जब हम अपने शहर या गांव को छोड़ कर किसी दूसरे शहर में जाते है चाहे वह रोजगार की तलाश हो या फिर एक अच्छे भविष्य की , तब हम धीरे -धीरे उस शहर के रंग में रंगने लगते है और जिस शहर या गांव को छोड़ कर आये होते हैं वहां की सोच और संस्कार को धकियाते हुए इस शहर की दौड़ती भीड़ में शामिल हो जिंदगी को दौड़ाना चाहते है
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हिंदी कहानी कहीं खो गई है माँ
1. कहानी का शीर्षक है " कह ीं खो गई है मााँ"
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जब हम अपने शहर या गाींव को छोड़ कर ककसी दूसरे शहर में जाते है चाहे वह रोजगार की
तलाश हो या किर एक अच्छे भववष्य की , तब हम धीरे -धीरे उस शहर के रींग में रींगने लगते
है और जजस शहर या गाींव को छोड़ कर आये होते हैं वहाीं की सोच और सींस्कार को धककयाते
हुए इस शहर की दौड़ती भीड़ में शाममल हो जजींदगी को दौड़ाना चाहते है
लेककन तभी भागते हुए हमारा पैर भावनाओीं के स्पीड ब्रेकर से टकराता है कु छ लोग उसे पीछे
की सोच मान कर अपनी जजींदगी की गाड़ी कु दा देते है चाहे ये गाड़ी टूटे या बचे इसकी परवाह
भला ककसको रहती है |
लेककन कु छ लोग उस स्पीड ब्रेकर को देखकर रुक जाते हैं और अपने आप से पूछते हैं
क्या तुझमे है.. हहम्मत जो इस स्पीड ब्रेकर से जजींदगी की गाड़ी को कु दा सके ,
मै भी उनमे से एक हूाँ भागती-दौड़ती जजींदगी के सिर में यूाँ ह अचानक भावनाओीं के स्पीड
ब्रेकर पर रुका खुद से सवाल पूछ रहा हूाँ |
इन्ह सवालो और जवावो से जूझते हुए सच्ची घटना पर आधाररत ये कहानी मलखी है
यहद मेरे मलखे ये शब्द आपको भी दौड़ते हुए उस स्पीड ब्रेकर की तरह रोके और खुद के अींदर
2. झाकने पर मजवूर करें तो समझ ल जजये आप इस शहर के नह ीं हुए है
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शाहहद .. शाहहद….
मेट्रो ट्रैन में दूर से आती.. ये एक औरत की आवाज मेरे और कर व आती जा रह थी |
रोज मराष की तरह हर कोई अपने आप को ककसी माध्यम में उलझाये हुए अपनी मींजजल की ओर
बढ़ रहा था | इस दूर से आती आवाज ने लोगो की तन्रा को थोड़ा ववचमलत सा तो ककया
लेककन लोग किर अपने आप में या अपने साथ वाले अपने हमसफ़र में खो गए | मैं भी मेट्रो
के दरबाजे की तरि मुींह ककये कह खोया हुआ था मगर ये आवाज मेरे और कर व आती जा
रह थी | ये आवाज मुझे और मेट्रो के डडब्बे में सवार लोगो को ज्यादा ववचमलत कर रह थी |
आठ डडब्बे की ट्रैन में जैसे -जैसे वो औरत एक-एक डडब्बे को पार करती आ रह थी | इस
आवाज की तीब्रता और अधधक बढ़ती जा रह थी मेने और यात्रिओीं की तरह डडब्बे की गैलेर में
झाींक कर देखा तो मसिष आवाज ह सुनाई दे रह वो औरत नह ीं |
मेरे मन में तमाम सवाल कौंधे ???
आखखर ये औरत कौन है ?, इसकी उम्र क्या है ?
ये इतनी बेचैनी से इस नाम की आवाज क्यों लगा रह है ?
