पातञ्जल  -  योगदर्शनम् अथ चतुर्थः कैवल्यपादः  *** प्रस्तुतकर्ता - सञ्जय कुमार
कैवल्य पाद गत तीन पादों में यथाक्रम समाधि का स्वरूप ,  समाधि के साधन ,  उससे प्राप्त विभूयियों का  विस्तृत वर्णन किया है। * उनके सम्बन्ध की  अन्य प्रासंगिक चर्चा का भी यथास्थान उपपादन कर दिया गया है। *  इन सबके फलस्वरूप  कैवल्य  का प्रतिपादन करने के लिये  अब चतुर्थ पाद का  प्रारम्भ कियाजाता है।  *
कैवल्यपाद में प्रतिपाद्य विषय    प्रतिपाद्य विषय  सूत्र संख्या सिद्धि प्राप्ति के अन्य साधन अस्मिता से निर्माण - चित्त का उद्भव ,  तथा अन्य चित्तों की स्थिति । योगी तथा अयोगी के कर्म ,  और उनके विपाक का अवसर । अनादि वासना ,  और उनके अभाव का अवसर । धर्मों का अतीत - अनागत स्वरूप ,  उनकी गुणरूपता तथा वस्तुसत्ता। चित्त और वस्तु का मार्ग भिन्न है । ज्ञेय का ज्ञाता व बोद्धा पुरुष होता है ,  दृश्य अथवा परिणामी होने से चित्त ज्ञाता नहीं। एक ही कालमें चित्त और दृश्य का ग्रहण दोषपूर्ण होने से अमान्य। आत्मा द्वारा चित्त प्रेरित होकर आत्म - चित्त सम्पर्क से सब ज्ञानों का होना सम्भव । चित्त का उपयोग आत्मा के लिये होता है ,  पर तत्त्वज्ञानी के लिये नहीं होता । आत्मज्ञानी को समाधिलाभ ,  गुण - परिणाम का अवसान ।  चेतन आत्मतत्त्व की स्वरूप प्रतिष्ठा ;  मोक्ष अथवा कैवल्य । 1-3 4-6 7-9 10-11 12-14 15-17 18-19 20-21 22-23 24-28 29-32 33-34
जन्मौषधिमंत्रतपःसमाधिजाः सिद्धयः॥ 4/1 ॥ [162] जन्म ,  ओषधि ,  मंत्र ,  तप और समाधि से प्राप्त होनेवाली सिद्धियाँ  ( पाँच )  हैं।  जन्मजा   -  पूर्वजन्म के सुकृत कर्म व योगानुष्ठानों के प्रभाव से जन्म के साथ ही यह सिद्धि प्राप्त होजाती है। कपिल आदि परमर्षियों को प्राप्त थी।  ओषधिजा   -  विशेष ओषधियाँ व रसायन आदि के प्रयोग से जो शरीर व इन्द्रियों आदि में दिव्य शक्तिरूप सिद्धि का प्राप्त होना है वह ओषधिजा सिद्धि है। प्रायः असुर वर्ग में अधिक प्रचलित इसमें आध्यात्मिक भावनाओं की उपेक्षा और आधिभौतिक भावनाओं का प्राधान्य रहता है। मंत्रजा   -  अनवरत मनन व चिंतन करने से भावित विषयक ज्ञान में  जिस दिव्य शक्ति का जन्म होता है ,  वह मंत्रजा सिद्धि है। गायत्री व प्रणव आदि जप ,  तथा तांत्रिक पद्धति से प्राप्त सिद्धियाँ भी इसके अंतर्गत समझनी चाहिये। सूत्र  [2/44]  में इसका संकेत किया गया है। तपोजा   -  यम - नियमों का निष्ठा से पालन करने पर शरीर और इन्द्रियों में जो अलौकिक चमत्कारपूर्ण शक्ति का प्रादुर्भाव होता है वह तपोजा सिद्धि है। सूत्र  [2/43]  में इसका संकेत उपलब्ध है।  समाधिजा   -  इसका विस्तृत वर्णन विभूतिपाद में प्रस्तुत करदियागया है।
जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात् ॥ 4/2 ॥ [163] अन्य प्रकार व जाति में बदलजाना  प्रकृति - उपादान कारणों की अपेक्षित पूर्ति से होता है । शरीर और इन्द्रियों के दिव्यरूप में परिणत होने के लिये पूर्वदेह और इन्द्रियों के कारणों में जो न्यूनता होती है ,  उसकी पूर्ति उन परिणामों के अनुकूल उपादान कारणों से होजाती है। देह के कारण पाँच भूत हैं ,  और इन्द्रियों का कारण अस्मिता - अहंकार है। जब योगी के देह - इन्द्रियाँ दिव्यरूप में परिणत होते हैं ,  तब पहली रचना के अपेक्षित कारणतत्त्व बने रहते हैं ,  अनपेक्षित निकलजाते हैं। उनके स्थान पर दिव्यता के अनुरूप अन्य अपेक्षित उपादान तत्त्व उस कमी को पूरा कर देते हैं।  यह सब परिणाम - कार्य योगज धर्म के सहयोग व प्रभाव से हुआ करता है। रसायन आदि औषध प्रयोगों के द्वारा होने वाले सिद्धिरूप परिणामों में भी योगज धर्म की निमित्तता अप्रतिहित बनी रहती है। रसायन आदि के ऐसे प्रयोग योग - सहयोगी पद्धतियों द्वारा कियेजाने पर पूर्ण सफल होते हैं।
निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत् ॥ 4/3 ॥ [164] निमित्त - योगज धर्म प्रयोजक - प्रेरक नहीं होता सीधा उपादान तत्त्वों का ;  वरण - बाधा का भेदन तो होता है उससे  ( निमित्त - योगज धर्म से )  क्षेत्रिक - किसान के कार्य के समान।  जिस प्रकार किसान एक क्यारी से दूसरी क्यारी में पानी ले जाने के लिये उन दोनों क्यारियों के बीच की मेड़ को काट देता है ;  वैसे ही ,  योगज धर्म योगी के देह - इन्द्रियादि में होनेवाले अनुकूल परिणामों के सम्मुख जो बाधा होती है ,  उनको हटा देता है।  उस अवस्था में अनुकूल उपादान तत्त्व अभीष्ट परिणाम के लिये स्वयं प्रवृत्त होते रहते हैं। धर्म सीधा उनको प्रेरित नहीं करता।  इसप्रकार निर्बाध प्रवृत्त हुए उपादान तत्त्व अवयवों की न्यूनता को पूरा करदेते हैं।  कभी योगजधर्म उभरते हुए प्रबल अधर्म को हटा नहीं पाता ;  तब परिणाम अशुद्ध होजाता है। अभीष्ट परिणाम के स्थान पर अनिष्ट परिणाम आजाता है।  इसलिये ऐसे स्तर पर योगी को सदा अनावश्यक अभिमान एवं अनभिवाञ्छनीय आचरण से सावधानतापूर्वक बचना चाहिये।
निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात् ॥ 4/4 ॥ [165] बनाये हुए चित्त केवल अस्मिता  - अहंकार से ।  सर्वोच्च स्तर पर पहुँचे हुए योगी का चित्त नितांत शुद्ध सात्त्विक व पूर्ण शांत होचुका होता है। योगी के मानव देह के अन्य जातीय देह में परिणत होने पर योगी का पहला शुद्ध चित्त उस जाति के अनुरूप कार्य करने में असमर्थ रहता है।  उस जाति के देह में उसीजाति के अनुरूप कार्य करनेवाला चित्त होना चाहिये। अतः उन - उन जातियों के अनुरूप चित्तों का निर्माण योगी कर लेता है ,  जिन विविध जातियों के रूप में वह अपने देह को परिणत करता है।  योगी द्वारा निर्मित चित्त किसी एकजातीय परिणत देह के साथ उस देह के अवस्थिकाल तक रहता है। देह के न रहने पर वह चित्त नहीं रहता।  जब उसे योगी उसे छोड़कर अन्य जातीय देह के रूप में अपने मानवदेह को परिणत करता है ,  तब उसके अनुरूप चित्त का निर्माण अहंकार उपादान से करलेता है।  इसप्रकार अंनेक चित्तों के निर्माण की स्थिति स्पष्ट होती है। योगी का प्रधान शुद्ध चित्त उसी रूप में निरन्तर बना रहता है।
प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तमेकमनेकेषाम् ॥ 4/5 ॥ [166] प्रवृत्ति के भेद में प्रयोजक होता है चित्त एक ,  अनेकों का ।  कालभेद से जात्यन्तर - परिणत देहों में निर्माणचित्त जब ऐसी प्रवृत्ति की ओर सिद्धयोगी को आकृष्ट करने की स्थिति में आता है ,  जो योगमार्ग अथवा अध्यात्ममार्ग से योगी को दूर हटालेजाये ;  तो उस प्रवृत्ति को रोकने में योगी का मुख्य चित्त प्रयोजक होता है ,  जो मल विक्षेप आदि से नितांत शुद्ध होचुक है। उन - उन विभिन्न देहों में निर्माण चित्तों की अवाञ्छनीय प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने में शुद्ध चित्त प्रयोजक होता है। वह निर्माण चित्तों को उन्मार्ग पर जाने से रोके रखता है।  वह मुख्य शुद्ध चित्त ,  जो सर्गादिकाल से आत्मा से सम्बद्ध है ;  निर्माणचित्तों को अध्यात्म विरोधी मार्ग पर जाने से रोके रखता है ;  जिससे योगी आत्मा पथभ्रष्ट होने से बचारहता है।
तत्र ध्यानजमनाशयम् ॥ 4/6 ॥ [167]  उन चित्तों में से जो चित्त ध्यान एवं समाधि द्वारा शुद्ध सात्त्विकरूप में अभिव्य्क्त होगया है ,  वह आशय - वासनाओं से रहित होचुका है। अब वासना उसको प्रभावित नहीं करपाती । समाधि की अंतिम सीमा तक संस्कार बने रहते हैं। यदि उन संस्कारों में कोई प्रबल हो उठे ,  तो उससे निर्माणचित्तों के प्रभावित होने की सम्भावना बनी रहती है। पर जो मुख्य चित्त समाधि द्वारा नितांत शुद्ध होचुका है ,  अब उसे कोई संस्कार दबा नहीं पाते। सूत्र के  अनाशयम्  पद का यही तात्पर्य है। इसी कारण गत सूत्र में कहागया है ,  कि वह चित्त अन्य निर्माण - चित्तों को नियंत्रण में रखकर योगी को निर्माणचित्तों द्वारा पथभ्रष्ट होने की सम्भावना से बचाये रखता है।
कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्॥ 4/7 ॥ [168] कर्म न शुक्ल न कृष्ण होता है ,  योगी का ;  तीन प्रकार का होता है अन्य व्यक्तियों - अयोगियों का ।  पूर्णयोगी जीवनमुक्त आत्मज्ञानी के कर्म  अशुक्ल - अकृष्ण  होते हैं। अन्य मानवों  के कर्म यथायथ तीन प्रकार के -  शुक्ल ,  कृष्ण  तथा  मिश्रित -  होते हैं।  शुक्ल   -  वे पुण्य कर्म हैं ,  जो ब्रह्मचर्य आदि तप ,  वेद एवं आध्यात्मिक ग्रंथों का स्वाध्याय ,  तथा परमात्मा के ध्यान आदि के रूप में किये जाते हैं। कृष्ण   -  वे पाप कर्म जो दुरात्माओं द्वारा बाह्य साधनों के सहारे अन्य व्यक्तियों को अकारण पीड़ा पहुँचायेजाने आदि के रूप में किये जाते हैं। शुक्ल - कृष्ण मिश्रित   -  ये कर्म साधारण जनता द्वारा बाह्य साधनोंका आश्रय लेकर शुभ - अशुभ रूप में किये जाते हैं। कृषि आदि शुभ कार्य करते हुए उसमें अनेक प्राणी मारे व ताड़े जाते हैं ,  जिसको टाला नहीं जासकता। अशुक्ल - अकृष्ण   -  ये कर्म आत्मज्ञानियों द्वारा देहादि रक्षा के लिये उस अवस्था में कियेजाते हैं ,  जब वे कर्मों की फलप्राप्ति कामना का पूर्ण रूप से परित्याग करचुके होते हैं। ऐसे शुभ कर्मों का योगी को चालू जीवन में फल नहीं मिलता।  ऐसा जीवन्मुक्त आत्मा अशुभ कर्म कभी कर ही नहीं सकता इसलिये उसके कर्म  अकृष्ण  कहे जाते हैं।  जीवन्मुक्त होने पर सद्यः फलप्रद न होने के कारण इन शुभ - शुक्ल कर्मों को  अशुक्ल  कहा जाता है।
ततस्तद्विपाकानुगुणानामेव अभिव्यक्तिर्वासनानाम् ॥ 4/8 ॥ [169] उस त्रिविध कर्म से उन कर्मों के परिपाक - फलों के अनुरूप ही  प्रकट होना होता है वासनाओं का ।  आचार्यों ने त्रिविध कर्म - समूह के तीन भेद किये हैं -  सञ्चित ,  प्रारब्ध और क्रियमाण । सञ्चित   -  वे एकत्रित संस्कार व वासना हैं जो अनादि काल से कियेजाते रहे कर्मों से उत्पन्न हुए हैं ;  परंतु जिनका फल अभी तक नहीं भोगागया।  वे आत्मा में संस्कार व वासनारूप में एकत्रित  (  सञ्चित )  रहते हैं । सञ्चित संस्कारों में से सद्यः फलोन्मुख संस्कारों का चुनना ईश्वरीय व्यवस्था का कार्य है ,  इसमें जीवात्मा का कोई हाथ नहीं रहता ।  किसी योनि में किसी आत्मा का देह धारण करना उसके  संस्कारों के अनुसार होता है ।  प्रारब्ध   -  अगणित सञ्चित संस्कारों में से जो संस्कार सद्यः फलोन्मुख होते हैं ,  उनके अनुरूप किसी विशेष योनि में आत्मा देह धारण करता है। इस जन्म अथवा जीवनकाल के प्रारम्भक होने के कारण इन संस्कारों का नाम  प्रारब्ध  है। क्रियमाण   -  वे कर्म हैं  जो एक मानव देहधारण करने पर उस जीवन में प्रारब्ध कर्मों को भोगने के लिये कियेजाते हैं ;  तथा  जो अन्य नवीन कर्म कियेजाते हैं जिनसे नये संस्कार उत्पन्न होकर चित्त में एकत्रित होते रहते हैं।  कतिपय जिन  क्रियमाण  ( नवीन किये गये )  कर्मों का फल चालू जीवन में ही भोगलियाजाता है ;  उनके संस्कार आगे फल भोगे जाने के लिये नहीं बनते।
