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महामारी के रप
एक फू ल की चाह

िसयारामशरण गुप
पाठ पवेश
‘ एक फू ल की चाह ’ छु आछू त की समसया से संबंिधत किवता है। महामारी के दौरान
एक अछू त बािलका उसकी चपेट मे आ जाती है। वह अपने जीवन की अंितम साँसे ले रही
है। वह अपने माता- िपता से कहती है िक वे उसे देवी के पसाद का एक फू ल लाकर दे ।
िपता असमंजस मे है िक वह मंिदर मे कै से जाए। मंिदर के पुजारी उसे अछू त समझते है
और मंिदर मे पवेश के योगय नही समझते। िफर भी बची का िपता अपनी बची की अंितम
इचछा पूरी करने के िलए मंिदर मे जाता है। वह दीप और पुषप अिपत करता है और फू ल
लेकर लौटने लगता है। बची के पास जने की जलदी मे वह पुजारी से पसाद लेना भूल
जाता है। इससे लोग उसे पहचान जाते है। वे उस पर आरोप लगाते है िक उसने वषो से
बनाई हई मंिदर की पिवतता नष कर दी। वह कहता है िक उनकी देवी की मिहमा के
सामने उनका कलुष कु छ भी नही है। परं तु मंिदर के पुजारी तथा अनय लोग उसे थपपड़-
मुको से पीट-पीटकर बाहर कर देते है। इसी मार-पीट मे देवीक ाा फू ल भी उसके हाथो
से छू त जाता है। भकजन उसे नयायालय ले जाते है। नयायालय उसे सात िदन की सज़ा
सुनाता है। सात िदन के बाद वह बाहर आता है , तब उसे अपनी बेटी की ज़गह उसकी
राख िमलती है।
          इस पकार वह बेचारा अछू त होने के कारण अपनी मरणासन बेटी की अंितम
इचछा पूरी नही कर पाता। इस मािमक पसंग को उठाकर किव पाठको को यह कहना
चाहता है िक छु आछू त की कु पथा मानव-जाित पर कलंक है। यह मानवता के पित
अपराध है।
उद‍वेिलत कर अशु – रािशयाँ ,   किव महामारी की भयंकरता का िचतण करता हआ कहता है िक –
हदय – िचताएँ धधकाकर ,         चारो ओर एक भयंकर महामारी फै ल गई थी। उसके कारण पीिडत
महा महामारी पचंड हो           लोगो की आँखो मे आँसुओ की झिड़याँ उमड़ आई थी। उनके हदय
फै ल रही थी इधर-उधर।          िचताओ की भाँित धधक उठे थे। सब लोग दुख के मारे बेचन थे। अपने
                                                                                ै
कीण – कं ठ मृतवतसाओ का        बचो को मॄत देखकर माताओ के कं ठ से अतयंत दुबरल सवर मे करण
करण रदन दुदारत िनतांत ,       रदन िनकल रहा था। वातावरण बहत हदय िवदारक था। सब ओर
                              अतयिधक वाकु ल कर देने वाला हाहाकार मचा हआ था। माताएँ दुबरल
भरे हए था िनज कृ श रव मे
                              सवर मे रदन मचा रही थी।
हाहाकार अपार अशांत।
बहत रोकता था सुिखया को ,   सुिखया का िपता कहता है – मै अपनी बेटी सुिखया को बाहर जाकर
‘ न जा खेलने को बाहर ’ ,   खेलने से मना करता था। मै बार-बार कहता था – ‘ बेटी , बाहर खेलने
नही खेलना रकता उसका        मत जा।’ परं तु वह बहत चंचल और हठीली थी। उसका खेलना नही
नही ठहरती वह पल भर ।       रकता था। वह पल भर के िलए भी घर मे नही रकती थी। मै उसकी
मेरा हदय काँप उठता था ,    इस चंचलता को देखकर भयभीत हो उठता था। मेरा िदल काँप उठता
