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कठोपनिषद
प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली
(द्ववतीय भाग )
डॉ. दीप्तत वाजपेयी
एसोससएट प्रोफे सर (संस्कृ त ववभाग)
कु मारी मायावती राजकीय महिला स्िातकोत्तर मिाववद्यालय
बादलपुर
गौतम बुध िगर
कठोपनिषद
प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली
अध्ययि के उद्देश्य
• उपनिषद साहित्य का सामान्य अध्ययि करिा
• कठोपनिषद का विशिष्ट ज्ञाि प्राप्त करिा
• िैहदक संस्कृ त साहित्य की िब्दािली से पररचित िोिा
• भारतीय दािशनिक तत्िों से सुपररचित िोिा
• अभ्युदय एिं निश्रेयस का सुबोध िोिा
कठोपनिषद
प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली
यथा पुरस्ताद् भववता प्रतीत औद्दालककरारुणिममत्प्प्रसृष्ट:।
सुखं रात्री: शनयता वीतमन्युस्त्प्वां ददृसशवान्मृत्प्युमुखात्प्प्रमुक्तम् ॥११॥
िब्दार्श: त्िां मृत्युमुखात् प्रमुक्तम ् ददृशििाि् = तुझे मृत्यु के मुख से प्रमुक्त िुआ देखिे पर; मत्प्रसृष्ट:
आरुणि: औद्दालकक: = मेरे द्िारा प्रेररत, आरुणि उद्दालक (तुम्िारा वपता); यर्ा पुरस्ताद् प्रतीत: = पिले की
भांनत िी विश्िास करके ; िीतमन्यु: भविता =क्रोधरहित एिं दु:खरहित िो जायगा; रात्री:सुखम ् िनयता =
रात्रत्रयों में सुखपूिशक सोयेगा।
अर्श: यमराज िे िचिके ता से किा- तुझे मृत्यु के मुख से प्रमुक्त देखिे पर मेरे द्िारा प्रेररत उद्दालक
(तुम्िारा वपता) पूिशित विश्िास करके क्रोध एिं दु:ख से रहित िो जायगा, (जीिि भर) रात्रत्रयों में सुखपूिशक्
सोयेगा।
कठोपनिषद
प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली
स्वगे लोक ि भयं ककञ्चिाप्स्त ि तत्र त्प्वं ि जरया बबभेनत।
उभे तीत्प्वामशिायावपपासे शेकानतगो मोदते स्वगमलोके ॥१२॥
िब्दार्श: स्िगे लोक ककञ्िि भयम ् ि अस्स्त = स्िगशलोक में ककस्ञ्ित् भय ििीं िै; तत्र त्िं ि = ििां आप(मृत्यु)
भी ििीं िैं; जरया ि त्रबभेनत= कोई िृद्धािस्र्ा से ििीं डरता; स्िगशलोके = स्िगश लोक में (ििां के नििासी );
अििायावपपासे = भूख और प्यास; उभे तीत्िाश = दोिों को पार करके ;िोकानतग: =िोक (दु:ख) से दूर रिकर;
मोदते = सुख भोगते िैं।
अर्श: िचिके ता िे किा-स्िगशलोक में ककस्ञ्िन्मात्र भी भय ििीं िै। ििां आप (मृत्युस्िरुप) भी ििीं िैं। ििां कोई
जरा (िृद्धािस्र्ा) से ििीं डरता। स्िगशलोक के नििासी भूख-प्यास दोिों को पार करके िोक (दु:ख) सेदूर रिकर
सुख भोगते िैं।
कठोपनिषद
प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली
स त्प्वमप्नि स्वनयममध्येवष मृत्प्यों प्रब्रूहि त्प्वं श्रद्दधािाय मह्यम।
स्वगमलोका अमृतत्प्वं भजन्त एतद् द्ववतीयेि वृिे वरेि ॥१३॥
िब्दार्श: मृत्यो =िे मृत्युदेि;स त्िं स्िर्गयशम् अस्र्गिं अध्येवष = िि आप स्िगश-प्रास्प्त के
साधिरुप अस्र्गि को जािते िैं; त्िं मह्यम श्रद्दधािाय प्रब्रूहि =आप मुझ श्रद्धालु को
