पौराणिक काल की समुद्र मंथन की कहानी वास्तव में वह रहस्यमय कथा है जिसका रहस्य समुद्र से भी अधिक गहरा है। कभी-कभी इस घटना को काल्पनिक मानने का मन करता है। क्योंकि समुद्र मंथन में जिन भी घटनाओं का वर्णन किया गया है वह असंभव सी प्रतीत होती है लेकिन जब उनकी सच्चाई के जीते-जागते प्रमाण हमारी पृथ्वी पर मिलते हैं तो मन इस अदभुत घटना को सच मानने के लिए विवश हो जाता है़।
लेकिन बैठक में कोई उपाय न निकल सका। तब देवगणों ने आपस में विचार-विमर्श किया कि क्यों न बैकुंठ धाम में निवास करने वाले विष्णु जी के पास चला जाये। वही देवताओं को इस भारी संकट से बाहर निकाल सकते हैं। इस निर्णय के अनुसार सभी देवता गण ब्रह्मा जी के साथ “भगवान विष्णु” के पास पहुंचे। इससे पहले कि भगवान विष्णु के सामने देवता गण अपनी समस्या को रखते वह पहले ही मुस्कुराने लगे।
आज हम आपको इस समुद्र मंथन की दिलचस्प कथा से आपका विस्तार से परिचय कराते हैं, जिसमें भगवान विष्णु ने वह चमत्कारी लीला दिखायी जिसे, जिस किसी ने भी देखा दंग गया। यह वह समय था जब ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण देवताओं की शक्ति क्षीण होती जा रही थी। दैत्यराज बालि ने देवलोक पर अपना आधिपत्य जमा लिया था। असुरों ने तीनो लोक में त्राहि-त्राहि मचा रखी थी।
पौराणिक काल की समुद्र मंथन की कहानी वास्तव में वह रहस्यमय कथा है जिसका रहस्य समुद्र से भी अधिक गहरा है। कभी-कभी इस घटना को काल्पनिक मानने का मन करता है। क्योंकि समुद्र मंथन में जिन भी घटनाओं का वर्णन किया गया है वह असंभव सी प्रतीत होती है लेकिन जब उनकी सच्चाई के जीते-जागते प्रमाण हमारी पृथ्वी पर मिलते हैं तो मन इस अदभुत घटना को सच मानने के लिए विवश हो जाता है़।
लेकिन बैठक में कोई उपाय न निकल सका। तब देवगणों ने आपस में विचार-विमर्श किया कि क्यों न बैकुंठ धाम में निवास करने वाले विष्णु जी के पास चला जाये। वही देवताओं को इस भारी संकट से बाहर निकाल सकते हैं। इस निर्णय के अनुसार सभी देवता गण ब्रह्मा जी के साथ “भगवान विष्णु” के पास पहुंचे। इससे पहले कि भगवान विष्णु के सामने देवता गण अपनी समस्या को रखते वह पहले ही मुस्कुराने लगे।
आज हम आपको इस समुद्र मंथन की दिलचस्प कथा से आपका विस्तार से परिचय कराते हैं, जिसमें भगवान विष्णु ने वह चमत्कारी लीला दिखायी जिसे, जिस किसी ने भी देखा दंग गया। यह वह समय था जब ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण देवताओं की शक्ति क्षीण होती जा रही थी। दैत्यराज बालि ने देवलोक पर अपना आधिपत्य जमा लिया था। असुरों ने तीनो लोक में त्राहि-त्राहि मचा रखी थी।
शनिदेव, हिन्दू धर्म में एक महत्वपूर्ण देवता हैं जिन्हें शनिश्चर भी कहा जाता है। उन्हें कर्मफल के देवता माना जाता है, और उनका प्रभाव व्यक्ति के कर्मों के अनुसार होता है। शनि देवता को यहां विशेष रूप से न्याय और कर्मफल के विचार में जाना जाता है:
कर्मफल के देवता: शनिदेव को कर्मफल के प्रबंधन का अधिकारी माना जाता है। व्यक्ति के कर्मों के आधार पर उनका प्रभाव होता है, और यह उसके जीवन में संघर्षों और परिक्षणों की परीक्षा के रूप में प्रकट हो सकता है।
