कबीरदास
जन्म : 1398, लहरतारा ताल, काशी
पिता का नाम : नीरू
माता का नाम : नीमा
पत्नी का नाम : लोई
बच्चें : कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री)
मुख्य रचनाएँ : साखी, सबद, रमैनी
मृत्यु : 1518, मगहर, उत्तर प्रदेश
ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौ सुख होइ॥
रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रस्तुत कविता का बंगला से हिन्दी अनुवाद श्रद्धेय आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने किया है। द्विवेदी जी का हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने मे अपूर्व योगदान है। यह अनुवाद बताता है कि अनुवाद कैसे मूल रचना की ‘आत्मा’ को अक्षुण्ण बनाए रखने में सक्षम है।
प्रस्तुत पाठ जो युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म ‘हकीकत’ के लिए लिखा गया था, ऐसे ही सैनिकों के हृदय की आवाज बयान करता है, जिन्हें अपने किए–धरे पर नाज है। इसी के साथ उन्हें अपने देशवासियों से कुछ अपेक्षाएँ भी हैं। चूँकि जिनसे उन्हें ये अ्पेक्षाएँ हैं वे देश वासी और कोई नहीं, हम और आप ही हैं, इसलिए आइए, इसे पढ़कर अपने आप से पूछें कि हम उनकी अपेक्षाएँ पूरी कर रहे हैं या नहीं?
पर्वत प्रदेश में पावस - सुमित्रानंदन पंत
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण-सा फैला है विशाल!
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों-से सुंदर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षाओं से तरुवर
हैं झाँक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर।
उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार पारद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल।
पाठ योजना
कक्षा :
दिनांक :
पाठ का नाम : कबीर की साखी
सर्वप्रथम विद्यार्थियों को कबीरदास का परिचय देते हुए उनके काव्य पाठ ’ साखी ’ का भाव एंव व्याख्यान निम्नलिखित रुप से बताया जाएगा।
प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त
छायावादी कवियों में सुमित्रानन्दन पन्त एक मात्र ऐसे कवि है, जिन्हें प्रकृति के सुकुमार कवि' के रुप में ख्याति प्राप्त है, प्रकृति पन्त जी के काव्य की मूल प्रेरक चेतना रही है, जैसा कि उसने स्वीकार किया है - “कविता करने की प्रेरणा मुझे सब से पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है, प्रकृति सौंन्दर्य में रमा कवि नारी सौंदर्य की भी उपेक्षा कर देता है -
"छोड द्रुमों की मृद छाया,
तोड प्रकृति की भी माया
बाले तेरे बालजाल में -
कैसे उलझा दूँ लोचन
भूल अभी से
इस जग को।"
पन्तजी के काव्य में प्रकृति परंपरागत सभी काव्य रूपों में विद्यमान है। आलम्बन के रुप में प्रकृति चित्रण में उनकी काव्य प्रतिभा प्रकृति के मानवीय रुप में लोचन चित्रण मिलती है। इस दृष्टि से "नौका विहार और परिवर्तन” कविताएँ उल्लेखनीय है -
शांत, स्निग्ध, ज्योत्सना उज्ज्वल।
अपलक, अनन्त, नीरव भूतल!
शैकत-शैया पर दुग्ध-धवल, तत्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल
लेटी है श्रान्त क्लान्त, निश्चल"|
पन्त जी ने गंगा नदी को मानवीय भाव, आकार, प्रकार, वेशभूषा, साज-सज्जा आदि ने सुसज्जित करके एक तापस-बाला के रूप में अत्यन्त सजीवता तथा सचेत के साथ अंकित किया है।
ग्रीष्म ऋतु की एक चाँदनी रात में कवि अपने मित्रों के साथ गंगा नदी के तट पर शार करने गये थे। कवि पन्त अपने मित्रों के साथ सैर करते समय कवि की भावनाएँ सहज ही फूट पड़ी। जिन्हें उन्होने थथाकत सुन्दर कविता के रूप में अंकित कर दिया है। जिस समय वे सैर कर रहे थे उस समय वातावरण बिलकुल शान्त एवं स्निग्ध था। राकेंदु की स्वच्छ किरणों की शीतलता वातावरण को आहलाद पूर्ण बना रही थी। अनंत आकाश निर्मल एवं स्वच्छ तथा मेघ रहित था। सारा भूतल निःशब्ध था। शौकत शैया पर धुंध-सी धवल, युवती-सी ग्रीष्म ताप से पीड़ित गंगा थककर निश्चिन्त होती है।
"अहेनिष्ठुर परिवर्तन?
