2. दीनदयाल जी
दीनदयाल जी वर्तमान र्कनीकी एवं
अकादममक शब्दावली के संकीर्त-सीममर् अर्थों
में अर्थतशास्त्री र्ो नहीं र्थे, पर वे सचमुच
अर्थतवेत्ता र्थे, राष्ट्रोत्र्थान एवं समाज की
सवाांगीर् प्रगतर् के आकांक्षी कमतरर् दृष्ट्टा र्थे|
उन्होंने आर्र्थतक पररदृश्य, सामाजजक –आर्र्थतक
समस्त्याओं एवं उनके समाधान के बारे में जो
ववचार प्रकट ककये, उसे अर्थतर्चंर्न कहना ही
अर्धक उपयुक्र् होगा|
3. मूलभूर् मान्यर्ाएं
दीनदयाल जी का सम्पूर्त अर्थतर्चंर्न दो मूलभूर् मान्यार्ाओं पर आधाररर् र्था|
एक, वे समाज व संसार के ववमभन्न अवयवों-घटकों को अलग-र्थलग, पूर्तर्या
असम्बद्ध इकाइयों के रूप में स्त्वीकार नहीं करर्े र्थे| वे र्ो व्यजष्ट्ट, समजष्ट्ट,
सृजष्ट्ट एवं परमेष्ट्ठी के बीच संबंधों की अखंड मंडलाकार रचना के आधार पर
ववमभन्न इकाइयों के बीच सावयवी, परस्त्परपूरकर्ा, परस्त्परानुकू लर्ा, एकात्मर्ा
एवं संवेदनशीलर्ा के सम्बन्ध मानर्े हैं|
उन्होंने कहा र्था कक “भारर्ीय संस्त्कृ तर् सम्पूर्त जीवन का, सम्पूर्त सृजष्ट्ट का
संकमलर् ववचार करर्ी है| उसका दृजष्ट्टकोर् एकात्मवादी है|”
5. ववकास का समग्र चििंतन
दीनदयाल जी कहा करर्े र्थे कक आज का पजश्चम-प्रेररर् अर्थतशास्त्र
अर्थत-काम के जन्िर् अर्थतर्चंर्न है| यह अर्धकार्धक धनोत्पादन और
अर्धकार्धक उपभोग के एक वर्ुतल चक्र में ही घूमर्ा रहर्ा है,
अर्: यह अधूरा एवं भोगवादी र्चंर्न है|
हमें ववकास एवं अर्थतर्न्र के एक ऐसे प्रारूप पर काम करना होगा
जजसमें मनुष्ट्य के शरीर, मन, बुद्र्ध, व आत्मा की आवश्यकर्ा
की पूतर्त और उसके सवाांगीर् ववकास का अवसर ममल सके |
इस दृजष्ट्ट से हमारे मनीवियों ने धमत, अर्थत, काम और मोक्ष के रूप
में चर्ुववतध पुरुिार्थत की कल्पना रखी है |
7. अमेररका वालों की दृजष्ट्ट में, ‘ईमानदारी सवतश्रष्ट्ठ व्यावसातयक नीतर् है|’
(Honesty is the best business policy)| यूरोप वालों के अनुसार
‘ईमानदारी सवतश्रेष्ट्ठ नीतर् है ‘ (Honesty is the best policy) ककन्र्ु भारर्
की परम्परा एक कदम आगे बढ़कर कहर्ी है कक, ‘ईमानदारी नीतर् नहीं
अवपर्ु मसद्धांर् है| (Honesty is not a policy but a principle).
