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माक्षिक एवं
क्षवमल
Vd. Kritika Verma
माक्षिक
परिचय
नाम
 संस्क
ृ त-माक्षिकम् (सुवर्ण माक्षिकम्, रजत माक्षिकम्)
 क्षिन्दी-माक्षिक (सोनामाखी एवं रूपामाखी)
 अंग्रेजी-Pyrite (Copper Pyrite and iron pyrite)
 क्षव. गुरुत्व-5
 काक्षिन्य-6
 िा. सूत्र-Cu2S,Fe2S3
परिचय एवं क्षनरूक्ति -
1.मधु क
े सदृश वर्ण होने तथा अक्षि पर मोम की तरह जलने क
े कारर् इसे माक्षिक कहते
है।
2."ईषत्सुवर्ण साक्षित्यात्सुवर्ण गुर् साम्यतः।
स्वर्णद् युक्षतमत्त्वाद्वा स्वर्णमाक्षिकमुच्यते।।" (ि.त. 21/2)
स्वर्ण क
े समान वर्ण (चमक) एवं स्वर्ण सदृश गुर् वाला तथा क
ु छ क्षवद्वानों क
े मत से इसमें
क्षकन्चित स्वर्ण का अंश होने क
े कारर् इसे 'स्वर्णमाक्षिक' कहते है।
3. भगवान क्षवष्णु की क
ृ पा से सुमेि पवणत पि उत्पन्न स्वर्ण सदृश चमकदाि स्त्राव सूयण
क
े ताप से सुखकि बनने क
े कािर् इसे ताप्य कहते है। तापी नदी, क्षकरात, चीन आक्षद
देशों में क्षमलने क
े कारर् इसे तापीज भी कहते है।
4. रजत क
े अल्ांश रहने, रजत क
े समान गुर् होने और रजत क
े समान चमकदार होने
क
े कारर् इसे रजत माक्षिक भी कहते है।
इक्षतिास
 माक्षिक का ज्ञान भारतीयों को अक्षतप्राचीन काल से था चिक संक्षिता में
माक्षिक को औषधीय रूप में प्रयोग क्षकया गया है। पौराक्षर्क
कथानुसार, भगवान श्रीक
ृ ष्ण क
े क्षवद्धपाद तल से स्त्रक्षवत िि क्षबन्दु
से माक्षिक की उत्पक्षि हुई है।
पयाणय
1.सुवर्णमाक्षिक पयाणय –
"सुवर्णमाक्षिक
ं स्वर्णमाक्षिक
ं िेममाक्षिकम्।मािीक
ं माक्षिकैवव ताप्यै धातुमाक्षिकम् ।।
माक्षिक धातुै तथा तापीजैाक्षप तन्मतम् ।।” (ि.त. 21/1-2)
सुवर्णमाक्षिक, स्वर्णमाक्षिक, हेममाक्षिक, मािीक, ताप्य, धातुमाक्षिक एवं तापीज।
2. िजतमाक्षिक पयाणय –
"िौप्यमाक्षिक माख्यातं तािजं तािमाक्षिकम् ।
क्षवमलं श्वेतमाक्षिक
ं तथा िजतमाक्षिकम्।।” (ि.त. 21/55)
रौप्यमाक्षिक, तारज, तारमाक्षिक, क्षवमल, श्वेतमाक्षिक एवं रजतमाक्षिक।
प्राक्ति स्थान -
 यह कान्यक
ु ब्ज प्रदेश, तािी नदी, क्षकिातदेश, चीन, यवन देश (रसग्रन्ों क
े आधार
पर) तथा वतणमान में जापान, अमेरिका, स्पेन, पुतणगाल, इटली एवं नावे से प्राप्त होता
है। इसक
े अक्षतररक्त यह भारत में झािखण्ड (क्षसंिभूक्षम) एवं िाजस्थान (खेतडी) में
प्रचुर मात्रा में क्षमलता है।
माक्षिक भेद –
यह दो प्रकार का होता है-
1.स्वर्णमाक्षिक-Copper pyrite (Cu2S, Fe2S3)
2. िौप्यमाक्षिक-Iron pyrite (Fe2S3)
 वर्ण क
े अनुसाि भेद-
I. पीत वर्ण (Yellowish)-सुवर्ण माक्षिक-Copper Pyrite
II. शुक्ल वर्ण (Whitish)-रौप्य माक्षिक-Iron Pyrite
III. रक्त वर्ण (Greyish)-कांस्य माक्षिक-Arseno Pyrite
 वर्ण क
े अनुसार माक्षिक को आचायण यशोधरभट्ट ने नववर्णसुवर्णवत् एवं वाग्भट ने
पन्चवर्णसुवर्णवत् माना है।
आधुक्षनक दृक्षि से माक्षिक का वर्णन
 स्वर्णमाक्षिक Copper pyrite or chalco pyrite होता है। इसका रासायक्षनक सूत्र Cu2S,Fe2S3
है।
 इसका वर्ं स्वर्ण क
े समान चमकीला होता है। यह भंगुर तथा मृदु होता है। इसे चाक
ू से आसानी से
काटा जा सकता है।
 यह ताम्र, लौह एवं गन्धक का यौक्षगक होता है। इसक्षलए इस ताम्रगन्धायस भी कहते हैं। अच्छे
खक्षनज में 20-35% तक ताम्न की मात्रा होती है।
