रेकी या स्पर्श-चिकित्सा
रेकी क्या है
रेकी या स्पर्श चिकित्सा में हाथों के द्वारा एक विशेष रीति से रोगी अथवा रोग से ग्रसित अंग को ब्रह्माण्डीय जीवन ऊर्जा या दिव्य प्राण शक्ति देकर बीमारी को दूर किया जाता है। रेकी शब्द दो जापानी शब्दों ' रे ' और ' की ' से बना है। ' रे ' का मतलब ब्रह्म बोध या दिव्य ज्ञान और ' की ' का मतलब जीवन ऊर्जा होता है (संस्कृत में की को प्राण कहते हैं)। यही जीवन ऊर्जा हमारे शरीर को चेतना प्रदान करती है और इस पूरे ब्रह्माण्ड में हमारे चारों तरफ विद्यमान है। रेकी शरीर, मन और आत्मा में सामंजस्य स्थापित करती है। जब हम बुजुर्गों के पैर छूते हैं और वे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद देते हैं, वह भी रेकी का ही रूप है। वास्तव में वे हमें जीवन ऊर्जा देकर अनुग्रहीत करते हैं।
यह बहुत आसान, अचूक, कारगर तथा एक सफल वैकल्पिक उपचार है। कोई भी व्यक्ति रेकी सीख सकता है। यह आवश्यक नहीं कि रेकी सीखने वाला व्यक्ति बहुत बुद्धिमान, योगी, संत-सन्यासी या आध्यात्मिक क्षेत्र का पहुंचा हुआ व्यक्ति हो। अभ्यास और एकाग्रता के बल पर कोई भी इसे सीख सकता है। न ही इसे सीखने के लिए उम्र का बंधन है। इसे सीखने के लिए कई वर्षों के लम्बे अभ्यास की आवश्यकता भी नहीं होती। रेकी एक ऐसा अद्भुत तरीका है, जिसमें रोगी और रोग से ग्रसित अंग को रेकी उपचारक द्वारा दिव्य प्राण ऊर्जा देकर बीमारी से छुटकारा दिलाया जाता है।
अलसी - एक चमत्कारी आयुवर्धक, आरोग्यवर्धक दैविक भोजन
“पहला सुख निरोगी काया, सदियों रहे यौवन की माया।” आज हमारे वैज्ञानिकों व चिकित्सकों ने अपनी शोध से ऐसे आहार-विहार, आयुवर्धक औषधियों, वनस्पतियों आदि की खोज कर ली है जिनके नियमित सेवन से हमारी उम्र 200-250 वर्ष या ज्यादा बढ़ सकती है और यौवन भी बना रहे। यह कोरी कल्पना नहीं बल्कि यथार्थ है। आपको याद होगा प्राचीन काल में हमारे ऋषि मुनि योग, तप, दैविक आहार व औषधियों के सेवन से सैकड़ों वर्ष जीवित रहते थे। इसीलिए ऊपर मैंने पुरानी कहावत को नया रुप दिया है। ऐसा ही एक दैविक आयुवर्धक भोजन है “अलसी” जिसकी आज हम चर्चा करेंगें।
पिछले कुछ समय से अलसी के बारे में पत्रिकाओं, अखबारों, इन्टरनेट, टी.वी. आदि पर बहुत कुछ प्रकाशित होता रहा है। बड़े शहरों में अलसी के व्यंजन जैसे बिस्कुट, ब्रेड आदि बेचे जा रहे हैं। भारत के विख्यात कार्डियक सर्जन डॉ. नरेश त्रेहान अपने रोगियों को नियमित अलसी खाने की सलाह देते हैं ताकि वह उच्च रक्तचाप व हृदय रोग से मुक्त रहे। विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) अलसी को सुपर स्टार फूड का दर्जा देता है। आयुर्वेद में अलसी को दैविक भोजन माना गया है। मैंने यह भी पढ़ा है कि सचिन के बल्ले को अलसी का तेल पिलाकर मजबूत बनाया जाता है तभी वो चौके-छक्के लगाता है और मास्टर ब्लास्टर कहलाता है। आठवीं शताब्दी में फ्रांस के सम्राट चार्ल मेगने अलसी के चमत्कारी गुणों से बहुत प्रभावित थे और चाहते थे कि उनकी प्रजा रोजाना अलसी खाये और निरोगी व दीर्घायु रहे इसलिए उन्होंने इसके लिए कड़े कानून बना दिए थे।
यह सब पढ़कर मेरी जिज्ञासा बढ़ती रही और मैंने अलसी से सम्बन्धित जितने भी लेख उपलब्ध हो सके पढ़े व अलसी पर हुई शोध के बारे में भी विस्तार से पढ़ा। मैं अत्यंत प्रभावित हुआ कि ये अलसी जिसका हम नाम भी भूल ग
मैं मानता हूँ कि मेरी कलम किसी को न्याय नहीं दे सकती है. मगर अपनी कलम से पूरी ईमानदारी के साथ यदि किसी के ऊपर अन्याय हो रहा है. तब उसको लेखन द्वारा उच्च अधिकारीयों तक पहुंचा दूँ. इस अख़बार के प्रथम पेज पर छपी खबर(मोबाईल चोरी के शक में युवक की तार से गला घोंटकर हत्या ) के बारें में मुझे जब अपने विश्वनीय सूत्रों से मालूम हुआ कि उपरोक्त केस पुलिस पैसे लेकर रफा-दफा करने के चक्कर में है. तभी मैंने थाने में जाकर उपरोक्त घटना का पूरा विवरण लिया उसके बाद पीड़ित पक्ष से मिला और अपने अख़बार में छपने से पहले हर रोज के अख़बारों के पत्रकारों के माध्यम से राष्ट्रिय अख़बारों में उपरोक्त घटना को प्रिंट करवाया. जिससे पुलिस के ऊपर दबाब बना और उसको आरोपितों की गिरफ्तारी दिखानी पड़ी. मेरी पत्रकारिता में काफी ऐसे अवसर आये है कि मेरे सूत्रों और आम आदमी ने किसी घटना की सूचना पुलिस को देने से पहले मुझे दी और अनेक बार मैंने पुलिस को फोन करके घटनास्थल पर बुलाया था. मैंने अपनी पत्रकारिता को लेकर सूत्रों और आम आदमी में यह विश्वास कायम किया था कि आपका नाम का जिक्र कभी नहीं आएगा. बेशक कोई कुत्ते की मौत मारे या धोखे से कभी मुझे मरवा दें. आप बिना झिझक के मुझे घटना और उसकी सच्चाई से अवगत करवाएं. मेरे बारें में यह मशहूर था कि एक बार कोई ख़बर सिरफिरे को पता चल जाये फिर खबर को खरीद या दबा नहीं सकता है, क्योंकि मुझे पत्रकारिता के शुरू से धन-दौलत से इतना मोह नहीं रहा है. हाँ, अपनी मेहनत और पसीने की कमाई का एक रुपया किसी के पास नहीं छोड़ता था. यदि शुरू में किसी ताकतवर व्यक्ति ने या किसी ने अपनी दबंगता के चलते रख भी लिए तो मैंने उसका कभी कोई अहित नहीं किया. मगर मेरे पैसे उसके पाप के घड़े की आखिरी बूंद साबित हुए. भगवान ने उनको ऐसी सजा दी कि काफी लोग तो दस-पन्दह साल तक भी उबर नहीं पायें. इसल
