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चन्द्र गहना से
लौटती बैर
ह िं दी F. A 3 TO O L : 1
पाठ का सार
• इस कविता में कवि का प्रकॄ तत के प्रतत गहरा अनुराग व्यक्त हुआ है।
िह चंर गहना नामक स्थान से लौट रहा है। लौटते हुए उसके ककसान
मन को खेत-खललहान एिं उनका प्राकृ ततक पररिेश सहज आकवषित कर
लेता है। उसे एक ठिगना चने का पौधा ठिखता है, जजसके सर पर
गुलाबी फू ल पगडी के समान लगता है। िह उसे िुल्हे के समान प्रतीत
होता है। िह ं पास में अलसी का पौधा है, जो सुन्द्िर युिती की भांतत
लगता है। खेत में सरसों का पौधा वििाह योग्य लडकी के समान
लगता है। खेतों के समीप से रेल भी होकर गुज़रती है। पास में तालाब
की शोभा िेखने लायक है। तालाब के ककनारे पर पत्थर पडे हुए हैं,
मछल की ताक में बगुला चुपचाप खडा है। िूर सारस के जोडे का
स्िर सुनाई िे रहा है। यह सब कवि का मन मोह लेते हैं। इस कविता
में कवि की उस सृजनात्मक कल्पना की अलभव्यजक्त है जो साधारण
चीज़ों में भी असाधारण सौंियि िेखती है और उस सौंियि को शहर
विकास की तीव्र गतत के बीच भी अपनी संिेिना में सुरक्षित रखना
चाहती है। यहााँ प्रकृ तत और संस्कृ तत की एकता व्यक्त हुई है।
पहला पि
• िेखा आया चंर गहना।
• िेखता हूाँ दृश्य मैं
• मेड पर इस खेत पर मैं बैिा अके ला।
• एक बीते के बराबर
• यह हरा ठिगना चना,
• बााँधे मुरैिा शीश पर
• छोटे गुलाबी फू ल का,
• सज कर खडा है।
• पास ह लमल कर उगी है
• बीच में अलसी हिील
• िेह की पतल , कमर की है लचील ,
• नीले फू ले फू ल को लसर पर चढा कर
• कह रह है, जो छू ए यह,
• िूाँ हृिय का िान उसको।
• और सरसों की न पूछो-
• हो गई सबसे सयानी,
• हाथ पीले कर ललए हैं
• ब्याह-मंडप में पधार
• फाग गाता मास फागुन
• आ गया है आज जैसे।
• िेखता हूाँ मैं: स्ियंिर हो रहा है,
• पकृ तत का अनुराग-अंचल ठहल रहा है
• इस विजन में,
• िूर व्यापाररक नगर से
• प्रेम की वप्रय भूलम उपजाऊ अधधक है।
भािाथि पहला पि
• किी चन्द्र गहना िेखकर लौटते हुए एक पेड की मेड पर अके ला
बैिा हुआ खेतों के प्राकृ ततक रश्य िेख रहा है| उन्द्होंने िेखा छोटा-
सा चने का पौधा, जजसकी ऊाँ चाई एक बाललश्त भर की है, लसर पर
गुलाबी रंग का मुरैिे- से जान पडते है| िह िुल्हे की तरह सजकर
खडा है और उसके तनकट हिील अलसी खडी है| अलसी की िेह
पतल है, कमर लचकने िाल है| िह लसर पर नीला फू ल चढाकर
मनो कह रह है जो इस फू ल को छु लेगा उसे मैं अपना ठिल िे
िूंगी| उधर सरसों की तो बात ह न पूछो| लगता है अब सयानी
(यूिती) हो गयी है| उसके पीले फू ल िेखकर किी कहता है उसके
हाथ पीले कर ललए हैं और वििाह मंडप में आ गयी है| फागुन का
मह ना ख़ुशी से फाग गा रहा है| किी को लगता है की स्ियंिर हो
रहा है| इस सुनसान िेत्र में प्रकृ तत का प्रेम भरा आाँचल ठहल रहा
है| सब प्रेममग्न ठिखाई पढ रहे हैं|
• इसललए किी को लगता है कक व्यापाररक शहरों की अपेिा गािं की
धरती प्यार के मामले में भी अधधक उपजाऊ है| यहााँ तो पेड- पौधे
तक प्यार करते हैं|
िूसरा पि
• और पैरों के तले हैं एक पोखर,
• उि रह है इसमें लहररयााँ,
• नील तल में जो उगी है घास भूर
• ले रह िह भी लहररयााँ।
• एक चााँि का बडा-सा गोल खंभा
• आाँख को है चकमकाता।
• हैं कईं पत्थर ककनारे
• पी रहे चुपचाप पानी,
• प्यास जाने कब बुझेगी!