(उस अस्र्गि को) बतायें। स्िगशलोका: अमृतत्िं भजन्ते =स्िगशलोक के नििासी अमरत्ि
को प्राप्त् िोते िैं; एतद् द्वितीयेि िरेि िृिे =(मैं) यि दूसरा िर मांगता िूं।
अर्श: िे मृत्युदेि, िि आप स्िगशप्रास्प्त की साधिरुप अस्र्गि को जािते िैं। आप मुझ
श्रद्धालु को उसे बता दें। स्िगशलोक के नििासी अमरत्ि को प्राप्त िो जाते िैं। मैं यि
दूसरा िर मांगता िूं।
कठोपनिषद
प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली
प्र ते ब्रवीसम तदु मे निवोध स्वनयममप्निं िचचके त: प्रजािि्।
अिन्तलोकाप्ततमथो प्रनतष्ठां ववद्चध त्प्वमेतं निहितं गुिायाम् ॥१४॥
िब्दार्श: िचिके त: = िे िचिके ता; स्िर्गयशम् अस्र्गिम् प्रजािि् ते प्रब्रिीशम= स्िगशप्रास्प्त की
साधिरुप अस्र्गिविद्या को भली प्रकार जाििेिाला मैं तुम्िें इसे बता रिा िूं;तत् उ मे निबोध =
उसे भली प्रकार मुझसे जाि लो; त्िं एतम् =तुम इसे;अिन्तलोकास्प्तम् = अिन्तलोक की प्रास्प्त
करािेिाली; प्रनतष्ठाम् =उसकी आधाररुपा; अर्ो = तर्ा;गुिायाम् निहितम् = बुद्चधरुपी गुिा में
स्स्र्त (अर्िा रिस्यमय एिं गूझ् ); विद्चध =समझो।
अर्श: िे िचिके ता स्िगशप्रदा अस्र्गिविद्या को जाििेिाला मैं तुम्िारे शलए भलीभांनत समझाता िूं।
(तुम) इसे मुझसे जाि लो। तुम इस विद्या को अिन्तलोक की प्रास्प्त करािेिाली, उसकी
आधाररुपा और बुद्चधरुपी गुिा मे स्स्र्त समझो।
कठोपनिषद
प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली
लोकाहदमप्निं तमुवाच तस्मै या इष्टका यावतीवाम यथा वा।
स चावप तत्प्प्रत्प्यवदद्यथोक्तमथास्य मृत्प्यु: पुिरेवाि तुष्ट:॥१५॥
िब्दार्श: तम ् लोकाहदम ् अस्र्गिम ् तस्मै उिाि = उस लोकाहद (स्िगश-लोक की साधि-रुपा) अस्र्गिविद्या को उस
(िचिके ता )को कि हदया; या िा यािती: इष्टका: = (उसमें कु ण्डनिमाशि आहद के शलए )जो-जो अर्िा स्जतिी-
स्जतिी ईंटें (आिश्यक िोती िैं ); िा यर्ा = अर्िा स्जस प्रकार(उिका ियि िो; ि स अवप तत् यर्ोक्तम ्
प्रत्यिदत् =और उस (िचिके ता)िे भी उसे जैसा किा गया र्ा, पुि: सुिा हदया; अर्= इसके बाद; मृत्यु: अस्य
तुष्ट: = यमराज उस पर संतुष्ट िोकर; पुि: एि आि = पुि: बोले।
अर्श: उस लोकाहद अस्र्गिविद्या को उसे (िचिके ता को )कि हदया। (कु ण्डनिमाशि इत्याहद में) जो–जो अर्िा
स्जतिी-स्जतिी ईंटें (आिश्यक िोती िैं) अर्िा स्जस प्रकार (उिका ियि िो)। और उस (िचिके ता) िे भी उसे
जैसा किा गया र्ा, पुि: सुिा हदया। इसके बाद यमराज उस पर संतुष्ट िोकर पुि: बोले।
कठोपनिषद
प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली
तमब्रवीत प्रीयमािो मिात्प्मा वरं तवेिाद्य ददासम भूय:।
तवैव िामा भववतायमप्नि: सृक््ां चेमामिेकरुपां गृिाि ॥१६॥
िब्दार्श: प्रीयमाि: मिात्मा तम ् अब्रिीत् =प्रसन्ि एिं पररतुष्ट िुए मिात्मा यमराज उससे बोले;अद्य ति इि