अलसी - एक चमत्कारी आयुवर्धक, आरोग्यवर्धक दैविक भोजन
“पहला सुख निरोगी काया, सदियों रहे यौवन की माया।” आज हमारे वैज्ञानिकों व चिकित्सकों ने अपनी शोध से ऐसे आहार-विहार, आयुवर्धक औषधियों, वनस्पतियों आदि की खोज कर ली है जिनके नियमित सेवन से हमारी उम्र 200-250 वर्ष या ज्यादा बढ़ सकती है और यौवन भी बना रहे। यह कोरी कल्पना नहीं बल्कि यथार्थ है। आपको याद होगा प्राचीन काल में हमारे ऋषि मुनि योग, तप, दैविक आहार व औषधियों के सेवन से सैकड़ों वर्ष जीवित रहते थे। इसीलिए ऊपर मैंने पुरानी कहावत को नया रुप दिया है। ऐसा ही एक दैविक आयुवर्धक भोजन है “अलसी” जिसकी आज हम चर्चा करेंगें।
पिछले कुछ समय से अलसी के बारे में पत्रिकाओं, अखबारों, इन्टरनेट, टी.वी. आदि पर बहुत कुछ प्रकाशित होता रहा है। बड़े शहरों में अलसी के व्यंजन जैसे बिस्कुट, ब्रेड आदि बेचे जा रहे हैं। भारत के विख्यात कार्डियक सर्जन डॉ. नरेश त्रेहान अपने रोगियों को नियमित अलसी खाने की सलाह देते हैं ताकि वह उच्च रक्तचाप व हृदय रोग से मुक्त रहे। विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) अलसी को सुपर स्टार फूड का दर्जा देता है। आयुर्वेद में अलसी को दैविक भोजन माना गया है। मैंने यह भी पढ़ा है कि सचिन के बल्ले को अलसी का तेल पिलाकर मजबूत बनाया जाता है तभी वो चौके-छक्के लगाता है और मास्टर ब्लास्टर कहलाता है। आठवीं शताब्दी में फ्रांस के सम्राट चार्ल मेगने अलसी के चमत्कारी गुणों से बहुत प्रभावित थे और चाहते थे कि उनकी प्रजा रोजाना अलसी खाये और निरोगी व दीर्घायु रहे इसलिए उन्होंने इसके लिए कड़े कानून बना दिए थे।
यह सब पढ़कर मेरी जिज्ञासा बढ़ती रही और मैंने अलसी से सम्बन्धित जितने भी लेख उपलब्ध हो सके पढ़े व अलसी पर हुई शोध के बारे में भी विस्तार से पढ़ा। मैं अत्यंत प्रभावित हुआ कि ये अलसी जिसका हम नाम भी भूल
रेकी या स्पर्श-चिकित्सा
रेकी क्या है
रेकी या स्पर्श चिकित्सा में हाथों के द्वारा एक विशेष रीति से रोगी अथवा रोग से ग्रसित अंग को ब्रह्माण्डीय जीवन ऊर्जा या दिव्य प्राण शक्ति देकर बीमारी को दूर किया जाता है। रेकी शब्द दो जापानी शब्दों ' रे ' और ' की ' से बना है। ' रे ' का मतलब ब्रह्म बोध या दिव्य ज्ञान और ' की ' का मतलब जीवन ऊर्जा होता है (संस्कृत में की को प्राण कहते हैं)। यही जीवन ऊर्जा हमारे शरीर को चेतना प्रदान करती है और इस पूरे ब्रह्माण्ड में हमारे चारों तरफ विद्यमान है। रेकी शरीर, मन और आत्मा में सामंजस्य स्थापित करती है। जब हम बुजुर्गों के पैर छूते हैं और वे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद देते हैं, वह भी रेकी का ही रूप है। वास्तव में वे हमें जीवन ऊर्जा देकर अनुग्रहीत करते हैं।
यह बहुत आसान, अचूक, कारगर तथा एक सफल वैकल्पिक उपचार है। कोई भी व्यक्ति रेकी सीख सकता है। यह आवश्यक नहीं कि रेकी सीखने वाला व्यक्ति बहुत बुद्धिमान, योगी, संत-सन्यासी या आध्यात्मिक क्षेत्र का पहुंचा हुआ व्यक्ति हो। अभ्यास और एकाग्रता के बल पर कोई भी इसे सीख सकता है। न ही इसे सीखने के लिए उम्र का बंधन है। इसे सीखने के लिए कई वर्षों के लम्बे अभ्यास की आवश्यकता भी नहीं होती। रेकी एक ऐसा अद्भुत तरीका है, जिसमें रोगी और रोग से ग्रसित अंग को रेकी उपचारक द्वारा दिव्य प्राण ऊर्जा देकर बीमारी से छुटकारा दिलाया जाता है।
अलसी - एक चमत्कारी आयुवर्धक, आरोग्यवर्धक दैविक भोजन
“पहला सुख निरोगी काया, सदियों रहे यौवन की माया।” आज हमारे वैज्ञानिकों व चिकित्सकों ने अपनी शोध से ऐसे आहार-विहार, आयुवर्धक औषधियों, वनस्पतियों आदि की खोज कर ली है जिनके नियमित सेवन से हमारी उम्र 200-250 वर्ष या ज्यादा बढ़ सकती है और यौवन भी बना रहे। यह कोरी कल्पना नहीं बल्कि यथार्थ है। आपको याद होगा प्राचीन काल में हमारे ऋषि मुनि योग, तप, दैविक आहार व औषधियों के सेवन से सैकड़ों वर्ष जीवित रहते थे। इसीलिए ऊपर मैंने पुरानी कहावत को नया रुप दिया है। ऐसा ही एक दैविक आयुवर्धक भोजन है “अलसी” जिसकी आज हम चर्चा करेंगें।