न्याय और इंसाफ: शनिदेव को न्याय के देवता के रूप में भी जाना जाता है। उन्हें मिलने वाले फलों की विधि और विचार का प्रमुख समर्थन करने वाले माना जाता हैं।
शिक्षा और सीखने का संकेत: शनिदेव की पूजा और उनके मंत्रों का जप करने से यह भी सिखने का संकेत हो सकता है कि व्यक्ति को अपने कर्मों में सीखना चाहिए और उन्हें न्यायपूर्ण रूप से करना चाहिए।
शनिदेव की उपासना से विविध आदर्शों और सिद्धांतों का समर्थन होता है, जिसमें कर्मफल, न्याय, और सीखने का महत्व होता है।
शनि के स्वरुप का वर्णन करते हुए महर्षि पराशर जी ने बृहत होराशास्त्र में शनि का शरीर दुबला-पतला लेकिन लंबा, नेत्र पिंगलवर्णी दांत मोटे स्वभाव आलसी व शनि के रोम तीखे व कठोर बतलाया है। यह शुद्र वर्णी व तामसी प्रवृति के हैं।
मतस्य पुराण में शनिदेव की कांति को इंद्रमणि जैसा बतलाया है व शनिदेव हाथ में धनुष, त्रिशुल व वरमुद्रा धारण किए हुए लोहनिर्मित रथ पर विराजमान बतलाया है । आचार्य वराह मिहिर रचित बृहत संहिता में शनिदेव को मंदबुद्धि, कृशकाय, नेत्र पिंगलवर्णी, विकृत दांत वात प्रवृति व रुखे बालों वाला ग्रह बतलाया है ।
ग्रहों में शनिदेव को क्रूर, पापीग्रह के रुप में जाना जाता है । जिस पर भी शनिदेव की क्रूर दॄष्टि पड़ जाए उसका विनाश हो जाता है । शनिदेव की दशा का प्रभाव किसी भी जातक पर प्राय: 36 से 45 वर्ष की आयु में अधिक रहता है । शनि की दशा में काले घोड़े की नाल का छल्ला या नौका की कील से बना छल्ला धारण करें । शनि का प्रमुख रत्न नीलम है । नीलम के अभाव में जामुनिया, नीलमा, नीला कटहला भी धारण किया जा सकता है। शनि का स्थायी निवास पशिचम दिशा है वैसे इनके आधिपत्य में सौराष्ट्र प्रदेश, घाटियां, बंजरभूमि, मरुस्थल, भंगनिवास, कोयले की खान, जंगम पर्वत, मलिन स्थल है।
शनिदेव के कारकत्व – आलस्य, हाथी, रोग, विरोध, दासकर्म, काले धान्य, झूठ बोलना, नपुंसकता, चांड़ाल, विकृत अंग, शिशिर ऋतु, लोहा, शल्य विधा, कुत्ता, प्रेत, आग, वायु, वृद्ध, वीर्य, संध्या, अतिक्रोध, स्त्रीपुरक सुख, कारावास, स्नायु, अवैध संतान, यम पूजक, वैश्य, कृषि कर्म, शूद्र, पशिचम दिशा, कंबल, बकरा, रतिकर्म, पुराना तेल, भय, मणि, वनचर, मरण आदि।
शनिदेव के छायासुत, क्रुरलोचन, पंगु, पंगुकाय, यम, सूर्यतनय, कोण, अर्की, असित, अर्कपुत्र, दीर्घ छायात्मज, सौरि, मंद, पांतगी, नील, मृदु, कपिलाक्ष आदि पर्यायवाची नाम है।
शनिदेव की दान योग्य वस्तुएं उड़द, काले जुते, काले चने, काले कपड़े, काली गाय, काले पुष्प, लोहा, तेल, नीलम, गोमेद, जामुन, आदि हैं।
लोहा, तेल, कोयला, चमड़ा, हाथी दांत, ड्राईविंग, बढ़ईगिरी, वकालत, चाय – काफी विक्रय, लिपिक, दलाली, जल्लाद, क्रय-विक्रय, खदान का कार्य, पेंटर, लाटरी, सट्टा, राजनिति, भिक्षावृति आदि शनिदेव से संबंधी व्यवसाय हैं।
Jageshwar Temples, also referred to as Jageswar Temples or Jageshwar valley temples, are a group of over 100 Hindu temples dated between 7th and 12th century near Almora, in the Himalayan Indian state of Uttarakhand.