• चुप खडा बगुला डुबाए टााँग जल में,
• िेखते ह मीन चंचल
• ध्यान-तनरा त्यागता है,
• चट िबाकर चोंच में
• नीचे गले के डालता है!
• एक काले माथ िाल चतुर धचडडया
• श्िेत पंखों के झपाटे मार फौरन
• टूट पडती है भरे जल के हृिय पर,
• एक उजल चटुल मछल
• चोंच पील में िबा कर
• िूर उडती है गगन में!
• औ' यह से-
• भूमी ऊाँ ची है जहााँ से-
• रेल की पटर गई है।
• ट्रेन का टाइम नह ं है|
• मैं यहााँ स्िछन्द्ि हूाँ, जाना नह ं है|
भािाथि िूसरा पि
• किी के सामने एक छोटा तालाब है| उसमे लहरें उि रह हैं| तालाब के
नीले तल पर कु छ भूर -सी घास उगी हुई है और िह भी लहरों के
साथ डोल रह हैं| पानी की सतह पर सूयि का बबम्ब ऐसा लगता है
जैसे चंडी का खम्बा हो जो आखों को चुंधधया रहा है| तालाब के
ककनारे अनेक पत्थर हैं, जो पानी पीते हुए से लग रहें हैं, पर ऐसा लग
रहा है न जाने कब बुझेगी| एक बगुला पानी में एक टांग डुबाये
चुपचाप खडा है| जैसे ह उसे कोई चंचल मछल ठिखाई पडती है,
अपनी ध्यान की नींि को त्यागकर उसे तुरंत पकड कर तनकल जाता
है| एक धचडडया आती है जजसका माथा काला है पर पंख सफ़े ि हैं| िह
मछल को िेखते ह पानी पर झपटकर मछल को चोंच में िबाकर िूर
उड जाती है|
• िहां से कु छ ऊं चाई पर रेल की पटर , इस समय रेल के आने- जाने
का कोई समय नह ं है, इसललए किी को लगता है की उन्द्हें कह आना
जाना नह ं है| उनके पास प्रकृ तत के सोंियि को तनहारने का समय है|
तीसरा पि
• धचत्रकू ट की अनगढ चौडी
• कम ऊाँ ची-ऊाँ ची पहाडडयााँ
• िूर ठिशाओं तक फै ल हैं।
• बााँझ भूलम पर
• इधर-उधर ररंिा के पेड
• कााँटेिार कु रूप खडे हैं
• सुन पडता है
• मीिा-मीिा रस टपकता
• सुग्गे का स्िर
• टें टें टें टें;
• सुन पडता है
• िनस्थल का हृिय चीरता
• उिता-धगरता,
• सारस का स्िर
• ठटरटों ठटरटों;
• मन होता है-
• उड जाऊाँ मैं
• पर फै लाए सारस के संग
• जहााँ जुगुल जोडी रहती है
• हरे खेत में
• सच्ची प्रेम-कहानी सुन लूाँ
• चुप्पे-चुप्पे।
भािाथि तीसरा पि
• किी के सामने खेतों के पास धचत्रकू ट की पहाडडयां हैं जो
िेखने में बेडौल हैं, अधधक ऊाँ ची नह ं है और िूर-िूर तक
फै ल है उस पहाडडयों पर खास िनस्पतत न होने से िे
बााँझ से लगती हैं| कह ं-कह ं र िां के कट ले और कु रूप पेड
खडे हैं| पर ऐसे में भी तोते की मीिी टे-टे सुनाई पडती है|
सारस का स्िर भी उडता- धगरता रहता है जो िन को
चीरता- सा लगता है| किी का मन करता है कक िह भी
सारसों के साथ उडकर िहां जाये, जहााँ िे नर- मािा का
जोडा बनाकर रहते हैं| िह िहां जाकर उनकी सच्ची प्रेम
कहानी को चुपचाप सुनना चाहता है|
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चन्द्र गहना

  • 1. चन्द्र गहना से लौटती बैर ह िं दी F. A 3 TO O L : 1