बाहर गई िनहार उसे ;        था। मै मन मे हमेशा यही कामना करता था िक िकसी तरह अपनी बेटी
यही मनाता था िक बचा लूँ    सुिखया को महामारी की चपेट मे आने से बचा लूँ।
िकसी भाँित इस बार उसे।
भीतर जो डर था िछपाए ,
हाय! वही बाहर आया।
एक िदवस सुिखया के तनु को
ताप – तप उसने पाया।
जवर मे िवहवल हो बोली वह ,
कया जानूँ िकस दर से दर ,
मुझको देवी के पसाद का
एक फू ल ही दो लाकर।
                    सुिखया का िपता कहता है - अफ़सोस ! मेरे मन मे यही
                    डर था िक कही मेरी िबिटया सुिखया को यह महामारी
                    न लग जाए। मई इसीसे डर रहा था। वह डर आिखकार
                    सच हो गया। एक िदन मैने देखा िक सुिखया का शरीर
                    बीमीरी के कारण जल रहा है। वह बुखार से पीिड़त
                    होकर और न जाने िकस अनजाने भय से भयभीत
                    होकर मुझसे कहने लगी – िपताजी ! मुझे माँ भगवती
                    के मंिदर के पसाद का एक फू ल लाकर दो।
कमश: कं ठ कीण हो आया ,
िशिथल हए अवयव सारे ,
बैठा था नव-नव उपाय की
िचता मे मै मनमारे ।
जान सका न पभात सजग से
हई अलस कब दोपहरी ,
सवणर – घनो मे कब रिव डू बा ,
कब आई संधया गहरी।              सुिखया का िपता महामारी से गसत सुिखया की
                               बीमारी बढ़ने का वणरन करता हआ कहता िक
                               धीरे -धीरे महामारी का पभाव बढ़ने लगा।
                               सुिखया का गला घुटने लगा। आवाज़ मंद होने
                               लगी। शरीर के सारे अंग ढीले पड़ने लगे। मै
                               िचता मे डू बा हआ िनराश मन से उसे ठीक
                               करने के नए-नए उपाय सोचने लगा। इस िचता
                               मे मै इतना डू ब गया िक मुझे पता ही नही चल
                               सका िक कब पात:काल की हलचल समाप हई
                               और आलसय भरी दोपहरी आ गई। कब सूरज
                               सुनहरे बादलो मे डू ब गया और कब गहरी
                               साँझ हो गई।
सभी ओर िदखलाई दी बस ,     सुिखया का िपता कहता है िक सुिखया की बीमारी के कारण
अंधकार की ही छाया ,       मेरे मन मे ऐसी घोर िनराशा छा गई िक मुझे चारो ओर अंधेरे
छोटी – सी बची को गसने     की ही छाया िदखाई देने लगी
िकतना बड़ा ितिमर आया !      मुझे लगा िक मेरी ननही – सी बेटी को िनगलने के िलए इतना
ऊपर िवसतृत महाकाश मे      बड़ा अँधेरा चला आ रहा है। िजस पकार खुले आकाश मे जलते
जलते – से अंगारो से,      हए अंगारो के समान तारे जगमगाते रहते है , उसी भाँित
झुलसी – सी जाती थी आँखे   सुिखया की आँखे जवर के कारण जली जाती थी। वह बेहद  े
जगमग जगते तारो से।        बीमीर थी।
देख रहा था – जो सुिसथर हो
नही बैठती थी कण - भर ,
हाय ! वही चुपचाप पड़ी थी
अटल शांित – सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मै
उसे सवयं ही उकसाकर –
मुझको देवी के पसाद का
एक फू ल ही दो लाकर !