 यह नीली ज्वाला क
े साथ जलता िव। जलने क
े बाद शेष बचा हुआ भाग चुम्बक से पकडा जा
सकता है। यह नाइक्षटि क एक्षसड में घुल जाता है।
 िौप्यमाक्षिक Iron pyrite होता है। यह लौह एवं गन्धक का यौक्षगक है इसक्षलए इसे
गन्धायस भी कहते हैं।।
 यह चााँदी जैसा चमकता है।
ग्राह्य सुवर्णमाक्षिक लिर्-
"क्षिग्धं गुरूश्यामलकाक्ति क्षकक्तन्चत कषे सुवर्ण द् युक्षत सुप्रकाशम् ।
कोर्क्तितं स्वर्णसमान वर्ण स्वर्णमाक्षिकक्षमि प्रशस्तम्ः ।।"(ि.त. 21/4)
 क्षिग्ध, भाि में गुरू, नीली काली चमकयुि तथा कसौटी पि क्षिसने पि क
ु छ-क
ु छ स्वर्ण जवसी
िेखा खींचने बाला, कोर् िक्षित सोने सदृश वर्ण वाला स्वर्णमाक्षिक श्रेष्ठ होता है। इसक
े क्षवपररत
स्पशण में खर, अल्भार युक्त, कोर्युक्त तथा खर लौहे की आभा वाला स्वर्ण माक्षिक त्याज्य होता है।
ग्राह्य िौप्यमाक्षिक लिर् –
क्षिग्धं सकोर्ं गुरू च वतुणलं िजतोज्जवलम् ।
िौप्यवच्चाकक्षचक्याढयं जात्यं तद्रौप्यमाक्षिकम् ।।(ि.त. 21/57)
 क्षिग्ध कोर्युि भािी, वतणल, िजत क
े समान उज्जवल एवं चमकीला रौप्यमाक्षिक श्रेष्ठ होता है।
इसक
े क्षवपररत मलयुक्त, भार में लघु, रूि, कसौटी पर क्षघसने से मक्षलन रेखा खीचने वाला, लम्बे एवं
क्षवषम खण्ों वाला एवं क्षववर्ण रौप्यमाक्षिक अग्राह्य होता है।
माक्षिक शोधन की आवश्यकता -
अशोक्षधतं वाऽमृतमप्यशुद्धं क्षनषेक्षवतं माक्षिकमक्षिबाधाम् ।
मन्दानलं क
ु ष्ठ िलीमकादीन् कोष्ठाक्षनलं वव जनयेक्षन्नतािम् ।। (ि.त. 21/6)
 अशुद्ध माक्षिक क
े सेवन से नेत्रक्षवकार, मन्दाक्षि, क
ु ष्ठ, हलीमक, कोष्ठ में वायु का प्रकोप,
क्षनबणलता,क्षवष्टम्भ, गण्माला एवं व्रज आक्षद रोग उत्पन्न हो जाते है। अतः माक्षिक को शुद्ध करने
क
े बाद ही भस्म क्षकया जानाचाक्षहए।
माक्षिक शोधन
1. प्रथम क्षवक्षध-
"माक्षिकस्य त्रयोभाग भागेक
ं सवन्धवस्य च। मातुलुङ्गद्रवववाऽथं जम्बीिोत्थ द्रववः पचेत् ।।
लोिपात्रे पचेत्ता वल्लोिदव्ां च चालयेत्। ताम्नवर्ण मयो यावत् तावच्छु ध्यक्षत माक्षिक
ं ।।"(ि.ज. क्षन. 2/1)
 तीन भाग माक्षिक चूर्ण एवं एक भाग सैंधवलवर् को लौहपात्र में डालकर थोडा-थोडा मातुलंग या
जम्बीिी नीबू स्विस डालकर तब तक भजणन करे, जब तक क्षक लोहे की कढाई का पेन्दा ताम्र सदृश
रक्तवर्ण का न हो जाए। इस प्रकार माक्षिक शुद्ध हो जाता है।
2. क्षद्वतीय क्षवक्षध-
"एिण्ड तेल लुङ्गाम्बुक्षसद्ध शुद्धयक्षत माक्षिकम्। क्षसद्धं वा कदलीकन्दतोयेन िक्षटकाद्वयं।
तिं क्षििं विा क्याथे शुक्तद्धमायक्षत माक्षिकम् ।।"(ि.ि. समु. 2/78)
 एिण्ड तवल एवं मातुलुंग नींबू स्विस या कदली कन्द स्विस में दोलायन्त्र क्षवक्षध से 2 घण्टे स्वेदन करने से
माक्षिक शुद्ध हो जाता है। अथवा प्रतप्त माक्षिक चूर्ण को क्षत्रफला क्वाथ में बुझाने पि भी माक्षिक शुद्ध हो
जाता है।
माक्षिक मािर्
1. प्रथम क्षवक्षध-
मातुलुङ्गाम्बुगन्धाभ्ां क्षपिं मूषोदिे क्तस्थतम्।
पन्चक्रोडपुटवदणग्धं क्षम्रयते माक्षिक
ं खलु ।।(ि.ि. समु. 2/79)
माक्षिक में समान भाग गन्धक क्षमलाकि मातुलुंग नींबू स्विस की भावना देकर क्षपक्षष्ट बनाकर
सुखा ले। क्षिर इसे मूषा में रखकर पााँच बार वाराहपुट में पकाने से माक्षिक की भस्म बन जाती है।
2. क्षद्वतीय क्षवक्षध-
"एिण्ड िेि गव्ाज्यवमाणतुलुङ्ग िसेन वा। खपणिस्थं दृढं पक्व