भूय: िरम ् ददाशम = अब (मैं) तुम्िें यिां पुि: (एक अनतररक्त)िर देता िूं; अयम ् अस्र्गि: ति एि िाम्रा भविता
= यि अस्र्गि तुम्िारे िी िाम से (प्रख्यात) िोगी; ि इमाम् अिेकरुपाम् सृक्ङाम् गृिाि = और इस अिेक रुपों
िाली (रत्िों की )माला को स्िीकार करो।
अर्श: मिात्मा यमराज प्रसन्ि एिं पररतुष्ट िोकर उससे बोले-अब मैं तुम्िें यिां पुि: एक (अनतररक्त) िर देता
िूं। यि अस्र्गि तुम्िारे िी िाम से विख्यात िोगी। और इस अिेक रुपोंिाली माला को स्िीकार करो।
कठोपनिषद
प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली
बत्रिाचचके तप्स्त्रसभरेत्प्य सप्न्धं बत्रकममकृ त् तरनत जन्ममृत्प्यू।
ब्रह्मजज्ञ। देवमीड्यं ववहदत्प्वा निचाय्येमां शानितमत्प्यन्तमेनत ॥१७॥
िब्दार्श: त्रत्रिाचिके त: = िाचिके त अस्र्गि का तीि बार अिुष्ठाि् करिेिाला; त्रत्रशभ: सस्न्धम ् एत्य =तीिों(ऋक्,
साम, यजु:िेद) के सार् सम्बन्ध जोड़कर अर्िा माता, वपता, गुरु से सम्बद्ध िोकर, त्रत्रकमशकृ त = तीि कमों
(यज्ञ दाि तप) को करिेिाला मिुष्य; जन्ममृत्यु तरनत= जन्म और मृत्यु को पार कर लेता िै, ब्रह्मजज्ञम ्
=ब्रह्म से उत्पन्ि सृस्ष्ट (अर्िा अस्र्गिदेि) के जाििे िाले; ईड्यम देिम ् = स्तििीय अस्र्गिदेि (अर्िा ईश्िर)
को;विहदत्िा=जािकर; नििाय्य = इसका ियि करके इसको भली प्रकार समझकर देखकर; इमाम ् अत्यन्तम ्
िास्न्तम ् एनत = इस अत्यन्त िास्न्त को प्राप्त् िो जाता िै।
अर्श: जो भी मिुष्य इस िाचिके त अस्र्गि का तीि बार अिुष्ठाि् करता िै और तीिों (ऋक्, साम, यजु:िेदों) से
सम्बद्ध िो जाता िै तर्ा तीिों कमश(यज्ञ, दाि, तप) करता िै, िि जन्म-मृत्यु को पार कर लेता िै। िि ब्रह्मा
से उत्पन्ि उपासिीय अस्र्गिदेि को जािकर और उसकी अिुभुनत करके परम िास्न्त को प्राप्त कर लेता िै।
कठोपनिषद
प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली
य एवं ववद्वांप्श्चिुते िाचचके तम्।
स मृत्प्यृपाशािृ पुरत: प्रिोद्य शोकानतगो मोदते स्वगमलोके ॥१८॥
िब्दार्श: एतत् त्रयम ् = इि तीिों (ईंटो के स्िरुप संख्या और ियि विचध)को; विहदत्िा = जािकर; त्रत्रिाचिके त: =
तीि बार िाचिके त अस्र्गि का अिुष्ठाि करिेिाला; य एिम ् विद्िाि् = जो भी इस प्रकार जाििेिाला ज्ञािी पुरुष:
िाचिके तम ् चििुते = िाचिके त अस्र्गिका ियि करता िै; स मृत्युपािाि् पुरत: प्रिोद्य =िि मृत्यु के पािों को उपिे
सामिे िी (अपिे जीििकाल में िी )काटकर;िोकानतग: स्िगशलोके मोदते = िोक को पार करके स्िगश लोक में
आिन्द का अिुभि करता िै। (मृत्युं जयनत मृत्युञ्जय:)
अर्श: इि तीिों (ईंटों के स्िरुप संख्या और ियि-विचध) को जािकर तीि बार िाचिके त अस्र्गि का अिुष्ठाि
करिेिाला जो भी विद्िाि पुरुष िाचिके त अस्र्गि का ियि करता िै, िि (अपिे जीििकाल मे िी) मृत्यु के पािों
को अपिे सामिे िी काटकर, िोक को पार कर, स्िगशलोक में आिन्द का अिुभि करता िै।
कठोपनिषद