इस प्रकार दीनदयाल जी के ववचारों के अनुसार हमें एक ऐसी अर्थतरचना
एवं अर्थतव्यवस्त्र्था को ववकमसर् करना होगा जजसमें धमत और अर्थत, सदाचार
और समृद्र्ध दोनों सार्थ-सार्थ चल सके |
12. न्यूनतम आवश्यकताएिं
न्यूनर्म आवश्यकर्ाओं में वे अन्न(संर्ुमलर् व पौजष्ट्टक आहार),
वस्त्र(ऋर्ु के अनुसार पयातप्र् मारा में),तनवारा (पीने का पानी एवं
सेतनटेशन की सुववधाओं सहहर्)मशक्षर्, स्त्वास्त््य (समुर्चर्
र्चककत्सा सुववधाओं समेर्) एवं सुरक्षा को सजम्ममलर् करर्े है|
17. मशक्षा के सम्बन्ध में दीनदयाल जी का मर् र्था कक वह संस्त्कारप्रद र्र्था देश
व समाज की आवश्यकर्ाओं के अनुरूप होनी चाहहए| उनके अनुसार देश के
प्रत्येक बालक-बामलका को बबना ककसी भेदभाव के मशक्षा देना समाज का
दातयत्त्व है| फ़ीस लेकर मशक्षा देना उन्हें मान्य नहीं, अर्: मशक्षा तन:शुल्क
होनी चाहहए| इस बार् को स्त्पष्ट्ट करर्े हुए उन्होंने कहा है कक जजस प्रकार पेड़
लगाने और सींचने के मलए हम पेड़ से पैसा नहीं लेर्े बजल्क उस काम में
पूंजी लगार्े हैं, उसी प्रकार मशक्षा भी एक प्रकार का ववतनयोजन ही है|
24. सबको काम एविं रोज़गार
दीनदयाल जी कहर्े हैं कक मानव को पेट और हार्थ दोनों ममले हुए हैं| यहद
हार्थों को काम न ममले और पेट को खाना ममलर्ा रहे र्ो भी मनुष्ट्य सुखी
नहीं रहेगा| अर्: ‘प्रत्येक को काम’ अर्थतव्यवस्त्र्था का आधारभूर् लक्ष्य होना
चाहहए|
अर्थतव्यवस्त्र्था में सब प्रकार की बेरोज़गारी – अल्प बेरोज़गारी, अदृश्य
बेरोज़गारी, मौसमी बेरोज़गारी समाप्र् होकर देश के प्रत्येक स्त्वस्त्र्थ व
क्षमर्ावान व्यजक्र् को रोज़गार के अवसर उपलब्ध होने चहहए|
28. दीनदयाल जी ने स्त्पष्ट्ट रूप से कहा र्था कक “प्रत्येक को वोट जैसे
राजतनतर्क प्रजार्ंर का तनकि है वैसे ही प्रत्येक को काम” यह
आर्र्थतक प्राजार्ंर का मापदंड है| इस संबंध में वे आगे कहर्े है
कक प्रत्येक व्यजक्र् को ऐसा काम ममलना चहहए जजससे उसकी
ठीक से जीववकोपाजतन हो सके , उसे अपना काम चुनने की
स्त्वर्ंरर्ा हो र्र्था उसे अपने काम के बदले न्यायोर्चर् पाररश्रममक
ममले| इसके मलए रोज़गार–के जन्िर् उत्पादन, तनवेश एवं ववकास–
रर्नीतर् बननी चाहहए|
35. उत्पादन तिंत्र एविं ददर्ा
देश व समाज की आवश्यकर्ाओं की पूतर्त सर्र् ववकास के मलए
वस्त्र्ुओं व सेवाओं का उत्पादन होर्े रहना चाहहए|
अर्थतशास्त्र उपभोग की सर्र् वधतमान आकांक्षा व लालसा को पूरा
करने के मलए अमयातहदर् उत्पादन वृद्र्ध पर जोर देर्ा है|
इसके मलए र्माम उत्तेजक, मांग पररवर्तक एवं प्रतर्योगी -
भ्रमात्मक (manipulative and competitive) ववज्ञापनों, आकितक
पैके जजंग र्र्था बबक्री-संवधतन के ववमभन्न र्ौर-र्रीकों का प्रयोग
ककया जार्ा है|
36. उपभोग के मलए उत्पादन से भी आगे बढ़कर उत्पादन के मलए
उपभोग का अर्थतशास्त्र चल पड़ा है, यह ववनाशोन्मुख है| पुराना
फें को और नया खरीदों| नया खरीदने की चाह उपभोक्र्ा में पैदा
करना; मांग पूरी करना नहीं बजल्क मांग पैदा करना यही आज
अर्थतव्यवस्त्र्था का लक्ष्य हो गया है|
दीनदयाल जी के अनुसार यह घार्क, ववनाशोन्मुख एवं संसाधनों
