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प्रार्थना में ‘दया’ का महत्व
आधुनिक वैनिक समाज में चहुं और ईर्ष्ाा, वैर-नवरोध और न ुंसा व्याप्त ै। सब मािवता
को भूलते जा र े ै या ऐेसा प्रतीत ोता ै नक समाज के लोगोुं िे मािवता को जािा ी
ि ीुं ै। भारतीय वैनिक परुंपरा में िया का म त्वपूर्ा स्थाि ै। िया ी मािव को
मािवता की ओर ले जाती ै अथाात्
सामुन कता की ओर ले जाती ै।
मुझे ज्ञात ै म नषा क ा करते थे नक
‘‘जब व्यक्ति स्वयुं के भले की
सोचता ै तो ईिर उसका साथ ि ीुं
िेता नकुं तु जब म सामुन क न त
या समाज के कल्यार् की ओर
प्रयास करते ैं तो ईिर में शक्ति
प्रिाि करते ैं और में ऐसी
अिुभूनत ोती ै नक एक परमशक्ति
आपका उत्सा वधाि करते हए आपका मागािशाि कर र ी ै।” इनत ास में ऐसी कई
घटिाएुं ै नजिके मूल में िया का बीज था जो समाज के उत्थाि के रूप में फनलत हआ।
नसद्धाथा का बुि् धु ो जािा भी ऐसी ी एक घटिा ै। जी ााँ, गौतम बुद्ध का वास्तनवक
िाम ‘‘नसद्धाथा” था और उिके नपता चा ते थे नक व आगे चलकर म ाि राजा बिें। नकुं तु
साुंसाररक जीवि पर आगे बढ़ते हए नसद्धाथा िे पाया नक सुंसार में चहुं ओर िुुःख व्याप्त
ै। उन्ोुंिे कु छ ऐसी घटिाओुं को घनटत ोते िेखा नजससे वे इि साुंसाररक िुुःखोुं के
कारर्ोुं को खाजिे की ओर प्रवृत्त हए और 29 वषा की आयु में एक निि, रानि के समय
अचािक इि िुुःखोुं के कारर्ोुं और सत्य को खोजिे के नलए समस्त साुंसाररक बुंधिोुं को
तोड़कर निकल पड़े और बौनधसत्व की प्राक्तप्त के पश्चात् ‘‘गौतम बुद्ध” क लाए। यनि
नसद्धाथा के हृिय में समाज के िुुःखोुं को िेख िया उत्पन्न ि ोती तो व बुद्ध ि ोते। तब
स्पष्ट ै नक नसद्धाथा को ‘गौतम बुद्ध’ नकसिे बिाया। व थी उिके हृिय में समाज के
नलए ‘िया’ तो, बुद्ध ोिे के नलए हृिय में िया का भाव ोिा आवश्यक ै। निि-प्रनतनिि
मारे चारोुं ओर नवनभन्न प्रकार की घटिाएुं घनटत ोती ैं और उन्ें िेखिे और समझिे
की सभी की अपिी दृनष्ट ोती ै। प्रायुः म य िेखते ैं नक मागा में यनि नकसी व्यक्ति के
साथ कु छ िुघाटिा घनटत ो जाये तो उसे िेखिे वाले प्रत्येक व्यक्ति की प्रनतनिया नभन्न
ोती ै। उिा र्ाथा यनि कोई व्यक्ति व्यायाम के उद्देश्य से घर से निकलता ै मागा के
बीचोुं-बीच पड़े पत्थर से उसे ठोकर लगती ै और व नगर जाता ै। जब य घटिा घनटत
ोती ै तो तीि प्रकार के व्यक्ति मारे सामिे आते ैं। एक प्रकार के तो के वल घटिा
स्थल के मूक िशाक बिे र ते ैं। नितीय प्रकार के व्यक्ति घटिा की गुंभीरता को िेखकर
Brahmachari Girish
तुरुंत र सुंभव स ायता करते ैं। अुंततुः तृतीय या उत्तम प्रकार के व्यक्ति घटिा की