कर्मों का परिपाक त्रिविध कर्मजनित सञ्चित संस्कार व वासनाओं में से वे ही संस्कार व वासनायें प्रकट होपाते हैं ,  जो सद्यः फलोन्मुख होते हैं ;  अर्थात् ,  जिनका फल तुरंत मिलनेवाला होता है। सञ्चित संस्कारों में से सद्यः फलोन्मुख संस्कारों का चुनना  ,  ईश्वरीय व्यवस्था का कार्य है। इसमें जीवात्मा का कोई हाथ नहीं रहता।  किसी विशेष योनि में  किसी आत्मा का देह धारण करना उसके संस्कारों के अनुसार होता है -  मान लीजिये ,  एक आत्मा गाय की योनि में देह धारण करने वाला है। इसमें उसके सद्यः फलोन्मुख संस्कार निमित्त होते हैं।  यहाँ उसी योनि के अनुरूप संस्कारों की अभिव्यक्ति होगी ;  अन्य मानव अथवा अश्वादि पिछली योनियों के संस्कारों की नहीं।  इसी तथ्य को सूत्र में  तद्विपाकानुगुणानाम्  पद से कहा गया है। इसप्रकार प्रारब्ध कर्मों के अनुकूल जो जीवन आत्मा को प्राप्त होता है ,  उसके अनुरूप पूर्वनिर्धारित वासना अभिव्यक्त होती है। इसलिये अगणित वासनाओं का सञ्चय रहने पर भी किसी एक जीवन में सबका अथवा चाहे जिन किन्हीं का उभर आना सम्भव नहीं।
जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानन्तर्यं  स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात् ॥ 4/9 ॥ [170] जाति ,  देश और काल से व्यवहित भी  ( वासनाओं का )  आनन्तर्य -  अव्यवधान  ( स्मृति के साथ बना रहता है ,  क्योंकि )  स्मृति और संस्कारों के एकरूप होने से - समानविषयक होने से ।  स्मृति और संस्कार का परस्पर कार्य - कारण का सम्बन्ध है।  यह एक निर्धारित नियम है कि  जैसा अनुभव होता है ,  उसीके अनुकूल संस्कार बनते हैं ;  और  जैसे संस्कार होते हैं ,  उसी के अनुरूप स्मृति होती है।  जाति आदि के बड़े - से - बड़े व्यवधान के होने पर भी संस्कार और स्मृति का सम्बन्ध बना रहता है ,  क्यों कि वे समान विषयक होते हैं ,  और सदा अपने अभिव्यंजक के अनुरूप। यहाँ जाति का अर्थ जन्म ,  जीवन अथवा योनि है। अगणित संस्कार आत्मा में सुप्त पड़े रहते हैं। समय पर केवल वे संस्कार ही जागते हैं ,  जिनका कोई अभिव्यंजक  [ जगानेवाला ]  उपस्थित होजाता है। उदहरणार्थ -  मानवजीवन के अव्यवहित अनंतर  [ तुरंत बाद ]  होनेवाले गाय के जीवन में संस्कारों का उद्बोधक ,  मानवजीवन का सामीप्य या अव्यवधान नहीं है ;  प्रत्युत उस आत्मा का गाय की योनि में आना संस्कारों का अभिव्यंजक है।  वह अपने - अपने अनुरूप संस्कारों को उद्बुद्ध करती है ,  उसमें चाहे जाति ,  देश और काल का कितना भी अधिक व्यवधान हो।  गाय की योनि में आये आत्मा के वे ही संस्कार - वासना उद्बुद्ध होपाते हैं ,  जिनका सञ्चय कभी गाय की योनि में हुआ था  -  वे चाहे कितने ही जन्म पहले सञ्चित किये गये हों ,  किसी काल या देश मे हुआ हो ।
तासामनादित्वं चाशिषो नित्यत्वात्॥ 4/10 ॥ [171] उन वासनाओं का अनादि होना भी जानाजाता है  जीवन की शुभ अभिलाषाओं के सदा बने रहने से ।  प्रत्येक प्राणधारी की अपने जीवन के प्रति यह अभिलाषा सदा बनी रहती है ,  कि  " मैं कभी मरूँ न ,  सदा ऐसा ही जीवित बना रहूँ " ।  यह आशीष आत्मा का स्वाभाविक धर्म या भाव नहीं है। यह भावना प्राणी के  पूर्वानुभूत मृत्यु भय की जानकारी को प्रकट करती है।  उसने मृत्यु के कष्ट का अनुभव किया है ;  उससे जनित संस्कार और स्मृति मृत्यु से बचने की इच्छा जागृत करती है। सृष्टि के आदि में जीवन धारण करनेवाले प्राणियों में गत सृष्टिकाल के अनुभूत जीवन मरण के संस्कार आत्मा में निहित रहते हैं।  इससे स्पष्ट होता है कि चालू जीवन से पहले भी इसका जीवन रहा है ;  और जीवन का यह क्रम अनादि काल से चालू है।  वासनाओं या संस्कारों का अनादित्त्व वैयक्तिक रूप से नहीं है। प्रत्येक वासना या संस्कार उत्पन्न होता है और नष्ट भी होता है।  केवल इनका प्रवाह अनादि और अनन्त है। इसी रूप में इन्हें  नित्य  कहागया है।
हेतुफलाश्रयालम्बनैः संगृहीतत्त्वादेषामभावे तदभावः ॥ 4/11 ॥ [172] हेतु ,  फल ,  आश्रय और आलम्बन से संगृहीत होने के कारण  इनके  ( हेतु आदि के )  अभाव - न रहने की दशा में  उन - वासनाओं का अभाव होजाता है ।  सभी वासनाओं के हेतु अविद्या आदि क्लेश और शुक्ल आदि कर्म हैं।  वासनाओं के फल हैं -  जाति ,  आयु और भोग।  आत्मा उनका आश्रय ;  शब्द आदि विषय ;  एवं ,  चित्त आदि करण उनके आलम्बन हैं। वासनाओं के उद्भव में ये सभी सहयोगी हैं। वासना इन्हीं में सिमटी रहती है ,  संग्रहीत रहती है ;  इन्हीं के अस्तित्त्व में उभरती है।  जब तक अविद्या आदि क्लेश विद्यमान रहते हैं ,  वासना बराबर उभरती रहती है।  समाधि द्वारा जब प्रकृति - पुरुष के विवेक का साक्षात्काररूप ज्ञान या विद्या का उदय होजाता है ,  तब समस्त सञ्चित वासनाओं का तिरोभाव होजाता है। आत्मज्ञानी योगी का जीवन उस दशा में केवल प्रारब्ध कर्मों के भोगने के रूप में चालू रहता है।  देहपात के अनंतर तत्काल जन्मदेनेवाली वासनाओं के नितांत अभाव में मोक्षप्राप्ति के लिये कोई बाधा नहीं रहती। फलतः वासना उत्पन्न और नष्ट होती रहती है।
अतीतानागतं स्वरूपतः अस्त्यध्वभेदात् धर्माणाम् ॥ 4/12 ॥ [173] अतीत और अनागत स्वरूप से बना रहता है  (  तात्पर्य है - अपने स्वरूप को खोता नहीं )  । कालिक आधार पर मार्गभेद से धर्मों के - कार्यों के बने रहने पर ।  सूत्र में धर्म पद का अर्थ कार्य है। जबतक कार्य अपने कारण में छिपा है ,  प्रकाश में अभी नहीं आया ,  पर आगे आनेवाला है ,  वह  अनागत  है।  जो कार्य प्रकाश में आने के बाद  ,  कालांतर में ,  अपने कारणों में पुनः छिप गया है ,  वह  अतीत  है।  कार्यतत्त्व जब प्रकाश में आकर चालू रहता है ,  तब  वर्तमान  है। कालिक आधार पर कार्यों का मार्ग भिन्न हो जाता है।  वस्तुतत्त्व अपने अस्तित्त्व को कभी नहीं खोता ;  काल के आधार पर अतीत ,  वर्तमान ,  अनागत मार्ग का आश्रय लिये रहता है ,  जो परस्पर भिन्न हैं।  इसी के आधार पर आत्मज्ञानी की समस्त वासना अपने कारण अविद्या में अंतर्हित होजाती है ;  तथा अविद्या का सम्पर्क आत्मज्ञानी आत्मा के साथ नहीं रहता।  इसी को कहाजाता है - वासनाओं का अभाव। वे पुरुष सम्पर्क से हटकर  प्रकृति सम्पर्क में सिकुड़ आती हैं।
ते व्यक्तसूक्ष्माः गुणात्मानः ॥ 4/13 ॥ [174] वे - कालिक आधार से तीन मार्गों  (  भूत ,  वर्तमान ,  भविष्यत् )  पर चलनेवाले - धर्म व्यक्त - प्रकट और सूक्ष्म सब प्रकार के गुणस्वरूप हैं।  समस्त धर्म अर्थात् कार्य जगत् जो वर्तमान में दृष्टिगोचर होरहा है ,  वह व्यक्त है ;  तथा जो अतीत ,  अनागत एवं दृष्टिगोचर नहीं है ,  वह सब सूक्ष्म है। समस्त कार्यजगत् जो दिखाई दे रहा है या नहीं दिखाई देरहा ,  गुणों का स्वरूप है।  विश्व का मूल उपादान प्रकृति त्रिगुणात्मक है। उन सत्त्व ,  रजस् ,  तमस् तीन गुणों का यह सब परिणाम है। वे तीनों गुण परस्पर विलक्षण हैं।  वस्तुतः मूल उपादान तत्त्वों के ये तीन वर्ग हैं ,  जो एक - दूसरे से विलक्षण हैं।  विविध अथवा अनंत प्रकारों से इन अवयवों के सन्निवेश  [ क्रम - अनुक्रम से व्यवस्थित किये जाने से ]  से यह विश्व अभिव्यक्त होता है।  आत्माओं के शुभ - अशुभ विविध कर्म भी जगत् की विलक्षणता में निमित्त रहते हैं ,  क्यों कि अत्माओं के भोग को सम्पादन करने के लिये जगत् की रचना होती है।
परिणामैकत्त्वाद् वस्तुतत्त्वम् ॥ 4/14 ॥ [175] परिणाम के एक होने से वस्तु की एकता मानीजाती है ।  अनेक कारणों से मिलकर जो कार्य उद्भव में आता है ,  वह स्वरूप से एक होता है -  अपनी स्थिति में एक मानाजाता है।  जैसे तेल ,  बत्ती और आगकी लौ मिलकर एक प्रदीप होता है। तेल आदि सब मिलकर परस्पर सहयोग करते हुए प्रदीप अथवा प्रकाशरूप एक परिणाम को प्रस्तुत करते हैं।  ऐसे ही तीन गुण  [ सत्त्व ,  रजस् ,  तमस् ]  मिलकर अन्योन्यमिथुनरूप हुए पुरुष के भोग और अपवर्ग के लिये पृथक् - पृथक् एक - दूसरे से भिन्न रूपों में वस्तुओं का उद्भव करते रहते हैं।  फलतः कारणों के विलक्षण व अनेक होने पर भी उनसे परिणत हुए उद्भूत कार्य की एकता में  कोई बाधा नहीं आती।  जब त्रिगुण का करणरूप में परिणाम होता है तब एक इन्द्रिय श्रोत्र या चक्षु आदि का ज्ञान यथार्थ है।  वे ही गुण जब ग्राह्य विषयरूप मे परिणत होते हैं तब एक शब्द या रूप यह ज्ञान यथार्थ है।  पृथिवी का एक परमाणु तन्मात्ररूप अवयवों के संघातसे परिणत होता है। उन परमाणुओं से आगे मिलकर पर्वत ,  वृक्ष ,  पशु पक्षी आदि स्थूल परिणाम होते हैं।
वस्तुसाम्ये चित्तभेदात्तयोर्विभक्तः पंथाः॥ 4/15 ॥ [176] वस्तु को उसकी समस्थिति  ( यथार्थ स्थिति )  में मानने पर  चित्त - ज्ञान अथवा विज्ञान के भेद से वस्तु और विज्ञान  उन दोनों का बँटा हुआ है मार्ग ।  वासनाओं का जो अम्बार अनादिकाल से चित्त में जमा है ;  वह बाह्य विषय के अस्तित्त्व को अपने निजी रूप में स्वीकार न कियेजाने पर ,  तथा केवल आंतरविज्ञान की सत्ता मानने पर कहाँ से आजाता है ?  वासनाओं का आंतर में संकलन बाह्यविषय की सत्ता को माने विना असम्भव है। बाह्य विषयों का वृत्त्यात्मक ज्ञान चित्त - करण द्वारा आत्मा को होता है। यह ज्ञान उसी को हो सकता है ,  जो स्वयं ज्ञान स्वरूप है ,  चेतन है।  चित्त वृत्त्यात्मक ज्ञान का साधन मात्र है।  सूत्र में साधनपद  चित्त  द्वारा मुख्य  चेतन आत्मतत्त्व का निर्देश लक्षित है।  वस्तुतत्त्व की संतुलित स्थिति अपनी निश्चित है। आंतर विज्ञान का उससे भेद है -  क्योंकि इन दोनों का मार्ग परस्पर बँटा हुआ है।  आंतर विज्ञान चेतन तत्त्व है ;  बाह्य विषय जड़। इन दोनों का एक होना कभी सम्भव नहीं।  बाह्य जड़तत्त्व विषय है ,  और आंतर विज्ञानतत्त्व विषयी। इसी को आत्मतत्त्व अथवा  चिति  शक्ति कहाजाता है।
नचैकचित्ततन्त्रं वस्तु तदप्रमाणकं तदा किं स्यात् ॥ 4/16 ॥ [177] और नहीं है एकचित्त के अधीन कोई वस्तु ,  वह वस्तु प्रमाणरहित - अप्रमाणिक तब क्या होजायगी ?  '  ज्ञान चित्त के द्वारा होता है ;  अतः वस्तु के अस्तित्त्व को चित्त के अधीन माना जाना चाहिये। वस्तु का अपना स्वतंत्र अस्तित्त्व नहीं है। '-  यह कथन सर्वथा चिंतनीय है ,  क्योंकि इस विषय में यह समझना चाहिये कि चित्त वस्तु का उत्पादक है या केवल ज्ञापक ? देखाजाता है ,  प्रत्येक वस्तु अपने नियत उपादान कारणों से उत्पन्न होती है। उन उपादान तत्त्वों मं चित्त कोई अंश नहीं होता ;  वस्तु का प्रादुर्भाव स्वतंत्ररूप से अपने उपादन  कारणों से हुआ करता है।  यदि चित्त किसी वस्तु का केवल ज्ञापक है ,  तो किसी वस्तु का ज्ञान होना अलग बात है ,  और उसका अस्तित्त्व अलग।  वस्तु को न जानने की दशा में उसके अस्तित्त्व पर कोई बाधा नहीं आती। वस्तु का  अस्तित्व उसके कारणों के बहाल रहने से किसी भी  दशा  [ ज्ञान होने अथवा न होने -  दोनों ही  दशाओं ]  में निर्बाध बना रहता है।