की कफजूलखची करने वाला अर्थतशास्त्र एवं अर्थतव्यवस्त्र्था है| इसे
बदलकर आवश्यकर्ाओं की समुर्चर् पूतर्त के मलए संसाधनों की
ममर्व्ययी उत्पादन-प्रकक्रया को अपनाया जाना चाहहए|
39. हमें उत्पादन में वृद्र्ध र्ो अवश्य करना है, पर ऐसा करर्े समय प्रकृ तर् या
प्राकृ तर्क संसाधनों की मयातदा को न भूले| इसका अर्थत है कक हमें प्राकृ तर्क
संसाधनों का अंधाधुंध प्रयोग कर प्रकृ तर् के सार्थ उच्छंखलर्ा करने वाली
उत्पादन पद्धतर् व र्कनोलोजी से बचना होगा र्र्था पुनरुत्पादनीय ऊजात
स्त्रोर्ों के प्रयोग एवं पयातवरर् पोिक र्कनोलोजी पर अर्धक ध्यान देना
होगा| प्रकृ तर् से हम उर्ना र्र्था इस प्रकार लें कक वह उस कमी को स्त्वयं
पुन: पूररर् कर ले|
संस्त्कृ र् के इस सुभाविर् का उल्लेख ककया है – ‘यद्देशस्त्य यो जन्र्ु:
र्द्देशस्त्य र्स्त्यौिधम ्’ (जजस देश में जो पैदा होर्ी है, वहीीँ उस देश की
औिर्ध है) |
हमें ववदेशी पूंजी, ववदेशी र्कनोलोजी एवं ववदेशी माल कम से कम और बहुर्
अतनवायत होने पर ही प्रयोग करना चाहहए | अपना ववकास अपने बलबूर्े
करने की हदशा में ही आगे बढ़ना चाहहए र्भी हम स्त्वदेशी-स्त्वावलंबी
अर्थतर्न्र खड़ा कर पायेंगे|
40. जो अपना है, (अपनी पद्धतर्, कायतशैली, र्कनीक-र्कनोलोजी, जीवनशैली
आहद) उसे युगानुकू ल बनाकर और जो पराया ववदेशी है (ववदेशी पद्धतर्,
र्कनीक-र्कनोलोजी आहद) उसे देशानुकू ल बनाकर अपनाना चाहहए|
अर्: उनके अनुसार हमें व्यजक्र् व पररवार आधाररर्, लघुयंरार्धजष्ट्ठर्
आर्र्थतक ववकें िीकरर् की प्रर्ाली ववकमसर् करने पर जोर देना चाहहए और
श्रम प्रधान ववके जन्िर् ग्रामोद्योगों को सुदृढ़ करना चाहहए|
41. कृ वि एविं उद्योग
कृ वि क्षेर में प्रतर् एकड़ एवं प्रतर् व्यजक्र् तनम्न उत्पादकर्ा स्त्र्र से बहुर्
र्चंतर्र् र्थे और दोनों दृजष्ट्टयों से उत्पादकर्ा स्त्र्र में वृद्र्ध करने के बारे में
उन्होंने अनेक सुझाव हदए र्थे|
कृ वि ववकास की दृजष्ट्ट से हमे प्राववर्धक (technical) एवं संस्त्र्थागर्
(institutional) दोनों प्रकार के कायतक्रम सार्थ-सार्थ चलाने होंगे, प्राववर्धक दृजष्ट्ट
से हमें आधुतनक कृ वि र्कनोलोजी का समुर्चर् मूल्यांकन करर्े हुए भारर्ीय
परजस्त्र्थतर्यों के अनुरूप कृ वि पद्र्धतर् में सुधार करना होगा|
खेर्ी की पैदावार में वृद्र्ध करने के मलए मसचाई सवातर्धक महत्वपूर्त इन्पुट
है| हमारे देश की खेर्ी अर्धकांशर्या मॉनसून की कृ पा पर तनभतर करर्ी है जो
अतनयममर् हैं और सब जगह और सब समय समान नहीं रहर्ी|
42. हमे कृ वि को मॉनसून या इंि देव की कृ पा पर ही नहीं छोड़ना चाहहए| इस
दृजष्ट्ट से वे पयातप्र् मारा में छोटी मसचाई योजनाओं, कु ओं, र्ालाबों, बावडडयों
एवं जलबन्ध (चैक डैम्स) के ववस्त्र्ार पर अर्धक बल देने के पक्षधर र्थे|
बढर्ी जनसंख्या का खेर्ी पर से भार घटाने, कृ वि में उत्पन कच्चे माल का
उपयोग करने और कृ वि को आवश्यक साधन सामग्री, यंर-औजार प्रदान
करने, रोज़गार के अवसरों में वृद्र्ध करने, देश की तनयातर् क्षमर्ा बढ़ाने,
स्त्वावलंबन आहद कई दृजष्ट्टयों से औद्योगीकरर् अत्यंर् आवश्यक है|