ं जायते धातु सक्षन्नभम्।।
एवं मृतं िसे योज्यं िसायनक्षवधावक्षप।।"(ि.ि. समु. 2/80)
एिण्डिेि, गोिृत अथवा मातृलुंग नींबू स्विस में माक्षिक को भली-भााँक्षत मदणन किक
े खपणर में
रखकर तीव्र अक्षम पर पाक करने से माक्षिक की स्वर्णगैररक सदृश रक्तवर्ण की उिम भस्म बन जाती
है।
3.तृतीय क्षवक्षध-
"ताप्यं क्षनब्वमल सम्पक्व
ं पुनक्षनणम्बूकवारिर्ा । सम्पेष्यं सम्पुटस्थिु पुटयेत क
ृ तचक्षक्रकाम ।।
एवं दशपुटविेव पन्चतामेक्षत माक्षिकम्। ििोत्पल दलच्छायं जायते चाक्षतशोभनम् ।।“
(ि.त. 21/19-20)
 नींबू स्विस में शोक्षधत शुद्ध स्वर्णमाक्षिक को पुन: नींबू स्विस में िोंटकि क्षटक्षकया बनाकि
सुखाए। क्षिर शराव सम्पुट में बन्दकर पुट में पाक करें। इस प्रकार 10 पुट देने पर स्वर्णमाक्षिक
की रक्तकमलवत उिम भस्म बन जाती है।
क्षवशेष कथन-
 िजतमाक्षिक का मािर्ाक्षद सुवर्णमाक्षिक की तिि क्षकया जाना चाक्षिए।
माक्षिक भस्म क
े गुर्-कमण
 स्वर्णमाक्षिक भस्म रस में क्षति-मधुि गुर् में लिु, वीयण में शीत एवं क्षवपाक में कटु होती है।
 रजत माक्षिक भस्म रस में अम्ल एवं क्षक
ं क्षचत कषाय मधुि, गुर् में लिु, बीयण में शीत तथा
क्षवपाक में कटु होती है।
 माक्षिक भस्म वृद्धावस्था, िोग एवं क्षवष प्रभावनाशक तथा वृष्य होती है। यह पारद क
े
वीयोत्कषण में सहयोगी होने से पारद का प्रार्(प्रार्ो िसेन्द्रस्य) है। यह सरलता से ना क्षमलने
बाली दो धातुओं को क्षमलाने वाला (दुमेललोिद्वयमेलनश्च) समूह गुर्युक्त एवं रसायनों में श्रेष्ठ है
(सवणिसायनाग्रयः)। यह क्षत्रदोषहर एवं सवणरोगनाशक एवं योगवाही होती है।
 ।
िोगघ्नता (Therapeutic use)-
 प्रमेह, क
ु ष्ठ, अशण, क
ृ क्षम, उदररोग, हृदयरोग, कण्ठरोग, बन्चिरोग, पाण्ु, शोथ, कण्ु, क्षवषरोग,
जीर्णज्वर, अपस्मार, मन्दाक्षि, अरुक्षच, अक्षनद्रा आक्षद।
माक्षिक भस्म मात्रा-
 1/2 से 2 ित्ती
अनुपान-
 क्षत्रिला, क्षत्रकटु, क्षवडंग, घृत तथा शहद।
अपक्व एवं अक्षवक्षध माक्षिक भस्म सेवन जन्य दोष –
 नेत्र क्षवकार, मन्दाक्षि, क
ु ष्ठ, हलीमक, क्षनबणलता, क्षवष्टम्भ, गण्माला, व्रर् आक्षद।
अपक्व एवं अक्षवक्षध भस्म सेवनजन्य दोष शमनोपाय –
 इन क्षवकारों की शान्चि क
े क्षलए क
ु लत्थ क्वाथ एवं दाक्षडमत्वक क्वाथ पीना चाक्षहए।
स्वर्णमाक्षिक सत्त्वपातन
"पादांशटङ्कर्ोपेतं मक्षदणतं िेममाक्षिकम् । ध्मातं मूषागतं सत्त्वं मुन्चत्याशु सुक्षनक्षश्चम् ।।“
(ि.त. 21/46)
 सुवर्णमाक्षिक में चतुथांश भांग टंकर् क्षमलाकि नींबू स्विस से मदणन कर सुखाए।
 तत्पश्चात् मूषा में रखकर तीव्राक्षि में धमन करने पर माक्षिक का सत्त्व क्षनकल जाता है।
सुवर्णमाक्षिक भस्म क
े क
ु छ प्रमुख योग
 ग्रहर्ीकपाट रस
 जयमंगल रस
 चन्द्रप्रभा वटी
 प्रभाकर वटी
 सवेश्वर पपणटी
 रत्नगभण पोटली
क्षवमल
नाम-
क्षिन्दी – क्षवमल संस्क
ृ त – क्षवमल अंग्रेजी - Iron pyrite/Fool's gold
काक्षिन्य - 6 to 6.5
क्षव. गुरुत्व – 5 to 5.2
िा. सू. – Fe2S3/FeS2
परिचय एवं उपक्तस्थक्षत -
 रसतरंक्षगनी ने क्षवमल व रजत (रौप्य) माक्षिक को एक माना है।विुतः दोनों पृथक खक्षनज है।
रौप्यमाक्षिक में ताम्र की अत्यल् मात्रा होती है तथा थोडी मात्रा में आसेक्षनक पाया जाता है क्षकिु
क्षवमल में ताम्र नहीं होता, इसमें क
े वल लौह एवं गन्धक ही होते है। (R.R.S.)
