ही उपाय अपनाना पड़ेगा कक कु ववचािों के प्रभावों को िोड़ा औि उसकी ददशा धािा
को सदुद्देश्यों के साथ जोड़ा जाए। इतना िन पड़ने पि वह सिल हो जाएगा, जो इन ददनों
सवतत्र अपेक्षक्षत है। युग धित ने त्जस एक आधाि को प्रिुख घोवषत ककया है वह है-
‘‘ववचाि क्रांतत’’, जन िानस का परिटकाि, प्रचलनों िें वववेक सम्ित तनधातिणों का
सिावेश।

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Adhyatmikta se drishtikon me parivartan आध्यात्मिकता से दृष्टिकोण में परिवर्तन

  • 2. दृत्टिकोण िें परिवततन के दो प्रकाि १. आकत्मिक (संयोगवश) परिवततन २. क्रमिक परिवततन १. आकस्मिक (संयोगवश) परिवर्तन: ककसी िहापुरुष के प्रमयक्षीकिण से (संगतत से) अचानक ही व्यत्तत का हृदय परिवततन होता है ककन्तु इसके पीछे भी जन्िो जन्ि के संमकाि ही कािण होते है | बिना संमकािों के अचानक परिवततन संभव नहीं है | २. क्रमिक परिवर्तन: व्यत्तत धीिे-धीिे अच्छे गुणों को ग्रहण किता है | उस व्यत्तत को कु छ सालो िाद देखने पि ही दृत्टिकोण िें हुआ परिवततन प्रमयक्षरूप से ददखायी देता है | िोज-िोज उस व्यत्तत के संपकत िें आने पि शायद दृत्टिकोण का परिवततन प्रमयक्षरूप से ना ददखे ऐसा भी हो सकता है |
  • 3. आध्यास्मिकर्ा से दृस्टिकोण िें ककस प्रकाि के परिवर्तन आ सकर्े है ? * दहंसक व्यत्तत अदहंसक िन जाता है * साधािण व्यत्तत आदशत िागत पि चल ने लगता है * भोग ववलास िें डूिा हुआ व्यत्तत पिोपकाि के िागत िें प्रवृत्त हो जाता है * धनी व्यत्तत अपने संग्रह ककए हुए धन को सिाज सेवा के मलए लगा देता है
  • 4. अंगुमििाि िौद्ध कालीन एक दुदाांत डाकू था जो िाजा प्रसेन्नत्जत के िाज्य श्रावमती िें तनिापद जंगलों िें िाहगीिों को िाि देता था औि उनकी उंगमलयों की िाला िनाकि पहनता था। इसीमलए उसका नाि अंगुमलिाल पड़ गया था। वह एक डाकू था जो िाद िें संत िन गया।
  • 5. भगवान िुद्ध एक सिय उसी वन से जाने को उद्यत हुए तो अनेक पुिवामसयों-श्रिणों ने उन्हें सिझाया कक वे अंगुमलिाल ववचिण क्षेत्र िें न जायें। अंगुमलिाल का इतना भय था कक िहािाजा प्रसेन्नत्जत भी उसको वश िें नहीं कि पाए। भगवान िुद्ध िौन धािण कि चलते िहे। कई िाि िोकने पि भी वे चलते ही गए। अंगुमलिाल ने दूि से ही भगवान को आते देखा। वह सोचने लगा - 'आश्चयत है! पचासों आदिी भी मिलकि चलते हैं तो िेिे हाथ िें पड़ जाते हैं, पि यह श्रिण अके ला ही चला आ िहा है, िानो िेिा ततिमकाि ही किता आ िहा है। तयों न इसे जान से िाि दूूँ।‘अंगुमििाि ढाल-तलवाि औि तीि-धनुष लेकि भगवान की तिफ दौड़ पड़ा। कफि भी वह उन्हें नहीं पा सका।
  • 6. अंगुमलिाल सोचने लगा - 'आश्चयत है! िैं दौड़ते हुए हाथी, घोड़े, िथ को पकड़ लेता हूूँ, पि िािूली चाल से चलने वाले इस श्रिण को नहीं पकड़ पा िहा हूूँ! िात तया है। वह भगवान िुद्ध से िोला - 'खड़ा िह श्रिण!' इस पि भगवान िोले - 'िैं त्मथत हूूँ अूँगुमलिाल! तू भी त्मथत हो जा।' अंगुमलिाल िोला - 'श्रिण! चलते हुए भी तू कहता है 'त्मथत हूूँ' औि िुझ खड़े हुए को कहता है 'अत्मथत'। भला यह तो िता कक तू कै से त्मथत है औि िैं कै से अत्मथत?'