जैसे शैल - िशखर के ऊपर       ऊचे पवरत की चोटी के ऊपर एक िवसतॄत और िवशाल मंिदर
                              ँ
मंिदर था िवसतीणर िवशाल ;     खड़ा था। उसका कलश सवणर से बना था। उस पर सूरज की
सवणर – कलश सरिसज िवहिसत थे   िकरणे सुशोिभत हो रही थी। िकरणो से जगमगाता हआ
पाकर समुिदत रिव-कर-जाल।      कलश ऐसा िखला-िखला पतीत होता था जैसे िक रिशमयो
दीप-धूप से आमोिदत था।        को पाकर कमल का फू ल िखल उठा हो। मंिदर का सारा
मंिदर का आँगन सारा ;         आँगन दीपो की रोशनी और धूप की सुगंध से महक रहा था।
गूज रही थी भीतर-बाहर
  ँ                          मंिदर के अंदर और बाहर – सब ओर उतसव जैसा
मुखिरत उतसव की धारा।         उललासमय वातावरण था।
भक-वृंद मृद ु - मधुर कं ठ से   मंिदर मे भको की टोली बड़ी मधुर और कोमल
गाते थे सभिक मुद – मय , -      आवाज़ मे आनंद और भिक से भरा हआ यह
‘पितत–तािरणी पाप–हािरणी ,      जयगान गा रही थी – ‘ हे पिततो का उद‍धार करने
माता ,तेरी जय–जय – जय ’ –      वाली देवी ! हे पापो को नष करने वाली देवी ! हम
मेरे मुख से भी िनकला ,         तेरी जय-जयकार करते है। ’ सुिखया के िपता के
िबना बढ़े ही मै आगे को          मुँह से भी जयगान िनकल पड़ा। उसने दोहराया – ‘
जाने िकस बल से िढकला !         हे पिततो का उद‍धार करने वाली देवी , तुमहारी
                               जय हो। ’ यह कहने के साथ ही न जाने उसमे कौन-
                               सी शिक आ गई , िजसने उसे ठे लकर पुजारी के
                               सामने खड़ा कर िदया। वह अनायास ही पूजा –
                               सथल के सामने पहँच गया।
मेरे दीप – फू ल लेकर वे
अंबा को अिपत करके
िदया पुजारी ने पसाद जब
आगे को अंजिल भर के ,
भूल गया उसका लेना झट ,
परम लाभ –सा पाकर मै।
सोचा – बेटी को माँ के ये
पुणय – पुषप दूँ जाकर मै।
िसह पौर तक भी आँगन से          सुिखया का िपता देवी के मंिदर मे फू ल लेने के िलए जाता है
नही पहँचने मै पाया ,           तो पहचान िलया जाता है। तब वह अपनी आपबीती सुनाते
सहसा यह सुन पड़ा िक – “ कै से   हए कहता है – मै पूजा करके मंिदर के मुखय दार तक भी न
यह अछू त भीतर आया ?            पहँचा था िक अचानक मुझे यह सवर सुनाई पड़ा – ‘ यह
पकड़ो , देखो भाग न पावे ,       अछू त मंिदर के अंदर कै से आया ? इसे पकड़ो। सावधान रहो।
बना धूतर यह है कै सा ;         कही यह दुष भाग न जाए। यह कै सा ठग है ! ऊपर से साफ़-
साफ़ – सवचछ पिरधान िकए है ,     सुथरे कपड़े पहनकर भले आदिमयो जैसा रप बनाए हए है।
भले मानुषो के जैसा !           परं तु है महापापी और नीच। इस पारी ने मंिदर मे घुसकर
पापी ने मंिदर मे घुसकर         बहत बड़ा पाप कर िदया है।इसने इतने लंबे समय से बनाई
िकया अनथर बड़ा भारी ;           गई मंिदर की पिवतता को नष कर िदया है। इसके पवेश से
कलुिषत कर दी है मंिदर की       मंिदर अपिवत हो गया है।
िचरकािलक शुिचता सारी।”
