4. कमज़ोरी ही है अपनी, पर सच त़ो यह है कक जरा-सी
ककिनाई पड़ते; बीस़ोां गरमी, बरसात और वसांत देखने क
े
बाद भी, मेरा मन सदा नहीां त़ो प्रायः अनमना-सा ह़ो जाता
है। मेरे शुभकचतक कमत्र मुुँह पर मुझे प्रसन्न करने क
े किए
आनेवािी छु किय़ोां की सूचना देते हैं और पीि पीछे मुझे
कमज़ोर और जरा-सी प्रकतक
ू िता से घबरानेवािा कहकर
मेरा मजाक उड़ाते हैं।
5. मैं स़ोचता हुँ, ‘अच्छा, अब कभी उन बात़ोां क़ो न
स़ोचूुँगा। िीक है, जाने द़ो, स़ोचने से ह़ोता ही क्या
है’। पर, बरबस मेरी आुँख़ोां क
े सामने शरद की
शीत ककरण़ोां क
े समान स्वच्छ, शीति ककसी की
धुुँधिी छाया नाच उिती है।
6. मुझे िगता है जैसे क्वार क
े कदन आ गए हैं। मेरे गाुँव क
े चाऱोां
ओर पानी ही पानी कहि़ोरें िे रहा है। दू र क
े कसवान से
बहकर आए हुए म़ोथा और साईां की अधगिी घासें, घेऊर
और बनप्याज की जड़ें तथा नाना प्रकार की बरसाती घास़ोां
क
े बीज, सूरज की गरमी में खौिते हुए पानी में सड़कर एक
कवकचत्र गांध छ़ोड़ रहे हैं।
7. रास़्ोां में कीचड़ सूख गया है और गाुँव क
े िड़क
े
ककनाऱोां पर झागभरे जिाशय़ोां में धमाक
े से क
ू द रहे हैं।
अपने-अपने मौसम की अपनी-अपनी बातें ह़ोती हैं।
आषाढ़ में आम और जामुन न कमिें, कचांता नहीां, अगहन
में कचउड़ा और गुड़ न कमिे, दुख नहीां, चैत क
े कदऩोां में
िाई क
े साथ गुड़ की पिी न कमिे, अफ़स़ोस नहीां, पर
क्वार क
े कदऩोां में इस गांधपूणण झागभरे जि में क
ू दना न
ह़ो त़ो बड़ा बुरा मािूम ह़ोता है। मैं भीतर हुड़क रहा
था।
8. द़ो-एक कदन ही त़ो क
ू द सका था, नहा-ध़ोकर बीमार ह़ो
गया। हिकी बीमारी न जाने क्य़ोां मुझे अच्छी िगती है।
थ़ोड़ा-थ़ोड़ा ज्वर ह़ो, सर में साधारण ददण और खाने क
े
किए कदनभर नीांबू और साबू। िेककन इस बार ऐसी चीज
नहीां थी। ज्वर ज़ो चढ़ा त़ो चढ़ता ही गया। रजाई पर
रजाई-और उतरा रात बारह बजे क
े बाद।
9. कदन में मैं चादर िपेटे स़ोया था। दादी माुँ आईां, शायद
नहाकर आई थीां, उसी झागवािे जि में। पतिे-दुबिे
स्नेह-सने शरीर पर सफ़
े द ककनारीहीन ध़ोती, सन-से
सफ़
े द बाि़ोां क
े कसऱोां पर सद्यः टपक
े हुए जि की
शीतिता। आते ही उऩ्ोांने सर, पेट छु ए। आुँचि की
गाुँि ख़ोि ककसी अदृश्य शक्तिधारी क
े चबूतरे की कमिी
मुुँह में डािी, माथे पर िगाई।
10. कदन-रात चारपाई क
े पास बैिी रहतीां, कभी पांखा झितीां,
कभी जिते हुए हाथ-पैर कपड़े से सहिातीां, सर पर
दािचीनी का िेप करतीां और बीस़ोां बार छ
ू -छ
ू कर ज्वर
का अनुमान करतीां।
