कबीरदास
जन्म : 1398, लहरतारा ताल, काशी
पिता का नाम : नीरू
माता का नाम : नीमा
पत्नी का नाम : लोई
बच्चें : कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री)
मुख्य रचनाएँ : साखी, सबद, रमैनी
मृत्यु : 1518, मगहर, उत्तर प्रदेश
ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौ सुख होइ॥
रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रस्तुत कविता का बंगला से हिन्दी अनुवाद श्रद्धेय आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने किया है। द्विवेदी जी का हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने मे अपूर्व योगदान है। यह अनुवाद बताता है कि अनुवाद कैसे मूल रचना की ‘आत्मा’ को अक्षुण्ण बनाए रखने में सक्षम है।
प्रस्तुत पाठ जो युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म ‘हकीकत’ के लिए लिखा गया था, ऐसे ही सैनिकों के हृदय की आवाज बयान करता है, जिन्हें अपने किए–धरे पर नाज है। इसी के साथ उन्हें अपने देशवासियों से कुछ अपेक्षाएँ भी हैं। चूँकि जिनसे उन्हें ये अ्पेक्षाएँ हैं वे देश वासी और कोई नहीं, हम और आप ही हैं, इसलिए आइए, इसे पढ़कर अपने आप से पूछें कि हम उनकी अपेक्षाएँ पूरी कर रहे हैं या नहीं?
पर्वत प्रदेश में पावस - सुमित्रानंदन पंत
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण-सा फैला है विशाल!
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों-से सुंदर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षाओं से तरुवर
हैं झाँक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर।
उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार पारद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल।
पाठ योजना
कक्षा :
दिनांक :
पाठ का नाम : कबीर की साखी
सर्वप्रथम विद्यार्थियों को कबीरदास का परिचय देते हुए उनके काव्य पाठ ’ साखी ’ का भाव एंव व्याख्यान निम्नलिखित रुप से बताया जाएगा।
प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त
छायावादी कवियों में सुमित्रानन्दन पन्त एक मात्र ऐसे कवि है, जिन्हें प्रकृति के सुकुमार कवि' के रुप में ख्याति प्राप्त है, प्रकृति पन्त जी के काव्य की मूल प्रेरक चेतना रही है, जैसा कि उसने स्वीकार किया है - “कविता करने की प्रेरणा मुझे सब से पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है, प्रकृति सौंन्दर्य में रमा कवि नारी सौंदर्य की भी उपेक्षा कर देता है -
"छोड द्रुमों की मृद छाया,
तोड प्रकृति की भी माया
बाले तेरे बालजाल में -
कैसे उलझा दूँ लोचन
भूल अभी से
इस जग को।"
पन्तजी के काव्य में प्रकृति परंपरागत सभी काव्य रूपों में विद्यमान है। आलम्बन के रुप में प्रकृति चित्रण में उनकी काव्य प्रतिभा प्रकृति के मानवीय रुप में लोचन चित्रण मिलती है। इस दृष्टि से "नौका विहार और परिवर्तन” कविताएँ उल्लेखनीय है -
शांत, स्निग्ध, ज्योत्सना उज्ज्वल।
अपलक, अनन्त, नीरव भूतल!
शैकत-शैया पर दुग्ध-धवल, तत्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल
लेटी है श्रान्त क्लान्त, निश्चल"|
पन्त जी ने गंगा नदी को मानवीय भाव, आकार, प्रकार, वेशभूषा, साज-सज्जा आदि ने सुसज्जित करके एक तापस-बाला के रूप में अत्यन्त सजीवता तथा सचेत के साथ अंकित किया है।
ग्रीष्म ऋतु की एक चाँदनी रात में कवि अपने मित्रों के साथ गंगा नदी के तट पर शार करने गये थे। कवि पन्त अपने मित्रों के साथ सैर करते समय कवि की भावनाएँ सहज ही फूट पड़ी। जिन्हें उन्होने थथाकत सुन्दर कविता के रूप में अंकित कर दिया है। जिस समय वे सैर कर रहे थे उस समय वातावरण बिलकुल शान्त एवं स्निग्ध था। राकेंदु की स्वच्छ किरणों की शीतलता वातावरण को आहलाद पूर्ण बना रही थी। अनंत आकाश निर्मल एवं स्वच्छ तथा मेघ रहित था। सारा भूतल निःशब्ध था। शौकत शैया पर धुंध-सी धवल, युवती-सी ग्रीष्म ताप से पीड़ित गंगा थककर निश्चिन्त होती है।
"अहेनिष्ठुर परिवर्तन?