ऐ , कया मेरा कलुष बड़ा है   सुिखया का िपता मंिदर मे पूजा का फू ल लेने गए तो भको ने उनहे
देवी की गिरमा से भी ;      अछू त कहकर पकड़ िलया । तब सुिखया के िपता उन भको से बोले
                           – यह तुम कया कहते हो ! मेरे मंिदर मे आने से देवी का मंिदर कै से
िकसी बात मे हँ मै आगे      अपिवत हो गया ? कया मेरे पाप तुमहारे देवी की मिहमा से भी
माता की मिहमा के भी ?      बढ़कर है? कया मेरे मैल मे तुमहारी देवी के गौरव को नष करने की
माँ के भक हए तुम कै से ,   शिक है ? कया मै िकसी बात मे तुमहारे देवी से भी बढ़कर हँ ? नही
करके यह िवचार खोटा ?       , यह संभव नही है। अरे दुष ! तुम ऐसा तुचछ िवचार करके भी
माँ के सममुख ही माँ का     अपने आप को माँ के भक कहते हो।तुमहे लजा आनी चािहए। तुम
                           माँ की मूित के सामने ही माँ के गौरव को नष कर रहे हो। माँ कभी
तुम                        छू त-अछू त नही मानती। वह तो सबकी माँ है।
गौरव करते हो छोटा !
कु छ न सुना भको ने , झट से   सुिखया का िपता अपनी बेटी की अंितम इचछा पूरी करने के िलए
मुझे घेरकर पकड़ िलया ;        मंिदर मे पूजा का फू ल लेने पहँचा तो भको ने उसे अछू त कहकर
मार-मारकर मुके – घूँसे       पकड़ िलया। उसने उनसे पश पूछा िक कया उसका कलुष देवी माँ
धम – से नीचे िगरा िदया !     की मिहमा से भी बढ़कर है। इसके बाद सुिखया का िपता अपनी
मेरे हाथो से पसाद भी         आपबीती सुनते हए कहता है – देवी के उन भको ने मेरी बातो
िबखर गया हा ! सबका सब ,      पर धयान नही िदया। उनहोने तुरंत मुझे चारो ओर से घेरकर पकड़
हाय ! अभागी बेटी तुझ तक      िलया। िफर उनहोने मुझे मुके – घूँसे मार – मारकर नीचे िगरा
कै से पहँच सके यह अब।        िदया। उस मारपीट मे मेरे हाथो से देवी माँ का पसाद भी िबखर
                             गया। मै अपनी बेटी को याद करने लगा – हाय ! अभागी बेटी !
                             देवी का यह पसाद तुझ तक कै से पहँचाऊ। तू िकतनी अभागी है।
                                                                   ँ
नयायालय ले गए मुझे वे ,
सात िदवस का दंद – िवधान
मुझको हआ ; हआ था मुझसे
देवी का महान अपमान !
मैने सवीकृ त िकया दंड वह
शीश झुकाकर चुप ही रह ;
उस असीम अिभयोग दोष का
कया उतर देता , कया कह ?
सात रोज़ ही रहा जेल मे
या िक वहाँ सिदयाँ बीती ,
अिवशांत बरसा करके भी
आँखे तिनक नही रीती।
दंड भोगकर जब मै छू टा ,
पैर न उठते थे घर को ;
पीछे ठे ल रहा था कोई
भय – जजरर तनु पंजर को।
पहले की – सी लेने मुझको
नही दौड़कर आई वह ;
उलझी हई खेल मे ही हा !
अबकी दी न िदखाई वह।
उसे देखने मरघट को ही
गया दौड़ता हआ वहाँ ,
मेरे पिरिचत बंधु पथम ही
फूँ क चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी िचता वहाँ पर
छाती धधक उठी मेरी ,
हाय ! फू ल – सी कोमल बची
हई राख की थी ढेरी !
अंितम बार गोद मे बेटी ,
तुझको ले न सका मै हा !
एक फू ल माँ का पसाद भी
तुझको दे न सका मै हा !