 यह धात्वीय आभा वाला, मक्षलन पीतवर्ण का एक खक्षनज द्रव्य है।
 यह बडे-बडे क्षनयत आकार क
े दानों क
े रूप में प्राप्त होता है। इसक
े दानों का आकार छः
अथवा आठ पहलुओं से युक्त होता है।
 इसमें लोहे क
े एक परमार्ु क
े साथ गन्धक क
े दो परमार्ु संयुक्त होते है, अतः इसे
क्षद्वगन्धायस (FeS2 - Bisulphide of Iron) भी कहते हैं।
 तेज आग पर गमण करते समय इससे गन्धक की सी गन्ध पैदा होती है। इसे Cubic sulphide
of Iron भी कहते है।
इक्षतिास-
सवणप्रथम िसार्णव नामक ग्रन्थ में इसका उल्लेख क्षमलता है इसका तात्पयण यह है क्षक इस
ग्रन् से पहले इसका वार्णन नहीं क्षमलता। आयुवेदीय संक्षहताओं में भी क्षवमल का कोई वर्णन
नहीं क्षमलता।
प्राक्ति स्थान –
रसग्रन्ों क
े आधार पर तािी नदी क
े क्षनकट क
े पवणतों से क्षवमल की उत्पक्षि बताई गई है।
वतणमान में यह असम, उडीसा, बंगाल, क्षबिाि, आन्धप्रदेश एवं तक्षमलनाडु आक्षद राज्यों से
प्राप्त होता है।
क्षवमल क
े भेद -
“क्षवमलक्षत्रक्षवधः प्रोिो िेमाद्यास्तािपूवणकः । तृतीय कांस्य क्षवमलस्तत्तत् कान्त्या स लक्ष्यते।।“
(ि.ि. समु. 2/89)
“पूवो िेमक्षक्रया सुिो क्षद्वतीयों रूप्यक
ृ न्मतः । तृतीयो भेषजे तेषु पूवणपूवो गुर्ोतिः ।।”
(ि० ि० समु० 2/91)
 क्षवमल क
े तीन भेद होते है –
1. िेमक्षवमल - पीतवर्ण का हेमक्षिया हेतु सबसे उिम (श्रेष्ठतम्)
2. िौप्यक्षवमल - श्वेत वर्ण का रजत कमण क
े क्षलए (श्रेष्ठतर)
3. कांस्य क्षवमल - कांस्य वर्ण का औषक्षध कायण हेतु (श्रेष्ठ)
क्षवमल ग्राह्य लिर् –
"वतुणलः कोर्संयुिः क्षिग्धश्च फलकाक्तितः। मरूक्तत्पत्तििों वृष्यो क्षवमलोऽक्षत िसायनः ।।“
(ि.ि. समु. 2/90)
1. वतुणलकार, क्षिग्ध, कोर् तथा िलक्युक्त क्षवमल श्रेष्ठ होता है।
2. यह वातक्षपिनाशक, वृष्य एवं रसायन में श्रेष्ठ होता है।
3. इसक
े क्षवपररत गुर्ों वाला क्षवमल अग्राह्य होता है।
क्षवमल का शोधन –
"आटरूष जले क्तस्वन्त्रो क्षवमलो क्षवमलो भवेत। जम्बीि स्विसे क्तस्वन्नो मेषश्रृङ्गी िसेऽथवा ।।
आयाक्षत शुक्तद्ध क्षवमलो धातवश्च यथाऽपिे।।“
(ि.ि. समु. 2/90)
क्षवमल क
े छोटे-छोटे टुकडे करक
े वासा स्वरस या क्वाय जम्बीरी नींबू स्वरस , मेषश्रृंगी स्वरस में से क्षकसी भी
एक द्रव में दोलायन्त्र क्षवक्षध द्वारा स्वेदन करने से क्षवमल शुद्ध हो जाता है।
क्षवमल का मािर् –
"गन्धाश्मलक
ु चाम्लवश्च क्षप्रयते दशक्षभः पुटवः।।"
(ि.ि. समु. 2/93)
 शुद्ध क्षवमल क
े वस्त्रगाक्षलत चूर्ण में समानमात्रा शुद्ध गन्धक क्षमलाकि लक
ू च स्विस की भावना
देकि चक्षक्रका बनाकि शराब सम्पुट में बन्द करक
े 10 गजपुट में पाक करने से क्षवमल की उिम
रक्त वर्ण की भस्म बन जाती है।
क्षवमल भस्म क
े गुर्-
 कमण यह वातक्षपिनाशक, वृष्य, श्रेष्ठ रसायन तथा गुर् में गुरू एवं क्षिग्ध होती है।
िोगघ्नता (Therapeutic use)-
 तीव्रज्वर, शोथ, पाण्ुरोग, प्रमेह, अशण, अरूक्षच, संग्रहर्ी, शूल, कामला, राजयक्ष्मा एवं
क्षवक्षवध अनुपान क
े अनुसार सवणरोग नाशक है।
क्षवमल भस्म मात्रा –
 1/2 से 2 ित्ती
अपक्व एवं अक्षवक्षध क्षवमल भस्म जन्य दोष-
 पाण्ु, प्रमेह, अरूक्षच, ज्वर, अशण आक्षद।
क्षवमल का सत्त्वपातन
"सटङ्कलक
ु चद्रावव मेषश्रृङ्ग् याश्च भस्मना। क्षपिो मूषोदिे क्षलि संशोष्य च क्षनरूध्य च।
षट्प्रस्थकोक्षकलवध्माणतो क्षवमलः सीस सक्षन्नभः ।। सत्त्वं मुन्चक्षत तद् युिो िसः स्यात्स िसायनः ।।“
(ि.ि. समु. 2/94-95)
क्षवमल में समान भाग टंकर् एवं मेषश्रृंगी भस्म क्षमलाकि लक
