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वात आवरण
पारुल
201601033
परस्पर आवरण हे पापरहहत! पााँर्चों प्रकार क
े वात ों का आपस में ह ने वाले आवरण क हवस्तार और
सोंग से मुझसे कहे जाने वाले लक्षण ों क सुन ।। (च.चच.28/199)
मारुतानाां चि पञ्चानामन्योन्यावरणे शृणु।
चिङ्ग व्याससमासाभ्यामुच्यमानां मयाऽनघ ।। (च.चच.28/199)
वायु क
े परस्पर 20 आवरण-
प्राणवायु, उदान आहद वात ों क आवृत करता है तथा वे उदान आहद वायु प्राण-वायु क आवृत करते
हैं, इस प्रकार क्रम से सभी वायु एक-एक क आवृत करते हैं। बढे हुए पााँर्च ों वात ों क
े परस्पर ये
आवरण 20 प्रकार क
े ह ते हैं। उसे हर्चहकत्सक क तक
क द्वारा हनहित करना र्चाहहए।
(च.
चच.28/200,1)
वायु क
े परस्पर 20 आवरण-
प्राणो वृणोत्युदानादीन् प्राणां वृण्वन्ति तेऽचप च ।
उदानाद्यास्तथाऽन्योन्यां सवव एव यथाक्रमम् ।।
चवांशचतववरणान्येतान्युल्बणानाां परस्परम् ।
मारुतानाां चि पञ्चानाां ताचन सम्यक
् प्रतक
व येत् ।। (च. चच.28/200-201)
प्राण वायु से आवृत व्यान वायु का लक्षण और
हर्चहकत्सा-
यहद प्राण वायु से व्यान वायु आवृत ह जाय, त सभी इन्द्रिय ों में शून्यता का अनुभव ह ता है। स्मरण-शन्द्रि
और बल का क्षय ह जाता है। इस लक्षण क देखकर जत्रु में ह ने वाली हर्चहकत्सा
का प्रय ग करना र्चाहहए।। ( च.चच.28/202)
प्राण वायु से आवृत व्यान वायु का लक्षण और
हर्चहकत्सा -
सवेन्तियाणाां शून्यत्वां ज्ञात्वा स्मृचतबिक्षयम् ।
व्याने प्राणावृते चिङ्ग कमव तत्रोर्ध्वजत्रुकम् ।। (च.चच.28/202)
व्यान वायु से आवृत वायु का लक्षण और
हर्चहकत्सा -
यहद व्यान वायु से प्राण वायु आवृत ह जाय, त पसीना अहिक हनकलता है, र माञ्च, त्वर्चाओों में
हसक
ु ड़न, शरीर में शून्यता का अनुभव ह ता है। इसमें स्नेह हमलाकर हवरेर्चन औषहि का प्रय ग
करना र्चाहहए। (च.चच.28/203)
व्यान वायु से आवृत वायु का लक्षण और
हर्चहकत्सा -
स्वेदोऽत्यथव िोमिर्वस्त्वग्दोर्ः सुप्तगात्रता ।
प्राणे व्यानावृते तत्र स्नेियुक्तां चवरेचनम् ।। च. चच.28/203)
प्राण वायु से आवृत समान वायु क
े लक्षण और
हर्चहकत्सा -
यहद समान वायु प्राणवायु से आवृत ह जाय, त शरीर में जड़ता, गद् गद वाक्य ब लना या मूक ह
जाना ये लक्षण ह ते हैं। ऐसी अवस्था में यापन बन्द्रस्त क
े साथ-साथ स्नेह क
े ४ प्रय ग (वमन, हवरेर्चन,
हनरूह, अनुवासन) करना हहतकर ह ता हैं। (च.चच.28/204)
प्राण वायु से आवृत समान वायु क
े लक्षण और
हर्चहकत्सा -
प्राणावृते समाने स्युजवडगद् गदमूकताः ।
चतुष्प्रयोगाः शस्यिे स्नेिास्तत्र सयापनाः ।। च.चच28/204)
समान वायु से आवृत अपान वायु क