पसतुित

आकाश चौधरी ,
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अंिकत , आकाश
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jishl                धनयवाद !

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Ek fool ki chaah 9

  • 2. एक फू ल की चाह िसयारामशरण गुप
  • 3. पाठ पवेश ‘ एक फू ल की चाह ’ छु आछू त की समसया से संबंिधत किवता है। महामारी के दौरान एक अछू त बािलका उसकी चपेट मे आ जाती है। वह अपने जीवन की अंितम साँसे ले रही है। वह अपने माता- िपता से कहती है िक वे उसे देवी के पसाद का एक फू ल लाकर दे । िपता असमंजस मे है िक वह मंिदर मे कै से जाए। मंिदर के पुजारी उसे अछू त समझते है और मंिदर मे पवेश के योगय नही समझते। िफर भी बची का िपता अपनी बची की अंितम इचछा पूरी करने के िलए मंिदर मे जाता है। वह दीप और पुषप अिपत करता है और फू ल लेकर लौटने लगता है। बची के पास जने की जलदी मे वह पुजारी से पसाद लेना भूल जाता है। इससे लोग उसे पहचान जाते है। वे उस पर आरोप लगाते है िक उसने वषो से बनाई हई मंिदर की पिवतता नष कर दी। वह कहता है िक उनकी देवी की मिहमा के सामने उनका कलुष कु छ भी नही है। परं तु मंिदर के पुजारी तथा अनय लोग उसे थपपड़- मुको से पीट-पीटकर बाहर कर देते है। इसी मार-पीट मे देवीक ाा फू ल भी उसके हाथो से छू त जाता है। भकजन उसे नयायालय ले जाते है। नयायालय उसे सात िदन की सज़ा सुनाता है। सात िदन के बाद वह बाहर आता है , तब उसे अपनी बेटी की ज़गह उसकी राख िमलती है। इस पकार वह बेचारा अछू त होने के कारण अपनी मरणासन बेटी की अंितम इचछा पूरी नही कर पाता। इस मािमक पसंग को उठाकर किव पाठको को यह कहना चाहता है िक छु आछू त की कु पथा मानव-जाित पर कलंक है। यह मानवता के पित अपराध है।
  • 4.
  • 5. उद‍वेिलत कर अशु – रािशयाँ , किव महामारी की भयंकरता का िचतण करता हआ कहता है िक – हदय – िचताएँ धधकाकर , चारो ओर एक भयंकर महामारी फै ल गई थी। उसके कारण पीिडत महा महामारी पचंड हो लोगो की आँखो मे आँसुओ की झिड़याँ उमड़ आई थी। उनके हदय फै ल रही थी इधर-उधर। िचताओ की भाँित धधक उठे थे। सब लोग दुख के मारे बेचन थे। अपने ै कीण – कं ठ मृतवतसाओ का बचो को मॄत देखकर माताओ के कं ठ से अतयंत दुबरल सवर मे करण करण रदन दुदारत िनतांत , रदन िनकल रहा था। वातावरण बहत हदय िवदारक था। सब ओर अतयिधक वाकु ल कर देने वाला हाहाकार मचा हआ था। माताएँ दुबरल भरे हए था िनज कृ श रव मे सवर मे रदन मचा रही थी। हाहाकार अपार अशांत।
