1. अलंकार का शाब्दिक अर्थ होता है आभूषण या गहना। अलंकार
सौन्ियथ को बढ़ाता है। मानव स्वभावतः सौन्दर्य का उपासक रहा है
र्ही कारण है कक अलंकार का जन्म हुआ। ब्िस प्रकार स िेह की
शोभा बढ़ाने के ललए आभूषणों या गहनों का प्रयोग ककया िाता है
उसी प्रकार से काव्र् की शोभा बढ़ाने के ललए अलंकार का प्रर्ोग ककर्ा
जाता है। काव्य की शोभा बढ़ाने वाले शदिों को अलंकार कहा िाता
है। जजस प्रकार से गहना नारी की सुन्दरता को बढ़ा देता है उसी प्रकार
से अलंकार काव्र् की सुन्दरता को बढ़ा देता है। ककसी कवव ने सच
ही कहा है – ‘भूषण बबना न सोहई कववता बननता लित्त।’
3. शब्दालंकार
िब शदिों का प्रयोग करके काव्य के सौन्ियथ को बढ़ाया
िाता है या काव्य िें चित्कार उत्पन्न ककया िाता है
तो उसे शदिालंकार कहते हैं।
शदिालंकार तीन प्रकार के होते हैं –
अनुप्रास,र्मक और श्लेष
4. अनुप्रास
शदि ‘अनु’ और ‘प्रास’ शदिों के िेल से बना है । ‘अनु’ का अर्थ
होता है – बार-बार और ‘प्रास’ का अर्थ होता है– वणथ। जब ककसी
वणय अर्ायत् स्वर र्ा व्र्ञ्जन की बार-बार आवृत्ति होती है तो
अनुप्रास अलंकार होता है।
िैसे – तरनन तनूिा तट तिाल तरुव छाएर बहु। यहााँ
पर ‘त’ वणथ की बार-बार आवृवत्त हुई है, अतः यह अनुप्रास
अलंकार का उिाहरण है।
5. यमक अलंकार
िब एक शदि का एक से अधिक बार प्रयोग ककया िाता है और हर बार उस शदि का अलग अर्थ होता है
तो र्मक अलंकार होता है। िैसे –
कनक कनक ते सौगुनी िािकता अधिकाय।
वे खाये बौरात हैं ये पाये बौराय॥
उपरोक्त िोहे िें ‘कनक’ शदि का िो बार प्रयोग ककया गया है और िोनों ही बार उसके अर्थ अलग-
अलग हैं, एक ‘कनक’
का अर्थ है ितूरा और िूसरे ‘कनक’ का अर्थ है सोना।
6. श्लेष
िब एक शदि का प्रयोग के वल एक बार होता है ककन्तु उसके एक से
अधिक अर्थ होते हैं तो श्लेष अलंकार होता है।
िैसे सुवरन को खोित किरत कवव दयलभचारी चोर
उपरोक्त पंब्क्त िें ‘सुवरन’ शदि का प्रयोग के वल एक बार हुआ है ककन्तु
इसके तीन अर्थ हैं – सुन्िर वणथ या शदि, सुन्िर
नारी और स्वणथ।
7. अर्ायलंकार
िब अर्थ के िाध्यि से काव्य का सौन्ियथ बढ़ाया
िाता है तो अर्ाथलंकार होता है।
अर्ायलंकार के प्रिुख भेि है – उपिा, रूपक,
उत्प्रेक्षा, संिेह और अनतशयोब्क्त।
8. िब काव्य िें िो वस्तुओं की उपिा करके उनिें सिानता िशाथई
िाती है तो उपिा अलंकार होता है। िैसे –
रािा विन चन्र सों सुन्िर
उपरोक्त पंब्क्त िें ‘रािा के िुख’ की ‘चन्रिा’ से उपिा करके
िोनों िें सिानता अर्ाथत् सुन्िरता िशाथई गई है।
9. रूपक अलंकार
:- िब उपिेय पर उपिान का आरोप ककया िाता है, अर्ाथत
उपिेय और उपिान िें ककसी प्रकार का अन्तर दिखाई नहीं
पड़ता, तो वहााँ रूपक अलंकार होता है।
िैसे –
िैया िैं तो चन्र-खखलौना लैहों
उपरोक्त पंब्क्त िें ‘चन्र’ और ‘खखलौने’ िें कोई अन्तर ही प्रतीत नहीं
होता।
10. उत्प्प्रेक्षा अलंकार
िब उपिेय को ही उपिान िान ललया िाता, अर्ाथत िब िो वस्तु लभन्न
होते हुए भी अलभन्न दिखाई िें, तो वहााँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
िैसे – कहती हुई उत्तरा के नेत्र िल से भर गये।
दहिकणों से पूणथ िानो हो गए नये॥
‘उत्तरा के अश्रुपूणथ नेत्र’ उपिेय िें ‘दहिकणों’ उपिान की सम्भावना के कारण यहां
उत्प्रेक्षा अलंकार है।
11. संदेह अलंकार
िब प्रस्तुत िें अप्रस्तुत का संशयपूणथ वणथन ककया िाता है तो
वहााँ संिेह अलंकार होता है। िैसे –
सारी बबच नारी है कक नारी बबच सारी है।
कक सारी ही की नारी है कक नारी ही की सारी है।
उपरोक्त पंब्क्तयों िें नारी और सारी के ववषय िें संशय इसे
संिेह अलंकार बनाता है।
12. अततशर्ोजतत अलंकार
िब ककसी व्यब्क्त, वस्तु या घटना का अत्यधिक बढ़ा-चढ़ा
कर वणथन ककया िाता है तो अनतशयोब्क्त अलंकार होता
है। िैसे –
बबरह आग तन िें लगी िरन लगे सब गात।
नारी छू अत बैि के परे ििोला हार्॥