11. हाुँडी में पानी आया कक नहीां? उसे पीपि की छाि से छौांका
कक नहीां? क्तखचड़ी में मूुँग की दाि आया कक नहीां? उसे पीपि
की छाि से छौांका कक नहीां? क्तखचड़ी में मूुँग की दाि एकदम
कमि त़ो गई है? क़ोई बीमार क
े घर में सीधे बाहर से आकर त़ो
नहीां चिा गया, आकद िाख़ोां प्रश्न पूछ-पूछकर घरवाि़ोां क़ो
परेशान कर देतीां।
12. दादी माुँ क़ो गुँवई-गाुँव की पचास़ोां ककस्म की दवाओां क
े
नाम याद थे। गाुँव में क़ोई बीमार ह़ोता, उसक
े पास पहुुँचतीां
और वहाुँ भी वही काम। हाथ छ
ू ना, माथा छ
ू ना, पेट छ
ू ना।
किर भूत से िेकर मिेररया, सरसाम, कनम़ोकनया तक का
अनुमान कवश्वास क
े साथ सुनातीां। महामारी और कवशूकचका
क
े कदऩोां में ऱोज सवेरे उिकर स्नान क
े बाद िवांग और गुड़-
कमकित जिधार, गुग्गि और धूप।
13. सफ़ाई क़ोई उनसे सीख िे। दवा में देर ह़ोती, कमिी या
शहद खत्म ह़ो जाता, चादर या कगिाफ़ नहीां बदिे
जाते, त़ो वे जैसे पागि ह़ो जातीां। बुखार त़ो मुझे अब
भी आता है। नौकर पानी दे जाता है, मेस-महाराज
अपने मन से पकाकर क्तखचड़ी या साबू। डॉक्टर साहब
आकर नाड़ी देख जाते हैं और क
ु नैन कमक्सचर की
शीशी की कतताई क
े डर से बुखार भाग भी जाता है, पर
न जाने क्य़ोां ऐसे बुखार क़ो बुिाने का जी नहीां ह़ोता!
14. ककशन भैया की शादी िीक हुई, दादी माुँ क
े उत्साह और
आनांद का क्या कहना! कदनभर गायब रहतीां। सारा घर
जैसे उऩ्ोांने सर पर उिा किया ह़ो। पड़़ोकसनें आतीां। बहुत
बुिाने पर दादी माुँ आतीां, "बकहन बुरा न मानना। कार-
पऱोजन का घर िहरा।
15. एक काम अपने हाथ से न कर
ुँ , त़ो
ह़ोनेवािा नहीां।" जानने क़ो य़ोां सभी
जानते थे कक दादी माुँ क
ु छ करतीां नहीां।
पर ककसी काम में उनकी अनुपक्तथथकत
वस्ुतः कविांब का कारण बन जाती। उन्ीां
कदऩोां की बात है। एक कदन द़ोपहर क़ो मैं
घर िौटा। बाहरी कनकसार में दादी माुँ
ककसी पर कबगड़ रही थीां। देखा, पास क
े
क़ोने में दुबकी रामी की चाची खड़ी है।
16. "स़ो न ह़ोगा, धन्ऩो! रुपये मय सूद क
े आज दे दे। तेरी आुँख
में त़ो शरम है नहीां। माुँगने क
े समय क
ै सी आई थी! पैऱोां
पर नाक रगड़ती किरी, ककसी ने एक पाई भी न दी। अब
िगी है आजकि करने-िसि में दूुँगी, िसि में
दूुँगी...अब क्या तेरी खाकतर दू सरी िसि कटेगी?“
"दूुँगी, मािककन!" रामी की चाची ऱोती हुई, द़ोऩोां हाथ़ो से
आुँचि पकड़े दादी माुँ क
े पैऱोां की ओर झुकी, "कबकटया की
शादी है। आप न दया करेंगी त़ो उस बेचारी का कनस्ार
क
ै से ह़ोगा!“
"हट, हट! अभी नहाक
े आ रही हुँ!" दादी माुँ पीछे हट
