This document defines key terms from Article 12 of the Indian Constitution, including the definition of "State" and "authority". It notes that the term State includes the executive and legislative branches of both the Union and states. It also defines local authorities as bodies like municipalities and district boards, and other authorities as those mentioned alongside the government and legislatures. The document concludes with a Supreme Court case that established multiple factors for determining if a body falls under Article 12, including financial, functional, and administrative control by the state.
यह सामग्री विशेष रूप से शिक्षण और सीखने को बढ़ाने के शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए है। आर्थिक / वाणिज्यिक अथवा किसी अन्य उद्देश्य के लिए इसका उपयोग पूर्णत: प्रतिबंध है। सामग्री के उपयोगकर्ता इसे किसी और के साथ वितरित, प्रसारित या साझा नहीं करेंगे और इसका उपयोग व्यक्तिगत ज्ञान की उन्नति के लिए ही करेंगे। इस ई - कंटेंट में जो जानकारी की गई है वह प्रामाणिक है और मेरे ज्ञान के अनुसार सर्वोत्तम है।
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existentialism ,philosophy , jyan paul satra,Martin Hedeger, neetze,freedom of choice,absurdness of life , commitment to society, Despair,Buddhist philosophy,essence, logic, science
SOCIAL JUSTICE, AFFIRMATIVE ACTION, RESERVATION,OBC,SC,ST, MANDAL COMMISSION, POONA PACT,73 CONSTITUTIONAL AMENDMENT, KAKA KALELKAR COMMISSION,GOVT. JOB,EDUCATIONAL INSTITUTION,PARLIAMENT, STATE LEGISLATURE,LOGIC RELATED TO RESERVATION POLICY, MINISTRY OF SOCIAL JUSTICE, SUPREME COURT ,CASTE SYSTEM, INDIAN CONSTITUTION
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1.
राजनीति विज्ञान का अर्थ
राजनीति विज्ञान समाज विज्ञान का वह हिस्सा है जो राज्य की स्थापना
तथा सरकार के सिद्धांतों का अध्ययन करता है। जे. डब्लू गार्नर के
अनुसार "राजनीति का प्रारम्भ और अंत राज्य के साथ होता है।" उसी
तरह से आर. जी. गैटेल ने कहा है कि राजनीति "राज्य के भूत, वर्तमान
तथा भविष्य का अध्ययन है।" हैरोल्ड जे. लास्की ने कहा है कि राजनीति
के अध्ययन का संबंध मनुष्य के जीवन एवं एक संगठित राज्य से संबंधित
है। इसलिए, समाज विज्ञान के रूप में, राजनीति विज्ञान, समाज में रहने
वाले व्यक्तियों के उस पहलू का वर्णन करता है जो उनके क्रियाकलापों
और संगठनों से संबंधित है और जो राज्य द्वारा बनाये गए नियम एवं
कानून के अंतर्गत शक्ति प्राप्त करना चाहता है तथा मतभेदों को
सुलझाना चाहता है।
राजनीति विज्ञान का बदलता अर्थ एवं क्षेत्र
राजनीति शब्द ग्रीक भाषा के 'पोलिस' शब्द से उत्पन्न हुआ है जिसका
अर्थ होता है 'नगर-राज्य' यही कारण है कि अनेक विशेषज्ञों ने राजनीति
विज्ञान को राज्य या सरकार के संदर्भ में परिभाषित किया है। यद्यपि यह
परिभाषा राजनीति के लिए पूर्ण नहीं है क्योंकि राजनीति का संबंध शक्ति
से भी है। लासवेल और कप्लान ने राजनीति विज्ञान को परिभाषित करते
हुए कहा है " यह सत्ता को आकार देने तथा उसमें भागीदारी का अध्ययन
