इस्लाम धर्मः इस पुस्तक में इस्लाम धर्म के आचार-विचार, उसके मूल सिद्धांत, उपासना, इस्लामी जीवन-व्यवस्था आदि का तर्क और तत्वदर्शिता सहित विस्तृत परिचय प्रस्तुत किया गया है। इस्लाम क्या है? उसकी वास्तविकता क्या है? कुफ्र की वास्तविकता क्या है? कुफ्र की हानियाँ और इस्लाम के लाभ क्या हैं? ईश्दूतत्व की वास्तविकता, उसकी आवश्यकता, ईश्दूतों का संछिप्त इतिहास, मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का ईश्दूतत्व और उसके प्रमाण, ईशदूतत्व का अंत और उसके प्रमाण, ईमान के मूल स्तंभों का विस्तृत वर्णन, इस्लाम में उपासना का अर्थ, उसका महत्व और अनिवार्य इबालतें, इस्लामी धर्म-शास्त्र, उसके सिद्धांत, इस्लामी शरीअता की विश्वव्यापकता और सर्वकालिकता इत्यादि - इस पुस्तक के मूल शीर्षक हैं।
कल्याण सिंह: व्यक्तित्व एवं विचार Kalyaan Singh: Vyaktitv evam Vichar - Book ...Baleshwar Tyagi
Kalyaan Singh: Vyaktitv evam Vichar: a book by Baleshwar Tyagi, Ex-MLA of Ghaziabad city and multi-term Minister of UP Government
पुस्तक का नाम: कल्याण सिंह: व्यक्तित्व एवं विचार
लेखक: श्री बालेश्वर त्यागी (गाजियाबाद शहर के भूतपूर्व विधायक एवं उत्तर प्रदेश सरकार में कई बार मन्त्री रहे।)
Kalyaan Singh: Vyaktitv evam Vichar - Book by Baleshwar Tyagi | कल्याण सिंह: ...Baleshwar Tyagi
Kalyaan Singh: Vyaktitv evam Vichar: a book by Baleshwar Tyagi, Ex-MLA of Ghaziabad city and multi-term Minister of UP Government
पुस्तक का नाम: कल्याण सिंह: व्यक्तित्व एवं विचार
लेखक: श्री बालेश्वर त्यागी (गाजियाबाद शहर के भूतपूर्व विधायक एवं उत्तर प्रदेश सरकार में कई बार मन्त्री रहे।)
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लेखक: श्री बालेश्वर त्यागी (गाजियाबाद शहर के भूतपूर्व विधायक एवं उत्तर प्रदेश सरकार में कई बार मन्त्री रहे।)
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Ontologia dell’opera d’arte mah…essere per la salvezza dell’essere significa essere per la salvezza dell’arte? E l’opera d’arte aiuterà l’essere a salvarsi? Mah… solo l’opera d’arte ci può salvare? E solo l’arte salverà l’essere o il mito ontoteologico della salvezza della mondità? Solo l’arte ci potrà salvare? Solo il mito dell’opera d’arte può salvare il mito delle muse della poiesis o dell’ontopoiesis? Ma l’arte è anche la salvezza del musagete, quale essere divinità che si dà all’arte o dà all’arte la fondatezza del mito? O che disvela con l’arte l’ontologia ontopoietica dell’opera dell’esser-arte-nella mondità come nella mondanità, o esser-arte-per-la-morte dell’arte…  Già nelle origini della ermeneutica poetica la mimesis disvela la fondatezza della physis: aldilà della classicità simulativa, imitativa, clonante, tautologica, la mimesis quale apprensività attraverso lo sguardo, cattura con la vista, con gli occhi l’essere che si disvela nella sua physis. E’ l’esserci che com-prende contemplando l’eventuarsi della physis dell’essere, della natura dell’essere, dell’essere-nella-mondità. E’ la mimesis del disvelarsi dell’essere poetante…o l’ontologia dell’icona della physis quale ontologia dell’ikona dell’essere nel mondo. O l’ontologia della temporalità della physis che si disvela nel mondo quale spazialità immaginaria nella radura immaginaria ove s’eventua quale opera d’arte immaginaria… anzi l’ontologia fluttuante dell’essenza dell’essere poetante dà senso e dà alla luce la physis, non la imita o la modella o la ricorda, la divela quand’era abbandonata nell’oblio dalla fuga precipitosa degli dei epistemici, mitici, tecnici, ontoteologici quali il deus ex machina, la macchina poetica aristotelica. E’ indispensabile intraprendere gli studi e le ricerche dell’ontologia dell’opera d’arte, giacchè nel nuovo millennio tutte le configurazioni del sapere epistemico, ma anche le ontologie ermeneutiche, hanno evidenziato i propri confini aldiqua dell’essere-opera-d’arte, per concentrarsi solo sull’ontica, sulle entità narrate o sulle