तदुपरागापेक्षित्वाच्चित्तस्य वस्तु ज्ञाताज्ञातम्॥ 4/17 ॥ [178] उस वाह्य विषय के उपराग - सम्बन्ध की अपेक्षा करनेवाला होने से  चित्त के बाह्य पदार्थ ज्ञात और अज्ञात रहते हैं ।  वृत्त्यात्मक ज्ञान  [ बाह्य पदार्थों का जानना ]  यद्यपि करणों के सहयोग से होता है ;  पर वह हो सकता है केवल चिति को ,  अन्य किसी को नहीं। इन्द्रिय के साथ चित्त [  मन ]  का सम्बन्ध बना रहता है।  मन का अहंकार से और अहंकार का बुद्धि से सम्बन्ध रहता है।  बुद्धि आत्मा के साथ सीधे जुड़ी  रहती है।  इस सम्बन्ध परम्परा को सूत्र में  उपराग  पद से कहा है।  चित्त  पद अपने साथ अन्य समस्त करणों का उपलक्षण है।  जब बाह्य पदार्थ  [ विषय ]  से समस्त करण [ इन्द्रिय ,  मन ,  अहंकार ,  बुद्धि ]  उपरक्त  [ सम्बद्ध ]  होजाते हैं ,  तब बाह्य विषय आत्मा  [ चिति ]  को ज्ञात होता है। जब यह उपराग सम्बन्ध नहीं होता ,  तब बाह्य विषय अज्ञात रहता है।  चित्त तथा उसके अन्य साथी करणों का ऐसे ज्ञान में  यही उपयोग है कि वे बाह्य पदार्थ की छाया  [ रंग ,  रूप ,  आकृति ,  प्रकार आदि विशेषताओं ]  को आंतर आत्मा तक पहुँचांने में सहयोग देते हैं। ये सब ज्ञान के साधन मात्र हैं ,  ज्ञाता नहीं।
सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्यापरिणामित्वात्॥ 4/18 ॥ [179] सर्वदा जानीजाती हैं चित्तवृत्तियाँ  ( अन्य तत्त्व के द्वारा )  उसके - चित्त के स्वामी पुरुष के अपरिणामी होने से ।  परिणामी  [ बदलनेवाला ]  तत्त्व कभी ज्ञाता नहीं होता। बाह्य पदार्थ के समान चित्त भी परिणामी तत्त्व है। जो परिणामी है ,  वह त्रिगुणात्मक है ,  जड़ है। वह ज्ञाता होना सम्भव नहीं।  इसलिये जड़ पदार्थ से अतिरिक्त तत्त्व के द्वारा चित्तवृत्तियाँ जानी जाती हैं। इनमें  कभी व्यभिचार होने की सम्भावना नहीं।  वह त्रिगुणात्मक तत्त्व से भिन्न तत्त्व ,  चित्त का प्रभु  [  स्वामी ]  चेतन  [ आत्म तत्त्व ]  है।  वह ज्ञाता क्यों है ?  आचार्य ने उसका हेतु दिया - अपरिणामित्वात् -   अपरिणामी होने से।  जब चित्त बाह्य वस्तुओं से उपरक्त न होकर आंतर भावों से उपरक्त होता है ,  तब उसमें  जो ज्ञान ,  इच्छा ,  राग ,  द्वेष ,  सुख ,  दुःख ,  संकल्प ,  विकल्प तथा आत्म - चिंतन आदि की वृत्तियाँ उभरती रहती हैं ,  उनको भी पुरुष जानता है।  कोई उभरती चित्तवृत्ति पुरुष - बोध से ओझल नहीं रहती। पुरुष  [ आत्मतत्त्व ]  चित्त एवं उसमें  उभरनेवाली वृत्तियों का एकमात्र स्वामी है।
न तत् स्वाभासं दृश्यत्वात् ॥ 4/19 ॥ [180] नहीं वह - चित्त स्वप्रकाश - स्वरूप दृश्य होने से ।  सूत्र में स्व - आभास पदों का अर्थ स्व - प्रकाश केवल पदांतर का प्रयोग है। यहाँ आभास या प्रकाश पद से भौतिक प्रकाश अभिप्रेत न होकर ज्ञान रूप प्रकाश अभिप्रेत है। यद्यपि लौकिक प्रकाश दृश्य दिखाने में साधन होता है ;  पर वह स्वयं ज्ञाता व द्रष्टा नहीं होता।  भौतिक प्रकाश के रहने पर दृश्य का दृष्टा व ज्ञाता उक्त प्रकाश से अतिरिक्त केवल आत्मतत्त्व रहता है।  फलतः चित्त दृश्य होने से स्वाभास -  स्वरूपेण ज्ञाता व द्रष्टा नहीं हो सकता।
एकसमये चोभयानवधारणम् ॥ 4/20 ॥ [181] एक समय में तथा दोनों का अवधारण - निश्चय - ज्ञान नहीं होसकता। वृत्यात्मक ज्ञान विविध प्रकार का होने से विज्ञान कहा जाता है । यह व्यापार क्योंकि चित्त का है ,  इसलिये चित्त विज्ञान से अतिरिक्त कुछ नहीं । विज्ञान ही चित्तरूप है । विज्ञान क्योंकि क्षण - क्षण में नया - नया उभरता रहता है ;  इसी स्थिति को लक्ष्य कर यह विचार प्रस्तुत किया जारहा है । यदि चित्त को स्वाभास  [ खुद - ब - खुद ज्ञाता होना ]  मानाजाता है ,  तो इसका तात्पर्य यह है कि वह चित्त जिस क्षण में किसी विषय को प्रकाशित कर रहा है ,  उसी क्षण  वह उसका ज्ञाता  [ द्रष्टा ]  भी है।  चित्त का एक व्यापार एक समय में  [ युगपत ]  दो विभिन्न कार्यों को सम्पादन करने में  सक्षम नहीं हो सकता। फलत :  चित्त को स्वाभास नहीं माना जासकता ;  वह व्यापार केवल विषय का ज्ञान करादेता है।  इसलिये विज्ञानरूप चित्त एक समय में  अपने आपका प्रकाशक  और अपने से भिन्न विषय का अवधारण  - ज्ञान करे ,  यह युक्ति विरुद्ध है।  उस समय में वृत्त्यात्मक विज्ञान का होना या उभरना ही एक क्रिया  [ व्यापार  ]  है। वह क्रिया एक का ज्ञान करा सकती है ,  वह विषय है। अतः चित्त को स्वाभास कहना अप्रमाणिक है।  इससे स्पष्ट होता है -  चित्त के दृश्य  होने के कारण उसका द्रष्टा कोई अन्य होना चाहिये ;  वह अपरिणामी चेतन आत्मतत्त्व है।
चित्तांतरदृश्ये बुद्धिबुद्धेरतिप्रसंगः स्मृतिसंकरश्च ॥ 4/21 ॥ [182]   एक चित्त के अन्य चित्त देखेजाने पर  उस दूसरी बुद्धि के ज्ञान से अनवस्था दोष उपस्थित होगा ,  और स्मृति का संकर दोष होगा ।  यदि एक चित्त दूसरे चित्त से जाना जाता  ,  तो अनवस्था दोष उपस्थित होजाता है। शास्त्रीय और लौकिक व्यवहार से यह स्पष्ट है कि चित्त एक दृश्य पदार्थ है और उसका दृष्टा या ज्ञाता अन्य पदार्थ  [ आत्मा ]  है। यदि यह माना जाय कि चित्त का दृष्टा  ( उसी शरीर में स्थित )  एक अन्य चित्त है ;  और इस अन्य चित्त का ज्ञाता तीसरा चित्त है  ;  तो इन चित्तों की संख्या की क्या सीमा होगी ?  यदि चित्त संतति अनन्त स्थिति तक मानी जाती है ,  तो अन्तिम चित्त का ज्ञाता कौन होगा ?  इसमें  अतिप्रसंग जनित अनवस्था दोष  स्पष्ट है  ।  तथा कौन सा चित्त किस चित्त का ज्ञाता है  - इसका हिसाब रखने और इन सब चित्तसंतति  को नियंत्रित करने के लिये एक अन्य पदार्थ  ( उच्चतर संयोजक -  चित्त )  की आवश्यकता होगी।  इसके अतिरिक्त विभिन्न चित्तों की स्मृतियों के आपस में  ( गड्ड - मड्ड )  मिल जाने से समस्त स्मृति व सूचना प्रणाली के भ्रष्ट होजाने की नितांत सम्भावना रहेगी जो कि  स्मृति के संकर दोष  के रूप में अभिव्यक्त होगा।  फलतः अस्थायी चित्त को द्रष्टा माने जाने में उक्त दोषों का निवारण अशक्य है ;  इसलिये द्रष्टा को नित्य स्थिर मानना ही निर्दोष है।
चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम् ॥ 4/22 ॥ [183] प्रतिसंक्रम -  परिणतिगति से रहित अर्थात् स्थिर चिति  ( चेतन आत्मतत्त्व )  के समीप विषयाकार चित्त के प्राप्त होने पर ,  चिति को अपने चित्त का अनुभव होजाता है ।  जैसे स्वच्छ स्फटिक के सम्पर्क में जब जपा कुसुम  ( गुड़हल का लाल फूल )  आता है ,  तो स्फटिक लाल दिखाई देता है ;  पर वस्तुतः उस समय भी स्फटिक की स्वच्छ शुभ्रता बराबर बनी रहती है।  यदि शुभ्रता पहले के समान न रहे ,  उसमें परिणाम या परिवर्तन आजाय ,  तो वहाँ रक्तिमा का परावर्तन होना सम्भव नहीं होगा।  इसी प्रकार शुद्ध चेतनस्वरूप आत्मा के सम्पर्क में जब विषयाकार चित्त आता है ,  तब आत्मा को सविषय चित्त का बोध होजाता है । यदि आत्मा अपने चैतन्यरूप में उस समय अवस्थित न रहे ,  तो वह बोध होना ही सम्भव न होगा।  अतः विषयबोध के अवसर पर अत्मा में कोई विकार या परिणाम नहीं होता। फलतः चेतन द्रष्टा आत्मा को नित्य  , स्थिर ,  अपरिणामी मानना सर्वप्रमाण सिद्ध है। सविषय चित्त दृश्य का अनुभव द्रष्टा आत्मा को ही होता है ,  अन्य  चित्त को नहीं।
ज्ञान - प्राप्ति की प्रक्रिया जब हम किसी वस्तु को इन्द्रियों के द्वारा देखते या जानते हैं ,  इस जानने के तीन स्तर रहते हैं - ग्राह्य  वस्तु बाहर विद्यमान रहती है। वह बाह्य करण  ( इन्द्रिय )  के सम्पर्क में आती है। करणों में बाह्य विषय को  ग्रहण  करने की शक्ति रहती है। सत्त्वप्रधान होने से करण  (  बाह्य करण -  इन्द्रिय ,  अंतःकरण चित्त -  मन ,  अहंकार ,  बुद्धि )  अर्थ के प्रकाशक होते हैं।  बाह्य विषय इन्द्रिय प्रणाली द्वारा चित्त पर प्रतिबिम्बित होता है ,  तब चित्त विषयाकार हो उठता है।  इसी रूप में वह चित्त आत्मा से सम्बद्ध होकर बाह्य वस्तु का बोध या ज्ञान आंतर आत्मा को कराता है।  वस्तु बाहर ही रहती है अन्दर नहीं चलीजाती।  इसप्रकार आत्मा उस वस्तु का द्रष्टा अथवा  ग्रहीता  है।  इसप्रकार बाह्य वस्तु  ग्राह्य ,  समस्त करण  ग्रहण   ( साधन ),  और आत्मा  ग्रहीता   ( द्रष्टा )  है। ग्राह्य ग्रहण और ग्रहीता इन तीन स्तरों पर गुज़रता हुआ बाह्य वस्तु का ज्ञान  ( बोध - अनुभव )  आत्मा को होता है।
द्रष्टृदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थम् ॥ 4/23 ॥ [184]  द्रष्टा और दृश्य दोनों से उपरक्त - रंगा हुआ चित्त  सब विषयोंवाला प्रतीत होता है ।  कतिपय विचारक कदाचित् ऐसा समझते रहे हैं कि जब इन्द्रिय प्रणाली द्वारा बाह्य विषय अतिशय सत्त्वप्रधान चित्त तक पहुँचता है ,  तो अपने सर्वातिशायी सात्त्विकरूप के कारण बाह्य वस्तु का ज्ञान चित्त को होजाता है।  तब अतिरिक्त आत्मा को द्रष्टा मानना अनावश्य्क है ;  क्योंकि तब द्रष्टा और दृश्य दोनों स्थितियों से चित्त उपरक्त रहता है -  ये दोनों भाव उसमें उभर आते हैं।  इसी आधार पर ऐसे विचारक चित्त को द्रष्टा मान बैठे। चित्त की सर्वार्थता  ( सब विषयों वाला होना )  इसी तथ्य पर अधारित है कि वह समस्त बाह्य व आंतर विषयों की ,  आत्मा के लिये ,  जानकारी में प्रमुख साधन है ,  तथा आत्मा के साक्षात् सम्पर्क में रहने से उसमें द्रष्टृत्व  (  ज्ञाता होने का भाव )  आरोपित करलियाजाता है।  इस कल्पनामूलक व औपचारिक द्रष्टृत्व को चित्त में मानलेने से वास्तविक द्रष्टा आत्मा का अपलाप सर्वथा निराधार व अप्रमाणिक है।
तदसंख्येयवासनाभिश्चित्रमपि परार्थं संहत्यकारित्वात् ॥ 4/24 ॥ [185]  वह चित्त अनगिनित वासनाओं से चित्रित हुआ - चितेरा हुआ भी  अन्य के लिये होता है ;  संहत्यकारी होने के कारण ।  सांख्य  - योग का यह सिद्धांत है कि जो संघात है ,  वह  परार्थ  होता है। समस्त विश्व सत्त्व ,  रजस् ,  तमस् इन तीन गुणों का संघात है। ये गुण इकट्ठे होकर ,  एक - दूसरे में गुँथकर  [ अन्योन्यमिथुनीभूत होकर ]  जो रूप धारण करते हैं ,  वह  अन्य  के प्रयोजन को सिद्ध करने के लिये होता है। अन्य समस्त करणों के साथ चित्त भी संघात है। सत्त्वादि गुण संहत होकर चित्त के रूप में अभिव्यक्त हुए अन्य के प्रयोजन को सिद्ध करते हैं। वह अन्य है  - पुरुष अर्थात् चेतन आत्मा। आत्मा के साथ चित्त आदि के रूप में प्रकृति का सम्बन्ध अनादि काल से प्रवृत्त है। अनंत शुभ - अशुभ कर्मों से जनित वासनाओं का योग एकमात्र चित्त के द्वारा प्रसाधित होता है।  चित्त स्वयं उन कर्म व वासनाओं से कोई लाभ या हानि नहीं उठाता। उनसे अनुकूल या प्रतिकूल जैसी अनुभूति होती है ,  वह सब आत्मा को होती है। चित्त यह सब - कुछ आत्मा के लिये  करता है ;  क्योंकि प्रत्येक संघात  पर  के लिये होता है।  फलतः प्रकृति से भिन्न पुरुष  ( आत्मा )  ही असंत तत्त्व है ;  उसी के भोग - अपवर्ग रूप प्रयोजन को समस्त संघात सिद्ध किया करता है।