पिछले कुछ समय से अलसी के बारे में पत्रिकाओं, अखबारों, इन्टरनेट, टी.वी. आदि पर बहुत कुछ प्रकाशित होता रहा है। बड़े शहरों में अलसी के व्यंजन जैसे बिस्कुट, ब्रेड आदि बेचे जा रहे हैं। भारत के विख्यात कार्डियक सर्जन डॉ. नरेश त्रेहान अपने रोगियों को नियमित अलसी खाने की सलाह देते हैं ताकि वह उच्च रक्तचाप व हृदय रोग से मुक्त रहे। विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) अलसी को सुपर स्टार फूड का दर्जा देता है। आयुर्वेद में अलसी को दैविक भोजन माना गया है। मैंने यह भी पढ़ा है कि सचिन के बल्ले को अलसी का तेल पिलाकर मजबूत बनाया जाता है तभी वो चौके-छक्के लगाता है और मास्टर ब्लास्टर कहलाता है। आठवीं शताब्दी में फ्रांस के सम्राट चार्ल मेगने अलसी के चमत्कारी गुणों से बहुत प्रभावित थे और चाहते थे कि उनकी प्रजा रोजाना अलसी खाये और निरोगी व दीर्घायु रहे इसलिए उन्होंने इसके लिए कड़े कानून बना दिए थे।
यह सब पढ़कर मेरी जिज्ञासा बढ़ती रही और मैंने अलसी से सम्बन्धित जितने भी लेख उपलब्ध हो सके पढ़े व अलसी पर हुई शोध के बारे में भी विस्तार से पढ़ा। मैं अत्यंत प्रभावित हुआ कि ये अलसी जिसका हम नाम भी भूल ग
मैं मानता हूँ कि मेरी कलम किसी को न्याय नहीं दे सकती है. मगर अपनी कलम से पूरी ईमानदारी के साथ यदि किसी के ऊपर अन्याय हो रहा है. तब उसको लेखन द्वारा उच्च अधिकारीयों तक पहुंचा दूँ. इस अख़बार के प्रथम पेज पर छपी खबर(मोबाईल चोरी के शक में युवक की तार से गला घोंटकर हत्या ) के बारें में मुझे जब अपने विश्वनीय सूत्रों से मालूम हुआ कि उपरोक्त केस पुलिस पैसे लेकर रफा-दफा करने के चक्कर में है. तभी मैंने थाने में जाकर उपरोक्त घटना का पूरा विवरण लिया उसके बाद पीड़ित पक्ष से मिला और अपने अख़बार में छपने से पहले हर रोज के अख़बारों के पत्रकारों के माध्यम से राष्ट्रिय अख़बारों में उपरोक्त घटना को प्रिंट करवाया. जिससे पुलिस के ऊपर दबाब बना और उसको आरोपितों की गिरफ्तारी दिखानी पड़ी. मेरी पत्रकारिता में काफी ऐसे अवसर आये है कि मेरे सूत्रों और आम आदमी ने किसी घटना की सूचना पुलिस को देने से पहले मुझे दी और अनेक बार मैंने पुलिस को फोन करके घटनास्थल पर बुलाया था. मैंने अपनी पत्रकारिता को लेकर सूत्रों और आम आदमी में यह विश्वास कायम किया था कि आपका नाम का जिक्र कभी नहीं आएगा. बेशक कोई कुत्ते की मौत मारे या धोखे से कभी मुझे मरवा दें. आप बिना झिझक के मुझे घटना और उसकी सच्चाई से अवगत करवाएं. मेरे बारें में यह मशहूर था कि एक बार कोई ख़बर सिरफिरे को पता चल जाये फिर खबर को खरीद या दबा नहीं सकता है, क्योंकि मुझे पत्रकारिता के शुरू से धन-दौलत से इतना मोह नहीं रहा है. हाँ, अपनी मेहनत और पसीने की कमाई का एक रुपया किसी के पास नहीं छोड़ता था. यदि शुरू में किसी ताकतवर व्यक्ति ने या किसी ने अपनी दबंगता के चलते रख भी लिए तो मैंने उसका कभी कोई अहित नहीं किया. मगर मेरे पैसे उसके पाप के घड़े की आखिरी बूंद साबित हुए. भगवान ने उनको ऐसी सजा दी कि काफी लोग तो दस-पन्दह साल तक भी उबर नहीं पायें. इसल
अलसी - एक चमत्कारी आयुवर्धक, आरोग्यवर्धक दैविक भोजन
“पहला सुख निरोगी काया, सदियों रहे यौवन की माया।” आज हमारे वैज्ञानिकों व चिकित्सकों ने अपनी शोध से ऐसे आहार-विहार, आयुवर्धक औषधियों, वनस्पतियों आदि की खोज कर ली है जिनके नियमित सेवन से हमारी उम्र 200-250 वर्ष या ज्यादा बढ़ सकती है और यौवन भी बना रहे। यह कोरी कल्पना नहीं बल्कि यथार्थ है। आपको याद होगा प्राचीन काल में हमारे ऋषि मुनि योग, तप, दैविक आहार व औषधियों के सेवन से सैकड़ों वर्ष जीवित रहते थे। इसीलिए ऊपर मैंने पुरानी कहावत को नया रुप दिया है। ऐसा ही एक दैविक आयुवर्धक भोजन है “अलसी” जिसकी आज हम चर्चा करेंगें।
पिछले कुछ समय से अलसी के बारे में पत्रिकाओं, अखबारों, इन्टरनेट, टी.वी. आदि पर बहुत कुछ प्रकाशित होता रहा है। बड़े शहरों में अलसी के व्यंजन जैसे बिस्कुट, ब्रेड आदि बेचे जा रहे हैं। भारत के विख्यात कार्डियक सर्जन डॉ. नरेश त्रेहान अपने रोगियों को नियमित अलसी खाने की सलाह देते हैं ताकि वह उच्च रक्तचाप व हृदय रोग से मुक्त रहे। विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) अलसी को सुपर स्टार फूड का दर्जा देता है। आयुर्वेद में अलसी को दैविक भोजन माना गया है। मैंने यह भी पढ़ा है कि सचिन के बल्ले को अलसी का तेल पिलाकर मजबूत बनाया जाता है तभी वो चौके-छक्के लगाता है और मास्टर ब्लास्टर कहलाता है। आठवीं शताब्दी में फ्रांस के सम्राट चार्ल मेगने अलसी के चमत्कारी गुणों से बहुत प्रभावित थे और चाहते थे कि उनकी प्रजा रोजाना अलसी खाये और निरोगी व दीर्घायु रहे इसलिए उन्होंने इसके लिए कड़े कानून बना दिए थे।
यह सब पढ़कर मेरी जिज्ञासा बढ़ती रही और मैंने अलसी से सम्बन्धित जितने भी लेख उपलब्ध हो सके पढ़े व अलसी पर हुई शोध के बारे में भी विस्तार से पढ़ा। मैं अत्यंत प्रभावित हुआ कि ये अलसी जिसका हम नाम भी भूल
ऊर्जा चक्र