ु च स्विस की भावना देकि मदणन करें।
तत्पश्चात मूषा में लेप करक
े सुखाए। मूषा को बन्द कर 6 प्रस्थ (1 प्रस्थ= 768 ग्राम) कोयले की अक्षि द्वारा
तीव्र धमन करने पर सीसा क
े समान सत्त्व प्राप्त होता है,जो रसायन में श्रेष्ठ होता है।
क्षवमल क
े क
ु छ प्रमुख योग -
 ियक
े सरी रस
 रसेन्द्रचूडामक्षर् रस
 ियसंहार रस
 मदनसंजीवन रस
 नवरत्नराजमृङ्गाक रस
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  • 3. परिचय नाम  संस्क ृ त-माक्षिकम् (सुवर्ण माक्षिकम्, रजत माक्षिकम्)  क्षिन्दी-माक्षिक (सोनामाखी एवं रूपामाखी)  अंग्रेजी-Pyrite (Copper Pyrite and iron pyrite)  क्षव. गुरुत्व-5  काक्षिन्य-6  िा. सूत्र-Cu2S,Fe2S3
  • 4. परिचय एवं क्षनरूक्ति - 1.मधु क े सदृश वर्ण होने तथा अक्षि पर मोम की तरह जलने क े कारर् इसे माक्षिक कहते है। 2."ईषत्सुवर्ण साक्षित्यात्सुवर्ण गुर् साम्यतः। स्वर्णद् युक्षतमत्त्वाद्वा स्वर्णमाक्षिकमुच्यते।।" (ि.त. 21/2) स्वर्ण क े समान वर्ण (चमक) एवं स्वर्ण सदृश गुर् वाला तथा क ु छ क्षवद्वानों क े मत से इसमें क्षकन्चित स्वर्ण का अंश होने क े कारर् इसे 'स्वर्णमाक्षिक' कहते है।
  • 5. 3. भगवान क्षवष्णु की क ृ पा से सुमेि पवणत पि उत्पन्न स्वर्ण सदृश चमकदाि स्त्राव सूयण क े ताप से सुखकि बनने क े कािर् इसे ताप्य कहते है। तापी नदी, क्षकरात, चीन आक्षद देशों में क्षमलने क े कारर् इसे तापीज भी कहते है। 4. रजत क े अल्ांश रहने, रजत क े समान गुर् होने और रजत क े समान चमकदार होने क े कारर् इसे रजत माक्षिक भी कहते है।
  • 6. इक्षतिास  माक्षिक का ज्ञान भारतीयों को अक्षतप्राचीन काल से था चिक संक्षिता में माक्षिक को औषधीय रूप में प्रयोग क्षकया गया है। पौराक्षर्क कथानुसार, भगवान श्रीक ृ ष्ण क े क्षवद्धपाद तल से स्त्रक्षवत िि क्षबन्दु से माक्षिक की उत्पक्षि हुई है।
  • 7. पयाणय 1.सुवर्णमाक्षिक पयाणय – "सुवर्णमाक्षिक ं स्वर्णमाक्षिक ं िेममाक्षिकम्।मािीक ं माक्षिकैवव ताप्यै धातुमाक्षिकम् ।। माक्षिक धातुै तथा तापीजैाक्षप तन्मतम् ।।” (ि.त. 21/1-2) सुवर्णमाक्षिक, स्वर्णमाक्षिक, हेममाक्षिक, मािीक, ताप्य, धातुमाक्षिक एवं तापीज। 2. िजतमाक्षिक पयाणय – "िौप्यमाक्षिक माख्यातं तािजं तािमाक्षिकम् । क्षवमलं श्वेतमाक्षिक ं तथा िजतमाक्षिकम्।।” (ि.त. 21/55) रौप्यमाक्षिक, तारज, तारमाक्षिक, क्षवमल, श्वेतमाक्षिक एवं रजतमाक्षिक।
  • 8. प्राक्ति स्थान -  यह कान्यक ु ब्ज प्रदेश, तािी नदी, क्षकिातदेश, चीन, यवन देश (रसग्रन्ों क े आधार पर) तथा वतणमान में जापान, अमेरिका, स्पेन, पुतणगाल, इटली एवं नावे से प्राप्त होता है। इसक े अक्षतररक्त यह भारत में झािखण्ड (क्षसंिभूक्षम) एवं िाजस्थान (खेतडी) में प्रचुर मात्रा में क्षमलता है।
  • 9. माक्षिक भेद – यह दो प्रकार का होता है- 1.स्वर्णमाक्षिक-Copper pyrite (Cu2S, Fe2S3) 2. िौप्यमाक्षिक-Iron pyrite (Fe2S3)  वर्ण क े अनुसाि भेद- I. पीत वर्ण (Yellowish)-सुवर्ण माक्षिक-Copper Pyrite II. शुक्ल वर्ण (Whitish)-रौप्य माक्षिक-Iron Pyrite III. रक्त वर्ण (Greyish)-कांस्य माक्षिक-Arseno Pyrite  वर्ण क े अनुसार माक्षिक को आचायण यशोधरभट्ट ने नववर्णसुवर्णवत् एवं वाग्भट ने पन्चवर्णसुवर्णवत् माना है।