है में है कि नीति दो नों
2. है"। एक शब्द में कहा जा सकता है कि राजनीति राज्य तथा सत्ता दोनों
का अध्ययन करता है। राजनीति विज्ञान जिस शक्ति से संबंध रखता है
वह प्रायः न्यायसंगत शक्ति है। क्योंकि जिस प्रकार विज्ञान किसी घटना
का क्रमबद्ध परीक्षण तथा अवलोकन के द्वारा अध्ययन करता है उसी
प्रकार राजनीति विज्ञान राज्य और शक्ति के प्रत्येक पहलुओं का अध्ययन
करता है।
राजनीति विज्ञान का संबंध आनुभविक तथ्यों तथा नियामक समस्याओं
दोनों से है। वास्तविकता "क्या है" राजनीतिक विज्ञान के क्षेत्र में आता है
तथा मूल्य "क्या होना चाहिए" के क्षेत्र में उदाहरणार्थं अगर कोई कहता है
कि भारत एक संसदीय लोकतंत्र हैं तो वह आनुभविक तथ्य की बात कर
रहा है। परंतु यदि कोई यह कहता है कि भारत को अध्यक्षात्मक लोकतंत्र
को अपनाना चाहिए तो यह एक नियामक कथन होगा। राजनीति विज्ञान
के वल क्रिया कलापों का वर्णन से संतुष्ट नहीं बल्कि यह उसको और
अच्छा बनाना या परिवर्तन करना चाहता है। आनुभविक कथन उसी प्रकार
सही या गलत हो सकते हैं जैसा उन्हें अवलोकन कराया जाएगा।
मूल्यांकनात्मक कथन वे नैतिक अनुभव हैं जो कभी भी असत्य या गलत
नहीं हो सकते हैं। गणित के साध्यों के औपचारिक कथन अपने संघटकों
के अर्थ के आधार पर गलत या सही हो सकते हैं। राजनैतिक दर्शनशास्त्र
का संबंध औपचारिक कथन से है। राजनीति विज्ञान आनुभाविक कथन से
संबंध रखता है और वर्तमान राजनीतिक संस्थाओं एवं व्यवहारों का
मूल्यांकन करता है ताकि उन्हें बेहतर बनाया जा सके ।
अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के एक सदस्य के रूप मे राज्य के विकास आदि का
भी अध्ययन करते है। इतना ही नही राजनीतिक विज्ञान के क्षेत्र मे हम यह
भी अध्ययन करते है कि राज्य आने वाले समय मे कै सा हो सकता है
अथवा अपने आदर्श रूप मे उसे कै सा होना चाहिए।
नीति वि के वि क्षे के में नि लि खि
3. राजनीति विज्ञान के विषय-क्षेत्र के अध्ययन में निम्नलिखित अध्ययन
सम्मिलित हैं--
1. मनुष्य का अध्ययन
राजनीति विज्ञान मूलतः मनुष्य के अध्ययन से सम्बंधित है। मनुष्य एक
सामाजिक प्राणी है और वह राज्य से किंचित मात्र भी अपने को पृथक
नही रख सकता। इसी कारण अरस्तु की यह मान्यता है कि राज्य या
समाज मे ही रहकर मनुष्य आत्मनिर्भर हो सकता है। मनुष्य राज्य की
गतिशीलता का आधार है। राज्य की समस्त गतिविधियां मनुष्य के इर्द-
गिर्द के न्द्रीत होती है। मानव के विकास की प्रत्येक आवश्यकता राज्य पूरी
करता है, उसे अधिकार देता है तथा उसे स्वतंत्रता का सुख प्रदान करता
है। परम्परागत दृष्टिकोण मनुष्य के राजनीतिक जीवन को राजनीति
विज्ञान के विषय-क्षेत्र मे रखता है, जबकि व्यावहारवादी दृष्टिकोण मनुष्य
के समग्र जीवन को इसमें सम्मिलित करता है।
2. राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन
राज्य राजनीतिक विज्ञान का के न्द्रीय विषय है, सरकार इसको मूर्तरूप
देती है। राज्य की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि इसके माध्यम से ही
जीवन की आवश्यकताएं पूरी की जा सकती है। परन्तु राजनीतिक जीवन
का उद्देश्य मात्र दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति नही है। जैसा
कि अरस्तु ने लिखा है " राज्य का जन्म दैनिक जीवन की आवश्यकताओं