तुम्हारा ही तांडव-नर्तन,
विश्व का करुण विवर्तन।
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान पतन"।
यह परिवर्तन बड़ा ही तिष्ठुर है। इसका तांडव सदैव होता रहता है और इसके नयनोन्मीलन से संसार में निरन्तर उत्थान एवं पतन होते रहते हैं। पन्त जी ने परिवर्तन कविता में संसार की अचरिता को देखकर पतन को निःश्वास भरते हुए दिखाया है, समुद्र की सिसकिया भरते और नक्षत्रों को सिहरते हुए बताया है –
“अचिरता देख जगती की आप,
शून्य भरता समीर निःश्वास,
डलता पातों पर चुपचाप,
ओस को आँसू नीलाकाश,
सिसक उठता समुद्र का मन,
सिहर उठते उडुगन”।
कविवर पन्त प्रकृति के सच्चे उपासक है। प्रकृति उसकी हास-रूदन की प्रेरक है, उद्धीपक है और उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम भी है।
“Her Identity and Emancipation” - Gelaxy International Inter disciplinary Research Journal
(ISSN 2347-6915) - GIIRJ, Vol.2(1), January, 2014, PP-142-143.
http://internationaljournals.co.in/pdf/GIIRJ/2014/January/11.pdf
“निर्मलवर्मा का परिचय एवं साहित्य दृष्टि” – Review of Research Journal, ISSN: 2249-894X, I.F: 5.7631(UIF) Volume 8, Issue 5, February 2019. (UGC Journal No. 48514)
http://oldror.lbp.world/UploadedData/7502.pdf
“नागार्जुन की कविताओं में राजनीतिक व्यंग्य” – Review of Research Journal, ISSN: 2249-894X, I.F: 5.7631(UIF) Volume 8, Issue 7, APRIL 2019. (UGC Journal No. 48514)
http://oldror.lbp.world/UploadedData/8188.pdf
“मिथकीय विमर्श द्रौपदी के संदर्भ में”
द्रौपदी के चरित्र को नये सिरे से प्रकाश में लाने का प्रथम प्रयास
स्त्रीवाद के नेपथ्य में द्रौपदी के चरित्र का संदर्भ
पतिदेवों के साथ स्वस्थ संबंध निर्वाह के संदर्भ में आंतरिक संघर्ष
बेटी, बहन, पत्नी, मों, श्रीकृष्ण की सहेली , राजनीतिज्ञा , महाराणी , विदूषणी और आदर्श गृहिणी के रूप में द्रौपदी का व्यक्तित्व गरिमा का अंकन :
गांधारी
कुंती
*******************
द्रौपदी उपन्यास में आचार्य लक्ष्मी प्रसाद ने द्रौपदी के पौराणिक मिथक के द्वारा नारी अस्मिता का प्रश्न उठाते हुए, समकालीन परिप्रेक्ष्य में नारी की वास्तविक स्थिति उद्घाटित करने का सार्थक प्रयास किया है। इनके उपन्यास में सामाजिक प्रतिबद्धता, संघर्षधर्मी जिजीविषा, कटुता, विसंगति समता तथा आर्थिक संकट से उत्पन्न जटिलताओं, समस्याओं के मार्मिक चित्रण के साथ ही वर्तमान परिवेश की ज़बरदस्त पकड़ महाभारतकालीन मिथक के माध्यम से मिलती है। यथा “पांच बलवान व श्रेष्ठ पुरुषों की पत्नी होकर भी तुमने अनेक कष्ट झेले। भरी सभा में एक क्षुद्र से अपमानित हुई। मेरे पुत्र भी तुम्हें बचा नहीं पाये।
माँ के आर्शीवाद से पांच पतियों में बंटी हुई द्रौपदी की मनःस्थिति वास्तव में किसी नारी की सहनशीलता की पराकाष्ठा ही तो है।
"द्रौपदी ने बलपूर्वक नकारते हुए सिर हिलाया। धर्मराज ने मृदुस्वर में पूछा – “क्या तुम ऐसा सोच रही हो - तुम्हें अर्जुन ने जीता लेकिन मुझे भी विवाह करना पड़ा”। "यह प्रश्न अब क्यों पूछते हैं? मेरा जो भी समझने पर भी अब क्या किया जा सकता? ...............