  • 6. बहत रोकता था सुिखया को , सुिखया का िपता कहता है – मै अपनी बेटी सुिखया को बाहर जाकर ‘ न जा खेलने को बाहर ’ , खेलने से मना करता था। मै बार-बार कहता था – ‘ बेटी , बाहर खेलने नही खेलना रकता उसका मत जा।’ परं तु वह बहत चंचल और हठीली थी। उसका खेलना नही नही ठहरती वह पल भर । रकता था। वह पल भर के िलए भी घर मे नही रकती थी। मै उसकी मेरा हदय काँप उठता था , इस चंचलता को देखकर भयभीत हो उठता था। मेरा िदल काँप उठता बाहर गई िनहार उसे ; था। मै मन मे हमेशा यही कामना करता था िक िकसी तरह अपनी बेटी यही मनाता था िक बचा लूँ सुिखया को महामारी की चपेट मे आने से बचा लूँ। िकसी भाँित इस बार उसे।
  • 7. भीतर जो डर था िछपाए , हाय! वही बाहर आया। एक िदवस सुिखया के तनु को ताप – तप उसने पाया। जवर मे िवहवल हो बोली वह , कया जानूँ िकस दर से दर , मुझको देवी के पसाद का एक फू ल ही दो लाकर। सुिखया का िपता कहता है - अफ़सोस ! मेरे मन मे यही डर था िक कही मेरी िबिटया सुिखया को यह महामारी न लग जाए। मई इसीसे डर रहा था। वह डर आिखकार सच हो गया। एक िदन मैने देखा िक सुिखया का शरीर बीमीरी के कारण जल रहा है। वह बुखार से पीिड़त होकर और न जाने िकस अनजाने भय से भयभीत होकर मुझसे कहने लगी – िपताजी ! मुझे माँ भगवती के मंिदर के पसाद का एक फू ल लाकर दो।
  • 8. कमश: कं ठ कीण हो आया , िशिथल हए अवयव सारे , बैठा था नव-नव उपाय की िचता मे मै मनमारे । जान सका न पभात सजग से हई अलस कब दोपहरी , सवणर – घनो मे कब रिव डू बा , कब आई संधया गहरी। सुिखया का िपता महामारी से गसत सुिखया की बीमारी बढ़ने का वणरन करता हआ कहता िक धीरे -धीरे महामारी का पभाव बढ़ने लगा। सुिखया का गला घुटने लगा। आवाज़ मंद होने लगी। शरीर के सारे अंग ढीले पड़ने लगे। मै िचता मे डू बा हआ िनराश मन से उसे ठीक करने के नए-नए उपाय सोचने लगा। इस िचता मे मै इतना डू ब गया िक मुझे पता ही नही चल सका िक कब पात:काल की हलचल समाप हई और आलसय भरी दोपहरी आ गई। कब सूरज सुनहरे बादलो मे डू ब गया और कब गहरी साँझ हो गई।
  • 9. सभी ओर िदखलाई दी बस , सुिखया का िपता कहता है िक सुिखया की बीमारी के कारण अंधकार की ही छाया , मेरे मन मे ऐसी घोर िनराशा छा गई िक मुझे चारो ओर अंधेरे छोटी – सी बची को गसने की ही छाया िदखाई देने लगी िकतना बड़ा ितिमर आया ! मुझे लगा िक मेरी ननही – सी बेटी को िनगलने के िलए इतना ऊपर िवसतृत महाकाश मे बड़ा अँधेरा चला आ रहा है। िजस पकार खुले आकाश मे जलते जलते – से अंगारो से, हए अंगारो के समान तारे जगमगाते रहते है , उसी भाँित झुलसी – सी जाती थी आँखे सुिखया की आँखे जवर के कारण जली जाती थी। वह बेहद े जगमग जगते तारो से। बीमीर थी।
  • 10. देख रहा था – जो सुिसथर हो नही बैठती थी कण - भर , हाय ! वही चुपचाप पड़ी थी अटल शांित – सी धारण कर। सुनना वही चाहता था मै उसे सवयं ही उकसाकर – मुझको देवी के पसाद का एक फू ल ही दो लाकर !