की पूर्ति के लिए होता है, परन्तु इसका अस्तित्व एक अच्छे जीवन के
लिए कायम रहता है।" इस रूप मे राज्य मानव के लिए अपरिहार्य संस्था
है।
राजनीति विज्ञान के क्षेत्र का वर्णन करते हुए गैटिल ने लिखा है,"
राजनीति विज्ञान राज्य के भूतकालीन स्वरूप की ऐतिहासिक गवेषणा,
के र्त की वि श्ले के र्श
4. उसके वर्तमान स्वरूप की विश्लेषणात्मक व्याख्या तथा उसके आदर्श
स्वरूप की राजनीतिक विवेचना है।"
राजनीतिक विज्ञान मे सर्वप्रथम राज्य के अतीत का अध्ययन किया जाता
है। इससे हमें राज्य एवं उसकी विभिन्न संस्थाओं के वर्तमान स्वरूप को
समझने तथा भविष्य मे उनके सुधार एवं विकास का आधार निर्मित कर
सकने मे सहायता मिलती है।
राजनीतिक विज्ञान राज्य के वर्तमान स्वरूप का भी अध्ययन करता है।
राजनीतिक विज्ञान के क्षेत्र का यह अंग सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि
प्रत्येक व्यक्ति राज्य से अनिवार्यतः जुड़ा हुआ है। वर्तमान के संदर्भ मे
राज्य के अध्ययन के अंतर्गत हम राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन करते
है, उसी रूप मे जिस रूप मे वे क्रियाशील है। हम व्यावहारिक निष्कर्षों के
आधार पर राज्य के कार्यों एवं उसकी प्रकृ ति का अध्ययन करते है। इसके
अतिरिक्त हम राजनीतिक दलों एवं हित-समूहों, स्वतंत्रता एवं समानता
की अवधारणाओं एवं इनके मध्य सम्बन्धों सत्ता तथा व्यक्तिगत
स्वतंत्रता, अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के एक सदस्य के रूप मे राज्य के विकास
आदि का भी अध्ययन करते है। इतना ही नही राजनीतिक विज्ञान के क्षेत्र
मे हम यह भी अध्ययन करते है कि राज्य आने वाले समय मे कै सा हो
सकता है अथवा अपने आदर्श रूप मे उसे कै सा होना चाहिए।
3. सरकार का अध्ययन
परम्परागत राजनीति विज्ञान में सरकार का अध्ययन किया जाता है
सरकार राज्य का अभिन्न अंग है राज्य एक अमूर्त संस्था है जबकि
सरकार उसका मूर्त रूप है।
क्रॉसे के अनुसार," सरकार ही राज्य है और सरकार में ही राज्य पूर्णता
प्राप्त कर सकता है, वस्तुतः सरकार के बिना राज्य का अध्ययन अपूर्ण
है
5. है।"
सरकार राज्य की प्रभुसत्ता का प्रयोग करती है। सरकार ही राज्य की
इच्छाओं और आकांक्षाओं को व्यावहारिक रूप प्रदान रकती है। सरकार
के विभिन्न रूपों का अध्ययन राजनीतिशास्त्र में किया जाता है।
सरकार के विभिन्न अंगों (व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और
न्यायपालिका) का अध्ययन भी इसमें किया जाता है। लीकॉक ने तो
स्पष्टतया राजनीतिशास्त्र को सरकार का अध्ययन कहा जाता है।
4. शासन प्रबन्ध का अध्ययन
लोक प्रशासन राजनीति विज्ञान का एक भाग होते हुए भी आज पृथक
विषय बन गया है परन्तु उसकी मूल बातों का अध्ययन राजनीति विज्ञान
के अन्तर्गत आज भी किया जाता है। असैनिक कर्मचारियों की भर्ती,
प्रशिक्षण, उन्नति, उनका जनता के प्रतिनिधियों से सम्बन्ध तथा प्रशासन
को अति कु शल और लोकहितकारी तथा उत्तरदायी बनाने के बारे में
अध्ययन राजनीति विज्ञान में किया जाता है।
5. राजनीति सिद्धांतों का अध्ययन
इसके अन्तर्गत राज्य की उत्पत्ति, विकास, संगठन, स्वभाव, उद्देश्य एवं
कार्य आदि का अध्ययन सम्मिलित है। इस प्रकार राजनीतिक विज्ञान का