विशेषदर्शिन आत्मभावभावनाविनिवृत्तिः॥ 4/25 ॥ [186]  भेद का साक्षात्कार करनेवाले योगी को चित्त में  आत्मीयता की भावना समाप्त हो जाती है ।  जबतक पुरुष को विवेकज्ञान नहीं होता ,  तबतक वह प्रकृति के सम्पर्क में रहता हुआ प्रकृति के कार्य देह आदि को आत्मा का रूप समझता है।  देह इन्द्रिय आदि में विकार होने पर वह यही जानता - समझता है कि यह विकार मुझमें होरहा है।  ' मुझे ज्वर हो गया ,  मुझे दस्त लगगये इत्यादि '  देहधर्मों को आत्मा में समझने का तात्पर्य है -  वह देहादि में आत्मभाव रखता है। जब योगी को समाधि द्वारा प्रकृति और पुरुष के भेद का साक्षात्कार होजाता है ,  तब प्राकृत चित्त ,  देह आदि में आत्मभाव  ( आत्मीयता ,  चित्त आदि को आत्मा का स्वरूप समझने )  की भावना समाप्त होजाती है।  उस समय आत्मा अपने शुद्ध ,  पवित्र अपरिणामी चैतन्य स्वरूप का अनुभव करता है और समझलेता है -  मैं प्रकृति एवं प्राकृत चित्तधर्मों से सर्वथा अछूता हूँ।  तब प्राकृत तत्त्वों में आत्मीयता की भावना नितांत निवृत्त होजाती है।
तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम् ॥ 4/26 ॥ [187] उस समय विवेक की ओर झुकनेवाला  कैवल्य - भावना से भरा हुआ चित्त होजाता है ।  विवेकदर्शी आत्मा का चित्त उस दशा में वैषयिक प्रवृत्तियों से हटकर विवेक की ओर झुकाहुआ आत्मा के कैवल्य - प्रवाह से ओतप्रोत रहता है। विवेकज्ञान होने से पहले जो चित्त विषयों में लिपटा हुआ अज्ञानमार्ग की ओर प्रवृत्त रहता था ,  वह अब उससे विपरीत दशा में अवस्थित होगया है। आत्मा ने अपने केवल -  प्रकृतिविनिर्मुक्त  ( प्रकृति से असंसक्त )  शुद्धरूप को साक्षात् करलिया है ,  चित्त उसी भावना के प्रवाह से आपूरित रहता है।  अब आत्मा अज्ञानमूलक प्रवृत्तियों से हटकर ,  विवेक से अभिव्यक्त ज्ञान के मार्ग में अवस्थित हो गया है।
तच्छिद्रेषु प्रत्ययंतराणि संस्कारेभ्यः॥ 4/27 ॥ [188] विवेकी चित्त के छिद्रों -  अंतराल के अवसरों में  विवेकज्ञान - प्रवाह से भिन्न ज्ञान होते रहते हैं। संस्कारों से ।  योगी के चित्त का विवेकख्याति का प्रवाह जब तक चलता रहता है ,  उस बीच में कोई व्युत्थान संकार उभार में नहीं आते । यह दशा पूर्णयोगी की पूर्णसमाधि की है । पूर्णयोगी के समाधि काल में व्युत्थान के कोई संस्कार नहीं उभरते ;  पर उसका जीवन प्रारब्ध कर्मों को भोगने के लिये चालू रहता है।  तब जीवन सम्बन्धी आहार - विहार व दैनिक कार्यों को पूरा करने के लिये समाधि दशा से उठकर व्युत्थान दशा में आना पड़ता है।  यह क्रम योगियों का उस समय तक चलता रहता है जबतक प्रारब्ध कर्म भोगे जाकर समाप्त नहीं होजाते। ये ही व्युत्थान के अवसर बीच - बीच मे आते रहते हैं। ऐसे अंतराल काल को सूत्र में  छिद्र  पद से कहा गया है।  इन्हीं अवसरों पर व्युत्थान की वृत्तियाँ - यह मैं हूँ ,  यह मेरा है ,  मैं जानता हूँ ,  या नहीं जानता ,  इत्यादि  -  उभरती हैं ;  पर इन वृत्तियों के संस्कार परिणत नहीं होते ,  क्योंकि ये वृत्तियाँ केवल प्रारब्ध कर्मों को भोगने के लिये सक्रिय होती हैं।  उस कर्म का फल भोगेजाने पर न वह प्रारब्ध कर्म रहता है ,  और न उससे सम्बद्ध वृत्तियाँ न उनके संस्कार ।
हानमेषां क्लेशवदुक्तम् ॥ 4/ 28 ॥ [189] हान -  नाश इन संस्कारों का क्लेशों के समान कहागया समझना चाहिये ।  जो उपाय अविद्या आदि क्लेशों को निवृत्त करने व नाश करने के लिये बतयागया है ,  वही उपाय इन व्युत्थान संस्कारों के नाश के लिये समझना चाहिये।  साधनपाद के प्रारम्भिक सूत्रों द्वारा आचार्य ने बताया है कि तप ,  स्वाध्याय ,  और ईश्वरप्रणिधान क्लेशों को शिथिल करने के लिये सर्वश्रेष्ठ उपाय हैं।  ब्रह्मचर्य आदि का पालन ,  द्वन्द्वसहन ,  अध्यात्मशास्त्रों का परिशीलन ,  प्रणवजप आदि का निरंतर अनुष्ठान ऐसे उपाय हैं ,  जिनसे अविद्या आदि क्लेश सर्वथा निष्क्रिय दशा में पहुँचजाते हैं :  पुनः सिर उठाने ,  उभरने का सामर्थ्य उनमें नहीं रहता। व्युत्थान के संस्कारों को शिथिल करने के लिये भी यही सर्वोत्तम उपाय है। प्रस्तुत शास्त्र में इन उपायों को  क्रियायोग  पद से कहागया है। यह क्रियायोग अविद्या आदि क्लेशों के समान व्युत्थान - संस्कारों को भी दग्ध करदेता है।
प्रसंख्याने अप्यकुसीदस्य सर्वथा  विवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः॥ 4/29 ॥ [190] विवेकख्याति में भी अनुराग न रखनेवाले योगी को पूर्णरूप में विवेकख्याति से  धर्ममेघ नामक समाधि दशा प्राप्त होजाती है ।  जब योगी विवेकख्याति के स्तर पर पहुँच जाता है ;  वह अवस्था सम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त होने की होती है।  पर योगी और आगे की अवस्था प्राप्त करने के लिये उसमें अनुराग को छोड़देता है ;  अर्थात् उतने से ही संतुष्ट होकर बैठ नहीं रहता।  तब निरंतर उपयुक्त प्रणव जप आदि अभ्यास में लगे रहने पर विवेकख्याति की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त होजाती है।  यह परमवैराग्य का स्तर है ,  जहाँ व्युत्थान की समस्त वृत्तियाँ रुद्ध होजाती हैं ,  तथा विवेकख्यान का प्रवाह निरंतर निर्बाध प्रवाहित होता रहता है।  इसी को  असम्प्रज्ञात  योग कहा जाता है। योग की इसी अवस्था का नाम  धर्ममेघ  समाधि है।  यह योग की सर्वोच्च अथवा अंतिम अवस्था कहीजाती है। समाधि की इस अवस्था को प्राप्त कर योगी आत्मज्ञानी होकर जीवन्मुक्त होजाता है ,  और चालू देह का भोग पूरा होजाने पर मोक्ष प्राप्त करलेता है। तब सद्यः देहांतर की प्राप्ति नहीं होती।
ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः ॥ 4/30 ॥ [191] उससे - धर्ममेघ समाधि सिद्ध होने के अनंतर  क्लेश तथा तन्मूलक कर्मों की निवृत्ति - समाप्ति होजाती है । धर्ममेघ समाधि की अवस्था प्राप्त होजाने से आत्मा के अविद्या आदि क्लेश निवृत्त होजाते हैं। कर्मों से क्लेश और क्लेशों से अन्य कर्मों की परम्परा चलती है। तब क्लेशों की निवृत्ति होने पर कर्मों का क्रम भी समाप्त होजाता है।  क्लेश - कर्मों से निवृत्त होने पर आत्मज्ञानी योगी जीवन्मुक्त होजाता है। अविद्या - मिथ्याज्ञान ही संसार का कारण है। अविद्या के क्षीण होजाने पर कहीं कोई देह धारण करता नहीं देखा जाता।  प्रारब्ध कर्म भोगेजाने पर जब चालू देह का पतन होजाता है ,  तब ज्ञानी आत्मा मोक्ष पाजाता है।
तदा सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्य आनंत्याज्ज्ञेयमल्पम्॥ 4/31 ॥ [192] तब  - क्लेश कर्मों की निवृत्ति होजाने पर धर्ममेघ समाधि की अवस्था में  सब आवरण और मलों  से रहित हुए चित्त के अनंत - अत्यधिक शक्तिसम्पन्न होजाने से  ज्ञेय - जानने  योग्य विषय थोड़ा रह जाता है ।  चित्त सत्त्व प्रधान होने से स्वभावतः वह सब वस्तुओं के प्रकाश करने में समर्थ रहता है ;  परंतु ,  तम से अभिभूत होजाने पर उसक प्रकाश सामर्थ्य ढक जाता है।  रजोगुण की प्रवृत्ति से जब कहीं आवरण उघड़ जाता है ,  तो चित्त विषय को ग्रहण कराने में समर्थ होजाता है।  आवरण व मल आदि के रहते चित्त सब विषयों के ग्रहण करने में असमर्थ रहता है।  यह चित्त धर्ममेघ समाधि के स्तर पर आकर समस्त आवरण व मल आदि से रहित होकर प्रकाश करने के पूर्ण सामर्थ्य को प्राप्त करता है।  चित्त का अनंत होना  ( आनंत्य )  यही है ,  कि इस अवस्था में चित्त सूक्ष्मातिसूक्ष्म ,  व्यवहित ,  अतीत ,  अनागत सब अर्थतत्त्वों के ग्रहण कराने  [ प्रकाश ]  में समर्थ रहता है।  अब ऐसा विषय रहा कहाँ ,  जिसका वह प्रकाश न करा सके। इसी आशय से चित्त (  प्रकाश )  को अनंत और ज्ञेय  ( ग्राह्य - प्रकाश्य )  को अल्प कहा है।
ततः कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिः  गुणानाम् ॥ 4/ 32 ॥ [193] उससे -  धर्ममेघ समाधि के उदय से कृतकार्य हुए  परिणाम के क्रम की समाप्ति होजाती है गुणों के ।  धर्ममेघ समाधि के उदय से आत्मसाक्षात्कर्ता योगी के लिये भोग और अपवर्ग को सिद्धकर गुण  [ सत्त्व , रजस् ,  तमस् ]  कृतकार्य हो जाते हैं।  उस पुरुष के लिये अपना कार्य सम्पन्न कर चुके होते हैं। अतः पुनः उसके लिये देह इन्द्रिय आदि की रचना से विमुख होजाते हैं।  विश्व के उपादान कारण प्रकृतिरूप गुण जगन्नियंता सर्वांतर्यामी परमात्मा के नियंत्रण में उससे प्रेरित हुए महत् आदि कार्यों के रूप में परिणत होते रहते हैं। यह समस्त परिणाम पुरुष  [ जीवात्मतत्त्व ]  के भोग - अपवर्ग को सिद्ध करता है।  जिस आत्मा का भोग - अपवर्ग सम्पन्न होजाता है ;  वह अंतिम लक्ष्य अपवर्ग  ( मोक्ष )  को प्राप्त करलेता है। तब उसके लिये सद्यः गुणों का कोई कार्य करना शेष नहीं रहजाता।  फलतः वे गुण उस आत्मा के लिये देह आदि की रचना नहीं करते। अन्य आत्माओं के लिये प्रवृत्त रहते हैं।  यह सब कार्य ऋत  [ ऐश्वरी व्यवस्था ]  के अनुसार चला करता है।
क्षणप्रतियोगी परिणामापरांतनिर्ग्राह्यः क्रमः॥ 4/ 33 ॥ [194] क्षण के साम्मुख्य से बाधित होनेवाला परिणाम के अवसान पर  गृहीत होनेवाला क्रम कहा गया है ।  काल का सर्वातिशायी अंश क्षण है ;  काल का जिससे छोटा अंश सम्भव न हो। एक क्षण में क्रम का होना सम्भव नहीं।  क्रम की अभिव्यक्ति के लिये अनेक क्षणों का समूह होना आवश्यक है। क्रमवाले के विना क्रम का निरूपण अशक्य है। अतः वस्तुतत्त्व को काल के सम्मुख लाकर परिणामक्रम का निरूपण होता है।  परिणामशील वस्तु में यह परिवर्तन एक - साथ नहीं होजाता। यह धीरे - धीरे प्रतिक्षण होता रहता है।  वस्तु का जब उदय हुआ ,  वह भी परिणाम का फल है। तब से ही प्रतिक्षण परिणामक्रम चालू रहता है।  इसकी स्पष्ट प्रतीति वस्तु के अवसान समय पर होती है। वस्तु की वर्तमान अवस्था के अंतराल में भी निपुण दृष्टि द्वारा इसे पहिचाना जासकता है।  परिणामक्रम का वास्तविक अस्तित्व गुणों के परिणामस्वरूप  महत्  आदि में परिलक्षित होता है। परिवर्तनशील संसार को देखते हुए यह स्पष्ट है कि यह सब परिणामक्रम का उदाहरण है।
पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ॥ 4/34 ॥ [195] पुरुष के प्रयोजन की सिद्धि से शून्य हुए गुणों का अपने कारणों में लीन होजान कैवल्य है। अथवा स्वरूप में प्रतिष्ठित चितिशक्ति कैवल्य है। यह शास्त्र समाप्त होता है ।  आत्मा के प्रयोजन - पुरुषार्थ  ( भोग व अपवर्ग )  सम्पन्न होजाने के कारण  अब सत्त्वादि गुण उसके लिये शून्य होजाते हैं ;  अर्थात् पुरुषार्थ की सिद्धि से रहित होजाते हैं।  अपना कार्य पूराकर वे अपनी कारण अवस्था में  लौट आते हैं। इसी का नाम  कैवल्य  है।  चितिशक्ति - चेतन आत्मतत्त्व का प्रकृति एवं  प्राकृत महत् आदि पदार्थों से कोई सम्बन्ध नहीं रहता।  योग के सर्वोच्च स्तर पर पहुँच जाने पर योगी के चित्त की व्युत्थान वृत्तियाँ निरुद्ध होजाती हैं।  व्युत्थान ,  समाधि और निरोध के संस्कार  ( चित्तव्यापार रुद्ध होजाने से )  चित्त  ( मन )  में लीन होजाते हैं।  मन अपने कारण  अस्मिता में ,  अस्मिता (  अहंकार )  बुद्धि ( महत्तत्त्व )  में और बुद्धि मूल उपादान प्रकृति में लीन होजाती है।  इसप्रकार वह पुरुष  ( आत्मतत्त्व )  गुणों के सम्पर्क से अलग होकर स्वरूप में  प्रतिष्ठित होजाता है।  इसी कारण  आत्मा की इस  अवस्था को  कैवल्य   कहा जाता है।
इति योगदर्शने कैवल्यपादः

कैवल्य

  • 1.