  • 10. आधुक्षनक दृक्षि से माक्षिक का वर्णन  स्वर्णमाक्षिक Copper pyrite or chalco pyrite होता है। इसका रासायक्षनक सूत्र Cu2S,Fe2S3 है।  इसका वर्ं स्वर्ण क े समान चमकीला होता है। यह भंगुर तथा मृदु होता है। इसे चाक ू से आसानी से काटा जा सकता है।  यह ताम्र, लौह एवं गन्धक का यौक्षगक होता है। इसक्षलए इस ताम्रगन्धायस भी कहते हैं। अच्छे खक्षनज में 20-35% तक ताम्न की मात्रा होती है।  यह नीली ज्वाला क े साथ जलता िव। जलने क े बाद शेष बचा हुआ भाग चुम्बक से पकडा जा सकता है। यह नाइक्षटि क एक्षसड में घुल जाता है।
  • 11.  िौप्यमाक्षिक Iron pyrite होता है। यह लौह एवं गन्धक का यौक्षगक है इसक्षलए इसे गन्धायस भी कहते हैं।।  यह चााँदी जैसा चमकता है।
  • 12. ग्राह्य सुवर्णमाक्षिक लिर्- "क्षिग्धं गुरूश्यामलकाक्ति क्षकक्तन्चत कषे सुवर्ण द् युक्षत सुप्रकाशम् । कोर्क्तितं स्वर्णसमान वर्ण स्वर्णमाक्षिकक्षमि प्रशस्तम्ः ।।"(ि.त. 21/4)  क्षिग्ध, भाि में गुरू, नीली काली चमकयुि तथा कसौटी पि क्षिसने पि क ु छ-क ु छ स्वर्ण जवसी िेखा खींचने बाला, कोर् िक्षित सोने सदृश वर्ण वाला स्वर्णमाक्षिक श्रेष्ठ होता है। इसक े क्षवपररत स्पशण में खर, अल्भार युक्त, कोर्युक्त तथा खर लौहे की आभा वाला स्वर्ण माक्षिक त्याज्य होता है। ग्राह्य िौप्यमाक्षिक लिर् – क्षिग्धं सकोर्ं गुरू च वतुणलं िजतोज्जवलम् । िौप्यवच्चाकक्षचक्याढयं जात्यं तद्रौप्यमाक्षिकम् ।।(ि.त. 21/57)  क्षिग्ध कोर्युि भािी, वतणल, िजत क े समान उज्जवल एवं चमकीला रौप्यमाक्षिक श्रेष्ठ होता है। इसक े क्षवपररत मलयुक्त, भार में लघु, रूि, कसौटी पर क्षघसने से मक्षलन रेखा खीचने वाला, लम्बे एवं क्षवषम खण्ों वाला एवं क्षववर्ण रौप्यमाक्षिक अग्राह्य होता है।
  • 13. माक्षिक शोधन की आवश्यकता - अशोक्षधतं वाऽमृतमप्यशुद्धं क्षनषेक्षवतं माक्षिकमक्षिबाधाम् । मन्दानलं क ु ष्ठ िलीमकादीन् कोष्ठाक्षनलं वव जनयेक्षन्नतािम् ।। (ि.त. 21/6)  अशुद्ध माक्षिक क े सेवन से नेत्रक्षवकार, मन्दाक्षि, क ु ष्ठ, हलीमक, कोष्ठ में वायु का प्रकोप, क्षनबणलता,क्षवष्टम्भ, गण्माला एवं व्रज आक्षद रोग उत्पन्न हो जाते है। अतः माक्षिक को शुद्ध करने क े बाद ही भस्म क्षकया जानाचाक्षहए।
  • 14. माक्षिक शोधन 1. प्रथम क्षवक्षध- "माक्षिकस्य त्रयोभाग भागेक ं सवन्धवस्य च। मातुलुङ्गद्रवववाऽथं जम्बीिोत्थ द्रववः पचेत् ।। लोिपात्रे पचेत्ता वल्लोिदव्ां च चालयेत्। ताम्नवर्ण मयो यावत् तावच्छु ध्यक्षत माक्षिक ं ।।"(ि.ज. क्षन. 2/1)  तीन भाग माक्षिक चूर्ण एवं एक भाग सैंधवलवर् को लौहपात्र में डालकर थोडा-थोडा मातुलंग या जम्बीिी नीबू स्विस डालकर तब तक भजणन करे, जब तक क्षक लोहे की कढाई का पेन्दा ताम्र सदृश रक्तवर्ण का न हो जाए। इस प्रकार माक्षिक शुद्ध हो जाता है। 2. क्षद्वतीय क्षवक्षध- "एिण्ड तेल लुङ्गाम्बुक्षसद्ध शुद्धयक्षत माक्षिकम्। क्षसद्धं वा कदलीकन्दतोयेन िक्षटकाद्वयं। तिं क्षििं विा क्याथे शुक्तद्धमायक्षत माक्षिकम् ।।"(ि.ि. समु. 2/78)  एिण्ड तवल एवं मातुलुंग नींबू स्विस या कदली कन्द स्विस में दोलायन्त्र क्षवक्षध से 2 घण्टे स्वेदन करने से माक्षिक शुद्ध हो जाता है। अथवा प्रतप्त माक्षिक चूर्ण को क्षत्रफला क्वाथ में बुझाने पि भी माक्षिक शुद्ध हो जाता है।