This presentation is prepared for the BA students to get basic and general information on the subject. This presentation is incomplete and students advised to get the further and proper information from subjective and recommended books and research articles.
प्रजापिता ब्रह्माकुमारीज धनबाद सेंटर शिव जयंतीR K Gupta
प्रजापिता ब्रह्माकुमारीज के धनबाद सेंटर में मंगलवार को शिव की जयंती के साथ-साथ श्या मनगर सेंटर (प. बंगाल) की प्रमुख राजयोगि नी कमला दीदी का जन्मदि न भी केक काट कर मनाया गया. इस मौके पर सांस्कृति क कार्यक्रम पेश करती बच्ची.
Samvad is a lab newspaper prepared by students of the School of Journalism, Mass Communication and New Media at the Central University of Himachal Pradesh.
यह पीपीटी एक कुत्ते और एक मैना पर आधारित है| कक्षा नौवीं की हिंदी की किताब का चैप्टर आठ है | ये काफी सरल पीपीटी है जो कुत्ते और मैना के बारे में बताती है। ppt on maina
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Like it !
Made By Danish Joshi
शनिदेव, हिन्दू धर्म में एक महत्वपूर्ण देवता हैं जिन्हें शनिश्चर भी कहा जाता है। उन्हें कर्मफल के देवता माना जाता है, और उनका प्रभाव व्यक्ति के कर्मों के अनुसार होता है। शनि देवता को यहां विशेष रूप से न्याय और कर्मफल के विचार में जाना जाता है:
कर्मफल के देवता: शनिदेव को कर्मफल के प्रबंधन का अधिकारी माना जाता है। व्यक्ति के कर्मों के आधार पर उनका प्रभाव होता है, और यह उसके जीवन में संघर्षों और परिक्षणों की परीक्षा के रूप में प्रकट हो सकता है।
न्याय और इंसाफ: शनिदेव को न्याय के देवता के रूप में भी जाना जाता है। उन्हें मिलने वाले फलों की विधि और विचार का प्रमुख समर्थन करने वाले माना जाता हैं।
शिक्षा और सीखने का संकेत: शनिदेव की पूजा और उनके मंत्रों का जप करने से यह भी सिखने का संकेत हो सकता है कि व्यक्ति को अपने कर्मों में सीखना चाहिए और उन्हें न्यायपूर्ण रूप से करना चाहिए।
शनिदेव की उपासना से विविध आदर्शों और सिद्धांतों का समर्थन होता है, जिसमें कर्मफल, न्याय, और सीखने का महत्व होता है।
शनि के स्वरुप का वर्णन करते हुए महर्षि पराशर जी ने बृहत होराशास्त्र में शनि का शरीर दुबला-पतला लेकिन लंबा, नेत्र पिंगलवर्णी दांत मोटे स्वभाव आलसी व शनि के रोम तीखे व कठोर बतलाया है। यह शुद्र वर्णी व तामसी प्रवृति के हैं।