    पातञ्जल - योगदर्शनम् अथ चतुर्थः कैवल्यपादः *** प्रस्तुतकर्ता - सञ्जय कुमार
  • 2.
    कैवल्य पाद गततीन पादों में यथाक्रम समाधि का स्वरूप , समाधि के साधन , उससे प्राप्त विभूयियों का विस्तृत वर्णन किया है। * उनके सम्बन्ध की अन्य प्रासंगिक चर्चा का भी यथास्थान उपपादन कर दिया गया है। * इन सबके फलस्वरूप कैवल्य का प्रतिपादन करने के लिये अब चतुर्थ पाद का प्रारम्भ कियाजाता है। *
  • 3.
    कैवल्यपाद में प्रतिपाद्यविषय प्रतिपाद्य विषय सूत्र संख्या सिद्धि प्राप्ति के अन्य साधन अस्मिता से निर्माण - चित्त का उद्भव , तथा अन्य चित्तों की स्थिति । योगी तथा अयोगी के कर्म , और उनके विपाक का अवसर । अनादि वासना , और उनके अभाव का अवसर । धर्मों का अतीत - अनागत स्वरूप , उनकी गुणरूपता तथा वस्तुसत्ता। चित्त और वस्तु का मार्ग भिन्न है । ज्ञेय का ज्ञाता व बोद्धा पुरुष होता है , दृश्य अथवा परिणामी होने से चित्त ज्ञाता नहीं। एक ही कालमें चित्त और दृश्य का ग्रहण दोषपूर्ण होने से अमान्य। आत्मा द्वारा चित्त प्रेरित होकर आत्म - चित्त सम्पर्क से सब ज्ञानों का होना सम्भव । चित्त का उपयोग आत्मा के लिये होता है , पर तत्त्वज्ञानी के लिये नहीं होता । आत्मज्ञानी को समाधिलाभ , गुण - परिणाम का अवसान । चेतन आत्मतत्त्व की स्वरूप प्रतिष्ठा ; मोक्ष अथवा कैवल्य । 1-3 4-6 7-9 10-11 12-14 15-17 18-19 20-21 22-23 24-28 29-32 33-34
  • 4.
    जन्मौषधिमंत्रतपःसमाधिजाः सिद्धयः॥ 4/1॥ [162] जन्म , ओषधि , मंत्र , तप और समाधि से प्राप्त होनेवाली सिद्धियाँ ( पाँच ) हैं। जन्मजा - पूर्वजन्म के सुकृत कर्म व योगानुष्ठानों के प्रभाव से जन्म के साथ ही यह सिद्धि प्राप्त होजाती है। कपिल आदि परमर्षियों को प्राप्त थी। ओषधिजा - विशेष ओषधियाँ व रसायन आदि के प्रयोग से जो शरीर व इन्द्रियों आदि में दिव्य शक्तिरूप सिद्धि का प्राप्त होना है वह ओषधिजा सिद्धि है। प्रायः असुर वर्ग में अधिक प्रचलित इसमें आध्यात्मिक भावनाओं की उपेक्षा और आधिभौतिक भावनाओं का प्राधान्य रहता है। मंत्रजा - अनवरत मनन व चिंतन करने से भावित विषयक ज्ञान में जिस दिव्य शक्ति का जन्म होता है , वह मंत्रजा सिद्धि है। गायत्री व प्रणव आदि जप , तथा तांत्रिक पद्धति से प्राप्त सिद्धियाँ भी इसके अंतर्गत समझनी चाहिये। सूत्र [2/44] में इसका संकेत किया गया है। तपोजा - यम - नियमों का निष्ठा से पालन करने पर शरीर और इन्द्रियों में जो अलौकिक चमत्कारपूर्ण शक्ति का प्रादुर्भाव होता है वह तपोजा सिद्धि है। सूत्र [2/43] में इसका संकेत उपलब्ध है। समाधिजा - इसका विस्तृत वर्णन विभूतिपाद में प्रस्तुत करदियागया है।
  • 5.
    जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात् ॥4/2 ॥ [163] अन्य प्रकार व जाति में बदलजाना प्रकृति - उपादान कारणों की अपेक्षित पूर्ति से होता है । शरीर और इन्द्रियों के दिव्यरूप में परिणत होने के लिये पूर्वदेह और इन्द्रियों के कारणों में जो न्यूनता होती है , उसकी पूर्ति उन परिणामों के अनुकूल उपादान कारणों से होजाती है। देह के कारण पाँच भूत हैं , और इन्द्रियों का कारण अस्मिता - अहंकार है। जब योगी के देह - इन्द्रियाँ दिव्यरूप में परिणत होते हैं , तब पहली रचना के अपेक्षित कारणतत्त्व बने रहते हैं , अनपेक्षित निकलजाते हैं। उनके स्थान पर दिव्यता के अनुरूप अन्य अपेक्षित उपादान तत्त्व उस कमी को पूरा कर देते हैं। यह सब परिणाम - कार्य योगज धर्म के सहयोग व प्रभाव से हुआ करता है। रसायन आदि औषध प्रयोगों के द्वारा होने वाले सिद्धिरूप परिणामों में भी योगज धर्म की निमित्तता अप्रतिहित बनी रहती है। रसायन आदि के ऐसे प्रयोग योग - सहयोगी पद्धतियों द्वारा कियेजाने पर पूर्ण सफल होते हैं।
  • 6.
    निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तुततः क्षेत्रिकवत् ॥ 4/3 ॥ [164] निमित्त - योगज धर्म प्रयोजक - प्रेरक नहीं होता सीधा उपादान तत्त्वों का ; वरण - बाधा का भेदन तो होता है उससे ( निमित्त - योगज धर्म से ) क्षेत्रिक - किसान के कार्य के समान। जिस प्रकार किसान एक क्यारी से दूसरी क्यारी में पानी ले जाने के लिये उन दोनों क्यारियों के बीच की मेड़ को काट देता है ; वैसे ही , योगज धर्म योगी के देह - इन्द्रियादि में होनेवाले अनुकूल परिणामों के सम्मुख जो बाधा होती है , उनको हटा देता है। उस अवस्था में अनुकूल उपादान तत्त्व अभीष्ट परिणाम के लिये स्वयं प्रवृत्त होते रहते हैं। धर्म सीधा उनको प्रेरित नहीं करता। इसप्रकार निर्बाध प्रवृत्त हुए उपादान तत्त्व अवयवों की न्यूनता को पूरा करदेते हैं। कभी योगजधर्म उभरते हुए प्रबल अधर्म को हटा नहीं पाता ; तब परिणाम अशुद्ध होजाता है। अभीष्ट परिणाम के स्थान पर अनिष्ट परिणाम आजाता है। इसलिये ऐसे स्तर पर योगी को सदा अनावश्यक अभिमान एवं अनभिवाञ्छनीय आचरण से सावधानतापूर्वक बचना चाहिये।
  • 7.
    निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात् ॥ 4/4॥ [165] बनाये हुए चित्त केवल अस्मिता - अहंकार से । सर्वोच्च स्तर पर पहुँचे हुए योगी का चित्त नितांत शुद्ध सात्त्विक व पूर्ण शांत होचुका होता है। योगी के मानव देह के अन्य जातीय देह में परिणत होने पर योगी का पहला शुद्ध चित्त उस जाति के अनुरूप कार्य करने में असमर्थ रहता है। उस जाति के देह में उसीजाति के अनुरूप कार्य करनेवाला चित्त होना चाहिये। अतः उन - उन जातियों के अनुरूप चित्तों का निर्माण योगी कर लेता है , जिन विविध जातियों के रूप में वह अपने देह को परिणत करता है। योगी द्वारा निर्मित चित्त किसी एकजातीय परिणत देह के साथ उस देह के अवस्थिकाल तक रहता है। देह के न रहने पर वह चित्त नहीं रहता। जब उसे योगी उसे छोड़कर अन्य जातीय देह के रूप में अपने मानवदेह को परिणत करता है , तब उसके अनुरूप चित्त का निर्माण अहंकार उपादान से करलेता है। इसप्रकार अंनेक चित्तों के निर्माण की स्थिति स्पष्ट होती है। योगी का प्रधान शुद्ध चित्त उसी रूप में निरन्तर बना रहता है।
  • 8.
    प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तमेकमनेकेषाम्॥ 4/5 ॥ [166] प्रवृत्ति के भेद में प्रयोजक होता है चित्त एक , अनेकों का । कालभेद से जात्यन्तर - परिणत देहों में निर्माणचित्त जब ऐसी प्रवृत्ति की ओर सिद्धयोगी को आकृष्ट करने की स्थिति में आता है , जो योगमार्ग अथवा अध्यात्ममार्ग से योगी को दूर हटालेजाये ; तो उस प्रवृत्ति को रोकने में योगी का मुख्य चित्त प्रयोजक होता है , जो मल विक्षेप आदि से नितांत शुद्ध होचुक है। उन - उन विभिन्न देहों में निर्माण चित्तों की अवाञ्छनीय प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने में शुद्ध चित्त प्रयोजक होता है। वह निर्माण चित्तों को उन्मार्ग पर जाने से रोके रखता है। वह मुख्य शुद्ध चित्त , जो सर्गादिकाल से आत्मा से सम्बद्ध है ; निर्माणचित्तों को अध्यात्म विरोधी मार्ग पर जाने से रोके रखता है ; जिससे योगी आत्मा पथभ्रष्ट होने से बचारहता है।
  • 9.
    तत्र ध्यानजमनाशयम् ॥4/6 ॥ [167] उन चित्तों में से जो चित्त ध्यान एवं समाधि द्वारा शुद्ध सात्त्विकरूप में अभिव्य्क्त होगया है , वह आशय - वासनाओं से रहित होचुका है। अब वासना उसको प्रभावित नहीं करपाती । समाधि की अंतिम सीमा तक संस्कार बने रहते हैं। यदि उन संस्कारों में कोई प्रबल हो उठे , तो उससे निर्माणचित्तों के प्रभावित होने की सम्भावना बनी रहती है। पर जो मुख्य चित्त समाधि द्वारा नितांत शुद्ध होचुका है , अब उसे कोई संस्कार दबा नहीं पाते। सूत्र के अनाशयम् पद का यही तात्पर्य है। इसी कारण गत सूत्र में कहागया है , कि वह चित्त अन्य निर्माण - चित्तों को नियंत्रण में रखकर योगी को निर्माणचित्तों द्वारा पथभ्रष्ट होने की सम्भावना से बचाये रखता है।
  • 10.
    कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्॥ 4/7॥ [168] कर्म न शुक्ल न कृष्ण होता है , योगी का ; तीन प्रकार का होता है अन्य व्यक्तियों - अयोगियों का । पूर्णयोगी जीवनमुक्त आत्मज्ञानी के कर्म अशुक्ल - अकृष्ण होते हैं। अन्य मानवों के कर्म यथायथ तीन प्रकार के - शुक्ल , कृष्ण तथा मिश्रित - होते हैं। शुक्ल - वे पुण्य कर्म हैं , जो ब्रह्मचर्य आदि तप , वेद एवं आध्यात्मिक ग्रंथों का स्वाध्याय , तथा परमात्मा के ध्यान आदि के रूप में किये जाते हैं। कृष्ण - वे पाप कर्म जो दुरात्माओं द्वारा बाह्य साधनों के सहारे अन्य व्यक्तियों को अकारण पीड़ा पहुँचायेजाने आदि के रूप में किये जाते हैं। शुक्ल - कृष्ण मिश्रित - ये कर्म साधारण जनता द्वारा बाह्य साधनोंका आश्रय लेकर शुभ - अशुभ रूप में किये जाते हैं। कृषि आदि शुभ कार्य करते हुए उसमें अनेक प्राणी मारे व ताड़े जाते हैं , जिसको टाला नहीं जासकता। अशुक्ल - अकृष्ण - ये कर्म आत्मज्ञानियों द्वारा देहादि रक्षा के लिये उस अवस्था में कियेजाते हैं , जब वे कर्मों की फलप्राप्ति कामना का पूर्ण रूप से परित्याग करचुके होते हैं। ऐसे शुभ कर्मों का योगी को चालू जीवन में फल नहीं मिलता। ऐसा जीवन्मुक्त आत्मा अशुभ कर्म कभी कर ही नहीं सकता इसलिये उसके कर्म अकृष्ण कहे जाते हैं। जीवन्मुक्त होने पर सद्यः फलप्रद न होने के कारण इन शुभ - शुक्ल कर्मों को अशुक्ल कहा जाता है।
  • 11.
    ततस्तद्विपाकानुगुणानामेव अभिव्यक्तिर्वासनानाम् ॥4/8 ॥ [169] उस त्रिविध कर्म से उन कर्मों के परिपाक - फलों के अनुरूप ही प्रकट होना होता है वासनाओं का । आचार्यों ने त्रिविध कर्म - समूह के तीन भेद किये हैं - सञ्चित , प्रारब्ध और क्रियमाण । सञ्चित - वे एकत्रित संस्कार व वासना हैं जो अनादि काल से कियेजाते रहे कर्मों से उत्पन्न हुए हैं ; परंतु जिनका फल अभी तक नहीं भोगागया। वे आत्मा में संस्कार व वासनारूप में एकत्रित ( सञ्चित ) रहते हैं । सञ्चित संस्कारों में से सद्यः फलोन्मुख संस्कारों का चुनना ईश्वरीय व्यवस्था का कार्य है , इसमें जीवात्मा का कोई हाथ नहीं रहता । किसी योनि में किसी आत्मा का देह धारण करना उसके संस्कारों के अनुसार होता है । प्रारब्ध - अगणित सञ्चित संस्कारों में से जो संस्कार सद्यः फलोन्मुख होते हैं , उनके अनुरूप किसी विशेष योनि में आत्मा देह धारण करता है। इस जन्म अथवा जीवनकाल के प्रारम्भक होने के कारण इन संस्कारों का नाम प्रारब्ध है। क्रियमाण - वे कर्म हैं जो एक मानव देहधारण करने पर उस जीवन में प्रारब्ध कर्मों को भोगने के लिये कियेजाते हैं ; तथा जो अन्य नवीन कर्म कियेजाते हैं जिनसे नये संस्कार उत्पन्न होकर चित्त में एकत्रित होते रहते हैं। कतिपय जिन क्रियमाण ( नवीन किये गये ) कर्मों का फल चालू जीवन में ही भोगलियाजाता है ; उनके संस्कार आगे फल भोगे जाने के लिये नहीं बनते।
  • 12.