  • 15. माक्षिक मािर् 1. प्रथम क्षवक्षध- मातुलुङ्गाम्बुगन्धाभ्ां क्षपिं मूषोदिे क्तस्थतम्। पन्चक्रोडपुटवदणग्धं क्षम्रयते माक्षिक ं खलु ।।(ि.ि. समु. 2/79) माक्षिक में समान भाग गन्धक क्षमलाकि मातुलुंग नींबू स्विस की भावना देकर क्षपक्षष्ट बनाकर सुखा ले। क्षिर इसे मूषा में रखकर पााँच बार वाराहपुट में पकाने से माक्षिक की भस्म बन जाती है। 2. क्षद्वतीय क्षवक्षध- "एिण्ड िेि गव्ाज्यवमाणतुलुङ्ग िसेन वा। खपणिस्थं दृढं पक्व ं जायते धातु सक्षन्नभम्।। एवं मृतं िसे योज्यं िसायनक्षवधावक्षप।।"(ि.ि. समु. 2/80) एिण्डिेि, गोिृत अथवा मातृलुंग नींबू स्विस में माक्षिक को भली-भााँक्षत मदणन किक े खपणर में रखकर तीव्र अक्षम पर पाक करने से माक्षिक की स्वर्णगैररक सदृश रक्तवर्ण की उिम भस्म बन जाती है।
  • 16. 3.तृतीय क्षवक्षध- "ताप्यं क्षनब्वमल सम्पक्व ं पुनक्षनणम्बूकवारिर्ा । सम्पेष्यं सम्पुटस्थिु पुटयेत क ृ तचक्षक्रकाम ।। एवं दशपुटविेव पन्चतामेक्षत माक्षिकम्। ििोत्पल दलच्छायं जायते चाक्षतशोभनम् ।।“ (ि.त. 21/19-20)  नींबू स्विस में शोक्षधत शुद्ध स्वर्णमाक्षिक को पुन: नींबू स्विस में िोंटकि क्षटक्षकया बनाकि सुखाए। क्षिर शराव सम्पुट में बन्दकर पुट में पाक करें। इस प्रकार 10 पुट देने पर स्वर्णमाक्षिक की रक्तकमलवत उिम भस्म बन जाती है। क्षवशेष कथन-  िजतमाक्षिक का मािर्ाक्षद सुवर्णमाक्षिक की तिि क्षकया जाना चाक्षिए।
  • 17. माक्षिक भस्म क े गुर्-कमण  स्वर्णमाक्षिक भस्म रस में क्षति-मधुि गुर् में लिु, वीयण में शीत एवं क्षवपाक में कटु होती है।  रजत माक्षिक भस्म रस में अम्ल एवं क्षक ं क्षचत कषाय मधुि, गुर् में लिु, बीयण में शीत तथा क्षवपाक में कटु होती है।  माक्षिक भस्म वृद्धावस्था, िोग एवं क्षवष प्रभावनाशक तथा वृष्य होती है। यह पारद क े वीयोत्कषण में सहयोगी होने से पारद का प्रार्(प्रार्ो िसेन्द्रस्य) है। यह सरलता से ना क्षमलने बाली दो धातुओं को क्षमलाने वाला (दुमेललोिद्वयमेलनश्च) समूह गुर्युक्त एवं रसायनों में श्रेष्ठ है (सवणिसायनाग्रयः)। यह क्षत्रदोषहर एवं सवणरोगनाशक एवं योगवाही होती है।  ।
  • 18. िोगघ्नता (Therapeutic use)-  प्रमेह, क ु ष्ठ, अशण, क ृ क्षम, उदररोग, हृदयरोग, कण्ठरोग, बन्चिरोग, पाण्ु, शोथ, कण्ु, क्षवषरोग, जीर्णज्वर, अपस्मार, मन्दाक्षि, अरुक्षच, अक्षनद्रा आक्षद। माक्षिक भस्म मात्रा-  1/2 से 2 ित्ती अनुपान-  क्षत्रिला, क्षत्रकटु, क्षवडंग, घृत तथा शहद। अपक्व एवं अक्षवक्षध माक्षिक भस्म सेवन जन्य दोष –  नेत्र क्षवकार, मन्दाक्षि, क ु ष्ठ, हलीमक, क्षनबणलता, क्षवष्टम्भ, गण्माला, व्रर् आक्षद। अपक्व एवं अक्षवक्षध भस्म सेवनजन्य दोष शमनोपाय –  इन क्षवकारों की शान्चि क े क्षलए क ु लत्थ क्वाथ एवं दाक्षडमत्वक क्वाथ पीना चाक्षहए।
  • 19. स्वर्णमाक्षिक सत्त्वपातन "पादांशटङ्कर्ोपेतं मक्षदणतं िेममाक्षिकम् । ध्मातं मूषागतं सत्त्वं मुन्चत्याशु सुक्षनक्षश्चम् ।।“ (ि.त. 21/46)  सुवर्णमाक्षिक में चतुथांश भांग टंकर् क्षमलाकि नींबू स्विस से मदणन कर सुखाए।  तत्पश्चात् मूषा में रखकर तीव्राक्षि में धमन करने पर माक्षिक का सत्त्व क्षनकल जाता है।
  • 20. सुवर्णमाक्षिक भस्म क े क ु छ प्रमुख योग  ग्रहर्ीकपाट रस  जयमंगल रस  चन्द्रप्रभा वटी  प्रभाकर वटी  सवेश्वर पपणटी  रत्नगभण पोटली
  • 22. नाम- क्षिन्दी – क्षवमल संस्क ृ त – क्षवमल अंग्रेजी - Iron pyrite/Fool's gold काक्षिन्य - 6 to 6.5 क्षव. गुरुत्व – 5 to 5.2 िा. सू. – Fe2S3/FeS2
  • 23. परिचय एवं उपक्तस्थक्षत -  रसतरंक्षगनी ने क्षवमल व रजत (रौप्य) माक्षिक को एक माना है।विुतः दोनों पृथक खक्षनज है। रौप्यमाक्षिक में ताम्र की अत्यल् मात्रा होती है तथा थोडी मात्रा में आसेक्षनक पाया जाता है क्षकिु क्षवमल में ताम्र नहीं होता, इसमें क े वल लौह एवं गन्धक ही होते है। (R.R.S.)