े लक्षण
और हर्चहकत्सा-
समान वायु से जब अपान वायु आवृत ह जाती है त ग्रहणीर ग, पार्श्क में पीडा, हृदयर ग और
आमाशय में शूल ह ता है, ऐसी दशा में अहिदीपक घृत का प्रय ग
करना लाभकारी ह ता है।
(च.चच.28/205)
समान वायु से आवृत अपान वायु क
े लक्षण
और हर्चहकत्सा-
समानेनावृतेऽपाने शूिां चामाशये ग्रिणीपार्श्वहृद् गदाः ।
शूिां चामाशये तत्र दीपनां सचपवररष्यते ।। (च.चच.28/205)
प्राणावृत उदान क
े लक्षण और हर्चहकत्सा-
जब प्राणवायु से उदान वायु आवृत ह जाती है, त हसर में भारीपन, प्रहतश्याय (जुकाम), र्श्ास-
प्रर्श्ास का रुकना, हृदयर ग और मुख का सूखना ये लक्षण ह ते हैं। ऐसी अवस्था में जत्रुप्रदेश क
े
र ग ों में हजन हर्चहकत्साओों का हविान हकया गया है, जैसे- िूम, नस्य आहद, उसका प्रय ग तथा र गी
क आर्श्ासनल ग ों र्चाहहए । (च.चच. 28/206,207)
प्राणावृत उदान क
े लक्षण और हर्चहकत्सा-
चशरोग्रिः प्रचतश्यायो चनःर्श्ासोच्छ्वाससङ्ग् ग्रिः।
हृद्रोगो मुखशोर्श्चाप्युदाने प्राणसांवृते ।
तत्रोर्ध्वभाचगक
ां कमव कायवमार्श्ासनां तथा ॥ (च.चच.28/206,207)
उदानावृत प्राण क
े लक्षण और हर्चहकत्सा -
यहद उदान वायु से प्राणवायु आवृत्त ह जाय, त शारीररक र्चेष्टायें, ओर, बल और वणक का नाश ह
जाता है अथवा मृत्यु भी ह जाती है। ऐसी अवस्था में शीतल जल से र गी क
े शरीर पर सेर्चन साना
र्चाहहए। उसे आर्श्ासन देते हुए पूणक सुखपूवकक हवश्राम कराना र्चाहहए। (च.चच.28/208)
उदानावृत प्राण क
े लक्षण और हर्चहकत्सा -
कमोंजोबिवणावनाां नाशो मृत्युरथाचप वा।
उदानेनावृते प्राणे तां शनः शीतवाररणा ।
चसञ्चेदार्श्ासयेच्चनांतां सुखां चवोपपादयेत् ।। च. चच.28/208)
उदानावृत्त अपान क
े लक्षण और हर्चहकत्सा-
ऊर्ध्क (उदान) वायु से यहद अपान वायु आवृत ह जाती है, त अन और र्श्ास, कास आहद र ग उत्पन्न
ह ते हैं। ऐसी अवस्था में बन्द्रस्त का प्रय ग और वायु का अनुल मन करने वाले आहार ओों का सेवन
करना र्चाहहये। ( च. चच.28/209)
उदानावृत्त अपान क
े लक्षण और हर्चहकत्सा -
ऊर्ध्वगेनावृतेऽपाने छचदवर्श्ासादयो गदाः ॥
स्युवावते तत्र बस्त्याचद भोज्यां चवानुिोमनम् । च.चच.28/209)
अपानावृत उदान क
े लक्षण और हर्चहकत्सा -
यहद अपान वायु से उदान वायु आवृत ह जाय, त म ह, अहि सन्दता, अहतसार-ये र ग उत्पन्न ह जाते हैं।
ऐसी अवस्था में वमन, अहिदीपक और ग्राही अन्न-पान का सेवन करना
र्चाहहए।। (च.चच.28/210)
अपानावृत उदान क
े लक्षण और हर्चहकत्सा -
मोिोऽल्पोऽचिरतीसार ऊर्ध्वगेऽपानसांवृते ।
वाते स्याद्वमनां तत्र दीपनां ग्राचि चाशनम् ।। (च. चच. 28/210)
व्यानावृत्त अपान क