superentità ontoteologiche. L’epistemica dell’opera d’arte si è confinata nella sua ortogonalità calcolante, l’interpretanza ermeneutica ed intenzionale non si cura di offrire una fondatezza né alla nuova epistemica, né alla matesis virtuale, né alla physis immaginaria, né alla temporalità ontologica, men che mai dà fondamenta stabili alla struttura ontologica dell’opera d’arte. Solo il pensiero della disvelatezza resiste, o persiste nella sua re-esistenza, sostenuto dalla sua struttura ontologica fondata sull’essenza dell’essere-opera-d’arte-nel-mondo-per-la-morte. Ma la sua origine, o originalità o singolarità, non dispiega la sua pregnanza oltre la soglia del pensiero poetante che contempla poeticamente l’opera d’arte o la interpreta infinitamente nella temporalità kairos-logica più tosto che cronologica. Per raggiungere anche i sentieri interrotti della physis poetante dell’opera d’arte e quindi anche la fondatezza non tecnica della teknè, o il fondamento non epistemico dell’epistemica, la physis dell’opera d’arte si dovrà eventuare nella struttura ontologica dell’essere animati, aldilà dall’essere solo opera inanimata, per gettare le fondamenta nella radura, nel vuoto quantico epistemico, della topologia fluttuante dell’essere opera d’arte che si dà alla mondità per inter-essere o inter-esserci opera d’arte dell’essere animato che getta quale icona dell’essere-nel-mondo-della-morte-dell’arte. Può l’ontolgia dell’opera d’arte raccogliere gli eventi gettati nel sentiero dell’essere ed intraprendere la biforcazione dell’oltre che conduce alla radura, alla spazialità topologica sgombra dalle temporalità epistemiche o anche ermeneutiche, per approdare alla libera luce senza fondo, senz
1
Paolo Parrini
La scienza come ragione pensante1
Dice Heidegger alla fine del saggio del 1943 dedicato a “La parola di Nietzsche „Dio è
morto‟”: “Il folle [ossia chi proclama la morte di Dio] … è colui che cerca Dio gridando „Dio‟ a
gran voce. Forse un pensante ha realmente gridato qui de profundis? E l‟orecchio del nostro
pensiero? Il grido continuerà a non essere udito finché non si inizierà a pensare. Ma il pensiero
inizierà solo quando avremo esperito che la ragione, glorificata da secoli, è la più accanita
avversaria del pensiero” ([2: vol. 5, p. 267 = p. 246 sg.] = [6, p. 315 sg.]; cfr. [5, p. 245 sg.]).
Compare in queste parole, in maniera particolarmente nitida, una contrapposizione fra
pensiero e ragione che, in vario modo, caratterizza l‟itinerario intellettuale di Heidegger ed acquista
maggiore forza dopo la svolta avvenuta negli anni immediatamente successivi al quinquennio 1927-
1932 - un quinquennio di importanza cruciale in cui si collocano, in rapida successione, la
pubblicazione di Essere e tempo e di Kant e il problema della metafisica (rispettivamente 1927 e
1929), l‟ormai famoso incontro di Davos con Cassirer e Carnap (1929) e l'attacco mosso dallo
stesso Carnap alla filosofia heideggeriana nel saggio Il superamento della metafisica attraverso
l’analisi logica del linguaggio (1932). La contrapposizione vede, da un lato, un pensiero pensante,
che sembra essere appannaggio della filosofia speculativa e, dall‟altro, una ragione che sembra
esaurire l‟attività intellettuale della scienza e della razionalità scientifica, confinate entrambe
nell‟ambito algoritmico o calcolistico delle procedure formali e astratte della logica, della
matematica e delle discipline esatte in generale. È da tale antitesi che maturano le considerazioni
heideggeriane sulla scienza e sulla tecnica esposte nelle lezioni dei primi anni Cinquanta su Che
cosa significa pensare, lezioni nelle quali compare la famosa (e per alcuni famigerata) frase che “la
scienza non pensa” ([2: vol. 8, p. 9] = [7, p. 41]).