मनुष्य के शरीर में सात चक्राकार घूमने वाले ऊर्जा केन्द्र होते हैं, जो मेरूदंड में अवस्थित होते है और मेरूदंड (Spinal Column) के आधार से ऊपर उठकर खोपड़ी तक फैले होते हैं । इन्हें चक्र कहते हैं, क्योंकि संस्कृत में चक्र का मतलब वृत्त, पहिया या गोल वस्तु होता है। इनका वर्णन हमारे उपनिषदों में मिलता है। प्रत्येक चक्र को एक विशेष रंग में प्रदर्शित किया जाता है एवं उसमे कमल की एक निश्चित संख्या में पंखुड़ियां होती हैं। हर पंखुड़ी में संस्कृत का एक अक्षर लिखा होता है। इन अक्षरों में से एक अक्षर उस चक्र की मुख्य ध्वनि का प्रतिनिधित्व करता है।
ये चक्र प्राण ऊर्जा के कैंद्र हैं। यह प्राण ऊर्जा कुछ वाहिकाओं में बहती है, जिनको नाड़ियां कहते हैं। सुषुम्ना एक मुख्य नाड़ी है जो मेरुदन्ड में अवस्थित रहती है, दो पतली इड़ा और पिंगला नाम की नाड़ियां हैं जो मेरुदन्ड के समानान्तर क्रमशः बाई और दाहिनी तरफ अपस्थित रहती हैं। इड़ा और पिंगला मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों से संबन्ध बनाये रखती हैं। पिंगला बहिर्मुखी सूर्य नाड़ी है जो बाएं गोलार्ध से संबन्ध रखती है। इड़ा अन्तर्मुखी चंद्र नाड़ी है जो दाहिने गोलार्ध से संबन्ध रखती है।
प्रत्येक चक्र भौतिक देह के विशिष्ट हिस्से और अंग से संबन्ध रखता है और उसे सुचारु रूप से कार्य करने हेतु आवश्यक ऊर्जा उपलब्ध करवाता है। साथ में हर चक्र एक निश्चित स्तर तक के ऊर्जा कंपन को वर्णित करता है एवं विभिन्न चक्रों में मानव के शारीरिक एवं भावनात्मक पहलू भी प्रतिबिम्बित होते हैं। नीचे के चक्र शरीर के बुनियादी व्यवहार और आवश्यकता से संबन्धित हैं, सघन होते हैं और कम आवृत्ति पर कम्पन करते हैं। जबकि ऊपर के चक्र उच्च मानसिक और आध्यात्मिक संकायों से संबन्धित हैं। चक्रों में ऊर्जा का उन्मुक्त प्रवाह हमा
ऊर्जा-विज्ञान (Aura Healing)
कैंसर सहित सभी रोग शरीर में ऊर्जा के उन्मुक्त प्रवाह में आई रुकावट के कारण होते हैं।
शरीर क्या है? मनुष्य क्या है? प्राचीन काल से भौतिकशास्त्री यह कहते आये हैं कि बुनियादी स्तर से देखें तो हमारा यह शरीर शुद्ध रूप से सिर्फ एक ऊर्जा है। भौकिशास्त्री बारबरा ब्रेनान ने शरीर के बहुस्तरीय ऊर्जा क्षेत्र के अस्तित्व को सिद्ध किया है। इसे प्रभा-मण्डल, आभा-मण्डल या ओरा कहते हैं। इन्होंने वर्षों तक शोध करके इस ऊर्जा-चिकित्सा (Aura Healing) से दैहिक और भावनात्मक विकारों के उपचार की कला को विकसित किया है।
ऊर्जा-चिकित्सा - जीवन शक्ति ऊर्जा
भारत में इस ऊर्जा को ' प्राण ' तो चीन में इसे ' ची ' कहते हैं। भले इसकी सत्यता को वैज्ञानिक सिद्ध नहीं कर सके हों लेकिन चीन में एक ऐसा चिकित्सालय है जहां ऊर्जा-चिकित्सा विधाओं से हजारों रोगियों का उपचार होता है। यहां कई चमत्कार होते हैं। यहां पर उपचार इतना प्रभावशाली है कि एक रोगी के कैंसर की गांठ देखते ही देखते कुछ ही मिनटों में गायब हो गई और यह नजारा सोनोग्राफी मशीन के पटल पर स्पष्ट देखा व अंकित किया गया था। ऐसा लगता है कि भविष्य में रोगों के उपचार में ऊर्जा-चिकित्सा विधाओं जैसे एक्यूपंचर, एक्यूप्रेशर, ई.एफ.टी., प्रकाश, ध्वनि, रंग या रैकी का महत्व बहुत अधिक होगा। भौतिक-विज्ञान में कोई कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं, जिसे हम देख और नाप सकते हैं। लेकिन ऊर्जा चिकित्सक इस सर्वव्यापी जीवन शक्ति को ऊर्जा की संज्ञा देते हैं।
बारबरा ब्रेनान ने बड़े विवेकपूर्ण ढंग से आध्यात्मिकता और विज्ञान के समन्वय की कौशिश की है। ये अंतरिक्ष वैज्ञानिक हैं और नासा में शोध-वैज्ञानिक के पद पर कार्य कर चुकी हैं। ये भौतिकशास्त्री और मनोचिकित्सक हैं और 20 वर्षों से प्रभा-मण्डल और ऊर्जा-चिकित्सा पर अ
ऊर्जा चक्र
मनुष्य के शरीर में सात चक्राकार घूमने वाले ऊर्जा केन्द्र होते हैं, जो मेरूदंड में अवस्थित होते है और मेरूदंड (Spinal Column) के आधार से ऊपर उठकर खोपड़ी तक फैले होते हैं । इन्हें चक्र कहते हैं, क्योंकि संस्कृत में चक्र का मतलब वृत्त, पहिया या गोल वस्तु होता है। इनका वर्णन हमारे उपनिषदों में मिलता है। प्रत्येक चक्र को एक विशेष रंग में प्रदर्शित किया जाता है एवं उसमे कमल की एक निश्चित संख्या में पंखुड़ियां होती हैं। हर पंखुड़ी में संस्कृत का एक अक्षर लिखा होता है। इन अक्षरों में से एक अक्षर उस चक्र की मुख्य ध्वनि का प्रतिनिधित्व करता है।
ये चक्र प्राण ऊर्जा के कैंद्र हैं। यह प्राण ऊर्जा कुछ वाहिकाओं में बहती है, जिनको नाड़ियां कहते हैं। सुषुम्ना एक मुख्य नाड़ी है जो मेरुदन्ड में अवस्थित रहती है, दो पतली इड़ा और पिंगला नाम की नाड़ियां हैं जो मेरुदन्ड के समानान्तर क्रमशः बाई और दाहिनी तरफ अपस्थित रहती हैं। इड़ा और पिंगला मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों से संबन्ध बनाये रखती हैं। पिंगला बहिर्मुखी सूर्य नाड़ी है जो बाएं गोलार्ध से संबन्ध रखती है। इड़ा अन्तर्मुखी चंद्र नाड़ी है जो दाहिने गोलार्ध से संबन्ध रखती है।