  • 2. पाठ का सार • इस कविता में कवि का प्रकॄ तत के प्रतत गहरा अनुराग व्यक्त हुआ है। िह चंर गहना नामक स्थान से लौट रहा है। लौटते हुए उसके ककसान मन को खेत-खललहान एिं उनका प्राकृ ततक पररिेश सहज आकवषित कर लेता है। उसे एक ठिगना चने का पौधा ठिखता है, जजसके सर पर गुलाबी फू ल पगडी के समान लगता है। िह उसे िुल्हे के समान प्रतीत होता है। िह ं पास में अलसी का पौधा है, जो सुन्द्िर युिती की भांतत लगता है। खेत में सरसों का पौधा वििाह योग्य लडकी के समान लगता है। खेतों के समीप से रेल भी होकर गुज़रती है। पास में तालाब की शोभा िेखने लायक है। तालाब के ककनारे पर पत्थर पडे हुए हैं, मछल की ताक में बगुला चुपचाप खडा है। िूर सारस के जोडे का स्िर सुनाई िे रहा है। यह सब कवि का मन मोह लेते हैं। इस कविता में कवि की उस सृजनात्मक कल्पना की अलभव्यजक्त है जो साधारण चीज़ों में भी असाधारण सौंियि िेखती है और उस सौंियि को शहर विकास की तीव्र गतत के बीच भी अपनी संिेिना में सुरक्षित रखना चाहती है। यहााँ प्रकृ तत और संस्कृ तत की एकता व्यक्त हुई है।
  • 3. पहला पि • िेखा आया चंर गहना। • िेखता हूाँ दृश्य मैं • मेड पर इस खेत पर मैं बैिा अके ला। • एक बीते के बराबर • यह हरा ठिगना चना, • बााँधे मुरैिा शीश पर • छोटे गुलाबी फू ल का, • सज कर खडा है। • पास ह लमल कर उगी है • बीच में अलसी हिील • िेह की पतल , कमर की है लचील , • नीले फू ले फू ल को लसर पर चढा कर • कह रह है, जो छू ए यह,
  • 4. • िूाँ हृिय का िान उसको। • और सरसों की न पूछो- • हो गई सबसे सयानी, • हाथ पीले कर ललए हैं • ब्याह-मंडप में पधार • फाग गाता मास फागुन • आ गया है आज जैसे। • िेखता हूाँ मैं: स्ियंिर हो रहा है, • पकृ तत का अनुराग-अंचल ठहल रहा है • इस विजन में, • िूर व्यापाररक नगर से • प्रेम की वप्रय भूलम उपजाऊ अधधक है।
  • 5. भािाथि पहला पि • किी चन्द्र गहना िेखकर लौटते हुए एक पेड की मेड पर अके ला बैिा हुआ खेतों के प्राकृ ततक रश्य िेख रहा है| उन्द्होंने िेखा छोटा- सा चने का पौधा, जजसकी ऊाँ चाई एक बाललश्त भर की है, लसर पर गुलाबी रंग का मुरैिे- से जान पडते है| िह िुल्हे की तरह सजकर खडा है और उसके तनकट हिील अलसी खडी है| अलसी की िेह पतल है, कमर लचकने िाल है| िह लसर पर नीला फू ल चढाकर मनो कह रह है जो इस फू ल को छु लेगा उसे मैं अपना ठिल िे िूंगी| उधर सरसों की तो बात ह न पूछो| लगता है अब सयानी (यूिती) हो गयी है| उसके पीले फू ल िेखकर किी कहता है उसके हाथ पीले कर ललए हैं और वििाह मंडप में आ गयी है| फागुन का मह ना ख़ुशी से फाग गा रहा है| किी को लगता है की स्ियंिर हो रहा है| इस सुनसान िेत्र में प्रकृ तत का प्रेम भरा आाँचल ठहल रहा है| सब प्रेममग्न ठिखाई पढ रहे हैं|
  • 6. • इसललए किी को लगता है कक व्यापाररक शहरों की अपेिा गािं की धरती प्यार के मामले में भी अधधक उपजाऊ है| यहााँ तो पेड- पौधे तक प्यार करते हैं|