गईां।"जाने द़ो दादी," मैंने इस अकप्रय प्रसांग क़ो हटाने की
गरज से कहा, "बेचारी गरीब है, दे देगी कभी।"
17. "चि, चि! चिा है समझाने..."मैं चुपक
े से आुँगन की ओर
चिा गया। कई कदन बीत गए, मैं इस प्रसांग क़ो एकदम
भूि-सा गया। एक कदन रास्े में रामी की चाची कमिी। वह
दादी क़ो ‘पूत़ोां िि़ो दू ध़ोां नहाओ’ का आशीवाणद दे रही
थी! मैंने पूछा, "क्या बात है, धन्ऩो चाची", त़ो उसने कवह्वि
ह़ोकर कहा, "उररन ह़ो गई बेटा, भगवान भिा करे हमारी
मािककन का। कि ही आई थीां। पीछे का सभी रुपया
छ़ोड़ कदया, ऊपर से दस रुपये का ऩोट देकर ब़ोिीां,
‘देखना धन्ऩो, जैसी तेरी बेटी वैसी मेरी, दस-पाुँच क
े किए
हुँसाई न ह़ो।’ देवता है बेटा, देवता।" "उस ऱोज त़ो बहुत
डाुँट रही थीां?" मैंने पूछा।"वह त़ो बड़े ि़ोग़ोां का काम है
बाबू, रुपया देकर डाुँटें भी न त़ो िाभ क्या!"
18. मैं मन-ही-मन इस तक
ण पर हुँसता हुआ आगे बढ़
गया।ककशन क
े कववाह क
े कदऩोां की बात है। कववाह
क
े चार-पाुँच ऱोज पहिे से ही औरतें रात-रातभर
गीत गाती हैं। कववाह की रात क़ो अकभनय भी ह़ोता
है। यह प्रायः एक ही कथा का हुआ करता है, उसमें
कववाह से िेकर पुत्ऱोत्पकि तक क
े सभी दृश्य कदखाए
जाते हैं–सभी पाटण औरतें ही करती हैं। मैं बीमार
ह़ोने क
े कारण बारात में न जा सका। मेरा ममेरा
भाई राघव दािान में स़ो रहा था (वह भी बारात जाने
क
े बाद पहुुँचा था)। औरत़ोां ने उस पर आपकि
की।दादी माुँ कबगड़ीां, "िड़क
े से क्या परदा? िड़क
े
और बरह्मा का मन एक-सा ह़ोता है।"
19. मुझे भी पास ही एक चारपाई पर चादर उढ़ाकर दादी माुँ ने
चुपक
े से सुिा कदया था। बड़ी हुँसी आ रही थी। स़ोचा, कहीां
ज़ोर से हुँस दूुँ, भेद खुि जाए त़ो कनकाि बाहर ककया
जाऊ
ुँ गा, पर भाभी की बात पर हुँसी रुक न सकी और
भांडाि़ोड़ ह़ो गया।देबू की माुँ ने चादर खीांच िी, "कह़ो
दादी, यह कौन बच्चा स़ोया है। बेचारा ऱोता है शायद, दू ध
त़ो कपिा दूुँ।" हाथापाई शुर हुई।
20. दादी माुँ कबगड़ीां, "िड़क
े से क्य़ोां िगती है!"सुबह रास्े में देबू
की माुँ कमिीां, "कि वािा बच्चा, भाभी!" मैं वहाुँ से ज़ोर से भागा
और दादी माुँ क
े पास जा खड़ा हुआ। वस्ुतः ककसी प्रकार का
अपराध ह़ो जाने पर जब हम दादी माुँ की छाया में खड़े ह़ो
जाते, अभयदान कमि जाता।स्नेह और ममता की मूकतण दादी माुँ
की एक-एक बात आज क
ै सी-क
ै सी मािूम ह़ोती है।
21. पररक्तथथकतय़ोां का वात्याचक्र जीवन क़ो सूखे पिे-सा क
ै सा
नचाता है, इसे दादी माुँ खूब जानती थीां। दादा की मृत्यु क
े