े लक्षण और हर्चहकत्सा-
यहद व्यान वायु से अपान वायु आवृत ह जाय, त वमन, समान, उदावतक, गुल्म और पररकहत्तकका
र ग का ह ना ये लक्षण ह ते हैं। ऐसी अवस्था में हस्नग्ध द्रव्य ों क न्द्रखलाकर अपान वायु अनुल म
करना र्चाहहए । (च. चच. 28/211)
व्यानावृत्त अपान क
े लक्षण और हर्चहकत्सा-
वम्याध्मानमुदावतवगुल्माचतवपररकचतवकाः ।
चिङ्ग व्यानावृतेऽपाने तां चस्नग्धरनुिोमयेत् ।। च.चच.28/211)
अपानावृत व्यान क
े लक्षण और हर्चहकत्सा-
यहद अपान वायु से व्यानवायु आवृत ह जाय, त मल-मूत्र और शुक्र की अहिक मात्रा में प्रवृहत्त ह ती
है। ऐसी अवस्था में औषहि अन्न-पान सभी सोंग्राहक द्रव्य ों का प्रय ग करना। र्चाहहए।
(च,चच28/212)
अपानावृत व्यान क
े लक्षण और हर्चहकत्सा-
अपानेनावृते व्याने भवेचद्वण्मूत्ररेतसाम् ।
अचतप्रवृचिस्तत्राचप सवं सङ्ग् ग्रिणां मतम् ।। च. चच. 28/212)
समानावृत व्यान क
े लक्षण हर्चहकत्सा -
यहद समान वायु से व्यान वायु आवृत ह जाए, त मूर्च्ाक, प्रलाप, अोंग ों में हशहथलता, अहि, ओज
और बल का नाश ह जाता है। ऐसी दशा में व्यायाम तथा हल्का भ जन कार र्चाहहए। ( च. चच .
28/213)
समानावृत व्यान क
े लक्षण और हर्चहकत्सा-
उदानावृत व्यान क
े लक्षण और हर्चहकत्सा-
■ यहद उदान वायु क
े द्वारा व्यान वायु आवृत ह ती हैं, त अोंग ों से जकड़ाहट, जठराहि की अल्पता,
पसीना का सवकदा न आना, शारीररक र्चेष्टाओों का नाश और नेत्र सवकदा बन्द रहते हैं। हऐ अवस्था
में थ ड़ा और हल्का भ जन देना पथ्य ह ता है। ( च.चच.28/214)
उदानावृत व्यान क
े लक्षण और हर्चहकत्सा-
स्तब्धताऽल्पाचिताऽस्वेदश्चेष्टािाचनचनवमीिनम् ।
उदानेनावृते व्याने तत्र पथ्यां चमतां िघु ।। च. चच . 28/214)
वात क
े परस्पर आवरण प्रकरण का
उपसोंहार-
यह आवृत वात ों क
े २० भेद ों में ८ का लक्षण और हर्चहकत यथास्थूल (म टे-म टे रूप में) हवद्वान्
हर्चहकत्सक ों की बुन्द्रि बढाने क
े हलए उहर्चत रूप से कही गयी है।। (च. चच .28/216)
वात क
े परस्पर आवरण प्रकरण का
उपसोंहार-
यथास्थूिां समुचिष्टमेतदावरणेऽष्टकम् ।
सचिङ्गभेर्जां बुन्तिवृिये ।। च. चच. 28/216)
हर्चहकत्सा
वायु क
े स्थान और उसक
े स्वाभाहवक कायों की वृन्द्रि और हाहन का हवर्चार कर और १२ अन्य आवरण ों
क क
े हवर्चार कर अभ्यङ्ग, स्नेहपान, बन्द्रस्त आहद सभी हर्चहकत्सा कमक करना र्चाहहये। उष्ण और अनुष्ण
(शीतल) क्रम क बारी-बारी दे करना र्चाहहये अथाकत् पहले उष्ण अभ्यङ्ग आहद का प्रय ग उसक
े बाद
शीतल अभ्यङ्ग आहद का प्रय ग पुनः उसक
े बाद उष्ण साभार और स्नेहपान का प्रय ग करना र्चाहहये।