तुम्हारा ही तांडव-नर्तन,
विश्व का करुण विवर्तन।
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान पतन"।
यह परिवर्तन बड़ा ही तिष्ठुर है। इसका तांडव सदैव होता रहता है और इसके नयनोन्मीलन से संसार में निरन्तर उत्थान एवं पतन होते रहते हैं। पन्त जी ने परिवर्तन कविता में संसार की अचरिता को देखकर पतन को निःश्वास भरते हुए दिखाया है, समुद्र की सिसकिया भरते और नक्षत्रों को सिहरते हुए बताया है –
“अचिरता देख जगती की आप,
शून्य भरता समीर निःश्वास,
डलता पातों पर चुपचाप,
ओस को आँसू नीलाकाश,
सिसक उठता समुद्र का मन,
सिहर उठते उडुगन”।
कविवर पन्त प्रकृति के सच्चे उपासक है। प्रकृति उसकी हास-रूदन की प्रेरक है, उद्धीपक है और उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम भी है।
“Her Identity and Emancipation” - Gelaxy International Inter disciplinary Research Journal
(ISSN 2347-6915) - GIIRJ, Vol.2(1), January, 2014, PP-142-143.
http://internationaljournals.co.in/pdf/GIIRJ/2014/January/11.pdf
“निर्मलवर्मा का परिचय एवं साहित्य दृष्टि” – Review of Research Journal, ISSN: 2249-894X, I.F: 5.7631(UIF) Volume 8, Issue 5, February 2019. (UGC Journal No. 48514)
http://oldror.lbp.world/UploadedData/7502.pdf
“नागार्जुन की कविताओं में राजनीतिक व्यंग्य” – Review of Research Journal, ISSN: 2249-894X, I.F: 5.7631(UIF) Volume 8, Issue 7, APRIL 2019. (UGC Journal No. 48514)
http://oldror.lbp.world/UploadedData/8188.pdf
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कबीरदास
जन्म : 1398, लहरतारा ताल, काशी
पिता का नाम : नीरू
माता का नाम : नीमा
पत्नी का नाम : लोई
बच्चें : कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री)
मुख्य रचनाएँ : साखी, सबद, रमैनी
मृत्यु : 1518, मगहर, उत्तर प्रदेश
ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौ सुख होइ॥
रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रस्तुत कविता का बंगला से हिन्दी अनुवाद श्रद्धेय आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने किया है। द्विवेदी जी का हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने मे अपूर्व योगदान है। यह अनुवाद बताता है कि अनुवाद कैसे मूल रचना की ‘आत्मा’ को अक्षुण्ण बनाए रखने में सक्षम है।
प्रस्तुत पाठ जो युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म ‘हकीकत’ के लिए लिखा गया था, ऐसे ही सैनिकों के हृदय की आवाज बयान करता है, जिन्हें अपने किए–धरे पर नाज है। इसी के साथ उन्हें अपने देशवासियों से कुछ अपेक्षाएँ भी हैं। चूँकि जिनसे उन्हें ये अ्पेक्षाएँ हैं वे देश वासी और कोई नहीं, हम और आप ही हैं, इसलिए आइए, इसे पढ़कर अपने आप से पूछें कि हम उनकी अपेक्षाएँ पूरी कर रहे हैं या नहीं?
पर्वत प्रदेश में पावस - सुमित्रानंदन पंत
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण-सा फैला है विशाल!
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों-से सुंदर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षाओं से तरुवर
हैं झाँक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर।
उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार पारद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल।
पाठ योजना
कक्षा :
दिनांक :
पाठ का नाम : कबीर की साखी
सर्वप्रथम विद्यार्थियों को कबीरदास का परिचय देते हुए उनके काव्य पाठ ’ साखी ’ का भाव एंव व्याख्यान निम्नलिखित रुप से बताया जाएगा।
प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त
छायावादी कवियों में सुमित्रानन्दन पन्त एक मात्र ऐसे कवि है, जिन्हें प्रकृति के सुकुमार कवि' के रुप में ख्याति प्राप्त है, प्रकृति पन्त जी के काव्य की मूल प्रेरक चेतना रही है, जैसा कि उसने स्वीकार किया है - “कविता करने की प्रेरणा मुझे सब से पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है, प्रकृति सौंन्दर्य में रमा कवि नारी सौंदर्य की भी उपेक्षा कर देता है -
"छोड द्रुमों की मृद छाया,
तोड प्रकृति की भी माया
बाले तेरे बालजाल में -
कैसे उलझा दूँ लोचन
भूल अभी से
इस जग को।"
पन्तजी के काव्य में प्रकृति परंपरागत सभी काव्य रूपों में विद्यमान है। आलम्बन के रुप में प्रकृति चित्रण में उनकी काव्य प्रतिभा प्रकृति के मानवीय रुप में लोचन चित्रण मिलती है। इस दृष्टि से "नौका विहार और परिवर्तन” कविताएँ उल्लेखनीय है -
शांत, स्निग्ध, ज्योत्सना उज्ज्वल।
अपलक, अनन्त, नीरव भूतल!