मिथकीय विमर्श
मिथक के प्रमुख तत्व
मिथक का स्वरूप
मिथक और साहित्य
साहित्य में मिथक प्रयोग
मिथकीय आलोचना दृष्टि की विशेषताएँ
मिथकीय आलोचना दृष्टि की सीमाएँ
अंधायुग : मिथकीय आलोचना
आधुनिक चिन्तनशील व्यक्ति के संघर्ष का प्रतीक–राम (संशय की एक रात)
संशय के विविध आयाम
पूर्व स्मृतियों के माध्यम से युद्ध पर विश्लेषण
युद्ध के दुष्परिणाम
मिथक का प्रयोग : आधुनिक संदर्भ में
** मिथक शब्द का उद्भव यूनानी शब्द मुथोस से माना जाता है जिसका अर्थ मौखिक कथा है। अपने विशिष्ट अर्थ में मिथ एक ऐसी कथा है, जिसके द्वारा कहने और सुनने वाले सृष्टि या ब्रह्मांड संबंधी किसी तथ्य को समझते हैं। मिथ शब्द के इस अर्थ के अंतर्गत यह बात स्वीकार कर ली गई है कि इस कथा का संबंध किसी अलौकिक शक्ति से अवश्य है।
** जार्ज व्हेले ने मिथक को मूलतः आदिम समूह या जाति से संबंधित तथा धार्मिक प्रवृति का माना है। उन्होंने उसे यथार्थ की अभिव्यक्ति को एक सशक्त माध्यम भी स्वीकार किया है। उनके अनुसार मिथक प्रतीकात्मक या कथात्मक संरचना में स्पष्टतः वास्तविकता की झलक दिखाता है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार मिथक यथार्थता, वास्तविकता के कथन का दुर्बोध, अप्रत्यक्ष या अलंकृत माध्यम नहीं, अपितु यही एक मात्र माध्यम है।
** सी.जे.युंग ने मिथक के स्वरूप का स्पष्टीकरण करते हुए इसे व्यक्ति और समाज तथा परंपरा को एक सूत्र में बाँधने वाला बताया है। युंग ने सामूहिक अवचेतन की कल्पना करते हुए यह स्थापित किया है कि मनुष्य अपनी जाति की परंपराओं को अनजाने ही आत्मसात किए रहता है। यह उसका सामूहिक अवचेतना है।
This document is a song titled "Unity in Diversity" in Hindi that celebrates the unity between different languages and cultures in India. The song begins in Hindi but then incorporates verses in other Indian languages like Kashmiri, Punjabi, Sindhi, Urdu, Tamil, Kannada, Telugu, Malayalam, Bengali, Assamese, Oriya, Gujarati, Marathi and again concludes in Hindi, promoting oneness between the diverse languages and cultures of India.
कबीरदास
जन्म : 1398, लहरतारा ताल, काशी
पिता का नाम : नीरू
माता का नाम : नीमा
पत्नी का नाम : लोई
बच्चें : कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री)
मुख्य रचनाएँ : साखी, सबद, रमैनी
मृत्यु : 1518, मगहर, उत्तर प्रदेश
ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौ सुख होइ॥
रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रस्तुत कविता का बंगला से हिन्दी अनुवाद श्रद्धेय आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने किया है। द्विवेदी जी का हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने मे अपूर्व योगदान है। यह अनुवाद बताता है कि अनुवाद कैसे मूल रचना की ‘आत्मा’ को अक्षुण्ण बनाए रखने में सक्षम है।
प्रस्तुत पाठ जो युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म ‘हकीकत’ के लिए लिखा गया था, ऐसे ही सैनिकों के हृदय की आवाज बयान करता है, जिन्हें अपने किए–धरे पर नाज है। इसी के साथ उन्हें अपने देशवासियों से कुछ अपेक्षाएँ भी हैं। चूँकि जिनसे उन्हें ये अ्पेक्षाएँ हैं वे देश वासी और कोई नहीं, हम और आप ही हैं, इसलिए आइए, इसे पढ़कर अपने आप से पूछें कि हम उनकी अपेक्षाएँ पूरी कर रहे हैं या नहीं?