गुंभीरता को िेखकर तुरुंत र सुंभव स ायता करते ै और मागा से उस पत्थर को भी टा
िेते ैं नजससे भनवर्ष् में और नकसी भी व्यक्ति के साथ उि घटिा का पुिाघटि ि ो।
य तीिोुं प्रनतनियाएुं स्वाभानवक ैं। यनि म घनटत घटिा को िेखकर प्रथम प्रकार के
व्यक्ति के व्यव ार का आकलि करें तो म पायेंगे नक प्रथम व्यक्ति के मि में िया भाव
शून्य ै, व घटिा को घनटत ोते िेख माि िशाक ी बिा र ता ै। नितीय व्यक्ति
िुघाटिा ग्रस्त व्यक्ति को िेखता ै तो उसके मि में िया भाव उत्पन्न ोता ै तथा व
स ायता करता ै और तृतीय, उत्तम पुरूष उि घटिािम में स ायता करिे के पश्चात्
घटिा के कारर् को जाििे का प्रयास करता ै और उसका निवारर् करता ै। य ाुं िया,
उत्थाि का कारर् बि जाती ै। प्रत्येक प्रगनतशील समाज में ियाभाव का ोिा इसीनलए
आवश्यक ै जो वतामाि समय में कम ी दृनष्टगत ोता ै। िया से मारे हृिय में करूर्ा
उत्पन्न ोती ै जो में य प्रेरर्ा िेती ै नक म चेति अवस्था में करूर्ामय ोकर
साुंसाररक पररक्तस्थनतयोुं का सामिा करते हए उिके निवारर् ेतु प्रयत्न करें। समय-समय
पर िया भाव नलये म ापुरुषोुं िे भारत भूनम को अपिी चरर्रज से पनवि नकया ै।
अभीष्ट की प्राक्तप्त और अनिष्ट के निवारर् के नलये म आनिकाल से ी नवनभन्न िेवी-
िेवताओुं को पूजते आये ैं। भारतभूनम में ऐसी मान्यता ै नक जब-जब समाज में
िुष्प्रवृनत्तयाुं बढ़ती ैं तब-तब स्वयुं भगवाि स्वयुं साधु-सुंतोुं के रूप् में धरती पर अवतररत
ोते ैं या ऐसे मािवोुं का चुिाव करते ै नजिके हृिय में समाज के उत्थाि की इच्छा
ोती ै। और व ईिर के आशीवााि से अपिी चेतिा को जागृत कर समाज की उत्तरोत्तर
प्रगनत के नलये मागा प्रशस्त करते ैं। इसी िम में जन्म हआ ‘‘भावतीत-ध्याि योग शैली”
का। जब िािा प्रकार की समस्याओुं और िुुःखोुं से नघरे वेनिक जिसमुिाय को परमपूज्य
म नषा म ेश योगी जी िे िेखा तो उिका हृिय िया भाव भर गया और उन्ोुंिे मािव के
समस्त िुुःखोुं के निवारर् ेतु ‘‘भावातीत ध्याि योग शैली” के रूप् एक ऐसा मागा सुझाया
नजससे मािव की चेतिा जागृत ो जाती ै और समस्त िकारात्मकता, सकारात्मकता में
पररवनतात ोिे लगती ै। सत्य ी ै, एक चैतन्य मक्तस्तष्क और िया भाव से सुंतृप्त हृिय
की प्राथािाएुं भी स्वतुः ी फलीभूत ोिे लगती ैं क्ोुंनक परमनपता परमेिर भी िया रन त
हृिय से की गई प्राथािा को स्वीकाया ि ीुं करते ैं।
ब्रह्मचारी गिरीश
कु लानधपनत, म नषा म ेश योगी वैनिक नविनवद्यालय
एवुं म ानििेशक, म नषा नवि शाुंनत की वैनिक राजधािी
भारत का ब्रह्मस्थाि, करौुंिी, नजला कटिी (पूवा में जबलपुर), मध्य प्रिेश.