अब तक ये सवाल मेरे मन में ह थे कक मुझे लोगो से इनके जवाव ममलने लगे , कोई वोला
3. लगता है पागल है| मेट्रो में धचल्ला रह है | कोई वोला लगता है इसका कोई खो गया है तो
ककसी ने मसिष अपने चेहरे के भावो से ह अपने जवाव दजष कर हदए , मेरा मन इन जवावो की
तरि गया लेककन मेने खुद को रोक उसके आने का इींतजार ककया | मेने अचानक देखा
कक वो सत्तर साल की औरत भीड़ को चीरती हुई मेरे सामने आ गई, और दूसर तरि डडब्बे
में सन्नाटा छा गया | लोग ननशब्द हो कर खड़े थे और मसिष एक ह आवाज मेरे कानो में जोर-
जोर से टकरा रह थी
शाहहद .. शाहहद.. , कहााँ चलो गयो रे…
उस बक्त मुझे इस सन्नाटे ने अपनी तरि खीींच मलया , मैं भी उस भीड़ की तरह ननशब्द खड़ा
रहा जो अभी अभी मेरे मन में कौंधे सवालो का जवाव खुद ह दे रह थी वो बूढ़ औरत इस
आवाज के साथ मेरे कर व से गुजरती जा रह थी और मैं स्वाथी सा भीड़ में शाममल हो चुपचाप
खड़ा था , लोग शायद इस इींतजार में खड़े थे की ये हमसे पूछे , लेककन वो मसिष एक ह नाम
पुकार रह थी और आगे बढ़ती जा रह थी
शायद वो इस सवाल का जवाव मसिष ये चाहती थी , हााँ मााँ मैं ये रहा .. तू क्यों धचल्ला रह है
मत धचल्ला ये मेट्रो है , लोग यहाीं मसिष गानो का शोर पसींद करते है बो भी मसिष सीधे उनके
कानो में , लेककन उस बेसुध और बदहवास सी मााँ को ये जवाव कह ीं से नह ीं ममला
वो लगातार मसिष शाहहद .. शाहहद.. धचल्लाती रह और भीड़ को चीरती डडब्बे को पार करती
आगे बढ़ती जा रह थी | तभी एक स्टेशन आ गया और अपने कानो में सींगीत का शोर सुनने
वाले लोग उतरने लगे , वो बूढ मााँ एक उतरते नौजवान लड़के के बीच में आ गई और वो
जवान लड़का जोर से धचल्लाया..
कहााँ,कहााँ आ जाते हैं लोग ठीक से उतरने भी नह ीं देते , वो दुत्तकारता हुआ उतर गया, शायद
4. वो ककसी मााँ का शाहहद नह ीं था या किर उसकी मााँ इस मााँ की तरह नह ीं थी, उस बूढ मााँ की
आवाज अब भी मेरे कानो में सुनाई पड़ रह थी ,मगर इसकी तीब्रता उतनी नह ीं नह ीं थी |
शायद उसे उसका शाहहद अभी ममला नह ीं था,उतरने वाले उतर रहे थे और चढ़ने वाले चढ़ रहे थे
और मैं अब भी ननशब्द सा ...
अपने अींदर उठते सवालो की तीब्रता से जूझ रहा था ,मैं खुद से सवाल पूछ रहा था |
तू चुप क्यों रहा ?
तूने उस बूढ़ मााँ से पूछा क्यों नह ीं की तुम ककसे ढूींढ रह हो ?
ये शाहहद कौन है ?
क्या तुम्हारा बेटा है ,
क्या वो खो गया है या किर तुम खो गई हो ?
या किर..
उस उतरते नौजवान लड़के की तरह तुम्हारा शाहहद भी तुम्हे धककयाता हुआ,
हमेशा के मलए छोड़ कर चला गया है
क्या में इस पत्थर के शहर की तरह पत्थर का हो गया हूाँ ?
5. या किर कोई इींसानी रोबोट जो मसिष सुबह उठता है , धक्के खाता हुआ मेट्रो से नौकर पर
जाता है वावपस अपने घर की तरि भागता है और हर रोज यह रोजमराष की जजींदगी दोहराता है
क्या अगर तू गाींव की बस में होता ?
और तब ये मााँ ऐसे धचल्लाती तू तब भी इस बेजार ननशब्द भीड़ में शाममल हो चुप चाप खड़ा
रहता ?
क्या ये पढ़े मलखे लोगो की सींवेदनह न भीड़ यूाँ ह चुपचाप एक दूसरे का मुाँह ताकती खड़ी रहती
क्या तू नह ीं पूछता मााँ क्या हुआ ये शाहहद कौन है ?
ये सारे सवाल मेरे अींदर के पत्थर हो चुके इींसान को झकझोर रहे थे और मैं अब भी ननशब्द
चुपचाप खड़ा था | तभी डडब्बे में रोज तरह शम्मी नारींग जी की आवाज गूींजी ..
यह मालवीय नगर स्टेशन है और मैं इन सब सवालो को धककयाते हुए स्टेशन पर उतर गया |
बेपरबाह दौड़ता , मशीनी सीढ़ से चढ़ता हुआ इस शहर की ररवाजो और भीड़ में शाममल हो गया
....