43. औद्योर्गक नीतर्
(i)मनुष्ट्य (men) (ii) माल (material)
(iii)मुिा (money) (iv) मशीनरी (machinery)
(v)प्रबंध (management) (vi) शजक्र् (motive power)
और
(vii)बाज़ार (market)
वास्त्र्व में ये सार्ों परस्त्पर तनभतर एवं परस्त्परपूरक है| अर्:
इनके बीच योग्य संर्ुलन बनाकर ही हम समुर्चर् औद्योर्गक ववकास कर
सकर्े है|
51. औद्योगीकरर् के मसद्धांर् को संक्षेप में तनम्नमलखखर् सूर
से बर्ाया जा सकर्ा है
– ज x क x य = इ
यहााँ, ज = जन, क = कमत की व्यवस्त्र्था, य =
यंर, इ = समाज का इजच्छर् संकल्प आधुतनक
औद्योगीकरर् में ‘य’ (यंर) सबको तनयंबरर् करर्ा है| हमें
इसके स्त्र्थान पर ऐसी अर्थतव्यवस्त्र्था तनमातर् करना है जो ‘ज’
(जन) और ‘इ’ (समाज का इजच्छर् संकल्प) के तनयंरर् में
‘क’ (कमत की व्यवस्त्र्था) और ‘य’ (यंर) का तनयोजन करे|
52. “प्रोद्योर्गकी का सम्बन्ध मशीन से हैं|”
श्रम और शजक्र्, पूाँजी और प्रबंध, माल और मांग ये सब मशीन के
स्त्वरुप को तनजश्चर् करने वाले होने चाहहए|
मशीन के मलए मनुष्ट्य को बदलने पर वववश कर रहे है | सम्पूर्त
उत्पादन प्रर्ाली एक मशीन पर के जन्िर् हो गयी हैं| .... आज देश
में जहााँ एक ओर मशीन के श्रद्धालु भक्र् हैं र्ो दूसरी ओर कट्टर
दुश्मन भी मौजूद है|
“मशीन देशकाल पररजस्त्र्थतर् तनरपेक्ष नहीं, सापेक्ष है|”
हमारी मशीन हमारी आवश्यकर्ाओं के अनुकू ल ही चाहहए| वह
हमारे सांस्त्कृ तर्क एवं राजतनतर्क जीवन मूल्यों की पोिक नहीं र्ो
कम से कम अववरोधी अवश्य होनी चाहहए|
53. आर्र्थतक ववकास एवं औद्योगीकरर् के मलए पूाँजी का प्रश्न सवातर्धक महत्व
का है| पूाँजी व बचर् जुटाने के मलए साधारर्र्या दो मागत बर्ाए जार्े है –
राष्ट्रीय आय के असमान ववर्रर् द्वारा बचर् क्षमर्ा में वृद्र्ध करना; और
ववदेशों से पूाँजी का आयार् करना|
देश के सामान्य व्यजक्र् की बचर् क्षमर्ा बढ़ाने के मलए उसकी आय में
वृद्र्ध और उपभोग का संयम ही उर्चर् मागत है|
उद्योगों में पूाँजीपतर् एवं बड़ी कं पतनयों में शेयर होल्डसत के सार्थ-सार्थ
मजदूरों का भी स्त्वाममत्व स्त्वीकार ककया जाए और उन्हें लाभ एवं प्रबंध में
भागीदार बनाया जायें|
ऐसा करने पर हड़र्ाल-र्ालाबंदी की समस्त्या समाप्र् होकर औद्योर्गक
शाजन्र् स्त्र्थावपर् हो सके गी, श्रममक अपनी पूरी कायत क्षमर्ा से मन लगा कर
काम करेगें और ववर्रर् की समानर्ा की हदशा में भी आगे बढ़ सकें गे|
54. अर्शदृष्टि एविं अर्शसिंस्कृ तत
मनुष्ट्य एवं समाज की आवश्यकर्ाओं की पूतर्त के मलए पयातप्र् मारा में धन
का होना आवश्यक है |
अनुभव यह है कक कई बार अर्थत के अभाव में व्यजक्र् के मन में कुं ठा,
तनराशा एवं आक्रोश पैदा हो जार्ा है और वह अनाचार, अत्याचार, चोरी-
डकै र्ी, लूट-खसोट एवं अन्य अनेक प्रकार के आर्र्थतक अपराधो में संग्लन हो
जार्ा है|
इसीमलए र्ो हमारे यहााँ कहा गया है कक ----
बुभुक्षक्षर्: ककं न करोतर् पापम् , क्षीर्ा: नरा: तनष्ट्करूर्ा: भवजन्र्|
(भूखा व्यजक्र् कौनसा पाप नहीं करर्ा; भूख से पीडड़र् कमज़ोर व्यजक्र् तनदतयी
हो जार्े हैं)|
55.