  • 7. िूसरा पि • और पैरों के तले हैं एक पोखर, • उि रह है इसमें लहररयााँ, • नील तल में जो उगी है घास भूर • ले रह िह भी लहररयााँ। • एक चााँि का बडा-सा गोल खंभा • आाँख को है चकमकाता। • हैं कईं पत्थर ककनारे • पी रहे चुपचाप पानी, • प्यास जाने कब बुझेगी! • चुप खडा बगुला डुबाए टााँग जल में, • िेखते ह मीन चंचल
  • 8. • ध्यान-तनरा त्यागता है, • चट िबाकर चोंच में • नीचे गले के डालता है! • एक काले माथ िाल चतुर धचडडया • श्िेत पंखों के झपाटे मार फौरन • टूट पडती है भरे जल के हृिय पर, • एक उजल चटुल मछल • चोंच पील में िबा कर • िूर उडती है गगन में! • औ' यह से- • भूमी ऊाँ ची है जहााँ से- • रेल की पटर गई है। • ट्रेन का टाइम नह ं है| • मैं यहााँ स्िछन्द्ि हूाँ, जाना नह ं है|
  • 9. भािाथि िूसरा पि • किी के सामने एक छोटा तालाब है| उसमे लहरें उि रह हैं| तालाब के नीले तल पर कु छ भूर -सी घास उगी हुई है और िह भी लहरों के साथ डोल रह हैं| पानी की सतह पर सूयि का बबम्ब ऐसा लगता है जैसे चंडी का खम्बा हो जो आखों को चुंधधया रहा है| तालाब के ककनारे अनेक पत्थर हैं, जो पानी पीते हुए से लग रहें हैं, पर ऐसा लग रहा है न जाने कब बुझेगी| एक बगुला पानी में एक टांग डुबाये चुपचाप खडा है| जैसे ह उसे कोई चंचल मछल ठिखाई पडती है, अपनी ध्यान की नींि को त्यागकर उसे तुरंत पकड कर तनकल जाता है| एक धचडडया आती है जजसका माथा काला है पर पंख सफ़े ि हैं| िह मछल को िेखते ह पानी पर झपटकर मछल को चोंच में िबाकर िूर उड जाती है| • िहां से कु छ ऊं चाई पर रेल की पटर , इस समय रेल के आने- जाने का कोई समय नह ं है, इसललए किी को लगता है की उन्द्हें कह आना जाना नह ं है| उनके पास प्रकृ तत के सोंियि को तनहारने का समय है|
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  • 11. • िनस्थल का हृिय चीरता • उिता-धगरता, • सारस का स्िर • ठटरटों ठटरटों; • मन होता है- • उड जाऊाँ मैं • पर फै लाए सारस के संग • जहााँ जुगुल जोडी रहती है • हरे खेत में • सच्ची प्रेम-कहानी सुन लूाँ • चुप्पे-चुप्पे।
  • 12. भािाथि तीसरा पि • किी के सामने खेतों के पास धचत्रकू ट की पहाडडयां हैं जो िेखने में बेडौल हैं, अधधक ऊाँ ची नह ं है और िूर-िूर तक फै ल है उस पहाडडयों पर खास िनस्पतत न होने से िे बााँझ से लगती हैं| कह ं-कह ं र िां के कट ले और कु रूप पेड खडे हैं| पर ऐसे में भी तोते की मीिी टे-टे सुनाई पडती है| सारस का स्िर भी उडता- धगरता रहता है जो िन को चीरता- सा लगता है| किी का मन करता है कक िह भी सारसों के साथ उडकर िहां जाये, जहााँ िे नर- मािा का जोडा बनाकर रहते हैं| िह िहां जाकर उनकी सच्ची प्रेम कहानी को चुपचाप सुनना चाहता है|