मतस्य पुराण में शनिदेव की कांति को इंद्रमणि जैसा बतलाया है व शनिदेव हाथ में धनुष, त्रिशुल व वरमुद्रा धारण किए हुए लोहनिर्मित रथ पर विराजमान बतलाया है । आचार्य वराह मिहिर रचित बृहत संहिता में शनिदेव को मंदबुद्धि, कृशकाय, नेत्र पिंगलवर्णी, विकृत दांत वात प्रवृति व रुखे बालों वाला ग्रह बतलाया है ।
ग्रहों में शनिदेव को क्रूर, पापीग्रह के रुप में जाना जाता है । जिस पर भी शनिदेव की क्रूर दॄष्टि पड़ जाए उसका विनाश हो जाता है । शनिदेव की दशा का प्रभाव किसी भी जातक पर प्राय: 36 से 45 वर्ष की आयु में अधिक रहता है । शनि की दशा में काले घोड़े की नाल का छल्ला या नौका की कील से बना छल्ला धारण करें । शनि का प्रमुख रत्न नीलम है । नीलम के अभाव में जामुनिया, नीलमा, नीला कटहला भी धारण किया जा सकता है। शनि का स्थायी निवास पशिचम दिशा है वैसे इनके आधिपत्य में सौराष्ट्र प्रदेश, घाटियां, बंजरभूमि, मरुस्थल, भंगनिवास, कोयले की खान, जंगम पर्वत, मलिन स्थल है।
शनिदेव के कारकत्व – आलस्य, हाथी, रोग, विरोध, दासकर्म, काले धान्य, झूठ बोलना, नपुंसकता, चांड़ाल, विकृत अंग, शिशिर ऋतु, लोहा, शल्य विधा, कुत्ता, प्रेत, आग, वायु, वृद्ध, वीर्य, संध्या, अतिक्रोध, स्त्रीपुरक सुख, कारावास, स्नायु, अवैध संतान, यम पूजक, वैश्य, कृषि कर्म, शूद्र, पशिचम दिशा, कंबल, बकरा, रतिकर्म, पुराना तेल, भय, मणि, वनचर, मरण आदि।
शनिदेव के छायासुत, क्रुरलोचन, पंगु, पंगुकाय, यम, सूर्यतनय, कोण, अर्की, असित, अर्कपुत्र, दीर्घ छायात्मज, सौरि, मंद, पांतगी, नील, मृदु, कपिलाक्ष आदि पर्यायवाची नाम है।
शनिदेव की दान योग्य वस्तुएं उड़द, काले जुते, काले चने, काले कपड़े, काली गाय, काले पुष्प, लोहा, तेल, नीलम, गोमेद, जामुन, आदि हैं।
लोहा, तेल, कोयला, चमड़ा, हाथी दांत, ड्राईविंग, बढ़ईगिरी, वकालत, चाय – काफी विक्रय, लिपिक, दलाली, जल्लाद, क्रय-विक्रय, खदान का कार्य, पेंटर, लाटरी, सट्टा, राजनिति, भिक्षावृति आदि शनिदेव से संबंधी व्यवसाय हैं।
Jageshwar Temples, also referred to as Jageswar Temples or Jageshwar valley temples, are a group of over 100 Hindu temples dated between 7th and 12th century near Almora, in the Himalayan Indian state of Uttarakhand.
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प्रजापिता ब्रह्माकुमारीज के धनबाद सेंटर में मंगलवार को शिव की जयंती के साथ-साथ श्या मनगर सेंटर (प. बंगाल) की प्रमुख राजयोगि नी कमला दीदी का जन्मदि न भी केक काट कर मनाया गया. इस मौके पर सांस्कृति क कार्यक्रम पेश करती बच्ची.