  • 7. भगवान बुद्ध बोिे - 'अंगुमलिाल! सािे प्राणणयों के प्रतत दंड छोड़ने से िैं सवतदा त्मथत हूूँ। तू प्राणणयों िें असंयिी है। इसमलए तू अत्मथत है। अंगुमलिाल पि भगवान की िातों का असि पड़ा। उसने तनश्चय ककया कक िैं चचिकाल के पापों को छोड़ूूँगा। उसने अपनी तलवाि व हचथयाि खोह औि प्रपात नाले िें फें क ददए। भगवान के चिणों की वंदना की औि उनसे प्रव्रज्या िाूँगी। 'आ मभक्षु!' कहकि भगवान ने उसे दीक्षा दी।
  • 8. अंगुमलिाल पात्र - चीवि ले श्रावमती िें मभक्षा के मलए तनकला। ककसी का फें का ढेला उसके शिीि पि लगा। दूसिे का फें का डंडा उसके शिीि पि लगा। तीसिे का फें का ढेला कं कड़ उसके शिीि पि लगा। िहते खून, फिे मसि, िूिे पात्र, फिी संघािी के साथ अंगुमलिाल भगवान के पास पहुूँचा। उन्होंने दूि से कहा- 'ब्राह्िण! तूने किूल कि मलया। त्जस कितफल के मलए तुझे हजािों वषत निक िें पड़ना पड़ता, उसे तू इसी जन्ि िें भोग िहा है।
  • 9. िहर्षत वाल्िीकक संमकृ त भाषा के आदद कवव औि दहन्दुओं के आदद काव्य 'िािायण' के िचतयता के रूप िें प्रमसद्ध है। िहवषत कश्यप औि अददतत के नवि पुत्र वरुण (आददमय) से इनका जन्ि हुआ। इनकी िाता चषतणी औि भाई भृगु थे। वरुण का एक नाि प्रचेत भी है, इसमलये इन्हें प्राचेतस् नाि से उल्लेणखत ककया जाता है । उपतनषद के ववविण के अनुसाि ये भी अपने भाई भृगु की भांतत पिि ज्ञानी थे। एक िाि ध्यान िें िैठे हुए वरुण-पुत्र के शिीि को दीिकों ने अपना ढूह (बााँबी) बनाकि ढक मिया था। साधना पूिी किके जि ये दीिक-ढूह से त्जसे वाल्िीकक कहते हैं, िाहि तनकले तो लोग इन्हें वाल्िीकक कहने लगे।
  • 10. िहवषत वाल्िीकक का पहले का नाि िमनाकि था। इनका जन्ि पववत्र ब्राह्िण कु ल िें हुआ था, ककन्तु डाकु ओं के संसगत िें िहने के कािण ये लूि-पाि औि हमयाएूँ किने लगे औि यही इनकी आजीववका का साधन िन गया। इन्हें जो भी िागत िें मिल जाता, ये उसकी सम्पतत लूि मलया किते थे। एक ददन इनकी िुलाकात देववषत नािद से हुई।
  • 11. इन्होंने नािद जी से कहा कक 'तुम्हािे पास जो कु छ है, उसे तनकालकि िख दो! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।' देववषत नािद ने कहा- 'िेिे पास इस वीणा औि वमत्र के अततरितत है ही तया? तुि लेना चाहो तो इन्हें ले सकते हो, लेककन तुि यह क्रू ि कित किके भयंकि पाप तयों किते हो? देववषत की कोिल वाणी सुनकि वाल्िीकक का कठोि हृदय कु छ द्रववत हुआ। इन्होंने कहा- भगवान ! िेिी आजीववका का यही साधन है। इसके द्वािा िैं अपने परिवाि का भिण-पोषण किता हूूँ।'