प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली
एष तेऽप्नििमचचके त: स्वनयो यमवृिीथा द्ववतीयेि वरेि।
एतमप्निं तवैव प्रवक्ष्यप्न्त जिासस्तृतीयं वरं िचचके तो वृष्िीष्व॥१९॥
िब्दार्श: िचिके त:= िे िचिके ता; एष ते स्िर्गयश: अस्र्गि: = यि तुमसे किी िुई स्िगश की साधिरुपा अस्र्गिविद्या िै;
यम ् द्वितीयेि िरेि अिृिीर्ा: =स्जसे तुमिे दूसरे िर से मांगा र्ा; एतम ् अस्र्गिम ् =इस अस्र्गिको;जिास:
=लोग;ति एि प्रिक्ष्यस्न्त =तुम्िारी िी (तुम्िारे िाम से िी) किा करेंगे;िचिके त = िे िचिके ता; तृतीयम ् िरम ्
िृिीष्ि= तीसरा िर मांगों।
अर्श: िे िचिके ता, यि तुमसे किी िुई स्िगशसाधिरुपा अस्र्गिविधा िै, स्जसे तुमिे दूसरे िर से मांगा र्ा। इस अस्र्गि
को लोग तुम्िारे िाम से किा करेंगे। िे िचिके ता, तीसरा िर मांगों।
कठोपनिषद
प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली
•
येयं प्रेते ववचचककत्प्सा मिुष्येऽस्तीत्प्येके िायमस्तीनत चैके ।
एतद्ववद्यामिुसशष्टस्त्प्वयािं वरािामेष वरस्तृतीय: ॥२०॥
िब्दार्श: प्रेते मिुष्ये या इयं विचिककत्सा = मृतक मिुष्य के संबंध में यि जो संिय िै;एके अयम ् अस्स्त इनत
= कोई तो (किते िैं) यि आत्मा (मृत्यु के बाद) रिता िै; ि एके ि अस्स्त इनत = और कोई (किते िैं) ििीं
रिता िै; त्िया अिुशिष्ट: अिम ् = आपके द्िारा उपहदष्ट मैं; एतत् विद्याम ् =इसे भली प्रकार जाि लूं; एष
िरािाम ् तृतीय: िर: = यि िरों में तीसरा िर िै।
अर्श: मृतक मिुष्य के संबंध में यि जो संिय िै कक कोई किते िैं कक यि आत्मा(मृत्यु के पश्िात) रिता िै
और कोई किते िैं कक ििीं रिता, आपसे उपदेि पाकर मैं इसे जाि लूं, यि िरों मे तीसरा िर िै।
कठोपनिषद
प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली
स्मरिीय बबंदु
• कठोपनिषद कृ ष्ि यजुिेद िाखा का मित्िपूिश उपनिषद िै
• कठोपनिषद के रिनयता कठ िाम के आिायश को मािा जाता िै
• कठोपनिषद दो अध्यायों में विभक्त िै,प्रत्येक अध्याय में तीि- तीि बस्ललयां िैं
• कठोपनिषद यम िचिके ता संिाद के रूप में आत्म विषयक ज्ञाि का निदिशि कराता िै
• कठोपनिषद के अंतगशत प्रर्म अध्याय की प्रर्म बलली में 29 मंत्र, द्वितीय बलली में 25 मंत्र
एिं तृतीय बलली में 17 मंत्र िै, इस प्रकार कठोपनिषद के प्रर्म अध्याय में कु ल 71 मंत्र िै
कठोपनिषद
प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली
मित्प्वपूिम प्रश्िावली
• कठोपनिषद यजुिेद की ककस िाखा से संबंचधत िै ?
• िचिके ता के वपता के िंि का क्या िाम बताया गया िै ?
• विश्िस्जत यज्ञ का आयोजि ककसके द्िारा ककया गया र्ा ?
• कठोपनिषद के प्रमुख पात्र कौि िैं ?
• कठोपनिषद के प्रत्येक अध्याय में ककतिी बलली िै ?
• िचिके ता यमराज प्रर्म िरदाि के रूप में क्या मांगता िै ?
• यमराज स्िगश की साधिभूत अस्र्गिविद्या को ककसके िाम से प्रशसद्ध िोिे का
िरदाि देते िैं ?