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यह पीपीटी एक कुत्ते और एक मैना पर आधारित है| कक्षा नौवीं की हिंदी की किताब का चैप्टर आठ है | ये काफी सरल पीपीटी है जो कुत्ते और मैना के बारे में बताती है। ppt on maina
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कबीरदास
जन्म : 1398, लहरतारा ताल, काशी
पिता का नाम : नीरू
माता का नाम : नीमा
पत्नी का नाम : लोई
बच्चें : कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री)
मुख्य रचनाएँ : साखी, सबद, रमैनी
मृत्यु : 1518, मगहर, उत्तर प्रदेश
ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौ सुख होइ॥
रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रस्तुत कविता का बंगला से हिन्दी अनुवाद श्रद्धेय आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने किया है। द्विवेदी जी का हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने मे अपूर्व योगदान है। यह अनुवाद बताता है कि अनुवाद कैसे मूल रचना की ‘आत्मा’ को अक्षुण्ण बनाए रखने में सक्षम है।
प्रस्तुत पाठ जो युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म ‘हकीकत’ के लिए लिखा गया था, ऐसे ही सैनिकों के हृदय की आवाज बयान करता है, जिन्हें अपने किए–धरे पर नाज है। इसी के साथ उन्हें अपने देशवासियों से कुछ अपेक्षाएँ भी हैं। चूँकि जिनसे उन्हें ये अ्पेक्षाएँ हैं वे देश वासी और कोई नहीं, हम और आप ही हैं, इसलिए आइए, इसे पढ़कर अपने आप से पूछें कि हम उनकी अपेक्षाएँ पूरी कर रहे हैं या नहीं?
पर्वत प्रदेश में पावस - सुमित्रानंदन पंत
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण-सा फैला है विशाल!
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों-से सुंदर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षाओं से तरुवर
हैं झाँक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर।
उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार पारद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल।
पाठ योजना
कक्षा :
दिनांक :
पाठ का नाम : कबीर की साखी
सर्वप्रथम विद्यार्थियों को कबीरदास का परिचय देते हुए उनके काव्य पाठ ’ साखी ’ का भाव एंव व्याख्यान निम्नलिखित रुप से बताया जाएगा।
प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त
छायावादी कवियों में सुमित्रानन्दन पन्त एक मात्र ऐसे कवि है, जिन्हें प्रकृति के सुकुमार कवि' के रुप में ख्याति प्राप्त है, प्रकृति पन्त जी के काव्य की मूल प्रेरक चेतना रही है, जैसा कि उसने स्वीकार किया है - “कविता करने की प्रेरणा मुझे सब से पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है, प्रकृति सौंन्दर्य में रमा कवि नारी सौंदर्य की भी उपेक्षा कर देता है -
"छोड द्रुमों की मृद छाया,
तोड प्रकृति की भी माया
बाले तेरे बालजाल में -
कैसे उलझा दूँ लोचन
भूल अभी से
इस जग को।"
पन्तजी के काव्य में प्रकृति परंपरागत सभी काव्य रूपों में विद्यमान है। आलम्बन के रुप में प्रकृति चित्रण में उनकी काव्य प्रतिभा प्रकृति के मानवीय रुप में लोचन चित्रण मिलती है। इस दृष्टि से "नौका विहार और परिवर्तन” कविताएँ उल्लेखनीय है -
शांत, स्निग्ध, ज्योत्सना उज्ज्वल।
अपलक, अनन्त, नीरव भूतल!
शैकत-शैया पर दुग्ध-धवल, तत्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल
लेटी है श्रान्त क्लान्त, निश्चल"|
पन्त जी ने गंगा नदी को मानवीय भाव, आकार, प्रकार, वेशभूषा, साज-सज्जा आदि ने सुसज्जित करके एक तापस-बाला के रूप में अत्यन्त सजीवता तथा सचेत के साथ अंकित किया है।
ग्रीष्म ऋतु की एक चाँदनी रात में कवि अपने मित्रों के साथ गंगा नदी के तट पर शार करने गये थे। कवि पन्त अपने मित्रों के साथ सैर करते समय कवि की भावनाएँ सहज ही फूट पड़ी। जिन्हें उन्होने थथाकत सुन्दर कविता के रूप में अंकित कर दिया है। जिस समय वे सैर कर रहे थे उस समय वातावरण बिलकुल शान्त एवं स्निग्ध था। राकेंदु की स्वच्छ किरणों की शीतलता वातावरण को आहलाद पूर्ण बना रही थी। अनंत आकाश निर्मल एवं स्वच्छ तथा मेघ रहित था। सारा भूतल निःशब्ध था। शौकत शैया पर धुंध-सी धवल, युवती-सी ग्रीष्म ताप से पीड़ित गंगा थककर निश्चिन्त होती है।
"अहेनिष्ठुर परिवर्तन?