पर्वत प्रदेश में पावस - सुमित्रानंदन पंत
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण-सा फैला है विशाल!
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों-से सुंदर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षाओं से तरुवर
हैं झाँक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर।
उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार पारद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल।
पाठ योजना
कक्षा :
दिनांक :
पाठ का नाम : कबीर की साखी
सर्वप्रथम विद्यार्थियों को कबीरदास का परिचय देते हुए उनके काव्य पाठ ’ साखी ’ का भाव एंव व्याख्यान निम्नलिखित रुप से बताया जाएगा।
प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त
छायावादी कवियों में सुमित्रानन्दन पन्त एक मात्र ऐसे कवि है, जिन्हें प्रकृति के सुकुमार कवि' के रुप में ख्याति प्राप्त है, प्रकृति पन्त जी के काव्य की मूल प्रेरक चेतना रही है, जैसा कि उसने स्वीकार किया है - “कविता करने की प्रेरणा मुझे सब से पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है, प्रकृति सौंन्दर्य में रमा कवि नारी सौंदर्य की भी उपेक्षा कर देता है -
"छोड द्रुमों की मृद छाया,
तोड प्रकृति की भी माया
बाले तेरे बालजाल में -
कैसे उलझा दूँ लोचन
भूल अभी से
इस जग को।"
पन्तजी के काव्य में प्रकृति परंपरागत सभी काव्य रूपों में विद्यमान है। आलम्बन के रुप में प्रकृति चित्रण में उनकी काव्य प्रतिभा प्रकृति के मानवीय रुप में लोचन चित्रण मिलती है। इस दृष्टि से "नौका विहार और परिवर्तन” कविताएँ उल्लेखनीय है -
शांत, स्निग्ध, ज्योत्सना उज्ज्वल।
अपलक, अनन्त, नीरव भूतल!
शैकत-शैया पर दुग्ध-धवल, तत्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल
लेटी है श्रान्त क्लान्त, निश्चल"|
पन्त जी ने गंगा नदी को मानवीय भाव, आकार, प्रकार, वेशभूषा, साज-सज्जा आदि ने सुसज्जित करके एक तापस-बाला के रूप में अत्यन्त सजीवता तथा सचेत के साथ अंकित किया है।
ग्रीष्म ऋतु की एक चाँदनी रात में कवि अपने मित्रों के साथ गंगा नदी के तट पर शार करने गये थे। कवि पन्त अपने मित्रों के साथ सैर करते समय कवि की भावनाएँ सहज ही फूट पड़ी। जिन्हें उन्होने थथाकत सुन्दर कविता के रूप में अंकित कर दिया है। जिस समय वे सैर कर रहे थे उस समय वातावरण बिलकुल शान्त एवं स्निग्ध था। राकेंदु की स्वच्छ किरणों की शीतलता वातावरण को आहलाद पूर्ण बना रही थी। अनंत आकाश निर्मल एवं स्वच्छ तथा मेघ रहित था। सारा भूतल निःशब्ध था। शौकत शैया पर धुंध-सी धवल, युवती-सी ग्रीष्म ताप से पीड़ित गंगा थककर निश्चिन्त होती है।
"अहेनिष्ठुर परिवर्तन?