बाद से ही वे बहुत उदास रहतीां। सांसार उन्ें ध़ोखे की
टिी मािूम ह़ोता।
दादा ने उन्ें स्वयां ज़ो ध़ोखा कदया। वे सदा उन्ें आगे
भेजकर अपने पीछे जाने की झूिी बात कहा करते थे।
दादा की मृत्यु क
े बाद क
ु क
ु रमुिे की तरह बढ़नेवािे, मुुँह
में राम बगि में छु रीवािे द़ोस़्ोां की शुभकचता ने क्तथथकत
और भी डाुँवाड़ोि कर दी। दादा क
े िाद्ध में दादी माुँ क
े
मना करने पर भी कपता जी ने ज़ो अतुि सांपकि व्यय की,
वह घर की त़ो थी नहीां।
22. दादी माुँ अकसर उदास रहा करतीां। माघ क
े कदन थे।
कड़ाक
े का जाड़ा पड़ रहा था। पछु वा का सन्नाटा और
पािे की शीत हकिय़ोां में घुसी पड़ती। शाम क़ो मैंने देखा,
दादी माुँ गीिी ध़ोती पहने, क़ोनेवािे घर में एक सांदू क
पर कदया जिाए, हाथ ज़ोड़कर बैिी हैं। उनकी स्नेह-
कातर आुँख़ोां में मैंने आुँसू कभी नहीां देखे थे। मैं बहुत देर
तक मन मारे उनक
े पास बैिा रहा। उऩ्ोांने आुँखें ख़ोिीां।
"दादी माुँ!", मैंने धीरे से कहा।"क्या है रे, तू यहाुँ क्य़ोां बैिा
है?“
"दादी माुँ, एक बात पूछ
ूुँ , बताओगी न?" मैंने उनकी
स्नेहपूणण आुँख़ोां की ओर देखा।
23. "तुम ऱोती थीां?"दादी माुँ मुसकराईां, "पागि, तूने अभी
खाना भी नहीां खाया न, चि-चि!""ध़ोती त़ो बदि ि़ो, दादी
माुँ", मैंने कहा।"मुझे सरदी-गरमी नहीां िगती बेटा।" वे मुझे
खीांचती रस़ोई में िे गईां। सुबह मैंने देखा, चारपाई पर बैिे
कपता जी और ककशन भैया मन मारे क
ु छ स़ोच रहे हैं।
"दू सरा चारा ही क्या है?" बाबू ब़ोिे, "रुपया क़ोई देता
नहीां।
24. ककतने क
े त़ो अभी कपछिे भी बाकी हैं!" वे ऱोने-ऱोने-से ह़ो
गए।"ऱोता क्य़ोां है रे!" दादी माुँ ने उनका माथा सहिाते हुए
कहा, "मैं त़ो अभी हुँ ही।" उऩ्ोांने सांदू क ख़ोिकर एक
चमकती-सी चीज कनकािी, "तेरे दादा ने यह क
ां गन मुझे इसी
कदन क
े किए पहनाया था।" उनका गिा भर आया, "मैंने इसे
पहना नहीां, इसे सहेजकर रखती आई हुँ। यह उनक
े वांश की
कनशानी है।" उऩ्ोांने आुँसू प़ोांछकर कहा, "पुराने ि़ोग आगा-
पीछा सब स़ोच िेते थे, बेटा।"
25. सचमुच मुझे दादी माुँ शापभ्रष्ट देवी-सी िगीां।धुुँधिी
छाया कविीन ह़ो गई। मैंने देखा, कदन काफ़ी चढ़
आया है। पास क
े िांबे खजूर क
े पेड़ से उड़कर एक
कौआ अपनी कघनौनी कािी पाुँखें ि
ै िाकर मेरी
क्तखड़की पर बैि गया। हाथ में अब भी ककशन भैया
का पत्र काुँप रहा है। कािी चीकटय़ोां -सी कतारें
धूकमि ह़ो रही हैं। आुँख़ोां पर कवश्वास नहीां ह़ोता। मन
बार-बार अपने से ही पूछ बैिता है-‘क्या सचमुच
दादी माुँ नहीां रहीां?’
कशवप्रसाद कसांह