56. (i) अर्थत के कारर् स्त्वयं अर्थत में अर्थवा उसके द्वारा प्राप्र् पदार्थो एवं भोग
ववलास में आसजक्र् उत्पन्न हो जाना - के वल पैसे कमाने या संचय करने की
धुन लग जाना I
(ii) अर्थत का ही समाज के प्रत्येक व्यवहार और व्यजक्र् की प्रतर्ष्ट्ठा का मानदंड
बन जाना ‘सवे गुर्ा: कांचनमाश्रयजन्र्’ की उजक्र् के आधार पर ही दैतनक
जीवन में व्यवहार प्रारंभ हो जाना| इससे लोगो के जीवन में धनपरायर्र्ा आ
जार्ी है, पररर्ामस्त्वरुप प्रत्येक कायत के मलए धन की अर्धकार्धक आवश्यकर्ा
महसूस होने लगर्ी हैं| अंर्र्ोगत्वा धन का प्रभाव प्रत्येक के जीवन में अर्थत का
अभाव भी उत्पन कर देर्ा है|
“समाज से अर्थत के प्रभाव व अभाव दोनों को ममटाकर उसकी समुर्चर्
व्यवस्त्र्था करने को अर्थातयाम कहा गया है”|
इसके मलए मशक्षा, संस्त्कार, दैवीसम्पदयुक्र् व्यजक्र्यों का तनमातर् र्र्था
अर्थतव्यवस्त्र्था का उपयुक्र् ढांचा सभी का सहारा लेना जरुरी होर्ा है |
58. नीतर्गर् नारा है, “कमाने वाला खायेगा ” दोनों प्रकार की
अर्थतव्यवस्त्र्थाओं की दृजष्ट्ट र्ो समान है, अंर्र के वल राष्ट्रीय आय
ववर्रर् में प्राप्र् हहस्त्से को लेकर है साम्यवादी अर्थतव्यवस्त्र्था के
अनुसार उत्पादन में मुख्य भूममका श्रम की होर्ी है, अर्: देश के
कु ल उत्पादन व उपभोग में मुख्य हहस्त्सा भी श्रममकों को ही
ममलना चाहहए I
‘कमाने वाला खखलायेगा’ र्र्था “जो जन्मा सो खायेगा”|
इसका अर्थत है कक कमाने वाला पररवार में बच्चे, बूढ़े, रोगी,
अपाहहज, अतर्र्र्थ आहद सब के भरर्-पोिर् की र्चंर्ा करेगा और
देश में अभावग्रस्त्र्, तनधतन-तनबतल व्यजक्र् के तनवातह का भी समाज
का दातयत्त्व होगा, इसी में से आगे चलकर ‘अन्त्योदय’ के मलए
आर्र्थतक नीतर् बनाने की हदशा सामने आयी|
62. यह इस ववश्वास को इंर्गर् करर्ा है कक सीममर्-संयममर्
धारर्क्षम व्यवहारक्षम उपयोगशैली एवं जीवनशैली अपनाकर ही
धारर्क्षम मंगलकारी ववकास के उद्देश्य को प्राप्र् ककया जा
सकर्ा है|
63. अर्थतव्यवस्त्र्था में व्यजक्र् की अपनी रूर्च, प्रकृ तर्, प्रवृतर्, प्रेरर्ा व
पहल को समाप्र् कर उसे जेल के एक कै दी के समान बना हदया
गया है|
इस प्रकार दोनों ही व्यवस्त्र्थाओं में व्यजक्र् अपने व्यजक्र्त्व को
खोर्ा जा रहा है| अर्: हमें ऐसी अर्थतरचना बनानी होगी जजसमें
व्यजक्र् को गररमापूर्त स्त्र्थान ममले और वह पुरुिार्थतशील बनकर
राष्ट्र के सावतजनीय मंगल में अपनी पूर्तक्षमर्ा के सार्थ योगदान
कर सके |
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65. PPT prepared from Article by Shri. Bajarang Lal Gupta
Compiled by Dr. CA. Varadraj Bapat, Faculty in Finance,
IIT Bombay
Edited by Ms. Aishwarya Torne
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