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DR. DEEPTI BAJPAI
ASSOCIATE PROFESSOR
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Kathopnishad Pratham Adhyaya (Part-2)

  • 1. कठोपनिषद प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली (द्ववतीय भाग ) डॉ. दीप्तत वाजपेयी एसोससएट प्रोफे सर (संस्कृ त ववभाग) कु मारी मायावती राजकीय महिला स्िातकोत्तर मिाववद्यालय बादलपुर गौतम बुध िगर
  • 2. कठोपनिषद प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली अध्ययि के उद्देश्य • उपनिषद साहित्य का सामान्य अध्ययि करिा • कठोपनिषद का विशिष्ट ज्ञाि प्राप्त करिा • िैहदक संस्कृ त साहित्य की िब्दािली से पररचित िोिा • भारतीय दािशनिक तत्िों से सुपररचित िोिा • अभ्युदय एिं निश्रेयस का सुबोध िोिा
  • 3. कठोपनिषद प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली यथा पुरस्ताद् भववता प्रतीत औद्दालककरारुणिममत्प्प्रसृष्ट:। सुखं रात्री: शनयता वीतमन्युस्त्प्वां ददृसशवान्मृत्प्युमुखात्प्प्रमुक्तम् ॥११॥ िब्दार्श: त्िां मृत्युमुखात् प्रमुक्तम ् ददृशििाि् = तुझे मृत्यु के मुख से प्रमुक्त िुआ देखिे पर; मत्प्रसृष्ट: आरुणि: औद्दालकक: = मेरे द्िारा प्रेररत, आरुणि उद्दालक (तुम्िारा वपता); यर्ा पुरस्ताद् प्रतीत: = पिले की भांनत िी विश्िास करके ; िीतमन्यु: भविता =क्रोधरहित एिं दु:खरहित िो जायगा; रात्री:सुखम ् िनयता = रात्रत्रयों में सुखपूिशक सोयेगा। अर्श: यमराज िे िचिके ता से किा- तुझे मृत्यु के मुख से प्रमुक्त देखिे पर मेरे द्िारा प्रेररत उद्दालक (तुम्िारा वपता) पूिशित विश्िास करके क्रोध एिं दु:ख से रहित िो जायगा, (जीिि भर) रात्रत्रयों में सुखपूिशक् सोयेगा।
  • 4. कठोपनिषद प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली स्वगे लोक ि भयं ककञ्चिाप्स्त ि तत्र त्प्वं ि जरया बबभेनत। उभे तीत्प्वामशिायावपपासे शेकानतगो मोदते स्वगमलोके ॥१२॥ िब्दार्श: स्िगे लोक ककञ्िि भयम ् ि अस्स्त = स्िगशलोक में ककस्ञ्ित् भय ििीं िै; तत्र त्िं ि = ििां आप(मृत्यु) भी ििीं िैं; जरया ि त्रबभेनत= कोई िृद्धािस्र्ा से ििीं डरता; स्िगशलोके = स्िगश लोक में (ििां के नििासी ); अििायावपपासे = भूख और प्यास; उभे तीत्िाश = दोिों को पार करके ;िोकानतग: =िोक (दु:ख) से दूर रिकर; मोदते = सुख भोगते िैं। अर्श: िचिके ता िे किा-स्िगशलोक में ककस्ञ्िन्मात्र भी भय ििीं िै। ििां आप (मृत्युस्िरुप) भी ििीं िैं। ििां कोई जरा (िृद्धािस्र्ा) से ििीं डरता। स्िगशलोक के नििासी भूख-प्यास दोिों को पार करके िोक (दु:ख) सेदूर रिकर सुख भोगते िैं।