प्रत्येक चक्र भौतिक देह के विशिष्ट हिस्से और अंग से संबन्ध रखता है और उसे सुचारु रूप से कार्य करने हेतु आवश्यक ऊर्जा उपलब्ध करवाता है। साथ में हर चक्र एक निश्चित स्तर तक के ऊर्जा कंपन को वर्णित करता है एवं विभिन्न चक्रों में मानव के शारीरिक एवं भावनात्मक पहलू भी प्रतिबिम्बित होते हैं। नीचे के चक्र शरीर के बुनियादी व्यवहार और आवश्यकता से संबन्धित हैं, सघन होते हैं और कम आवृत्ति पर कम्पन करते हैं। जबकि ऊपर के चक्र उच्च मानसिक और आध्यात्मिक संकायों से संबन्धित हैं। चक्रों में ऊर्जा का उन्मुक्त प्रवाह हमा
ऊर्जा-विज्ञान (Aura Healing)
कैंसर सहित सभी रोग शरीर में ऊर्जा के उन्मुक्त प्रवाह में आई रुकावट के कारण होते हैं।
शरीर क्या है? मनुष्य क्या है? प्राचीन काल से भौतिकशास्त्री यह कहते आये हैं कि बुनियादी स्तर से देखें तो हमारा यह शरीर शुद्ध रूप से सिर्फ एक ऊर्जा है। भौकिशास्त्री बारबरा ब्रेनान ने शरीर के बहुस्तरीय ऊर्जा क्षेत्र के अस्तित्व को सिद्ध किया है। इसे प्रभा-मण्डल, आभा-मण्डल या ओरा कहते हैं। इन्होंने वर्षों तक शोध करके इस ऊर्जा-चिकित्सा (Aura Healing) से दैहिक और भावनात्मक विकारों के उपचार की कला को विकसित किया है।
ऊर्जा-चिकित्सा - जीवन शक्ति ऊर्जा
भारत में इस ऊर्जा को ' प्राण ' तो चीन में इसे ' ची ' कहते हैं। भले इसकी सत्यता को वैज्ञानिक सिद्ध नहीं कर सके हों लेकिन चीन में एक ऐसा चिकित्सालय है जहां ऊर्जा-चिकित्सा विधाओं से हजारों रोगियों का उपचार होता है। यहां कई चमत्कार होते हैं। यहां पर उपचार इतना प्रभावशाली है कि एक रोगी के कैंसर की गांठ देखते ही देखते कुछ ही मिनटों में गायब हो गई और यह नजारा सोनोग्राफी मशीन के पटल पर स्पष्ट देखा व अंकित किया गया था। ऐसा लगता है कि भविष्य में रोगों के उपचार में ऊर्जा-चिकित्सा विधाओं जैसे एक्यूपंचर, एक्यूप्रेशर, ई.एफ.टी., प्रकाश, ध्वनि, रंग या रैकी का महत्व बहुत अधिक होगा। भौतिक-विज्ञान में कोई कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं, जिसे हम देख और नाप सकते हैं। लेकिन ऊर्जा चिकित्सक इस सर्वव्यापी जीवन शक्ति को ऊर्जा की संज्ञा देते हैं।
बारबरा ब्रेनान ने बड़े विवेकपूर्ण ढंग से आध्यात्मिकता और विज्ञान के समन्वय की कौशिश की है। ये अंतरिक्ष वैज्ञानिक हैं और नासा में शोध-वैज्ञानिक के पद पर कार्य कर चुकी हैं। ये भौतिकशास्त्री और मनोचिकित्सक हैं और 20 वर्षों से प्रभा-मण्डल और ऊर्जा-चिकित्सा पर अ
O Projeto de leitura “Ler + jovem”, lançado pelo Plano Nacional de Leitura com o apoio da RBE e a colaboração da Universidade do Minho, foi selecionado pela Equipa da BE, pelos Órgãos Pedagógicos e de Gestão deste Agrupamento de Escolas, pois desafia as escolas a procurarem estratégias que reaproximem os jovens do ensino secundário da leitura e que ajudem o público adulto a descobrir o prazer de ler, levando os alunos a fazerem promoção de leitura junto das comunidades locais. É neste contexto que surge a vontade de formalizar uma parceria que já existia, entre o Agrupamento de Escolas e a Santa Casa da Misericórdia de Mogadouro, com a assinatura de um protocolo para desenvolvimento do projeto “Redes de Leitura: Ler +, Ser +”. Foi um projeto desejado e são os primeiros passos deste projeto, iniciado em 2013/14, que serão partilhados neste I Encontro de Boas Práticas.
1. Prepared By: Atul V. Singh & Sunil Jain
Action For Social Advancement (ASA), Bhopal
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ds n'kd dh 'kq:vkr esa
3. esMkxkLdj esa fodflr dh xÃA ftlesa 15 o"kksZa rd esMkxkLdj
esa bl fof/k ij tkap ,oa iz;ksx gq,A,l-vkj-vkbZ- dk fodkl fiNys
,d nÓd esa rsth ls 29 ns'kksa es gqvk gSA
,l-vkj-vkÃ- fofÌ ls Ì ku dh T;knk iSnkokj ds dkj.k
çfr ikSÌ k dYyksa dh la[;k T;knk A
ckfy;ksa dh T;knk yEckÃA
nkusa okyh ckfy;ksa dh la[;k T;knkA
izfr ckfy ]nkuksa dh la[;k T;knkA
izfr 100 nkuksa dk otu T;knkA
,l- vkj- vkÃ- rduhd ds ykHk
lkekU;r% ,d fdyksxzke pkoy dh iSnkokj esa yxÒx 5000 yhVj ikuh
dh vko';drk gksrh
gSA nsÓ esa ikuh dh deh ds dkjÆdÃjkT;ksa esa Ì ku dh Âsrh ds
Õs=Qy esa deh gks jgh gSA ;fn ,lvkj-vkÃ- fofÌ viukÃtkrh gS
rks ge orZeku esa Ì ku ds fy, bLrseky gks jgs ikuh ls flafpr
Õs= esa 50 çfrÓr dh c<+ksÙkjh dj ldrs gSaA blls Ì ku dh