तुम्हारा ही तांडव-नर्तन,
विश्व का करुण विवर्तन।
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान पतन"।
यह परिवर्तन बड़ा ही तिष्ठुर है। इसका तांडव सदैव होता रहता है और इसके नयनोन्मीलन से संसार में निरन्तर उत्थान एवं पतन होते रहते हैं। पन्त जी ने परिवर्तन कविता में संसार की अचरिता को देखकर पतन को निःश्वास भरते हुए दिखाया है, समुद्र की सिसकिया भरते और नक्षत्रों को सिहरते हुए बताया है –
“अचिरता देख जगती की आप,
शून्य भरता समीर निःश्वास,
डलता पातों पर चुपचाप,
ओस को आँसू नीलाकाश,
सिसक उठता समुद्र का मन,
सिहर उठते उडुगन”।
कविवर पन्त प्रकृति के सच्चे उपासक है। प्रकृति उसकी हास-रूदन की प्रेरक है, उद्धीपक है और उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम भी है।
“Her Identity and Emancipation” - Gelaxy International Inter disciplinary Research Journal
(ISSN 2347-6915) - GIIRJ, Vol.2(1), January, 2014, PP-142-143.
http://internationaljournals.co.in/pdf/GIIRJ/2014/January/11.pdf
“निर्मलवर्मा का परिचय एवं साहित्य दृष्टि” – Review of Research Journal, ISSN: 2249-894X, I.F: 5.7631(UIF) Volume 8, Issue 5, February 2019. (UGC Journal No. 48514)
http://oldror.lbp.world/UploadedData/7502.pdf
“नागार्जुन की कविताओं में राजनीतिक व्यंग्य” – Review of Research Journal, ISSN: 2249-894X, I.F: 5.7631(UIF) Volume 8, Issue 7, APRIL 2019. (UGC Journal No. 48514)
http://oldror.lbp.world/UploadedData/8188.pdf
“मिथकीय विमर्श द्रौपदी के संदर्भ में”
द्रौपदी के चरित्र को नये सिरे से प्रकाश में लाने का प्रथम प्रयास
स्त्रीवाद के नेपथ्य में द्रौपदी के चरित्र का संदर्भ
पतिदेवों के साथ स्वस्थ संबंध निर्वाह के संदर्भ में आंतरिक संघर्ष
बेटी, बहन, पत्नी, मों, श्रीकृष्ण की सहेली , राजनीतिज्ञा , महाराणी , विदूषणी और आदर्श गृहिणी के रूप में द्रौपदी का व्यक्तित्व गरिमा का अंकन :
गांधारी
कुंती
*******************
द्रौपदी उपन्यास में आचार्य लक्ष्मी प्रसाद ने द्रौपदी के पौराणिक मिथक के द्वारा नारी अस्मिता का प्रश्न उठाते हुए, समकालीन परिप्रेक्ष्य में नारी की वास्तविक स्थिति उद्घाटित करने का सार्थक प्रयास किया है। इनके उपन्यास में सामाजिक प्रतिबद्धता, संघर्षधर्मी जिजीविषा, कटुता, विसंगति समता तथा आर्थिक संकट से उत्पन्न जटिलताओं, समस्याओं के मार्मिक चित्रण के साथ ही वर्तमान परिवेश की ज़बरदस्त पकड़ महाभारतकालीन मिथक के माध्यम से मिलती है। यथा “पांच बलवान व श्रेष्ठ पुरुषों की पत्नी होकर भी तुमने अनेक कष्ट झेले। भरी सभा में एक क्षुद्र से अपमानित हुई। मेरे पुत्र भी तुम्हें बचा नहीं पाये।
माँ के आर्शीवाद से पांच पतियों में बंटी हुई द्रौपदी की मनःस्थिति वास्तव में किसी नारी की सहनशीलता की पराकाष्ठा ही तो है।
"द्रौपदी ने बलपूर्वक नकारते हुए सिर हिलाया। धर्मराज ने मृदुस्वर में पूछा – “क्या तुम ऐसा सोच रही हो - तुम्हें अर्जुन ने जीता लेकिन मुझे भी विवाह करना पड़ा”। "यह प्रश्न अब क्यों पूछते हैं? मेरा जो भी समझने पर भी अब क्या किया जा सकता? ...............