इस तरह ज भी हक्रया की जाय, वह उष्ण और बाद में शीत पुनः उष्ण पुनः और इस प्रकार हर्चहकत्सा
करनी र्चाहहये। ( च. चच . 28/217,18)
हर्चहकत्सा
स्थानान्यवेक्ष्य वातानाां वृन्ति िाचनां च कमवणाम् ।
द्वादशावरणान्यन्यान्यचभिक्ष्य चभर्न्तितम् ।।
क
ु यावदभ्यञ्जनस्नेिपानबस्त्याचद सववशः।
क्रममुष्णमनुष्णां वा व्यत्यासादवचारयेत् ।। (च. चच .28/217,8)
हवहभन्न वायुओों का हर्चहकत्सासूत्र-
उदान वायु क
े हवक
ृ त ह जाने पर उसे हर्चहकत्साओों द्वारा ऊपर ले जाना र्चाहहये। अपान वायु का
अनुल मक अन्न-पान औषहिय ों द्वारा अनुल मन करना र्चाहहये। समान वायु क शान्त करना र्चाहहए।
व्यान वायु क
े क
ु हपत ह ने पर उसे ऊर्ध्कमागक, अि मागक और मध्यमागो में ले जाना र्चाहहए और इन
र्चार ों वायुओों से प्राणवायु की रक्षा करनी र्चाहहये। इस प्राणवायु क
े अपने स्थान में रहने से शरीर की
न्द्रस्थहत ठीक र्चलती है, इस प्रकार यहद ये वायु हवमागक ह ों या द ष ों ने आवृत ह ों, त उन्हें अपने स्थान
में पहुाँर्चा देना र्चाहहये। ( च. चच . 28/219,20)
हवहभन्न वायुओों का हर्चहकत्सासूत्र-
उदानां योजयेदू र्ध्वमपानां चानुिोमयेत् ।
समानां शमयेच्चव चत्रधा व्यानां तु योजयेत् ।। प्
राणो रक्ष्यश्चतुथोऽचप स्थाने ह्यस्य न्तस्थचतधुवा ।
स्वां स्थानां गमयेदेवां वृतानेतान् चवमागवगान् ।। ( च. चच.28/219,20)

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  • 4. वायु क े परस्पर 20 आवरण- प्राणवायु, उदान आहद वात ों क आवृत करता है तथा वे उदान आहद वायु प्राण-वायु क आवृत करते हैं, इस प्रकार क्रम से सभी वायु एक-एक क आवृत करते हैं। बढे हुए पााँर्च ों वात ों क े परस्पर ये आवरण 20 प्रकार क े ह ते हैं। उसे हर्चहकत्सक क तक क द्वारा हनहित करना र्चाहहए। (च. चच.28/200,1)
  • 5. वायु क े परस्पर 20 आवरण- प्राणो वृणोत्युदानादीन् प्राणां वृण्वन्ति तेऽचप च । उदानाद्यास्तथाऽन्योन्यां सवव एव यथाक्रमम् ।। चवांशचतववरणान्येतान्युल्बणानाां परस्परम् । मारुतानाां चि पञ्चानाां ताचन सम्यक ् प्रतक व येत् ।। (च. चच.28/200-201)
  • 6. प्राण वायु से आवृत व्यान वायु का लक्षण और हर्चहकत्सा- यहद प्राण वायु से व्यान वायु आवृत ह जाय, त सभी इन्द्रिय ों में शून्यता का अनुभव ह ता है। स्मरण-शन्द्रि और बल का क्षय ह जाता है। इस लक्षण क देखकर जत्रु में ह ने वाली हर्चहकत्सा का प्रय ग करना र्चाहहए।। ( च.चच.28/202)
  • 7. प्राण वायु से आवृत व्यान वायु का लक्षण और हर्चहकत्सा - सवेन्तियाणाां शून्यत्वां ज्ञात्वा स्मृचतबिक्षयम् । व्याने प्राणावृते चिङ्ग कमव तत्रोर्ध्वजत्रुकम् ।। (च.चच.28/202)