तुम्हारा ही तांडव-नर्तन,
विश्व का करुण विवर्तन।
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान पतन"।
यह परिवर्तन बड़ा ही तिष्ठुर है। इसका तांडव सदैव होता रहता है और इसके नयनोन्मीलन से संसार में निरन्तर उत्थान एवं पतन होते रहते हैं। पन्त जी ने परिवर्तन कविता में संसार की अचरिता को देखकर पतन को निःश्वास भरते हुए दिखाया है, समुद्र की सिसकिया भरते और नक्षत्रों को सिहरते हुए बताया है –
“अचिरता देख जगती की आप,
शून्य भरता समीर निःश्वास,
डलता पातों पर चुपचाप,
ओस को आँसू नीलाकाश,
सिसक उठता समुद्र का मन,
सिहर उठते उडुगन”।
कविवर पन्त प्रकृति के सच्चे उपासक है। प्रकृति उसकी हास-रूदन की प्रेरक है, उद्धीपक है और उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम भी है।
“Her Identity and Emancipation” - Gelaxy International Inter disciplinary Research Journal
(ISSN 2347-6915) - GIIRJ, Vol.2(1), January, 2014, PP-142-143.
http://internationaljournals.co.in/pdf/GIIRJ/2014/January/11.pdf
“निर्मलवर्मा का परिचय एवं साहित्य दृष्टि” – Review of Research Journal, ISSN: 2249-894X, I.F: 5.7631(UIF) Volume 8, Issue 5, February 2019. (UGC Journal No. 48514)
http://oldror.lbp.world/UploadedData/7502.pdf
“नागार्जुन की कविताओं में राजनीतिक व्यंग्य” – Review of Research Journal, ISSN: 2249-894X, I.F: 5.7631(UIF) Volume 8, Issue 7, APRIL 2019. (UGC Journal No. 48514)
http://oldror.lbp.world/UploadedData/8188.pdf
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2. आदिगुरु शंकराचार्य
निी की वेगवती धारा में मााँ-बेटे दिर गए
थे। बेटे ने मााँ से कहा - "र्दि आप मुझे
सन्यास लेने की आज्ञा िें तो मैं बचने की
चेष्टा कर
ाँ , अन्यथा र्हीं ड
ू ब जाऊ
ाँ गा।
उसने अपने हाथ-पैर ढीले छोड़ दिए। पुत्र
को ड
ू बता िेखकर उसकी मााँ ने स्वीक
ृ दत िे
िी। पुत्र ने स्वर्ं तथा मााँ िोनों को बचा
दलर्ा।'
- र्ह बालक शंकराचार्य थे।
3. शंकराचार्य क
े मन में बचपन से ही संन्यासी बनने
की प्रबल इच्छा जाग उठी थी। मााँ की अनुमदत
दमलने पर वे संन्यासी बन गए।
शंकराचार्य क
े बचपन का नाम शंकर था। इनका
जन्म िदिण भारत क
े क
े रल प्रिेश में पूणाय निी
क
े तट पर स्थथत कालडी ग्राम में आज से लगभग
बारह सौ वर्य पहले हुआ था। इनक
े दपता का
नाम दशवगुरु तथा माता का नाम आर्यम्बा था।
इनक
े दपता बड़े दवद्वान थे तथा इनक
े दपतामह
भी वेि-शास्त्र क
े प्रकाण्ड दवद्वान थे। इनका
पररवार अपने पांदडत्य क