शैकत-शैया पर दुग्ध-धवल, तत्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल
लेटी है श्रान्त क्लान्त, निश्चल"|
पन्त जी ने गंगा नदी को मानवीय भाव, आकार, प्रकार, वेशभूषा, साज-सज्जा आदि ने सुसज्जित करके एक तापस-बाला के रूप में अत्यन्त सजीवता तथा सचेत के साथ अंकित किया है।
ग्रीष्म ऋतु की एक चाँदनी रात में कवि अपने मित्रों के साथ गंगा नदी के तट पर शार करने गये थे। कवि पन्त अपने मित्रों के साथ सैर करते समय कवि की भावनाएँ सहज ही फूट पड़ी। जिन्हें उन्होने थथाकत सुन्दर कविता के रूप में अंकित कर दिया है। जिस समय वे सैर कर रहे थे उस समय वातावरण बिलकुल शान्त एवं स्निग्ध था। राकेंदु की स्वच्छ किरणों की शीतलता वातावरण को आहलाद पूर्ण बना रही थी। अनंत आकाश निर्मल एवं स्वच्छ तथा मेघ रहित था। सारा भूतल निःशब्ध था। शौकत शैया पर धुंध-सी धवल, युवती-सी ग्रीष्म ताप से पीड़ित गंगा थककर निश्चिन्त होती है।
"अहेनिष्ठुर परिवर्तन?
तुम्हारा ही तांडव-नर्तन,
विश्व का करुण विवर्तन।
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान पतन"।
यह परिवर्तन बड़ा ही तिष्ठुर है। इसका तांडव सदैव होता रहता है और इसके नयनोन्मीलन से संसार में निरन्तर उत्थान एवं पतन होते रहते हैं। पन्त जी ने परिवर्तन कविता में संसार की अचरिता को देखकर पतन को निःश्वास भरते हुए दिखाया है, समुद्र की सिसकिया भरते और नक्षत्रों को सिहरते हुए बताया है –
“अचिरता देख जगती की आप,
शून्य भरता समीर निःश्वास,
डलता पातों पर चुपचाप,
ओस को आँसू नीलाकाश,
सिसक उठता समुद्र का मन,
सिहर उठते उडुगन”।
कविवर पन्त प्रकृति के सच्चे उपासक है। प्रकृति उसकी हास-रूदन की प्रेरक है, उद्धीपक है और उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम भी है।
“Her Identity and Emancipation” - Gelaxy International Inter disciplinary Research Journal
(ISSN 2347-6915) - GIIRJ, Vol.2(1), January, 2014, PP-142-143.
http://internationaljournals.co.in/pdf/GIIRJ/2014/January/11.pdf
“निर्मलवर्मा का परिचय एवं साहित्य दृष्टि” – Review of Research Journal, ISSN: 2249-894X, I.F: 5.7631(UIF) Volume 8, Issue 5, February 2019. (UGC Journal No. 48514)
http://oldror.lbp.world/UploadedData/7502.pdf
“नागार्जुन की कविताओं में राजनीतिक व्यंग्य” – Review of Research Journal, ISSN: 2249-894X, I.F: 5.7631(UIF) Volume 8, Issue 7, APRIL 2019. (UGC Journal No. 48514)
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2. संत नामदेव
जिस प्रकार उत्तर भारत में अनेक सन्त
हुए हैं, उसी प्रकार दजिण भारत में भी
महान सन्त हुए हैं, जिनमें नामदेव भी
एक हैं। नामदेव क
े िीवन क
े सम्बन्ध में
क
ु छ ठीक से ज्ञात नहीीं है। इतना पता
चलता है जक जिन्हींने इन्ें पाला, उनका
नाम दामहदर था। दामहदर की पत्नी का
नाम गुणाबाई था। वे पींढरपुर में
गहक
ु लपुर नामक गााँव में रहते थे। भीमा
नदी क
े जकनारे इन्ें नामदेव जििु की
अवस्था में जमले थे। यही नामदेव क
े
माता-जपता माने िाते हैं। घटना आि से
लगभग आठ सौ साल पहले की है।
3. उनकी जििा कहााँ हुई थी, इसका पता नहीीं। इतना पता
लगता है जक आठ वर्ष की अवस्था से वे यहगाभ्यास करने