  • 11. जैसे शैल - िशखर के ऊपर ऊचे पवरत की चोटी के ऊपर एक िवसतॄत और िवशाल मंिदर ँ मंिदर था िवसतीणर िवशाल ; खड़ा था। उसका कलश सवणर से बना था। उस पर सूरज की सवणर – कलश सरिसज िवहिसत थे िकरणे सुशोिभत हो रही थी। िकरणो से जगमगाता हआ पाकर समुिदत रिव-कर-जाल। कलश ऐसा िखला-िखला पतीत होता था जैसे िक रिशमयो दीप-धूप से आमोिदत था। को पाकर कमल का फू ल िखल उठा हो। मंिदर का सारा मंिदर का आँगन सारा ; आँगन दीपो की रोशनी और धूप की सुगंध से महक रहा था। गूज रही थी भीतर-बाहर ँ मंिदर के अंदर और बाहर – सब ओर उतसव जैसा मुखिरत उतसव की धारा। उललासमय वातावरण था।
  • 12. भक-वृंद मृद ु - मधुर कं ठ से मंिदर मे भको की टोली बड़ी मधुर और कोमल गाते थे सभिक मुद – मय , - आवाज़ मे आनंद और भिक से भरा हआ यह ‘पितत–तािरणी पाप–हािरणी , जयगान गा रही थी – ‘ हे पिततो का उद‍धार करने माता ,तेरी जय–जय – जय ’ – वाली देवी ! हे पापो को नष करने वाली देवी ! हम मेरे मुख से भी िनकला , तेरी जय-जयकार करते है। ’ सुिखया के िपता के िबना बढ़े ही मै आगे को मुँह से भी जयगान िनकल पड़ा। उसने दोहराया – ‘ जाने िकस बल से िढकला ! हे पिततो का उद‍धार करने वाली देवी , तुमहारी जय हो। ’ यह कहने के साथ ही न जाने उसमे कौन- सी शिक आ गई , िजसने उसे ठे लकर पुजारी के सामने खड़ा कर िदया। वह अनायास ही पूजा – सथल के सामने पहँच गया।
  • 13. मेरे दीप – फू ल लेकर वे अंबा को अिपत करके िदया पुजारी ने पसाद जब आगे को अंजिल भर के , भूल गया उसका लेना झट , परम लाभ –सा पाकर मै। सोचा – बेटी को माँ के ये पुणय – पुषप दूँ जाकर मै।
  • 14. िसह पौर तक भी आँगन से सुिखया का िपता देवी के मंिदर मे फू ल लेने के िलए जाता है नही पहँचने मै पाया , तो पहचान िलया जाता है। तब वह अपनी आपबीती सुनाते सहसा यह सुन पड़ा िक – “ कै से हए कहता है – मै पूजा करके मंिदर के मुखय दार तक भी न यह अछू त भीतर आया ? पहँचा था िक अचानक मुझे यह सवर सुनाई पड़ा – ‘ यह पकड़ो , देखो भाग न पावे , अछू त मंिदर के अंदर कै से आया ? इसे पकड़ो। सावधान रहो। बना धूतर यह है कै सा ; कही यह दुष भाग न जाए। यह कै सा ठग है ! ऊपर से साफ़- साफ़ – सवचछ पिरधान िकए है , सुथरे कपड़े पहनकर भले आदिमयो जैसा रप बनाए हए है। भले मानुषो के जैसा ! परं तु है महापापी और नीच। इस पारी ने मंिदर मे घुसकर पापी ने मंिदर मे घुसकर बहत बड़ा पाप कर िदया है।इसने इतने लंबे समय से बनाई िकया अनथर बड़ा भारी ; गई मंिदर की पिवतता को नष कर िदया है। इसके पवेश से कलुिषत कर दी है मंिदर की मंिदर अपिवत हो गया है। िचरकािलक शुिचता सारी।”
  • 15. ऐ , कया मेरा कलुष बड़ा है सुिखया का िपता मंिदर मे पूजा का फू ल लेने गए तो भको ने उनहे देवी की गिरमा से भी ; अछू त कहकर पकड़ िलया । तब सुिखया के िपता उन भको से बोले – यह तुम कया कहते हो ! मेरे मंिदर मे आने से देवी का मंिदर कै से िकसी बात मे हँ मै आगे अपिवत हो गया ? कया मेरे पाप तुमहारे देवी की मिहमा से भी माता की मिहमा के भी ? बढ़कर है? कया मेरे मैल मे तुमहारी देवी के गौरव को नष करने की माँ के भक हए तुम कै से , शिक है ? कया मै िकसी बात मे तुमहारे देवी से भी बढ़कर हँ ? नही करके यह िवचार खोटा ? , यह संभव नही है। अरे दुष ! तुम ऐसा तुचछ िवचार करके भी माँ के सममुख ही माँ का अपने आप को माँ के भक कहते हो।तुमहे लजा आनी चािहए। तुम माँ की मूित के सामने ही माँ के गौरव को नष कर रहे हो। माँ कभी तुम छू त-अछू त नही मानती। वह तो सबकी माँ है। गौरव करते हो छोटा !