मिथकीय विमर्श
मिथक के प्रमुख तत्व
मिथक का स्वरूप
मिथक और साहित्य
साहित्य में मिथक प्रयोग
मिथकीय आलोचना दृष्टि की विशेषताएँ
मिथकीय आलोचना दृष्टि की सीमाएँ
अंधायुग : मिथकीय आलोचना
आधुनिक चिन्तनशील व्यक्ति के संघर्ष का प्रतीक–राम (संशय की एक रात)
संशय के विविध आयाम
पूर्व स्मृतियों के माध्यम से युद्ध पर विश्लेषण
युद्ध के दुष्परिणाम
मिथक का प्रयोग : आधुनिक संदर्भ में
** मिथक शब्द का उद्भव यूनानी शब्द मुथोस से माना जाता है जिसका अर्थ मौखिक कथा है। अपने विशिष्ट अर्थ में मिथ एक ऐसी कथा है, जिसके द्वारा कहने और सुनने वाले सृष्टि या ब्रह्मांड संबंधी किसी तथ्य को समझते हैं। मिथ शब्द के इस अर्थ के अंतर्गत यह बात स्वीकार कर ली गई है कि इस कथा का संबंध किसी अलौकिक शक्ति से अवश्य है।
** जार्ज व्हेले ने मिथक को मूलतः आदिम समूह या जाति से संबंधित तथा धार्मिक प्रवृति का माना है। उन्होंने उसे यथार्थ की अभिव्यक्ति को एक सशक्त माध्यम भी स्वीकार किया है। उनके अनुसार मिथक प्रतीकात्मक या कथात्मक संरचना में स्पष्टतः वास्तविकता की झलक दिखाता है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार मिथक यथार्थता, वास्तविकता के कथन का दुर्बोध, अप्रत्यक्ष या अलंकृत माध्यम नहीं, अपितु यही एक मात्र माध्यम है।
** सी.जे.युंग ने मिथक के स्वरूप का स्पष्टीकरण करते हुए इसे व्यक्ति और समाज तथा परंपरा को एक सूत्र में बाँधने वाला बताया है। युंग ने सामूहिक अवचेतन की कल्पना करते हुए यह स्थापित किया है कि मनुष्य अपनी जाति की परंपराओं को अनजाने ही आत्मसात किए रहता है। यह उसका सामूहिक अवचेतना है।
This document is a song titled "Unity in Diversity" in Hindi that celebrates the unity between different languages and cultures in India. The song begins in Hindi but then incorporates verses in other Indian languages like Kashmiri, Punjabi, Sindhi, Urdu, Tamil, Kannada, Telugu, Malayalam, Bengali, Assamese, Oriya, Gujarati, Marathi and again concludes in Hindi, promoting oneness between the diverse languages and cultures of India.
2. अक्कमहादेवी
अक्कमहादेवी क
े वचन
मुरझाये फ
ू ल में सुगंधि कौन ढूूँढेगा?
बच्चे में कौन खोट देखेगा?
हे देव! धवश्वास को ठे स लगने पर
धफर से सद् गुण कौन परखेगा?
हे प्रभु, जले पर कौन नमक धिड़क
े गा
सुनो, हे चन्नमल्लिकाजुुन
नदी पार करने क
े बाद मिाह को कौन पूिे गा?
3. अक्कमहादेवी
अक्कमहादेवी क
े वचन
अज्ञाधनयों से स्नेह करना
मानो पत्थर से धचनगारी धनकालना है।
ज्ञाधनयों का संग करना,
मानो दही मथकर माखन पाना है
हे चन्नमल्लिकाजुुन प्रभु,
तुम्हारे भक्ों का संग करना
मानो कपूुरधगरर की ज्योधत को पाना है।
4. अक्कमहादेवी
अक्कमहादेवी क
े वचन
भूख लगी तो गाूँव में धभक्षान्न है,
प्यास लगी तो तालाब-क
ु एूँ हैं,
शीत से बचने जीणु वस्त्र हैं,
सोने क
े धलए उजड़े मंधदर हैं,
हे चन्नमल्लिकाजुुन प्रभु,
मेरा आत्म-सखा तू ही है।