    कर्मों का परिपाकत्रिविध कर्मजनित सञ्चित संस्कार व वासनाओं में से वे ही संस्कार व वासनायें प्रकट होपाते हैं , जो सद्यः फलोन्मुख होते हैं ; अर्थात् , जिनका फल तुरंत मिलनेवाला होता है। सञ्चित संस्कारों में से सद्यः फलोन्मुख संस्कारों का चुनना , ईश्वरीय व्यवस्था का कार्य है। इसमें जीवात्मा का कोई हाथ नहीं रहता। किसी विशेष योनि में किसी आत्मा का देह धारण करना उसके संस्कारों के अनुसार होता है - मान लीजिये , एक आत्मा गाय की योनि में देह धारण करने वाला है। इसमें उसके सद्यः फलोन्मुख संस्कार निमित्त होते हैं। यहाँ उसी योनि के अनुरूप संस्कारों की अभिव्यक्ति होगी ; अन्य मानव अथवा अश्वादि पिछली योनियों के संस्कारों की नहीं। इसी तथ्य को सूत्र में तद्विपाकानुगुणानाम् पद से कहा गया है। इसप्रकार प्रारब्ध कर्मों के अनुकूल जो जीवन आत्मा को प्राप्त होता है , उसके अनुरूप पूर्वनिर्धारित वासना अभिव्यक्त होती है। इसलिये अगणित वासनाओं का सञ्चय रहने पर भी किसी एक जीवन में सबका अथवा चाहे जिन किन्हीं का उभर आना सम्भव नहीं।
  • 13.
    जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानन्तर्यं स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात्॥ 4/9 ॥ [170] जाति , देश और काल से व्यवहित भी ( वासनाओं का ) आनन्तर्य - अव्यवधान ( स्मृति के साथ बना रहता है , क्योंकि ) स्मृति और संस्कारों के एकरूप होने से - समानविषयक होने से । स्मृति और संस्कार का परस्पर कार्य - कारण का सम्बन्ध है। यह एक निर्धारित नियम है कि जैसा अनुभव होता है , उसीके अनुकूल संस्कार बनते हैं ; और जैसे संस्कार होते हैं , उसी के अनुरूप स्मृति होती है। जाति आदि के बड़े - से - बड़े व्यवधान के होने पर भी संस्कार और स्मृति का सम्बन्ध बना रहता है , क्यों कि वे समान विषयक होते हैं , और सदा अपने अभिव्यंजक के अनुरूप। यहाँ जाति का अर्थ जन्म , जीवन अथवा योनि है। अगणित संस्कार आत्मा में सुप्त पड़े रहते हैं। समय पर केवल वे संस्कार ही जागते हैं , जिनका कोई अभिव्यंजक [ जगानेवाला ] उपस्थित होजाता है। उदहरणार्थ - मानवजीवन के अव्यवहित अनंतर [ तुरंत बाद ] होनेवाले गाय के जीवन में संस्कारों का उद्बोधक , मानवजीवन का सामीप्य या अव्यवधान नहीं है ; प्रत्युत उस आत्मा का गाय की योनि में आना संस्कारों का अभिव्यंजक है। वह अपने - अपने अनुरूप संस्कारों को उद्बुद्ध करती है , उसमें चाहे जाति , देश और काल का कितना भी अधिक व्यवधान हो। गाय की योनि में आये आत्मा के वे ही संस्कार - वासना उद्बुद्ध होपाते हैं , जिनका सञ्चय कभी गाय की योनि में हुआ था - वे चाहे कितने ही जन्म पहले सञ्चित किये गये हों , किसी काल या देश मे हुआ हो ।
  • 14.
    तासामनादित्वं चाशिषो नित्यत्वात्॥4/10 ॥ [171] उन वासनाओं का अनादि होना भी जानाजाता है जीवन की शुभ अभिलाषाओं के सदा बने रहने से । प्रत्येक प्राणधारी की अपने जीवन के प्रति यह अभिलाषा सदा बनी रहती है , कि " मैं कभी मरूँ न , सदा ऐसा ही जीवित बना रहूँ " । यह आशीष आत्मा का स्वाभाविक धर्म या भाव नहीं है। यह भावना प्राणी के पूर्वानुभूत मृत्यु भय की जानकारी को प्रकट करती है। उसने मृत्यु के कष्ट का अनुभव किया है ; उससे जनित संस्कार और स्मृति मृत्यु से बचने की इच्छा जागृत करती है। सृष्टि के आदि में जीवन धारण करनेवाले प्राणियों में गत सृष्टिकाल के अनुभूत जीवन मरण के संस्कार आत्मा में निहित रहते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि चालू जीवन से पहले भी इसका जीवन रहा है ; और जीवन का यह क्रम अनादि काल से चालू है। वासनाओं या संस्कारों का अनादित्त्व वैयक्तिक रूप से नहीं है। प्रत्येक वासना या संस्कार उत्पन्न होता है और नष्ट भी होता है। केवल इनका प्रवाह अनादि और अनन्त है। इसी रूप में इन्हें नित्य कहागया है।
  • 15.
    हेतुफलाश्रयालम्बनैः संगृहीतत्त्वादेषामभावे तदभावः॥ 4/11 ॥ [172] हेतु , फल , आश्रय और आलम्बन से संगृहीत होने के कारण इनके ( हेतु आदि के ) अभाव - न रहने की दशा में उन - वासनाओं का अभाव होजाता है । सभी वासनाओं के हेतु अविद्या आदि क्लेश और शुक्ल आदि कर्म हैं। वासनाओं के फल हैं - जाति , आयु और भोग। आत्मा उनका आश्रय ; शब्द आदि विषय ; एवं , चित्त आदि करण उनके आलम्बन हैं। वासनाओं के उद्भव में ये सभी सहयोगी हैं। वासना इन्हीं में सिमटी रहती है , संग्रहीत रहती है ; इन्हीं के अस्तित्त्व में उभरती है। जब तक अविद्या आदि क्लेश विद्यमान रहते हैं , वासना बराबर उभरती रहती है। समाधि द्वारा जब प्रकृति - पुरुष के विवेक का साक्षात्काररूप ज्ञान या विद्या का उदय होजाता है , तब समस्त सञ्चित वासनाओं का तिरोभाव होजाता है। आत्मज्ञानी योगी का जीवन उस दशा में केवल प्रारब्ध कर्मों के भोगने के रूप में चालू रहता है। देहपात के अनंतर तत्काल जन्मदेनेवाली वासनाओं के नितांत अभाव में मोक्षप्राप्ति के लिये कोई बाधा नहीं रहती। फलतः वासना उत्पन्न और नष्ट होती रहती है।
  • 16.
    अतीतानागतं स्वरूपतः अस्त्यध्वभेदात्धर्माणाम् ॥ 4/12 ॥ [173] अतीत और अनागत स्वरूप से बना रहता है ( तात्पर्य है - अपने स्वरूप को खोता नहीं ) । कालिक आधार पर मार्गभेद से धर्मों के - कार्यों के बने रहने पर । सूत्र में धर्म पद का अर्थ कार्य है। जबतक कार्य अपने कारण में छिपा है , प्रकाश में अभी नहीं आया , पर आगे आनेवाला है , वह अनागत है। जो कार्य प्रकाश में आने के बाद , कालांतर में , अपने कारणों में पुनः छिप गया है , वह अतीत है। कार्यतत्त्व जब प्रकाश में आकर चालू रहता है , तब वर्तमान है। कालिक आधार पर कार्यों का मार्ग भिन्न हो जाता है। वस्तुतत्त्व अपने अस्तित्त्व को कभी नहीं खोता ; काल के आधार पर अतीत , वर्तमान , अनागत मार्ग का आश्रय लिये रहता है , जो परस्पर भिन्न हैं। इसी के आधार पर आत्मज्ञानी की समस्त वासना अपने कारण अविद्या में अंतर्हित होजाती है ; तथा अविद्या का सम्पर्क आत्मज्ञानी आत्मा के साथ नहीं रहता। इसी को कहाजाता है - वासनाओं का अभाव। वे पुरुष सम्पर्क से हटकर प्रकृति सम्पर्क में सिकुड़ आती हैं।
  • 17.
    ते व्यक्तसूक्ष्माः गुणात्मानः॥ 4/13 ॥ [174] वे - कालिक आधार से तीन मार्गों ( भूत , वर्तमान , भविष्यत् ) पर चलनेवाले - धर्म व्यक्त - प्रकट और सूक्ष्म सब प्रकार के गुणस्वरूप हैं। समस्त धर्म अर्थात् कार्य जगत् जो वर्तमान में दृष्टिगोचर होरहा है , वह व्यक्त है ; तथा जो अतीत , अनागत एवं दृष्टिगोचर नहीं है , वह सब सूक्ष्म है। समस्त कार्यजगत् जो दिखाई दे रहा है या नहीं दिखाई देरहा , गुणों का स्वरूप है। विश्व का मूल उपादान प्रकृति त्रिगुणात्मक है। उन सत्त्व , रजस् , तमस् तीन गुणों का यह सब परिणाम है। वे तीनों गुण परस्पर विलक्षण हैं। वस्तुतः मूल उपादान तत्त्वों के ये तीन वर्ग हैं , जो एक - दूसरे से विलक्षण हैं। विविध अथवा अनंत प्रकारों से इन अवयवों के सन्निवेश [ क्रम - अनुक्रम से व्यवस्थित किये जाने से ] से यह विश्व अभिव्यक्त होता है। आत्माओं के शुभ - अशुभ विविध कर्म भी जगत् की विलक्षणता में निमित्त रहते हैं , क्यों कि अत्माओं के भोग को सम्पादन करने के लिये जगत् की रचना होती है।
  • 18.
    परिणामैकत्त्वाद् वस्तुतत्त्वम् ॥4/14 ॥ [175] परिणाम के एक होने से वस्तु की एकता मानीजाती है । अनेक कारणों से मिलकर जो कार्य उद्भव में आता है , वह स्वरूप से एक होता है - अपनी स्थिति में एक मानाजाता है। जैसे तेल , बत्ती और आगकी लौ मिलकर एक प्रदीप होता है। तेल आदि सब मिलकर परस्पर सहयोग करते हुए प्रदीप अथवा प्रकाशरूप एक परिणाम को प्रस्तुत करते हैं। ऐसे ही तीन गुण [ सत्त्व , रजस् , तमस् ] मिलकर अन्योन्यमिथुनरूप हुए पुरुष के भोग और अपवर्ग के लिये पृथक् - पृथक् एक - दूसरे से भिन्न रूपों में वस्तुओं का उद्भव करते रहते हैं। फलतः कारणों के विलक्षण व अनेक होने पर भी उनसे परिणत हुए उद्भूत कार्य की एकता में कोई बाधा नहीं आती। जब त्रिगुण का करणरूप में परिणाम होता है तब एक इन्द्रिय श्रोत्र या चक्षु आदि का ज्ञान यथार्थ है। वे ही गुण जब ग्राह्य विषयरूप मे परिणत होते हैं तब एक शब्द या रूप यह ज्ञान यथार्थ है। पृथिवी का एक परमाणु तन्मात्ररूप अवयवों के संघातसे परिणत होता है। उन परमाणुओं से आगे मिलकर पर्वत , वृक्ष , पशु पक्षी आदि स्थूल परिणाम होते हैं।
  • 19.
    वस्तुसाम्ये चित्तभेदात्तयोर्विभक्तः पंथाः॥4/15 ॥ [176] वस्तु को उसकी समस्थिति ( यथार्थ स्थिति ) में मानने पर चित्त - ज्ञान अथवा विज्ञान के भेद से वस्तु और विज्ञान उन दोनों का बँटा हुआ है मार्ग । वासनाओं का जो अम्बार अनादिकाल से चित्त में जमा है ; वह बाह्य विषय के अस्तित्त्व को अपने निजी रूप में स्वीकार न कियेजाने पर , तथा केवल आंतरविज्ञान की सत्ता मानने पर कहाँ से आजाता है ? वासनाओं का आंतर में संकलन बाह्यविषय की सत्ता को माने विना असम्भव है। बाह्य विषयों का वृत्त्यात्मक ज्ञान चित्त - करण द्वारा आत्मा को होता है। यह ज्ञान उसी को हो सकता है , जो स्वयं ज्ञान स्वरूप है , चेतन है। चित्त वृत्त्यात्मक ज्ञान का साधन मात्र है। सूत्र में साधनपद चित्त द्वारा मुख्य चेतन आत्मतत्त्व का निर्देश लक्षित है। वस्तुतत्त्व की संतुलित स्थिति अपनी निश्चित है। आंतर विज्ञान का उससे भेद है - क्योंकि इन दोनों का मार्ग परस्पर बँटा हुआ है। आंतर विज्ञान चेतन तत्त्व है ; बाह्य विषय जड़। इन दोनों का एक होना कभी सम्भव नहीं। बाह्य जड़तत्त्व विषय है , और आंतर विज्ञानतत्त्व विषयी। इसी को आत्मतत्त्व अथवा चिति शक्ति कहाजाता है।
  • 20.
    नचैकचित्ततन्त्रं वस्तु तदप्रमाणकंतदा किं स्यात् ॥ 4/16 ॥ [177] और नहीं है एकचित्त के अधीन कोई वस्तु , वह वस्तु प्रमाणरहित - अप्रमाणिक तब क्या होजायगी ? ' ज्ञान चित्त के द्वारा होता है ; अतः वस्तु के अस्तित्त्व को चित्त के अधीन माना जाना चाहिये। वस्तु का अपना स्वतंत्र अस्तित्त्व नहीं है। '- यह कथन सर्वथा चिंतनीय है , क्योंकि इस विषय में यह समझना चाहिये कि चित्त वस्तु का उत्पादक है या केवल ज्ञापक ? देखाजाता है , प्रत्येक वस्तु अपने नियत उपादान कारणों से उत्पन्न होती है। उन उपादान तत्त्वों मं चित्त कोई अंश नहीं होता ; वस्तु का प्रादुर्भाव स्वतंत्ररूप से अपने उपादन कारणों से हुआ करता है। यदि चित्त किसी वस्तु का केवल ज्ञापक है , तो किसी वस्तु का ज्ञान होना अलग बात है , और उसका अस्तित्त्व अलग। वस्तु को न जानने की दशा में उसके अस्तित्त्व पर कोई बाधा नहीं आती। वस्तु का अस्तित्व उसके कारणों के बहाल रहने से किसी भी दशा [ ज्ञान होने अथवा न होने - दोनों ही दशाओं ] में निर्बाध बना रहता है।
  • 21.