  • 12. नािद ने प्रश्न ककया कक तया इस कायत के फलमवरूप जो पाप तुम्हें होगा उसका दण्ड भुगतने िें तुम्हािे परिवाि वाले तुम्हािा साथ देंगे। िमनाकि ने जवाि ददया पता नहीं, नािदिुतन ने कहा कक जाओ उनसे पूछ आओ। ति िमनाकि ने नािद ऋवष को पेड़ से िाूँध ददया तथा घि जाकि पमनी तथा अन्य परिवाि वालों से पूछा कक तया दमयु कित के फलमवरूप होने वाले पाप के दण्ड िें तुि िेिा साथ दोगे तो सिनें िना कि ददया।
  • 13. अपने कु िुत्म्ियों की िात सुनकि वाल्िीकक के हृदय िें आघात लगा। उनके ज्ञान नेत्र खुल गये। उन्होंने जल्दी से जंगल िें जाकि देववषत के िन्धन खोले औि ववलाप किते हुए उनके चिणों िें पड़ गये। नािद जी ने उन्हें धैयत िूँधाया औि िाि-नाि के जप का उपदेश ददया, ककन्तु पूवतकृ त भयंकि पापों के कािण उनसे िाि-नाि का उच्चािण नहीं हो पाया। तदनन्ति नािद जी ने सोच-सिझकि उनसे ििा-ििा जपने के मलये कहा। भगवान्नाि का तनिन्ति जप किते-किते वाल्िीकक अि ऋवष हो गये। उनके पहले की क्रू िता अि प्राणणिात्र के प्रतत दया िें िदल गयी।
  • 14. भर्ततहरि एक िहान् संमकृ त कवव थे। संमकृ त सादहमय के इततहास िें भतृतहरि एक नीततकाि के रूप िें प्रमसद्ध हैं। इनके शर्कत्रय ( नीततशतक, शृंगािशतक, वैिाग्यशतक ) की उपदेशामिक कहातनयाूँ भाितीय जनिानस को ववशेष रूप से प्रभाववत किती हैं। प्रमयेक शतक िें सौ-सौ श्लोक हैं। िाद िें इन्होंने गुरु गोिखनाथ के मशटय िनकि वैिाग्य धािण कि मलया था इसमलये इनका एक लोकप्रचमलत नाि िािा भिथिी भी है।
  • 15. एक िाि िाजा भतृतहरि के दििाि िें एक साधु आया तथा िाजा के प्रतत श्रद्धा प्रदमशतत किते हुए उन्हें एक अिि फल प्रदान ककया। इस फल को खाकि िाजा या कोई भी व्यत्तत अिि को सकता था। िाजा ने इस फल को अपनी वप्रय िानी वपंगला को खाने के मलए दे ददया, ककन्तु िानी ने उसे मवयं न खाकि अपने एक वप्रय सेनानायक को दे ददया त्जसका सम्िन्ध िाजनतततकी से था। उसने भी फल को मवयं न खाकि उसे उस िाजनतततकी को दे ददया।
  • 16. इस प्रकाि यह अिि फल िाज नततकी के पास पहुूँच गया। फल को पाकि उस िाज नततकी ने इसे िाजा को देने का ववचाि ककया। वह िाज दििाि िें पहुूँची तथा िाजा को फल अवपतत कि ददया। िानी वपंगला को ददया हुआ फल िाज नततकी से पाकि िाजा आश्चयतचककत िह गये तथा इसे उसके पास पहुूँचने का वृत्तान्त पूछा। िाज नततकी ने संक्षेप िें िाजा को सि कु छ िता ददया।