े दलर्े दवख्यात था।
4. इनक
े बारे में ज्योदतदर्र्ों ने भदवष्यवाणी की थी -
'आपका पुत्र महान दवद्वान, र्शस्वी तथा भाग्यशाली
होगा' इसका र्श पूरे दवश्व में फ
ै लेगा और इसका नाम
अनन्त काल तक अमर रहेगा'। दपता दशवगुरु र्ह
सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्ोंने अपने पुत्र का नाम शंकर
रखा। र्े अपने मााँ-बाप की इकलौती सन्तान थे। शंकर
तीन ही वर्य क
े थे दक इनक
े दपता का िेहान्त हो गर्ा।
दपता की मृत्यु क
े बाि मााँ आर्यम्बा शंकर को िर पर ही
पढाती रही। पााँचवे वर्य उपनर्न संस्कार हो जाने पर मााँ
ने इन्ें आगे अध्यर्न क
े दलए गुरु क
े पास भेज दिर्ा।
शंकर क
ु शाग्र एवं अलौदकक बुस्ि क
े बालक थे। इनकी
स्मरण शस्ि अद्भत थी। जो बात एक बार पढ लेते र्ा
सुन लेते उन्ें र्ाि हो जाती थी। इनक
े गुरु भी इनकी
प्रखर मेधा को िेखकर आश्चर्यचदकत थे। शंकर क
ु छ ही
दिनों में वेिशास्त्रों एवं अन्य धमयग्रन्ों में पारंगत हो गर्े।
शीघ्र ही इनकी गणना प्रथम कोदट क
े दवद्वानों में होने
लगी।
5. शंकर गुरुक
ु ल में सहपादठर्ों क
े साथ दभिा मााँगने जाते
थे। वे एक बार कहीं दभिा मााँगने गर्े। अत्यन्त दवपन्नता
क
े कारण गृहस्वादमनी दभिा न िे सकी अतः रोने लगी।
शंकर क
े हृिर् पर इस िटना का गहरा प्रभाव पड़ा।
दवद्या अध्यर्न समाप्त कर शंकर िर वापस लौटे। िर
पर वे दवद्यादथयर्ों को पढाते तथा मााँ की सेवा करते थे।
इनका ज्ञान और र्श चारों तरफ फ
ै लने लगा। क
े रल क
े
राजा ने इन्ें अपने िरबार का राजपुरोदहत बनाना चाहा
दकन्तु इन्ोंने बड़ी दवनम्रता से अस्वीकार कर दिर्ा।
राजा स्वर्ं शंकर से दमलने आर्े। उन्ोंने एक हजार
अशदफ
य र्ााँ इन्ें भेंट की और इन्ें तीन स्वरदचत नाटक
दिखार्े। शंकर ने नाटकों की प्रशंसा की दकन्तु
अशदफ
य र्ााँ लेना अस्वीकार कर दिर्ा। शंकर क
े त्याग
एवं गुणग्रादहता क
े कारण राजा इनक
े भि बन गए।
6. अपनी मााँ से अनुमदत लेकर शंकर ने संन्यास ग्रहण कर
दलर्ा। मााँ ने अनुमदत िेते समर् शंकर से वचन दलर्ा
दक वे उनका अस्न्तम संस्कार अपने हाथों से ही करेंगे।
र्ह जानते हुए भी दक संन्यासी र्ह कार्य नहीं कर
सकता उन्ोंने मााँ को वचन िे दिर्ा। मााँ से आज्ञा लेकर
शंकर नमयिा तट पर तप में लीन संन्यासी गोदवन्दनाथ
क
े पास पहुाँचे। शंकर दजस समर् वहााँ पहुाँचे गोदवन्दनाथ
एक गुफा में समादध लगार्े बैठे थे। समादध टू टने पर
शंकर ने उन्ें प्रणाम दकर्ा और बोले - 'मुझे संन्यास की
िीिा तथा आत्मदवद्या का उपिेश िीदजए।'
7. गोदवन्दनाथ ने इनका पररचर् पूछा तथा इनकी बातचीत