  • 8. व्यान वायु से आवृत वायु का लक्षण और हर्चहकत्सा - यहद व्यान वायु से प्राण वायु आवृत ह जाय, त पसीना अहिक हनकलता है, र माञ्च, त्वर्चाओों में हसक ु ड़न, शरीर में शून्यता का अनुभव ह ता है। इसमें स्नेह हमलाकर हवरेर्चन औषहि का प्रय ग करना र्चाहहए। (च.चच.28/203)
  • 9. व्यान वायु से आवृत वायु का लक्षण और हर्चहकत्सा - स्वेदोऽत्यथव िोमिर्वस्त्वग्दोर्ः सुप्तगात्रता । प्राणे व्यानावृते तत्र स्नेियुक्तां चवरेचनम् ।। च. चच.28/203)
  • 10. प्राण वायु से आवृत समान वायु क े लक्षण और हर्चहकत्सा - यहद समान वायु प्राणवायु से आवृत ह जाय, त शरीर में जड़ता, गद् गद वाक्य ब लना या मूक ह जाना ये लक्षण ह ते हैं। ऐसी अवस्था में यापन बन्द्रस्त क े साथ-साथ स्नेह क े ४ प्रय ग (वमन, हवरेर्चन, हनरूह, अनुवासन) करना हहतकर ह ता हैं। (च.चच.28/204)
  • 11. प्राण वायु से आवृत समान वायु क े लक्षण और हर्चहकत्सा - प्राणावृते समाने स्युजवडगद् गदमूकताः । चतुष्प्रयोगाः शस्यिे स्नेिास्तत्र सयापनाः ।। च.चच28/204)
  • 12. समान वायु से आवृत अपान वायु क े लक्षण और हर्चहकत्सा- समान वायु से जब अपान वायु आवृत ह जाती है त ग्रहणीर ग, पार्श्क में पीडा, हृदयर ग और आमाशय में शूल ह ता है, ऐसी दशा में अहिदीपक घृत का प्रय ग करना लाभकारी ह ता है। (च.चच.28/205)
  • 13. समान वायु से आवृत अपान वायु क े लक्षण और हर्चहकत्सा- समानेनावृतेऽपाने शूिां चामाशये ग्रिणीपार्श्वहृद् गदाः । शूिां चामाशये तत्र दीपनां सचपवररष्यते ।। (च.चच.28/205)
  • 14. प्राणावृत उदान क े लक्षण और हर्चहकत्सा- जब प्राणवायु से उदान वायु आवृत ह जाती है, त हसर में भारीपन, प्रहतश्याय (जुकाम), र्श्ास- प्रर्श्ास का रुकना, हृदयर ग और मुख का सूखना ये लक्षण ह ते हैं। ऐसी अवस्था में जत्रुप्रदेश क े र ग ों में हजन हर्चहकत्साओों का हविान हकया गया है, जैसे- िूम, नस्य आहद, उसका प्रय ग तथा र गी क आर्श्ासनल ग ों र्चाहहए । (च.चच. 28/206,207)
  • 15. प्राणावृत उदान क े लक्षण और हर्चहकत्सा- चशरोग्रिः प्रचतश्यायो चनःर्श्ासोच्छ्वाससङ्ग् ग्रिः। हृद्रोगो मुखशोर्श्चाप्युदाने प्राणसांवृते । तत्रोर्ध्वभाचगक ां कमव कायवमार्श्ासनां तथा ॥ (च.चच.28/206,207)
  • 16. उदानावृत प्राण क े लक्षण और हर्चहकत्सा - यहद उदान वायु से प्राणवायु आवृत्त ह जाय, त शारीररक र्चेष्टायें, ओर, बल और वणक का नाश ह जाता है अथवा मृत्यु भी ह जाती है। ऐसी अवस्था में शीतल जल से र गी क े शरीर पर सेर्चन साना र्चाहहए। उसे आर्श्ासन देते हुए पूणक सुखपूवकक हवश्राम कराना र्चाहहए। (च.चच.28/208)