सम्बन्ध मुख्यतः राजनीतिक दल के लक्ष्य संस्थाओं तथा प्रक्रियाओं से
होता है। इसके आधार पर सामान्य नियम निर्धारित करने का प्रयत्न किया
जाता है।
6. अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध का अध्ययन
वर्तमान युग मे अन्तर्राष्ट्रीय विकास की बढ़ती हुई गति ने यह स्पष्ट कर
दिया है कि समस्त संसार एक होता जा रहा है फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय
धों है वि ने री औ वि
6. सम्बन्धों का महत्व बढ़ता जा रहा है। विज्ञान ने दूरी और समय पर विजय
प्राप्त करके संसार के राष्ट्रों मे सम्बन्धों को स्थापित करने की प्रेरणा दी
है। अतः अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति, अन्तर्राष्ट्रीय विधि एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगठन
आदि का अध्ययन अब राजनीतिक विज्ञान के विषय क्षेत्र बन गये है।
7. राजनीतिक दलों का अध्ययन
राजनीतिक दल और दबाव गुट वे संस्थाएँ हैं जिनके द्वारा राजनीतिक
जीवन को गति दी जाती है। आजकल तो राजनीतिक दलों और दबाव
गुटों के अध्ययन का महत्व संविधान और शासन के औपचारिक संगठन
के अध्ययन से अधिक है। इस प्रकार का अध्ययन राजनीतिक जीवन को
वास्तविकता से सम्बन्धित करता है।
उपरोक्त विवेचन से सिद्ध होता है कि राजनीति-विज्ञान का अध्ययन क्षेत्र
अत्यंत व्यापक है। इसमे राज्य के साथ मनुष्य के उन सम्पूर्ण
क्रियाकलापों का अध्ययन किया जाता है, जिसका सम्बन्ध राज्य अथवा
सरकार से होता है। इस प्रकार राजनीति-विज्ञान मनुष्य और मनुष्य के
तथा मनुष्य और राज्य के पारस्परिक सम्बन्धों पर विचार करता है।
सरकार के विभिन्न अंगों, उनके संगठन, उनमे शासन सत्ता का विभाजन
तथा राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का भी अध्ययन करता है।
राज्य और समाज में अंतर
राज्य और समाज में निम्नलिखित अंतर हैं--
1. राज्य एक राजनीतिक व्यवस्था, समाज एक सामजिक व्यवस्था है।
समाज से उन मनुष्यों का ज्ञान होता है जो परस्पर सामाजिक बन्धन में
रहते हैं। राज्य समाज का वह यन्त्र है जिसके द्वारा समाज में शान्ति
स्थापित होती है।
7. 2. समाज के पास प्रभुसत्ता नहीं रहती, राज्य के पास रहती है। राज्य के
कानून भंग करने पर राज्य द्वारा दण्ड दिया जा सकता है।
3. समाज राज्य से पहले बना है। जब मनुष्य संगठित नहीं था घुमक्कड
तथा कबीलों के रूप में रहता था तब भी वहाँ समाज था। राज्य का
विकास बाद में हुआ , जब मनुष्य ने सभ्यता से तथा संगठित होकर रहना
सीखा। 4. राज्य मनुष्य के राजनीतिक पहलू से सम्बन्धित है, समाज
नैतिक पहलू से।
5. समाज के लिए क्षेत्र आवश्यक नहीं, राज्य के लिए है। समाज स्थानीय
भी और अन्तर्राष्ट्रीय भी हो सकता है।
राज्य और शासन
हम लोग अपने दिन-प्रतिदिन के वार्तालाप में राज्य एवं शासन को
पर्यायवाची मानते हैं। इस संबंध में एक फ्रें च किसान की यह कथा बड़ी
रोचक है कि वह अपने देश की लोकसभा के भवन में प्रवेश करना चाहता
था। जब संतरी ने उसे टोका तो उसने कहा, " मैं राज्य से मिलना चाहता
हूँ।" राज्य और शासन को एक मानने की प्रवृत्ति के वल जन-साधारण तक
ही सीमित नहीं है, यह बहुत से राजनीतिक विचारकों में भी दिखाई देती
है। उदाहरणार्थ, क्रोचे का कहना है कि राजनीतिक दृष्टि से राज्य एवं
शासन एक ही चीज है।" इसी भाँति जी. डी. एच . कोल का विचार है