  • 17. इस घिना का िाजा के ऊपि अमयन्त गहिा प्रभाव पड़ा तथा उन्होंने संसाि की नश्विता को जानकि संन्यास लेने का तनश्चय कि मलया औि अपने छोिे भाई ववक्रि को िाज्य का उत्तिाचधकािी िनाकि वन िें तपमया किने चले गये। इनके तीनों ही शतक उमकृ टिति संमकृ त काव्य हैं। इनके अनेक पद्य व्यत्ततगत अनुभूतत से अनुप्राणणत हैं तथा उनिें आमि-दशतन का तत्त्व पूणतरूपेण परिलक्षक्षत होता है। यां चचन्तयामि सततं ितय सा ववितता साप्यन्यमिच्छतत जनं स जनोऽन्यसततः। अमिमकृ ते च परितुटयतत * काचचदन्या चधततां च तं च िदनं च इिां च िां च॥ The girl of whom I always think is indifferent to me. She desires another man, who is committed to someone else; And some other girl is pleased by all I do. Damn her, and him, and passion, and this woman, and me.
  • 18.
  • 19. िहान कवव औि नािककाि थे। उन्होंने भाित की पौिाणणक कथाओं औि दशतन को आधाि िनाकि िचनाएं की। कामिदास अपनी अलंकाि युतत सुंदि सिल औि िधुि भाषा के मलये ववशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके ऋतु वणतन अद्ववतीय हैं औि उनकी उपिाएं िेमिसाल। संगीत उनके सादहमय का प्रिुख अंग है औि िस का सृजन किने िें उनकी कोई उपिा नहीं। उन्होंने अपने शृंगाि िस प्रधान सादहमय िें भी सादहत्मयक सौन्दयत के साथ-साथ आदशतवादी पिंपिा औि नैततक िूल्यों का सिुचचत ध्यान िखा है।
  • 20. प्रािंमभक जीवन िें कामलदास अनपढ औि िूखत थे। कामलदास की शादी ववद्योत्तिा नाि की िाजकु िािी से हुई। ऐसा कहा जाता है कक ववदुषी ववद्योत्तिा ने प्रततज्ञा की थी कक जो कोई उसे शामत्राथत िें हिा देगा, वह उसी के साथ शादी किेगी। जि ववद्योत्तिा ने शामत्राथत िें सभी ववद्वानों को हिा ददया तो अपिान से दुखी कु छ ववद्वानों ने कामलदास से उसका शामत्राथत किाया।
  • 21. ववद्योत्तिा िौन शब्दावली िें गूढ प्रश्न पूछती थी, त्जसे कामलदास अपनी िुद्चध से िौन संके तों से ही जवाि दे देते थे। ववद्योत्तिा को लगता था कक कामलदास गूढ प्रश्न का गूढ जवाि दे िहे हैं। उदाहिण के मलए ववद्योत्तिा ने प्रश्न के रूप िें खुला हाथ ददखाया तो कामलदास को लगा कक यह थप्पड़ िािने की धिकी दे िही है। उसके जवाि िें कामलदास ने घूंसा ददखाया तो ववद्योत्तिा को लगा कक वह कह िहा है कक पाूँचों इत्न्द्रयाूँ भले ही अलग हों, सभी एक िन के द्वािा संचामलत हैं।