  • 17. उदानावृत प्राण क े लक्षण और हर्चहकत्सा - कमोंजोबिवणावनाां नाशो मृत्युरथाचप वा। उदानेनावृते प्राणे तां शनः शीतवाररणा । चसञ्चेदार्श्ासयेच्चनांतां सुखां चवोपपादयेत् ।। च. चच.28/208)
  • 18. उदानावृत्त अपान क े लक्षण और हर्चहकत्सा- ऊर्ध्क (उदान) वायु से यहद अपान वायु आवृत ह जाती है, त अन और र्श्ास, कास आहद र ग उत्पन्न ह ते हैं। ऐसी अवस्था में बन्द्रस्त का प्रय ग और वायु का अनुल मन करने वाले आहार ओों का सेवन करना र्चाहहये। ( च. चच.28/209)
  • 19. उदानावृत्त अपान क े लक्षण और हर्चहकत्सा - ऊर्ध्वगेनावृतेऽपाने छचदवर्श्ासादयो गदाः ॥ स्युवावते तत्र बस्त्याचद भोज्यां चवानुिोमनम् । च.चच.28/209)
  • 20. अपानावृत उदान क े लक्षण और हर्चहकत्सा - यहद अपान वायु से उदान वायु आवृत ह जाय, त म ह, अहि सन्दता, अहतसार-ये र ग उत्पन्न ह जाते हैं। ऐसी अवस्था में वमन, अहिदीपक और ग्राही अन्न-पान का सेवन करना र्चाहहए।। (च.चच.28/210)
  • 21. अपानावृत उदान क े लक्षण और हर्चहकत्सा - मोिोऽल्पोऽचिरतीसार ऊर्ध्वगेऽपानसांवृते । वाते स्याद्वमनां तत्र दीपनां ग्राचि चाशनम् ।। (च. चच. 28/210)
  • 22. व्यानावृत्त अपान क े लक्षण और हर्चहकत्सा- यहद व्यान वायु से अपान वायु आवृत ह जाय, त वमन, समान, उदावतक, गुल्म और पररकहत्तकका र ग का ह ना ये लक्षण ह ते हैं। ऐसी अवस्था में हस्नग्ध द्रव्य ों क न्द्रखलाकर अपान वायु अनुल म करना र्चाहहए । (च. चच. 28/211)
  • 23. व्यानावृत्त अपान क े लक्षण और हर्चहकत्सा- वम्याध्मानमुदावतवगुल्माचतवपररकचतवकाः । चिङ्ग व्यानावृतेऽपाने तां चस्नग्धरनुिोमयेत् ।। च.चच.28/211)
  • 24. अपानावृत व्यान क े लक्षण और हर्चहकत्सा- यहद अपान वायु से व्यानवायु आवृत ह जाय, त मल-मूत्र और शुक्र की अहिक मात्रा में प्रवृहत्त ह ती है। ऐसी अवस्था में औषहि अन्न-पान सभी सोंग्राहक द्रव्य ों का प्रय ग करना। र्चाहहए। (च,चच28/212)
  • 25. अपानावृत व्यान क े लक्षण और हर्चहकत्सा- अपानेनावृते व्याने भवेचद्वण्मूत्ररेतसाम् । अचतप्रवृचिस्तत्राचप सवं सङ्ग् ग्रिणां मतम् ।। च. चच. 28/212)
  • 26. समानावृत व्यान क े लक्षण हर्चहकत्सा - यहद समान वायु से व्यान वायु आवृत ह जाए, त मूर्च्ाक, प्रलाप, अोंग ों में हशहथलता, अहि, ओज और बल का नाश ह जाता है। ऐसी दशा में व्यायाम तथा हल्का भ जन कार र्चाहहए। ( च. चच . 28/213)
  • 27. समानावृत व्यान क े लक्षण और हर्चहकत्सा-
  • 28. उदानावृत व्यान क े लक्षण और हर्चहकत्सा- ■ यहद उदान वायु क े द्वारा व्यान वायु आवृत ह ती हैं, त अोंग ों से जकड़ाहट, जठराहि की अल्पता, पसीना का सवकदा न आना, शारीररक र्चेष्टाओों का नाश और नेत्र सवकदा बन्द रहते हैं। हऐ अवस्था में थ ड़ा और हल्का भ जन देना पथ्य ह ता है। ( च.चच.28/214)