iSnkokj esa Òh de ls de 50 çfrÓr dh vfrfjDr c<+ksÙkjh gksxhA
•• de cht dh vkoÓ;drk & bl fof/k
esa ikSÌ Ókyk esa cht ls cht dks
vfÌ d nwjh ij cks;k tkrk gS ftlls
cht dh Â[kir de gksrh gSA
• de ikuh dh vkoÓ;drk & bl fofÌ
esa [ksr esa ikuh Òjdj ugha
j[krsA [ksr dÒh lw[kk o dÒh ue
j[kukiM+rk gSA blfy, ikuh dh de
vkoÓ;drk
• de mez ds ikSÌ ksa dk jksiÆ&
8-12 fnu ds ikSÌ ksa dk jksiÆde
xgjkÃij fd;k tkrk gS ftlls
ikSÌ ksa esa tM+sa o u;s dYys
vfÌ d la[;k esa ,oa de le; esa
fudyrs gSa vkSj iSnkokj vfÌ d
gksrh gSA
• vf/kd nwjh ij ikS/k jksibZ & ikS/ks
ls ikS/ks dh nwjh de ls de 25 ls-eh-
¼vf/kdre 50 ls-eh-½ gksus ls lw;Z dk
çdk’k çR;sd ikS/ks rd vklkuh ls
igq¡prk gS ftlls ikS/ksa esa ikuh]
LFkku ,oa iks"k.k ds fy, çfrLi)kZ
ugha gksrhA ikSÌs dh tM+sa Bhd
<ax ls QSyrh gSa vkSj ikSÓs dks
T;knk iksÔd rRo çkIr gksrs gSa ftlls
ikS/ks l’kDr ,oa vf/kd mRiknu gksrk
gSAÂ
• [kjirokj dks feV~Vh esa
feykuk & ohMj dhenn ls fujkÃ
djus ij Â[kjirokj Â[kkn esa cny
tkrh gS ,oa ikS/ks ds fy, iks"k.k
dk dke djrh gSA bl çfØ;k ls
ikS/kksa dh tM+ksa esa gok dk
vkokxeu T;knk gksrk gS ftlls
tM+sa rsth ls QSyrh gSaA
• tSfod Â[kkn dk mi;ksx & tSfod
Â[kkn ds ç;ksx ls Òwfe esa gok
dk vkokxeu ,oa lw{e thok.kqvks
dh la[;k esa o`f) gksrh gS tks
dkcZfud inkFkksZ dks iks"kd
rRo esa cnyus esa enn djrs
gSa ftlls ikS/kksa dk fodkl vPNk
gksrk gSA
4. ,l- vkj- vkÃ- ds fl)kUr
de cht dh vkoÓ;d rk & bl fofÌ esa
ikSÌ Ókyk esa
cht ls cht dks vfÌ d nwjh ij cks;k tkrk gS
ftlls
cht dh Âir de gksrh gSA
de ikuh dh vkoÓ;drk & bl fofÌ esa Âsr
esa ikuh
Òjdj ugha jÂrsA Âsr dÒh lwÂk o dÒh ue jÂuk
iM+rk gSA blfy, ikuh dh de vkoÓ;drk gksrh
gSA
de mez ds ikSÌ ksa dk jksiÆ& 8-12 fnu ds
ikSÌ ksa dk jksiÆ
de xgjkÃij fd;k tkrk gS ftlls ikSÌ ksa esa
tM+sa o u;s
dYys vfÌ d la[;k esa ,oa de le; esa fudyrs gSa vkSj
iSnkokj vfÌ d gksrh gSA
vfÌ d nwjh ij ikSÌ jksiÆ& ikSÌ s ls ikSÌ s
dh nwjh de ls
de 25 ls-eh- ¼vfÌ dre 50 ls-eh-½gksus ls
lw;Z dk çdkÓ
çR;sd ikSÌ s rd vklkuh ls igq¡ prk gS ftlls
ikSÌ ksa esa ikuh]
LÉku ,oa iksÔÆds fy, çfrLi)kZ ugha
gksrhA ikSÌ s dh tM+sa
Bhd <ax ls QSyrh gSa vkSj ikSÌ s dks T;knk iksÔd rRo çkIr
gksrs gSa ftlls ikSÌ s LoLÉ,oa vfÌ d mRiknu gksrk gSA
5. Âjirokj dks feV~Vh esa feykuk & ohMj dh enn ls fujkÃdjus
ij Âjirokj Âkn esa cnytkrh gS ,oa ikSÌ s ds fy, iksÔÆdk dke
djrhgSA bl çfØ;k ls ikSÌ ksa dh tM+ksa esa
gok dk
vkokxeu T;knk gksrk gS ftlls tM+sa rsth
ls
QSyrh gSaA
tSfod Âkn dk mi;ksx & tSfod Âkn ds
ç;ksxls Òwfe esa gok dk vkokxeu ,oa lw{e
thokÆqvksa dhla[;k esa o`f) gksrh gS tks
dkcZfud inkÉksZa dks iksÔÆesa cnyus esa enn djrs gSa ftlls
ikSÌ ksa dk fodkl
vPNk gksrk gSA
jksx o dhVksa dk tSfod
fu;a=Æ&
,l- vkj-vkÃ-fofÌ esa ikSÌ ksa
dk jksiÆvfÌ d nwjh ij djus ls
lw;Z dk çdkÓ o gok mfpr ek=k
esafeyrh gS ftlls jksx o
dhVksa dk çdksi de gksrk
gSA ;fn jksx o dhVksa dk çdksi gksrk gS rks tSfod i)fr }kjk
mldk funku fd;k tkrk gSA
,l- vkj- vkÃ- o ijEijkxr fofÌ dh rqyuk
,l- vkj- vkÃ- ijEijkxr fofÌ
ulZjh esa D;kjh cukdj vadqfjr
cht dk
fNM+dko fd;k tkrk gS o de ikuh
yxrk gSA
ulZjh esa lhÌ s cht dk fNM+dko
fd;k tkrk gS
o vfÌ d ikuh yxrk gSA
de cht dh vkoÓ;drk ¼çfr gS- 5
fd-xzk-½
gksrh gSA
vfÌ d cht dh vkoÓ;drk ¼çfr gS-
35 ls 40
fd-xzk-½gksrh gSA
8&12 fnu ds ikSÌ dk jksiÆfd;k
tkrk gSA
25&35 fnu ds ikSÌ dk jksiÆfd;k
tkrk gSA
ikSÌ s ls ikSÌ s o iafDr ls iafDr ikSÌ s ls ikSÌ s o iafDr ls iafDr
6. dh nwjh 10 bap
rd jÂrs gSaA
dh nwjh dksÃ
fufÓpr ugha gSA
Âsr dks Ì ku esa ckyh vkus rd
ckjh&ckjh ls
ue ,oa lwÂk jÂk tkrk gSA
blesa vfÌ dkaÓ le; ikuh Òjdj jÂrs
gSA
Âjirokj fu;a=ÆohMj eÓhu ds
}kjkA
Âjirokj fu;a=ÆgkÉls djrs
gSaA
de ikuh dh vkoÓ;d’rk ¼1&3 ls-
eh- ckfy;ka
fudyrs le;½A
vfÌ d ikuh dh vkoÓ;d rk
¼vfÌ dkaÓ le; 3-
5 ls-eh- ikuh Òjk jÂrs gSa½A
,l- vkj- vkÃ- ds pj.k
1- mfpr Òwfe dk p;u 2- Âsr dk leryhdjÆ3- Òwfe dh xqÆoÙkk esa
o`f) djuk
4- cht dk p;u 5- ulZjh dh rS;kjh 6- cht cqvkÃ
7- [ksr dh rS;kjh 8- ikSÌ jksiÆ9- [kjirokj fu;a=-k
10- flapkÃo ty çcUÌ u 11- dYyksa dk fudyuk 12- jksx o dhV çcUÌ u
13- dVkÃ
mfpr Òwfe dk p;u
bl fofÌ ds fy, vPNh ty fudkl okyh nkseV feV~Vh mi;qDr gksrh gSA
vEyh; o Õkjh; Òwfe