  • 5. कठोपनिषद प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली स त्प्वमप्नि स्वनयममध्येवष मृत्प्यों प्रब्रूहि त्प्वं श्रद्दधािाय मह्यम। स्वगमलोका अमृतत्प्वं भजन्त एतद् द्ववतीयेि वृिे वरेि ॥१३॥ िब्दार्श: मृत्यो =िे मृत्युदेि;स त्िं स्िर्गयशम् अस्र्गिं अध्येवष = िि आप स्िगश-प्रास्प्त के साधिरुप अस्र्गि को जािते िैं; त्िं मह्यम श्रद्दधािाय प्रब्रूहि =आप मुझ श्रद्धालु को (उस अस्र्गि को) बतायें। स्िगशलोका: अमृतत्िं भजन्ते =स्िगशलोक के नििासी अमरत्ि को प्राप्त् िोते िैं; एतद् द्वितीयेि िरेि िृिे =(मैं) यि दूसरा िर मांगता िूं। अर्श: िे मृत्युदेि, िि आप स्िगशप्रास्प्त की साधिरुप अस्र्गि को जािते िैं। आप मुझ श्रद्धालु को उसे बता दें। स्िगशलोक के नििासी अमरत्ि को प्राप्त िो जाते िैं। मैं यि दूसरा िर मांगता िूं।
  • 6. कठोपनिषद प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली प्र ते ब्रवीसम तदु मे निवोध स्वनयममप्निं िचचके त: प्रजािि्। अिन्तलोकाप्ततमथो प्रनतष्ठां ववद्चध त्प्वमेतं निहितं गुिायाम् ॥१४॥ िब्दार्श: िचिके त: = िे िचिके ता; स्िर्गयशम् अस्र्गिम् प्रजािि् ते प्रब्रिीशम= स्िगशप्रास्प्त की साधिरुप अस्र्गिविद्या को भली प्रकार जाििेिाला मैं तुम्िें इसे बता रिा िूं;तत् उ मे निबोध = उसे भली प्रकार मुझसे जाि लो; त्िं एतम् =तुम इसे;अिन्तलोकास्प्तम् = अिन्तलोक की प्रास्प्त करािेिाली; प्रनतष्ठाम् =उसकी आधाररुपा; अर्ो = तर्ा;गुिायाम् निहितम् = बुद्चधरुपी गुिा में स्स्र्त (अर्िा रिस्यमय एिं गूझ् ); विद्चध =समझो। अर्श: िे िचिके ता स्िगशप्रदा अस्र्गिविद्या को जाििेिाला मैं तुम्िारे शलए भलीभांनत समझाता िूं। (तुम) इसे मुझसे जाि लो। तुम इस विद्या को अिन्तलोक की प्रास्प्त करािेिाली, उसकी आधाररुपा और बुद्चधरुपी गुिा मे स्स्र्त समझो।
  • 7. कठोपनिषद प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली लोकाहदमप्निं तमुवाच तस्मै या इष्टका यावतीवाम यथा वा। स चावप तत्प्प्रत्प्यवदद्यथोक्तमथास्य मृत्प्यु: पुिरेवाि तुष्ट:॥१५॥ िब्दार्श: तम ् लोकाहदम ् अस्र्गिम ् तस्मै उिाि = उस लोकाहद (स्िगश-लोक की साधि-रुपा) अस्र्गिविद्या को उस (िचिके ता )को कि हदया; या िा यािती: इष्टका: = (उसमें कु ण्डनिमाशि आहद के शलए )जो-जो अर्िा स्जतिी- स्जतिी ईंटें (आिश्यक िोती िैं ); िा यर्ा = अर्िा स्जस प्रकार(उिका ियि िो; ि स अवप तत् यर्ोक्तम ् प्रत्यिदत् =और उस (िचिके ता)िे भी उसे जैसा किा गया र्ा, पुि: सुिा हदया; अर्= इसके बाद; मृत्यु: अस्य तुष्ट: = यमराज उस पर संतुष्ट िोकर; पुि: एि आि = पुि: बोले। अर्श: उस लोकाहद अस्र्गिविद्या को उसे (िचिके ता को )कि हदया। (कु ण्डनिमाशि इत्याहद में) जो–जो अर्िा स्जतिी-स्जतिी ईंटें (आिश्यक िोती िैं) अर्िा स्जस प्रकार (उिका ियि िो)। और उस (िचिके ता) िे भी उसे जैसा किा गया र्ा, पुि: सुिा हदया। इसके बाद यमराज उस पर संतुष्ट िोकर पुि: बोले।