    तदुपरागापेक्षित्वाच्चित्तस्य वस्तु ज्ञाताज्ञातम्॥4/17 ॥ [178] उस वाह्य विषय के उपराग - सम्बन्ध की अपेक्षा करनेवाला होने से चित्त के बाह्य पदार्थ ज्ञात और अज्ञात रहते हैं । वृत्त्यात्मक ज्ञान [ बाह्य पदार्थों का जानना ] यद्यपि करणों के सहयोग से होता है ; पर वह हो सकता है केवल चिति को , अन्य किसी को नहीं। इन्द्रिय के साथ चित्त [ मन ] का सम्बन्ध बना रहता है। मन का अहंकार से और अहंकार का बुद्धि से सम्बन्ध रहता है। बुद्धि आत्मा के साथ सीधे जुड़ी रहती है। इस सम्बन्ध परम्परा को सूत्र में उपराग पद से कहा है। चित्त पद अपने साथ अन्य समस्त करणों का उपलक्षण है। जब बाह्य पदार्थ [ विषय ] से समस्त करण [ इन्द्रिय , मन , अहंकार , बुद्धि ] उपरक्त [ सम्बद्ध ] होजाते हैं , तब बाह्य विषय आत्मा [ चिति ] को ज्ञात होता है। जब यह उपराग सम्बन्ध नहीं होता , तब बाह्य विषय अज्ञात रहता है। चित्त तथा उसके अन्य साथी करणों का ऐसे ज्ञान में यही उपयोग है कि वे बाह्य पदार्थ की छाया [ रंग , रूप , आकृति , प्रकार आदि विशेषताओं ] को आंतर आत्मा तक पहुँचांने में सहयोग देते हैं। ये सब ज्ञान के साधन मात्र हैं , ज्ञाता नहीं।
  • 22.
    सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्यापरिणामित्वात्॥4/18 ॥ [179] सर्वदा जानीजाती हैं चित्तवृत्तियाँ ( अन्य तत्त्व के द्वारा ) उसके - चित्त के स्वामी पुरुष के अपरिणामी होने से । परिणामी [ बदलनेवाला ] तत्त्व कभी ज्ञाता नहीं होता। बाह्य पदार्थ के समान चित्त भी परिणामी तत्त्व है। जो परिणामी है , वह त्रिगुणात्मक है , जड़ है। वह ज्ञाता होना सम्भव नहीं। इसलिये जड़ पदार्थ से अतिरिक्त तत्त्व के द्वारा चित्तवृत्तियाँ जानी जाती हैं। इनमें कभी व्यभिचार होने की सम्भावना नहीं। वह त्रिगुणात्मक तत्त्व से भिन्न तत्त्व , चित्त का प्रभु [ स्वामी ] चेतन [ आत्म तत्त्व ] है। वह ज्ञाता क्यों है ? आचार्य ने उसका हेतु दिया - अपरिणामित्वात् - अपरिणामी होने से। जब चित्त बाह्य वस्तुओं से उपरक्त न होकर आंतर भावों से उपरक्त होता है , तब उसमें जो ज्ञान , इच्छा , राग , द्वेष , सुख , दुःख , संकल्प , विकल्प तथा आत्म - चिंतन आदि की वृत्तियाँ उभरती रहती हैं , उनको भी पुरुष जानता है। कोई उभरती चित्तवृत्ति पुरुष - बोध से ओझल नहीं रहती। पुरुष [ आत्मतत्त्व ] चित्त एवं उसमें उभरनेवाली वृत्तियों का एकमात्र स्वामी है।
  • 23.
    न तत् स्वाभासंदृश्यत्वात् ॥ 4/19 ॥ [180] नहीं वह - चित्त स्वप्रकाश - स्वरूप दृश्य होने से । सूत्र में स्व - आभास पदों का अर्थ स्व - प्रकाश केवल पदांतर का प्रयोग है। यहाँ आभास या प्रकाश पद से भौतिक प्रकाश अभिप्रेत न होकर ज्ञान रूप प्रकाश अभिप्रेत है। यद्यपि लौकिक प्रकाश दृश्य दिखाने में साधन होता है ; पर वह स्वयं ज्ञाता व द्रष्टा नहीं होता। भौतिक प्रकाश के रहने पर दृश्य का दृष्टा व ज्ञाता उक्त प्रकाश से अतिरिक्त केवल आत्मतत्त्व रहता है। फलतः चित्त दृश्य होने से स्वाभास - स्वरूपेण ज्ञाता व द्रष्टा नहीं हो सकता।
  • 24.
    एकसमये चोभयानवधारणम् ॥4/20 ॥ [181] एक समय में तथा दोनों का अवधारण - निश्चय - ज्ञान नहीं होसकता। वृत्यात्मक ज्ञान विविध प्रकार का होने से विज्ञान कहा जाता है । यह व्यापार क्योंकि चित्त का है , इसलिये चित्त विज्ञान से अतिरिक्त कुछ नहीं । विज्ञान ही चित्तरूप है । विज्ञान क्योंकि क्षण - क्षण में नया - नया उभरता रहता है ; इसी स्थिति को लक्ष्य कर यह विचार प्रस्तुत किया जारहा है । यदि चित्त को स्वाभास [ खुद - ब - खुद ज्ञाता होना ] मानाजाता है , तो इसका तात्पर्य यह है कि वह चित्त जिस क्षण में किसी विषय को प्रकाशित कर रहा है , उसी क्षण वह उसका ज्ञाता [ द्रष्टा ] भी है। चित्त का एक व्यापार एक समय में [ युगपत ] दो विभिन्न कार्यों को सम्पादन करने में सक्षम नहीं हो सकता। फलत : चित्त को स्वाभास नहीं माना जासकता ; वह व्यापार केवल विषय का ज्ञान करादेता है। इसलिये विज्ञानरूप चित्त एक समय में अपने आपका प्रकाशक और अपने से भिन्न विषय का अवधारण - ज्ञान करे , यह युक्ति विरुद्ध है। उस समय में वृत्त्यात्मक विज्ञान का होना या उभरना ही एक क्रिया [ व्यापार ] है। वह क्रिया एक का ज्ञान करा सकती है , वह विषय है। अतः चित्त को स्वाभास कहना अप्रमाणिक है। इससे स्पष्ट होता है - चित्त के दृश्य होने के कारण उसका द्रष्टा कोई अन्य होना चाहिये ; वह अपरिणामी चेतन आत्मतत्त्व है।
  • 25.
    चित्तांतरदृश्ये बुद्धिबुद्धेरतिप्रसंगः स्मृतिसंकरश्च॥ 4/21 ॥ [182] एक चित्त के अन्य चित्त देखेजाने पर उस दूसरी बुद्धि के ज्ञान से अनवस्था दोष उपस्थित होगा , और स्मृति का संकर दोष होगा । यदि एक चित्त दूसरे चित्त से जाना जाता , तो अनवस्था दोष उपस्थित होजाता है। शास्त्रीय और लौकिक व्यवहार से यह स्पष्ट है कि चित्त एक दृश्य पदार्थ है और उसका दृष्टा या ज्ञाता अन्य पदार्थ [ आत्मा ] है। यदि यह माना जाय कि चित्त का दृष्टा ( उसी शरीर में स्थित ) एक अन्य चित्त है ; और इस अन्य चित्त का ज्ञाता तीसरा चित्त है ; तो इन चित्तों की संख्या की क्या सीमा होगी ? यदि चित्त संतति अनन्त स्थिति तक मानी जाती है , तो अन्तिम चित्त का ज्ञाता कौन होगा ? इसमें अतिप्रसंग जनित अनवस्था दोष स्पष्ट है । तथा कौन सा चित्त किस चित्त का ज्ञाता है - इसका हिसाब रखने और इन सब चित्तसंतति को नियंत्रित करने के लिये एक अन्य पदार्थ ( उच्चतर संयोजक - चित्त ) की आवश्यकता होगी। इसके अतिरिक्त विभिन्न चित्तों की स्मृतियों के आपस में ( गड्ड - मड्ड ) मिल जाने से समस्त स्मृति व सूचना प्रणाली के भ्रष्ट होजाने की नितांत सम्भावना रहेगी जो कि स्मृति के संकर दोष के रूप में अभिव्यक्त होगा। फलतः अस्थायी चित्त को द्रष्टा माने जाने में उक्त दोषों का निवारण अशक्य है ; इसलिये द्रष्टा को नित्य स्थिर मानना ही निर्दोष है।
  • 26.
    चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम् ॥4/22 ॥ [183] प्रतिसंक्रम - परिणतिगति से रहित अर्थात् स्थिर चिति ( चेतन आत्मतत्त्व ) के समीप विषयाकार चित्त के प्राप्त होने पर , चिति को अपने चित्त का अनुभव होजाता है । जैसे स्वच्छ स्फटिक के सम्पर्क में जब जपा कुसुम ( गुड़हल का लाल फूल ) आता है , तो स्फटिक लाल दिखाई देता है ; पर वस्तुतः उस समय भी स्फटिक की स्वच्छ शुभ्रता बराबर बनी रहती है। यदि शुभ्रता पहले के समान न रहे , उसमें परिणाम या परिवर्तन आजाय , तो वहाँ रक्तिमा का परावर्तन होना सम्भव नहीं होगा। इसी प्रकार शुद्ध चेतनस्वरूप आत्मा के सम्पर्क में जब विषयाकार चित्त आता है , तब आत्मा को सविषय चित्त का बोध होजाता है । यदि आत्मा अपने चैतन्यरूप में उस समय अवस्थित न रहे , तो वह बोध होना ही सम्भव न होगा। अतः विषयबोध के अवसर पर अत्मा में कोई विकार या परिणाम नहीं होता। फलतः चेतन द्रष्टा आत्मा को नित्य , स्थिर , अपरिणामी मानना सर्वप्रमाण सिद्ध है। सविषय चित्त दृश्य का अनुभव द्रष्टा आत्मा को ही होता है , अन्य चित्त को नहीं।
  • 27.
    ज्ञान - प्राप्तिकी प्रक्रिया जब हम किसी वस्तु को इन्द्रियों के द्वारा देखते या जानते हैं , इस जानने के तीन स्तर रहते हैं - ग्राह्य वस्तु बाहर विद्यमान रहती है। वह बाह्य करण ( इन्द्रिय ) के सम्पर्क में आती है। करणों में बाह्य विषय को ग्रहण करने की शक्ति रहती है। सत्त्वप्रधान होने से करण ( बाह्य करण - इन्द्रिय , अंतःकरण चित्त - मन , अहंकार , बुद्धि ) अर्थ के प्रकाशक होते हैं। बाह्य विषय इन्द्रिय प्रणाली द्वारा चित्त पर प्रतिबिम्बित होता है , तब चित्त विषयाकार हो उठता है। इसी रूप में वह चित्त आत्मा से सम्बद्ध होकर बाह्य वस्तु का बोध या ज्ञान आंतर आत्मा को कराता है। वस्तु बाहर ही रहती है अन्दर नहीं चलीजाती। इसप्रकार आत्मा उस वस्तु का द्रष्टा अथवा ग्रहीता है। इसप्रकार बाह्य वस्तु ग्राह्य , समस्त करण ग्रहण ( साधन ), और आत्मा ग्रहीता ( द्रष्टा ) है। ग्राह्य ग्रहण और ग्रहीता इन तीन स्तरों पर गुज़रता हुआ बाह्य वस्तु का ज्ञान ( बोध - अनुभव ) आत्मा को होता है।
  • 28.
    द्रष्टृदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थम्॥ 4/23 ॥ [184] द्रष्टा और दृश्य दोनों से उपरक्त - रंगा हुआ चित्त सब विषयोंवाला प्रतीत होता है । कतिपय विचारक कदाचित् ऐसा समझते रहे हैं कि जब इन्द्रिय प्रणाली द्वारा बाह्य विषय अतिशय सत्त्वप्रधान चित्त तक पहुँचता है , तो अपने सर्वातिशायी सात्त्विकरूप के कारण बाह्य वस्तु का ज्ञान चित्त को होजाता है। तब अतिरिक्त आत्मा को द्रष्टा मानना अनावश्य्क है ; क्योंकि तब द्रष्टा और दृश्य दोनों स्थितियों से चित्त उपरक्त रहता है - ये दोनों भाव उसमें उभर आते हैं। इसी आधार पर ऐसे विचारक चित्त को द्रष्टा मान बैठे। चित्त की सर्वार्थता ( सब विषयों वाला होना ) इसी तथ्य पर अधारित है कि वह समस्त बाह्य व आंतर विषयों की , आत्मा के लिये , जानकारी में प्रमुख साधन है , तथा आत्मा के साक्षात् सम्पर्क में रहने से उसमें द्रष्टृत्व ( ज्ञाता होने का भाव ) आरोपित करलियाजाता है। इस कल्पनामूलक व औपचारिक द्रष्टृत्व को चित्त में मानलेने से वास्तविक द्रष्टा आत्मा का अपलाप सर्वथा निराधार व अप्रमाणिक है।
  • 29.
    तदसंख्येयवासनाभिश्चित्रमपि परार्थं संहत्यकारित्वात्॥ 4/24 ॥ [185] वह चित्त अनगिनित वासनाओं से चित्रित हुआ - चितेरा हुआ भी अन्य के लिये होता है ; संहत्यकारी होने के कारण । सांख्य - योग का यह सिद्धांत है कि जो संघात है , वह परार्थ होता है। समस्त विश्व सत्त्व , रजस् , तमस् इन तीन गुणों का संघात है। ये गुण इकट्ठे होकर , एक - दूसरे में गुँथकर [ अन्योन्यमिथुनीभूत होकर ] जो रूप धारण करते हैं , वह अन्य के प्रयोजन को सिद्ध करने के लिये होता है। अन्य समस्त करणों के साथ चित्त भी संघात है। सत्त्वादि गुण संहत होकर चित्त के रूप में अभिव्यक्त हुए अन्य के प्रयोजन को सिद्ध करते हैं। वह अन्य है - पुरुष अर्थात् चेतन आत्मा। आत्मा के साथ चित्त आदि के रूप में प्रकृति का सम्बन्ध अनादि काल से प्रवृत्त है। अनंत शुभ - अशुभ कर्मों से जनित वासनाओं का योग एकमात्र चित्त के द्वारा प्रसाधित होता है। चित्त स्वयं उन कर्म व वासनाओं से कोई लाभ या हानि नहीं उठाता। उनसे अनुकूल या प्रतिकूल जैसी अनुभूति होती है , वह सब आत्मा को होती है। चित्त यह सब - कुछ आत्मा के लिये करता है ; क्योंकि प्रत्येक संघात पर के लिये होता है। फलतः प्रकृति से भिन्न पुरुष ( आत्मा ) ही असंत तत्त्व है ; उसी के भोग - अपवर्ग रूप प्रयोजन को समस्त संघात सिद्ध किया करता है।
  • 30.