  • 16. कु छ न सुना भको ने , झट से सुिखया का िपता अपनी बेटी की अंितम इचछा पूरी करने के िलए मुझे घेरकर पकड़ िलया ; मंिदर मे पूजा का फू ल लेने पहँचा तो भको ने उसे अछू त कहकर मार-मारकर मुके – घूँसे पकड़ िलया। उसने उनसे पश पूछा िक कया उसका कलुष देवी माँ धम – से नीचे िगरा िदया ! की मिहमा से भी बढ़कर है। इसके बाद सुिखया का िपता अपनी मेरे हाथो से पसाद भी आपबीती सुनते हए कहता है – देवी के उन भको ने मेरी बातो िबखर गया हा ! सबका सब , पर धयान नही िदया। उनहोने तुरंत मुझे चारो ओर से घेरकर पकड़ हाय ! अभागी बेटी तुझ तक िलया। िफर उनहोने मुझे मुके – घूँसे मार – मारकर नीचे िगरा कै से पहँच सके यह अब। िदया। उस मारपीट मे मेरे हाथो से देवी माँ का पसाद भी िबखर गया। मै अपनी बेटी को याद करने लगा – हाय ! अभागी बेटी ! देवी का यह पसाद तुझ तक कै से पहँचाऊ। तू िकतनी अभागी है। ँ
  • 17. नयायालय ले गए मुझे वे , सात िदवस का दंद – िवधान मुझको हआ ; हआ था मुझसे देवी का महान अपमान ! मैने सवीकृ त िकया दंड वह शीश झुकाकर चुप ही रह ; उस असीम अिभयोग दोष का कया उतर देता , कया कह ? सात रोज़ ही रहा जेल मे या िक वहाँ सिदयाँ बीती , अिवशांत बरसा करके भी आँखे तिनक नही रीती।
  • 18. दंड भोगकर जब मै छू टा , पैर न उठते थे घर को ; पीछे ठे ल रहा था कोई भय – जजरर तनु पंजर को। पहले की – सी लेने मुझको नही दौड़कर आई वह ; उलझी हई खेल मे ही हा ! अबकी दी न िदखाई वह।
  • 19. उसे देखने मरघट को ही गया दौड़ता हआ वहाँ , मेरे पिरिचत बंधु पथम ही फूँ क चुके थे उसे जहाँ। बुझी पड़ी थी िचता वहाँ पर छाती धधक उठी मेरी , हाय ! फू ल – सी कोमल बची हई राख की थी ढेरी !
  • 20. अंितम बार गोद मे बेटी , तुझको ले न सका मै हा ! एक फू ल माँ का पसाद भी तुझको दे न सका मै हा !
  • 21. पसतुित आकाश चौधरी , काितक , अंशुल , अंिकत , आकाश कु मार ,subhadip , jishl धनयवाद !

Editor's Notes

  1. कवि महामारी की भयंकरता का चित्रण करता हुआ कहता है कि – चारों ओर एक भयंकर महामारी फैल गई थी।
  2. सुखिया का पिता कहता है -