  • 8. कठोपनिषद प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली तमब्रवीत प्रीयमािो मिात्प्मा वरं तवेिाद्य ददासम भूय:। तवैव िामा भववतायमप्नि: सृक््ां चेमामिेकरुपां गृिाि ॥१६॥ िब्दार्श: प्रीयमाि: मिात्मा तम ् अब्रिीत् =प्रसन्ि एिं पररतुष्ट िुए मिात्मा यमराज उससे बोले;अद्य ति इि भूय: िरम ् ददाशम = अब (मैं) तुम्िें यिां पुि: (एक अनतररक्त)िर देता िूं; अयम ् अस्र्गि: ति एि िाम्रा भविता = यि अस्र्गि तुम्िारे िी िाम से (प्रख्यात) िोगी; ि इमाम् अिेकरुपाम् सृक्ङाम् गृिाि = और इस अिेक रुपों िाली (रत्िों की )माला को स्िीकार करो। अर्श: मिात्मा यमराज प्रसन्ि एिं पररतुष्ट िोकर उससे बोले-अब मैं तुम्िें यिां पुि: एक (अनतररक्त) िर देता िूं। यि अस्र्गि तुम्िारे िी िाम से विख्यात िोगी। और इस अिेक रुपोंिाली माला को स्िीकार करो।
  • 9. कठोपनिषद प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली बत्रिाचचके तप्स्त्रसभरेत्प्य सप्न्धं बत्रकममकृ त् तरनत जन्ममृत्प्यू। ब्रह्मजज्ञ। देवमीड्यं ववहदत्प्वा निचाय्येमां शानितमत्प्यन्तमेनत ॥१७॥ िब्दार्श: त्रत्रिाचिके त: = िाचिके त अस्र्गि का तीि बार अिुष्ठाि् करिेिाला; त्रत्रशभ: सस्न्धम ् एत्य =तीिों(ऋक्, साम, यजु:िेद) के सार् सम्बन्ध जोड़कर अर्िा माता, वपता, गुरु से सम्बद्ध िोकर, त्रत्रकमशकृ त = तीि कमों (यज्ञ दाि तप) को करिेिाला मिुष्य; जन्ममृत्यु तरनत= जन्म और मृत्यु को पार कर लेता िै, ब्रह्मजज्ञम ् =ब्रह्म से उत्पन्ि सृस्ष्ट (अर्िा अस्र्गिदेि) के जाििे िाले; ईड्यम देिम ् = स्तििीय अस्र्गिदेि (अर्िा ईश्िर) को;विहदत्िा=जािकर; नििाय्य = इसका ियि करके इसको भली प्रकार समझकर देखकर; इमाम ् अत्यन्तम ् िास्न्तम ् एनत = इस अत्यन्त िास्न्त को प्राप्त् िो जाता िै। अर्श: जो भी मिुष्य इस िाचिके त अस्र्गि का तीि बार अिुष्ठाि् करता िै और तीिों (ऋक्, साम, यजु:िेदों) से सम्बद्ध िो जाता िै तर्ा तीिों कमश(यज्ञ, दाि, तप) करता िै, िि जन्म-मृत्यु को पार कर लेता िै। िि ब्रह्मा से उत्पन्ि उपासिीय अस्र्गिदेि को जािकर और उसकी अिुभुनत करके परम िास्न्त को प्राप्त कर लेता िै।
  • 10. कठोपनिषद प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली य एवं ववद्वांप्श्चिुते िाचचके तम्। स मृत्प्यृपाशािृ पुरत: प्रिोद्य शोकानतगो मोदते स्वगमलोके ॥१८॥ िब्दार्श: एतत् त्रयम ् = इि तीिों (ईंटो के स्िरुप संख्या और ियि विचध)को; विहदत्िा = जािकर; त्रत्रिाचिके त: = तीि बार िाचिके त अस्र्गि का अिुष्ठाि करिेिाला; य एिम ् विद्िाि् = जो भी इस प्रकार जाििेिाला ज्ञािी पुरुष: िाचिके तम ् चििुते = िाचिके त अस्र्गिका ियि करता िै; स मृत्युपािाि् पुरत: प्रिोद्य =िि मृत्यु के पािों को उपिे सामिे िी (अपिे जीििकाल में िी )काटकर;िोकानतग: स्िगशलोके मोदते = िोक को पार करके स्िगश लोक में आिन्द का अिुभि करता िै। (मृत्युं जयनत मृत्युञ्जय:) अर्श: इि तीिों (ईंटों के स्िरुप संख्या और ियि-विचध) को जािकर तीि बार िाचिके त अस्र्गि का अिुष्ठाि करिेिाला जो भी विद्िाि पुरुष िाचिके त अस्र्गि का ियि करता िै, िि (अपिे जीििकाल मे िी) मृत्यु के पािों को अपिे सामिे िी काटकर, िोक को पार कर, स्िगशलोक में आिन्द का अिुभि करता िै।