  • 22. चला कक कामलदास अनपढ हैं। उसने कामलदास को चधतकािा औि यह कह कि घि से तनकाल ददया कक सच्चे पंडडत िने बिना घि वावपस नहीं आना। कामलदास ने सच्चे िन से काली देवी की आिाधना की औि उनके आशीवातद से वे ज्ञानी औि धनवान िन गए। ज्ञान प्रात्प्त के िाद जि वे घि लौिे तो उन्होंने दिवाजा खड़का कि कहा - कपािि् उद्घाट्य सुन्दिी (दिवाजा खोलो, सुन्दिी)। ववद्योत्तिा ने चककत होकि कहा -- अत्मत कत्श्चद् वात्ग्वशेषः (कोई ववद्वान लगता है)। कामलदास ने ववद्योत्तिा को अपना पथप्रदशतक गुरु िाना औि उसके इस वातय को उन्होंने अपने काव्यों िें जगह दी। कु िािसंभवि्का प्रािंभ होता है- अममयुत्तिमयाि्ददमश…से, िेघदूति्का पहला शब्द है- कत्श्चमकांता…, औि िघुवंशि्की शुरुआत होती है- वागाथतववव… से।
  • 23. 1. अमभज्ञान शाकु न्तलि्: सात अंकों का नािक त्जसिें दुटयन्त औि शकु न्तला के प्रेि औि वववाह का वणतन है। 2. ववक्रिोवशीयति्: पांच अंकों का नािक त्जसिें पुरुिवा औि उवतशी के प्रेि औि वववाह का वणतन है। 3. िालववकात्ग्नमित्रि्: पांच अंकों का नािक त्जसिें िामलववका औि अत्ग्नमित्र के प्रेि का वणतन है। 4. िघुवंशि्: उन्नीस सगों का िहाकाव्य त्जसिें सूयतवंशी िाजाओं के जीवन चरित्र हैं। 5. कु िािसंभवि्: सत्रह सगों का िहाकाव्य त्जसिें मशव औि पावतती के वववाह औि कु िाि के जन्ि का वणतन है जो युद्ध के देवता हैं। 6 िेघदूत : एक सौ ग्यािह छन्दों1 की कववता त्जसिें यक्ष द्वािा अपनी पमनी को िेघ द्वािा पहुंचाए गए संदेश का वणतन है। 7. ऋतुसंहाि : इसिें ऋतुओं का वणतन है। कर्व कामिदास की कत तर्यााँ
  • 24. दृत्टिकोण िें परिवततन की आवश्यकता वततिान सिय िें आमथा संकि के रूप िें घोि दुमभतक्ष, जन- जन के ऊपि प्रेत- वपशाच की तिह चढा हुआ है। लोग िेहति भूल- भुलैयों िें भिक िहे हैं। दृत्टिकोण िें ऐसी ववकृ तत सिा गई है कक उल्िा- सीधा औि सीधा- उल्िा दीखता है। हि ककसी को आपाधापी पड़ी है। जो त्जतना भी, त्जस प्रकाि भी ििोि सकता है, उसिें किी नहीं िहने दे िहा है। ववज्ञान भी िढा औि िुद्चधवाद भी। पि दोनों के ही दुरुपयोग से िीिािी, गिीिी, िेकािी तनिंति िढ िही है। प्रदूषण की ववषाततता जीवन के मलए चुनौती िन िही है। नशेिाजी, प्रपंचों की िहुलता के प्रचलनों को देखते हुए, प्रतीत होता है कक लोग धीिी गतत से सािूदहक आमि हमया की योजनािद्ध तैयािी कि िहे हैं। सुधाि उपचाि किना हो तो एक ही उपाय अपनाना पड़ेगा कक कु ववचािों के प्रभावों को िोड़ा औि उसकी ददशा धािा को सदुद्देश्यों के साथ जोड़ा जाए। इतना िन पड़ने पि वह सिल हो जाएगा, जो इन ददनों सवतत्र अपेक्षक्षत है। युग धित ने त्जस एक आधाि को प्रिुख घोवषत ककया है वह है- ‘‘ववचाि क्रांतत’’, जन िानस का परिटकाि, प्रचलनों िें वववेक सम्ित तनधातिणों का सिावेश।