से बड़े प्रभादवत हुए। उन्ोंने संन्यास की िीिा िी और
इनका नाम शंकराचार्य रखा। वहााँ क
ु छ दिन अध्यर्न
करने क
े बाि वे गुरु की अनुमदत लेकर सत्य की खोज
क
े दलए दनकल पड़े। गुरु ने उन्ें पहले काशी जाने का
सुझाव दिर्ा।
शंकराचार्य काशी में एक दिन गंगा स्नान क
े दलए जा रहे
थे। मागय में एक चांडाल दमला। शंकराचार्य ने उसे मागय
से हट जाने क
े दलए कहा। उस चांडाल ने दवनम्र भाव से
पूछा 'महाराज! आप चांडाल दकसे कहते हैं? इस शरीर
को र्ा आत्मा को? र्दि शरीर को तो वह नश्वर है और
जैसा अन्न-जल का आपका शरीर वैसा ही मेरा भी। र्दि
शरीर क
े भीतर की आत्मा को, तो वह सबकी एक है,
क्ोंदक ब्रह्म एक है। शंकराचार्य को उसकी बातों से
सत्य का ज्ञान हुआ और उन्ोंने उसे धन्यवाि दिर्ा।
8. काशी में शंकराचार्य का वहााँ क
े प्रकाण्ड दवद्वान मंडन
दमश्र से शास्त्राथय हुआ। र्ह शास्त्राथय कई दिन तक
चला। मंडन दमशर तथा उनकी पत्नी भारती को बारी-
बारी से इनसे शास्त्राथय हुआ। पहले शंकराचार्य भारती
से हार गए दकन्तु पुनः शास्त्राथय होने पर वे जीते। मंडन
दमश्र तथा उनकी पत्नी शंकराचार्य क
े दशष्य बन गर्े।
महान कमयकाण्डी क
ु माररल भट्ट से शास्त्राथय करने क
े
दलए वे प्रर्ागधाम गए। भट्ट बड़े-बड़े दवद्वानों को परास्त
करने वाले दिस्िजर्ी दवद्वान थे।
संन्यासी शंकराचार्य दवदभन्न थथानों पर भ्रमण करते रहे।
वे श्रुंगेरी में थे तभी माता की बीमारी का समाचार दमला।
वहु तुरन्त मााँ क
े पास पहुाँचे। वह इन्ें िेखकर बड़ी प्रसन्न
हुईं। कहते हैं दक इन्ोंने मााँ को भगवान दवष्णु का िशयन
करार्ा और लोगों क
े दवरोध करने पर भी मााँ का िाह
संस्कार दकर्ा।
9. शंकराचार्य ने धमय की थथापना क
े दलए सम्पूणय भारत का
भ्रमण दकर्ा। उन्ोंने भग्न मंदिरों का जीणों िार करार्ा
तथा नर्े मस्न्दरों की थथापना की। लोगों को राष्टरीर्ता क
े
एक सूत्र में दपरोने क
े दलए उन्ोंने भारत क
े चारों कोनों
पर चार धामों (मठों) की थथापना की। इनक
े नाम हैं -
श्री बिरीनाथ, द्वाररकापुरी, जगन्नाथपुरी तथा श्री
रामेश्वरम्। र्े चारों धाम आज भी दवद्यमान हैं। इनकी
दशिा का सार है –
“ब्रह्म सत्य है तथा जगत दमथ्या है” इसी मत का इन्ोंने
प्रचार दकर्ा।
शंकराचार्य बड़े ही उज्जवल चररत्र क
े व्यस्ि थे। वे सच्चे
संन्यासी थे तथा उन्ोंने अनेक ग्रन्ों की रचना की।
इन्ोंने भाष्य, स्तोत्र तथा प्रकरण ग्रन् भी दलखे। इनका
िेहावसान मात्र 32 वर्य की अवथथा में हो गर्ा। उनका
अस्न्तम उपिेश था -
“हे मानव! तू स्वर्ं को पहचान, स्वर्ं को पहचानने क
े
बाि, तू ईश्वर को पहचान जार्ेगा।“