  • 11. कठोपनिषद प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली एष तेऽप्नििमचचके त: स्वनयो यमवृिीथा द्ववतीयेि वरेि। एतमप्निं तवैव प्रवक्ष्यप्न्त जिासस्तृतीयं वरं िचचके तो वृष्िीष्व॥१९॥ िब्दार्श: िचिके त:= िे िचिके ता; एष ते स्िर्गयश: अस्र्गि: = यि तुमसे किी िुई स्िगश की साधिरुपा अस्र्गिविद्या िै; यम ् द्वितीयेि िरेि अिृिीर्ा: =स्जसे तुमिे दूसरे िर से मांगा र्ा; एतम ् अस्र्गिम ् =इस अस्र्गिको;जिास: =लोग;ति एि प्रिक्ष्यस्न्त =तुम्िारी िी (तुम्िारे िाम से िी) किा करेंगे;िचिके त = िे िचिके ता; तृतीयम ् िरम ् िृिीष्ि= तीसरा िर मांगों। अर्श: िे िचिके ता, यि तुमसे किी िुई स्िगशसाधिरुपा अस्र्गिविधा िै, स्जसे तुमिे दूसरे िर से मांगा र्ा। इस अस्र्गि को लोग तुम्िारे िाम से किा करेंगे। िे िचिके ता, तीसरा िर मांगों।
  • 12. कठोपनिषद प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली • येयं प्रेते ववचचककत्प्सा मिुष्येऽस्तीत्प्येके िायमस्तीनत चैके । एतद्ववद्यामिुसशष्टस्त्प्वयािं वरािामेष वरस्तृतीय: ॥२०॥ िब्दार्श: प्रेते मिुष्ये या इयं विचिककत्सा = मृतक मिुष्य के संबंध में यि जो संिय िै;एके अयम ् अस्स्त इनत = कोई तो (किते िैं) यि आत्मा (मृत्यु के बाद) रिता िै; ि एके ि अस्स्त इनत = और कोई (किते िैं) ििीं रिता िै; त्िया अिुशिष्ट: अिम ् = आपके द्िारा उपहदष्ट मैं; एतत् विद्याम ् =इसे भली प्रकार जाि लूं; एष िरािाम ् तृतीय: िर: = यि िरों में तीसरा िर िै। अर्श: मृतक मिुष्य के संबंध में यि जो संिय िै कक कोई किते िैं कक यि आत्मा(मृत्यु के पश्िात) रिता िै और कोई किते िैं कक ििीं रिता, आपसे उपदेि पाकर मैं इसे जाि लूं, यि िरों मे तीसरा िर िै।
  • 13. कठोपनिषद प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली स्मरिीय बबंदु • कठोपनिषद कृ ष्ि यजुिेद िाखा का मित्िपूिश उपनिषद िै • कठोपनिषद के रिनयता कठ िाम के आिायश को मािा जाता िै • कठोपनिषद दो अध्यायों में विभक्त िै,प्रत्येक अध्याय में तीि- तीि बस्ललयां िैं • कठोपनिषद यम िचिके ता संिाद के रूप में आत्म विषयक ज्ञाि का निदिशि कराता िै • कठोपनिषद के अंतगशत प्रर्म अध्याय की प्रर्म बलली में 29 मंत्र, द्वितीय बलली में 25 मंत्र एिं तृतीय बलली में 17 मंत्र िै, इस प्रकार कठोपनिषद के प्रर्म अध्याय में कु ल 71 मंत्र िै
  • 14. कठोपनिषद प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली मित्प्वपूिम प्रश्िावली • कठोपनिषद यजुिेद की ककस िाखा से संबंचधत िै ? • िचिके ता के वपता के िंि का क्या िाम बताया गया िै ? • विश्िस्जत यज्ञ का आयोजि ककसके द्िारा ककया गया र्ा ? • कठोपनिषद के प्रमुख पात्र कौि िैं ? • कठोपनिषद के प्रत्येक अध्याय में ककतिी बलली िै ? • िचिके ता यमराज प्रर्म िरदाि के रूप में क्या मांगता िै ? • यमराज स्िगश की साधिभूत अस्र्गिविद्या को ककसके िाम से प्रशसद्ध िोिे का िरदाि देते िैं ?
  • 15. THANK YOU DR. DEEPTI BAJPAI ASSOCIATE PROFESSOR K.M.G.G.P.G.C. BADALPUR, GATUM BUDH NAGAR