कि," राज्य एक समुदाय की शासन व्यवस्था के अतिरिक्त कु छ नहीं है।"
हैनरी कोईन, डब्लू जी. सुमनर, एच जी के लर तथा लास्की आदि
वि कों भी ही है की है कि
8. विचारकों का भी यही मानना है। लास्की का कहना है कि राज्य एवं
शासन का भेद व्यावहारिक महत्त्व का नहीं है वह सैद्धान्तिक रुचि का भले
ही है। हमारे सामने राज्य का जो कार्य आता है। वह वस्तुतः शासन का
कार्य होता है। राज्य और शासन को एक मानने की इस प्रवृत्ति के बावजूद
हमें उनके शैक्षणिक भेद को समझ लेना चाहिए।
अधिकार और राज्य में संबंध
अधिकार और राज्य में क्या संबंध है? इस प्रश्न के हमें दो उत्तर मिलते हैं।
एक उत्तर प्राकृ तिक अधिकारों, के सिद्धांत के समर्थकों का है। इस
सिद्धांत के अनुसार अधिकार राज्य के पूर्ववर्ती होते हैं। प्रकृ ति उन्हें मनुष्यों
को प्रदान करती है। दूसरे शब्दों में वे जन्मजात होते हैं। अधिकारों और
राज्य के संबंध के बारे में दूसरा उत्तर अधिकारों के कानूनी सिद्धांत के
समर्थकों का है। इस सिद्धांत के अनुसार अधिकारों की सृष्टि राज्य द्वारा
होती हैं। नागरिक के वल उन्हीं अधिकारों का उपभोग कर सकता है जो
उसे राज्य द्वारा प्राप्त होते हैं म। राज्य के कानून नागरिक को जिस कार्य
के करने की अनुमति नहीं देते, वह कार्य अधिकार का रूप नहीं धारण कर
सकता।
यद्यपि प्राकृ तिक अधिकारों के सिद्धांत में एक महत्त्वपूर्ण सत्य निहित है
लेकिन उसे सर्वांश में स्वीकार नहीं किया जा सकता यह सही है कि राज्य
समस्त अधिकारों की सृष्टि नहीं करता। लेकिन यह भी नहीं माना जा
सकता कि अधिकारों का अस्तित्व राज्य संस्था से पृथक होता है या वे
राज्य के नियंत्रण से सर्वथा स्वतंत्र होते हैं। यह बात बिल्कु ल स्पष्ट है कि
अधिकारों का उपभोग के वल एक सभ्य समाज में ही किया जा सकता है
समाज से पृथक अधिकार नाम की किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं हो
दि में क्ति यों भो ते थे धि रों
9. सकता। आदिम समाज में मनुष्य शक्तियों का उपभोग करते थे अधिकारों
का नहीं शक्तियों का मूल शारीरिक बल है जब कि अधिकार संपूर्ण
समाज की सामान्य सहमति और सामान्य प्रेरणा पर आधारित होते हैं।
इसी प्रकार जंगल के पशु शक्तियों का उपभोग करते हैं, अधिकारों का
नहीं सभ्य समाज में विभिन्न व्यक्तियों की शारीरिक और मानसिक
क्षमताओं में आकाश पाताल का अंतर होता है लेकिन इस अंतर के होते
हुए भी वे सर्वसामान्य अधिकारों का समान रीति से प्रयोग करते हैं
उदाहरण के लिए हम जीवन रक्षा के अधिकार को ले सकते हैं। इस
अधिकार का प्रयोग लोग इसीलिए तो कर सकते हैं क्योंकि उनकी पीठ
पर राज्य की शक्ति होती है। यदि उनकी पीठ पर राज्य की सत्ता न हो तो
इस बात की शंका हो सकती है कि कु छ लोग इस अधिकार का उल्लंघन
करें।
सभ्य समाज में यदि कोई व्यक्ति इस अधिकार का उल्लंघन करता है, तो
राज्य उसे दंड देता है। इस प्रकार हम यह नहीं कह सकते कि राज्य ही
सब अधिकारों का स्रष्टा है। परंतु हम यह अवश्य कह सकते हैं कि राज्य
अधिकारों की रक्षा करता है। इसी बात को वाइल्ड ने कहा है, " कानून
अधिकारों की सृष्टि नहीं करते परंतु उन्हें स्वीकार करते और उनकी रक्षा
करते हैं।" कहने का सार यह है कि अधिकारों का पालन के वल राज्य में
कानूनों के अंतर्गत ही संभव है।