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  • 2. तुरुंत र सुंभव स ायता करते ैं। अुंततुः तृतीय या उत्तम प्रकार के व्यक्ति घटिा की गुंभीरता को िेखकर तुरुंत र सुंभव स ायता करते ै और मागा से उस पत्थर को भी टा िेते ैं नजससे भनवर्ष् में और नकसी भी व्यक्ति के साथ उि घटिा का पुिाघटि ि ो। य तीिोुं प्रनतनियाएुं स्वाभानवक ैं। यनि म घनटत घटिा को िेखकर प्रथम प्रकार के व्यक्ति के व्यव ार का आकलि करें तो म पायेंगे नक प्रथम व्यक्ति के मि में िया भाव शून्य ै, व घटिा को घनटत ोते िेख माि िशाक ी बिा र ता ै। नितीय व्यक्ति िुघाटिा ग्रस्त व्यक्ति को िेखता ै तो उसके मि में िया भाव उत्पन्न ोता ै तथा व स ायता करता ै और तृतीय, उत्तम पुरूष उि घटिािम में स ायता करिे के पश्चात् घटिा के कारर् को जाििे का प्रयास करता ै और उसका निवारर् करता ै। य ाुं िया, उत्थाि का कारर् बि जाती ै। प्रत्येक प्रगनतशील समाज में ियाभाव का ोिा इसीनलए आवश्यक ै जो वतामाि समय में कम ी दृनष्टगत ोता ै। िया से मारे हृिय में करूर्ा उत्पन्न ोती ै जो में य प्रेरर्ा िेती ै नक म चेति अवस्था में करूर्ामय ोकर साुंसाररक पररक्तस्थनतयोुं का सामिा करते हए उिके निवारर् ेतु प्रयत्न करें। समय-समय पर िया भाव नलये म ापुरुषोुं िे भारत भूनम को अपिी चरर्रज से पनवि नकया ै। अभीष्ट की प्राक्तप्त और अनिष्ट के निवारर् के नलये म आनिकाल से ी नवनभन्न िेवी- िेवताओुं को पूजते आये ैं। भारतभूनम में ऐसी मान्यता ै नक जब-जब समाज में िुष्प्रवृनत्तयाुं बढ़ती ैं तब-तब स्वयुं भगवाि स्वयुं साधु-सुंतोुं के रूप् में धरती पर अवतररत ोते ैं या ऐसे मािवोुं का चुिाव करते ै नजिके हृिय में समाज के उत्थाि की इच्छा ोती ै। और व ईिर के आशीवााि से अपिी चेतिा को जागृत कर समाज की उत्तरोत्तर प्रगनत के नलये मागा प्रशस्त करते ैं। इसी िम में जन्म हआ ‘‘भावतीत-ध्याि योग शैली” का। जब िािा प्रकार की समस्याओुं और िुुःखोुं से नघरे वेनिक जिसमुिाय को परमपूज्य म नषा म ेश योगी जी िे िेखा तो उिका हृिय िया भाव भर गया और उन्ोुंिे मािव के समस्त िुुःखोुं के निवारर् ेतु ‘‘भावातीत ध्याि योग शैली” के रूप् एक ऐसा मागा सुझाया नजससे मािव की चेतिा जागृत ो जाती ै और समस्त िकारात्मकता, सकारात्मकता में पररवनतात ोिे लगती ै। सत्य ी ै, एक चैतन्य मक्तस्तष्क और िया भाव से सुंतृप्त हृिय की प्राथािाएुं भी स्वतुः ी फलीभूत ोिे लगती ैं क्ोुंनक परमनपता परमेिर भी िया रन त हृिय से की गई प्राथािा को स्वीकाया ि ीुं करते ैं। ब्रह्मचारी गिरीश कु लानधपनत, म नषा म ेश योगी वैनिक नविनवद्यालय एवुं म ानििेशक, म नषा नवि शाुंनत की वैनिक राजधािी भारत का ब्रह्मस्थाि, करौुंिी, नजला कटिी (पूवा में जबलपुर), मध्य प्रिेश.