È stato osservato che, esprimendo questo giudizio, Heidegger intendeva non tanto criticare la
scienza, quanto piuttosto indicare e circoscrivere l‟ambito in cui essa consapevolmente e
metodicamente si muove. Per il filosofo tedesco, cioè, sarebbe la scienza stessa a porsi il compito di
indagare qualcosa che essa assume come oggetto senza metterlo in questione come tale. La fisica,
per esempio, si occuperebbe a livello ontico della natura di certi enti (o essenti), ma non si porrebbe
la questione ontologica del modo d‟essere che compete a quegli enti e che va loro riconosciuto. La
1 Lectio magistralis tenuta a Firenze il 15 Novembre 2008, nella Sala Gonfalone del Consiglio Regionale della
Toscana, in occasione della consegna del Premio Giulio Preti 2008. Il testo è apparso nel volume Pianeta Galileo
2008, a cura di Alberto Peruzzi, Centro Stampa del Consiglio Regionale della Toscana, Firenze, 2009, pp. 235-242.
2
scienza dunque non pensa, perché il compito peculiare del pensiero sarebbe proprio quello di
andare al di là del procedere metodico sia della scienza in generale sia di qualunque disciplina
particolare per portare alla luce e mettere in questione i presupposti, accettati per lo più come ovvi e
scontati, che ne stanno alla base.
Può essere superfluo precisare che chi vi parla, e che ha avuto l‟onore di ricevere il premio
intitolato al suo maestro Giulio Preti, non può che muoversi in un orizzonte di idee assai diverso da
quello heideggeriano. Ma proprio la lezione di Preti invita ad assumere nei confronti del filosofo
Heidegger (e sottolineo la parola “filosofo” per indicare che non intendo parlare dell‟uomo
Heidegger e, tanto meno, del rettore Heidegger!) una posizione più cauta e in qualche modo più
articolata di quella che in genere è stata presa, soprattutto da noi, tanto dai suoi detrattori quanto dai
suoi estimatori. Io credo certamente - come risulterà ch
1) A new cosmological model is proposed where the universe is spontaneously created from nothing via quantum tunneling into a de Sitter space.
2) After tunneling, the model evolves according to the inflationary scenario, avoiding the big bang singularity and not requiring initial conditions.
3) The model suggests that the universe was created via quantum tunneling from a state of literally nothing into a de Sitter space, which then evolved into the expanding universe we observe according to known physics.
This document discusses recent work in cosmology that attempts to explain the Big Bang itself using insights from particle physics. Some physicists argue that the notion of "quantum tunneling from nothing," which accounts for the emergence of subatomic particles from a vacuum, can provide an explanation for the creation of the universe from nothing. However, in examining apparent theological and philosophical implications, we must carefully understand different senses of "nothing" and the "origin of the universe," as well as the distinction between creation and change. Creation is a metaphysical and theological concept beyond the realm of natural sciences.
This document provides a translator's introduction and translations of three texts by Martin Heidegger: "What is Metaphysics?" (1929), a postscript to that work from 1949, and an introduction Heidegger wrote for the lecture in 1949 called "Getting to the Bottom of Metaphysics." The introduction discusses translating Heidegger into English and presents the three texts in chronological order of their composition rather than logical order. It explores Heidegger's use of language and ambiguity in addressing fundamental questions about the nature and ground of metaphysics.