    विशेषदर्शिन आत्मभावभावनाविनिवृत्तिः॥ 4/25॥ [186] भेद का साक्षात्कार करनेवाले योगी को चित्त में आत्मीयता की भावना समाप्त हो जाती है । जबतक पुरुष को विवेकज्ञान नहीं होता , तबतक वह प्रकृति के सम्पर्क में रहता हुआ प्रकृति के कार्य देह आदि को आत्मा का रूप समझता है। देह इन्द्रिय आदि में विकार होने पर वह यही जानता - समझता है कि यह विकार मुझमें होरहा है। ' मुझे ज्वर हो गया , मुझे दस्त लगगये इत्यादि ' देहधर्मों को आत्मा में समझने का तात्पर्य है - वह देहादि में आत्मभाव रखता है। जब योगी को समाधि द्वारा प्रकृति और पुरुष के भेद का साक्षात्कार होजाता है , तब प्राकृत चित्त , देह आदि में आत्मभाव ( आत्मीयता , चित्त आदि को आत्मा का स्वरूप समझने ) की भावना समाप्त होजाती है। उस समय आत्मा अपने शुद्ध , पवित्र अपरिणामी चैतन्य स्वरूप का अनुभव करता है और समझलेता है - मैं प्रकृति एवं प्राकृत चित्तधर्मों से सर्वथा अछूता हूँ। तब प्राकृत तत्त्वों में आत्मीयता की भावना नितांत निवृत्त होजाती है।
  • 31.
    तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारंचित्तम् ॥ 4/26 ॥ [187] उस समय विवेक की ओर झुकनेवाला कैवल्य - भावना से भरा हुआ चित्त होजाता है । विवेकदर्शी आत्मा का चित्त उस दशा में वैषयिक प्रवृत्तियों से हटकर विवेक की ओर झुकाहुआ आत्मा के कैवल्य - प्रवाह से ओतप्रोत रहता है। विवेकज्ञान होने से पहले जो चित्त विषयों में लिपटा हुआ अज्ञानमार्ग की ओर प्रवृत्त रहता था , वह अब उससे विपरीत दशा में अवस्थित होगया है। आत्मा ने अपने केवल - प्रकृतिविनिर्मुक्त ( प्रकृति से असंसक्त ) शुद्धरूप को साक्षात् करलिया है , चित्त उसी भावना के प्रवाह से आपूरित रहता है। अब आत्मा अज्ञानमूलक प्रवृत्तियों से हटकर , विवेक से अभिव्यक्त ज्ञान के मार्ग में अवस्थित हो गया है।
  • 32.
    तच्छिद्रेषु प्रत्ययंतराणि संस्कारेभ्यः॥4/27 ॥ [188] विवेकी चित्त के छिद्रों - अंतराल के अवसरों में विवेकज्ञान - प्रवाह से भिन्न ज्ञान होते रहते हैं। संस्कारों से । योगी के चित्त का विवेकख्याति का प्रवाह जब तक चलता रहता है , उस बीच में कोई व्युत्थान संकार उभार में नहीं आते । यह दशा पूर्णयोगी की पूर्णसमाधि की है । पूर्णयोगी के समाधि काल में व्युत्थान के कोई संस्कार नहीं उभरते ; पर उसका जीवन प्रारब्ध कर्मों को भोगने के लिये चालू रहता है। तब जीवन सम्बन्धी आहार - विहार व दैनिक कार्यों को पूरा करने के लिये समाधि दशा से उठकर व्युत्थान दशा में आना पड़ता है। यह क्रम योगियों का उस समय तक चलता रहता है जबतक प्रारब्ध कर्म भोगे जाकर समाप्त नहीं होजाते। ये ही व्युत्थान के अवसर बीच - बीच मे आते रहते हैं। ऐसे अंतराल काल को सूत्र में छिद्र पद से कहा गया है। इन्हीं अवसरों पर व्युत्थान की वृत्तियाँ - यह मैं हूँ , यह मेरा है , मैं जानता हूँ , या नहीं जानता , इत्यादि - उभरती हैं ; पर इन वृत्तियों के संस्कार परिणत नहीं होते , क्योंकि ये वृत्तियाँ केवल प्रारब्ध कर्मों को भोगने के लिये सक्रिय होती हैं। उस कर्म का फल भोगेजाने पर न वह प्रारब्ध कर्म रहता है , और न उससे सम्बद्ध वृत्तियाँ न उनके संस्कार ।
  • 33.
    हानमेषां क्लेशवदुक्तम् ॥4/ 28 ॥ [189] हान - नाश इन संस्कारों का क्लेशों के समान कहागया समझना चाहिये । जो उपाय अविद्या आदि क्लेशों को निवृत्त करने व नाश करने के लिये बतयागया है , वही उपाय इन व्युत्थान संस्कारों के नाश के लिये समझना चाहिये। साधनपाद के प्रारम्भिक सूत्रों द्वारा आचार्य ने बताया है कि तप , स्वाध्याय , और ईश्वरप्रणिधान क्लेशों को शिथिल करने के लिये सर्वश्रेष्ठ उपाय हैं। ब्रह्मचर्य आदि का पालन , द्वन्द्वसहन , अध्यात्मशास्त्रों का परिशीलन , प्रणवजप आदि का निरंतर अनुष्ठान ऐसे उपाय हैं , जिनसे अविद्या आदि क्लेश सर्वथा निष्क्रिय दशा में पहुँचजाते हैं : पुनः सिर उठाने , उभरने का सामर्थ्य उनमें नहीं रहता। व्युत्थान के संस्कारों को शिथिल करने के लिये भी यही सर्वोत्तम उपाय है। प्रस्तुत शास्त्र में इन उपायों को क्रियायोग पद से कहागया है। यह क्रियायोग अविद्या आदि क्लेशों के समान व्युत्थान - संस्कारों को भी दग्ध करदेता है।
  • 34.
    प्रसंख्याने अप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः॥ 4/29 ॥ [190] विवेकख्याति में भी अनुराग न रखनेवाले योगी को पूर्णरूप में विवेकख्याति से धर्ममेघ नामक समाधि दशा प्राप्त होजाती है । जब योगी विवेकख्याति के स्तर पर पहुँच जाता है ; वह अवस्था सम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त होने की होती है। पर योगी और आगे की अवस्था प्राप्त करने के लिये उसमें अनुराग को छोड़देता है ; अर्थात् उतने से ही संतुष्ट होकर बैठ नहीं रहता। तब निरंतर उपयुक्त प्रणव जप आदि अभ्यास में लगे रहने पर विवेकख्याति की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त होजाती है। यह परमवैराग्य का स्तर है , जहाँ व्युत्थान की समस्त वृत्तियाँ रुद्ध होजाती हैं , तथा विवेकख्यान का प्रवाह निरंतर निर्बाध प्रवाहित होता रहता है। इसी को असम्प्रज्ञात योग कहा जाता है। योग की इसी अवस्था का नाम धर्ममेघ समाधि है। यह योग की सर्वोच्च अथवा अंतिम अवस्था कहीजाती है। समाधि की इस अवस्था को प्राप्त कर योगी आत्मज्ञानी होकर जीवन्मुक्त होजाता है , और चालू देह का भोग पूरा होजाने पर मोक्ष प्राप्त करलेता है। तब सद्यः देहांतर की प्राप्ति नहीं होती।
  • 35.
    ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः ॥4/30 ॥ [191] उससे - धर्ममेघ समाधि सिद्ध होने के अनंतर क्लेश तथा तन्मूलक कर्मों की निवृत्ति - समाप्ति होजाती है । धर्ममेघ समाधि की अवस्था प्राप्त होजाने से आत्मा के अविद्या आदि क्लेश निवृत्त होजाते हैं। कर्मों से क्लेश और क्लेशों से अन्य कर्मों की परम्परा चलती है। तब क्लेशों की निवृत्ति होने पर कर्मों का क्रम भी समाप्त होजाता है। क्लेश - कर्मों से निवृत्त होने पर आत्मज्ञानी योगी जीवन्मुक्त होजाता है। अविद्या - मिथ्याज्ञान ही संसार का कारण है। अविद्या के क्षीण होजाने पर कहीं कोई देह धारण करता नहीं देखा जाता। प्रारब्ध कर्म भोगेजाने पर जब चालू देह का पतन होजाता है , तब ज्ञानी आत्मा मोक्ष पाजाता है।
  • 36.
    तदा सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्यआनंत्याज्ज्ञेयमल्पम्॥ 4/31 ॥ [192] तब - क्लेश कर्मों की निवृत्ति होजाने पर धर्ममेघ समाधि की अवस्था में सब आवरण और मलों से रहित हुए चित्त के अनंत - अत्यधिक शक्तिसम्पन्न होजाने से ज्ञेय - जानने योग्य विषय थोड़ा रह जाता है । चित्त सत्त्व प्रधान होने से स्वभावतः वह सब वस्तुओं के प्रकाश करने में समर्थ रहता है ; परंतु , तम से अभिभूत होजाने पर उसक प्रकाश सामर्थ्य ढक जाता है। रजोगुण की प्रवृत्ति से जब कहीं आवरण उघड़ जाता है , तो चित्त विषय को ग्रहण कराने में समर्थ होजाता है। आवरण व मल आदि के रहते चित्त सब विषयों के ग्रहण करने में असमर्थ रहता है। यह चित्त धर्ममेघ समाधि के स्तर पर आकर समस्त आवरण व मल आदि से रहित होकर प्रकाश करने के पूर्ण सामर्थ्य को प्राप्त करता है। चित्त का अनंत होना ( आनंत्य ) यही है , कि इस अवस्था में चित्त सूक्ष्मातिसूक्ष्म , व्यवहित , अतीत , अनागत सब अर्थतत्त्वों के ग्रहण कराने [ प्रकाश ] में समर्थ रहता है। अब ऐसा विषय रहा कहाँ , जिसका वह प्रकाश न करा सके। इसी आशय से चित्त ( प्रकाश ) को अनंत और ज्ञेय ( ग्राह्य - प्रकाश्य ) को अल्प कहा है।
  • 37.
    ततः कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिः गुणानाम् ॥ 4/ 32 ॥ [193] उससे - धर्ममेघ समाधि के उदय से कृतकार्य हुए परिणाम के क्रम की समाप्ति होजाती है गुणों के । धर्ममेघ समाधि के उदय से आत्मसाक्षात्कर्ता योगी के लिये भोग और अपवर्ग को सिद्धकर गुण [ सत्त्व , रजस् , तमस् ] कृतकार्य हो जाते हैं। उस पुरुष के लिये अपना कार्य सम्पन्न कर चुके होते हैं। अतः पुनः उसके लिये देह इन्द्रिय आदि की रचना से विमुख होजाते हैं। विश्व के उपादान कारण प्रकृतिरूप गुण जगन्नियंता सर्वांतर्यामी परमात्मा के नियंत्रण में उससे प्रेरित हुए महत् आदि कार्यों के रूप में परिणत होते रहते हैं। यह समस्त परिणाम पुरुष [ जीवात्मतत्त्व ] के भोग - अपवर्ग को सिद्ध करता है। जिस आत्मा का भोग - अपवर्ग सम्पन्न होजाता है ; वह अंतिम लक्ष्य अपवर्ग ( मोक्ष ) को प्राप्त करलेता है। तब उसके लिये सद्यः गुणों का कोई कार्य करना शेष नहीं रहजाता। फलतः वे गुण उस आत्मा के लिये देह आदि की रचना नहीं करते। अन्य आत्माओं के लिये प्रवृत्त रहते हैं। यह सब कार्य ऋत [ ऐश्वरी व्यवस्था ] के अनुसार चला करता है।
  • 38.
    क्षणप्रतियोगी परिणामापरांतनिर्ग्राह्यः क्रमः॥4/ 33 ॥ [194] क्षण के साम्मुख्य से बाधित होनेवाला परिणाम के अवसान पर गृहीत होनेवाला क्रम कहा गया है । काल का सर्वातिशायी अंश क्षण है ; काल का जिससे छोटा अंश सम्भव न हो। एक क्षण में क्रम का होना सम्भव नहीं। क्रम की अभिव्यक्ति के लिये अनेक क्षणों का समूह होना आवश्यक है। क्रमवाले के विना क्रम का निरूपण अशक्य है। अतः वस्तुतत्त्व को काल के सम्मुख लाकर परिणामक्रम का निरूपण होता है। परिणामशील वस्तु में यह परिवर्तन एक - साथ नहीं होजाता। यह धीरे - धीरे प्रतिक्षण होता रहता है। वस्तु का जब उदय हुआ , वह भी परिणाम का फल है। तब से ही प्रतिक्षण परिणामक्रम चालू रहता है। इसकी स्पष्ट प्रतीति वस्तु के अवसान समय पर होती है। वस्तु की वर्तमान अवस्था के अंतराल में भी निपुण दृष्टि द्वारा इसे पहिचाना जासकता है। परिणामक्रम का वास्तविक अस्तित्व गुणों के परिणामस्वरूप महत् आदि में परिलक्षित होता है। परिवर्तनशील संसार को देखते हुए यह स्पष्ट है कि यह सब परिणामक्रम का उदाहरण है।
  • 39.
    पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवःकैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ॥ 4/34 ॥ [195] पुरुष के प्रयोजन की सिद्धि से शून्य हुए गुणों का अपने कारणों में लीन होजान कैवल्य है। अथवा स्वरूप में प्रतिष्ठित चितिशक्ति कैवल्य है। यह शास्त्र समाप्त होता है । आत्मा के प्रयोजन - पुरुषार्थ ( भोग व अपवर्ग ) सम्पन्न होजाने के कारण अब सत्त्वादि गुण उसके लिये शून्य होजाते हैं ; अर्थात् पुरुषार्थ की सिद्धि से रहित होजाते हैं। अपना कार्य पूराकर वे अपनी कारण अवस्था में लौट आते हैं। इसी का नाम कैवल्य है। चितिशक्ति - चेतन आत्मतत्त्व का प्रकृति एवं प्राकृत महत् आदि पदार्थों से कोई सम्बन्ध नहीं रहता। योग के सर्वोच्च स्तर पर पहुँच जाने पर योगी के चित्त की व्युत्थान वृत्तियाँ निरुद्ध होजाती हैं। व्युत्थान , समाधि और निरोध के संस्कार ( चित्तव्यापार रुद्ध होजाने से ) चित्त ( मन ) में लीन होजाते हैं। मन अपने कारण अस्मिता में , अस्मिता ( अहंकार ) बुद्धि ( महत्तत्त्व ) में और बुद्धि मूल उपादान प्रकृति में लीन होजाती है। इसप्रकार वह पुरुष ( आत्मतत्त्व ) गुणों के सम्पर्क से अलग होकर स्वरूप में प्रतिष्ठित होजाता है। इसी कारण आत्मा की इस अवस्था को कैवल्य कहा जाता है।
  • 40.