  • 29. उदानावृत व्यान क े लक्षण और हर्चहकत्सा- स्तब्धताऽल्पाचिताऽस्वेदश्चेष्टािाचनचनवमीिनम् । उदानेनावृते व्याने तत्र पथ्यां चमतां िघु ।। च. चच . 28/214)
  • 30. वात क े परस्पर आवरण प्रकरण का उपसोंहार- यह आवृत वात ों क े २० भेद ों में ८ का लक्षण और हर्चहकत यथास्थूल (म टे-म टे रूप में) हवद्वान् हर्चहकत्सक ों की बुन्द्रि बढाने क े हलए उहर्चत रूप से कही गयी है।। (च. चच .28/216)
  • 31. वात क े परस्पर आवरण प्रकरण का उपसोंहार- यथास्थूिां समुचिष्टमेतदावरणेऽष्टकम् । सचिङ्गभेर्जां बुन्तिवृिये ।। च. चच. 28/216)
  • 32. हर्चहकत्सा वायु क े स्थान और उसक े स्वाभाहवक कायों की वृन्द्रि और हाहन का हवर्चार कर और १२ अन्य आवरण ों क क े हवर्चार कर अभ्यङ्ग, स्नेहपान, बन्द्रस्त आहद सभी हर्चहकत्सा कमक करना र्चाहहये। उष्ण और अनुष्ण (शीतल) क्रम क बारी-बारी दे करना र्चाहहये अथाकत् पहले उष्ण अभ्यङ्ग आहद का प्रय ग उसक े बाद शीतल अभ्यङ्ग आहद का प्रय ग पुनः उसक े बाद उष्ण साभार और स्नेहपान का प्रय ग करना र्चाहहये। इस तरह ज भी हक्रया की जाय, वह उष्ण और बाद में शीत पुनः उष्ण पुनः और इस प्रकार हर्चहकत्सा करनी र्चाहहये। ( च. चच . 28/217,18)
  • 33. हर्चहकत्सा स्थानान्यवेक्ष्य वातानाां वृन्ति िाचनां च कमवणाम् । द्वादशावरणान्यन्यान्यचभिक्ष्य चभर्न्तितम् ।। क ु यावदभ्यञ्जनस्नेिपानबस्त्याचद सववशः। क्रममुष्णमनुष्णां वा व्यत्यासादवचारयेत् ।। (च. चच .28/217,8)
  • 34. हवहभन्न वायुओों का हर्चहकत्सासूत्र- उदान वायु क े हवक ृ त ह जाने पर उसे हर्चहकत्साओों द्वारा ऊपर ले जाना र्चाहहये। अपान वायु का अनुल मक अन्न-पान औषहिय ों द्वारा अनुल मन करना र्चाहहये। समान वायु क शान्त करना र्चाहहए। व्यान वायु क े क ु हपत ह ने पर उसे ऊर्ध्कमागक, अि मागक और मध्यमागो में ले जाना र्चाहहए और इन र्चार ों वायुओों से प्राणवायु की रक्षा करनी र्चाहहये। इस प्राणवायु क े अपने स्थान में रहने से शरीर की न्द्रस्थहत ठीक र्चलती है, इस प्रकार यहद ये वायु हवमागक ह ों या द ष ों ने आवृत ह ों, त उन्हें अपने स्थान में पहुाँर्चा देना र्चाहहये। ( च. चच . 28/219,20)
  • 35. हवहभन्न वायुओों का हर्चहकत्सासूत्र- उदानां योजयेदू र्ध्वमपानां चानुिोमयेत् । समानां शमयेच्चव चत्रधा व्यानां तु योजयेत् ।। प् राणो रक्ष्यश्चतुथोऽचप स्थाने ह्यस्य न्तस्थचतधुवा । स्वां स्थानां गमयेदेवां वृतानेतान् चवमागवगान् ।। ( च. चच.28/219,20)