esa bldh Âsrh ugha djuh pkfg,A blds fy, mi;qDr ih- ,p- eku 5-5
ls 7-5 rd gSA Òkjh o dkyh feV~Vh okys Âsr esa ohMj pykus esa
ÉksM+h leL;k gksrh gSA
Âsr dk leryhdjÆ
Âsr dks iwÆZ :i ls lery fd;k tkuk t:jh gS rkfd iwjs Âsr esa ,d
leku flapkÃnh tk
lds vkSj dgha Òh vuko;d ikuh u tek gksA ;fn Âsr esa dgha T;knk
ikuh tek gksxk rks jksis x;s
ikSÌ s NksVs gksus ds dkjÆmuds ejus dh lEÒkouk c<+ tk,xh vkSj
tM+ksa dk fodkl vPNk ugha gksxk
ftlls çfr ikSÌ k dYyksa dh la[;k de gks tk;sxkA
Òwfe dh xqÆoÙkk esa o`f)
bl fofÌ esa tSfod rjhds ls Âsrh djus ij tksj fn;k tkrk gSA Òwfe
dh mRikndrk esa o`f) djus ds
rhu mik; uhps fn, x, gSa %
7. ¼d½dEiksLV dh Âkn & vPNh lM+h gq;h Âkn 15 Vu çfr gSDVs;j ds
fglkc ls ¼8 Vªkyh çfr
gSDVs;j½Mkyuk vkoÓ;d gSA ;fn xkscj dh Âkn ds lkÉoehZ
dEiksLV] ukMsi dEiksLV ;fn miyCÌ gksrks nksuksa dks feykdj
mi;ksx djuk pkfg,A bldslkÉ iapxO; o ve`r ty dk mi;ksx fd;k tkrk
gSA çÉe] f}rh; o r`rh; ohfMax ds iÓpkr iapxO; o ve`r ty dk ç;ksx
Øeokj djuk pkfg, ftlls Òwfe esa lw{e cSDVhfj;k dh la[;k esa o`f)
gksrh gS ftlls Òwfe dh mRikndrk vkSj
mRiknu esa o`f) gksrh gSA
¼Â½gjh Âkn & Âsr esa Ì ku dh jksikÃls nks ekg iwoZ Âsr dh
tqrkÃdjds luà ( Sunhemp ½] <sapk¼Sesbaniaa½dh cqvkÃdjuh
pkfg,A 35 ls 45 fnu iÓpkr] gjh Qly dks Âsr dh tqrkÃdjds feV~Vh
esa nck nsrs gSa ftlls Òwfe esa thokÆqvksa dh la[;k esa o`f)
gksrh gSA blls Òwfe esa ukbVªkstu fLÉjhdjÆdjus okys thokÆq
ok;q e.My ls ukbVªkstu ysdj tM+ksa esa laxzfgr dj ldrs gSaA
cht dk p;u
vPNs cht ds p;u gsrq cht dks pkSM+s eq¡ g okys crZu esa ikuh
esa Mkyk tkrk gSA tks cht Åij rSjrs gSa] mUgsa fudky nsrs
gSaA blds ckn ikuh esa 12&24 ÄaVs rd cht dks fHkxksdj
vadqj.k ds fy, 24 ls 48 ?kaVs rd VkV ds cksjs esa cka/k dj
jÂk tkrk gSA cksjh ij fnu esa rhu ckj ikuh dk fNM+dko fd;k
tkuk pkfg,A ;fn ekSle B.Mk gS rks gYdk xeZ ikuh dk mi;ksx djrs
gSaA tc cht ds Åijh fljs ij gYds lQsn jax ds vadqj fnÂk;h nsus
yxrs gSa rc cht D;kjh esa cksus ds fy, mi;qDr gksrk gSA
ulZZjh dh rSS;kjh
ulZjh cukus esa cgqr lkoÌ kuh cjruh pkfg,A bl fofÌ esa 8&12
fnu ds ikSÌ ksa dk jksiÆfd;k
tkrk gSA ,d gSDVs;j Ì ku ds Õs=Qy ds fy, 100 oxZehVj ulZjh Õs= o
5 fdyksxzke cht dh
vkoÓ;d’rk gksrh gSAulZjh ds D;kjh cukrs le; bl ckr dk /;ku
jÂuk pkfg, fd D;kjh Âsr ds e/; ;k dksus esa cukÃtk; tgk¡ ikSÌ k
jksiÆdjuk gSA D;kjh dh yEckbZ 125 ls-eh- ls T;knk ugha gksuh
pkfg;sA yEckbZ fLFkfr ds vuqlkj o cSM dh Å¡ pkbZ vk/kkj ry ls 6
bap gksuh pkfg;sA
1- izFke ijr & 1 bap xkscj dh vPNh [kkn
2- f}rh; ijr & 1-5 bap ckjhd feV~Vh
3- r`rh; ijr & 1 bap lM+h xkscj dh [kkn
4- pkSFkh ijr & 2-5 bap ckjhd feV~Vh
5- efYpax & 3&4 fnu rd
lÒh ijrksa dks vPNh rjg feyk nsuk pkfg,A bl i)fr ls ikSÌ ksa dh
tM+ksa dks fudyus esa vklkuh gksrh gSA
8. cht cqqvkÃ
ulZjh ds D;kjh esa vadqfjr cht dk fNM+dko djus ls igys pkj
Òkxksa esa ckaV fy;k tkrk gSA
çÉe Òkx ds cht dk fNM+dko nwj&nwj fd;k tkrk gSA cht ls cht
dh nwjh bruh gksrh gS fd mlesa ,d cht dk LÉku NwV tk;A
nwljs Òkx ds cht cksrs le; ftl txg de cht iM+rk gS] ogk¡ ij
nsÂdj cqvkÃfd;k tkuk pkfg,A
rhljk Òkx pkjksa fdukjksa ij Bhd <ax ls cksuk pkfg,A
pkSÉk Òkx] tgk¡ ij cht ugha gS] ogk¡ ij cks;k tkuk pkfg,A
cht pkj Òkxksa esa blfy, ckaVrs gSa fd bl fofÌ esa de cht
dh vkoÓ;d’rk gksrh gSA ikSÌ k jksiÆds le;,d&,d ikSÌ s dks
cht lfgr ulZjh esa vyx djds feV~Vh lfgr jksik tkrk gS blfy,
ulZjh esa cht cksrs le; cht ls cht dh mfpr nwjh jÂuh vkoÓ;d
gSA
cht cqvkÃds iÓpkr vPNk lM+k gqvk Âkn ;k Ì ku dk iqvky D;kjh ds
Åij iryh ijr esa fcNk nsuk pkfg,A cht dks lhÌ h Ì wi] fpfM+;ksa
vkSj phafV;ksa ls lqjÕk djuk pkfg,A tc nks ;k rhu fnu esa cht
vadqjÆgks tk; rks iqvky dks gVk nsuk pkfg, o lqcg&Óke çfrfnu
flapkÃdjuh pkfg,A flapkÃdjrs le; ;g lkoÌ kuh cjruh pkfg, fd cht
feV~Vh ds ckgj u fudy tk;A
Âsr dh rSS;kjh
bl fofÌ esa ijEijkxr fof/k ds leku gh [ksr dh rS;kjh dh tkrh gS]
ysfdu [ksr dks lery djuk vko';d gSA ikS/k jksi.k ds 12 ls 24
?kaVs iwoZ [ksr dh rS;kjh djds ,d ls rhu lseh-
ls T;knk ikuh [ksr esa ugha jÂuk pkfg,A
ekdZj
ikS/k jksi.k ls iwoZ Âsr esa ekdZj ls 10˜ 10 bap dh nwjh ij
fu'kku yxk fn;k tkrk gSA ikSÌ ksa ds