  • 24.  यह धात्वीय आभा वाला, मक्षलन पीतवर्ण का एक खक्षनज द्रव्य है।  यह बडे-बडे क्षनयत आकार क े दानों क े रूप में प्राप्त होता है। इसक े दानों का आकार छः अथवा आठ पहलुओं से युक्त होता है।  इसमें लोहे क े एक परमार्ु क े साथ गन्धक क े दो परमार्ु संयुक्त होते है, अतः इसे क्षद्वगन्धायस (FeS2 - Bisulphide of Iron) भी कहते हैं।  तेज आग पर गमण करते समय इससे गन्धक की सी गन्ध पैदा होती है। इसे Cubic sulphide of Iron भी कहते है।
  • 25. इक्षतिास- सवणप्रथम िसार्णव नामक ग्रन्थ में इसका उल्लेख क्षमलता है इसका तात्पयण यह है क्षक इस ग्रन् से पहले इसका वार्णन नहीं क्षमलता। आयुवेदीय संक्षहताओं में भी क्षवमल का कोई वर्णन नहीं क्षमलता। प्राक्ति स्थान – रसग्रन्ों क े आधार पर तािी नदी क े क्षनकट क े पवणतों से क्षवमल की उत्पक्षि बताई गई है। वतणमान में यह असम, उडीसा, बंगाल, क्षबिाि, आन्धप्रदेश एवं तक्षमलनाडु आक्षद राज्यों से प्राप्त होता है।
  • 26. क्षवमल क े भेद - “क्षवमलक्षत्रक्षवधः प्रोिो िेमाद्यास्तािपूवणकः । तृतीय कांस्य क्षवमलस्तत्तत् कान्त्या स लक्ष्यते।।“ (ि.ि. समु. 2/89) “पूवो िेमक्षक्रया सुिो क्षद्वतीयों रूप्यक ृ न्मतः । तृतीयो भेषजे तेषु पूवणपूवो गुर्ोतिः ।।” (ि० ि० समु० 2/91)  क्षवमल क े तीन भेद होते है – 1. िेमक्षवमल - पीतवर्ण का हेमक्षिया हेतु सबसे उिम (श्रेष्ठतम्) 2. िौप्यक्षवमल - श्वेत वर्ण का रजत कमण क े क्षलए (श्रेष्ठतर) 3. कांस्य क्षवमल - कांस्य वर्ण का औषक्षध कायण हेतु (श्रेष्ठ)
  • 27. क्षवमल ग्राह्य लिर् – "वतुणलः कोर्संयुिः क्षिग्धश्च फलकाक्तितः। मरूक्तत्पत्तििों वृष्यो क्षवमलोऽक्षत िसायनः ।।“ (ि.ि. समु. 2/90) 1. वतुणलकार, क्षिग्ध, कोर् तथा िलक्युक्त क्षवमल श्रेष्ठ होता है। 2. यह वातक्षपिनाशक, वृष्य एवं रसायन में श्रेष्ठ होता है। 3. इसक े क्षवपररत गुर्ों वाला क्षवमल अग्राह्य होता है। क्षवमल का शोधन – "आटरूष जले क्तस्वन्त्रो क्षवमलो क्षवमलो भवेत। जम्बीि स्विसे क्तस्वन्नो मेषश्रृङ्गी िसेऽथवा ।। आयाक्षत शुक्तद्ध क्षवमलो धातवश्च यथाऽपिे।।“ (ि.ि. समु. 2/90) क्षवमल क े छोटे-छोटे टुकडे करक े वासा स्वरस या क्वाय जम्बीरी नींबू स्वरस , मेषश्रृंगी स्वरस में से क्षकसी भी एक द्रव में दोलायन्त्र क्षवक्षध द्वारा स्वेदन करने से क्षवमल शुद्ध हो जाता है।
  • 28. क्षवमल का मािर् – "गन्धाश्मलक ु चाम्लवश्च क्षप्रयते दशक्षभः पुटवः।।" (ि.ि. समु. 2/93)  शुद्ध क्षवमल क े वस्त्रगाक्षलत चूर्ण में समानमात्रा शुद्ध गन्धक क्षमलाकि लक ू च स्विस की भावना देकि चक्षक्रका बनाकि शराब सम्पुट में बन्द करक े 10 गजपुट में पाक करने से क्षवमल की उिम रक्त वर्ण की भस्म बन जाती है। क्षवमल भस्म क े गुर्-  कमण यह वातक्षपिनाशक, वृष्य, श्रेष्ठ रसायन तथा गुर् में गुरू एवं क्षिग्ध होती है।
  • 29. िोगघ्नता (Therapeutic use)-  तीव्रज्वर, शोथ, पाण्ुरोग, प्रमेह, अशण, अरूक्षच, संग्रहर्ी, शूल, कामला, राजयक्ष्मा एवं क्षवक्षवध अनुपान क े अनुसार सवणरोग नाशक है। क्षवमल भस्म मात्रा –  1/2 से 2 ित्ती अपक्व एवं अक्षवक्षध क्षवमल भस्म जन्य दोष-  पाण्ु, प्रमेह, अरूक्षच, ज्वर, अशण आक्षद।
  • 30. क्षवमल का सत्त्वपातन "सटङ्कलक ु चद्रावव मेषश्रृङ्ग् याश्च भस्मना। क्षपिो मूषोदिे क्षलि संशोष्य च क्षनरूध्य च। षट्प्रस्थकोक्षकलवध्माणतो क्षवमलः सीस सक्षन्नभः ।। सत्त्वं मुन्चक्षत तद् युिो िसः स्यात्स िसायनः ।।“ (ि.ि. समु. 2/94-95) क्षवमल में समान भाग टंकर् एवं मेषश्रृंगी भस्म क्षमलाकि लक ु च स्विस की भावना देकि मदणन करें। तत्पश्चात मूषा में लेप करक े सुखाए। मूषा को बन्द कर 6 प्रस्थ (1 प्रस्थ= 768 ग्राम) कोयले की अक्षि द्वारा तीव्र धमन करने पर सीसा क े समान सत्त्व प्राप्त होता है,जो रसायन में श्रेष्ठ होता है।
  • 31. क्षवमल क े क ु छ प्रमुख योग -  ियक े सरी रस  रसेन्द्रचूडामक्षर् रस  ियसंहार रस  मदनसंजीवन रस  नवरत्नराजमृङ्गाक रस