लगे। उसी समय से उन्हींने अन्न खाना छहड़ जदया और िरीर
की रिा क
े जलए क
े वल थहड़ा-सा दू ध पी जलया करते थे। स्वयीं
अध्ययन करक
े इन्हींने अपूवष बुद्धि तथा ज्ञान प्राप्त जकया था।
नामदेव क
े जवर्य में अनेक चमत्कारी कथाएाँ जमलती हैं। एक
घटना इस प्रकार बतायी गयी है जक एक बार इनक
े जपता
इनकी माता कह साथ लेकर कहीीं बाहर गये। यह लहग क
ृ ष्ण
क
े बड़े भक्त थे और घर में जवट्ठलनाथ की मूजतष स्थाजपत कर
रखी थी जिसकी जनयमानुसार प्रजतजदन पूिा हहती थी।
नामदेव से उन लहगहीं ने कहा, हम लहग बाहर िा रहे हैं।
जवट्ठलनाथ कह द्धखलाये जबना न खाना। उनका अजभप्राय भहग
लगाने का था जकन्तु नामदेव ने सीधा अथष जलया। दू सरे जदन
भहिन बनाकर थाल परहसकर मूजतष क
े पास पहुाँच गये और
जवट्ठलनाथ से भहिन करने का आग्रह करने लगे। बारम्बार
कहने पर भी जवट्ठलनाथ टस से मस नहीीं हुए। नामदेव
झुींझलाकर वहीीं बैठ गये। माता-जपता की आज्ञा की अवहेलना
करना वे पाप समझते थे। उन्हींने प्रजतज्ञा की जक िब तक
जवट्ठलनाथ भहिन नहीीं ग्रहण करेंगे, मैं यूाँ ही बैठा रहाँगा।
कहा िाता है जक नामदेव क
े हठ से जवट्ठलनाथ ने मनुष्य
िरीर धारण कर भहिन ग्रहण जकया।
4. िब नामदेव क
े जपता लौटे और उन्हींने यह घटना सुनी तब उन्ें
जवश्वास नहीीं हुआ जकन्तु िब बार-बार नामदेव ने कहा तब उनक
े
आश्चयष का जठकाना नहीीं रहा। वे िानते थे जक यह बालक कभी
झूठ नहीीं कहेगा। उन्हींने कहा, “बेटा, तू भाग्यवान है। तेरा िन्म
लेना इस सींसार में सफल हुआ। भगवान तुझ पर प्रसन्न हुए और
स्वयीं तुझे दिषन जदया।” नामदेव यह सुनकर पुलजकत हह गए और
उसी जदन से दू नी लगन से पूिा करने लगे।
एक जदन नामदेव और्जध क
े जलए बबूल की छाल लेने गये। पेड़ की
छाल इन्हींने काटी ही थी जक उसमें रक्त क
े समान तरल पदाथष
बहने लगा। नामदेव कह ऐसा लगा जक िैसे उन्हींने मनुष्य की गदषन
पर क
ु ल्हाड़ी चलायी है। पेड़ कह घाव पहुाँचाने का इन्ें पश्चाताप
हुआ। उसी जदन उन्ें वैराग्य उत्पन्न हह गया और वे घर छहड़कर
चले गये। घर छहड़ने क
े बाद ये देि क
े अनेक भागहीं में भ्रमण करते
रहे। साधु-सन्तहीं क
े साथ रहते थे और भिन-कीतषन करते थे। एक
बार की घटना है जक चार सौ भक्तहीं क
े साथ यह कहीीं िा रहे थे।
लहगहीं ने समझा जक डाक
ु ओीं का दल है, डाका डालने क
े जलए कहीीं
िा रहा है। अजधकाररयहीं ने पकड़ जलया और रािा क
े पास ले गये।
वहीीं रािा क
े सामने एक मृत गाय कह िीजवत कर इन्हींने रािा कह
चमत्क
ृ त कर जदया। रािा यह चमत्कार देखकर डर गया। नामदेव
क
े सम्बन्ध में ऐसी सैकड़हीं घटनाओीं का वणषन जमलता है। इन
घटनाओीं में सच्चाई न भी हह तह भी उनसे इतना पता चलता है जक
उनकी िद्धक्त एवीं प्रजतभा अलौजकक थी। कजठन साधना और यहग
क
े अभ्यास क
े बल पर बहुत से कायों कह भी उन्हींने सम्भव कर
जदखाया।
5. वे स्वयीं भिन बनाते थे और गाते थे।
उनक
े जिष्य भी गाते थे। इन भिनहीं कह
'अभींग' कहते हैं। उनक
े रचे सैकड़हीं
अभींग जमलते हैं और महाराष्ट्र क
े रहने
वाले बड़ी भद्धक्त तथा श्रिा से आि भी
उनक
े अभींग गाते हैं। महाराष्ट्र में उनका
नाम बड़ी श्रिा से जलया िाता है।
महाराष्ट्र ही नहीीं, सारे देि क
े लहग उन्ें
बड़ी श्रिा की दृजष्ट् से देखते हैं और
उनकी गणना उसी श्रेणी में है जिसमें
तुलसी, रामदास, नरसी मेहता और
कबीर की है।