chp mfpr nwjh jÂus ds fy, fuÓku cukrs le; Óq: esa ,d jLlh yxkdj
lhÌ h ykbu cuk fy;k
tkrk gSA blls fuÓku cukus esa vklkuh gksrh gSAfuÓku yxkus dk
dk;Z ikSÌ jksiÆls 6 Ä.Vs iwoZ dj
ysuk pkfg,A
ikSSÌ jksiÆ
bl fofÌ esa 8&12 fnu ds ikS/ks dk jksi.k fd;k tkrk gS] tc ikS/ks
esa nks iÙkh fudy vk;sA ulZjh ls ikSÌ ksa dks fudkyrs le; bl ckr
dh lkoÌ kuh jÂuh pkfg, fd ikSÌ ksa ds rus o tM+ ds lkÉ
yxk cht u VwVs o ,d&,d ikSÌ k vklkuh ls vyx djuk pkfg,A ikSÌ k
jksiÆds le; gkÉds v¡ xwBs ,oa orZuh vaxqyh ¼Index Finger½dk
ç;ksx djuk pkfg,A
9. Âsr esa Mkys x;s fu'kku dh izR;sd pkSdM+h ij ,d ikS/kk jksik
tkuk pkfg,A ikSÌ jksiÆds le; ,d O;fDr dsoy Øeokj pkj iafDr;ksa
esa gh ikSÌ s jksirs gSaA ikSÌ jksiÆds vxys fnu gYdh flapkÃ
djuh pkfg,A
,d gSDVs;j esa ikSÌ jksiÆds fy, çÉe oÔZ 25&30 O;fDr;ksa dh
vkoÓ;drk gksrh gSA ckn ds
oÔksZa esa ikSÌ jksiÆds fy, bl fofÌ dk vH;Lr gks tkus ij ;g la[;k
de gks tkrh gSA
ikSÌ jksiÆgsrq lkoÌ kfu;ka
tM+ksa o cht dks uqdlku igq¡ pk;sa fcuk ikS/kk jksisaA
yxkus ds igys ,d&,d ikS/kk vyx dj ysaA
ulZjh ls fudkys ikS/ks dh fcuk feV~Vh /kks;s yxk;saA
/kku ds cht lfgr ikS/ks dks T;knk xgjkbZ ij jksiÆu djsaA
Âjirokj fu;a=Æ
ikS/k jksi.k ds i'pkr~ 10osa fnu esa ohMj pykuk pkfg,] nwljh
ckj 20osa fnu ij vkSj rhljh ckj
30osa fnu ohMj pykuk pkfg,A A D;ksfd ohMj pykus ls Âsr dh
feV~Vh iksyh gks tkrh gS vkSj mlesa gok dk vkokxeu T;knk
gksrk gSA blds vfrfjDr Âsrksa esa ikuh u Òjus nsus dh fLÉfr
esa Âjirokj mxus dks mi;qDr okrkojÆfeyrk gSA
ohMj eÓhu pykus ds ykÒ
Âjirokj dh jksdÉkeA
feV~Vh esa Âjirokj feykus ls gjh Âkn dhmiyCÌ rkA
ikSÌ ksa dh tM+ksa dks i;kZIr gok o ikSÌ ksa dksçdkÓ feyrk
gSA
feV~Vh esa thokÆqvksa dh fØ;k esa o`f)A
ikSÌ ksa dks vfÌ d ek=k esa iksÔÆfeyrk gSA
flapkÃ,oa ty çcUÌ u
flapkà dk vUrjky Òwfe ds çdkj ,oa oÔkZ ds vuqlkj r; djuk pkfg,A
tc tehu esa gYdh lh njkj fnÂk;h ns]rÒh flapkà djuh pkfg,A Âsr
esa ikSÌ jksiÆds ckn i;kZIr ueh cuh jgs] bruh flapkà djuh pkfg,
Âsr esa ikuh Òj dj jÂus dh vkoÓ;drk ugha gksrh gSA ohMj pykrs
le; 1&3 ls-eh ikuhdh vko';drk gksrh gSA ohMj eÓhu pykus ds ckn
Âsr dk ikuh] Âsr ls ckgj ugha fudkyuk pkfg,Ackfy;ka fudyus ls
ysdj nkus cuus rd 1 bap ikuh Òj dj 20&25 fnu rd jÂuk
pkfg,AdVkbZ ls 20&25 fnu iwoZ flapkbZ cUn dj nsuh pkfg;sA
dYyksa ¼Tillerss½dk fudyuk
18 ls 45 fnu ds chp /kku ds ikS/ks ls lcls T;knk dYys fudyrs
gSa D;ksafd bl le; ikS/kksa dks /kwi]gok o ikuh i;kZIr ek=k esa
feyrk gSA vuqÒoksa ds vkÌ kjij tgk¡ dsoy ,d ckj gh ohMj dk
mi;ksx fd;k x;k gS]ogk¡ ,d ikS/ks ls dYyksa dh la[;k 15&25 rd
10. çkIr gqà gSArhu ckj ohMj dk mi;ksx djus ij ,d ikS/ks ls vfÌ dre
80 rd Òh dYys fudyrs gS A
jksx o dhV çcUÌ u
bl fofÌ esa jksx o dhVksa dk çdksi çk;% de gksrk gS AD;ksafd
ikSÌ s ls ikSÌ s dh nwjh T;knk gksrh gS vkSj tSfod Âkn dk mi;ksx
fd;k tkrk gSA dhV çcUÌ u ds fy, çkd`frd rjhdksa o tSfod dhVukÓd
bLrseky fd;k tkuk pkfg,A
dVkbZ
tc ikS/kksa dh dVkbZ dh tkrh gS rks ikS/ks dk ruk gjk jgrk gS
tcfd ckfy;k¡ id tkrh gSaA ckfy;ksa dh yEckbZ o nkuksa dk otu
ijEijkxr fof/k dh vis{kk T;knk gksrk gSA ckfy;ksa esa [kkyh
nkuksa dh la[;kde gksrh gS rÉk nkus tYnh ugha >M+rsA
,l- vkj- vkÃ- rduhd }kjk lQyrkiwoZd Âsrh djus ds fy,
eq[; :i ls fuEu foUnqvksa ij /;ku nsuk t:jh
1- vEyh; o {kkjh; Hkwfe esa bldh [ksrh lQyrk iwodZ ugh dh tk
ldrh gSa A
2- [ksrh dk leryhdj-k djuk vko';d gSa A
3- LoLFk o iw-kZr% vadqfjr gksus okys cht gh ulZjh esa
cks;as A
4- ulZjh esa fujkbZ djuk vko';d gSa A
5- ty fudklh dk mfpr izcU/ku gksuk pkfg;s A
6- cht lfgr o fcuk feV~Vh /kks;s ikS/ks dk jksi.k djuk pkfg;sA
7- 8&12 fnu ds ikS/ksa dk jksi.k djuk vko';d gS A
8- fu'kku ds pkSdksj [kkus ij gh ikS/kkjksi.k djuk pkfg;s A
9- ekdZj ls fu'kku yxkus ls iwoZ [ksr esa 1-2 bap ls ikuh Hkjdj
NksM+ nsuk pkfg;s A
10- ikS/kkjksi.k ds ckn 10 fnu] 20 o 30osa fnu ohMj e'khu
pykuk vko';d gSA
11- ohMj e'khu pykus ds ckn ikS/ks ds vkl&ikl ykbZu esa ls
[kjirokj dks gkFk ls fudkyuk
12- ,d O;fDr dks pkj ykbZu ysdj gh ikS/kkjksi.k dk dk;Z djuk
pkfg,A
fcgkj ds 20 fdlkuksa ds vuqÒoksa ds vk/kkj ij ,l-vkj-
vkbZ- o ijEijkxr fof/k ds rqyukRed urhts
dz Ekkud ijEijkxr
fof/k
,l-vkj-vkÃ